67. मेरे डैड के निष्कासन के बाद

इसाबेला, फ्रांस

कुछ साल पहले मैं घर से दूर अपना कर्तव्य निभा रही थी जब मुझे अचानक पता चला कि मेरे डैड को दुष्कर्मी बताकर कलीसिया से निकाल दिया गया है। यह कहा गया कि वह कलीसिया में सकारात्मक भूमिका नहीं निभा रहे थे, धारणाएँ और नकारात्मकता फैला रहे थे और अपने कर्तव्य में लोगों का उत्साह खत्म कर रहे थे। भाई-बहनों ने कई बार उनसे संगति की थी और कई बार उनकी काट-छाँट की थी, पर उन्हें कुछ भी मंजूर नहीं था और जो उन्हें उजागर करते और उनकी काट-छाँट करते थे, वह उनके प्रति बैर रखते थे। मैं इस खबर से वाकई सन्न रह गई थी। वह तुनकमिजाज हैं, यह तो मुझे पता था, लेकिन मुझे लगता था कि वह अच्छे इंसान हैं, उनमें भाइयों और बहनों के प्रति प्रेम-भाव था, और हमेशा वह जीवन की परेशानियों में उनकी मदद किया करते थे। हमारे सभी पड़ोसी भी कहते थे कि वह मदद करने वाले प्यारे इंसान हैं, तो अचानक उन्हें दुष्ट मानकर क्यों निकाल दिया गया? उन्होंने 2001 में परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा था, तब से वो सुसमाचार फैला रहे थे। सीसीपी की गिरफ्तारी से बचने के लिए वह लकड़ियों के ढेर और कब्रिस्तानों तक में सोए हैं। उन्होंने बहुत पीड़ा सही और हालाँकि उन्होंने कुछ भी अद्भुत नहीं किया, पर उन्होंने सालों तक कड़ी मेहनत की थी। उन्हें ऐसे कैसे निकाला जा सकता है? मुझे लगा कि कलीसिया के अगुआओं से कुछ गलती तो नहीं हो गई। उन्हें प्रायश्चित का मौका क्यों नहीं मिला? कुछ समय तक डैड का ख्याल आते ही कष्ट होता, और मुझे उनके लिए बुरा लगता।

करीब एक साल बाद, मैं अपने कर्तव्य के लिए अपने शहर आई। तब डैड को देखकर मेरा दिल बहुत दुखी हुआ, मैं उनके लिए जो मुमकिन हो, करना चाहती थी। उन्होंने भी मेरा अच्छी तरह ख्याल रखा। लेकिन धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि उनकी बातचीत करने के तरीके में कुछ गड़बड़ है। वह हमेशा नकारात्मक बातें करते थे, ऐसी बातें जो किसी को भी भ्रमित कर परमेश्वर से दूर कर सकती थीं, उदास कर सकती थीं। मिसाल के तौर पर, मेरी मॉम की बात करें। वह कलीसिया अगुआ हुआ करती थीं, लेकिन खराब क्षमता और व्यावहारिक काम न कर पाने के कारण, उन्हें स्थानांतरित कर दिया गया था, तो कुछ समय के लिए वह नकारात्मक हो गई थीं। मेरे डैड ने परमेश्वर की इच्छा पर संगति करके उनकी मदद नहीं की, लेकिन कहा, “परमेश्वर के घर में कोई सुरक्षा नहीं है, एक न एक दिन सबको निकाल दिया जाएगा। क्या परमेश्वर को नहीं पता था कि तुममें क्षमता है या नहीं? परमेश्वर ने जानबूझकर तुम्हारे लिए ऐसी स्थिति पैदा की, तुम्हें पहले ऐसा अगुआ बनाया और फिर तुम्हें निकाल दिया ताकि तुम्हें कष्ट हो। तुम्हारी कम क्षमता परमेश्वर ने ही तय की है। अगर परमेश्वर तुम्हें अच्छी क्षमता नहीं देता है, तो तुम कभी अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाओगी!” उनकी बात सुनकर मॉम की स्थिति और बिगड़ गई। मैंने जब उनकी बात सुनी तो मुझे सच में गुस्सा आया, और लगा कि उनकी बात एकदम ही बेतुकी थी। कलीसिया में कर्तव्य में ऐसा बदलाव सामान्य बात है, लेकिन उन्होंने कहा कि परमेश्वर जानबूझकर कष्ट दे रहा था। यह बात बिल्कुल सही नहीं है। कलीसिया कर्तव्यों की व्यवस्था और समायोजन लोगों की क्षमता के अनुसार करती है, ताकि कलीसिया का काम ठीक से आगे बढ़े और अधिक सफल हो। दूसरी तरफ यह लोगों को इस लायक बनाता है कि वो अपनी क्षमता और आध्यात्मिक कद जान पाएं ताकि वो उपयुक्त कर्तव्य और जगह पा सकें और अपना योगदान दे सकें। यह व्यवस्था पूरी तरह सिद्धांतों के अनुरूप है और कलीसिया के काम और लोगों के जीवन-प्रवेश के लिए अच्छी है। मेरी मॉम को अगुआई के पद से स्थानांतरित किया गया था, लेकिन वह दूसरा कर्तव्य कर रही थीं जो उनके अनुकूल था और वह इस असफलता के जरिए खुद को जान सकती थीं और सबक सीख सकती थीं। क्या यह अच्छी बात नहीं है? मेरे पिता सत्य को कैसे पलट सकते थे। कलीसिया में एक भाई था जिसने अपनी नौकरी छोड़ दी थी ताकि वह अपने कर्तव्य को पूरा समय दे सके। जब उसे लगा कि उसका काम बहुत ज़्यादा नहीं है, तो कुछ पैसे कमाने के लिए उसने कर्तव्य के साथ-साथ एक नौकरी पकड़ ली। यह नौकरी कड़ी मेहनत वाली थी और वह अपना कर्तव्य निभाते हुए जीवन चला रहा था। उसने कभी इतना शारीरिक श्रम वाला काम नहीं किया था, और जब वह थक जाता था तो बहुत निराश हो जाता था। जब मेरे डैड को पता चला, तो उन्होंने उस भाई से कहा, “मेरा परिवार काफी संपन्न हुआ करता था, लेकिन परमेश्वर में विश्वास करने के बाद हम त्याग कर रहे हैं। अब हम कंगाल हो गए हैं और हमें कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है। तुम पहले ही बहुत कुछ त्याग चुके हो, लेकिन एक दिन रोओगे...।” उनके यह कहने से मैं सकते में थी। वह भाई के साथ ऐसी संगति क्यों कर रहे थे? जब लोग परमेश्वर में खुद को खपाने के लिए सब कुछ त्याग देते हैं, तो अपने भौतिक जीवन में वे बहुत अमीर न भी हों, और उन्हें कष्ट भी झेलने पड़ें, पर उन्हें जो मिलता है वह है सत्य और जीवन। यह ऐसी चीज है जिसे किसी भी राशि के धन से नहीं बदला जा सकता। मेरे पिता ने जो कहा था वह सत्य के अनुरूप नहीं था। हमारा जीवन पहले की तुलना में कठिन नहीं था, कई बार जब मेरे डैड को काम पाने में या जीवन में समस्याएँ आईं, तो परमेश्वर ने उनके लिए नया रास्ता खोला, नई नौकरी की व्यवस्था में मदद की ताकि रोजी-रोटी चलती रहे। आस्था पाने से पहले, उन्हें सिगरेट और शराब की लत थी जिससे उनकी सेहत बिगड़ गई थी। चावल का कटोरा पकड़ने पर उनके हाथ हमेशा काँपते रहते थे। परमेश्वर में विश्वास के बाद उन्होंने पीना छोड़ा, फिर कर्तव्य निर्वहन और भाइ-बहनों के साथ संगति में समय बिताने लगे, इससे उनकी सेहत भी सुधरती गई। देखने वाले कहते थे कि वह बहुत अच्छे दिख रहे हैं, एकदम कायापलट हो गया है। हमारे परिवार ने परमेश्वर से इतने अनुग्रह पाए थे, लेकिन डैड ने कभी इनका जिक्र नहीं किया, बल्कि चीजों को तोड़ा-मरोड़ा, जानबूझकर शिकायत की, परमेश्वर पर दोष मढ़ने के लिए लोगों को भ्रमित किया, जानबूझकर परमेश्वर के साथ लोगों के रिश्ते खराब किए, लोगों को परमेश्वर से दूर करने और धोखा करने को उकसाया।

ऐसी बहुत-सी बातें थीं। कलीसिया के काम को पूरा समय देने के लिए जब मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी, वह हमेशा कहते थे, “तुम बिना किसी विकल्प के खुद को जो इतना खपा रही हो, देखना एक दिन पछताओगी।” यह बात मुझे अच्छी नहीं लगती थी। एक सृजित प्राणी के लिए कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाना सही और उचित था। यह मेरी जिम्मेदारी और दायित्व था। मैंने अपनी मर्जी से पढ़ाई छोड़ी थी। परमेश्वर में विश्वास रख पाना, उसका अनुसरण कर कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा पाना, मेरे लिए उसका अनुग्रह था। और इतने बरसों में कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाते हुए मैंने कुछ सत्य जाने और जो कुछ पाया, वह संसार में बाहर मुझे कभी न मिला होता। मुझे पता है इंसान का क्या लक्ष्य होना चाहिए और बहुत-सी सांसारिक बातों की भी मैंने बेहतर समझ हासिल की। मैं अविश्‍वासियों की तरह दुष्ट धर्मनिरपेक्ष प्रवृत्तियों का अनुसरण नहीं करती। मैंने ये जो असली चीजें हासिल की हैं, वो स्कूल में नहीं मिल पातीं। लेकिन मेरे डैड किसी के कर्तव्य निर्वहन में खपाने के बारे में नकारात्मक बातें कह रह थे। क्या यह नकारात्मकता और मृत्यु फैलाना नहीं था? मैंने जवाब दिया, “मैं कभी नहीं पछताऊँगी। मैं शायद कुछ सालों से अध्ययन नहीं कर रही हूँ और इसके बजाय अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, लेकिन मैंने बहुत-सा सत्य जाना है, बहुत कुछ प्राप्त किया है। वह मुझे किताबों से कभी नहीं मिलता। आप जो कह रहे हैं वह सत्य के अनुरूप नहीं है।” उनका गुस्सा भड़कता देख मैं चौंक गई, उनकी मुट्ठियाँ भिंच गईं, मानो वह मुझे मारने वाले हों। तब मुझे एहसास हुआ कि मेरे डैड वह इंसान नहीं हैं जो मैं सोचती थी। मैं तो हमेशा उनके बाहरी नेक आचरण से ही उन्हें आंकती थी, न कि सत्य सिद्धांतों से। मैंने हमेशा अपने पिता को मेरे प्रति चिंतित और दयालु और भाई-बहनों से प्यार करने वाला, और एक ऐसा व्यक्ति माना था जिसकी मानवता बुरी नहीं थी। लेकिन उनके अच्छे व्यवहार के पीछे, उनका कपटी दिल था। परमेश्वर और उसके कार्य के बारे में उनके मन में धारणाएँ भरी पड़ी थीं। हमारे विकल्पों के बारे में उनकी बातें सुकून देने और समझदारी वाली लगती थीं, लेकिन वास्तव में वह परमेश्वर के बारे में धारणाएँ फैला रहे थे, लोगों को उकसा रहे थे कि वे उसे गलत समझें और दोष दें। उन्हें मानने का मतलब था परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमी पालना और यहां तक कि उसमें विश्वास न करना, अपना कर्तव्य छोड़कर और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना छोड़कर फिर से संसार में लौटने की इच्छा करना। यह वास्तव में भ्रामक था!

फिर मैंने उनके व्यवहार से संबंधित परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “भाइयों-बहनों में से जो लोग हमेशा अपनी नकारात्मकता का गुबार निकालते रहते हैं, वे शैतान के अनुचर हैं और वे कलीसिया को परेशान करते हैं। ऐसे लोगों को अवश्य ही एक दिन निकाल और हटा दिया जाना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास रखते हुए अगर लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल न हो, परमेश्वर की आज्ञा मानने वाला दिल न हो, तो ऐसे लोग न सिर्फ परमेश्वर के लिए कोई कार्य कर पाने में असमर्थ होंगे, बल्कि वे परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने वाले और उसकी उपेक्षा करने वाले लोग बन जाएंगे। परमेश्वर में विश्वास करना किन्तु उसकी आज्ञा का पालन न करना या उसका भय न मानना और उसका प्रतिरोध करना, किसी भी विश्वासी के लिए सबसे बड़ा कलंक है। यदि विश्वासी अपनी वाणी और आचरण में हमेशा ठीक उसी तरह लापरवाह और असंयमित हों जैसे अविश्वासी होते हैं, तो ऐसे लोग अविश्वासी से भी अधिक दुष्ट होते हैं; ये मूल रूप से राक्षस हैं। ... शैतान द्वारा भ्रष्ट ऐसे सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं। कुछ के स्वभाव पूरी तरह से भ्रष्ट हैं, जबकि अन्य लोग इनसे भिन्न हैं : न केवल उनके स्वभाव शैतानी हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भी बेहद विद्वेषपूर्ण है। उनके शब्द और कृत्य न केवल उनके भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव को प्रकट करते हैं, बल्कि ये लोग असली पैशाचिक शैतान हैं। उनके आचरण से परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी और विघ्न पैदा होता है; इससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में विघ्न पड़ता है और कलीसिया के सामान्य कार्यकलापों को क्षति पहुंचती है। आज नहीं तो कल, भेड़ की खाल में छिपे इन भेड़ियों का सफाया किया जाना चाहिए, और शैतान के इन अनुचरों के प्रति एक सख्त और अस्वीकृति का रवैया अपनाया जाना चाहिए। केवल ऐसा करना ही परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना है; और जो ऐसा करने में विफल हैं वे शैतान के साथ कीचड़ में लोट रहे हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। “जो प्रगति के लिए प्रयास नहीं करते हैं, वे हमेशा चाहते हैं कि दूसरे भी उन्हीं की तरह नकारात्मक और अकर्मण्य बनें। जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, वे सत्य का अभ्यास करने वालों के प्रति ईर्ष्या-भाव रखते हैं, और हमेशा ऐसे लोगों के साथ विश्वासघात करना चाहते हैं जो नासमझ हैं और जिनमें विवेक की कमी है। जिन बातों को ये उगलते हैं, वे तेरे पतन का, गर्त में गिरने का, तुझमें असामान्य परिस्थिति पैदा होने का और तुझमें अंधकार भरने का कारण बनती हैं; वे तुझे परमेश्वर से दूर रहने, देह में आनंद लेने और तेरा अपने आप में आसक्त होने का कारण बनती हैं। जो सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, जो परमेश्वर के प्रति सदैव लापरवाह रवैया अपनाते हैं, उनमें आत्म-जागरूकता नहीं होती; ऐसे लोगों का स्वभाव लोगों को पाप करने और परमेश्वर की अवहेलना के लिये बहकाता है। वे सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं और न ही दूसरों को इसका अभ्यास करने देते हैं। उन्हें पाप अच्छे लगते हैं और उनमें स्वयं के प्रति कोई नफ़रत नहीं होती है। वे स्वयं को नहीं जानते हैं, और दूसरों को भी स्वयं को जानने से रोकते हैं; वे दूसरों को सत्य की लालसा करने से रोकते हैं। जिनके साथ वे विश्वासघात करते हैं वे प्रकाश को नहीं देख सकते। वे अंधेरे में पड़ जाते हैं, स्वयं को नहीं जानते, और सत्य के बारे में अस्पष्ट रहते हैं, तथा परमेश्वर से उनकी दूरी बढ़ती चली जाती है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। इस पर विचार करने पर, मैंने जाना कि जो लोग हमेशा भाई-बहनों के बीच धारणाएँ और नकारात्मकता फैला रहे हैं, वो शैतान से जुड़े हैं। ऐसे लोग शैतान के अनुचरों की तरह काम करते हैं, लोगों को परेशान और गुमराह करते हैं, उन्हें परमेश्वर के सामने आने से रोकते हैं। मेरे पिता का हर समय इस तरह की बातें करना कोई क्षणिक भ्रष्टता या कमजोरी नहीं थी। यह इसलिए था क्योंकि उनका प्रकृति सार सत्य और परमेश्वर से घृणा करने का था, तो जब भी कुछ होता, वह जो भी दृष्टिकोण बताते थे, वह परमेश्वर के वचनों और सत्य के एकदम विपरीत होता था, वो सभी परमेश्वर के बारे में धारणाएं होती थीं, ताकि लोग परमेश्वर को न समझ पाएं, उसे दोष दें और उससे विश्वासघात करें। मैंने पाया कि वह सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं करते थे। वह केवल आशीष पाने के लिए ही अपना कर्तव्य निभाते थे, और जब उन्हें अपने कष्ट और खपाने के लिए भौतिक आशीष नहीं मिले, तो उन्हें लगा कि उनके साथ अन्याय हुआ है, उनके मन में परमेश्वर के प्रति नाराजगी और शत्रुता थी। वह आस्था के मार्ग पर नहीं चल पाए और चाहते थे कि दूसरे भी उनकी बातों में आकर परमेश्वर से दूर हो जाएँ और उन्हीं की तरह परमेश्वर को धोखा दें, परमेश्वर का सामना करें। उनकी बातें शैतान की चालों से भरी थीं, सभी लोगों के कर्तव्य के प्रति उत्साह को मारने और परमेश्वर के साथ उनके रिश्ते को बर्बाद करने के लिए थीं। वह शैतान के अनुचर और उसके सगे थे। एक सामान्य व्यक्ति जो दिल से अच्छा था, कभी जानबूझकर ऐसा कभी नहीं करेगा, चाहे वह कितना भी नकारात्मक और कमजोर महसूस न करे। केवल एक शैतानी दुष्ट ही परमेश्वर के प्रति ऐसी शत्रुता रख सकता है। मुझे लगातार महसूस होता जा रहा था कि मेरे डैड डरावने हैं, वह अच्छे इंसान नहीं हैं, बल्कि कुकर्मी हैं।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “हो सकता है, परमेश्वर में अपने इतने वर्षों के विश्वास के दौरान तुमने कभी किसी को कोसा न हो या कोई बुरा कार्य न किया हो, फिर भी अगर मसीह के साथ अपने जुड़ाव में तुम सच नहीं बोल सकते, ईमानदारी से कार्य नहीं कर सकते, या मसीह के वचन को समर्पित नहीं हो सकते; तो मैं कहूँगा कि तुम संसार में सबसे अधिक कुटिल और दुष्ट व्यक्ति हो। तुम अपने रिश्तेदारों, दोस्तों, पत्नी (या पति), बेटे-बेटियों और माता-पिता के प्रति अत्यंत सौम्य और निष्ठावान हो सकते हो, और शायद कभी दूसरों का फायदा न उठाते हो, लेकिन अगर तुम मसीह के साथ संगत नहीं हो पाते, उसके साथ सामंजस्यपूर्ण व्यवहार नहीं कर पाते, तो भले ही तुम अपने पड़ोसियों की सहायता के लिए अपना सब-कुछ खपा दो या अपने माता-पिता और घरवालों की अच्छी देखभाल करो, तब भी मैं कहूँगा कि तुम दुष्ट व्यक्ति हो, और इतना ही नहीं, शातिर चालों से भरे हुए हो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। इससे मुझे एक बात समझ में आई कि हम किसी अच्छे और बुरे व्यक्ति में सिर्फ उसके बाहरी व्यवहार से अंतर नहीं कर सकते, हम उसे परमेश्वर और सत्य के प्रति उसके नजरिए से ही पहचान सकते हैं। चाहे वह ऊपर से कितने ही अच्छे लगें या लोग उनके बारे में जो सोचें, अगर उसे सत्य और परमेश्वर से घृणा है, तो वो परमेश्वर से शत्रुता रखने वाले कुकर्मी हैं। हालाँकि मेरे पिता बाहर से गर्मजोशी से मिलते थे, भाई-बहनों की मदद करते थे, दान देते थे, जब किसी चीज की कमी होती थी तो भी वह कभी कंजूस नहीं होते थे, और भाइयों और बहनों की मेजबानी में कोई कसर नहीं छोड़ते थे, वह एक अच्छे, दयालु व्यक्ति की तरह दिखते थे, प्रकृति सार में वह सत्य से घृणा करते थे, उन्हें उससे नफरत थी। वह अच्छी तरह जानते थे कि परमेश्वर ने आशीष पाने के लिए आस्था रखने के हमारे गलत विचार पहले ही उजागर कर दिए थे लेकिन जब परमेश्वर ने उनकी धारणाओं के विपरीत माहौल की व्यवस्था की, जो आशीष की उनकी इच्छा के मुताबिक नहीं था, तो उनकी कुरूपता दिख गई, उनमें परमेश्वर के बारे में धारणाएँ आ गईं, वो उसकी आलोचना और उससे घृणा करने लगे। इतने बरसों में, उन्होंने न तो कभी आत्म-मंथन किया, न ही सत्य खोजा, बल्कि परमेश्वर के कार्य की आलोचना करते रहे, उसके बारे में धारणाएँ फैलाते रहे। उनकी बातों में शैतान की चालें छिपी हुई थीं, जो लोगों को अनजाने ही निराश और कमजोर कर देती थीं। यह सच में कपटपूर्ण था। परमेश्वर लोगों का मूल्यांकन उनके सार, परमेश्वर और सत्य के प्रति उनके दृष्टिकोण के आधार पर करता है। लेकिन मैं अपने डैड को उनके बाहरी आचरण के आधार पर आंक रही थी। यह देखकर कि उनका व्यवहार कुछ अच्छा था, मुझे लगा था कि वह एक अच्छे इंसान हैं और कलीसिया को उन्हें निष्कासित नहीं करना चाहिए था इसलिए मैं उनकी तरफदारी करना चाहती थी। मैंने न तो सत्य समझा, न ही परमेश्वर के वचनों को निर्देश के तौर पर लिया। मैं बहुत मूर्ख थी। इसे समझते ही मुझे लगा कि कलीसिया का मेरे पिता को निष्कासित करना सही था। उन्हें परमेश्वर और सत्य से घृणा थी, तो कलीसिया द्वारा बाहर निकाले जाने के लिए वह खुद ही जिम्मेदार थे। मुझे उनके लिए अफसोस नहीं था। मैंने राहत महसूस की।

तब कुछ और हुआ जिसने मुझे उनके बारे में और ज्यादा अंतर्दृष्टि प्रदान की। मेरे डैड ने सुना कि जिस बहन ने उनकी काट-छाँट की थी, उसे कर्तव्य से हटा दिया गया है। वो इस समाचार से खुश हो रहे थे, उनकी आंखों में नफरत की चमक थी, वह दाँत पीसकर बोले, “याद है न तुमने कैसे मेरी काट-छाँट की थी? तुमने कहा था मैं अपने कर्तव्य में सैद्धांतिक नहीं हूँ, सत्य का अभ्यास नहीं करता। अब तुम्हारी बारी है!” उनकी आँखें सच में खूँखार थीं और चेहरा डरावना लग रहा था। मैंने देखा कि उनमें कतई कोई करुणा नहीं थी। जब उनकी काट-छाँट की गई थी, तो भी न उन्होंने सत्य खोजा, न कोई सबक सीखा, बल्कि बरसों तक उस व्यक्ति से बैर रखते रहे, क्योंकि उनका अहंकार आहत हुआ था। इस बात से मुझे और भी यकीन हो गया कि मेरे डैड का मन काला था और वह सच में एक कुकर्मी हैं जिन्हें सत्य से घृणा है। एक कुकर्मी अपना असली रंग दिखा रहा था और कलीसिया से उनका निष्कासन करना सही कदम था।

बाद में, परमेश्वर के घर ने कलीसियाओं से ये जाँच करने को कहा कि किसी को गलत तरीके से तो नहीं हटाया या निष्कासित किया गया है, या उनमें से जिन्हें हटाया या निष्कासित किया गया है, किसी ने सच में पश्‍चाताप किया है या नहीं। इन लोगों को कलीसिया सिद्धांतों के आधार पर बहाल करने पर विचार कर सकता था। नए अगुआ को मेरे डैड की स्थिति का पता नहीं था। उन्होंने मेरे डैड का उत्साह और भाइयों और बहनों की मेजबानी करने की इच्छा देखी, देखा कि वह उन्हें काम खोजने में मदद करते हैं, काफी ध्यान रखते हैं, उन्होंने कुछ बलि भी दी थीं। इसलिए उन्हें लगा कि शायद उन्हें गलत तरीके से निकाल दिया गया है, और वह उन्हें वापस कलीसिया में लाना चाहती थीं। अगुआ से यह सुनकर मुझे धक्का लगा, क्योंकि मैं जानती थी कि उनका निष्कासन पूरी तरह सेसिद्धांतों के अनुरूप था, यह कोई गलत निष्कासन नहीं था। मैंने तुरंत कहा, “मेरे डैड को वापस नहीं लाया जा सकता।” वह मेरे डैड को नहीं जानती थीं इसलिए संगति करते हुए मुझे बताया कि लोगों को पछताने का अवसर मिलना चाहिए। पहले तो मैं डैड के व्यवहार पर बात करना चाहती थी, लेकिन फिर मैं झिझकी और चुप रही। मैं सोच रही थी कि आखिर मेरे डैड ने ही मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया था। अगर उन्हें पता चला कि मैं उनकी वापसी में बाधा बन रही हूँ, तो वह बहुत आहत होंगे, और मुझ पर नाराज होंगे! यही सोचकर मैंने अपना मुँह बंद रखा, लेकिन अगुआ के जाने के बाद मेरे अंदर अपराध-बोध पैदा हुआ। अपने पिता के इस मामले के बारे में केवल मैं और मेरी मॉम ही जानते थे, और इस अहम मौके पर न बोलना कलीसिया के काम की रक्षा करने में नाकाम होना होगा। मैं रातभर करवटें बदलती रही, और मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “शैतान कौन है, दुष्टात्माएँ कौन हैं और परमेश्वर के शत्रु कौन हैं, क्या ये वे परमेश्वर के प्रतिरोधी नहीं जो परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते? क्या ये वे लोग नहीं, जो परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी हैं? क्या ये वे नहीं, जो विश्वास करने का दावा तो करते हैं, परंतु उनमें सत्य नहीं है? क्या ये वे लोग नहीं, जो सिर्फ़ आशीष पाने की फ़िराक में रहते हैं जबकि परमेश्वर के लिए गवाही देने में असमर्थ हैं? तुम अभी भी इन दुष्टात्माओं के साथ घुलते-मिलते हो और उनके प्रति साफ़ अंतःकरण और प्रेम रखते हो, लेकिन क्या इस मामले में तुम शैतान के प्रति सदिच्छाओं को प्रकट नहीं कर रहे? क्या तुम दानवों के साथ मिलकर षड्यंत्र नहीं कर रहे? यदि आज कल भी लोग अच्छे और बुरे में भेद नहीं कर पाते और परमेश्वर की इच्छा जानने का कोई इरादा न रखते हुए या परमेश्वर की इच्छाओं को अपनी इच्छा की तरह मानने में असमर्थ रहते हुए, आँख मूँदकर प्रेम और दया दर्शाते रहते हैं, तो उनके अंत और भी अधिक ख़राब होंगे। यदि कोई देहधारी परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, तो वह परमेश्वर का शत्रु है। यदि तुम शत्रु के प्रति साफ़ अंतःकरण और प्रेम रख सकते हो, तो क्या तुममें धार्मिकता की समझ का अभाव नहीं है? यदि तुम उनके साथ सहज हो, जिनसे मैं घृणा करता हूँ, और जिनसे मैं असहमत हूँ और तुम तब भी उनके प्रति प्रेम और निजी भावनाएँ रखते हो, तब क्या तुम अवज्ञाकारी नहीं हो? क्या तुम जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो? क्या ऐसे व्यक्ति में सत्य होता है? यदि लोग शत्रुओं के प्रति साफ़ अंतःकरण रखते हैं, दुष्टात्माओं से प्रेम करते हैं और शैतान पर दया दिखाते हैं, तो क्या वे जानबूझकर परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं डाल रहे हैं?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचनों को जानकर इस बारे में मुझे बहुत बुरा लगा। मुझे अच्छी तरह पता था कि डैड को सत्य से घृणा है, और वह परमेश्वर-विरोधी हैं और वह अपने सार में कुकर्मी हैं। वह लोगों की बहाली के लिए कलीसियाई-सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं। फिर भी मैं उनका पक्ष ले रही थी और उन्हें बचाना चाहती थी, मैं उनके दुष्ट व्यवहार को उजागर नहीं कर पाई। मैं बहुत भावुक थी। मैं शैतानी फलसफे के मुताबिक जी रही थी जैसे “खून के रिश्ते सबसे मजबूत होते हैं” और “मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?” मैं सोच रही थी कि आखिर हैं तो वह मेरे डैड ही, मैं इतनी हृदयहीन नहीं हो सकती थी, मुझे अच्छा बनना होगा। मुझे यह भी डर था कि अगर उन्हें पता चला कि मैंने उनकी समस्याएँ बताई हैं, तो वह मुझसे घृणा करेंगे, कहेंगे कि मैं कृतघ्न हूँ, कि इतने सालों तक उनकी परवरिश बेकार गई। मैं चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देख रही थी। कलीसिया के कार्य के बजाय, मैं भावनाओं के आधार पर अपने पिता को बचा रही थी। मैं जो कर रही थी उसमें परमेश्वर का विरोध और उससे धोखा कर रही थी। मेरे पिता का सार एक कुकर्मी का था, और अगर वह कलीसिया में वापस आ गए, तो वह कलीसियाई जीवन और भाइयों और बहनों के जीवन-प्रवेश में बाधा डालेंगे। क्या इस वजह से मैं भी कुकर्मी की सहायक नहीं बन जाऊँगी? मैंने इस बारे में जितना सोचा, उतना ही मुझे खराब लगा। भावनाओं में बहकर, मैं अच्छे-बुरे का भेद भूल गई थी, और मैंने मानवता के सिद्धांतों की अनदेखी कर दी थी।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? जिससे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से घृणा और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, यदि वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास सही मार्ग है और यह उनका उद्धार कर सकता है, फिर भी ग्रहणशील नहीं होते, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे सत्य से उकताने और घृणा करने वाले लोग हैं और वे परमेश्वर का विरोध और उससे घृणा करते हैं—और स्वाभाविक तौर पर परमेश्वर उनसे घृणा और उनका तिरस्कार करता है। क्या तुम ऐसे माता-पिता का तिरस्कार कर सकते हो? वे परमेश्वर का विरोध और उसकी आलोचना करते हैं—ऐसे में वे निश्चित रूप से दानव और शैतान हैं। क्या तुम उनका तिरस्कार करके उन्हें धिक्कार सकते हो? ये सब वास्तविक प्रश्न हैं। यदि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकें, तो तुम्हें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? जैसा कि परमेश्वर चाहता है, परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो। अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा, ‘कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई?’ ‘क्योंकि जो कोई मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चले, वही मेरा भाई, और मेरी बहिन, और मेरी माता है।’ ये वचन अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थे, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक स्पष्ट हैं : ‘उससे प्रेम करो, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा करो, जिससे परमेश्वर घृणा करता है।’ ये वचन बिलकुल सीधे हैं, फिर भी लोग अकसर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे डैड पर लागू करने योग्य सिद्धांत दिए। वो मेरे डैड जरूर थे, पर प्रकृति सार से वह दुष्ट थे। उन्हें सत्य से घृणा थी और वह परमेश्वर के शत्रु थे। वह कलीसिया में बाधा ही पैदा करेंगे और भाइयों-बहनों को नुकसान पहुँचाएंगे। परमेश्वर को ऐसे लोगों से चिढ़ और घृणा है, वह कुकर्मियों को नहीं बचाता। केवल उनसे प्रेम और स्नेह करने का मतलब होगा भाई-बहनों के साथ क्रूरता करना, यह कलीसिया को नुकसान पहुँचाएगा और परमेश्वर के विरुद्ध जाकर उसका दुश्मन होना और कुकर्मी की तरफ जाकर खड़े होना होगा।

बाद में, मैंने और मॉम ने इस पर संगति की और हम दोनों को लगा कि परमेश्वर हमारी परीक्षा ले रहा है, हमें सत्य का अभ्यास करके कलीसिया के हितों को कायम रखना है। अगर हमने डैड का पक्ष लिया और उन्हें बचाया और उनके बुरे व्यवहार को सामने नहीं लाए, तो हम भी उनकी बुराई का हिस्सा होंगे, परमेश्वर हमें धिक्कारेगा और दंडित भी करेगा। मेरे डैड को अभी बहाल नहीं किया गया था, लेकिन जब भाई-बहन हमसे मिलने आए, तो वह अब भी उन लोगों को नकारात्मक और मृत्यु वाले शब्द बोलते और हानि पहुंचाने वाली बातें कहते। अगर वह वापिस आ जाते, तो जिस समूह में भी होते, उसे चोट पहुँचाते, और जिस किसी भी कलीसिया के संपर्क में आते, वह पीड़ितों से भर जाता! अगर मैं अपने विवेक की उपेक्षा कर चुप रहती, तो उससे भाई-बहनों का नुकसान और कलीसिया के कार्य में विघ्न पड़ता! मैं और अधिक डर गई और महसूस किया कि इस निर्णायक समय में, कलीसिया के कार्य की रक्षा करना या एक कुकर्मी का पक्ष लेना इस बात से जुड़ा था कि मैं क्या रुख अपनाती हूँ। कलीसिया की अगुआ मेरे डैड को नहीं जानती थी, उसे वह ऊपर से एक अच्छे इंसान लगते थे और सोच रही थी कि उन्हें कलीसिया में वापसी देकर एक मौका मिलना चाहिए। पर हम तो उन्हें जानते थे, तो हमें सत्य का अभ्यास कर, ईमानदार होना था और उनका बुरा बर्ताव रिपोर्ट करना था। कुछ दिन बाद एक बार अगुआ सभा के लिए हमारे घर आईं। मेरी मॉम और मैंने उन्हें डैड के दुष्ट व्यवहार के बारे में सब बता दिया, अंत में डैड को वापस नहीं बुलाया गया। इसका अभ्यास करने पर मुझे बड़ी शांति मिली।

मैं खुद पहले डैड के बाहरी आचरण से प्रभावित थी, और मेरी उनके बारे में कोई समझ नहीं थी। मैं अच्छे और बुरे व्यक्ति में अंतर नहीं कर सकती थी। जब डैड को बाहर निकाल दिया गया, तब मैंने सत्य की थोड़ी-बहुत समझ और विवेक पाया, और अपने पिता की दुष्टता का सार देखा। मैंने भावुकता के भटकाव पर काबू पाया और उनके साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार किया। वह मेरे लिए परमेश्वर की सुरक्षा और उद्धार था! सर्वशक्तिमान परमेश्वर को धन्यवाद!

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