22. मैं समस्याओं की रिपोर्ट करने से क्यों डरती हूँ?

क्रिस्टीना, अमेरिका

2011 में सुसमाचार उपयाजक के रूप में कार्य करते हुए मैंने देखा कि मेरी अगुआ झाँग मिन अक्सर सिद्धांत बघारकर इतराती फिरती है। मैं जानती थी कि यह भाई-बहनों और खुद उसके लिए भी नुकसानदेह है, इसलिए मैंने इस समस्या को जैसा समझा, वैसा उसे बता दिया। मैं हैरान रह गई कि एक हफ्ते बाद ही उसने मुझे बदलवा दिया और भाई-बहनों से कह दिया कि मैं रुतबे के लिए उससे होड़ ले रही थी, इसलिए ऐसा किया गया। बाद में झाँग मिन को मसीह-विरोधी के रूप में उजागर कर निकाल दिया गया, क्योंकि वह लोगों पर आक्षेप लगाकर बदला लेती थी, तमाम बुराइयाँ करती थी और पश्चात्ताप नहीं करना चाहती थी। उसके बाद ही मुझे फिर से अपना कर्तव्य निभाने दिया गया। इस अनुभव के बाद मैंने खुद से कहा : “मुझे आगे से जुबान सँभालकर बात करनी पड़ेगी। कम बोलूँगी, काम ज्यादा करूँगी और दूसरों के मामलों में टाँग नहीं अड़ाऊँगी। पहले जैसी मुँहफट नहीं रहूँगी। अगर मैं किसी और मसीह-विरोधी से टकरा गई और न चाहते हुए भी उसे नाराज कर बैठी और फिर मुझे सताया और बदल दिया गया, तो मैं दुबारा अपना कर्तव्य नहीं निभा सकूँगी। फिर मेरे पास उद्धार का कौन-सा मौका बचेगा?” उसके बाद दूसरों से बात करते हुए मैं बहुत सावधान और होशियार रहने लगी।

बाद में सुसमाचार कार्य का प्रभार लेने के लिए मुझे लिऊ श्याओ का जोड़ीदार बनाया गया। सभाओं में मैंने देखा कि लिऊ श्याओ अपने जीवन-प्रवेश के सकारात्मक पहलुओं पर ही संगति करती थी, मानो उसने पहले ही ढेर सारे मसले सुलझा लिए हों और बहुत अच्छा आध्यात्मिक कद पा लिया हो। मैंने उसे एक बार भी अपनी भ्रष्टता का विश्लेषण करते या इसकी जानकारी देते नहीं सुना। मैं खुद को रोक न पाई और उसे कह दिया : “हम एक दूसरे को लंबे अरसे से जानते हैं, पर एक बार भी तुम्हें अपने आत्म-ज्ञान की चर्चा करते नहीं सुना।” मैं यह देखकर हैरान रह गई कि लिऊ श्याओ ने खफा होकर गंभीर मुद्रा धारण कर ली। उसने रूखा-सा जवाब दिया : “हमें सिर्फ अपना ज्ञान नहीं होना चाहिए; अगर हमने अपना स्वभाव नहीं बदला तो हमारा सारा आत्म-ज्ञान बेकार है! आजकल आत्म-ज्ञान की बातें कौन नहीं कर सकता? क्या उनमें से कोई बदला?” इससे मुझे लगा कि उसकी समझ विकृत है। स्वभावगत बदलाव की कुँजी आत्म-ज्ञान है; अगर तुम्हें अपनी ही भ्रष्टता का ज्ञान नहीं है तो फिर तुम बदलोगे कैसे? वह परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना नहीं स्वीकारती थी, उसके वचनों के आधार पर आत्म-चिंतन नहीं करती थी। वह ऐसी हास्यास्पद टिप्पणी कैसे कर सकती थी? इसलिए मैंने उसे परमेश्वर के वचनों के आधार पर अपनी समझ बताई, लेकिन इसे स्वीकारने के बजाय उसने उल्टा जवाब दिया : “मैं तुम्हें अक्सर आत्मज्ञान की चर्चा करते सुनती हूँ लेकिन क्या तुम बदल चुकी हो? अगर तुम खुद को जानती हो तो अभी भी भ्रष्टता क्यों दिखाती हो?” मुझे लगा कि उसकी समझ बहुत विकृत है और वह सत्य नहीं स्वीकारती है। उसके बाद मेरे प्रति लिऊ श्याओ का रवैया बदल गया। वह मेरी अनदेखी करने लगी, शायद ही कभी मुझसे बात करती थी, इस सबसे मैं काफी बेबस महसूस करने लगी। यह देखते हुए कि लिऊ श्याओ की समझ विकृत थी और वह दूसरों के सुझाव नहीं स्वीकारती थी, मुझे लगा कि वह सुपरवाइजर बनने के इतने काबिल नहीं थी, और मैंने उसकी समस्या अगुआ को बताने की सोची, लेकिन तभी मैंने सोचा : “लिऊ श्याओ अरसे से विश्वासी है और सुसमाचार प्रचार करती आ रही है, हमारी अगुआ भी उसे बहुत मानती है। मैंने यह कर्तव्य निभाना अभी शुरू ही किया है, अगर मैं लिऊ श्याओ की समस्या बताती हूँ, तो अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या वह यह कहेगी कि मैं लिऊ श्याओ से जलती हूँ और उसकी कमियाँ निकाल रही हूँ? इसे भूल जाओ, जितनी कम मुसीबत उतना ही अच्छा। मुझे पहले अपना ख्याल रखना चाहिए। उसमें आत्म-ज्ञान की कमी और विकृत समझ होना उसकी समस्या है और इसका मुझसे कोई वास्ता नहीं है। आइंदा मैं अपने बारे में अपनी समझ की चर्चा उसके सामने करूँगी ही नहीं। ऐसे में वह न मेरी गलतियाँ पकड़ पाएगी, न मुझे मुसीबत में डाल पाएगी।”

बाद में सीसीपी ने बड़े पैमाने पर विश्वासियों पर एक साथ हमला बोल दिया और लिऊ श्याओ ने कायर और डरपोक होने के कारण सुसमाचार प्रचार बंद कर दिया। कुछ दिन बाद हमारी अगुआ ने सुसमाचार कार्य की प्रगति पूछते हुए हमें पत्र लिखा और जहाँ तक सुरक्षित हो, सुसमाचार प्रचार करते रहने के लिए हमारा हौसला बढ़ाया। लिऊ श्याओ ने कहा : “अभी खतरनाक स्थिति है। अगर हमें सुसमाचार प्रचार करते गिरफ्तार कर लिया गया तो क्या होगा? हमारी अगुआ अभी आपत्तिजनक निर्देश दे रही है; कोई पहली बार उसने मुसीबत में डालने वाला फैसला नहीं किया है।” लिऊ श्याओ की इस आलोचना से भी अपनी अगुआ के बारे में मेरी राय पर असर पड़ा। मैंने सोचा : “अगर सुसमाचार फैलाते हुए कोई पकड़ा गया तो क्या होगा? जिम्मेदारी कौन लेगा? शायद हमें कुछ समय रुक जाना चाहिए।” सुसमाचार कार्य यूँ ही एक महीने से ज्यादा ठप रहा। अगुआ ने सुसमाचार कार्य का महत्व बताकर हमें एक और पत्र लिखा और इस बात पर भी जोर दिया कि सुसमाचार कार्य परमेश्वर का आदेश है और यह कभी नहीं रुकना चाहिए। यहाँ तक कि इन दिनों जैसी प्रतिकूल परिस्थिति में भी निकट परिचितों, रिश्तेदारों और दोस्तों के बीच सुसमाचार प्रचार संभव है। अगुआ ने यह भी पूछा कि हमने सुसमाचार कार्य क्यों रोक दिया। पत्र पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि हमारा अभ्यास पटरी से उतर चुका है, लेकिन जब मैंने लिऊ श्याओ को पत्र दिखाया तो वह उदासीन और बिल्कुल बेपरवाह दिखाई दी और हमारी गलतियाँ सुधारने का उसका कोई इरादा नहीं था। लिऊ श्याओ का रवैया देखकर मैंने मन-ही-मन सोचा : “अगर उसने सुसमाचार प्रचार नहीं किया तो मैं खुद करूँगी।” यह सोचकर मैंने गलतियाँ सुधारने के बारे में भाई-बहनों के साथ संगति की। लिऊ श्याओ दिन भर अपने कमरे में रहती, सुसमाचार कार्य के बारे में कभी नहीं पूछती। कभी-कभी वह घंटों टीवी देखती रहती थी। मैं सचमुच उसे इस बारे में बताना भी चाहती थी, लेकिन यह सोचकर कि उसने पिछली बार मेरा सुझाव सुनकर इसे न सिर्फ ठुकरा दिया, बल्कि मेरी भ्रष्टता प्रकट करने को आधार बनाकर बाद में मेरी अनदेखी की, तो मैं हिचकिचाने लगी : “अगर मैंने उसके मसले फिर से बता दिए तो वह न जाने क्या जवाब देगी। अगर मैंने उसे नाराज कर दिया और उसने मुझे झिड़क दिया तो उससे निर्वाह करना बहुत पीड़ादायक होगा! छोड़ो भी, मैं अपना मुँह बंद रखूँगी और अपने काम ठीक से करती रहूँगी।” बाद में हमारी अगुआ ने हमारे साथ इस बारे में संगति की कि दूसरी कलासियाओं के भाई-बहन किस प्रकार सुसमाचार प्रचार कर रहे हैं और उन्हें क्या नतीजे मिले हैं। मुझे काफी ग्लानि हुई। यह मुश्किल दौर था, फिर भी दूसरी कलीसियाओं के भाई-बहन सुसमाचार प्रचार में जुटे हुए थे। जबकि हमारी कलीसिया ने सुसमाचार कार्य पूरी तरह बंद कर दिया था और उसे कोई नतीजा हासिल नहीं हुआ था। मैंने अगुआ को पत्र लिखकर लिऊ श्याओ के व्यवहार के बारे में और सुसमाचार कार्य की ताजा स्थिति बतानी चाही, लेकिन जब भी अपनी कलम उठाती, यह सोचने लगती कि इस मसीह-विरोधी की आलोचना और अत्याचार सहना कितना भयावह है, और हिचकिचाने लगती : “लिऊ श्याओ की समस्या बताऊँगी तो क्या अगुआ मुझ पर विश्वास करेगी? अगर वह मुझ पर विश्वास नहीं करती और मेरी स्थिति की जाँच करती है, तो क्या यह मेरे लिए और भी मुसीबत नहीं होगी? यही नहीं, मैं अगुआ से परिचित नहीं हूँ, अगर वह मसीह-विरोधी निकली और समस्याओं को निष्पक्ष ढंग से हल न कर मुझे दबाने लगी तो क्या होगा? इस समय अपना कर्तव्य निभाते हुए इतनी स्थिरता और शांति बहुत अच्छी है। मैं इस बारे में शिकायत करके मुसीबत मोल नहीं लेना चाहती।” यह एहसास होने पर मैंने एक बार फिर चुप रहने का फैसला किया। लेकिन अपने काम में खराब नतीजे मिलते देखकर मैं बहुत चिंतित और उद्वेलित थी। अँधेरे में और परेशान थी, मैं नहीं जानती थी कि इस स्थिति को कैसे झेलूँ। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे विनती करके मार्गदर्शन और इस स्थिति का अनुभव करने की समझ माँगी।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े जिन्होंने मेरे सुन्न पड़े दिल को भाव विभोर कर दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “स्वार्थी और निकृष्ट लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं और अपने को उन चीजों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर की इच्छा का लिहाज नहीं करते हैं। वे अपने कर्तव्य को करने या परमेश्वर की गवाही देने की कोई जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। ... कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ पर कोई जिम्मेदारी नहीं लेते। वे पता चलने वाली समस्याओं की रिपोर्ट भी तुरंत अपने वरिष्ठों को नहीं करते। लोगों को विघ्न-बाधा डालते देखकर वे आँखें मूँद लेते हैं। जब वे दुष्ट लोगों को बुराई करते देखते हैं, तो वे उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करते। वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, न ही इस बात पर विचार करते हैं कि उनका कर्तव्य और जिम्मेदारी क्या है। जब ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते; वे खुशामदी लोग हैं जो सुविधा के लालची होते हैं; वे केवल अपने घमंड, साख, हैसियत और हितों के लिए बोलते और कार्य करते हैं, और वे अपना समय और प्रयास ऐसी चीजों में लगाना चाहते हैं, जिनसे उन्हें लाभ मिलता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। “अगर अपने जीवन में तुम अक्सर दोषारोपण करने की भावना रखते हो, अगर तुम्हारे हृदय को सुकून नहीं मिलता, अगर तुम शांति या आनंद से रहित हो, और अक्सर सभी प्रकार की चीजों के बारे में चिंता और घबराहट से घिरे रहते हो, तो यह क्या प्रदर्शित करता है? केवल यह कि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते, परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रहते। जब तुम शैतान के स्वभाव के बीच जीते हो, तो तुम्हारे अक्सर सत्य का अभ्यास करने में विफल होने, सत्य से मुँह मोड़ने, स्वार्थी और नीच होने की संभावना है; तुम केवल अपनी छवि, अपना नाम और हैसियत, और अपने हित कायम रखते हो। हमेशा अपने लिए जीना तुम्हें बहुत दर्द देता है। तुम इतनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं, उलझावों, बेड़ियों, गलतफहमियों और झंझटों में जकड़े हुए हो कि तुम्हें लेशमात्र भी शांति या आनंद नहीं मिलता। भ्रष्ट देह के लिए जीने का मतलब है अत्यधिक कष्ट उठाना(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है)। परमेश्वर के वचने पढ़ने के बाद मुझे काफी ग्लानि हुई। मैं जान गई कि लिऊ श्याओ की समस्या अगुआ को न बताने का कारण यह था कि मैं बहुत ही स्वार्थी और घिनौनी थी। मैं सिर्फ अपना हित देख रही थी, बस सुकून से अपना कर्तव्य निभाना चाहती थी, दूसरों को नाराज करके अपने लिए मुसीबत खड़ी करने से बचना चाहती थी। जैसे ही मैंने देखा कि लिऊ श्याओ की समझ विकृत है और वह सत्य स्वीकार नहीं करती, मैंने उसके बारे में अगुआ को बताना चाहा, लेकिन मैं इस बात से घबरा गई कि अगुआ मुझे गलत समझेगी और सोचेगी कि मैं लिऊ श्याओ से जलती हूँ, उसकी गलतियों का फायदा उठाकर आक्षेप लगाना चाहती हूँ। लिहाजा मैं चुप रही। जब मैंने देखा कि वह सुसमाचार फैलाना बंद कर चुकी है, दिन भर घर में टीवी देखती है, अपने कार्य में रुचि नहीं लेती है और सिर्फ अपने रुतबे के फायदे उठा रही है, तो मुझे फौरन उसकी शिकायत अगुआ को करनी चाहिए थी, लेकिन मैंने खुद को बचाना बेहतर समझा और कलीसिया के कार्य के हितों की चिंता बिल्कुल नहीं की। मैं यह देखकर भी चुप रही कि सुसमाचार कार्य में हमारे नतीजे कितने खराब हैं, और मुझे चाहे जितनी ग्लानि हुई हो, मैं यह बता ही नहीं सकी कि वास्तव में यहाँ चल क्या रहा है। मैंने अपना मुँह सी लिया था। मैं सचमुच स्वार्थी, घिनौनी और मानवता रहित थी। मुझे लगा कि मैं परमेश्वर की ऋणी हूँ, सत्य का अभ्यास न करने के लिए मुझे अपने आप से नफरत हुई जिसके कारण कार्य की प्रगति में बहुत देर हुई।

परमेश्वर के वचन खोजते हुए मेरी नजर इस अंश पर पड़ी : “अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्‍वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्‍हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियतकी स्थिरता या दूसरे लोग तुम्‍हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्‍हेंअपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्‍यों को दूर रखना चाहिए, तुम्‍हें परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगेकि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्‍ट व्‍यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्‍मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगेकि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्‍ट करने की तुम्‍हारी इच्छा घटती चली जाएगी(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखा दिया। कलीसिया के कार्य और निजी हितों से सामना होने पर हमें कलीसिया के कार्य को हमेशा तरजीह देनी चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण चीज पहले कलीसिया के कार्य को कायम रखना है। यह ऐसा कर्तव्य है जिसे हम टाल ही नहीं सकते। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना था और उदासीन होने से बचना था। मुझे अपने कार्य में समस्या के बारे में फौरन अगुआ को बताना चाहिए था। अगर लिऊ श्याओ के व्यवहार में वाकई कोई समस्या थी तो अगुआ और कार्यकर्ता इसे फौरन हल करके काम में देरी टाल सकते थे। अगर कुछ मसलों पर मेरी गलत समझ थी तो तो मैं खोज करके अपनी कमियाँ सुधार सकती थी। अगुआ और कार्यकर्ता मुझे किस रूप में देखेंगे यह इन चीजों से कम महत्वपूर्ण था। यह सब बोध होने पर मैं थोड़ी और उन्मुक्त हो गई, और मैंने लिऊ श्याओ की स्थिति का विस्तृत ब्योरा अपनी अगुआ को भेज दिया। लेकिन दो हफ्ते बाद भी मुझे धरातल पर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दी। मैंने मन-ही-मन सोचा : “क्या अगुआ ने इन मसलों पर मेरी रिपोर्ट को गंभीरता से लिया भी? वह इन मसलों को हल करने क्यों नहीं आई? क्या उसे लगता है कि लिऊ श्याओ के व्यवहार में कोई समस्या नहीं है और मैंने गलत रिपोर्ट पेश की है?” मैं बहुत परेशान थी और मैंने यह मसला एक और अगुआ को बताना चाहा, लेकिन फिर मैंने सोचा : “मैं पहले ही एक अगुआ को यह मसला बताकर अपना कर्तव्य पूरा कर चुकी हूँ। मुझे अपनी जुबान ज्यादा नहीं चलानी चाहिए; वरना सावधानी न बरतने पर कोई मुझसे नाराज हो गया तो मुझे दमन और दंड झेलना पड़ेगा।” मैं इस मसले पर और नहीं सोचना चाहती थी, फिर भी मुझे बहुत ग्लानि हो रही थी। मैंने मन-ही-मन सोचा : “मैं सत्य खोजने और कलीसिया के कार्य को कायम रखने के लिए इन समस्याओं की शिकायत कर रही हूँ, किसी की जिंदगी दूभर करने के लिए नहीं। परमेश्वर सभी चीजों की पड़ताल करता है, तो मैं क्यों फिक्र करूँ? मैं समस्याएँ बताने को लेकर इतनी ज्यादा सावधान और अनिर्णय की शिकार क्यों हूँ, मानो मेरे मुँह पर ताला जड़ दिया गया हो?” मैं खोजने और प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के समक्ष आई, उससे मार्गदर्शन माँगा ताकि मैं अपनी समस्या समझ सकूँ, अपने खिलाफ विद्रोह कर सत्य का अभ्यास कर सकूँ।

बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों के दो और अंश मिले जिन्होंने मुझे अपने बारे में कुछ जानकारी दी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “मसीह-विरोधियों जैसे लोग हमेशा परमेश्वर की धार्मिकता और स्वभाव को लेकर धारणाओं, संदेहों और प्रतिरोध के साथ पेश आते हैं। वे सोचते हैं, ‘यह केवल एक सिद्धांत है कि परमेश्वर धार्मिक है। क्या वास्तव में इस दुनिया में धार्मिकता जैसी कोई चीज होती है? अपने जीवन के तमाम वर्षों में मैंने उसे एक बार भी न पाया है, न देखा है। दुनिया बहुत अँधेरी और दुष्ट है, यहाँ बुरे लोग और दानव काफी सफल हैं, संतोष से जी रहे हैं। मैंने उन्हें वह मिलते हुए नहीं देखा, जिसके वे हकदार हैं। मैं नहीं देख पाता कि इसमें परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ है; मैं सोचता हूँ, क्या परमेश्वर की धार्मिकता असल में मौजूद भी है? उसे किसने देखा है? उसे किसी ने नहीं देखा और न ही कोई उसे प्रमाणित कर सकता है।’ अपने मन में वे यही सोचते हैं। वे परमेश्वर के सारे कार्य, उसके सारे वचन और उसके सारे आयोजन इस विश्वास की नींव पर नहीं स्वीकारते कि वह धार्मिक है, बल्कि हमेशा संदेह और आलोचना करते रहते हैं, हमेशा धारणाओं से भरे रहते हैं, जिनके समाधान के लिए वे कभी सत्य की तलाश नहीं करते। मसीह-विरोधी हमेशा इसी तरह से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। ... सामान्य समय में लोग इसे नहीं देख पाते, लेकिन जब उन पर कुछ विपत्ति आती है, तो मसीह-विरोधी की कुरूपता उजागर होती है। अपने सारे काँटे खड़े किए किसी साही की तरह, वह कोई भी जिम्मेदारी न लेने की इच्छा रखते हुए, अपनी पूरी ताकत से अपनी रक्षा करता है। यह कैसा रवैया है? क्या यह इस बात पर विश्वास न करने वाला रवैया नहीं है कि परमेश्वर धार्मिक है? मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर सबकी पड़ताल करता है या कि वह धार्मिक है; वे खुद को बचाने के लिए अपने तरीके इस्तेमाल करना चाहते हैं। उनका मानना है, ‘अगर मैं अपनी रक्षा नहीं करूँगा, तो कोई नहीं करेगा। परमेश्वर भी मेरी रक्षा नहीं कर सकता। लोग कहते हैं कि वह धार्मिक है, लेकिन जब लोग मुसीबत में पड़ते हैं, तो क्या वह वास्तव में उनके साथ उचित व्यवहार करता है? बिल्कुल नहीं—परमेश्वर ऐसा नहीं करता।’ मुसीबत या उत्पीड़न का सामना करने पर वे असहाय महसूस करते हैं और सोचते हैं, ‘तो, परमेश्वर कहाँ है? लोग उसे देख या छू नहीं सकते। कोई मेरी मदद नहीं कर सकता; कोई मुझे न्याय नहीं दे सकता और मेरे लिए निष्पक्षता कायम नहीं रख सकता।’ उन्हें लगता है कि अपनी रक्षा करने का एकमात्र उपाय अपने तरीकों से अपनी रक्षा करना है, वरना उन्हें नुकसान उठाना पड़ेगा, उन्हें धमकाया और सताया जाएगा—परमेश्वर का घर भी इसका अपवाद नहीं है। अपने ऊपर कुछ आ पड़ने से पहले ही मसीह-विरोधी अपने लिए हर चीज की योजना बना चुके होते हैं। एक हिस्से में, वे जो करते हैं, वह यह है कि अपने इतने शक्तिशाली व्यक्ति होने का स्वाँग रचते हैं कि कोई उन्हें अपमानित करने या उनके साथ पंगा लेने या उन्हें धौंस देने की हिम्मत नहीं करेगा। दूसरा हिस्सा उनका हर मोड़ पर शैतान के फलसफों और उसके अस्तित्व के नियमों का पालन करना है। वे मुख्य रूप से क्या हैं? ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,’ ‘चीजों को प्रवाहित होने दें यदि वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित न करती हों,’ ‘ज्ञानी लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं,’ परिस्थितियों के अनुसार कार्य करना, मधुरभाषी और चालाक बनना, ‘मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता,’ ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,’ ‘दूसरों की भावनाओं और तर्क-शक्ति के सामंजस्य में अच्छी बातें कहो, क्योंकि निष्कपट होना दूसरों को खिझाता है,’ ‘बुद्धिमान उस ओर रुख करता है जिस ओर हवा बहती है’ और ऐसे दूसरे शैतानी फलसफे। वे सत्य से प्रेम नहीं करते, लेकिन शैतान के फलसफों को ऐसे स्वीकारते हैं मानो वे सकारात्मक चीजें हों, और यह मानते हैं कि वे उनकी रक्षा करने में सक्षम होंगे। वे इन चीजों के अनुसार जीते हैं; वे किसी से सच नहीं बोलते, लेकिन हमेशा मनभाती, चिकनी-चुपड़ी, चापलूसी भरी बातें कहते हैं, किसी को ठेस नहीं पहुँचाते, खुद को आकर्षक रूप में प्रस्तुत करने के तरीकों के बारे में सोचते रहते हैं ताकि दूसरे उनका सम्मान करें। वे सिर्फ प्रतिष्ठा, लाभ और रुतबे के अपने अनुसरण की परवाह करते हैं, और कलीसिया के काम को बनाए रखने के लिए कुछ नहीं करते। जो भी कोई कुछ बुरा करता है और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाता है, वे उसे उजागर या उसकी रिपोर्ट नहीं करते, बल्कि ऐसे व्यवहार करते हैं मानो उन्होंने उसे देखा ही न हो। चीजें सँभालने के उनके सिद्धांतों और उनके आस-पास जो होता है उसके प्रति उनके व्यवहार को देखते हुए, क्या उन्हें परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का कोई ज्ञान है? क्या उन्हें उसमें कोई आस्था है? बिल्कुल नहीं। यहाँ ‘बिल्कुल नहीं’ का यह मतलब नहीं कि उन्हें इसके बारे में कोई जागरूकता नहीं है, बल्कि यह है कि उनके दिल में परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को लेकर संदेह हैं। वे न तो स्वीकारते हैं और न ही मानते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग एक))। “कुछ लोग मसीह-विरोधियों के प्रतिशोध से डरकर उन्हें उजागर करने का साहस नहीं करते। क्या यह मूर्खता नहीं है? तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने में असमर्थ हो, जो सहज रूप से दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के प्रति निष्ठाहीन हो। तुम डरते हो कि मसीह-विरोधी तुमसे बदला लेने की शक्ति पा सकता है—समस्या क्या है? क्या यह संभव है कि तुम परमेश्वर की धार्मिकता पर भरोसा नहीं करते? क्या तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के घर में सत्य राज करता है? अगर कोई मसीह-विरोधी तुममें भ्रष्टता के कुछ मुद्दे पकड़ भी ले और उस पर हंगामा खड़ा कर दे, तो भी तुम्हें डरना नहीं चाहिए। परमेश्वर के घर में समस्याएँ सत्य सिद्धांतों के आधार पर हल की जाती हैं। अपराध करने से ही कोई स्वतः दुष्ट व्यक्ति नहीं बन जाता। परमेश्वर का घर कभी किसी को भ्रष्टता के क्षणिक प्रकाशन या कभी-कभार होने वाले अपराध के कारण परेशान नहीं करता। परमेश्वर का घर उन मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों से निपटता है, जो लगातार गड़बड़ी पैदा करते और बुराई करते हैं, और जो चुटकी भर भी सत्य नहीं स्वीकारते। परमेश्वर का घर कभी किसी अच्छे व्यक्ति के साथ अन्याय नहीं करेगा। वह सभी के साथ उचित व्यवहार करता है। अगर नकली अगुआ या मसीह-विरोधी किसी अच्छे व्यक्ति पर गलत आरोप लगा भी दें, तो भी परमेश्वर का घर उसे दोषमुक्त कर देगा। कलीसिया कभी ऐसे अच्छे व्यक्ति को नहीं हटाएगा या परेशान करेगा, जो मसीह-विरोधियों को उजागर कर सकता है और जिसमें न्याय की भावना है। लोगों को हमेशा यह डर रहता है कि मसीह-विरोधी किसी बात का फायदा उठाकर उनसे बदला ले लेंगे। लेकिन क्या तुम परमेश्वर को अपमानित करने और उसकी घृणा और अस्वीकृति झेलने से नहीं डरते?(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। परमेश्वर ने उजागर कर दिया कि कैसे मसीह-विरोधी उसकी धार्मिकता में विश्वास नहीं करते और कैसे वह सभी चीजों की पड़ताल करता है। वे जीवन के हर पहलू में दुनिया से निपटने के लिए अपने फलसफे पर टिके रहते हैं, खुद को बचाने के लिए अपने तरीके आजमाते हैं और बहुत ही चालाक और चापलूस हैं। परमेश्वर के वचनों के खुलासे से अपनी तुलना करने पर देखा कि मैं भी मसीह-विरोधी से अलग नहीं हूँ। मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का कोई ज्ञान नहीं था, मैं नहीं मानती थी कि परमेश्वर के घर में सत्य का शासन है, और हर पहलू में दुनिया से निपटने के लिए शैतानी फलसफे के अनुसार चलती थी। बचपन में मेरे माता-पिता अक्सर मुझे चेतावनी देते थे, “मूर्ख की जुबान ही उसकी बर्बादी है, संसार में अपने कामों को खुद बोलने दो।” बड़ी होने के बाद काम शुरू करने पर मैंने समाज में अँधेरा, बुराई और अन्याय देखा तो यह मान बैठी कि चतुर-चालाक बनकर और दूसरों की जी-हुजूरी करके और सच न बोलकर मैं खुद को बचा सकूँगी और चैन से जिऊँगी। दुनिया से निपटने के शैतान के फलसफे जैसे, “चुप्पी सोना है और जो ज्यादा बोलता है, वह ज्यादा गलतियाँ करता है,” “जब पता हो कि कुछ गड़बड़ है, तो चुप रहना ही बेहतर है” मेरे आचरण के सिद्धांत बन गए। मैं इन मतों का पालन करने लगी और मैंने न सिर्फ चुप्पी ओढ़ ली और बोलने से कतराने लगी, बल्कि बहुत स्वार्थी, उदासीन, चापलूस और चालाक भी बन गई। भले ही किसी विषय पर मुझे कुछ सूझता हो, मैं सहज रूप से विचार व्यक्त नहीं करती थी। मैं अपने अंतरतम के विचार नहीं बताती थी, न ईमानदारी से बात करती थी, और हमेशा डरी रहती थी कि गलत बात कहने पर कोई नाराज हो गया तो मेरे लिए मुसीबत खड़ी हो जाएगी। आस्था में प्रवेश करने के बावजूद मैं खुद को बचाने के लिए शैतानी फलसफों का सहारा ले रही थी। मैंने खुद से कहा कि मुझे काम ज्यादा करना है और बोलना कम है, ताकि किसी को नाराज कर अपने लिए मुसीबत खड़ी न करूँ। जब मैंने देखा कि लिऊ श्याओ सुपरवाइजर के रूप में काम करने योग्य नहीं है, मैं जानती थी कि मुझे तुरंत अपनी अगुआ को बताना चाहिए, लेकिन मुझे डर था कि मेरी अगुआ इस मसले को निष्पक्ष ढंग से नहीं संभालेगी और मुझे दमन और दंड झेलना होगा। इसलिए खुद को बचाने के लिए मैं चुप रही, मैंने एक भी खरी बात कहने का साहस नहीं किया। मैं बहुत ही स्वार्थी, चापलूस और चालाक थी और मुझमें बिल्कुल भी न्याय बोध नहीं था, मैं तुच्छ और घटिया जीवन जी रही थी। दरअसल, खुद मेरा अनुभव बताता था कि एक अगुआ को सुझाव देने के बाद जब मैंने दमन झेला और मुझे हटा दिया गया, उसी अगुआ को मसीह-विरोधी के रूप में उजागर कर बहुत जल्द निकाल दिया गया। उसके बाद मैं फिर से अपना कर्तव्य निभाने लगी, और सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने का मौका इसलिए नहीं गँवाया कि उस मसीह-विरोधी ने कुछ समय मुझे दबाया था। मैंने खुद देखा कि परमेश्वर का घर किस प्रकार सत्य और धार्मिकता से संचालित होता है। परमेश्वर का घर निष्पक्ष रूप से और सत्य सिद्धांतों के अनुसार हर चीज संभालता है और सभी लोगों से पेश आता है, ताकि किसी के साथ गलत न हो। फिर भी मैं प्रकृति से बहुत दुष्ट और कुटिल थी, मुझे परमेश्वर की धार्मिकता का कोई ज्ञान नहीं था। मुझे लगता था कि परमेश्वर का घर समाज की तरह है और अगुआ-कार्यकर्ता सरकारी अधिकारियों की तरह हैं। मुझे लगता था कि अगर मैंने उन्हें नाराज कर दिया तो कलीसिया में मेरे लिए कोई जगह नहीं बचेगी। ये विचार और दृष्टिकोण कितने बुरे थे!

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े : “तुम्हारे भीतर कितने जीवन-दर्शन हैं? क्या तुमने उन्हें त्याग दिया है? अगर तुम्हारा हृदय पूरी तरह से परमेश्वर की ओर नहीं मुड़ पाता, तो तुम परमेश्वर के नहीं हो—तुम शैतान से आए हो, तुम अंततः शैतान के पास लौट जाओगे, और तुम परमेश्वर के लोगों में से एक होने के योग्य नहीं हो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है)। “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिलकुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मैंने जाना कि कोई विश्वासी उद्धार पा सकता है, यह इससे तय होता है कि क्या उसके पास सत्य है या नहीं और वह इसका पालन करता है या नहीं। अगर कोई अपनी आस्था में सत्य का पालन नहीं कर पाता, इसके बजाय संसार से निपटने के शैतानी फलसफों का पालन करता है, तो फिर वह शैतान का बंदा है, परमेश्वर का नहीं। भले ही बाहरी तौर पर वह कोई अहम कर्तव्य पूरा करे या कोई अगुआ उसके बारे में अच्छी राय रखे, फिर भी अंततः परमेश्वर उसे निकालकर रहेगा क्योंकि वह सत्य पर अमल नहीं करता और उसने सत्य हासिल नहीं किया है। मैंने लिऊ श्याओ को कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा डालते साफ-साफ देखा, लेकिन मैंने अपनी अगुआ को इसकी शिकायत करने की हिम्मत नहीं की, मैं डरती थी कि कोई मसीह-विरोधी मुझे दबाएगा और मैं अपना कर्तव्य गँवा बैठूँगी जिसका मतलब उद्धार पाने का मौका गँवाना होगा। मेरा विचार कितना मूर्खतापूर्ण और हास्यास्पद था! उद्धार पाने की मेरी काबिलियत दूसरे लोग तय नहीं कर सकते; यह इस बात से तय होगी कि क्या मैंने सत्य का अनुसरण किया या नहीं। अगर मैं शैतानी फलसफों के अनुसार जीती रही, खुद को बचाकर कलीसिया के कार्य को कायम नहीं रखा, तो फिर अपना कर्तव्य निभाने के बावजूद मुझे उद्धार नहीं मिलेगा। यह सोचकर मुझे बहुत पछतावा और अपराधबोध हुआ। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे विनती की कि वह मुझे सत्य का अनुसरण करने और ईमानदार और खरा इंसान बनने की राह दिखाए।

खोज और चिंतन कर मैंने यह भी जाना कि अगर मैं समस्या बताती हूँ तो अगुआ मुझे सताएगी, मेरे इस डर का कारण यह था कि मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमान संप्रभुता की समझ नहीं थी, मैंने परमेश्वर से मिले हालात नहीं स्वीकारे, बल्कि यह सोचा कि इनका कारण यह था कि मैं बहुत दखलंदाजी करती थी। क्या ये विचार किसी गैर-विश्वासी के नहीं हैं? मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : “कुछ कलीसियाओं में मसीह-विरोधी और दुष्ट लोग दिखाई पड़ते हैं, गड़बड़ी पैदा करते हैं, और ऐसा करते हुए वे कुछ लोगों को धोखा देते हैं—यह अच्छी बात है या बुरी? क्या यह परमेश्वर का प्रेम है या परमेश्वर लोगों के साथ खिलवाड़ कर उन्हें उजागर कर रहा है? तुम इसे नहीं समझ सकते, समझ सकते हो क्या? परमेश्वर सभी चीजों को पूर्ण करने के लिए उन्हें अपनी सेवा में ले आता है और वह उन लोगों को बचाता है जिन्हें बचाना चाहता है, और सच्चाई से सत्य को खोजने वाले और सत्य का अभ्यास करने वाले लोग आखिर में जो प्राप्त करते हैं वह सत्य होता है। हालाँकि कुछ लोग जो सत्य नहीं खोजते, वे यह कह कर शिकायत करते हैं, ‘परमेश्वर के लिए इस तरह कार्य करना सही नहीं है। इससे मुझे बहुत कष्ट होता है! मैं लगभग मसीह-विरोधियों के साथ हो जाता हूँ। अगर यह सचमुच परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित है, तो वह लोगों को मसीह-विरोधियों के साथ कैसे होने दे सकता है?’ यहाँ क्या चल रहा है? तुम्हारे मसीह-विरोधियों के पीछे न चलने से साबित होता है कि तुम्हें परमेश्वर की रक्षा प्राप्त है; अगर तुम मसीह-विरोधियों के साथ हो जाते हो, तो यह परमेश्वर के साथ धोखा है, और अब परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता। तो कलीसिया में इन मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों का गड़बड़ी पैदा करना अच्छी बात है या बुरी? बाहर से लगता है कि यह बुरी बात है, लेकिन जब ये मसीह-विरोधी और दुष्ट लोग उजागर होते हैं, तो वे समझ-बूझ में विकसित हो जाते हैं, स्वच्छ हो जाते हैं और आध्यात्मिक कद में ऊँचे हो जाते हैं। भविष्य में जब तुम ऐसे लोगों से दोबारा मिलोगे, तो उनके अपने असली रंग दिखाने से पहले ही तुम उन्हें पहचान जाओगे और ठुकरा दोगे। इससे तुम कुछ सबक सीख कर लाभान्वित हो पाओगे; तुम जानोगे कि मसीह-विरोधियों को कैसे पहचानें और अब शैतान से धोखा नहीं खाओगे। तो मुझे बताओ, क्या यह अच्छी बात नहीं है कि मसीह-विरोधियों को लोगों को बाधित करने और धोखा देने दिया जाए? इस स्तर तक अनुभव करने के बाद ही लोग देख सकते हैं कि परमेश्वर ने उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप कार्य नहीं किया है, वह बड़े लाल अजगर को उन्माद के साथ गड़बड़ी पैदा करने की अनुमति देता है, मसीह-विरोधियों को परमेश्वर के चुने हुए लोगों को धोखा देने की अनुमति देता है, ताकि वह अपने चुने हुए लोगों को पूर्ण करने के लिए शैतान को अपनी सेवा में लगा सके, और केवल तभी लोग परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादों को समझ सकते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर कलीसिया में मसीह-विरोधियों को इसलिए आने देता है ताकि हम सत्य और विवेक हासिल कर सकें, शैतान के छल-कपट और नियंत्रण से मुक्त हो सकें। अगर हमारा सामना किसी मसीह-विरोधी से न हो तो हम उन्हें पहचानना नहीं सीख पाएँगे और मसीह-विरोधियों के हाथों हमारे छले जाने की संभावना बनी रहेगी। उस मसीह-विरोधी के हाथों सताए जाने से मुझे मसीह-विरोधियों की थोड़ी पहचान हुई और चिंतन करके मुझे अपने मसीह-विरोधी स्वभाव का ज्ञान भी हो गया। इस दौरान मैं अपने कर्तव्य में हमेशा रुतबे की चाह रखती थी, मेरा दिल महत्वाकांक्षाओं से भरा रहता था। मैं मसीह-विरोधी रास्ते पर चल रही थी, फिर भी इससे पूरी तरह बेखबर थी। उस मसीह-विरोधी के हाथों दबाए और बदले जाने के बाद ही मैंने आत्म-चिंतन शुरू किया। परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और रोशनी में मैंने जाना कि रुतबे की चाह रखना बर्बादी का रास्ता है। मैंने सीखा कि अपनी आस्था में हमें सृजित प्राणियों के रूप में कर्तव्य निभाने का प्रयास करना चाहिए—हमें यही अनुसरण करना चाहिए। मैं सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करने लगी, और मुझे जो भी कर्तव्य सौंपा जाता, उसमें सचेत होकर भरसक प्रयास करती। मुझमें यह थोड़ा-सा बदलाव परमेश्वर का उद्धार और शानदार संरक्षण था। कुछ हद तक कष्ट भोगने के बावजूद मैंने इस प्रक्रिया में काफी सीखा और मेरे जीवन के लिए यह सबसे फायदेमंद रहा। मैंने जितना चिंतन किया, उतनी ही स्पष्टता आती गई—मैं जानती थी कि मुझे अपना कर्तव्य और जिम्मेदारी निभाने और स्थिति के बारे में अपनी समझ अगुआ को बताने की जरूरत है। अगुआ मुझसे कैसे पेश आएँगे और मुझे कैसी स्थिति का सामना पड़ेगा, यह सब परमेश्वर की मंजूरी से होगा। मुझे खुद को परमेश्वर के हाथों में सौंपकर उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित कर देना चाहिए। इसलिए मैंने यह समस्या एक दूसरे अगुआ को बताई।

मेरा पत्र मिलने और मेरी रिपोर्ट की पुष्टि करने के बाद अगुआ ने लिऊ श्याओ को तुरंत बदल दिया। इससे मैं भाव-विभोर हो गई। लिऊ श्याओ की समस्या देखने और अगुआ को इस बारे में बताने में मैंने दो महीने की देर कर दी। यह सोचकर कि इन दो महीनों में सुसमाचार कार्य पर किस तरह असर पड़ा और इसमें देरी हुई, मुझे बहुत ही पछतावा और ग्लानि हुई, और मुझे खुद से नफरत हुई कि शैतान ने मुझे कितना भ्रष्ट बना दिया है और मैं कितनी स्वार्थी और कुटिल हूँ। संसार से निपटने के शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हुए मैंने अपना नुकसान तो किया ही, कलीसिया के कार्य पर भी असर डाला। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद ही मुझे थोड़ा आत्म-ज्ञान मिला, अब मैं रुतबे और अधिकार के सामने बेबस नहीं होती थी, जो भी समस्या दिखती उसकी शिकायत ईमानदारी से करने लगी। परमेश्वर का धन्यवाद!

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