4. वास्तविक कार्य न कर पाने के नतीजे

शियाओमो, चीन

मैं कलीसिया के सुसमाचार कार्य की प्रभारी हूँ। एक बार कुछ भाई-बहनों ने बताया कि एक समूह अगुआ शिनयू घमंडी और निरंकुश है, वह दूसरों के साथ ठीक से काम नहीं कर पाती या सुझाव नहीं मानती है। उसके आगे सभी बेबस महसूस करते हैं और इससे सुसमाचार के काम पर असर पड़ा है। सभी ने यह समस्या बताकर उसकी मदद करने की कोशिश की, उसने मुँह से इसे स्वीकारकर हामी तो भर ली मगर खुद को बिल्कुल नहीं बदला। फिर हमने इस पर चर्चा कर उसे बर्खास्त करने का फैसला किया। मैं इससे बेहद शर्मिंदा थी, क्योंकि मैंने शिनयू की समस्याओं के बारे में कभी-कभार उसके साथ संगति की थी लेकिन हैरानी हुई कि समस्या हल होने के बजाय हालत और ज्यादा बिगड़ गई। तब मैंने आत्म-चिंतन कर इसका असली कारण पता करना चाहा। मैंने उन दिनों को याद किया जब पहली बार यह काम संभाला था। शिनयू का समूह सुसमाचार कार्य में सबसे सफल था और इसमें मन से जुटा रहता था। मैं उनका बहुत सम्मान करती थी। खासकर शिनयू की काबिलियत देखकर मुझे लगा कि उसे समूह अगुआ के रूप में कोई दिक्कत नहीं आएगी, इसलिए मैंने उसके काम पर ज्यादा नजर नहीं रखी। कुछ बहनों ने मुझे अपनी समस्याएँ बताईं, लेकिन मैंने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। मुझे लगा कि वे सुसमाचार कार्य में सफल थीं, इसलिए अगर कुछ समस्याएँ हैं भी तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। कभी-कभी संगति के दौरान मैं उन्हें कुछ साधारण-से संकेत दे देती थी, लेकिन बाद में ये समस्याएँ हल हुईं भी कि नहीं, मैंने कभी नहीं देखा। मुझे याद है, एक बार काम पर चर्चा के दौरान मैंने शिनयू और शाओली में मतभेद देखे। दोनों बहुत घमंडी थीं और अपनी-अपनी बात पर अड़ी रहीं। मैंने परमेश्वर के कुछ वचन खोजकर दोनों के साथ उनकी दशा पर संगति की, और यह देखकर कि वे आत्म-चिंतन कर खुद को बदलने को तैयार हैं, मुझे लगा मेरे सिर से बोझ उतर गया है। लेकिन फिर से वे साथ में काम नहीं कर पा रही थी, मुझे पता था कि उनके साथ एक बार संगति करके समस्या का हल नहीं निकल पाया था, मुझे चीजों पर नजर रखकर देखना चाहिए कि क्या उनकी हालत सचमुच बदली भी है या नहीं। लेकिन फिर मैंने सोचा, उनके साथ अधिक संगति के लिए मुझे परमेश्वर के वचनों के अंश खोजने पड़ेंगे और उनकी हालत की तह में जाना होगा जो बड़ा थकाऊ काम है। फिर वे सामान्य रूप से काम कर ही रही थीं, तो मैंने उनकी छानबीन को नजरअंदाज करना ही बेहतर समझा। इसलिए मैंने मामले को वहीं छोड़ दिया। फिर एक बार, मैंने संगति के दौरान शिनयू और दूसरी बहन में मतभेद होते देखे। दूसरी बहन ने एक तर्कसंगत सुझाव दिया लेकिन शिनयू इसे स्वीकारने के बजाय अपनी बात को सही ठहराने पर अड़ी रही। कोई चारा न देखकर बहन को अंत में झुकना पड़ा। शिनयू के दंभ को देखकर मैं उसकी समस्या उजागर करना चाहती थी लेकिन फिर मैंने सोचा कि इस संगति में समय और मेहनत दोनों लगेंगे, और फिर मुझे दूसरे काम भी देखने थे। क्योंकि उनमें कोई स्पष्ट टकराव या झगड़ा नहीं था, तो शायद यह उतनी बुरी स्थिति नहीं थी। मुसीबत जितनी कम हो, उतना ही अच्छा। शिनयू एक समूह अगुआ भी थी, अगर वह कोई घमंड दिखा रही थी तो उसे ही सत्य खोजकर इस समस्या को दूर करना आना चाहिए था। इसलिए, मैंने उसे उसकी समस्या नहीं बताई। इन बातों पर दुबारा सोचते हुए, मैं जानती थी कि शिनयू घमंडी है और दूसरों के साथ ठीक से काम नहीं कर सकती। फिर वह अगुआ भी थी, इसलिए इतने महत्वपूर्ण मामले की उपेक्षा करके मैं वाकई गैर-जिम्मेदारी दिखा रही थी!

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : “कोई अगुआ या कर्मी चाहे जो भी महत्वपूर्ण कार्य करे, और उस कार्य की प्रकृति चाहे जो हो, उनकी पहली प्राथमिकता यह समझना और इस पर पकड़ रखने की होती है कि काम कैसे चल रहा है। चीजों पर अनुवर्ती कार्रवाई करने और प्रश्न पूछने के लिए उन्हें व्यक्तिगत रूप से वहाँ होना चाहिए और उनकी सीधी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। उन्हें केवल सुनी-सुनाई बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए या अन्य लोगों की रिपोर्टें नहीं सुननी चाहिए। इसके बजाय उन्हें अपनी आँखों से कार्मिकों की स्थिति और कार्य की प्रगति का निरीक्षण करना चाहिए और समझना चाहिए कि क्या कठिनाइयाँ हैं, कोई क्षेत्र ऊपर वाले की अपेक्षाओं के विपरीत तो नहीं, कहीं सिद्धांतों का उल्लंघन तो नहीं हुआ, कोई विघ्न-बाधा तो नहीं है, आवश्यक उपकरण की या पेशेवर कार्य से जुड़े किसी कार्य-विशेष में निर्देशात्मक सामग्री की कमी तो नहीं है—उन्हें इन सब पर नजर रखनी चाहिए। चाहे वे कितनी भी रिपोर्टें सुनें, या सुनी-सुनाई बातों से उन्हें कितना भी कुछ छान लें, इनमें से कुछ भी व्यक्तिगत दौरे पर जाने की बराबरी नहीं करता; उनके लिए चीजों को अपनी आँखों से देखना अधिक सटीक और विश्वसनीय होता है। जब वे स्थिति के सभी पक्षों से परिचित हो जाते हैं, तो उन्हें इस बात का अच्छा अंदाजा हो जाता है कि क्या चल रहा है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। “अगुआ चाहे किसी भी कार्य का निरीक्षण कर रहे हों, भार वहन करने वाले अगुआ हमेशा समस्याएँ पहचान लेते हैं। ऐसी कोई भी समस्या जो पेशेवर ज्ञान से संबंधित हो या सिद्धांतों के विरुद्ध हो, वे उन्हें पहचानने, उनके बारे में पूछताछ करने और उनकी समझ प्राप्त करने में सक्षम होते हैं, और जब उन्हें किसी समस्या का पता चल जाता है, तो वे उसे तुरंत दूर करते हैं। बुद्धिमान अगुआ और कार्यकर्ता केवल कलीसिया के कार्य, पेशेवर ज्ञान और सत्य सिद्धांतों से संबंधित समस्याओं का समाधान करते हैं। दैनिक जीवन की छोटी-छोटी बातों पर वे कोई ध्यान नहीं देते। वे परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सुसमाचार फैलाने के काम के हर पहलू का ध्यान रखते हैं। वे हर उस समस्या के बारे में पूछते और उसका निरीक्षण करते हैं जिसे वे महसूस कर पाते या जिसका पता लगा पाते हैं। यदि वे उस समय स्वयं समस्या का समाधान नहीं कर पाते, तो वे अन्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर, उनके साथ संगति कर, सत्य सिद्धांतों की खोज करते हैं और उसे हल करने के तरीकों के बारे में सोचते हैं। यदि उनके सामने ऐसी कोई बड़ी समस्या आती है जिसका वे वास्तव में समाधान नहीं कर पाते, तो वे तुरंत ऊपरवाले से सहायता माँगते हैं ताकि वे उन्हें संभाल सकें और उनका समाधान करें। ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता अपने कामकाज में सिद्धांतों पर चलने वाले होते हैं। चाहे जो समस्याएं हो, अगर उन्होंने उन समस्याओं को देख लिया है, तो वे उसे छोड़ते नहीं और हर को समस्या को पूरी तरह से समझने और एक-एक कर उनका समाधान करने पर जोर देते हैं। अगर उनका अच्छी तरह से समाधान नहीं होता है, तो भी यह आश्वासन दिया जा सकता है कि ये समस्याएं फिर से पैदा नहीं होगी(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। अगुआओं और कार्यकर्ताओं से परमेश्वर क्या चाहता है, यह जानकर मैं बहुत शर्मिंदा हुई। सुसमाचार कार्य के लिए मैंने बोझ नहीं उठाया। मैं सुसमाचार कार्य की फौरन खोज-खबर लेने में तो विफल थी ही, मुझे भाई-बहनों की हालत की गहरी समझ भी नहीं थी। जैसे, शिनयू एक समूह अगुआ थी और उसके साथ काम करना भी मुश्किल था—मुझे संगति के जरिए समस्या का हल निकालना चाहिए था, लेकिन मैंने उसे संक्षेप में समस्या बताकर छुट्टी पा ली और इसकी गहरी समझ हासिल करने के लिए दूसरों से बात नहीं की। मैंने उसकी समस्या की प्रकृति और इसके नतीजों को भी उजागर नहीं किया। उसके बाद, वह बदली भी या नहीं, मैंने पूछताछ नहीं की। मैंने सोचा ही नहीं कि क्या यह उसके स्वभाव सार का मसला है या वह भ्रष्टता दिखा रही है, क्या वह समूह अगुआ होने योग्य है भी या नहीं, और ऐसे ही अन्य बातें। इसलिए उसकी समस्याएँ कभी हल हुई ही नहीं और सुसमाचार कार्य भी प्रभावित हुआ। बाद में मैंने देखा कि शिनयू अब भी घमंडी, दंभी और निरंकुश है, मैं जानती थी कि यह समस्या दूर करने के लिए उसके साथ संगति करनी चाहिए, वरना काम में देरी होगी। फिर भी मैंने चिंता नहीं की क्योंकि मैं पचड़े में नहीं पड़ना चाहती थी। मैं अब भी बस अधूरे मन से हल निकाल रही थी, समस्या का जिक्र भर करके मैं सतही उपायों से संतुष्ट थी। समस्या वाकई हल हुई या नहीं, इस बारे में जानने के लिए मैंने सिर नहीं खपाया। मैं गैर-जिम्मेदार थी, न अपना काम कर रही थी, न ही कोई वास्तविक कार्य। झूठे अगुआ ऐसा ही करते हैं। कलीसिया ने इस उम्मीद से मुझे सुसमाचार कार्य का प्रभारी बनाया कि मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य पूरा करूँगी, अपने काम के प्रति गंभीर और जिम्मेदार रहूँगी और सत्य सिद्धांतों के सहारे भाई-बहनों के मसले हल करूँगी ताकि सुसमाचार का कार्य सुगमता से चलता रहे। लेकिन इसके बजाय, जब समस्याएँ पैदा हुईं और समाधान की जरूरत पड़ी तो मैंने यह सोचकर कुछ नहीं किया कि मुसीबत जितनी कम हो, उतना ही अच्छा। मैं बिल्कुल झूठी अगुआ की तरह बर्ताव करते हुए सुसमाचार कार्य में अड़ंगे डाल रही थी। अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया परमेश्वर को चिढ़ाने वाला था!

उसके बाद मैंने वास्तविक कार्य करने में अपनी नाकामी का असली कारण खोजा और उस पर विचार किया। मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : “अपने कार्य में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होना चाहिए और उसके प्रति वफादार रहना चाहिए। उनके लिए व्यवहार करने का सबसे अच्छा तरीका सक्रिय रूप से समस्याओं को पहचानना और हल करना है। उन्हें निष्क्रिय नहीं रहना चाहिए, खासकर तब जब उनके पास कार्य करने के लिए आधार के रूप में ये मौजूदा शब्द और संगति है। उन्हें सत्य पर संगति करके वास्तविक समस्याओं और मुश्किलों को पूरी तरह से सुलझाने की पहल करनी चाहिए, और अपना कार्य ठीक उसी तरह से करना चाहिए जैसा उनसे अपेक्षित है। उन्हें कार्य की प्रगति पर फौरन और सक्रियता से खुद आगे बढ़कर अनुवर्ती कार्यवाही करनी चाहिए; वे अनिच्छा से क्रियाकलाप करने से पहले हमेशा ऊपर से आदेशों और संकेतों की प्रतीक्षा में बैठे नहीं रह सकते हैं। अगर अगुआ और कार्यकर्ता हमेशा नकारात्मक और निष्क्रिय रहते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते हैं, तो वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में सेवा करने के लायक नहीं हैं, और उन्हें बर्खास्त करके कोई दूसरा काम दे दिया जाना चाहिए। फिलहाल ऐसे बहुत-से अगुआ और कार्यकर्ता हैं जो अपने काम में बहुत निष्क्रिय हैं। वे थोड़ा सा भी कार्य सिर्फ तभी करते हैं जब ऊपरवाला आदेश भेजता है और उन्हें प्रेरित करता है; अन्यथा, वे सुस्त पड़ जाते हैं और टालमटोल करते हैं। कुछ कलीसियाओं में काम में काफी अस्तव्यस्तता होती है, वहाँ कार्य करने वालों में से कुछ लोग बहुत ही सुस्त और लापरवाह हैं, और उन्हें कोई वास्तविक परिणाम नहीं मिलते हैं। ये समस्याएँ पहले से ही बहुत गंभीर और भयानक प्रकृति की हैं, लेकिन अब भी उन कलीसियाओं के अगुआ और कार्यकर्ता अधिकारियों और अधिपतियों की तरह कार्य करते हैं। वे न तो कोई वास्तविक कार्य कर पाते हैं, न ही समस्याओं को पहचानकर उन्हें हल कर पाते हैं। इससे कलीसिया का काम रुक जाता है और फिर काम ठप्प ही पड़ जाता है। जब भी किसी कलीसिया का कार्य बुरी तरह से अस्त-व्यस्त हो जाता है और वहाँ व्यवस्था का कोई नामोनिशान नहीं होता है, तो निश्चित रूप से वहाँ का प्रभारी कोई झूठा अगुआ या मसीह-विरोधी है। हर कलीसिया में जहाँ कोई झूठा अगुआ प्रभारी होता है, वहाँ कलीसिया का कार्य खस्ताहाल और पूरी तरह से अस्त-व्यस्त होगा—इसमें कोई संदेह नहीं है। ... जब लोग आवश्यक काम के प्रति भी एकदम लापरवाह होते हैं तो इसका मतलब क्या है? (वे कोई भार वहन नहीं करते।) यह कहना सही होगा कि वे कोई भार वहन नहीं करते; वे बेहद आलसी भी होते हैं, और सुख-सुविधाओं के लिए तरसते रहते हैं, मौका मिलते ही आरामतलबी करते हैं और किसी भी अतिरिक्त कार्य से बचने का प्रयास करते हैं। ये आलसी लोग अक्सर सोचते हैं, ‘मैं इसके बारे में इतनी चिंता क्यों करूँ? बहुत ज्यादा चिंता करने से मेरी उम्र तेजी से बढ़ने लगेगी। ऐसा करके, और इतनी भागदौड़ से और अपने आपको इतना थकाकर मुझे क्या लाभ होगा? अगर मैं जी-तोड़ मेहनत करके बीमार पड़ गया तो? मेरे पास तो इलाज के लिए पैसे भी नहीं हैं। और जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा तो मेरी देखभाल कौन करेगा?’ ये आलसी लोग इतने निष्क्रिय और पिछड़े होते हैं। उनमें रत्ती भर भी सत्य नहीं होता और वे कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते। जाहिर है कि वे भ्रमित लोगों का एक समूह हैं, है न? वे सब भ्रमित होते हैं; वे सत्य से बेखबर होते हैं और उन्हें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं होती है, तो उन्हें कैसे बचाया जा सकता है? लोग हमेशा अनुशासनहीन और आलसी क्यों होते हैं, मानो वे जिंदा लाशें हों? यह उनकी प्रकृति के मुद्दे से जुड़ा है। मानव-प्रकृति में एक प्रकार का आलस्य होता है। लोग चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, उन्हें हमेशा अपनी निगरानी करने और खुद को प्रोत्साहित करने के लिए किसी ना किसी की जरूरत पड़ती है। कभी-कभी लोग देह के लिए विचारशील होते हैं, शारीरिक आराम के लिए तरसते हैं, और हमेशा अपने लिए कुछ न कुछ छिपाकर रख लेते हैं—ये लोग शैतानी इरादों और धूर्त योजनाओं से भरे होते हैं; ये लोग सचमुच बिल्कुल अच्छे लोग नहीं होते। वे कभी भरसक प्रयास नहीं करते, चाहे वे कोई भी महत्वपूर्ण कर्तव्य क्यों न कर रहे हों। यह गैर-जिम्मेदार और विश्वासघाती होना है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (26))। “सभी नकली अगुआ कभी भी वास्तविक कार्य नहीं करते हैं। वे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे उनकी अगुवाई की भूमिका कोई आधिकारिक पद हो, वे पद के फायदों का आनंद लेते हैं, और अगुआ के रूप में उन्हें जो कर्तव्य करना चाहिए और जो कार्य करना चाहिए, वे उन्हें बोझ जैसा, उपद्रव जैसा मानते हैं। अपने दिलों में, वे कलीसिया के कार्य के प्रति प्रतिरोध से लबालब भरे होते हैं : जब उनसे कार्य का पर्यवेक्षण करने और यह जानने के लिए कहा जाता है कि इसमें ऐसे कौन से मुद्दे मौजूद हैं जिन पर अनुवर्ती कार्रवाई करने और जिन्हें हल करने की जरूरत है, तो ऐसा करने की उनकी जरा भी इच्छा नहीं होती। अगुआओं और कर्मियों का यही तो काम होता है, यही उनका कार्य है, लेकिन वे इसे नहीं करते हैं और वे इसे करने के अनिच्छुक हैं, तो फिर भी वे अगुआ और कार्यकर्ता क्यों बनना चाहते हैं? क्या वे अपने कर्तव्य का पालन परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहने के लिए करते हैं या एक पदाधिकारी बनने और हैसियत के फायदे लेने के लिए करते हैं? अगर वे सिर्फ इसलिए अगुआ बने ताकि वे कोई आधिकारिक पद संभाल सकें, तो क्या यह थोड़ी-सी बेशर्मी नहीं है? ये लोग सबसे नीच चरित्र के हैं, इनमें कोई गरिमा नहीं है, और वे बेशर्म हैं। अगर वे दैहिक सुख-सुविधा का आनंद लेना चाहते हैं, तो उन्हें जल्द से जल्द संसार में वापस लौट जाना चाहिए, और अपनी क्षमता के अनुसार दावा करना चाहिए, जबरन ले लेना चाहिए, और हड़प लेना चाहिए, और कोई भी इसमें दखल नहीं देगा। परमेश्वर का घर परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए अपने कर्तव्य करने और उसकी आराधना करने का स्थान है; यह लोगों के लिए सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने की जगह है। यह किसी के लिए भी दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त होने की जगह नहीं है, और ऐसी जगह तो बिल्कुल नहीं है जो लोगों को राजकुमारों की तरह रहने की अनुमति दे। झूठे अगुआओं में कोई शर्म नहीं होती है, वे पूरी तरह से बेशर्म होते हैं, और उनमें बिल्कुल सूझ-बूझ नहीं होती है। चाहे उन्हें कोई भी विशिष्ट कार्य क्यों ना सौंपा जाए, वे उसे गंभीरता से नहीं लेते हैं, और वे इसके बारे में नहीं सोचने का प्रयास करते हैं; वैसे तो वे शब्दों में बहुत अच्छी तरह से जवाब देते हैं, लेकिन वे कोई भी वास्तविक चीज नहीं करते हैं। क्या यह अनैतिक नहीं है? ... कुछ लोग चाहे जो भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे उसमें अयोग्य होते हैं, वे उसका भार नहीं उठा सकते, और वे किसी भी उस दायित्व या जिम्मेदारी को निभाने में असमर्थ होते हैं, जो एक व्यक्ति को निभानी चाहिए। क्या वे कचरा नहीं हैं? क्या वे अभी भी इंसान कहलाने लायक हैं? कमअक्ल लोगों, मानसिक रूप से अयोग्य, और जो शारीरिक अक्षमताओं से ग्रस्त हैं, उन्हें छोड़कर, क्या कोई ऐसा जीवित व्यक्ति है जिसे अपने कर्तव्यों को नहीं करना चाहिए और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करना चाहिए? लेकिन इस तरह के लोग अविश्वसनीय और सुस्त होते हैं, और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करना चाहते; निहितार्थ यह है कि वे एक उचित मनुष्य नहीं बनना चाहते हैं। परमेश्वर ने उन्हें इंसान बनने का अवसर दिया, और उसने उन्हें काबिलियत और विशेष गुण दिए, फिर भी वे अपने कर्तव्य-पालन में इनका इस्तेमाल नहीं कर पाते। वे कुछ नहीं करते, लेकिन हर मोड़ पर चीजों का आनंद लेना चाहते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने लायक भी है? उन्हें कोई भी काम दे दिया जाए—चाहे वह महत्वपूर्ण हो या सामान्य, कठिन हो या सरल—वे हमेशा लापरवाह और शातिर होते हैं और कामचोरी करते हैं। समस्याएँ आने पर अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं; कोई जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, और वे अपना परजीवी जीवन जीते रहना चाहते हैं। क्या वे बेकार कचरा नहीं हैं?(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। उसके वचनों से मुझे गहरी पीड़ा हुई। पूरे समय, अगुआओं और कर्मियों की जिम्मेदारियों पर परमेश्वर गहन रूप से संगति करता रहा लेकिन मैंने इसमें बिल्कुल भी प्रवेश नहीं किया। मैं आलसी और गैर-जिम्मेदार बनी रही, देह की इच्छाओं में उलझी रही और अपने काम में कोई नतीजे नहीं दे रही थी। मैं परजीवी जैसी और निकम्मी थी जिसे परमेश्वर उजागर करता है। शिनयू की समस्या देखते हुए मुझे पता था कि मसला अभी हल नहीं हुआ है, फिर भी मैंने धूर्तता दिखाकर सिर्फ खुद को परेशानी से बचाने का काम किया। मुझे एहसास हुआ कि मेरा काम अक्सर बेअसर इसलिए रहता है क्योंकि मैं आलसी हूँ और सिर्फ अपने आराम की चिंता करती हूँ। शुरुआत में, जब सुसमाचार साझा करने में दूसरों को परेशानी होती थी या सिद्धांतों को लेकर कुछ शंकाएँ होती थीं तो मैं समाधान के लिए उनके साथ संगति करती थी। लेकिन उनमें से कुछ की प्रगति सुस्त या समस्याएँ जटिल होने के कारण मुझे लगा कि उनकी मदद करना मुसीबत भरा और थका देने वाला है। मुझे सत्य खोजकर, सोच-समझकर उनके साथ धैर्यपूर्वक संगति करनी पड़ती, इसलिए मैंने इससे बचने का विकल्प चुना और सिर्फ जाहिर मसलों को हल किया और मुश्किल मसलों को दबाती रही। बड़ी-बड़ी समस्याओं को मैंने कम आंका और छोटी-मोटी की परवाह नहीं की। इसलिए बहुतेरे मसले कभी हल हुए ही नहीं। समस्याएं दूर किए बिना मैं देह-सुख में उलझी रही। लिहाजा, लंबे समय तक सुसमाचार का कार्य आगे बढ़ा ही नहीं। वह सिर्फ इसलिए कि मैं प्रकृति से आलसी थी, देह-सुख को ही अहमियत देती थी, और अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित या जिम्मेदार नहीं थी। मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया : “यह कर्तव्य की गंभीर उपेक्षा है! तुमने वह रवैया और जिम्मेदारी खो दी है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में तुम्हें अपने कर्तव्यों के प्रति रखनी चाहिए(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (26))। “क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने लायक भी है?(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। मैं अगुआ थी, इसलिए यह मेरी जिम्मेदारी बनती थी कि जो भी मसले सामने आएं उनके समाधान के लिए हर संभव काम करूँ। लेकिन मैं सही रास्ते पर नहीं चल रही थी—मैं हमेशा अपने आराम के बारे में सोचती थी। जब भी मुझे वास्तविक कार्रवाई या कोई वास्तविक कार्य करना पड़ता, मैं बच निकलती थी। इससे कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को क्षति पहुँची। इस तरह से अपना काम करना गंभीर लापरवाही थी! मैंने सोचा कि कैसे, इंसान की भ्रष्टता दूर करने के परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य में उसने लाखों वचन व्यक्त किए हैं, उसके कार्य में याद दिलाना और उपदेश देना, न्याय करना और ताड़ना देना, चेतावनी देना और उजागर करना, हमारे साथ संगति करने के लिए ध्यानपूर्वक प्रत्येक साधन का प्रयोग करना शामिल था, ताकि हम समझने और सत्य में प्रवेश करने में समक्ष रहें। उस मानवजाति को बचाने के लिए, जिसे शैतान बहुत गहरे तक भ्रष्ट कर चुका है, परमेश्वर ने इतनी ज्यादा परेशानी और पीड़ा सही है, खुद को इतना अधिक खपाया है और बड़ी कीमत चुकाई है। लेकिन परमेश्वर से सत्य का इतना अधिक पोषण पाने के बावजूद मैंने कलीसिया में एक अहम कार्य संभालते हुए उसके प्रेम का मूल्य चुकाने का ख्याल नहीं रखा। अपने काम के लिए मैं जरा-सा भी कष्ट उठाने या कीमत चुकाने में असफल थी। गंभीर कार्रवाई और कुछ वास्तविक कार्य करने की जरूरत पड़ते ही मैं भाग खड़ी हुई। मैं ज़रा-से प्रयास के बदले परमेश्वर से हमेशा इनाम और आशीष पाना चाहती थी। मैं बहुत स्वार्थी और दुष्ट थी, मुझमें अंतरात्मा और समझ नहीं थी। आखिरकार मैंने समझा कि हमेशा देह-सुख के बारे में सोचने और आराम के लिए तड़पते रहने का अर्थ तो गरिमा के बिना जीना और भरोसे लायक न होना है। मैं आलसी अगुआ थी, एक झूठी अगुआ थी। उस तरह काम करने से मुझे क्षणिक आराम तो मिला, लेकिन आलस्य के मारे मैं सत्य जानने के मौके गँवाती रही, आखिरकार परमेश्वर मुझे हटा देता। मैं थोड़ा-सा बचाने के फेर में बहुत सारा गँवा रही थी, मुझ जैसा मूर्ख कौन था! मुझे बाइबल की यह बात याद आई : “और निश्‍चिन्त रहने के कारण मूढ़ लोग नष्‍ट होंगे” (नीतिवचन 1:32)। मैं कुछ ऐसे भाई-बहनों को जानती थी जिन्होंने वास्तविक कार्य करने के बजाय हमेशा अपनी देह-सुख और आराम की चिंता की, इसीलिए उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। आराम की लालसा रखना परमेश्वर को रुष्ट करता है और इससे हम उद्धार का अवसर भी गँवा सकते हैं। परमेश्वर पवित्र और धार्मिक है और वह मेरे कार्य में मेरे इरादों की जाँच भी करता है। मैं उस तरह अपना कर्तव्य-निर्वहन नहीं कर पाई। परमेश्वर का घर वह जगह नहीं है जहाँ दैहिक सुख पाने की लालसा की जाए, यहाँ तो मुझे अपना कर्तव्य निभाना और सत्य का अभ्यास करना है। क्योंकि मैंने यह कर्तव्य स्वीकार किया है, इसलिए इसे ठीक से पूरा करने में अपना सब कुछ झोंक देना चाहिए। प्रायश्चित करते हुए मैंने प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, ऐसे हालात बनाने के लिए धन्यवाद ताकि मैं देख सकूँ कि मैंने कर्तव्य से ज्यादा दैहिक सुख को चाहा और बिल्कुल भी जिम्मेदार नहीं रही। अब से, मैं अपने कर्तव्य में अपना भरसक प्रयास करना चाहती हूँ।”

उसके बाद, परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, सत्य खोज कर और आत्म-चिंतन करके मैंने पाया कि मेरा नजरिया गलत था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगुआओं और कार्यकर्ताओं को महत्वपूर्ण कार्य की देखरेख करने वालों, सुसमाचार निर्देशकों, प्रत्येक समूह के अगुआ, फिल्म निर्माण दलों के निर्देशकों आदि की समझ विभिन्न स्रोतों से प्राप्त करनी चाहिए और उन्हें इन लोगों का गहन प्रेक्षण और परीक्षण करना चाहिए। केवल इस तरह से लोगों को काम सौंपकर ही वे यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि व्यवस्थाएँ सही हैं और लोग अपने कार्य में प्रभावी होंगे। कुछ लोग कहते हैं, ‘यहाँ तक कि गैर-विश्वासी कहते हैं, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” परमेश्वर का घर इतना शक्की कैसे हो सकता है? वे सभी विश्वासी हैं; वे कितने बुरे हो सकते हैं? क्या वे सभी अच्छे लोग नहीं हैं? परमेश्वर के घर को उन्हें क्यों समझना चाहिए, उन पर नजर क्यों रखनी चाहिए और उनका पर्यवेक्षण क्यों करना चाहिए?’ क्या ये बातें मान्य हैं? क्या वे समस्यात्मक हैं? (हाँ।) क्या किसी को समझना और उसका गहराई से प्रेक्षण करना और उसके साथ निकटता से बातचीत करना सिद्धांतों के अनुरूप है? यह सिद्धांतों का पूर्ण अनुपालन करना है। यह किन सिद्धांतों के अनुरूप है? (अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों की मद संख्या चार : ‘विभिन्न कार्यों के निरीक्षकों और विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यों के लिए जिम्मेदार कर्मियों की परिस्थितियों से अवगत रहो, और आवश्यकतानुसार तुरंत उनके कर्तव्यों में बदलाव करो या उन्हें बरखास्त करो, ताकि अनुपयुक्त लोगों को काम पर रखने से होने वाला नुकसान रोका या कम किया जा सके, और कार्य की दक्षता और सुचारु प्रगति की गारंटी दी जा सके।’) यह एक अच्छा संदर्भ बिंदु है, लेकिन ऐसा करने का वास्तविक कारण क्या है? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों का स्वभाव भ्रष्ट है। हालाँकि, आज, बहुत से लोग कर्तव्य करते हैं, लेकिन कम ही लोग सत्य का अनुसरण करते हैं। बहुत कम लोग अपने कर्तव्य करने के दौरान सत्य का अनुसरण करते हुए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हैं; अधिकांश लोगों के काम करने के तरीके में कोई सिद्धांत नहीं होते, वे अब भी सच्चाई से परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते; वे केवल यह दावा करते हैं कि उन्हें सत्य से प्रेम है, सत्य का अनुसरण करने और सत्य के लिए प्रयास करने के इच्छुक हैं, लेकिन पता नहीं उनका यह संकल्प कितने दिनों तक टिकेगा। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनका भ्रष्ट स्वभाव किसी भी समय या स्थान पर बाहर आ सकता है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनमें किसी भी समय या स्थान पर भ्रष्ट स्वभाव का प्रकाशन हो सकता है। उनमें अपने कर्तव्य के प्रति किसी जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे अक्सर अनमने होते हैं, मनमर्जी से कार्य करते हैं, यहाँ तक कि काट-छाँट भी स्वीकार करने में अक्षम होते हैं। जैसे ही वे नकारात्मक और कमजोर होते हैं, वे अपने कर्तव्य त्यागने में प्रवृत्त हो जाते हैं—ऐसा अक्सर होता रहता है, यह सबसे आम बात है; सत्य का अनुसरण न करने वाले लोगों का व्यवहार ऐसा ही होता है। और इसलिए, जब लोगों को सत्य की प्राप्ति नहीं होती, तो वे भरोसेमंद और विश्वास योग्य नहीं होते। उनके भरोसेमंद न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जब उन्हें कठिनाइयों या असफलताओं का सामना करना पड़ता है, तो बहुत संभव है कि वे गिर पड़ें, और नकारात्मक और कमजोर हो जाएँ। जो व्यक्ति अक्सर नकारात्मक और कमजोर हो जाता है, क्या वह भरोसेमंद होता है? बिल्कुल नहीं। लेकिन जो लोग सत्य समझते हैं, वे अलग ही होते हैं। जो लोग वास्तव में सत्य की समझ रखते हैं, उनके अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय, परमेश्वर के प्रति समर्पण वाला हृदय होता है, और जिन लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, केवल वही लोग भरोसेमंद होते हैं; जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, वे लोग भरोसेमंद नहीं होते। जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, उनके प्रति कैसा रवैया अपनाया जाना चाहिए? उन्हें प्रेमपूर्वक सहायता और सहारा देना चाहिए। जब वे कर्तव्य कर रहे हों, तो उनका अधिक अनुवर्तन करना चाहिए, और उन्हें अधिक मदद और निर्देश दिए जाने चाहिए; तभी वे अपना कार्य प्रभावी ढंग से कर पाएँगे। और ऐसा करने का उद्देश्य क्या है? मुख्य उद्देश्य परमेश्वर के घर के काम को बनाए रखना है। दूसरा मकसद है समस्याओं की तुरंत पहचान करना, तुरंत उनका पोषण करना, उन्हें सहारा देना, या उनकी काट-छाँट करना, भटकने पर उन्हें सही मार्ग पर लाना, उनके दोषों और कमियों को दूर करना। यह लोगों के लिए फायदेमंद है; इसमें दुर्भावनापूर्ण कुछ भी नहीं है। लोगों का पर्यवेक्षण करना, प्रेक्षण करना, और उन्हें समझने की कोशिश करना—यह सब उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते में प्रवेश करने में मदद करने के लिए है, ताकि वे परमेश्वर के कहे के मुताबिक और सिद्धांत के अनुसार अपना कर्तव्य कर सकें, ताकि उन्हें किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न करने से रोका जा सके, ताकि उन्हें व्यर्थ का कार्य करने से रोका जा सके। ऐसा करने का उद्देश्य पूरी तरह से उनके प्रति और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति उत्तरदायित्व दिखाने के लिए है; इसमें कोई दुर्भावना नहीं है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। परमेश्वर के वचन बताते हैं कि हमें अपने कार्य में एक और सिद्धांत पर अमल करना चाहिए। हमें अपनी जिम्मेदारी वाले भाई-बहनों पर करीबी नजर रखनी चाहिए, खासकर जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य करते हैं, क्योंकि हरेक का भ्रष्ट स्वभाव होता है और हर किसी में सत्य वास्तविकता नहीं होती, इसलिए हम भ्रष्टता से बच नहीं सकते। हम हर किसी पर आँख मूँदकर भरोसा नहीं कर सकते या दूर-दूर रहने का रवैया नहीं अपना सकते—यह दिखाता है कि हम अपने काम में गैर-जिम्मेदार हैं। मैं बिल्कुल वैसी ही थी। कभी-कभी दूसरे लोग मेरी समस्याएँ बताते थे, तो उस समय मैं खुद को बदलने की ठान लेती थी लेकिन अक्सर यह पल भर का उत्साह होता था। जब इस पर अमल करने की बारी आती तो मैं भ्रष्ट स्वभाव के कारण सत्य का अभ्यास नहीं कर पाती। इसी कारण हमें दूसरों की निगरानी और मदद की जरूरत पड़ती थी ताकि अभ्यास करके बेहतर प्रवेश कर सकें। हरेक में कमियाँ होती हैं और सत्य सिद्धांतों की समझ नहीं होती, इसलिए हमारे काम में भूल-चूक होना तय है, और कभी-कभी हम भ्रष्टता दिखाते हुए जानबूझकर गलतियाँ करते हैं। ऐसे मौकों पर, अगुआओं को निगरानी और जाँच अवश्य करनी चाहिए, लोगों के कार्य कैसे हो रहे हैं, इसकी गहन समझ रखें, दिक्कतें खोजकर भटकावों को दूर करें और कलीसिया के कार्य में होने वाले नुकसान को रोकें। लेकिन मैं तो निपट अंधी और मूर्ख बनी हुई थी। मैंने देखा कि शिनयू काम में सक्रिय लगती है और उसने सुसमाचार कार्य अच्छे से किया था, इसलिए मैंने उसके बारे में चिंता नहीं की। मैंने उसे इतना महत्वपूर्ण काम सौंपा और फिर इस बारे में दुबारा नहीं सोचा। मेरी साझेदार ने बताया कि समूह में समस्याएँ हैं लेकिन मैंने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। जब मुझे पता चला कि शिनयू घमंडी है और दूसरों के साथ ठीक से काम नहीं करती, तो मैं इसकी गहराई में नहीं गई। मुझे लगा क्योंकि वह समूह अगुआ थी, कुछ संकेतों के बाद वह अपने आप सत्य खोजकर प्रवेश करेगी, इसलिए इस बारे में चिंता करने की जरूरत मुझे नहीं है। लेकिन जैसा मैंने सोचा था, चीजें ठीक उसके उलट निकलीं। जिस व्यक्ति के बारे में सबसे कम चिंता की, उसमें ही सबसे ज्यादा समस्याएँ निकलीं। उसके घमंडी स्वभाव के कारण, दूसरे बेबस हो गए थे और अपने काम सहजता से नहीं कर सके। इसका एकमात्र कारण यह था कि मैं न तो वास्तविक कार्य कर रही थी, न ही चीजों और लोगों को परमेश्वर के वचनों के जरिए देख रही थी। हमने बाद में उस समूह के काम की समीक्षा की और देखा कि इसमें अब भी कुछ समस्याएँ हैं। सुसमाचार साझा करने के जरिए उन्हें कई सारे लोग मिल चुके थे, लेकिन कुछ नए सदस्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं चल रहे थे। कुछ में अच्छी मानवता नहीं थी और उन्हें बाहर करने की जरूरत थी, इनसे संसाधनों की बर्बादी तो होती थी, यह कलीसिया के लिए भी एक परेशानी थी। मैंने उनके काम की जितनी ज्यादा जाँच की, उतनी ही अधिक स्पष्ट समस्याएँ मिलने लगीं, और उतना ही दिखता गया कि मैं पहले वास्तविक कार्य नहीं कर रही थी। मैं केवल सतही तौर पर देखती थी—जब काम सुगमता से आगे बढ़ता दिखता था, तो मैं सोचती थी कि किसी को भी अपने काम में समस्या नहीं है। मैं चीजों को इतने सतही ढंग से देखती थी। मैंने जाना कि मेरा सत्य को न समझना कितना दयनीय है और खुद को चेताया कि भविष्य में चीजों को सत्य के अनुसार देखकर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करूँगी और अपनी जिम्मेदारी वाले लोगों के काम की निगरानी करूँगी। मैंने यह भी महसूस किया कि परमेश्वर की यह अपेक्षा कितनी महत्वपूर्ण है कि अगुआ को स्वयं काम की गहराई में उतरना चाहिए। यह सच में हमें मानक तरीके से कर्तव्य निभाने के रास्ते पर ले जाने में मदद करता है।

उसके बाद मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “यदि तुम वास्तव में एक निश्चित स्तर की काबिलियत रखते हो, तुम अपनी जिम्मेदारी के दायरे में पेशेवर कौशल की समझ रखते हो और अपने पेशे से अनजान नहीं हो, तो तुम्हें बस एक वाक्यांश का पालन करना है, और तुम अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान बन सकोगे। कौन-सा वाक्यांश? ‘पूरे दिल से कार्य करो।’ यदि तुम पूरे दिल से काम करोगे और अपना दिल लोगों में लगाओगे, तो तुम अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान और जिम्मेदार बन पाओगे। लेकिन क्या इस वाक्यांश का अभ्यास करना आसान है? तुम इसे व्यवहार में कैसे लाओगे? इसका मतलब कानों से सुनना या दिमाग से सोचना नहीं है—इसका मतलब है अपने हृदय का इस्तेमाल करना। यदि कोई व्यक्ति वास्तव में किसी चीज में अपना दिल लगा सकेगा, तो जब उसकी आँखें किसी को कुछ करते, देखती हैं, किसी रूप में कोई क्रिया करती हैं, या किसी चीज के प्रति किसी प्रकार की प्रतिक्रिया देखती हैं या जब उसके कान कुछ लोगों की राय या तर्क सुनते हैं, इन बातों पर विचार और मनन करने के लिए अपने हृदय का उपयोग करके, उनके दिमाग में कुछ ख्याल, विचार और दृष्टिकोण पैदा होता है। ये ख्याल, विचार और दृष्टिकोण उस व्यक्ति या वस्तु की गहरी, उसी के बारे में और सही समझ देंगे और साथ ही, उपयुक्त और सही निर्णय और सिद्धांतों को जन्म देंगे। जब किसी व्यक्ति में अपने दिल का इस्तेमाल करने की ऐसी अभिव्यक्तियाँ होती हैं, क्या तभी इसका अर्थ है कि वह अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होगा(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। अपना काम ठीक से करने के लिए मुझे सतर्क और जिम्मेदार बनना सीखना होगा। अपने हृदय में प्रवेश करने और अपने काम में समस्याएँ खोजने के लिए मैं जो कुछ देखती-सुनती थी, उसके लिए वास्तविक कदम उठाने होंगे। वरना, मैं किसी भी समस्या के प्रति आँखें मूँदकर सिर्फ आधे-अधूरे मन से काम करती रहती। मुझे जो समस्याएँ मिलतीं, उन्हें हल करने के लिए भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार सब कुछ करना था, अगर कोई चीज ठीक न कर सकी तो वरिष्ठ लोगों की मदद लेनी थी मैं जो कुछ कर सकती थी, उसे करना और हासिल करना था, अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी थीं, अंतरात्मा साफ रखनी थी, परमेश्वर की जांच को स्वीकार करना था। कर्तव्य निभाने के दौरान अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर निर्भर नहीं रह सकती थी। समस्याओं का समाधान होने तक मुझे सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार चलना था। हालाँकि अब भी हमारे काम में कई दिक्कतें थीं, लेकिन उन्हें दूर करने के लिए मुझे भरसक प्रयास करना था, और काम चाहे जितना अच्छा हो रहा हो, पहले तो अपना पूरा मन लगाना और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना सीखना था। परमेश्वर के घर के लिए सुसमाचार का कार्य महत्वपूर्ण है, इस नाजुक, अंत समय में, अगर मैं अपने काम को हल्के में लेना जारी रखूँगी, आराम की लालसा और अपने हितों की सुरक्षा करती रहूँगी, तो यह जीने का स्वार्थी और घृणित तरीका होगा। इसलिए मैंने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है और बहुत काबिल भी नहीं हूँ, लेकिन मैं अपने काम में सब कुछ न्योछावर करना चाहती हूँ और तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना चाहती हूँ।”

बाद में, मैंने देखा कि कलीसिया का सुसमाचार कार्य बहुत प्रभावी नहीं था, क्योंकि कुछ सुसमाचार कार्यकर्ता नए थे और परमेश्वर के कार्य की गवाही देने के सत्य को स्पष्ट रूप से नहीं समझते थे। इसलिए उन्हें कुछ वास्तविक निर्देश देने के लिए मैंने ली मेई को भेजा। पहले तो, मैंने ली मेई के साथ संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं की धार्मिक धारणाओं का विश्लेषण करने और सुसमाचार कार्यकर्ताओं के मसले समझने में समय लगाया। लेकिन बाद में जब मेरा अपना ही काम बढ़ गया, मैंने ये सारी समस्याएँ ली मेई को सौंपने की सोची, ताकि मुझे उनकी बहुत ज्यादा चिंता न करनी पड़े। ऐसा सोचते ही मुझे आत्मग्लानि होने लगी। सुसमाचार कार्य ठीक से नहीं चल रहा था और ली मेई ने खुद जाकर समस्याएँ जानने के बाद मुझसे चर्चा करनी चाही लेकिन मैं एक नौकरशाह की तर्ज पर यह कठिन काम उसके माथे मढ़ देना चाहती थी। यह घिनौना था। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और सचेत होकर दैहिक इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। ली मेई ने समस्याओं पर प्रतिक्रिया दी तो मैं उसके साथ संगति करने और उनके समाधान के लिए सत्य खोजने में वास्तविक तौर पर शामिल हो गई। इस वास्तविक सहयोग से मैं समूह के कार्य और प्रगति के बारे में बहुत तेजी से समझ सकती थी, सुसमाचार कार्यकर्ताओं की समस्याओं और परेशानियों का तुरंत पता लगाकर समाधान करने में सक्षम थी। इस वास्तविक सहयोग में मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन दिखाई दिया। कुछ नए सुसमाचार कार्यकर्ताओं को धीरे-धीरे सिद्धांत समझ में आने लगे, सुसमाचार कार्य अधिक फलदायी हो गया और कुछ नए सदस्य परमेश्वर का नया कार्य स्वीकारने के बाद तुरंत इसमें जुट गए। कुछ दिनों से मैं अपने काम में ज्यादा समय और ऊर्जा खपा रही हूँ, लेकिन जब इसमें मन से जुटती हूँ तो मुझे यह कठिन या थकाऊ नहीं लगता। दरअसल, मैं और भी अधिक सत्य सिद्धांतों को समझ चुकी हूँ, और परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना में शांत रहकर और समस्याएँ होने पर समाधान खोजने से, मैं परमेश्वर के और करीब पहुँच चुकी हूँ और अपने काम में अधिक लगा रही हूँ। अब भी मेरे काम में कई कमियाँ हैं। इसे मानक तरीके से करने के लिए मुझे अभी लंबा रास्ता तय करना है। लेकिन अपने अनुभवों के जरिए, मैंने वास्तविक कार्य न करने की अपनी समस्या पर आत्म-चिंतन कर सबक सीख लिया है, मुझे दिशा मिल चुकी है कि भविष्य में अपना काम कैसे करना है। मैंने जो भी हासिल किया है वह परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन और मार्गदर्शन से ही हुआ है।

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