31. दिखावा करने की बेशर्मी

शिनपिंग, चीन

एक साल पहले, मुझे एक दूसरी कलीसिया में ट्रांसफर किया गया। सच कहूँ तो, वहाँ मेरा तालमेल जम नहीं पाया, क्योंकि मैं अपनी पुरानी कलीसिया में अगुआ थी, मेरे भाई-बहन मेरे बारे में बहुत ऊँचा सोचते थे। जब भी उनको कोई समस्या होती, वे समाधान के लिए मेरे पास आते। मगर इस कलीसिया में, भाई-बहन मेरे बारे में ज़्यादा नहीं जानते थे। ऐसा महसूस होता था जैसे मैं कोई गुमनाम इंसान हूँ, जो बहुत निराशाजनक था। मैंने सोचा : “मेरे सुसमाचार-प्रचार के काफी अच्छे नतीजे मिला करते थे, अगर मैं सुसमाचार का प्रचार करने की अपनी काबिलियत का इस्तेमाल करके सभी लोगों दिखा सकूँ कि मुझमें क्षमता है और मैं दूसरों के मुकाबले अपने कर्तव्य अधिक कुशलता से कर सकती हूँ, तो मैं बाकी सब से अलग दिखूंगी।” उस दौरान मैंने बहुत सक्रिय रूप से सुसमाचार का प्रचार किया, जल्दी ही, एक दर्जन से ज़्यादा लोगों का मत परिवर्तन कर दिया। मैं बहुत ज्यादा खुश थी। भाई-बहनों के सामने मैं सुसमाचार-प्रचार के अपने अनुभव का दिखावा करने से खुद को नहीं रोक पाती थी। वे ईर्ष्या भरे लहजे में कहते, “आप कितनी आसानी से सुसमाचार का प्रचार करती हैं, पर हम नहीं कर पाते। जब हम ऐसे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं से मिलते हैं जिनकी धारणाएँ होती हैं और जो सुनते ही नहीं, तो हमें समझ नहीं आता उनसे संगति कैसे करें।” सच तो ये है कि मैंने भी अक्सर इन हालात का सामना किया है। ऐसे कई मौके आए जब मेरा प्रचार करना नाकाम रहा, मगर मैं कभी इन समस्याओं और नाकामियों का ज़िक्र नहीं करती थी, न ही कभी इनके बारे में बात करती, मुझे डर था कि सबको पता चला, तो वे मुझे काबिल नहीं समझेंगे, मेरे बारे में ऊँचा नहीं सोचेंगे। मैंने सोचा, “मुझे बस सुसमाचार-प्रचार के सफल अनुभवों के बारे में बोलना चाहिए, ताकि आप जान सकें कि मैं अपना कर्तव्य बड़े अच्छे से करती हूँ।” इसलिए मैंने कहा, “सुसमाचार का प्रचार करना मुश्किल नहीं है। जब मैं संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं से मिलती हूँ, तो मैं उनके साथ ऐसे सहभागिता करती हूँ...।” यह सुनकर मेरे भाई-बहन मेरी बहुत प्रशंसा करते। उसके बाद, जब किसी के दोस्त या रिश्तेदार परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य की जांच करना चाहते, तो दूसरे लोग कहते, “शिनपिंग को ले जाओ। आपको बहन शिनपिंग से मिलना चाहिए।” हर किसी का ऐसा रवैया देखकर मैं बहुत खुश थी। जल्दी ही, एक अगुआ ने मेरे लिए कई कलीसियाओं के सिंचन कार्य की जिम्मेदारी की व्यवस्था कर दी। इससे मुझे और गर्व हुआ, लगा कि अब काबिलियत दिखाने का और भी बड़ा मंच मिल गया है। जब भी मेरे भाई-बहनों को सुसमाचार साझा करने या नए सदस्यों के सिंचन में कोई मुश्किल आती और वे अपने कदम पीछे खींच लेते, या जब उन्हें तकलीफ़ उठाने और कीमत चुकाने की इच्छा नहीं होती, तो मैं उनका हौसला बढ़ाते हुए बताती कि सुसमाचार का प्रचार करने में मैंने कितनी तकलीफें उठाई हैं। मैं कहती : “जब मैं सुसमाचार-प्रचार करती थी, तब कभी-कभी सर्दियों में तापमान शून्य से दस डिग्री से भी नीचे चला जाता था, सर्द हवाएं चाकू की तरह चेहरा चीर देती थीं, मगर फिर भी मैं प्रचार करती थी। भारी बारिश में, पुलों के नीचे पानी भर जाता था, जूते गीले हो जाते थे, तब जूतों के पतावों से पानी निचोड़कर, उन्हें जेब में रख लेती और प्रचार करने आगे बढ़ जाती थी। एक बार, जब तापमान शून्य से दस डिग्री से भी नीचे था, तो मैं एक नए सदस्य के साथ बैठक करने पहुँची, मैंने घंटे भर बाहर उसका इंतज़ार किया तब जाकर वह आई...।” भाई-बहन ये सुनकर, समर्थन भरी नज़रों से मुझे देखते और इतना सहने के लिए मेरी सराहना करते, और मैं इस सबसे बहुत खुश थी।

बाद में, मुझे और कलीसियाओं की जिम्मेदारी सौंपी गई। मैंने सोचा, “कुछ ही महीनों में मुझे फिर से तरक्की मिली है, क्या अब मेरे भाई-बहन मेरे बारे में और भी ऊँचा नहीं सोचेंगे?” उस दौरान, मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करती और नए सदस्यों के सिंचन से जुड़े सत्य के पहलू से खुद को लैस करने की कोशिश करती। धीरे-धीरे कर्तव्यों में आगे का मार्ग मिल गया। भाई-बहनों को लगता कि मेरी सहभागिता से उन्हें काफी मदद मिलती है। मुझे एहसास भी नहीं हुआ और मेरा अहंकार फिर से बढ़ने लगा, मैं फिर से सभाओं में दिखावा करने लगी। जब मेरे भाई-बहन मुझसे पूछते कि नए सदस्यों की धार्मिक धारणाओं पर संगति और उसका समाधान कैसे किया जाए, तो मैं सोचने लगती, “मैं उनसे इस बारे में ऐसे बात करूंगी कि हर किसी को दिखे कि मैं सत्य समझती हूँ और समस्या सुलझा सकती हूँ।” फिर मैं अपने विचारों और अनुभव के बारे में उन्हें विस्तार से बताती, धीरे-धीरे हर कोई मुझे अलग नज़रिये से देखने लगा। मैं जो कुछ भी कहती उसे वे बहुत ध्यान से सुनते। मैं जहाँ भी जाती भाई-बहन मेरा आदर करते, जिन भाई-बहनों को मैं जानती भी नहीं थी, वे भी मेरी संगति सुनने की माँग करते। बाद में, मैंने सुसमाचार के प्रचार और सिंचन कार्य में आई समान समस्याओं को लेकर सत्रह नियम लिखे, फिर सभाओं में भाई-बहनों के साथ इन पर संगति की। एक बहन थी, जिसके पति एक गाँव के कैडर थे और उसके परमेश्वर में विश्वास का विरोध करते थे, उसने बहुत-से तीखे सवाल कर हमारे लिए मुश्किलें खड़ी कर दीं, उसने मेरा नाम लेकर मुझसे सहभागिता की माँग की। तब मैं इससे बहुत असहज महसूस कर रही थी, मगर परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए, मैंने उसके हर सवाल का खंडन किया अंत में, उसके पास कहने को कुछ नहीं था। फिर, मैंने उसके द्वारा उठाये सवालों को, सुसमाचार-प्रचार में अक्सर पूछे जाने वाले सवालों में शामिल कर लिया। सभाओं में हर बार, मैं ये बात निकालती और बढ़ा-चढ़ा कर बोलती, ताकि मेरे भाई-बहन जानें कि मैं कितनी काबिल और बुद्धिमान हूँ और समस्याएँ सुलझा सकती हूँ। सभाओं के बाद, कई बार कुछ भाई-बहन कहते, “बहन शिनपिंग, क्या आप एक और दिन हमारे साथ रहकर थोड़ी और सहभागिता कर सकती हैं?” हर किसी को अपनी प्रशंसा करता देख, मैं फूली नहीं समा रही थी। भाई-बहनों को दिखाने के लिए कि मेरी बड़ी अहमियत है, मैं कर्तव्य में तकलीफें उठा और कीमत चुका सकती हूँ, मैं नाटक करते हुए बातों-बातों में उनसे कहती, “मुझ पर कई कलीसियाओं की जिम्मेदारी है, दूसरी कलीसिया में अपोइंटमेंट भी तय है। बहुत से भाई-बहन मेरा इंतज़ार कर रहे हैं। इतनी व्यस्त हूँ कि आराम करने का भी समय नहीं है।” भाई-बहनों के साथ बात करते समय, मैं जानबूझकर कहती, “जिस भी सभा में जाती हूँ, पूरा दिन निकल जाता है। पहले मेरी कमर में चोट आ गई थी, जिस वजह से इस तरह बैठना बड़ा मुश्किल है।” यह सुनकर एक बहन ने प्रशंसा में कहा, “आप वाकई कड़ी मेहनत कर रही हैं, आपको अपनी सेहत पर भी ध्यान देना होगा!” क्योंकि मैं अक्सर भाई-बहनों के बीच इस तरह का दिखावा किया करती थी, उन्हें लगता कि मैं तकलीफ उठाने में सक्षम हूँ और कर्तव्यों की ज़िम्मेदारी उठाती हूँ।

उस दौरान, मैंने खुद को सभाओं और सहभागिता में व्यस्त रखा, पर कभी-कभी मेरा दिल इतना खाली हो जाता कि समझ नहीं आता किस विषय पर संगति करूँ। मगर भाई-बहनों की आँखों में उम्मीद देख, मैं सोचती, “भाई-बहनों को लगता है कि मैं सत्य के बारे में स्पष्ट सहभागिता करती हूँ, सब मेरी बड़ाई करते हैं। अगर मैं उनसे कहूँ कि कैसे सहभागिता करनी है ये समझ नहीं पा रही, तो उनके दिलों में बनी मेरी अच्छी छवि हवा नहीं हो जाएगी?” मैंने शांत रहने का दिखावा करते हुए पहले उनसे सहभागिता करने को कहा। मैंने सोचा, “पहले, मैं हर किसी की बातें सुनूंगी, फिर उनकी बातों का सारांश निकालकर अपनी समझ साझा करूंगी। इससे लगेगा कि मैं सत्य अधिक विस्तार और स्पष्टता से समझती हूँ।” इस तरह, भाई-बहनों को वाकई लगा कि मैंने ही अच्छी तरह से सहभागिता की है। मैंने भी जानबूझकर कहा, “चूँकि मेरे पास यह कर्तव्य है, परमेश्वर ने मुझे अलग तरीके से प्रबुद्ध किया है।” मैंने खुद को ऊँचा उठाने और दिखावा करने के लिए ऐसी बातें कहीं। मेरे ऐसा कहने पर, भाई-बहन मेरा और आदर करते हुए मुझ पर और भी अधिक आश्रित हो गये। उस दौरान, सुसमाचार का प्रचार करने में, या नवागतों के सिंचन में कोई भी मुश्किल आने पर, भाई-बहन प्रार्थना या सत्य की खोज नहीं करते, बल्कि उम्मीद करते कि मैं उनके साथ संगति करके उनकी समस्याएँ हल कर दूँगी। उस समय, मैंने यह जरूर सोचा कि प्रशंसा करने और प्रशंसा पाने वालों पर कैसी हाय पड़ती है, और मुझे थोड़ी बेचैनी भी हुई, मगर फिर मैंने सोचा, “मेरी सहभागिता बस परमेश्वर के वचनों की मेरी समझ के बारे में है और भाई-बहनों को अभ्यास के कुछ मार्ग बताने के लिए है। यह सब इसलिए है कि हमारे काम के अच्छे नतीजे मिलें। इसमें कुछ भी गलत नहीं है।” इसलिए वैसी चिंताएं और आशंकाएं पल भर के लिए ही होती थीं और मैं उन पर ज्यादा नहीं सोचती थी। मगर जब मैं अपना कर्तव्य पूरा करने के जोश और जूनून से भरी थी, तभी कई सालों से दबा सोरायसिस अचानक वापस आ गया। मेरे पैरों, हाथों और चेहरे पर बड़े-बड़े चकत्ते बन गये। इसमें बहुत खुजली होती थी, इससे मुझे इतनी परेशानी हुई कि इनका असर मेरी सभाओं पर भी पड़ा। यह पिछली बार से भी ज्यादा बुरा था। मैंने बहुत सी दवाएं लीं, मगर कोई फायदा नहीं हुआ। मुझे समझ आ गया कि यह स्थिति ऐसे ही नहीं आई, जरूर इसमें मेरे लिए कुछ सबक होंगे। मगर उस समय मुझे अपनी समस्या समझ नहीं आई।

बाद में, मैं कुछ सुसमाचार-प्रचारकों के साथ सहभागिता करने और उनकी समस्याएँ हल करने गई। मैंने सोचा, “मुझे ये अच्छे से करना होगा ताकि मैं अपनी काम करने की क्षमता उन्हें दिखा सकूँ।” मैं बैठक में रिपोर्ट करने वाले किसी एग्जिक्यूटिव की तरह पेश आई। मैंने इस पर सहभागिता की कि सुसमाचार का प्रचार करते समय सहभागिता की मुख्य बातों को कैसे समझा जाए, सुसमाचार के प्रचार की आम समस्याओं को हल कैसे करें। भाई-बहन बहुत ध्यान से सुन रहे थे। कुछ लोग तो लगातार मेरी बातों को नोट करते रहे, कि कुछ छूट न जाए। मेजबानी करने वाली बहन भी दरवाजे के पास बैठकर ध्यान से मेरी बातें सुनती रही और समय-समय पर मुझे पानी दिया। सभी को मेरी सहभागिता को इतना महत्व देते देख मुझे बहुत खुशी हुई। मगर साथ ही साथ मैं थोड़ी परेशान भी थी, “यह सब सिर्फ मेरी निजी समझ है, इसलिए गलतियां होना लाजमी है, तो क्या हर किसी का मेरी बात को लिखना ठीक है?” मगर फिर मैंने सोचा, “शायद भाई-बहन अभ्यास के कुछ अच्छे मार्गों के बारे में लिख लेना चाहते हैं, ताकि कर्तव्य निर्वहन में उन्हें मदद मिले। इसमें कुछ भी गलत नहीं हो सकता।” ये सोचकर मैंने लोगों को नोट लिखने देने का फैसला किया। अगले दिन की सभा में, एक बहन फिर से आई, कहने लगी, “कल मैं बहन शिनपिंग की सहभागिता को लिख नहीं पाई, इसलिए आज फिर से सुनूंगी।” सभा समाप्त होने के बाद, मैंने दो बहनों को बातें करते सुना। एक ने कहा, “क्या तुमने इसे रिकॉर्ड किया?” दूसरी बहन की शिकायत थी, “तुमने इसे रिकॉर्ड क्यों नहीं किया?” यह सुनकर मुझे डर महसूस हुआ : “अगर हर कोई मेरी बातों को इतना महत्वपूर्ण मानता है, तो क्या मैं लोगों को अपने सामने नहीं ला रही?” जितना सोचती उतना ही मुझे डर लगता, इसलिए मैंने घर जाकर परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे प्रबुद्ध करने को कहा, ताकि मैं खुद को जान सकूँ।

मैंने परमेश्वर के वचन के दो अंश पढ़े : “स्वयं का उत्कर्ष करना और स्वयं की गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने की कोशिश करना—भ्रष्‍ट मनुष्‍यजाति इन चीज़ों में माहिर है। जब लोग अपनी शैता‍नी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्‍वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्‍ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में है। लोग सामान्यतः कैसे स्वयं का उत्कर्ष करते और गवाही देते हैं? वे दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने के इस लक्ष्‍य को कैसे हासिल करते हैं? वे इस बात की गवाही देते हैं कि उन्‍होंने कितना कार्य किया है, कितना अधिक दुःख भोगा है, स्वयं को कितना अधिक खपाया है, और क्या कीमत चुकाई है। वे अपनी पूँजी के बारे में बातें करके अपना उत्कर्ष करते हैं, जो उन्‍हें लोगों के दिमाग़ में अधिक ऊँचा, अधिक मजबूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उन्हें मान दें, सराहना करें, सम्मान करें, यहाँ तक कि श्रद्धा रखें, पूज्‍य मानें, और अनुसरण करें। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए लोग कई ऐसे काम करते हैं, जो सतही तौर पर परमेश्वर की गवाही देते हैं, लेकिन वास्तव में वे उन लोगों का उत्कर्ष करते हैं और उनकी गवाही देते हैं। क्या इस तरह से कार्य करना उचित है? वे तार्किकता के दायरे से बाहर हैं। इन लोगों में कोई शर्म नहीं है : वे निर्लज्‍ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्‍होंने परमेश्वर के लिए क्‍या-क्‍या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्‍यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, विशेष कौशलों पर, अपने आचरण की चतुर तकनीकों पर, लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीक़ों पर इतराते तक हैं। स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का उनका तरीक़ा स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे पाखण्‍ड और छद्मों का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमज़ोरियाँ, कमियाँ और त्रुटियाँ छिपाते हैं, ताकि लोग हमेशा सिर्फ़ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्‍मक महसूस करते हैं तब दूसरे लोगों को यह बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ ग़लत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्‍य निभाने के दौरान उन्‍होंने कलीसिया के कार्य को जो नुक़सान पहुँचाया होता है उसका तो वे ज़ि‍क्र तक नहीं करते। जब उन्‍होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतज़ार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्‍य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्‍या यह स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का ही तरीक़ा नहीं है?(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। “मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने वाला हर व्यक्ति अपनी बड़ाई करता है और अपने लिए गवाही देता है, खुद को बढ़ावा देता है और हर मोड़ पर अपना दिखावा करता है, और बिल्कुल भी परमेश्वर की परवाह नहीं करता है। मैं जिन चीजों के बारे में बता रहा हूँ, क्या तुमने इनका अनुभव किया है? कई लोग लगातार अपने लिए गवाही देते हैं, बताते फिरते हैं कि उन्होंने कैसे ये-वो कष्ट सहे, वे कैसे काम करते हैं, परमेश्वर कैसे उन्हें महत्व देता है और ऐसे कुछ काम सौंपता है, और वे किस किस्म के हैं, वे जानबूझकर खास स्वर में बोलते हैं, और कुछ खास शिष्टाचार दिखाते हैं, जब तक कि आखिरकार कुछ लोग यह न सोचने लगें कि शायद वे परमेश्वर हैं। जो लोग इस स्तर तक पहुँच चुके हैं, पवित्र आत्मा बहुत पहले ही उन्हें त्याग चुका है और हालाँकि उन्हें अभी तक भगाया या निष्कासित नहीं किया गया है, बल्कि उन्हें सेवा करने के लिए रख छोड़ा गया है, उनका भाग्य पहले ही सील-बंद हो चुका है और वे अपनी सजा का इंतजार भर कर रहे हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं)। परमेश्वर के वचन ने मेरी स्थिति को सटीकता से उजागर कर दिया। मैं अक्सर खुद को ऊँचा उठाती थी, इस तरह दिखावा करती थी। इस कलीसिया में काम शुरू करते समय, मुझे लगता था कि मेरी कोई पहचान, कोई अहमियत नहीं है, इसलिए मैंने सुसमाचार के प्रचार को भाई-बहनों से अपनी बड़ाई और प्रशंसा करवाने का मौका समझा। सबको अपनी काबिलियत दिखाने और मेरे प्रति उनका नजरिया बदलने के लिए, मैंने अपनी विफलता के अनुभवों के बारे में बात नहीं की। इसके बजाय, सिर्फ यही बताया कि मैंने सुसमाचार का प्रचार कैसे किया, कितने लोगों का मत परिवर्तन किया, और मुश्किल समस्याओं को कैसे हल किया, ताकि लोगों को एक भ्रम हो और वे सोचें कि मैं सत्य समझती हूँ और उनकी समस्याएँ सुलझा सकती हूँ। जब मेरी तरक्की हुई, तो मैं चाहती थी कि और ज़्यादा लोग मेरी बड़ाई करें, उनके दिलों में मेरे लिए जगह हो, इसलिए मैं भाई-बहनों से हमेशा कहती कि देखो, मैं कितनी व्यस्त हूँ, कैसी तकलीफें सहती हूँ। मगर अपनी कमज़ोरी और भ्रष्टता के बारे में मुँह सिले बैठी रही, ताकि लोग सोचें कि मैं वाकई सत्य का अनुसरण करती हूँ, कीमत चुकाती हूँ, और अपने कर्तव्यों का बोझ उठाती हूँ। क्या यह अपने भाई-बहनों को धोखा देना नहीं था? बड़ा लाल अजगर हमेशा अपने “महान, शानदार और सही” छवि का प्रचार करता है ताकि दूसरे लोग उसकी प्रशंसा और अनुसरण करें, मगर हर तरह से, दुनिया के लोगों को धोखा देने के लिए चोरी से किए अपने बुरे कर्मों पर परदा डालता है। मेरे और बड़े लाल अजगर के कर्मों में क्या फ़र्क है? परमेश्वर ने मुझे सुसमाचार फैलाने की प्रतिभाएं और खूबियां दीं, ताकि मैं सुसमाचार का दायरा बढ़ाने में अपनी भूमिका निभा सकूँ और ज़्यादा लोगों को परमेश्वर के करीब ला सकूँ, ताकि वे उसका उद्धार पा सकें। मगर मैंने इन प्रतिभाओं और खूबियों का पूंजी की तरह इस्तेमाल कर दिखावा किया, हर जगह खुद का प्रदर्शन किया और भाई-बहनों से मिलने वाले सम्मान और आराधना का आनंद उठाया। मैं कितनी बेशर्म थी! क्योंकि मैं लगातार खुद को ऊँचा उठाती और दिखावा करती रही, इसलिए वे मेरी प्रशंसा करते थे और समस्याएं आने पर परमेश्वर से प्रार्थना करने या सत्य खोजने के बजाय वे मेरे साथ सहभागिता करना चाहते थे और मुझे घेरे रहते थे। मैं परमेश्वर का विरोध कर रही थी! जब मैंने इस बारे में सोचा, तो मुझे बहुत डर लगा। मैं परमेश्वर के आगे घुटने टेककर प्रार्थना करते हुए रोने लगी, “परमेश्वर, मैंने खुद को ऊँचा उठाया और दिखावा किया, ताकि लोग मुझे पूजें। तुम्हारा विरोध करने के मार्ग पर चल पड़ी। मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ।”

फिर मैंने आत्मचिंतन किया। जब मैं साफ तौर पर जानती थी कि मेरी सहभागिता की रोशनी पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता थी, तब न चाहकर भी मैंने दिखावा और खुद का प्रदर्शन क्यों किया? मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : “कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जाकर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है कि लोग उन्हें सुनें, उनकी आराधना करें और उनके चारों ओर घूमें। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के दिलों में उनकी एक जगह हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें। उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिलों में एक जगह रखना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। “जब लोगों की प्रकृति और सार अहंकारी हो जाते हैं, तो वे परमेश्वर की अवज्ञा और विरोध करते हैं, उसके वचनों पर ध्यान नहीं देते, उसके बारे में धारणाएं उत्पन्न करते हैं, उसे धोखा देने वाले, अपना उत्कर्ष करने वाले और अपनी ही गवाही देने वाले काम करते हैं। तुम्हारा कहना है कि तुम अहंकारी नहीं हो, लेकिन मान लो कि तुम्हें कलीसिया चलाने और उसकी अगुआई करने की जिम्मेदारी दे दी जाती है; मान लो कि मैंने तुम्हारे साथ काट-छाँट नहीं की, और परमेश्वर के परिवार के किसी सदस्य ने तुम्हारी आलोचना या सहायता नहीं की है : कुछ समय तक उसकी अगुआई करने के बाद, तुम लोगों को अपने पैरों पर गिरा लोगे और उनसे अपने सामने इस हद तक समर्पण करवा लोगे कि वे तुम्हारी प्रशंसा और आदर करने लगें। और तुम ऐसा क्यों करोगे? यह तुम्हारी प्रकृति द्वारा निर्धारित होगा; यह स्वाभाविक प्रकटीकरण के अलावा और कुछ नहीं होगा। तुम्हें इसे दूसरों से सीखने की आवश्यकता नहीं है, और न ही दूसरों को तुम्हें यह सिखाने की आवश्यकता है। तुम्हें दूसरों की आवश्यकता नहीं है कि वे तुम्हें निर्देश दें या उसे करने के लिए तुम्हें विवश करें; इस तरह की स्थिति स्वाभाविक रूप से आती है। तुम जो भी करते हो, वह इसलिए होता है कि लोग तुम्हारी बड़ाई करें, तुम्हारी प्रशंसा करें, तुम्हारी आराधना करें, तुम्हारे आगे समर्पण करें और हर बात में तुम्हारी सुनें। जब तुम अगुआ बनने की कोशिश करते हो, तो स्वाभाविक रूप से इस तरह की स्थिति पैदा होती है और इसे बदला नहीं जा सकता। यह स्थिति कैसे पैदा होती है? ये मनुष्य की अहंकारी प्रकृति से निर्धारित होती है। अहंकार की अभिव्यक्ति परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध है। जब लोग अहंकारी, दंभी और आत्मतुष्ट होते हैं, तो उनकी अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने और अपने तरीके से चीज़ों को करने की प्रवृत्ति होती है। वे दूसरों को भी अपनी ओर खींचकर उन्हें अपने आलिंगन में ले लेते हैं। लोगों का ऐसी अहंकारी हरकतें करने में सक्षम होना साबित करता है कि उनकी अहंकारी प्रकृति का सार शैतान का है; प्रधान दूत का है। जब उनका अहंकार और दंभ एक निश्चित स्तर पर पहुँच जाता है, तो उनके दिलों में परमेश्वर के लिए स्थान नहीं रहता, और परमेश्वर अलग रख दिया जाता है। तब वे परमेश्वर बनना चाहते हैं, लोगों से अपना आज्ञापालन करवाते हैं और प्रधान दूत बन जाते हैं। यदि तुम्हारी प्रकृति ऐसी ही शैतानी अहंकारी है, तो तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होगा। भले ही तुम परमेश्वर पर विश्वास करो, परमेश्वर तुम्हें नहीं पहचानेगा, वह तुम्हें कुकर्मी समझेगा और बाहर निकाल देगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मेरी प्रकृति बहुत अहंकारी और दंभी थी। बिल्कुल पौलुस की तरह मैं भी आराधना और प्रशंसा से आनंद पाती थी। सबसे पहले, मैं बस अपना कर्तव्य अच्छे से करना चाहती थी, मगर मैं अपने अहंकारी और दंभी प्रकृति के काबू में थी, इसलिए अनायास दिखावा करती और खुद का प्रदर्शन करती थी। हालांकि मैं जानती थी कि मेरी बातों में निजी मंशाएं और इरादे होते थे, फिर भी मैं अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं पर कभी काबू नहीं कर पाती थी। हमेशा लोगों से प्रशंसा और स्तुति चाहती थी। बचपन में परिवार के लाड़-प्यार ने मुझे बिगाड़ दिया था, बड़ी हुई तो बिजनेस में उतर गई और हमारे स्थानीय इलाके की एक जानी-मानी उद्यमी बन गई। घर में और काम पर, हमेशा मेरी ही चलती थी। जहाँ भी मैं जाती, दूसरों की प्रशंसा और सराहना पाती, आसमान का सबसे चमकीला सितारा होने के एहसास से आनंद पाती थी, सभी से आदर की मांग करती थी। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, मैं कलीसिया में साधारण और गुमनाम होने से कभी संतुष्ट नहीं रही। मैंने हमेशा अवसरों की खोज की जिससे दूसरे मेरी प्रशंसा करें और मेरे बारे में ऊँचा सोचें। पौलुस की प्रकृति खास तौर पर अहंकारी थी, वह हमेशा यही चाहता था कि दूसरे उसे पूजें, उसके बारे में ऊँचा सोचें, इसलिए उसने जो भी कार्य किया, जितनी भी पीड़ा सही, उसका दिखावा हर उस जगह किया जहाँ वह गया। उसने अपने पत्रों में कभी मसीह की गवाही नहीं दी। इसके बजाय, उसने कलीसिया की मदद करने के नाम पर खुद को ऊँचा उठाया, और बाद में, उसने बेशर्मी से यह गवाही दी कि वह मसीह की तरह जीवन जीता था। इस कारण विश्वासी उसे पूजने लगे, उसे ऊंचा उठाने, एक मिसाल समझने लगे, और उसकी बातों को परमेश्वर के वचन तक मानने लगे—इस हद तक कि आज, 2,000 साल बाद भी कई धार्मिक विश्वासी पौलुस की बातों से चिपके हैं, और इसलिए परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को ठुकराते हैं। पौलुस लोगों को अपने सामने लाया, जिससे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान हुआ, और परमेश्वर ने उसे दंड दिया। मैं भी अहंकारी और दंभी थी, “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है” और “भीड़ से ऊपर उठो,” जैसे शैतानी विचारों और नजरियों के अनुसार जीती थी। मैं हमेशा दूसरों से आगे रहना, दिखावा करना और अपनी काबिलियत का प्रदर्शन करना चाहती थी। इसी वजह से कुछ होने पर भाई-बहन सिर्फ मेरी बात सुनते और मानते थे, मेरी सहभागिता अच्छी तरह न सुन पाने पर, उसकी भरपाई के तरीके खोजते थे, यहाँ तक कि मेरी बातों को रिकॉर्ड भी करते थे; मेरी बातें उन्हें परमेश्वर के वचनों से अहम लगतीं। तब भी, मुझे यह नहीं पता था कि आत्मचिंतन करना चाहिए। इसके बजाय, मैंने खुद को प्रशंसा पाने की खुशी में डुबो दिया। मैं कितनी अहंकारी और बेशर्म थी! मैं खुद को बिलकुल नहीं पहचानती थी। यह नहीं समझती थी कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ, एक ऐसी इंसान जिसे शैतान ने भ्रष्ट किया है। मैंने बेशर्मी से खुद को ऊँचे आसन पर बिठा दिया। मैं चाहती थी कि दूसरों के दिलों में मेरी जगह हो, वे मेरी बात सुनें, मेरा समर्थन करें। चूँकि मैं लगातार दिखावा करती रही, मैंने अपने भाई-बहनों के दिलों में अपनी एक जगह बना भी ली। उन्होंने जितनी मेरी प्रशंसा की, उतना ही वे परमेश्वर से दूर हो गए। मैंने राज्य के युग की पहली प्रशासनिक आज्ञा के बारे में सोचा : “मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं दिखाना चाहिए, न अपनी बड़ाई करनी चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना और बड़ाई करनी चाहिए(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए)। परमेश्वर ने लोगों को बनाया, इसलिए हमें परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए, उसे सर्वोपरि मानना चाहिए, मगर मैंने लोगों से अपनी प्रशंसा करवाई, और मुझे सर्वोपरि मानने को मजबूर किया। क्या मैं इस प्रशासनिक आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर रही थी? उस समय, मुझे बहुत डर लगा। लोगों से अपनी पूजा और बड़ाई करवाने के लिए दिखावा करने की गंभीर प्रकृति का एहसास हुआ। अगर मैं ऐसा करती रही, तो पक्के तौर पर नरक में पौलुस की तरह दंड पाऊँगी! आज यह बीमारी झेलना परमेश्वर द्वारा अनुशासन पाना था। वह बीमारी के ज़रिये मुझे चेतावनी दे रहा था कि मैं भटक गई हूँ। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था!

फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश याद आया : “हालाँकि परमेश्वर कहता है कि वह सृष्टिकर्ता है और मनुष्य उसकी सृष्टि है, जो सुनने में ऐसा लग सकता है कि यहाँ पद में थोड़ा अंतर है, फिर भी वास्तविकता यह है कि जो कुछ भी परमेश्वर ने मानवजाति के लिए किया है, वह इस प्रकार के रिश्ते से कहीं बढ़कर है। परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है, मानवजाति की देखभाल करता है, मानवजाति के लिए चिंता दिखाता है, इसके साथ ही साथ लगातार और बिना रुके मानवजाति के लिए आपूर्तियाँ करता है। वह कभी अपने हृदय में यह महसूस नहीं करता कि यह एक अतिरिक्त कार्य है या जिसे ढेर सारा श्रेय मिलना चाहिए। न ही वह यह महसूस करता है कि मानवता को बचाना, उनके लिए आपूर्तियाँ करना, और उन्हें सब कुछ देना, मानवजाति के लिए एक बहुत बड़ा योगदान है। वह मानवजाति को अपने तरीके से और स्वयं के सार और जो वह स्वयं है और जो उसके पास है, उसके माध्यम से बस खामोशी से एवं चुपचाप प्रदान करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मानवजाति को उससे कितना भोजन प्रबंध एवं कितनी सहायता प्राप्त होती है, परमेश्वर इसके बारे में कभी नहीं सोचता या श्रेय लेने की कोशिश नहीं करता। यह परमेश्वर के सार द्वारा निर्धारित होता है और साथ ही यह परमेश्वर के स्वभाव की बिलकुल सही अभिव्यक्ति भी है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, लोगों को शैतान के बंधन से छुड़ाने के लिए परमेश्वर देहधारण करके लोगों के बीच कार्य करने आया है, उसने लोगों की निंदा और बदनामी सही है। परमेश्वर ने मानवजाति के लिए सब कुछ त्याग दिया, फिर भी उसने कभी दिखावा नहीं किया। लोगों के साथ संवाद करते समय भी उसने कभी परमेश्वर होने का दिखावा नहीं किया। उसने चुपचाप हमें सत्य और जीवन की आपूर्ति की। मैंने देखा कि परमेश्वर का सार सुंदर और नेक है, वह विनम्र और अप्रत्यक्ष है, उसमें कोई घमंड या अहंकार नहीं है। जबकि, मैं शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई इंसान थी और मेरे पास सत्य नहीं था। फिर भी मैं हद से ज्यादा घमंडी थी। जब मैं अपने मेरे कर्तव्य में थोड़ा कुछ भी प्राप्त करती तो मैं इसका दिखावा करती, हर जगह इसका प्रदर्शन करती, ताकि लोगों की प्रशंसा और तारीफ जीत सकूँ। मैं परमेश्वर की नज़रों में बहुत बेशर्म, घिनौनी और दुष्ट थी। मैंने परमेश्वर के सामने जाकर उससे प्रार्थना की, “परमेश्वर, अब मैं दिखावा नहीं करना चाहती। मैं पश्चताप करना चाहती हूँ। मैं विनती करती हूँ, मेरा मार्गदर्शन करो और मेरे भ्रष्ट स्वभाव को हल करने का मार्ग दिखाओ।”

मैंने परमेश्वर के वचन के दो अंश पढ़े : “कार्य करने का कौन-सा तरीका खुद को ऊँचा उठाना और अपने बारे में गवाही देना नहीं है? अगर तुम किसी मामले के संबंध में दिखावा करते और अपने बारे में गवाही देते हो, तो तुम यह परिणाम प्राप्त करोगे कि, कुछ लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय बनाएँगे और तुम्हारी पूजा करेंगे। लेकिन अगर तुम उसी मामले के संबंध में खुद को उजागर कर देते हो, और अपने आत्मज्ञान को साझा करते हो, तो उसकी प्रकृति अलग होती है। क्या यह सच नहीं है? अपने आत्मज्ञान के बारे में बात करने के लिए खुद को पूरी तरह उजागर कर देना, कुछ ऐसा है जो साधारण मानवता में होनी चाहिए। यह एक सकारात्मक चीज है। अगर तुम वास्तव में खुद को जानते हो और अपनी अवस्था के बारे में सही, वास्तविक और सटीक ढंग से बोलते हो; अगर तुम उस ज्ञान के बारे में बोलते हो जो पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों पर आधारित है; अगर तुम्हें सुनने वाले इससे सीखते और लाभान्वित होते हैं; और अगर तुम परमेश्वर के कार्य की गवाही देते हो और उसे महिमामंडित करते हो, तो यह परमेश्वर के बारे में गवाही देना है। अगर खुद को पूरी तरह उजागर करने के माध्यम से, तुम अपनी खूबियों के बारे में खूब बोलते हो और इस बारे में कि तुमने कैसे कष्ट उठाया, और कैसे कीमत चुकाई और अपनी गवाही में कैसे दृढ़ता से खड़े रहे, और इसके परिणामस्वरूप लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखते हैं और तुम्हारी पूजा करते हैं, तो यह अपने बारे में गवाही देना है। तुम्हें इन दो व्यवहारों के बीच अंतर बता पाने में समर्थ होना चाहिए। उदाहरण के लिए, यह बताना परमेश्वर को ऊँचा उठाना और उसके बारे में गवाही देना है कि परीक्षणों का सामना करते समय तुम कितने कमजोर और नकारात्मक थे, और कैसे प्रार्थना करने और सत्य खोजने के बाद तुमने अंततः परमेश्वर का इरादा समझा, आस्था प्राप्त की और अपनी गवाही में दृढ़ रहे। यह दिखावा करना और अपने बारे में गवाही देना बिल्कुल नहीं है। इसलिए, तुम दिखावा कर रहे हो और अपने बारे में गवाही दे रहे हो या नहीं, यह मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि तुम अपने वास्तविक अनुभवों के बारे में बात कर रहे हो या नहीं, और इस पर भी कि क्या तुम परमेश्वर के बारे में गवाही देने का परिणाम हासिल करते हो; यह भी देखना आवश्यक है कि जब तुम अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात करते हो, तो तुम्हारे इरादे और उद्देश्य क्या हैं। ऐसा करने से यह पहचानना आसान हो जाएगा कि तुम किस प्रकार के व्यवहार में लिप्त हो। अगर तुम गवाही देते समय सही इरादे रखते हो, तो भले ही लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखते हों और तुम्हारी पूजा करते हों, यह वास्तव में कोई समस्या नहीं है। अगर तुम्हारा इरादा गलत है, तो भले ही कोई तुम्हारे बारे में ऊँची राय न रखता हो या तुम्हारी पूजा न करता हो, फिर भी यह एक समस्या है—और अगर लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखते हैं और तुम्हारी पूजा करते हैं, तो यह और भी बड़ी समस्या है। इसलिए, यह निर्धारित करने के लिए कि कोई व्यक्ति खुद को ऊँचा उठा रहा और अपने बारे में गवाही दे रहा है या नहीं, तुम सिर्फ परिणामों पर निर्भर नहीं रह सकते। तुम्हें मुख्य रूप से उनके इरादे को देखना चाहिए; इन दो व्यवहारों के बीच अंतर करने का सही तरीका इरादों पर आधारित है। अगर तुम सिर्फ परिणामों के आधार पर इसे पहचानने की कोशिश करते हो, तो संभव है कि अच्छे लोगों पर गलत ढंग से दोषारोपण कर दोगे। कुछ लोग विशेष रूप से सच्ची गवाही साझा करते हैं, और इसके चलते कुछ अन्य लोग उनके बारे में ऊँची राय रखते हैं और उनकी पूजा करते हैं—क्या तुम कह सकते हो कि वे लोग अपने बारे में गवाही दे रहे थे? नहीं, तुम नहीं कह सकते। उन लोगों में कोई समस्या नहीं हैं, जो गवाही वे साझा करते हैं और जो कर्तव्य वे करते हैं, वे दूसरे लोगों के लिए लाभकारी होते हैं, और सिर्फ विकृत समझ रखने वाले बेवकूफ और अज्ञानी लोग ही दूसरे लोगों की आराधना करते हैं। वक्ता के इरादे को देखना यह पहचानने की कुंजी है कि लोग खुद को ऊँचा उठा रहे हैं या नहीं और अपने बारे में गवाही दे रहे हैं या नहीं। अगर तुम्हारा इरादा सभी को यह दिखाना है कि तुम्हारी भ्रष्टता कैसे उजागर हुई, और तुम कैसे बदल गए हो, और दूसरों को इससे लाभ उठाने में समर्थ बनाना है, तो तुम्हारे शब्द गंभीर और सच्चे हैं, और तथ्यों के अनुरूप हैं। ऐसे इरादे सही हैं, और तुम दिखावा नहीं कर रहे या अपने बारे में गवाही नहीं दे रहे। अगर तुम्हारा इरादा सभी को यह दिखाना है कि तुम्हारे पास वास्तविक अनुभव हैं, और तुम बदल गए हो और तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, ताकि वे तुम्हारे बारे में ऊंचा सोचें और तुम्हारी पूजा करें, तो ये इरादे गलत हैं। यह दिखावा करना और अपने बारे में गवाही देना है। अगर तुम जिस अनुभवात्मक गवाही की बात करते हो वह झूठी है, उसमें मिलावट है और यह लोगों की आँखों पर पट्टी बांधने के इरादे से है, कि वे तुम्हारी वास्तविक अवस्था न देख सकें, और यह तुम्हारे इरादे, भ्रष्टता, कमजोरी या नकारात्मकता दूसरों के सामने प्रकट होने से रोकने के इरादे से है, तो ऐसे शब्द धोखा देने और गुमराह करने वाले हैं। यह झूठी गवाही है, यह परमेश्वर से चालाकी करना और परमेश्वर को लज्जित करता है, और यह वह है जिससे परमेश्वर सबसे ज्यादा नफरत करता है। इन अवस्थाओं के बीच स्पष्ट अंतर है, और इन सबको इरादे के आधार पर पहचाना जा सकता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। “जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और कैसे लोगों को ताड़ना देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुम लोगों को इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुम्हारे अनुभव में कितनी भ्रष्टता उजागर हुई, तुमने कितना कष्ट सहा, परमेश्वर का विरोध करने के लिए तुमने कितनी चीजें कीं, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुम लोगों को जीता; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुम्हें परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और कैसे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। तुम्हें इन बातों को सरलता से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा में सत्व डालना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार चीजों का अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊंचा दिखाने की कोशिश मत करो, दिखावा करने के लिए खोखले सिद्धांतों की बात मत करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्कहीन माना जाएगा। तुम्हें अपने वास्तविक अनुभव की असली, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज्यादा बोलना चाहिए; यह दूसरों के लिए सबसे अधिक लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि अगर मैं खुद को ऊँचा उठाना और खुद की गवाही देना नहीं चाहती, तो मुझे अक्सर परमेश्वर की मौजूदगी में जीना होगा, एक पवित्र हृदय रखना होगा जो परमेश्वर का भय मानता हो, अपने भाई-बहनों के सामने दिल की बातों को खोलकर बताना होगा, ध्यान से अपनी भ्रष्टता का खुलासा करके उसका विश्लेषण करना होगा, अपने वास्तविक अनुभवों के बारे में बताना होगा। खुद को ऊँचा उठाने और खुद की गवाही देने की इच्छा होने पर मुझे खुद को त्याग कर मंशाओं को ठीक करना होगा, मुझे अपनी भ्रष्टता और विद्रोह को उजागर कर उसका विश्लेषण करना था। मुझे परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शोधन का अनुभव करने के बाद, परमेश्वर के अपने ज्ञान के बारे में और अपने भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार के अपने ज्ञान पर सहभागिता करनी थी। मुझे दिल से बात करनी चाहिए ताकि भाई-बहन मेरा असली चेहरा देख सकें। अभ्यास का मार्ग पा लेने के बाद, भाई-बहनों के साथ सभाओं में मैंने अपने द्वारा दिखाई गई भ्रष्टता और इस दौरान खुद के बारे में पाई अपनी समझ को पूरी तरह खोल कर रख दिया, मैंने उन्हें बताया कि मेरी सहभागिता में जो भी थोड़ी-बहुत रोशनी थी, वह मेरे आध्यात्मिक कद से नहीं बल्कि पूरी तरह पवित्र आत्मा के प्रबोधन से आई थी। परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना, मैं कुछ नहीं कर सकती थी। भाई-बहनों को भी एहसास हुआ कि ऐसे मुझे पूजना और मेरे बारे में ऊँचा सोचना ठीक नहीं था, उन्होंने कहा कि अब वे कभी लोगों के बारे में ऊँचा नहीं सोचेंगे, और समस्या होने पर पवित्र आत्मा का प्रबोधन पाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे और सत्य सिद्धांत खोजेंगे। इसके बाद, जब मैं सभाओं में जाती, और ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता जिन्हें मैं समझ नहीं पाती थी, तब मैं अहंकार छोड़कर संगति में उसके बारे में भाई-बहनों के साथ खुलकर खोज पाती थी। सभी ने जो पाया और जो समझा, उस पर संगति की, उनमें से कुछ चीजें मैंने अब तक नहीं पाई थीं, इससे मुझे काफी मदद मिली। अब मेरे भाई-बहन पहले की तरह मेरी पूजा नहीं करते, मुझमें समस्याएं देखकर उनके बारे में सीधे मुझे बता सकते थे। दोबारा दिखावा करने की इच्छा होने पर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके उसकी जांच-पड़ताल को स्वीकार किया, साथ ही, भाई-बहनों से खुलकर बात की, उन्हें अपनी भ्रष्टता और कमियों के बारे में बताया, उनका निरीक्षण स्वीकारा। इस तरीके से अभ्यास करने पर, मुझे सुरक्षा और सुकून का एहसास हुआ, मैंने सत्य का अभ्यास करने की मिठास का भी अनुभव किया। जब मुझे अपनी अहंकारी प्रकृति और गलत मार्ग पर चलने का एहसास हुआ, और मैंने परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप किया, तब मेरा सोरायसिस धीरे-धीरे गायब हो गया और मैं ठीक हो गई।

परमेश्वर के अनुशासन और ताड़ना का अनुभव करने के बाद मैंने समझा कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव बहुत स्पष्ट और वास्तविक है, मैंने परमेश्वर के वास्तविक प्रेम को देखा। परमेश्वर का हर कार्य मुझे मेरे भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के बंधन से बचाने के लिए है। उसके अनुशासन और दंड ने ही मेरे दुष्ट कर्मों को बीच में रोक दिया और मुझे खतरे की दहलीज से वापस खींच लिया। परमेश्वर का धन्यवाद!

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