कि प्रभु यीशु ने हमारे लिए सलीब पर जान दी, उन्होंने हमें पापों से छुड़ाया, और हमारे पापों को क्षमा किया, भले ही हमारा पाप करना जारी है और हमारा अभी शुद्ध होना बाकी है, प्रभु ने हमारे सभी पापों को क्षमा कर हमारी आस्था के ज़रिये हमें न्यायपूर्ण बना दिया है। मुझे लगा कि प्रभु के लिये सबकुछ त्याग करने, यातना सहन करने और कीमत अदा करने की हमारी इच्छा, हमें स्वर्ग के राज्य में प्रवेश दिलाएगी। मुझे लगा, हमारे लिये यही प्रभु की प्रतिज्ञा है। लेकिन कुछ लोगो ने इस पर सवाल उठाया है। उनके अनुसार, चाहे हमने प्रभु के लिए श्रम किया, हम अभी भी पाप करके उन्हें स्वीकार करते हैं, इसलिए हम अभी तक अशुद्ध हैं। उनके अनुसार प्रभु पवित्र हैं, इसलिए अपवित्र लोग उनसे नहीं मिल सकते। मेरा सवाल है: हम लोगों ने प्रभु के लिए अपना सब-कुछ बलिदान कर दिया, क्या हमें स्वर्ग के राज्य में ले जाया जा सकता है? दरअसल हमें इस सवाल का उत्तर नहीं पता, इसलिए हम चाहते हैं कि आप हमें इस बारे में बताएँ।
उत्तर: प्रभु के सभी विश्वासियों का मानना है: प्रभु यीशु ने सलीब पर दम तोड़कर हमें मुक्ति दिला दी, तभी हम सभी पापों से मुक्त हुए हैं प्रभु हमें पापी नहीं मानते। हम अपने, विश्वास के ज़रिये धर्मी बन गए हैं। अगर हम अंत तक सहन करते रहे तो हम बचा लिये जाएँगे। जब प्रभु आएँगे, तो वे सीधे ही हमें स्वर्ग के राज्य में आरोहित कर देंगे। तो क्या ये वाकई सच है? क्या परमेश्वर ने इस दावे के समर्थन में अपने वचनों में कभी कोई सबूत दिया है? यदि यह दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप न हो तो इसके परिणाम क्या होंगे? हम प्रभु के विश्वासियों को हर बात के लिये, अपने आधार के रूप में उनके वचनों का उपयोग करना चाहिए। यह प्रभु की वापसी को किस तरह से लिया जाए, इस सवाल पर ज्यादा सही है। हम उनकी वापसी के साथ मनुष्य की कल्पनानुसार व्यवहार नहीं कर सकते। इसके नतीजे इतने गंभीर हैं कि हम सोच भी नहीं सकते। ये वैसा है जब फरीसियों ने प्रभु यीशु को सलीब पर चढ़ा दिया और मसीहा के आने का इंतजार करते रहे। इसका परिणाम आखिर क्या होगा? प्रभु यीशु ने मानवजाति को मुक्त करने का कार्य पूरा कर लिया है। इतना तो सच है, लेकिन क्या परमेश्वर द्वारा मानवजाति की मुक्ति का कार्य समाप्त हो गया है? हम सभी, प्रभु यीशु के विश्वासी स्वर्ग के राज्य में आरोहित किये जाने योग्य हैं? इस सवाल का जवाब कोई नहीं जानता है। एक बार परमेश्वर ने कहा, "जो मुझ से, 'हे प्रभु! हे प्रभु!' कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है" (मत्ती 7:21)। "इसलिये तुम पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ" (लैव्यव्यवस्था 11:45)। परमेश्वर के वचनों के अनुसार, हम आश्वस्त हो सकते हैं कि स्वर्गीय राज्य में, प्रवेश करने वाले लोगों ने खुद को, पाप मुक्त कर शुद्ध कर लिया है। ये वे हैं जो परमेश्वर की इच्छा पूरी करते हैं उनकी आज्ञा मान, उनसे प्रेम करते हैं। क्योंकि परमेश्वर पवित्र हैं और जो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करते हैं वे उनके साथ रहेंगे, अगर हम शुद्ध नहीं किये गए हैं तो हम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के योग्य कैसे हो सकते हैं? इसलिए, हमारी ये धारणा कि हम विश्वासियों को पाप से मुक्त कर दिया गया है और हम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं, परमेश्वर की इच्छा को गलत समझना है। ये काल्पनिक इंसानी विचार है। प्रभु यीशु ने हमें पाप से मुक्त किया; यह गलत नहीं है। हालांकि, प्रभु यीशु ने कभी ऐसा नहीं कहा कि हम शुद्ध कर दिये गए हैं, और अब स्वर्ग के राज्य में, प्रवेश करने के योग्य हो गए हैं। इस सच से कोई इंकार नहीं कर सकता है। तो सभी आस्थावान क्यों सोचते हैं कि पाप मुक्त किए गए लोग स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं? उनके पास क्या प्रमाण है? उनके इस दावे का आधार क्या है? बहुत से लोग कहते हैं कि वे बाइबल में लिखे पौलुस और अन्य प्रेरितों के वचनों को अपना आधार मानते हैं। मैं आपसे पूछती हूँ, क्या पौलुस और अन्य प्रेरितों के शब्द प्रभु यीशु के वचनों का प्रतिनिधित्व करते हैं? वे पवित्र आत्मा के वचनों का प्रतिनिधित्व करते हैं? बाइबल में इंसान के शब्द हो सकते हैं लेकिन, क्या इसका मतलब ये है कि वे परमेश्वर के वचन हैं? एक सच्चाई है जिसे हम बाइबल में साफ़ तौर पर देख सकते हैं: परमेश्वर जिनकी प्रशंसा करते हैं, वे लोग उनके वचन सुन सकते हैं और उनके कार्य को मानते हैं। वही लोग उनके मार्ग का पालन करते हैं, वही परमेश्वर के दिये गए वचन की विरासत को पाने के योग्य हैं। यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे कोई नकार नहीं सकता। हम सभी जानते हैं कि भले ही हम आस्थावानों के पापों को क्षमा कर दिया गया हो, लेकिन हम अभी भी अशुद्ध हैं और पाप करते हैं और अक्सर परमेश्वर का विरोध करते हैं। परमेश्वर ने हम से स्पष्ट रूप से कहा, "इसलिये तुम पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ" (लैव्यव्यवस्था 11:45)। "जो मुझ से, 'हे प्रभु! हे प्रभु!' कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है" (मत्ती 7:21)। परमेश्वर के वचनों से हम आश्वस्त हो सकते हैं कि जिन सबों के पाप माफ किये गए वे, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश योग्य नहीं हैं। स्वर्ग के राज्य में प्रवेश से पहले, उन्हें शुद्ध और परमेश्वर की इच्छा का कर्ता बनना चाहिए। इस सच्चाई को काटा नहीं जा सकता। जाहिर है, परमेश्वर की इच्छा को समझना उतना सरल नहीं है, जितना की लगता है। हमारे पापों के माफ कर दिये जाने मात्र से हम शुद्ध नहीं हो जाते। हमें पहले सत्य की वास्तविकता और परमेश्वर की प्रशंसा को पाना होगा तभी हम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने योग्य होंगे। अगर हम सत्य को नहीं चाहते, बल्कि इससे ऊब चुके और घृणा करते हैं, अगर हम केवल पुरस्कार और मुकुट के पीछे भागते हैं और परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना तो दूर, परमेश्वर की चिंता तक नहीं करते, तो क्या हम बुराई में लिप्त नहीं हैं? क्या प्रभु ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा करेंगे? यदि ऐसा है, तो हम उन्हीं पाखंडी फरीसियों की तरह हैं: पाप माफ़ी के बावजूद हम स्वर्ग के राज्य में नहीं जा पाते हैं। यह एक निर्विवाद तथ्य है।
चलिये संगति जारी रखते हैं। प्रभु यीशु ने हमें सभी पापों से छुटकारा दिलाया। उन्होंने हमें, किन "पापों" से मुक्त किया? प्रभु में विश्वास शुरू करने के बाद, हम कौन से पाप स्वीकार करते हैं? जिन, मुख्य पापों के बारे में, बात की जाती है, ये वो वास्तविक पाप हैं जिनसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं, आज्ञाओं या वचनों का उल्लंघन होता है। हम मनुष्यों ने परमेश्वर के नियमों और आज्ञाओं का उल्लंघन किया है। इसलिये हमें तिरस्कृत और दंडित किया जाएगा। इसीलिये प्रभु यीशु अपना उद्धार का कार्य करने के लिए आए थे। इस प्रकार, हमें प्रभु यीशु से पाप मुक्त होने के लिए, पश्चाताप करना चाहिए। उनकी व्यवस्था के अनुसार, फिर हमें तिरस्कृत और दंडित नहीं किया जाएगा। परमेश्वर फिर हमें पापी के रूप में नहीं देखेंगे। तो हम परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं, उन्हें पुकार सकते हैं, और उनका अनुग्रह और सत्य साझा कर सकते हैं। "उद्धार" का सही अर्थ यही है जिसकी हमने अनुग्रह के युग में चर्चा की। इस "उद्धार" का शुद्ध होने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने से कुछ लेना-देना नहीं है। आप कह सकते हैं कि ये दो अलग चीजें हैं क्योंकि प्रभु यीशु ने कभी नहीं कहा कि जो लोग बचाए गए हैं और पाप-मुक्त हो गए हैं, वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। आइए हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कुछ वचन पढ़ते हैं, "उस समय यीशु का कार्य समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाना था। उन सभी के पापों को क्षमा कर दिया गया था जो उसमें विश्वास करते थे; अगर तुम उस पर विश्वास करते हो, तो वह तुम्हें छुटकारा दिलाएगा; यदि तुम उस पर विश्वास करते, तो तुम पापी नहीं रह जाते, तुम अपने पापों से मुक्त हो जाते हो। यही बचाए जाने और विश्वास द्वारा उचित ठहराए जाने का अर्थ है। फिर विश्वासियों के अंदर परमेश्वर के प्रति विद्रोह और विरोध का भाव था, और जिसे अभी भी धीरे-धीरे हटाया जाना था। उद्धार का अर्थ यह नहीं था कि मनुष्य पूरी तरह से यीशु द्वारा प्राप्त कर लिया गया है, बल्कि यह था कि मनुष्य अब पापी नहीं रह गया है, उसे उसके पापों से मुक्त कर दिया गया है। अगर तुम विश्वास करते हो, तो तुम फिर कभी भी पापी नहीं रहोगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य का दर्शन (2))। "मनुष्य को छुटकारा दिए जाने से पहले शैतान के बहुत-से ज़हर उसमें पहले ही डाल दिए गए थे, और हज़ारों वर्षों तक शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद मनुष्य के भीतर ऐसा स्थापित स्वभाव है, जो परमेश्वर का विरोध करता है। इसलिए, जब मनुष्य को छुटकारा दिलाया गया है, तो यह छुटकारे के उस मामले से बढ़कर कुछ नहीं है, जिसमें मनुष्य को एक ऊँची कीमत पर खरीदा गया है, किंतु उसके भीतर की विषैली प्रकृति समाप्त नहीं की गई है। मनुष्य को, जो कि इतना अशुद्ध है, परमेश्वर की सेवा करने के योग्य होने से पहले एक परिवर्तन से होकर गुज़रना चाहिए। न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से मनुष्य अपने भीतर के गंदे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने के योग्य हो सकता है। ... क्योंकि मनुष्य को छुटकारा दिए जाने और उसके पाप क्षमा किए जाने को केवल इतना ही माना जा सकता है कि परमेश्वर मनुष्य के अपराधों का स्मरण नहीं करता और उसके साथ अपराधों के अनुसार व्यवहार नहीं करता। किंतु जब मनुष्य को, जो कि देह में रहता है, पाप से मुक्त नहीं किया गया है, तो वह निरंतर अपना भ्रष्ट शैतानी स्वभाव प्रकट करते हुए केवल पाप करता रह सकता है। यही वह जीवन है, जो मनुष्य जीता है—पाप करने और क्षमा किए जाने का एक अंतहीन चक्र। अधिकतर मनुष्य दिन में सिर्फ इसलिए पाप करते हैं, ताकि शाम को उन्हें स्वीकार कर सकें। इस प्रकार, भले ही पापबलि मनुष्य के लिए हमेशा के लिए प्रभावी हो, फिर भी वह मनुष्य को पाप से बचाने में सक्षम नहीं होगी। उद्धार का केवल आधा कार्य ही पूरा किया गया है, क्योंकि मनुष्य में अभी भी भ्रष्ट स्वभाव है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों में इस प्रश्न का, स्पष्ट उत्तर है। हम उन्हें सुनते ही समझ जाते हैं। अनुग्रह के युग में, प्रभु यीशु ने मानवजाति को पाप मुक्त करने, के लिए ही छुटकारे का कार्य किया, आस्था के ज़रिये उन्हें धर्मी बनाया और विश्वास के ज़रिये बचाया। प्रभु यीशु ने कभी नहीं कहा जिसके भी, पाप मुक्त किये हैं, वह स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकता है। हो सकता है प्रभु यीशु ने हमें सभी पापों से मुक्त कर दिया हो, लेकिन उन्होंने हमें हमारे शैतानी स्वभाव से मुक्त नहीं किया है। हमारा अहंकार, स्वार्थ, कपट, बुराई आदि, यानी हमारा भ्रष्ट स्वभाव अभी भी शेष है। ये बातें पाप से भी गहरी हैं। इनका समाधान सरल नहीं है। अगर परमेश्वर की विरोधी शैतानी प्रकृति और भ्रष्ट स्वभाव का समाधान, न किया जाए, तो हम लोग अनेक पाप कर बैठते हैं। हमसे ऐसे घोर पाप भी हो सकते हैं जो व्यवस्था के उल्लंघन से भी बदतर हों। फरीसी प्रभु यीशु की निंदा और विरोध क्यों कर पाए? वे उन्हें सलीब पर कैसे चढ़ा पाए? इससे सिद्ध होता है कि अगर इंसान के, शैतानी स्वभाव का समाधान न किया जाए तो इंसान अब भी पाप और परमेश्वर का विरोध कर धोखा दे सकता है।
प्रभु में इतने बरसों के अपने, विश्वास में हमने एक बात अनुभव की है, हालाँकि हम लोग, पाप-मुक्त हो चुके हैं, उसके बावजूद हम लगातार पाप करते रहते हैं। हम रुतबे की तलाश में झूठ, कपट और कुतर्क करते हैं। हम अपनी ज़िम्मेदारियों से बचते हैं, और अपने फायदे के लिये, दूसरों को मुसीबत में डाल देते हैं। जब प्राकृतिक और मानव निर्मित, आपदाएं आती हैं, तो हम परमेश्वर को दोषी मानते हैं। जब परमेश्वर का कार्य हमारे अनुरूप नहीं होता, तो हम उन्हें नकार देते हैं, उनकी परख और विरोध करते हैं। हम परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं, पर हम आदर और अनुसरण इंसान का ही करते हैं। अगर हमारे पास पदवी होती है, तो हम मुख्य पादरियों, धर्म-शिक्षकों और फरीसियों की तरह खुद को ऊँचा उठाकर अपनी गवाही देते हैं। हम परमेश्वर की तरह पेश आते है और कोशिश करते हैं लोग हमें आदर दें। हम परमेश्वर की भेंट तक चुराकर अपने लिये ले लेते हैं। हम जलने लगते हैं और, अपनी पसंद-नापसंद, अपनी सनक और भावनाओं के पीछे चलते हैं। हम अपने झंडे लगाते हैं, अपने समूह बनाते हैं और अपने छोटे राज्य स्थापित करते हैं। साफ तौर पर ये सब सच्चाई है। हम देख सकते हैं कि अगर हमारी शैतानी प्रकृति और स्वभाव नहीं सुधरते हैं तो भले ही हमारे पाप, लाख बार क्षमा कर दिये जाएँ, हम स्वर्ग के, राज्य में, प्रवेश करने के योग्य नहीं होंगे, इस बात से कि हम अभी भी पाप और परमेश्वर का विरोध कर सकते हैं, ये ज़ाहिर होता है कि हम अब भी शैतान के अंग हैं, और परमेश्वर के दुश्मन हैं, और परमेश्वर निश्चित रूप से हमें निंदित और दंडित करेंगे। जैसा कि बाइबल में कहा गया है, "क्योंकि सच्चाई की पहिचान प्राप्त करने के बाद यदि हम जान बूझकर पाप करते रहें, तो पापों के लिये फिर कोई बलिदान बाकी नहीं। हाँ, दण्ड का एक भयानक बाट जोहना और आग का ज्वलन बाकी है जो विरोधियों को भस्म कर देगा" (इब्रानियों 10:26-27)। आइये, परमेश्वर के और वचन पढ़ें: "तुम लोगों जैसा पापी, जिसे परमेश्वर के द्वारा अभी-अभी छुड़ाया गया है, और जो परिवर्तित नहीं किया गया है, या सिद्ध नहीं बनाया गया है, क्या तुम परमेश्वर के हृदय के अनुसार हो सकते हो? तुम्हारे लिए, तुम जो कि अभी भी पुराने अहम् वाले हो, यह सत्य है कि तुम्हें यीशु के द्वारा बचाया गया था, और कि परमेश्वर द्वारा उद्धार की वजह से तुम्हें एक पापी के रूप में नहीं गिना जाता है, परन्तु इससे यह साबित नहीं होता है कि तुम पापपूर्ण नहीं हो, और अशुद्ध नहीं हो। यदि तुम्हें बदला नहीं गया तो तुम संत जैसे कैसे हो सकते हो? भीतर से, तुम अशुद्धता से घिरे हुए हो, स्वार्थी और कुटिल हो, मगर तब भी तुम यीशु के साथ अवतरण चाहते हो—क्या तुम इतने भाग्यशाली हो सकते हो? तुम परमेश्वर पर अपने विश्वास में एक कदम चूक गए हो: तुम्हें मात्र छुटकारा दिया गया है, परन्तु परिवर्तित नहीं किया गया है। तुम्हें परमेश्वर के हृदय के अनुसार होने के लिए, परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से तुम्हें परिवर्तित और शुद्ध करने का कार्य करना होगा; यदि तुम्हें सिर्फ छुटकारा दिया जाता है, तो तुम पवित्रता को प्राप्त करने में असमर्थ होंगे। इस तरह से तुम परमेश्वर के आशीषों में साझेदारी के अयोग्य होंगे, क्योंकि तुमने मनुष्य का प्रबंधन करने के परमेश्वर के कार्य के एक कदम का सुअवसर खो दिया है, जो कि परिवर्तित करने और सिद्ध बनाने का मुख्य कदम है। और इसलिए तुम, एक पापी जिसे अभी-अभी छुटकारा दिया गया है, परमेश्वर की विरासत को सीधे तौर पर उत्तराधिकार के रूप में पाने में असमर्थ हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पदवियों और पहचान के सम्बन्ध में)। अपने देखा, प्रभु यीशु ने हमें केवल छुड़ाया है फिर भी हम अपने शैतानी स्वभाव में रहते हैं, पाप करते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं। हमें अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण का अनुभव करना चाहिए ताकि हम पाप से मुक्त होकर, परमेश्वर के हृदय में स्थान पाकर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। दरअसल, प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "क्योंकि मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु हमारी ख़ातिर जगह तैयार करने के लिए वापस गए हैं और जगह तैयार करने के बाद वे हमें लेने के लिये वापस आएंगे। दरअसल "लेने आने" का अर्थ, अंत के दिनों में हमारे पुनर्जन्म की उनकी योजना से है। जब प्रभु अपना कार्य करने के लिये आएंगे तो वे हमें अपने सिंहासन के सामने ले जाएंगे। ताकि परमेश्वर के वचनों से हमारा न्याय किया जा सके, हमें शुद्ध और पूर्ण किया जा सके। आपदाओं के आने से पहले वे हमें विजेता बना देंगे। हमें प्राप्त करने की उनकी प्रक्रिया ही दरअसल हमें शुद्ध और पूर्ण बनाने का तरीका है। अब प्रभु अंत के दिनों में अपना न्याय का कार्य करने के लिए धरती पर आए हैं। हमें उनके साथ रहने के लिए उनके सिंहासन के सामने आरोहित किया गया है। क्या इससे प्रभु के हमें लेने आने की यह भविष्यवाणी पूरी तरह सही साबित नहीं होती? महाआपदाओं के समाप्त होने पर, धरती पर मसीह का राज्य स्थापित होगा। जो लोग महाआपदाओं के परिशोधन के बाद बचेंगे, वे स्वर्ग के राज्य में जगह पाएंगे।
तो कुछ लोग कहते हैं, कि पौलुस जैसे दुख सहने और प्रभु के लिए त्याग करने वाले शिष्य, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के योग्य नहीं हैं? ऐसा ही एक बार पौलुस ने कहा था, "मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है" (2 तीमुथियुस 4:7-8)। बहुत से लोग सोचते हैं: ठीक है, पौलुस ने प्रभु के लिए श्रम किया और उसे धार्मिकता का मुकुट मिला, इसलिए अगर हम पौलुस की तरह श्रम करते हैं, तो हम लोगों को भी धार्मिकता का मुकुट मिलेगा और हम लोग स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर पाएंगे, है ना? क्या यह बात सच है? पौलुस ने जो वचन बोले, क्या वे परमेश्वर के वचन पर आधारित थे? क्या कभी प्रभु यीशु ने कहा कि पौलुस को पुरस्कार और मुकुट मिला? क्या पवित्र आत्मा ने कभी गवाही दी कि पौलुस ने स्वर्ग के राज्य में प्रवेश किया? बाइबल में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा। जैसा कि आप लोग देख सकते हैं, पौलुस के वचनों का कोई प्रमाण नहीं हैं। इसलिए, हम पौलुस के वचनों को स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का आधार नहीं बना सकते। जहाँ तक अनन्त जीवन पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने की बात है, प्रभु यीशु ने एक बार साफ तौर पर कहा था, "जो मुझ से, 'हे प्रभु! हे प्रभु!' कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है। उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?' तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, 'मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ'" (मत्ती 7:21-23)। प्रभु यीशु के वचन बहुत साफ हैं। लोगों को स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिये अपने घोर पाप छोड़कर शुद्ध होना चाहिए और परमेश्वर की इच्छा का पालन करना चाहिए। अगर वे सिर्फ जोश में आकर श्रम और त्याग करते हैं, पाप में लिप्त रहकर परमेश्वर का विरोध करते हैं और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते, तो वे दुष्कर्मी हैं; वे निश्चित तौर से स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाएँगे। दूसरी तरफ, पौलुस ने कहा कि अच्छी कुश्ती लड़ने, अपनी दौड़ पूरी करने और विश्वास की रखवाली करने से उसे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश मिल जाएगा और उसे पुरस्कार मिलेगा। क्या ये बात साफ तौर पर प्रभु यीशु के वचन के उलट नहीं है? पौलुस के नज़रिये के अनुसार, अगर हम प्रभु के लिए श्रम करते हैं, तो हमें पुरस्कार मिलेगा और हम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर पाएंगे। अगर ऐसी बात है, तो क्या वे सभी यहूदी फरीसी, जो प्रभु यीशु की निंदा और विरोध करते हुए सुसमाचार फैलाने के लिए जल-थल की यात्रा करते थे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाते? जो लोग प्रचार करते हैं और प्रभु के नाम पर राक्षसों को बाहर निकालते हैं, लेकिन परमेश्वर के मार्ग पर नहीं चलते, क्या वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के योग्य हैं? क्या यह दृष्टिकोण बेतुका नहीं है? चाहे फरीसियों ने कुछ भी किया हो, लेकिन वे प्रभु यीशु की प्रशंसा हासिल क्यों नहीं कर पाए? उसकी मुख्य वजह ये है कि उनका सुसमाचार फैलाना और पीड़ा सहना सिर्फ अपनी, स्वार्थ-सिद्धि और, पुरस्कार पाने के लिये था। परमेश्वर धर्मी हैं, इंसान के दिल और दिमाग में जो कुछ चल रहा है, उन्हें सब दिखता है। इसलिए, जब प्रभु यीशु ने अपना कार्य किया तो फरीसी पूरी तरह से उजागर हो गए। उन्होंने अपनी पदवी और रोज़ी-रोटी बचाने के लिये प्रभु यीशु की निंदा की और कट्टर विरोध किया। वे प्रभु यीशु के दुश्मन थे; उन्होंने प्रभु को सूली पर चढ़ा दिया। आखिर नतीजा ये हुआ कि परमेश्वर ने उन्हें शाप दिया और दंडित किया। यही बात आमतौर पर सबकी जानकारी में है।
अंत के दिनों में धार्मिक लोगों का क्या होता है? इनमें से बहुत से लोग तो यहूदी फरीसियों जैसे ही हैं। हालांकि उन्होंने प्रभु के लिए काम किया है, लेकिन उन्होंने जो कुछ भी किया है, वो सिर्फ आशीर्वाद और पुरस्कार पाने के लिये किया है; वे मुकुट और पुरस्कार पाने की कोशिश में लगे हैं; वे लोग प्रभु के वचनों पर अमल या प्रभु की बात का पालन नहीं कर रहे। इसलिए, जब वे लोग काम और त्याग करते हैं, तो वे ऐसा अपनी सनक और इच्छाओं के अनुसार करते हैं। वे लोग पदवी और प्रतिष्ठा हासिल करने के लिये खुद को ऊंचा उठाते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं। वे लोग गुटबाज़ी करते हैं और अपना राज्य स्थापित करते हैं। हालाँकि उनमें से बहुतों ने कुछ काम किया है और कुछ तकलीफें सही हैं, उनका झुकाव अपनी वरिष्ठता और अहंकार की ओर रहता है, वे लोग परमेश्वर से स्वर्ग के राज्य में स्थान की माँग करते हैं। अब खास तौर से पादरी और एल्डर जैसे लोग, परमेश्वर की प्रशंसा कैसे हासिल कर सकते हैं? ऐसे लोगों को जब अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य का सामना करना पड़ता है, तो वे लोग उसे स्वीकार करने की बजाय, अपनी पदवी और रोज़ी-रोटी को बचाने के लिए कट्टरता से सर्वशक्तिमान परमेश्वर का विरोध और निंदा करते हैं। उन्होंने परमेश्वर को फिर सूली पर चढ़ा दिया और बहुत पहले ही परमेश्वर के स्वभाव को उत्तेजित कर दिया था। क्या ये बात सच नहीं है? क्या हम अभी तक इस बात को समझ नहीं पाए हैं? ये तथ्य इस बात को साबित करने के लिए काफी हैं कि ज़रूरी नहीं कि हम जो त्याग और श्रम कर रहे हैं, उससे हम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के हकदार हो जाएँ। हम लोग जो प्रभु में विश्वास करते हैं, लेकिन उनके वचनों पर अमल नहीं करते या उनकी आज्ञाओं का पालन नहीं करते, परमेश्वर के लिये अपने प्रेम से या उसकी आज्ञापालन करने की इच्छा से प्रेरित नहीं होते; हम तो केवल आशीर्वाद और स्वर्ग में प्रवेश चाहते हैं। हम परमेश्वर से कपट और उनका शोषण कर रहे हैं। हम चाहे कितना ही कार्य करें, कितनी ही पीड़ा भोगें, हमें परमेश्वर की प्रशंसा नहीं मिलेगी। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "सतही नजर से, मनुष्य परमेश्वर के लिए अपने आप को खपाते और कार्य करते हुए लगातार दौड़-धूप करते प्रतीत होते थे, जबकि उस दौरान वे वास्तव में अपने हृदयों की गुप्त कोटरिकाओं में यह गणना कर रहे थे कि आशीष प्राप्त करने या राजाओं की तरह शासन करने के लिए उन्हें अगला कदम कौन-सा उठाना चाहिए। कोई यह कह सकता है कि जब मानव-हृदय परमेश्वर का आनंद ले रहा था, उसी समय वह परमेश्वर के प्रति स्वार्थी भी हो रहा था। इस स्थिति में मानवजाति को परमेश्वर की गहनतम जुगुप्सा और घृणा ही मिलती है; परमेश्वर का स्वभाव यह सहन नहीं करता कि कोई इंसान उसे धोखा दे या उसका इस्तेमाल करे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, परिचय)। "तुम कहते हो कि तुमने परमेश्वर का अनुसरण करते हुए हमेशा दुख उठाया है, तुमने हर परिस्थिति में उसका अनुसरण किया है, और तुमने उसके साथ अच्छा-बुरा समय बिताया है, लेकिन तुमने परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों को नहीं जिया है; तुम हर दिन सिर्फ परमेश्वर के लिए भाग-दौड़ करना और उसके लिए स्वयं को खपाना चाहते हो, तुमने कभी भी एक अर्थपूर्ण जीवन बिताने के बारे में नहीं सोचा है। तुम यह भी कहते हो, 'खैर, मैं यह तो मानता ही हूँ कि परमेश्वर धार्मिक है। मैंने उसके लिए दुख उठाया है, मैंने उसके लिए भाग-दौड़ की है, और उसके लिए अपने आपको समर्पित किया है, और इसके लिए कोई मान्यता प्राप्त किए बिना मैंने कड़ी मेहनत की है; वह निश्चित ही मुझे याद रखेगा।' यह सच है कि परमेश्वर धार्मिक है, फिर भी इस धार्मिकता पर किसी अशुद्धता का दाग नहीं है: इसमें कोई मानवीय इच्छा नहीं है, और इस पर शरीर या मानवीय सौदेबाजी का कोई धब्बा नहीं है। जो लोग विद्रोही हैं और विरोध में खड़े हैं, वे सब जो उसके मार्ग के अनुरूप नहीं हैं, उन्हें दंडित किया जाएगा; न तो किसी को क्षमा किया जाएगा, न ही किसी को बख्शा जाएगा!" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान')। "तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो! संसार की स्थापना से लेकर आज तक, मैंने अपने राज्य में उन लोगों को कभी आसान प्रवेश नहीं दिया है जो अनुग्रह पाने के लिए मेरे साथ साँठ-गाँठ करते हैं। यह स्वर्गिक नियम है, और कोई इसे तोड़ नहीं सकता है! ... यदि तुम केवल पुरस्कारों की प्रत्याशा करते हो, और स्वयं अपने जीवन स्वभाव को बदलने की कोशिश नहीं करते, तो तुम्हारे सारे प्रयास व्यर्थ होंगे—यह अटल सत्य है!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचनों से हम देख सकते हैं कि वे पवित्र और धार्मिक हैं। परमेश्वर निश्चित रूप से गंदे और भ्रष्ट मनुष्यों को अपने राज्य में प्रवेश नहीं करने देंगे। यह परमेश्वर के धर्मी स्वभाव से निर्धारित होता है! इसलिए, सत्य को पाने, अपने दूषित स्वभाव से मुक्ति पाने और परमेश्वर को प्राप्त होने के लिये हमें अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण का अनुभव करना चाहिए ताकि हम बचाए जा सकें और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पा सकें। इस सच्चाई पर शक नहीं किया जा सकता।
"स्वप्न से जागृति" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?