5. संगति खुले दिल से होनी चाहिए
2021 की शुरुआत में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारा। मैं सक्रियता से बैठकों में भाग लेती और परमेश्वर के वचन पढ़ती थी, करीब दो महीने बाद, मुझे एक सिंचन उपयाजिका के रूप में चुना गया। हमारे कामों में आई दिक्कतों, समस्याओं पर चर्चा करने के लिए, हफ्ते के अंत में उपयाजकों की एक बैठक होती थी, जहाँ हम इस पर संगति करते थे कि हमने क्या पाया, क्या भ्रष्टता उजागर की, कैसे उस पर चिंतन किया और परमेश्वर के वचनों से उसे कैसे समझा। हर बैठक से पहले, मुझे हमेशा बहुत घबराहट होती थी, मैं बड़ी देर तक सोचती रहती, क्योंकि समझ नहीं आता था कि कलीसिया अगुआओं और दूसरे उपयाजकों से क्या कहूँ। अपनी भ्रष्टताओं और कमियों के बारे में बात करने को लेकर मुझे चिंता होती, मैं डरती कि वे मेरे बारे में बुरी राय बना लेंगे। मिसाल के तौर पर : मैंने अभी-अभी नए सदस्यों का सिंचन शुरू किया था। मुझे बहुत-सी चीजें मालूम नहीं थीं, अनुभव की कमी थी। डर था कि नए सदस्य मुझे पसंद नहीं करेंगे, सोचेंगे मैं सिंचन नहीं कर पाती, इसलिए मैं अब यह काम नहीं संभालना चाहती थी। लेकिन उपयाजकों की बैठक में अपनी हालत के बारे में खुलकर नहीं बोलना चाहती थी, कि कहीं भाई-बहनों को ये न लगे कि मुझमें नए सदस्यों के साथ संगति करने की काबिलियत नहीं है। साथ ही, कुछ नए सदस्यों के साथ मैं सब्र खो देती, और ये बताना न चाहती, क्योंकि मुझे चिंता लगी रहती कि अगर मैंने सभा में इसका जिक्र किया, तो उन्हें लगेगा मेरी इंसानियत बुरी है। लेकिन अगर मैं कुछ न बोली, तो शायद उन्हें लगे कि मैं दूसरों से कम काबिल हूँ। मैं नहीं चाहती थी कि मुझे शर्मिंदा होना पड़े या वे मुझे नीची नज़रों से देखें। ये सब सोचकर, आखिरकार मैंने उन्हें कोई गौण चीज बताने का फैसला किया जिससे ज्यादा शर्मिंदगी न हो, जैसे कि मैं आलसी हूँ, जो ज्यादातर लोग होते ही हैं। इस तरह, मैं दूसरों से हीन नहीं लगूँगी।
इसलिए, बैठक में, जब एक कलीसिया अगुआ ने इस दौरान मेरे अनुभवों, और अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में मैंने क्या जाना, ये पूछा, तो मैंने अपनी योजना के अनुसार संगति की। बात पूरी हो जाने पर, मैंने राहत की साँस ली, मगर मन शांत नहीं था, क्योंकि मुझे मालूम था कि मैंने सच नहीं बताया, और मैंने जो किया वह परमेश्वर के इरादों के खिलाफ था। मुझे प्रभु यीशु के वचन याद आए : “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो; क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है” (मत्ती 5:37)। “मैं तुम से सच कहता हूँ कि जब तक तुम न फिरो और बालकों के समान न बनो, तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे” (मत्ती 18:3)। परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचकर, मुझे बहुत अपराध-बोध हुआ। झूठी बातों का स्रोत शैतान है, ये बुरी होती हैं। परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है, सिर्फ वे ही स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। झूठे और पाखंडी लोग परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते। परमेश्वर ऐसे लोगों से घृणा करता है, और अंत में यकीनन उन्हें हटा देगा। मैं बहुत बेचैन और डरी हुई थी कि परमेश्वर मुझे ठुकरा देगा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, एक ईमानदार इंसान बनने के लिए मागदर्शन की विनती की। मैंने तय कर लिया कि अगली बैठक में सच बोलूँगी, अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बोलूँगी। लेकिन जब समय आया, तब भी मुझमें यह कहने की हिम्मत नहीं आई। मुझे फिक्र थी कि अगर मैं अपनी भ्रष्टता और कमियों के बारे में बोली, तो भाई-बहन सोचेंगे कि मैं उनसे ज्यादा भ्रष्ट थी। मुझे लगा सत्य बोलना बड़ा मुश्किल है, इसी कारण मैंने उपयाजकों की बैठकों में भाग लेना भी बंद कर देना चाहा। लेकिन जब भाई-बहन पूछेंगे कि मैं क्यों नहीं आई, फिर मुझे कुछ समझ नहीं आएगा कि मैं उनसे क्या बोलूँ। मैंने जितना ज्यादा सोचा, उतनी ही उलझती गई और दुखी हो गई। कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ। एक बैठक में, भाई-बहनों ने हमेशा की तरह अपने अनुभवजन्य ज्ञान के बारे में संगति की, मुझे बिल्कुल पता नहीं था कि क्या कहूँ, तो मैं चुपचाप सुनती रही। मैं अपने आपसे निराश थी, हमेशा मुखौटे लगाती और बार-बार सत्य पर अमल करने में असफल रहती। एक भी सच्ची बात नहीं कह पाती। मैंने बहुत दुखी महसूस किया, इसलिए परमेश्वर से प्रार्थना की, इस हालत से उबरने में मदद पाने के लिए उससे विनती की।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मैंने इन वचनों से यह समझा कि हमें अपनी भ्रष्ट हालत को कभी छिपाना नहीं चाहिए। हमें ये बातें परमेश्वर के सामने लाकर प्रार्थना करनी चाहिए, चिंतन कर खुद को समझने की कोशिश करनी चाहिए, और सत्य खोजने के लिए, अपना दिल खोलकर भाई-बहनों के सामने अपनी भ्रष्टता को उजागर कर देना चाहिए। इससे हमें खुद को बेहतर ढंग से समझने और हमारे भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने में मदद मिलेगी। लेकिन अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए, मैं अपनी भ्रष्टता और मुश्किलों के बारे में खुलकर नहीं बोलना चाहती थी, न ही भाई-बहनों के साथ मिलकर सत्य खोजना चाहती थी। मैंने हमेशा अपना दिल बंद रखा ताकि कोई मेरी असलियत न जान सके, लेकिन अँधेरे में रहकर मुझे राहत नहीं मिली। मैं समझ गयी कि अब ऐसा नहीं चल सकता, मुझे परमेश्वर के वचनों पर अमल करना चाहिए, भाई-बहनों के सामने अपनी हालत का खुलासा करना चाहिए, और उनसे मदद लेनी चाहिए। बैठक खत्म होते ही, एक बहन मेरे साथ अपने हाल के अनुभव के बारे में बात करने आई। लगा, खुलकर बोलने और सत्य खोजने का यह एक बढ़िया मौका है, लेकिन मैं अभी भी थोड़ी शर्मिंदा थी कि पता नहीं वो मेरे बारे में क्या सोचेगी। मैं डर गई कि वो मुझे एक बहुत बेईमान इंसान कहेगी। इसलिए, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं अब खुद को छिपाना नहीं चाहती। अब अपने सच्चे विचार नहीं छिपाना चाहती। मैं बहुत थक चुकी हूँ। हे परमेश्वर, मैं एक ईमानदार इंसान बनाना चाहती हूँ, मुझे रास्ता दिखाओ।” प्रार्थना के बाद, मैंने बहन को वो सारी बातें बताईं जिनके बारे में बैठक में खुलकर कहने की हिम्मत नहीं हुई थी। अपनी बात पूरी हो जाने पर मुझे बड़ी राहत मिली। बहन ने अपनी समझ मुझसे साझा की, और मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा : “धोखेबाज व्यक्ति का मुख्य लक्षण यह है कि वह कभी किसी के साथ दिल खोलकर संगति नहीं करता, और अपने सबसे अच्छे दोस्त से भी अपने दिल की बात नहीं कहता। वह असाधारण रूप से गूढ़ होता है। वास्तव में, जरूरी नहीं कि ऐसा व्यक्ति बूढ़ा हो या उसने बहुत दुनिया देखी हो, यहाँ तक कि उसका अनुभव भी अल्प हो सकता है, फिर भी वह बेहद गूढ़ होता है। अपनी उम्र के हिसाब से वह बहुत चालाक होता है। क्या यह व्यक्ति प्रकृति से धोखेबाज नहीं है? वह खुद को इतनी गहराई से छिपाता है कि कोई भी उसकी असलियत नहीं देख सकता। चाहे वह कितने भी शब्द बोले, यह बताना मुश्किल होता है कि उसका कौन-सा शब्द सच है और कौन-सा झूठ, और कोई नहीं जानता कि वह कब सच बोलता है और कब झूठ। इसके अलावा, वह स्वांग रचने और कुतर्क करने में विशेष रूप से कुशल होता है। वह अक्सर लोगों के मन में झूठी छवि बनाकर सच छिपाता है, ताकि सभी लोगों को बस उसका नकली रूप ही दिखाई दे। वह खुद को एक ऊँचे, अच्छे, गुणी और निर्दोष व्यक्ति के रूप में दिखाता है, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसे पसंद और अनुमोदित किया जाता है, और अंत में, हर कोई उसकी पूजा और सम्मान करता है। चाहे तुम ऐसे व्यक्ति के साथ कितना भी समय बिता लो, तुम कभी नहीं जान पाते कि वह क्या सोच रहा है। सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उसके विचार और दृष्टिकोण उसके हृदय में छिपे रहते हैं। ये चीजें वह कभी किसी को नहीं बताता। इन चीजों पर वह कभी अपने सबसे करीबी विश्वासपात्र के साथ भी संगति नहीं करता। यहाँ तक कि जब वह परमेश्वर से प्रार्थना करता है, तब भी संभव है कि वह अपने दिल की बात या अपने बारे में सत्य न बताए। इतना ही नहीं, वह खुद को अच्छी मानवता से युक्त ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाने की कोशिश करता है, जो बहुत ही आध्यात्मिक है और सत्य का अनुसरण करने के लिए समर्पित है। कोई नहीं देख सकता कि उसका स्वभाव कैसा है और वह किस तरह का व्यक्ति है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद पंद्रह : वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते और वे मसीह के सार को नकारते हैं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि कपटी लोग दूसरों के साथ दिल से बात नहीं करते, न ही दूसरों से वे अपने सही हाल का खुलासा करते हैं। इसके बजाय, वे अक्सर खुद को छुपाते हैं, मुखौटे लगाते हैं। मैं समझ गई मैं ठीक वैसी ही हूँ जैसा परमेश्वर ने खुलासा किया। सिंचन उपयाजिका बनने के बाद से, मैंने देखा कि मुझमें बहुत-सी कमियाँ थीं, मेरा भ्रष्ट स्वभाव भी उजागर हुआ, नए सदस्यों के प्रति मुझमें प्रेम और सब्र नहीं था। मुझे भाई-बहनों के साथ मिलकर अपना दिल खोलने और इन समस्याओं का हल ढूँढ़ने की जरूरत थी। लेकिन मुझे फिक्र थी कि अगर मैंने सत्य बताया, तो वे मुझे नीची नजर से देखेंगे, हीन मानेंगे, इसलिए मैं उन्हें अपनी असली हालत नहीं बताना चाहती थी। मैंने अहम बातें न बताकर यहाँ-वहाँ की बातें कीं, ऐसी समस्याएँ बताईं, जो मेरे ख्याल से बहुतों के साथ थीं। ऐसा मैंने अपने अंधकारमय पहलू और अपने अंदरूनी विचारों को छुपाने के लिए किया। दूसरे मेरे बारे में अच्छी राय रखें, इसके लिए मैंने मुखौटे लगाए और झूठी छवि बनाई। मैं अपने भाई-बहनों के साथ छल कर रही थी। बहुत धोखेबाज और पाखंडी थी!
फिर, मेरी बहन ने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश भेजा : “वास्तव में सभी लोग जानते हैं कि वे झूठ क्यों बोलते हैं। व्यक्तिगत लाभ और गौरव के लिए, या अभिमान और रुतबे के लिए, वे दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करने और खुद को वैसा दिखाने की कोशिश करते हैं, जो वे नहीं होते। हालाँकि दूसरे लोग अंततः उनके झूठ उजागर और प्रकट कर देते हैं, और वे अपनी इज्जत और साथ ही अपनी गरिमा और चरित्र भी खो बैठते हैं। यह सब अत्यधिक मात्रा में झूठ बोलने के कारण होता है। तुम्हारे झूठ बहुत ज्यादा हो गए हैं। तुम्हारे द्वारा कहा गया प्रत्येक शब्द मिलावटी और झूठा होता है, और एक भी शब्द सच्चा या ईमानदार नहीं माना जा सकता। भले ही तुम्हें यह न लगे कि झूठ बोलने पर तुम्हारी बेइज्जती हुई है, लेकिन अंदर ही अंदर तुम अपमानित महसूस करते हो। तुम्हारा जमीर तुम्हें दोष देता है, और तुम अपने बारे में नीची राय रखते हुए सोचते हो, ‘मैं ऐसा दयनीय जीवन क्यों जी रहा हूँ? क्या सच बोलना इतना कठिन है? क्या मुझे अपनी शान की खातिर झूठ का सहारा लेना चाहिए? मेरा जीवन इतना थका देने वाला क्यों है?’ तुम्हें थका देने वाला जीवन जीने की जरूरत नहीं है। अगर तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास कर सको, तो तुम एक निश्चिंत, स्वतंत्र और मुक्त जीवन जीने में सक्षम होगे। हालाँकि तुमने झूठ बोलकर अपनी शान और अभिमान को बरकरार रखना चुना है। नतीजतन, तुम एक थकाऊ और दयनीय जीवन जीते हो, जो तुम्हारा खुद का थोपा हुआ है। झूठ बोलकर व्यक्ति को शान की अनुभूति हो सकती है, लेकिन वह शान की अनुभूति क्या है? यह महज एक खोखली चीज है, और यह पूरी तरह से बेकार है। झूठ बोलने का मतलब है अपना चरित्र और गरिमा बेच देना। इससे व्यक्ति की गरिमा और उसका चरित्र छिन जाता है; इससे परमेश्वर नाखुश होता है और इससे वह घृणा करता है। क्या यह लाभप्रद है? नहीं, यह लाभप्रद नहीं है। ... अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसे सत्य से प्रेम है, तो सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम विभिन्न कठिनाइयाँ सहन करोगे। अगर इसका मतलब अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत का बलिदान और दूसरों से उपहास और अपमान सहना भी हो, तो भी तुम बुरा नहीं मानोगे—अगर तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम हो, तो यह पर्याप्त है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे इसका अभ्यास करना और ईमानदार रहना चुनते हैं। यही सही मार्ग है, और इस पर परमेश्वर का आशीष है। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह क्या चुनता है? वह अपनी प्रतिष्ठा, हैसियत, गरिमा और चरित्र बनाए रखने के लिए झूठ का उपयोग करना चुनता है। वह धोखेबाज होगा और परमेश्वर उससे घृणा कर उसे ठुकरा देगा। ऐसे लोग सत्य को नकारते हैं और परमेश्वर को भी नकारते हैं। वे अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत चुनते हैं; वे धोखेबाज होना चाहते हैं। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि परमेश्वर प्रसन्न होता है या नहीं, या वह उन्हें बचाएगा या नहीं। क्या परमेश्वर अभी भी ऐसे लोगों को बचा सकता है? निश्चित रूप से नहीं, क्योंकि उन्होंने गलत मार्ग चुना है। वे सिर्फ झूठ बोलकर और धोखा देकर ही जीवित रह सकते हैं; वे रोजाना सिर्फ झूठ बोलकर उसे छिपाने और अपना बचाव करने में अपना दिमाग लगाने का दर्दनाक जीवन ही जी सकते हैं। अगर तुम सोचते हो कि झूठ वह प्रतिष्ठा, रुतबा, अभिमान और शान बरकरार रख सकता है जो तुम चाहते हो, तो तुम पूरी तरह से गलत हो। वास्तव में झूठ बोलकर तुम न सिर्फ अपना अभिमान और शान, और अपनी गरिमा और चरित्र बनाए रखने में विफल रहते हो, बल्कि इससे भी ज्यादा शोचनीय बात यह है कि तुम सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अवसर चूक जाते हो। अगर तुम उस पल अपनी प्रतिष्ठा, रुतबा, अभिमान और शान बचाने में सफल हो भी जाते हो, तो भी तुमने सत्य का बलिदान करके परमेश्वर को धोखा तो दे ही दिया है। इसका मतलब है कि तुमने उसके द्वारा बचाए और पूर्ण किए जाने का मौका पूरी तरह से खो दिया है, जो सबसे बड़ा नुकसान और जीवन भर का अफसोस है। जो लोग धोखेबाज हैं, वे इसे कभी नहीं समझेंगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैंने आत्मचिंतन किया। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बनाए रखने और दूसरों द्वारा नीची नजरों से देखे जाने से बचने के लिए, हर बैठक से पहले, संगति में क्या कहना है, ये सोचने के लिए अपना दिमाग कुरेदती रहती थी। अपनी असली हालत का खुलासा करने पर, मुझे डर था कि भाई-बहन मेरे बारे में बुरी राय बना लेंगे। लेकिन अगर कुछ नहीं बोली, तो भी भाई-बहन सोचेंगे कि मैं बुरी इंसान हूँ और मुझे नीची नजर से देखेंगे। असहाय होकर, मैं इस हालत से भाग निकलना चाहती थी। मैंने देखा कि प्रतिष्ठा और रुतबा बनाए रखने के लिए, मैं दिमाग लगा रही थी और खुलकर बोलने, ईमानदार इंसान होने, और भाई-बहनों को अपनी असली हालत और मुश्किलें बताने के बजाय, खुद को दुखी करना पसंद कर रही थी। मैं सच में बहुत कपटी थी! हालांकि लोगों के मन में कुछ समय तक मैं अपनी छवि बनाए रख सकी, मगर मैंने अपनी मर्यादा खो दी, एक ईमानदार इंसान होने, और सत्य खोजने का मौका गँवा दिया। हर बैठक में मुझे बड़ी थकान महसूस होती, जरा भी राहत नहीं थी। मैं पूरी तरह से अपने भ्रष्ट स्वभाव के बंधन में थी। बैठकों में भाई-बहनों को परमेश्वर के वचन खाने-पीने चाहिए, और परमेश्वर के वचन के बारे में अपने अनुभवजन्य ज्ञान पर संगति करनी चाहिए। अगर समस्याएं या मुश्किलें हों, तो उनके बारे में चर्चा कर साथ में उन्हें सुलझा सकते हैं, एक-दूसरे की खूबियों से सीख सकते हैं। इस तरह, पवित्र आत्मा का कार्य हासिल करना और सत्य को समझना आसान हो जाता है। लेकिन बैठकों में, मैं हमेशा यही सोचती कि ऐसा क्या कहूँ कि लोग मुझे नीची नजर से न देखें, मेरे बारे में अच्छी राय रखें। मेरे सारे विचार इसी बारे में होते। इस तरह जीना बहुत मुश्किल और थकाऊ था।
फिर, परमेश्वर के वचनों में मैंने यह अंश पढ़ा : “क्या तुम लोग दूसरों के साथ संगति करते समय खुलकर वह कह पाते हो, जो वास्तव में तुम्हारे दिल में होता है? अगर कोई हमेशा वही कहता है जो वास्तव में उसके दिल में होता है, अगर वह ईमानदारी से बात करता है, अगर वह सरलता से बोलता है, अगर वह ईमानदार है, और अपने कर्तव्य का पालन करते हुए बिल्कुल भी असावधान नहीं होता, और अगर वह उस सत्य का अभ्यास कर सकता है जिसे वह समझता है, तो इस व्यक्ति के पास सत्य प्राप्त करने की आशा है। अगर व्यक्ति हमेशा अपने आपको ढक लेता है और अपने दिल की बात छिपा लेता है ताकि कोई उसे स्पष्ट रूप से न देख सके, अगर वह दूसरों को धोखा देने के लिए झूठी छवि बनाता है, तो वह गंभीर खतरे में है, वह बहुत परेशानी में है, उसके लिए सत्य प्राप्त करना बहुत मुश्किल होगा। तुम व्यक्ति के दैनिक जीवन और उसकी बातों और कामों से देख सकते हो कि उसकी संभावनाएँ क्या हैं। अगर यह व्यक्ति हमेशा दिखावा करता है, खुद को दूसरों से बेहतर दिखाता है, तो यह कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो सत्य को स्वीकार करता है, और उसे देर-सवेर बेनकाब करके हटा दिया जाएगा। ... जो लोग कभी अपने दिलों को नहीं खोलते, जो हमेशा चीजों को छिपाने और परदा डालने की कोशिश करते हैं, जो यह बहाना बनाते हैं कि वे आदरणीय हैं, जो चाहते हैं कि लोग उनके बारे में अच्छी राय रखें, जो दूसरों को अपनी पूरी थाह नहीं लेने देते, और जो चाहते हैं कि लोग उनकी प्रशंसा करें—क्या वे लोग मूर्ख नहीं हैं? ऐसे लोग सबसे बड़े मूर्ख होते हैं! इसका कारण यह है कि लोगों के बारे में सच्चाई देर-सबेर उजागर हो ही जाती है। इस तरह के आचरण से वे किस मार्ग पर चलते हैं? यह तो फरीसियों का मार्ग है। ये पाखंडी खतरे में हैं या नहीं? ये वे लोग हैं जिनसे परमेश्वर सबसे अधिक घृणा करता है, तो तुम्हें क्या लगता है, वे खतरे में हैं या नहीं? वे सब जो फरीसी हैं, विनाश के मार्ग पर चलते हैं!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझ लिया कि वह चाहता है हम ईमानदार इंसान बनें, सरल और बेबाक ढंग से बोलें, झूठ न बोलें, छल न करें, और जब भ्रष्टता करें, तो खुलकर इस बारे में बोल सकें, ताकि दूसरे हमारे सच्चे विचार समझ सकें। इस तरह जीना उतना थकाऊ नहीं होता, इससे सत्य में प्रवेश करना और उद्धार के मार्ग पर चलना आसान होता है। लेकिन जो लोग हमेशा मुखौटे लगाते हैं, छुपाते हैं, दूसरों को अपनी हालत समझने नहीं देते, वे गलत रास्ते पर चलते हैं। वे ज्यादा-से-ज्यादा पाखंडी होते जाते हैं, और इसलिए अपना भ्रष्ट स्वभाव कभी ठीक नहीं कर सकते। यह तबाही का रास्ता है। मैंने दो हजार साल पहले के फरीसियों के बारे में सोचा। वे बाहर से पवित्र थे, मंदिरों में दूसरों को धर्मशास्त्र समझाते हुए अपने दिन बिताते थे। वे जानबूझकर चौराहों पर खड़े-खड़े प्रार्थना करते ताकि लोग समझें कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं। मगर वे परमेश्वर से जरा भी नहीं डरते थे, उसे महान मानते हुए उसका सम्मान नहीं करते थे, न ही उसके आदेशों का पालन करते थे। जब प्रभु यीशु ने प्रकट होकर कार्य किया, तो वे साफ तौर पर जानते थे कि उसके वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है, उनका स्रोत परमेश्वर है, लेकिन अपना रुतबा और आमदनी बनाए रखने के लिए, उन्होंने परमेश्वर का अंधाधुंध प्रतिरोध किया, निंदा की, और आखिरकार प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ा दिया। मैं समझ गई कि फरीसी देखने में पवित्र थे, मगर उनका सार छली और कपटी था। वे मुखौटे लगाने और धोखा देने में माहिर थे। उनका हर काम लोगों को गुमराह करने, उन पर काबू करने, उनका आदर और आराधना हड़पने के लिए होता था। वे जिस मार्ग पर चलते, वह परमेश्वर के प्रतिरोध का था। अंत में, परमेश्वर ने उन्हें शाप और दंड दिया। मैंने आत्मचिंतन किया। दूसरों के मन में अच्छी छवि बनाने के लिए, मैंने अपनी भ्रष्टता छुपाई, सिर्फ अपनी आम भ्रष्टता के बारे में ही बताया। इससे न सिर्फ मेरी छवि सुरक्षित रही, बल्कि लोग मुझे एक सरल, खुले दिलवाला इंसान मानते रहे। क्या मैं फरीसियों की ही तरह कपटी नहीं थी? इस सोच ने मुझे बहुत डरा दिया। अब मैं ऐसा नहीं कर सकती थी। परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार मुझे एक ईमानदार इंसान बनना था।
फिर, बहन ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश भेजा : “अब ऐसे बहुत लोग हैं, जो सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और जब उन पर दुर्भाग्य आता है तो सत्य की खोज करने में सक्षम होते हैं। अगर तुम अपने भीतर के गलत उद्देश्य और असामान्य अवस्थाएँ सुलझाना चाहते हो, तो ऐसा करने के लिए तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए। सर्वप्रथम, तुम्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर संगति में अपने बारे में खुलकर बोलना सीखना चाहिए। बेशक, तुम्हें खुली संगति के लिए सही पात्र का चयन करना चाहिए—कम से कम, तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति चुनना चाहिए जो सत्य से प्रेम करता हो और उसे स्वीकार करता हो, जिसकी मानवता अपेक्षाकृत बेहतर हो, जो अपेक्षाकृत ईमानदार और सच्चा हो। निस्संदेह यह बेहतर होगा कि तुम कोई ऐसा व्यक्ति चुनो जो सत्य समझता हो, जिसकी संगति से तुम्हें महसूस हो कि तुम्हारी मदद हुई है। इस तरह का व्यक्ति ढूँढ़ना, जिसके साथ संगति में तुम्हें खुलना है और अपनी कठिनाइयाँ हल करनी हैं, कारगर हो सकता है। अगर तुम गलत व्यक्ति चुनते हो, ऐसा व्यक्ति जो सत्य से प्रेम नहीं करता बल्कि जिसमें सिर्फ कोई गुण या प्रतिभा है, तो वह तुम्हारा मजाक उड़ाएगा, तुम्हारा तिरस्कार करेगा और तुम्हें नीचा दिखाएगा। यह तुम्हारे लिए लाभदायक नहीं होगा। एक लिहाज से, खुद को खोलना और प्रकट करना वह दृष्टिकोण है, जिसे व्यक्ति को परमेश्वर के सामने आने और उससे प्रार्थना करने के लिए अपनाना चाहिए; इसका ताल्लुक इस बात से भी है कि कैसे व्यक्ति को सत्य के बारे में दूसरों के साथ संगति करनी चाहिए। यह सोचकर भावनाएँ छिपाए न रखो, ‘मेरे मकसद और कठिनाइयाँ हैं। मेरी आंतरिक स्थिति अच्छी नहीं है—वह नकारात्मक है। मैं किसी को नहीं बताऊँगा। मैं बस इसे छिपाकर रखूँगा।’ अगर तुम हमेशा चीजें हल न करके उन्हें छिपाकर रखते हो, तो तुम और ज्यादा नकारात्मक हो जाओगे, और तुम्हारी स्थिति और भी खराब हो जाएगी। तुम परमेश्वर से प्रार्थना करने को तैयार नहीं होगे। इसे उलटना मुश्किल काम है। और इसलिए, तुम्हारी हालत कैसी भी क्यों न हो, चाहे तुम नकारात्मक हो, या मुश्किल में हो, तुम्हारे उद्देश्य या योजनाएँ चाहे जो भी हों, छानबीन के माध्यम से तुमने जो कुछ भी क्यों न जाना या समझा हो, तुम्हें खुलकर बात कहना और संगति करना सीखना ही होगा, और जैसे ही तुम संगति करते हो, पवित्र आत्मा काम करता है। और पवित्र आत्मा अपना काम कैसे करता है? वह तुम्हें प्रबुद्ध और रोशन करता है और समस्या की गंभीरता समझने देता है, वह तुम्हें समस्या की जड़ और सार से अवगत कराता है, फिर तुम्हें थोड़ा-थोड़ा करके सत्य और अपने इरादे समझाता है, और तुम्हें अभ्यास का मार्ग देखने और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने देता है। जब व्यक्ति खुलकर संगति कर सकता है, तो इसका मतलब है कि उसका सत्य के प्रति ईमानदार रवैया है। कोई व्यक्ति ईमानदार है या नहीं, यह सत्य के प्रति उसके दृष्टिकोण से मापा जाता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ लेने के बाद, मेरी बहन ने संगति की : “ईमानदार इंसान बनने के लिए, पहले हमें खुलकर खोजना और संगति करना सीखना होगा। अगर हम हमेशा अपनी भ्रष्ट हालत को छुपाए रखेंगे, दूसरों के साथ प्रार्थना करना या संगति में खुलकर बोलना नहीं चाहेंगे, तो हमारी समस्याओं को सुलझाना मुश्किल हो जाता है। मिसाल के तौर पर, अगर कोई बीमार हो, तो अपने लिए कोई डॉक्टर या कोई अनुभवी इंसान ढूँढ़ेगा। इस तरह वे अपनी हालत के बारे में समझ सकेंगे, सही दवा ले सकेंगे, समय रहते अपनी बीमारी को काबू में कर सकेंगे। फिर भी कुछ लोग अपनी हालत छुपाते हैं, इसलिए समय पर इलाज न होने से, हालत बिगड़ जाती है, यहाँ तक कि जीवन को खतरा भी हो जाता है। अगर हम अपनी हालत और मुश्किलें हल करना चाहते हैं, तो हमें खुलकर संगति करनी चाहिए, ईमानदार इंसान बनना चाहिए। अभ्यास करने का यही सही रास्ता है।” मैं समझ सकी कि ईमानदार इंसान होना और खुलकर बोलना बहुत अहम होते हैं। मैं परमेश्वर में विश्वास में नई थी और सत्य नहीं समझती थी। यह जान लेने के बाद भी कि मेरा स्वभाव भ्रष्ट है, मैं इसे ठीक नहीं कर सकती थी। मुझे एक ईमानदार इंसान होने पर अमल करना होगा, अपनी हालत के बारे में खुलकर बोलना होगा, सत्य खोजना होगा। सिर्फ इसी तरह से मैं परमेश्वर का मार्गदर्शन पा सकूँगी, इससे मेरे भ्रष्ट स्वभाव के ठीक होने में भी मदद मिलेगी। मैंने अभी-अभी नए सदस्यों का सिंचन शुरू किया था, तो स्वाभाविक रूप से मैं बहुत-सी बातें नहीं समझती थी। नहीं समझने पर मुझे भाई-बहनों के साथ खोजने के लिए खुलकर बोलना चाहिए था। इस तरह, मैं थोड़ा-थोड़ा करके अपने काम के सिद्धांतों को अच्छी तरह समझ कर अपना काम बढ़िया ढंग से कर पाती। फिर, मैंने इस दौरान अपनी हालत और काम में आई मुश्किलों के बारे में, एक दूसरी बहन को बताया। उसने मुझे नीची नजरों से नहीं देखा, उसने मुझे परमेश्वर के वचन भेजे, मेरी मदद करने के लिए मेरे साथ अपने अनुभवों के बारे में संगति की। इससे मैं अपनी हालत और भ्रष्टता के बारे में थोड़ा-बहुत जान पाई, और अभ्यास का एक मार्ग मिला। मुझे बड़ी खुशी और राहत का एहसास हुआ। तब से, मैंने एक ईमानदार इंसान बनने और अपनी हालत के बारे में खुलकर बोलने का अभ्यास किया।
एक रात, मैंने एक समूह बैठक का संचालन किया। कलीसिया अगुआ ने मेरे साथ संचालन करने के लिए एक समूह अगुआ की व्यवस्था की। यह बहन सत्य को मुझसे बेहतर समझती थी। बैठक के दौरान, उसने संगति करके दूसरों की समस्याओं को प्रभावशाली ढंग से सुलझाया, और मुझे थोड़ी ईर्ष्या हुई। मुझे फिक्र हो गई कि दूसरे लोग मुझे उससे कम समझेंगे। बैठक के बाद, कलीसिया अगुआ ने पूछा कि क्या मैं कुछ विचार साझा करना चाहती हूँ। मैं जानती थी कि मुझे एक ईमानदार इंसान होना चाहिए, अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर समाधान खोजना चाहिए। इसलिए मैंने उनसे अपने मन की बात कह दी, फिर उन्होंने मुझे परमेश्वर के वचन भेजे और अपने अनुभव के बारे में बताया। मैं समझ गई कि मैं अपनी बहन से ईर्ष्या कर रही थी, क्योंकि मैं रुतबे की कद्र करती थी, मेरा स्वभाव अहंकारी था, और मैं चाहती थी कि लोग मुझे आदर से देखें। मैं यह भी समझ गई कि ईर्ष्या छोड़ने के लिए मुझे परमेश्वर से और प्रार्थना करनी चाहिए, ईर्ष्या की प्रकृति और परिणामों को समझना चाहिए, कलीसिया के कार्य और अपने कर्तव्य के बारे में विचार करना चाहिए, और कलीसिया के हितों को आगे रखना चाहिए। यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। साथ ही, मुझे अपनी कमियों और खामियों से सही ढंग से निपटना चाहिए, अपनी कमियाँ दूर करने के लिए दूसरों की खूबियों से ज्यादा सीखना चाहिए। इस तरह, मैं ज्यादा सत्य समझ सकूंगी। यह जानकर मैं बहुत खुश हुई। मुझे सचमुच लगा कि जब मैंने अपने भाई-बहनों से खुलकर बात की, तो मुझे नीची नजरों से देखने के बजाय उन सबने मेरी बहुत मदद की।
यह अनुभव होने के बाद, मैं समझ गई हूँ कि ईमानदार इंसान होना कितना महत्वपूर्ण होता है। सिर्फ ईमानदार होने और खुलकर बोलने से ही, हम पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हैं, और सत्य समझ सकते हैं। मैं यह भी समझ सकी कि ईमानदार होने से हमें राहत और आजादी मिल सकती है, और हम इंसानों की तरह जी सकते हैं। परमेश्वर का धन्यवाद!