23. मैंने परमेश्वर की गवाही देना कैसे सीखा

मोरान, चीन

जून 2020 में, मैं सिंचन कार्य की उपयाजक चुनी गई, मुझे परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को हाल ही में स्वीकार करने वाले सदस्यों के सिंचन की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। मैंने मन-ही-मन सोचा, “मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से निभाकर परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना होगा।” शुरुआत में, मेरे कार्य में बहुत सी परेशानियां आईं। कई भाई-बहन अपने कामों में व्यस्त थे और वे नियमित रूप से सभाओं में नहीं आ रहे थे, कुछ लोग धार्मिक और सीसीपी के दुष्प्रचार के बहकावे में आकर सभाओं में आने से कतरा रहे थे, तो कुछ लोग अपने परिवार की रोक-टोक से इतने नकारात्मक और कमज़ोर हो चुके थे कि वे अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पा रहे थे। इन चीज़ों के बारे में सोचकर मुझे काफी दबाव महसूस होता था। इन भाई-बहनों का अच्छे से सिंचन करने के लिए, बहुत सारा काम करना था, ताकि वे सत्य को समझकर सच्चे मार्ग पर अपनी जड़ें जमा सकें। उस दौरान, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती, उस पर भरोसा रखती, और भाई-बहनों की समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की खोज करती। कुछ समय बाद, ज़्यादातर भाई-बहन पहले की तरह सभाओं में आने लगे, और कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाने का मतलब समझकर अपनी क्षमता के अनुसार अपने लिए कोई कर्तव्य लेने लगे। ऐसे नतीजे देखकर मुझे बहुत खुशी हुई, मैं यह सोचते हुए खुद की प्रशंसा करने से न रह सकी कि “मैं ज़रूर इस काम में अच्छी हूँ। नहीं तो ऐसे अच्छे नतीजे कहाँ से आते?” इसके बाद, जब भी भाई-बहन अपने कर्तव्य निर्वाह में आने वाली मुश्किलों और परेशानियों के बारे में बात करते, तो मैं अनजाने में ही यह दिखावा करने लगती कि मैं उनसे बेहतर और ज़्यादा अनुभवी हूँ।

एक बार, एक सभा में मैं कुछ बहनों के साथ थी जिन्होंने हाल ही में नए सदस्यों का सिंचन शुरू किया था, बहनों ने बताया कि कुछ नए सदस्यों ने सीसीपी के भारी दमन और गिरफ्तारियों को देखा है, जिससे वे निराश, कमज़ोर, घबराई और डरी हुई महसूस कर रही हैं। ये बहनें इस समस्या को हल करने के लिए संगति करना नहीं जानती थीं। मैंने मन-ही-मन सोचा, क्योंकि मैंने हाल ही में इन समस्याओं को हल करते हुए अच्छे नतीजे हासिल किए हैं, तो यह उन्हें दिखाने का अच्छा मौका है कि मैं इन समस्याओं को हल करने के लिए सत्य पर कैसे संगति करती हूँ, कि मैं सत्य को अच्छी तरह समझती हूँ और एक काबिल कार्यकर्ता हूँ। मैंने आत्मविश्वास के साथ कहा, “हाल ही में, मैंने कुछ भाई-बहनों का सिंचन किया था जिनकी हालत ऐसी ही थी। उस वक्त मैं बहुत चिंतित थी, अच्छे से सिंचन करने के लिए मैंने उनके साथ कई सभाएं की, परमेश्वर के वचन पढ़े और उनकी हालत के अनुसार सत्य पर संगति की। मुझे कलीसिया आने-जाने के लिए रोज़ 50 किलोमीटर से ज़्यादा बाइक चलानी पड़ती थी। कुछ वक्त के सिंचन के बाद, उन्हें परमेश्वर के कार्य, उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि का थोड़ा ज्ञान हुआ, इस बात के महत्व को समझ लेने के बाद कि परमेश्वर बड़े लाल अजगर को कैसे अपने कार्य में विषमता के रूप में इस्तेमाल करता है, परमेश्वर में उनका भरोसा और बढ़ गया। अब वे सीसीपी के अत्याचार के आगे बेबस महसूस नहीं करते थे और परमेश्वर के कार्य की गवाही देने के लिए सुसमाचार भी फैलाना चाहते थे...।” संगति के दौरान, वे बहनें सम्मोहित नज़रों से मेरी ओर देखती रहतीं। मुझे बहुत संतुष्टि मिलती और बोलते हुए मेरा जोश और बढ़ जाता। मेरी संगति पूरी होने पर, एक बहन ने उत्साहित होकर कहा, “अपने अनुभव के कारण आप समस्याओं को स्पष्ट रूप से समझने में माहिर हैं। मैं तो कुछ भी न समझ पाऊँ।” दूसरी बहन ने ईर्ष्या के साथ कहा, “इन समस्याओं को हल करना आपके लिए कितना आसान है। अगर आपके पास और बेहतर अनुभव हैं तो हमें ज़रूर बताएं, ताकि हम आपसे सीख सकें।” उनकी प्रशंसा सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई। हालांकि मैंने यही कहा कि मुझे अच्छे नतीजे अपनी मेहनत से नहीं, बल्कि सिर्फ परमेश्वर के मार्गदर्शन से ही हासिल हुए थे, मगर अपने दिल में, मुझे लगता था कि ऐसे नतीजों के लिए मैंने कितने कष्ट उठाए हैं और कितनी कीमत चुकाई है। एक सभा में, एक बहन नए सदस्यों के सिंचन में अच्छे नतीजे हासिल न कर पाने के कारण निराश महसूस करने लगी, और उसने अपनी कई समस्याओं के बारे में बताया। मैंने सोचा, “अगर मैंने कहा कि मुझे भी इन्हीं समस्याओं और कमियों का सामना करना पड़ा था, तो क्या लोग मुझे छोटा नहीं समझने लगेंगे? उसके काम की ज़िम्मेदारी मुझ पर है, इसलिए मैं उसे अपने सफल अनुभवों के बारे में ही बताऊँगी, और दिखाऊँगी कि अपने सामने आने वाली ऐसी समस्याओं और परेशानियों को हल करने के लिए मैं कैसे सत्य पर संगति करती हूँ। इस तरह उसकी समस्या भी हल हो जाएगी और वह मेरे बारे में और भी ऊंचा सोचेगी।” ऐसा सोचने के बाद, मैं अपनी कमजोरियों और कमियों के बारे में बात करने से बचती रही और अपने कर्तव्य में प्रभावशाली होने के बारे में शेख़ी बघारने लगी। मैंने कहा, “इस दौरान, मैंने पांच भाई-बहनों का सिंचन करके उनकी मदद की। वे नियमित रूप से सभाओं में नहीं आते थे। कुछ लोग बहुत-सी धार्मिक धारणाओं वाले थे, कुछ को पैसों की लालसा थी, और वे आम तौर पर सभाओं में नहीं आते थे, कुछ लोग घर की परेशानियों के कारण कमज़ोर और निराश थे। मैं एक-एक करके उन सबके पास गई, कुछ कठिनाइयों को हल किया, परमेश्वर के बहुत-से वचनों की खोज की, और इन समस्याओं को हल करने के लिए हरेक के साथ संगतिकरती रही, जब तक कि वे सत्य को समझकर और अपनी धारणाओं को त्यागकर नियमित रूप से सभाओं में नहीं आने लगे और पूरे मन से अपना कर्तव्य नहीं निभाने लगे। हमारे बीच एक काबिल पेशेवर भाई भी थे, जो दुनियावी रुतबे और नाम के चक्कर में शायद ही कभी सभाओं में आते थे। मुझे उनकी मदद करने में बहुत परेशानी हुई, मगर मैंने परमेश्वर पर भरोसा रखते हुए, उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाए और परमेश्वर की इच्छा पर संगति की। मेरी बातें सुनने के बाद उन्हें परमेश्वर में विश्वास करने वालों के लिए सत्य की खोज का महत्व समझने में मदद मिली, ये भाई समझ गए कि नाम और रुतबे के पीछे भागने का कोई फायदा नहीं, और वे सत्य की खोज करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार हो गए।” अपनी संगति के बाद, मैंने बहनों के चेहरे पर प्रशंसा और आदर के भाव देखे, और वे मेरी संगति में शामिल परमेश्वर के वचनों के अंश नोट करती रहीं। एक बहन ने भावुक होकर कहा, “आपने सत्य के इस्तेमाल से उनकी समस्याएँ हल कीं, ताकि वे परमेश्वर की इच्छा को समझकर, उसका अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार हो सकें। अगर आपके पास सत्य वास्तविकताएँ नहीं होतीं तो आप ऐसा कभी नहीं कर पातीं।” दूसरी बहन ने सराहना करते हुए कहा, “अगर मेरे सामने ये समस्याएँ आतीं, तो मैं उन्हें कभी हल नहीं कर पाती। आप हमसे ज़्यादा अनुभवी हैं, इसलिए आप इन समस्याओं को हमसे बेहतर हल कर सकती हैं।” उस वक्त मुझे पहली बार ऐसा महसूस हुआ कि कुछ गलत हो रहा था। क्या वे मेरी आराधना नहीं करने लगी थीं? मेरी संगति के बाद, एक बहन थोड़ी नकारात्मक महसूस करने लगीं, उन्हें लगा कि उनकी काबिलियत कम थी और वे सत्य के इस्तेमाल से नए सदस्यों की समस्याएँ नहीं हल कर पा रही थीं। मैंने सोचा, “क्या मैं अपने सफल अनुभवों के बारे में कुछ ज़्यादा ही बोल रही हूँ? क्या मैं उन्हें ऐसा महसूस करवा रही हूँ कि मेरे लिए उनकी समस्याओं को हल करना बेहद आसान है, और क्या मैं उन्हें मुझे ऊंची नजर से देखने के लिए प्रेरित कर रही हूँ? प्रशंसा करने और प्रशंसा पाने वाले दुर्भाग्यों के शिकार होंगे—क्या इस तरह की संगति सचमुच उचित है?” मगर फिर मैंने सोचा, “मैं उन्हें अपने व्यावहारिक अनुभवों के बारे में बता रही हूँ, इसमें तो कोई बुराई नहीं है।” उस वक्त, मैंने अपने बारे में आत्म-चिंतन जारी नहीं रखा और बात टल गई। कुछ समय बाद, मैं दो बहनों से उनके सिंचन कार्य को लेकर बात करने के लिए मिली। मेरे वहां पहुंचते ही, उनमें से एक ने जोश से कहा, “अच्छा हुआ जो आप आ गईं। हमारे पास भाई-बहनों की कुछ समस्याएँ हैं जो हमसे हल नहीं हो पा रहीं हैं। कृपया हमें इनके बारे में कुछ बताएं।” उनकी आँखों में अपेक्षा देखकर मैं रोमांचित भी थी और चिंतित भी। रोमांचित इसलिए क्योंकि वे मुझे ऊंचा समझ रही थीं, और चिंतित इसलिए क्योंकि मुझे लगा कहीं हमेशा अपने काम में अच्छे नतीजे हासिल करने की बात करते रहने से ही वे मेरी आराधनातो नहीं करने लगी हैं। फिर मुझे खयाल आया, “मैं हमेशा अपनी कामयाबी की बात करती हूँ, ताकि उन्हें अपने कर्तव्य के निर्वाह के लिए अभ्यास का एक मार्ग मिल सके, जो समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति करना है। और फिर, मैं तो सिर्फ अपने वास्तविक अनुभवों की ही बात करती हूँ, बढ़ा-चढ़ाकर कुछ नहीं कहती।” इसलिए, मैंने पहले वाला रवैया ही जारी रखते हुए अपने सफल अनुभवों पर ही संगति की। उन्होंने हमेशा की ही तरह मुझे प्रशंसा और ईर्ष्या भरी नज़रों से देखा, जिससे मुझे खुशी हुई।

इसके बाद से, हर बैठक में, मैं अपने कष्टों और कर्तव्य में चुकाई गई कीमत के बारे में बात करती, यह बताती कि कैसे मैंने समस्याओं को हल करने के लिए सत्य पर सहभागिता की, और अपने सभी सफल अनुभवों के बारे में बताती। धीरे-धीरे, मेरे सभी भाई-बहन मेरी आराधना करने लगे, वे अपनी सभी समस्याएं हल करने के लिए मेरा इंतज़ार करते, और मुझे भी उनकी नज़रों में ऊँचा दिखने और पूजे जाने में मजा आने लगा। सभा के बाद घर जाते वक्त, अपने भाई-बहनों के प्रशंसा और श्रद्धा भरे भावों को याद करके, मुझे बहुत गर्व होता था। इस विचार से कि इतने सारे लोग मेरी प्रशंसा करने और मुझे ऊँचा समझने लगे थे, मुझे अपना कर्तव्य निभाने के लिए भरपूर प्रेरणा मिलती थी। मगर जब मैं दूसरों द्वारा अपनी आराधना के आनंद में डूबी हुई थी, तभी अचानक मुझे काट-छाँट का सामना करना पड़ा।

एक दिन, कलीसिया के अगुआ ने आकर मुझसे कहा, “इस कलीसिया के चुनाव में मैंने भाई-बहनों को आपका मूल्यांकन करने के लिए कहा था, और सभी का ये मानना है कि आपको दिखावा करना पसंद है।” यह सुनते ही मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया। मैंने सोचा, “वे ऐसा कैसे कह सकते हैं कि मुझे दिखावा करना पसंद है? अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगी? अब मैं लोगों का सामना कैसे कर पाऊँगी?” मैंने उन्हें अपनी बात समझाने की कोशिश की, “मैं मानती हूँ कि मैं थोड़ी अहंकारी हूँ, और कभी-कभी अनजाने में दिखावा भी करती हूँ, मगर मैं जानबूझकर ऐसा नहीं करती। सभाओं में मैं सिर्फ अपने अनुभव की ही बात करती हूँ।” यह देखकर कि मैं खुद को नहीं जानती, मेरी अगुआ ने कहा, “आप अपने अनुभव के बारे में बात करती हैं, तो सभी भाई-बहन परमेश्वर पर भरोसा करके सत्य की खोज करने के बजाय आपको ऊँचा समझकर आप पर भरोसा क्यों करते हैं? आप कहती हैं कि आप जानबूझकर दिखावा नहीं करतीं, तो फिर आप अपनी खुद की भ्रष्टता, कमियों, नकारात्मकता, कमजोरी या अपने असली अंदरूनी विचारों के बारे में बात क्यों नहीं करतीं? आप अपनी भ्रष्टता या कमजोरी की नहीं बल्कि सिर्फ अपनी अच्छाई की बात करती हैं। इससे यह प्रभाव पड़ता है कि आप सत्य की खोज करती हैं, और इसका अनुभव करना जानती हैं। क्या इसे खुद को ऊँचा उठाना और दिखावा करना नहीं कहा जाएगा?” मेरी अगुआ ने मेरी जो कमियां उजागर करके मेरी आलोचना की थी, उनका मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैं सभाओं में अपने सफल अनुभवों की ही बातें किया करती थी, मैंने अपने कर्तव्य निर्वाह में आए भटकावों और विफलताओं के बारे में कभी बात नहीं की थी। मैं वाकई दिखावा कर रही थी। यह सोचकर कि कैसे मैंने इतने सारे भाई-बहनों के सामने दिखावा किया, और कैसे अब वे सब मुझे पहचान चुके हैं, मैं शर्म के मारे ज़मीन में गड़ जाना चाहती थी। मैंने इस बारे में जितना सोचा उतना ही मुझे दुख होता रहा, और मैं अपने आँसुओं को नहीं रोक पाई। मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेक दिए और प्रार्थना की, “परमेश्वर, अब मैं बिल्कुल भी दिखावा करना नहीं चाहती। मुझे राह दिखाओ, ताकि मैं आत्म-चिंतन करके खुद को पहचान सकूँ।”

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “स्वयं का उत्कर्ष करना और स्वयं की गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने की कोशिश करना—भ्रष्‍ट मनुष्‍यजाति इन चीज़ों में माहिर है। जब लोग अपनी शैता‍नी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्‍वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्‍ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में है। लोग सामान्यतः कैसे स्वयं का उत्कर्ष करते और गवाही देते हैं? वे दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने के इस लक्ष्‍य को कैसे हासिल करते हैं? वे इस बात की गवाही देते हैं कि उन्‍होंने कितना कार्य किया है, कितना अधिक दुःख भोगा है, स्वयं को कितना अधिक खपाया है, और क्या कीमत चुकाई है। वे अपनी पूँजी के बारे में बातें करके अपना उत्कर्ष करते हैं, जो उन्‍हें लोगों के दिमाग़ में अधिक ऊँचा, अधिक मजबूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उन्हें मान दें, सराहना करें, सम्मान करें, यहाँ तक कि श्रद्धा रखें, पूज्‍य मानें, और अनुसरण करें। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए लोग कई ऐसे काम करते हैं, जो सतही तौर पर परमेश्वर की गवाही देते हैं, लेकिन वास्तव में वे उन लोगों का उत्कर्ष करते हैं और उनकी गवाही देते हैं। क्या इस तरह से कार्य करना उचित है? वे तार्किकता के दायरे से बाहर हैं। इन लोगों में कोई शर्म नहीं है : वे निर्लज्‍ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्‍होंने परमेश्वर के लिए क्‍या-क्‍या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्‍यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, विशेष कौशलों पर, अपने आचरण की चतुर तकनीकों पर, लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीक़ों पर इतराते तक हैं। स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का उनका तरीक़ा स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे पाखण्‍ड और छद्मों का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमज़ोरियाँ, कमियाँ और त्रुटियाँ छिपाते हैं, ताकि लोग हमेशा सिर्फ़ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्‍मक महसूस करते हैं तब दूसरे लोगों को यह बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ ग़लत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्‍य निभाने के दौरान उन्‍होंने कलीसिया के कार्य को जो नुक़सान पहुँचाया होता है उसका तो वे ज़ि‍क्र तक नहीं करते। जब उन्‍होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतज़ार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्‍य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्‍या यह स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का ही तरीक़ा नहीं है? क्‍या अपना उत्कर्ष करना और अपनी गवाही देना ऐसी चीज है, जिसे कोई जमीर और विवेक वाला व्यक्ति करता है? नहीं। इसलिए जब लोग यह करते हैं, तो सामान्यतः कौन-सा स्‍वभाव प्रगट होता है? अहंकार प्रकट होने वाले मुख्य स्वभावों में से एक है, जिसके बाद छल-कपट आता है, जिसमें यथासंभव वह सब करना शामिल है जिससे दूसरे उनके प्रति अत्यधिक सम्‍मान का भाव रखें। उनकी कहानियाँ पूरी तरह अकाट्य होती हैं; उनके शब्‍दों में अभिप्रेरणाएँ और कुचक्र स्पष्ट रूप से होते हैं, वे अपनी खूबियों का प्रदर्शन करते हैं, फिर भी वे इस तथ्‍य को छिपाना चाहते हैं। वे जो कुछ कहते हैं, उसका परिणाम यह होता है कि लोगों को यह महसूस करवाया जाता है कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कि उनके बराबर कोई नहीं है, कि हर कोई उनसे हीनतर है। और क्‍या यह परिणाम चालाकीपूर्ण साधनों से हासिल नहीं किया गया है? ऐसे साधनों के पीछे कौन-सा स्‍वभाव है? और क्‍या उसमें दुष्‍टता के कोई तत्त्व हैं? (हाँ, हैं।) यह एक प्रकार का दुष्‍ट स्‍वभाव है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन ने मेरे दिल को झकझोर दिया। क्या मेरा व्यवहार भी बिलकुल इसी तरह का दिखावा नहीं था? सभाओं में मैं सिर्फ अपने कष्टों और अपने कर्तव्यों के अच्छे नतीजों के बारे में ही बात करती थी। जब मेरे भाई-बहनों ने ऐसी समस्याओं का सामना किया था जिन्हें वे सुलझा नहीं पा रहे थे, तो मैंने सत्य पर संगति नहीं की, न ही परमेश्वर की इच्छा को समझने में उनकी मदद की, और न ही अपने कर्तव्य में परमेश्वर पर भरोसा रखने के लिए कहा। बजाय इसके, मैं कष्ट उठाने और समस्याएं हल करने की अपनी क्षमता की ही गवाही देती रही। मैं हमेशा यही बताती थी कि मैंने लोगों के सिंचन के लिए कितनी दूर तक यात्रा की, कितनी कीमत चुकाई। मैंने कभी उस कमजोरी या कमियों की बात नहीं की जो समस्याओं के दौरान मुझमें उजागर हो रही थीं। मैं हमेशा यह बताती थी कि मैंने किस तरह जिम्मेदारियों का बोझ उठाते हुए परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखा, कैसे मैंने अपने भाई-बहनों की समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य की खोज की, या मेरे सिंचन और सहयोग से कितने लोग सभाओं में आने लगे और अपना कर्तव्य निभाने लगे, ताकि सबको यही लगे कि मुझे सत्य की समझ है और मैं समस्याएं हल करने में कितनी सक्षम हूँ। यह बात बिल्कुल साफ थी कि परमेश्वर के वचनों के कारण ही उनमें सत्य को समझने, आस्था रखने और अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा जगी थी। ये नतीजे परमेश्वर के वचनों से ही हासिल हुए हैं। मगर मैंने न तो परमेश्वर की प्रसंशा की और न ही उसके कार्य और वचन की गवाही दी। मैंने दूसरों को यही सोचने दिया कि मैं ही अपने भाई-बहनों की समस्याएँ हल कर रही थी। मेरे अनुभव सुनकर दूसरों को परमेश्वर का ज्ञान नहीं मिला, बल्कि वे मेरी ही आराधना करने लगे। समस्याएं आने पर उन्होंने परमेश्वर पर भरोसा नहीं किया या सत्य की खोज नहीं की। बल्कि, उन्हें सुलझाने के लिए वे मेरी सहभागिता पर निर्भर रहे। वे मुझे ही अपने जीवन की रक्षक समझ बैठे थे। अगर चीजें ऐसे ही चलती रहीं, तो क्या मैं लोगों को अपने ही सामने नहीं ला रही थी? फिर भी, मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं खुद को ऊँचा उठाने या दिखावा करने में लगी थी। मुझे यही लगता था कि मैं सिर्फ अपने सच्चे अनुभव बता रही हूँ। मैंने देखा कि अपने अनुभवों का ज़िक्र करते हुए मेरी घृणित मंशाएं होती थीं। मैं लोगों के दिलों में अपने लिए एक ऊँची जगह बनाना चाहती थी। मैंने इस बारे में जितना सोचा उतना ही मैं खुद को नीच और बेशर्म महसूस करती रही। यह परमेश्वर का अनुग्रह था कि मैं सिंचन-कार्य का प्रभार ले पाई और मेरे लिए उसकी इच्छा यह थी कि मैं समस्याएँ हल करने के लिए उसके वचनों पर संगति करूँ, लोगों को परमेश्वर के सामने लाऊँ, और सत्य समझने और परमेश्वर को जानने में उनकी मदद करूँ। मगर अपने कर्तव्य में, मैंने निरंतर दिखावा किया ताकि लोग मेरी आराधना करें। मैंने पवित्र आत्मा के कार्य के नतीजों को अपनी मेहनत का फल समझकर उन्हें अपने बारे में डींगे हांकने के लिए पूंजी की तरह इस्तेमाल किया। मैंने परमेश्वर की महिमा चुराकर अपने भाई-बहनों से खुद की प्रशंसा और आराधना करवाई, मगर मुझे ज़रा सी भी शर्म नहीं आई। मुझमें रत्ती भर भी अंतरात्मा या विवेक नहीं था! मेरी अगुआ ने मेरी काट-छाँट की, ताकि मैं स्वयं द्वारा अपनाए गए गलत मार्ग पर विचार करके समय रहते अपनी गलतियाँ सुधार सकूँ, यह मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम और उद्धार ही था। मैं जान गई थी कि मैं परमेश्वर की और अवज्ञा और विरोध नहीं कर सकती। मुझे जल्दी-से जल्दी प्रायश्चित करना होगा। मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश याद आया : “तुम्हारे अनुभवों को साझा करने और उनका संचार करने का अर्थ है तुम्हारा अपने अनुभवों और परमेश्वर के वचनों के ज्ञान पर संगति करना। यह तुम्हारे दिल के हर विचार, तुम्हारी हर दशा और तुममें प्रकट भ्रष्ट स्वभाव को वाणी देना है। यह दूसरों को इन चीजों के बारे में जानने देने और फिर सत्य पर संगति करके समस्या को सुलझाने के बारे में है। अनुभवों पर इस प्रकार संगति करके ही सभी लोग लाभ और फल पाते हैं। केवल यही सच्चा कलीसिया जीवन है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मैं समझ गई कि अनुभव पर संगति करते हुए हमें खुद की मंशाओं, इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं के बारे में नहीं सोचना चाहिए। मुझे अपना दिल खोलकर रखना चाहिए और भाई-बहनों को वह सब बताना चाहिए जो मेरे दिल में है। चाहे मैं सकारात्मक हूँ या नकारात्मक, मुझे हमेशा अपनी वास्तविक हालत के बारे में खुलकर बात करनी चाहिए, ताकि वे मेरे अनुभव से सीख लेकर सकारात्मक चीज़ों को अपना सकें और नकारात्मक चीज़ों को पहचान सकें, वो देख पाएँ कि मैं भी विद्रोही और भ्रष्ट हूँ, कि मैं भी नकारात्मक और कमजोर हो सकती हूँ, और वे मुझे ऊंचा समझकर मेरी प्रशंसा न करें। इस तरह, वे मेरे अनुभव से सीख लेकर मेरी गलतियों को नहीं दोहराएंगे। अगले दिन की सभा में, मुझे अपनी हालत के बारे में चर्चा करने की हिम्मत मिली। मैंने विश्लेषण करके सबको बताया कि इस अवधि के दौरान मैं कैसे दिखावा किया करती थी ताकि लोग मेरे बारे में ऊँचा सोचें, और कैसे मैं आत्म-चिंतन करके खुद को पहचान पाई। उस सभा में मैंने खुद को बहुत सुरक्षित और खुश महसूस किया।

एक बार, मुझे पता चला कि एक बहन बहुत उदास रहती थीं। बात करने पर, उन्होंने कहा, “सभाओं में, मैं हमेशा प्रभावशाली तरीके से दूसरों की मदद करने के आपके अनुभव को सुनती हूँ, मगर मेरे पास सत्य वास्तविकताएँ नहीं हैं, और मेरी काबिलियत भी बहुत कम है। मैं समस्याओं को हल नहीं कर पाती। इससे मुझे काफी तनाव रहता है। मैं ये कर्तव्य नहीं संभाल सकती।” उसकी बात सुनकर, मैं बहुत शर्मिंदा हुई। मैंने सोचा, “उसकी नकारात्मकता का कारण कोई और नहीं बल्कि मैं ही हूँ। मैंने अपने कर्तव्यों में परमेश्वर की प्रसंशा नहीं की, मैंने अपने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में आने वाली व्यवहारिक समस्याओं को हल नहीं किया, मैंने हमेशा बड़ी-बड़ी डींगें हाँकीं और दिखावा किया, जिससे वह अनजाने में यह समझ बैठी कि मेरे पास सत्य की समझ और आध्यात्मिक कद-काठी है। मैं अपनी गलती नहीं दोहरा सकती। मुझे अपने बारे में उसे सब कुछ खुलकर बताना होगा।” तो मैंने उसे बता दिया कि मेरी हालत कैसी है, और कैसे मैं इतने दिनों से दिखावा कर रही थी। मैंने उसे यह भी बताया कि मुझमें भी कमियाँ हैं, मैं भी समस्याएँ आने पर कमजोर महसूस करती हूँ, और दरअसल मेरे पास भी सत्य वास्तविकताएँ नहीं हैं, कि मेरे कर्तव्य के सभी नतीजे पवित्र आत्मा के कार्य और मार्गदर्शन से आए थे, और मैं अपने आप कुछ भी हासिल नहीं कर सकती थी। मेरी बहन ने भावुक होकर कहा, “तुम्हारी संगति से मुझे यह एहसास हुआ मैं सत्य की खोज नहीं करती, मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, मैं सिर्फ बाहरी गुणों पर ध्यान देती हूँ, दूसरों की आराधना करती हूँ, और यह नहीं समझ पाई हूँ कि सभी नतीजे पवित्र आत्मा के कार्य और मार्गदर्शन से हासिल होते हैं। मैं अपनी समस्याओं के सामने अब और नकारात्मक और कमजोर नहीं हो सकती। मैं परमेश्वर पर भरोसा करके अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ।” अपनी बहन के मुंह से यह सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई।

इसके बाद, मैं आत्म-चिंतन करने लगी। यह जानते हुए भी कि दिखावा करने का मतलब परमेश्वर का विरोध करना है, क्यों मैं अनजाने में इस मार्ग पर चल पड़ी थी? मुझे क्या हो गया था? बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन का ये अंश पढ़ा : “कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जाकर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है कि लोग उन्हें सुनें, उनकी आराधना करें और उनके चारों ओर घूमें। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के दिलों में उनकी एक जगह हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें। उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिलों में एक जगह रखना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के वचन के प्रकाशन से, मैं समझ गई कि मुझे अपने भाई-बहनों के सामने दिखावा करना और उनकी नजरों में ऊंचा उठना और आराध्य होना बहुत पसंद था, क्योंकि मैं अपनी अहंकारी प्रकृति के काबू में थी। इतनी अहंकारी प्रकृति के कारण ही, अपने कर्तव्य में कुछ अच्छे नतीजे मिलने पर मैं खुद की प्रशंसा करने लगी थी। यह दिखाने के लिए कि मैं असाधारण और दूसरों से बेहतर हूँ, मैं सभाओं में हमेशा अपनी डींगें हाँकती रहती थी और अपने काम की उपलब्धियों का दिखावा करती रहती थी। अपनी मुश्किलों, अपनी कमजोरियों, अपने विद्रोही स्वभाव और भ्रष्टता के बारे में मैं कभी कुछ नहीं कहती थी। अपने भाई-बहनों की प्रशंसा पाकर मुझे डर नहीं लगता था बल्कि बहुत खुशी मिलती थी, और मैं बेशर्मों की तरह उनकी प्रशंसा और आराधना का आनंद उठाने लगी थी। पौलुस को सभाएं करने और उपदेश देने में आनंद आता था, पवित्र आत्मा के कार्य के प्रभावों को अपनी खुद की पूंजी मानते हुए, लोगों को बहकाने के लिए हमेशा खुद की बड़ाई और दिखावा करते हुए। वह सभी विश्वासियों को अपने सम्मुख ले आया, जिससे आज 2,000 साल बाद भी पूरा धार्मिक संसार उसकी भक्ति और जयजयकार करता है, उसके शब्दों को परमेश्वर के वचन मानता है, और प्रभु यीशु की जानकारी से शून्य है। पौलुस अहंकारी और दंभी स्वभाव का था, और उसमें परमेश्वर के लिए कोई सम्मान नहीं था; वह परमेश्वर का विरोध करने वाले मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलता रहा। उसने लोगों के दिलों में परमेश्वर की जगह खुद की जगह बना ली और उसके धार्मिक स्वभाव का भारी अपमान किया, जिससे वह परमेश्वर द्वारा दंडित और शापित किया गया। क्या मेरा स्वभाव पौलुस जैसा ही नहीं था? मैं भी अहंकारी और दंभी थी, मुझे खुद की प्रशंसा सुनना, दिखावा करना, और लोगों से घिरे रहना बहुत पसंद था। इसी वजह से, मेरे इस “प्रदर्शन” के कई महीनों बाद, सभी लोग मुझे ऊँचा समझकर मेरी आराधना करने लगे, और उनके दिलों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी। समस्याएं आने पर वे परमेश्वर के बजाय मेरी खोज करने लगे। क्या मैं परमेश्वर का विरोध करके अपने भाई-बहनों को नुकसान नहीं पहुंचा रही थी? क्या मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर नहीं चल रही थी। तब जाकर मुझे समझ में आया कि मैं खतरे में थी और अपनी अहंकारी प्रकृति के काबू में थी। मैं अक्सर बेशर्मों की तरह खुद की बड़ाई और दिखावा किया करती थी, अपने भाई-बहनों को बहकाकर खुद की भक्ति करवाती थी, कभी-कभी तो मेरे अंदर घृणित मंशाएं होती थीं और मैं दिखावा करने की तरकीबें आजमाती थी। मैं कितनी घृणित थी! यह सोचते हुए मुझे खुद से घृणा और नफरत होने लगी, और मैंने कसम खाई कि मैं दोबारा कभी भी दिखावा नहीं करूंगी।

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचन के पाठ का एक वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और उसकी पहचान और हैसियत सर्वोच्च है। परमेश्वर में अधिकार, बुद्धि और शक्ति है, और उसका अपना स्वभाव और अपनी संपत्तियाँ और अस्तित्व है। क्या कोई जानता है कि परमेश्वर मानवजाति और समस्त सृष्टि के बीच कितने वर्षों से कार्य कर रहा है? जितने वर्षों से परमेश्वर कार्य करते हुए समस्त मानवजाति का प्रबंधन कर रहा है, उनकी विशिष्ट संख्या अज्ञात है; कोई भी सटीक आँकड़ा नहीं दे सकता, और परमेश्वर इन मामलों की जानकारी मानवजाति को नहीं देता। लेकिन, अगर शैतान ऐसा कुछ करता, तो क्या वह इसकी जानकारी देता? वह निश्चित रूप से देता। वह ज्यादा लोगों को धोखा देने और ज्यादा लोगों को अपने योगदान से अवगत कराने के लिए दिखावा करना चाहता है। परमेश्वर इन मामलों की जानकारी क्यों नहीं देता? परमेश्वर के सार का एक विनम्र और छिपा रहने वाला पहलू है। विनम्र और छिपे होने का उलटा क्या है? वह है अहंकारी होना और अपना प्रदर्शन करना। ... परमेश्वर चाहता है कि लोग उसकी गवाही दें, पर क्या उसने अपनी गवाही खुद दी है? (नहीं।) दूसरी ओर शैतान को डर लगा रहता है कि लोग उसके किसी धेले-भर के काम के बारे में भी नहीं जान पाएँगे। मसीह-विरोधी इससे अलग नहीं हैं : वे स्वयं द्वारा किए गए हर छोटे-मोटे काम के बारे में सबके सामने शेखी बघारते हैं। उनकी बात सुनकर लगता है कि वे परमेश्वर की गवाही दे रहे हैं—लेकिन अगर तुम ध्यान से सुनो तो तुम्हें पता चलेगा कि वे परमेश्वर की गवाही नहीं दे रहे, बल्कि अपनी शान बघार रहे हैं, खुद को स्थापित कर रहे हैं। उनकी बातों के पीछे की प्रेरणा और सार परमेश्वर के चुने हुए लोगों और हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ होड़ करना है। परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, जबकि शैतान अपनी शान दिखाता है। क्या इनमें कोई अंतर है? दिखावा बनाम विनम्रता और प्रच्छन्नता : इनमें से कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं? (विनम्रता और प्रच्छन्नता।) क्या शैतान को विनम्र कहा जा सकता है? (नहीं।) क्यों? उसके दुष्ट प्रकृति-सार को देखते हुए, वह रद्दी का एक बेकार टुकड़ा है; शैतान के लिए अपनी शान न बघारना एक असामान्य बात होगी। शैतान को ‘विनम्र’ कैसे कहा जा सकता है? ‘विनम्रता’ परमेश्वर का अंग है। परमेश्वर की पहचान, सार और स्वभाव उदात्त और आदरणीय हैं, लेकिन वह कभी दिखावा नहीं करता। परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, इसलिए लोगों को नहीं दिखता कि उसने क्या किया है, लेकिन जब वह ऐसी गुमनामी में कार्य करता है, तो लोगों को निरंतर समर्थन, पोषण और मार्गदर्शन मिलता है—और इन सब चीजों की व्यवस्था परमेश्वर करता है। क्या यह प्रच्छन्नता और विनम्रता नहीं है कि परमेश्वर इन बातों को कभी घोषित नहीं करता, कभी इनका उल्लेख नहीं करता? परमेश्वर विनम्र ठीक इसलिए है, क्योंकि वह ये चीजें करने में सक्षम है लेकिन कभी इनका उल्लेख या घोषणा नहीं करता, और लोगों के साथ इनके बारे में बहस नहीं करता। तुम्हें विनम्रता के बारे में बोलने का क्या अधिकार है, जब तुम ऐसी चीजें करने में असमर्थ हो? तुमने इनमें से कोई चीज नहीं की है, फिर भी इनका श्रेय लेने पर जोर देते हो—इसे बेशर्म होना कहा जाता है। मानव-जाति का मार्गदर्शन करते हुए परमेश्वर ऐसा महान कार्य करता है, और वह पूरे ब्रह्मांड का संचालन करता है। उसका अधिकार और सामर्थ्य बहुत व्यापक है, फिर भी उसने कभी नहीं कहा, ‘मेरा सामर्थ्य असाधारण है।’ वह सभी चीजों के बीच छिपा रहता है, हर चीज का संचालन करता है, और मानव-जाति का भरण-पोषण करता है, जिससे पूरी मानव-जाति का अस्तित्व पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहता है। उदाहरण के लिए, हवा और धूप को या पृथ्वी पर मानव-अस्तित्व के लिए आवश्यक सभी भौतिक वस्तुओं को लो—ये सब लगातार बहती रहती हैं। परमेश्वर मनुष्य का पोषण करता है, यह असंदिग्ध है। अगर शैतान कुछ अच्छा करे, तो क्या वह चुप रहेगा, और एक गुमनाम नायक बना रहेगा? कभी नहीं। वह वैसा ही है, जैसे कलीसिया में कुछ मसीह-विरोधी हैं, जिन्होंने पहले जोखिम भरा काम किया, जिन्होंने चीजें त्याग दीं और कष्ट सहे, जो शायद जेल भी गए हों; ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कभी परमेश्वर के घर के कार्य के एक पहलू में योगदान दिया था। वे ये चीजें कभी नहीं भूलते, उन्हें लगता है कि इन कामों के लिए वे आजीवन श्रेय के पात्र हैं, वे सोचते हैं कि ये उनकी जीवन भर की पूँजी हैं—जो दर्शाता है कि लोग कितने ओछे हैं! लोग सच में ओछे हैं, और शैतान बेशर्म है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ने के बाद, मैं बहुत शर्मिंदा महसूस करने लगी। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, उसके पास अधिकार और सामर्थ्य है, उसकी पहचान महानतम और उसका रुतबा सबसे ऊँचा है। फिर भी भ्रष्ट मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर खुद देहधारण करके हमारे बीच आया, लोगों को पोषण देने और बचाने के लिए वह बिना कुछ कहे सत्य व्यक्त करता है। वह कभी भी परमेश्वर के रुतबे का इस्तेमाल करके कोई दिखावा नहीं करता, न ही वह यह कहता है कि उसने मानवजाति को बचाने के लिए कितना काम किया है या कितना अपमान और कष्ट सहा है। इसके बजाय वह हमेशा लोगों के बीच दीन-हीन बनकर गुप्त रूप से मानवता के सिंचन और बचाव का अपना कार्य करता है। परमेश्वर का सार कितना पवित्र, दयालु और भला है! मैं बेहद घिनौनी इंसान हूँ जिसे शैतान गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है, परमेश्वर की नज़रों में बहुत मामूली होने के बावजूद, मैंने बेशर्मों की तरह खुद की बड़ाई की, दिखावा किया और सबको मुझे ऊंचा समझने और मेरी भक्ति करने पर मजबूर किया। मैं सचमुच इतनी अहंकारी थी कि मैंने अपना विवेक खो दिया था, मैं परमेश्वर के सामने जीने के काबिल नहीं थी! उस समय मुझे अपने अहंकार और दिखावे पर और भी ज्यादा शर्मिंदगी महसूस हो रही थी। मैं परमेश्वर के सामने नत मस्तक होकर प्रार्थना करने लगी, “परमेश्वर, तुम्हारे न्याय और प्रकाशन से, मुझे पता चल गया कि मैं इंसान की तरह नहीं जी रही थी, और अब मैं और ज्यादा ऐसे जीना नहीं चाहती। परमेश्वर, मुझे राह दिखाओ, मुझे सत्य का अभ्यास करना और तुम्हारी गवाही देना सिखाओ।”

मैंने परमेश्वर के ये वचन देखे : “जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और कैसे लोगों को ताड़ना देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुम लोगों को इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुम्हारे अनुभव में कितनी भ्रष्टता उजागर हुई, तुमने कितना कष्ट सहा, परमेश्वर का विरोध करने के लिए तुमने कितनी चीजें कीं, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुम लोगों को जीता; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुम्हें परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और कैसे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। तुम्हें इन बातों को सरलता से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा में सत्व डालना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार चीजों का अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊंचा दिखाने की कोशिश मत करो, दिखावा करने के लिए खोखले सिद्धांतों की बात मत करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्कहीन माना जाएगा। तुम्हें अपने वास्तविक अनुभव की असली, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज्यादा बोलना चाहिए; यह दूसरों के लिए सबसे अधिक लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। मुझे परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग मिला। सच्ची संगति का अर्थ अपने सफल अनुभवों की बात करके दिखावा करना नहीं है। यह इस बात की गवाही देना है कि परमेश्वर कैसे हमारा न्याय, शोधन और बचाव करता है। अपने विद्रोही, भ्रष्ट स्वभाव और अपनी घृणित मंशाओं को उजागर करते हुए उनके नतीजों के बारे में बात करना जरूरी है, और यह बताना भी कि बाद में कैसे परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव करके उन्होंने खुद को पहचाना। इसी तरीके से दूसरों को अपनी खुद की भ्रष्टता की पहचान और परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव और मानवता से परमेश्वर की अपेक्षाओं का ज्ञान हो सकता है। इसी तरह वे लोगों के लिए परमेश्वर के उद्धार और उसके प्रेम को देख सकते हैं। सिर्फ इस तरह संगति करके ही कोई परमेश्वर की गवाही दे सकता है। अभ्यास के इन मार्गों को समझ लेने के बाद, मैं सच्चे मन से इनका अभ्यास करने लगी। एक बार एक सभा में, किसी भाई ने अपने कर्तव्य में नाम और रुतबे के पीछे भागने के बारे में बात की। हरेक से अपनी तुलना करने पर, उन्हें बहुत दुख हुआ, मगर वे इस समस्या का हल नहीं जानते थे। उन्हें अपनी हालत के बारे में बात करते सुनकर, मैंने सोचा, “अगर मैंने उनकी समस्या हल कर दी, तो भविष्य के अपने अनुभवों में वे यही कहेंगे कि मेरी सहभागिता के कारण ही उनकी हालत में सुधार आया। सभी भाई-बहन मुझे ऊंचा समझकर यही कहेंगे कि मेरे पास सत्य की समझ और आध्यात्मिक कद-काठी है। मुझे अपनी सहभागिता में शब्दों और विचारों को गढ़कर उस भाई को अपने अनुभव के बारे में बताना होगा।” उसी वक्त, मुझे अचानक ही यह एहसास करके बहुत अफ़सोस हुआ, कि मैं दोबारा अपना शैतानी प्रदर्शन करने जा रही थी। कुछ ही देर पहले अपने मन में आए ख़याल से मुझे इतनी घृणा हुई जैसे मैंने कोई मरी हुई मक्खी निगल ली हो। इसलिए मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि वह मुझे खुद की इच्छाओं का त्याग करके इस बार परमेश्वर का गुणगान करने और उसकी गवाही देने की शक्ति दे। मैंने अपने भाई कोनाम और रुतबे के पीछे भागने और अपने पद से हटाए जाने के विफल अनुभव के बारे में बताया। मैंने उन्हें यह भी बताया कि कैसे परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं आत्म-चिंतन करके खुद को पहचान पाई और प्रायश्चित करके अपने-आपमें कुछ बदलाव ला पाई। संगति के बाद, मेरे भाई को यह एहसास हुआ कि उनकी प्रकृति भी बहुत अहंकारी थी, उन्हें यह भी पता चला कि नाम और रुतबे के पीछे भागना एक मसीह-विरोधी का मार्ग है, और अब वे प्रायश्चित करना चाहते थे। अपने भाई की संगति को सुनकर, मैंने मन-ही-मन परमेश्वर का धन्यवाद किया। यह परमेश्वर के मार्गदर्शन का ही फल था।

इसके बाद, सभाओं में अपने भाई-बहनों के साथ संगति के दौरान, भले ही मैं कभी-कभार अब भी दिखावा कर देती थी, मगर यह पहले की तरह खुलकर या गंभीर नहीं होता था। कभी-कभी मुझे दिखावा करने का ख़याल आता, मगर इसका एहसास होते ही मैं परमेश्वर से प्रार्थना करके खुद की इच्छाओं का त्याग करने में सफल रहती। धीरे-धीरे, मैंने दिखावा करना बहुत कम कर दिया, अपनी बड़ाई करने की मेरी इच्छा भी खत्म होने लगी, और अपने शब्दों और कार्यों में मैं थोड़ा विवेकशील होने लगी। मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के उद्धार की बहुत गहराई से आभारी हूँ!

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