116 ईमानदार लोगों में ही होती है इंसानियत
1
शोहरत, मुनाफ़े की ख़ातिर, आचरण के मानक त्यागे मैंने,
रोज़ी-रोटी के लिये झूठ बोलती थी मैं।
विवेक या नैतिकता की परवाह की नहीं मैंने,
सच्चाई या गरिमा की परवाह की नहीं मैंने।
जीती थी सिर्फ़ अपनी बढ़ती अभिलाषा, लालच की संतुष्टि के लिए।
बेचैन दिल लिये, पाप के कीचड़ में लोटती थी मैं,
इस बेइंतिहा अंधेरे से बच न सकी मैं।
नश्वर दौलत, पल भर का सुख,
छुपा सके न भीतर के ख़ालीपन को।
जीवन में ईमान का होना मुश्किल क्यों है?
इंसान इतना दुष्ट और शातिर क्यों है?
कैसी दुनिया है ये? कौन बचा सकता मुझको?
2
सुनकर परमेश्वर की वाणी, लौट आई सम्मुख उसके मैं।
पढ़कर परमेश्वर के वचन हर दिन, बहुत लाभ पाती हूँ मैं।
बहुत से सत्यों को समझती हूँ, मुझमें हैं इंसानी आचरण के नियम।
करते शुद्ध भ्रष्टता मेरी परमेश्वर के सत्य-वचन।
जीवन साथी हैं मेरे, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के वचन।
परमेश्वर की जाँच को स्वीकारना, देता है सुकून दिल को मेरे।
न कोई धोखा, न छल है, रोशनी में रहती हूँ मैं।
नेकनीयत, खुले दिल से, अब इंसान की तरह जीती हूँ मैं।
गुज़री हूँ इम्तहानों से, देखा है ईश्वर का चेहरा मैंने।
उसके वचनों में, पाया है नया जीवन मैंने।
अब नेक इंसान बन सकती हूँ मैं।
परमेश्वर के प्रेम और उद्धार की शुक्रगुज़ार हूँ मैं!
सर्वशक्तिमान परमेश्वर की शुक्रगुज़ार हूँ मैं!