6. परमेश्वर से सावधान रहने से क्या होता है?

लुओ यिंग, चीन

2013 में मुझे झूठा अगुआ करार दिया गया और यह पता चलने पर बर्खास्त कर दिया गया मैंने अपने कर्तव्य में सिद्धांतों की खोज नहीं की और अपने अहंकारी स्वभाव को अपने काम पर हावी होने दिया, इससे कलीसिया के सुसमाचार कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा हुई। बर्खास्त होने के बाद, मुझे काफी निराशा और पछतावा हुआ। परमेश्वर के वचन पढ़ने और आत्म-चिंतन करने से मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव का कुछ ज्ञान मिला, लेकिन अंदर से मैं अभी भी परमेश्वर के प्रति काफी सावधानी थी और सोच रही थी चूँकि मेरा स्वभाव इतना भ्रष्ट है और मैंने बहुत गंभीर अपराध किया है, मुझे भविष्य में कोई महत्वपूर्ण काम बिल्कुल नहीं करना चाहिए। अगर मैं कोई और अपराध करती हूँ तो ज्यादा से ज्यादा मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा और ज्यादा गंभीर परिदृश्य में, शायद मुझे पूरी तरह से बेनकाब कर दिया जाएगा, हटा दिया जाएगा और मैं उद्धार पाने का अवसर गंवा दूँगी। खासकर यह देखने के बाद कि कैसे कुछ लोग जो प्रतिभाशाली थे, काबिल थे, और जिन्होंने महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाए थे, आखिरकार उन्हें झूठे अगुआओं के रूप में बेनकाब और बर्खास्त कर दिया गया या मसीह-विरोधियों के रूप में परिभाषित तक किया गया और सत्य की खोज न करने पर बर्खास्त कर दिया गया, रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए लगातार प्रयास करने, अहंकारी स्वभाव के आधार पर कार्य करने और पश्चाताप नहीं करने से, जिससे कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी पैदा हुई, मैं और भी आश्वस्त हो गई कि जो मैंने सोचा था वह सही था। आगे चलकर मैं सिर्फ वही काम करूंगी जिसमें बड़ी जिम्मेदारी और जोखिम न हो। इस तरह जब परमेश्वर का कार्य पूरा हो जाएगा तब भी मेरे पास बचे रहने का मौका होगा। बाद में मेरे अगुआ ने मुझे कलीसिया की सफाई का काम दिया। मैंने मन ही मन सोचा, “पहले भी, कुछ बहनें सफाई का काम करती थीं, उन्हें बर्खास्त कर दिया गया था क्योंकि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार काम कर रही थीं और सिद्धांतों का पालन नहीं कर रही थीं जिससे कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी पैदा हो गई। फिर भी, मुझे तो सत्य का ज्ञान उनसे भी कम ही है और मेरा स्वभाव भी बहुत अहंकारी है—अगर मैं कुछ हानिकारक या परेशान करने वाला काम करूँ, तो मैं बुराई करूँगी!” इस पर विचार करने के बाद, मैंने इस काम को अस्वीकार करने का फैसला किया। उसके बाद अगुआ ने मुझे पाठ आधारित कार्य सौंप दिया, मैं इस काम से काफी खुश थी। मुझे लगा कि पाठ-आधारित काम में मुझे कलीसिया के लिए बड़े फैसले लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी और इसमें कोई जोखिम भी नहीं होगा, इसलिए मैंने इसे खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। 2017 में मेरे अगुआ ने मुझे एक बार फिर बुलाया और कहा कि कलीसिया की साफ-सफाई के लिए कार्यकर्ताओं की सख्त जरूरत है और उम्मीद जताई कि मैं परमेश्वर के इरादे पर विचार कर सफाई टीम में कोई न कोई काम करूँगी। अभी भी मेरा मन नहीं था। लेकिन मुझे लगा कि मैंने पहले भी एक बार काम के लिए मना कर दिया था और अगर मैं अपने भविष्य और संभावनाओं के बारे में सोचकर फिर मना कर देती, तो मैं परमेश्वर को धोखा देती। मैं इतनी अंतरात्मा रहित नहीं हो सकती थी! अपने कष्टों के चलते, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं उस अनुचित अवस्था से मुक्त हो सकूँ।

फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “कुछ लोग, चाहे वे कितने भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें, उन्हें हल करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते हैं। परिणामस्वरूप, कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी, उनके स्वभाव अपरिवर्तित रहते हैं। वे सोचते हैं, ‘जब भी मैं कुछ करता हूँ, मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता हूँ; अगर मैं कुछ भी करने से बचूँगा तो उन्हें प्रकट नहीं करूँगा। क्या इससे समस्या का समाधान नहीं होता?’ क्या यह गले में फँस जाने के डर से खाने से ही परहेज करना नहीं है? इसका परिणाम क्या होगा? यह केवल भुखमरी की ओर ले जा सकता है। यदि कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है और उनका समाधान नहीं करता है, तो यह सत्य को स्वीकार न करने और खड़े-खड़े मर जाने के समान है। यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और सत्य का अनुसरण नहीं करते हो तो परिणाम क्या होंगे? तुम खुद ही अपनी कब्र खोद रहे होगे। भ्रष्ट स्वभाव परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास के दुश्मन हैं; वे तुम्हारे सत्य आचरण, परमेश्वर के कार्य के तुम्हारे अनुभव और उसके प्रति तुम्हारे समर्पण में बाधा डालते हैं। परिणामस्वरूप, अंत में तुम परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं कर पाओगे। क्या यह अपनी ही कब्र खोदना नहीं है? शैतानी स्वभाव सत्य को स्वीकार करने और उसका आचरण करने से तुम्हें रोकते हैं। तुम उनसे बच नहीं सकते; तुम्हें उनका सामना करना होगा। यदि तुम उन पर विजय नहीं पाते हो, तो वे तुम्हें काबू में कर लेंगे। यदि तुम उन पर विजय पा सकते हो, तो अब तुम उनके द्वारा विवश नहीं रहोगे और तुम स्वतंत्र हो जाओगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया तो लगा कि गले में फँसने के डर से मैं खाना नहीं खा रही हूँ। क्योंकि मुझे सत्य की खोज न करने, अहंकारी स्वभाव से काम करने, कलीसिया के सुसमाचार कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा करने के कारण बर्खास्त कर दिया गया था, तो मैं सतर्क हो गई और गलतफहमी पाल ली। मैं एक महत्वपूर्ण कर्तव्य के लिए तैयार नहीं थी और कोई भी गैर-महत्वपूर्ण काम करके खुश थी, मेरे लिए केवल यह मायने रखता था कि मैंने कोई गलती नहीं की या मेरे काम में कोई समस्या नहीं है। जब मुझे कोई महत्वपूर्ण कार्य सौंपा जाता तो मैं अनजाने ही बचाव की मुद्रा में आ जाती। मुझे चिंता थी कि अगर मैंने अपने अहंकारी स्वभाव को अपने काम पर हावी होने दिया और कलीसिया के काम में फिर बाधा और गड़बड़ी पैदा की, तो मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा और हटा दिया जाएगा, मैं यह सोचकर काम अस्वीकार कर देती कि ऐसा करके मैं खुद को बचा सकती हूँ। मैं हमेशा अपने भ्रष्ट स्वभाव से निपटने से बचती रही और इसे सुलझाने के लिए सत्य की खोज नहीं की। अगर मैं ऐसा ही करती रही, तो न सिर्फ मेरे जीवन स्वभाव में जरा सा भी बदलाव नहीं आएगा, मुझे उद्धार मिलेगा या नहीं यह भी अनिश्चित रहेगा। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग भी दिया और मुझे दिखाया कि मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव से निपटना होगा और इसे सुलझाने के लिए सत्य की खोज करनी होगी।

फिर मैंने इस बात पर विचार किया कौन सा भ्रष्ट स्वभाव मुझे हमेशा परमेश्वर के प्रति सतर्क रहने और कर्तव्यों को अस्वीकार करने के लिए उकसा कर रहा है। एक दिन मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “मैं उन लोगों में प्रसन्नता अनुभव करता हूँ जो दूसरों पर शक नहीं करते, और मैं उन लोगों को पसंद करता हूँ जो सच को तत्परता से स्वीकार कर लेते हैं; इन दो प्रकार के लोगों की मैं बहुत परवाह करता हूँ, क्योंकि मेरी नज़र में ये ईमानदार लोग हैं। यदि तुम धोखेबाज हो, तो तुम सभी लोगों और मामलों के प्रति सतर्क और शंकित रहोगे, और इस प्रकार मुझमें तुम्हारा विश्वास संदेह की नींव पर निर्मित होगा। मैं इस तरह के विश्वास को कभी स्वीकार नहीं कर सकता। सच्चे विश्वास के अभाव में तुम सच्चे प्यार से और भी अधिक वंचित हो। और यदि तुम परमेश्वर पर इच्छानुसार संदेह करने और उसके बारे में अनुमान लगाने के आदी हो, तो तुम यकीनन सभी लोगों में सबसे अधिक धोखेबाज हो। तुम अनुमान लगाते हो कि क्या परमेश्वर मनुष्य जैसा हो सकता है : अक्षम्य रूप से पापी, क्षुद्र चरित्र का, निष्पक्षता और विवेक से विहीन, न्याय की भावना से रहित, शातिर चालबाज़ियों में प्रवृत्त, विश्वासघाती और चालाक, बुराई और अँधेरे से प्रसन्न रहने वाला, आदि-आदि। क्या लोगों के ऐसे विचारों का कारण यह नहीं है कि उन्हें परमेश्वर का थोड़ा-सा भी ज्ञान नहीं है? ऐसा विश्वास पाप से कम नहीं है!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मेरा स्वभाव धोखेबाज और दुष्ट है—मेरे विचार एक अधार्मिक व्यक्ति जैसे थे, मैं हमेशा परमेश्वर के बारे में अटकलें लगाती रहती थी, और उसी तरह से परमेश्वर के प्रति सतर्क रहती थी जैसे मैं किसी बुरे व्यक्ति से सतर्क रहती हूँ। मुझे लगा कि मुझे कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य सौंपने का मतलब मुझे बेनकाब कर निकालना है। क्योंकि मैं अपने अहंकारी स्वभाव और कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी पैदा करने के कारण पहले एक अपराध के लिए चिह्नित हो चुकी थी। मुझे चिंता थी कि अगर मुझे एक और अपराध के लिए चिह्नित किया गया, तो मेरे हटाए जाने का जोखिम बना रहेगा और इस तरह मैं परमेश्वर के प्रति सतर्कता और गलतफहमी की अवस्था में थी। इसलिए जब मेरे अगुआ ने मुझे कलीसिया की सफाई के काम की निगरानी सौंपी, मुझे चिंता हुई कि मैं लोगों के बारे में निर्णय लेने में गलतियाँ करूँगी। अगर मैंने गलती से किसी अच्छे व्यक्ति के साथ गलत किया या किसी बुरे व्यक्ति या मसीह-विरोधी को कलीसिया में रहने दिया, जिससे कलीसिया पर खतरा मंडरा रहा हो, तो इसे एक बड़ा अपराध माना जाएगा और मुझे हटा दिया जाएगा। इन तमाम बातों को देखते हुए, मैंने काम नहीं लेने के लिए बहाने बनाए। जब मैंने अब इस पर विचार किया, तो मैंने देखा कि अगर मुझे बर्खास्त होने का अनुभव नहीं हुआ होता, तो मुझे कभी एहसास ही नहीं होता कि मेरा स्वभाव इतना अहंकारी है, और मुझे यह एहसास तो बिल्कुल नहीं होता कि मैंने सत्य की खोज नहीं की और अपना काम मनमर्जी से किया और मैं मसीह-विरोध के मार्ग पर चल रही थी। यह परमेश्वर की समय पर की गई ताड़ना और अनुशासन ही था, जिससे मैं आत्म-चिंतन कर पाई और मुझे उस गलत मार्ग से हटाया, जिस पर मैं चल रही थी। अगर परमेश्वर के कार्य नहीं होते, तो अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के वश में न जाने मैं क्या भयानक बुराई कर देती। इस तथ्य के बावजूद कि बर्खास्त होने से मुझे थोड़ी परेशानी तो हुई, लेकिन बर्खास्तगी वास्तव में परमेश्वर का मुझे बचाने और सुरक्षित रखने का तरीका था और यह उसके ईमानदार इरादों से भरा था। इस असफलता ने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी : इसने मुझे मेरे अहंकारी स्वभाव से कार्य करने के नतीजों की गंभीरता दिखाई और मुझे अनुभव कराया कि कैसे परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव किसी अपराध को बर्दाश्त नहीं करता। अपने कर्तव्य में आगे बढ़ते हुए, मैंने खुद को याद दिलाया कि अपने अहंकारी स्वभाव को अपने कार्यों पर हावी न होने दूँ बल्कि मेरा हृदय परमेश्वर का भय मानने वाला बने। जब समस्याओं से मेरा सामना होगा, तो मैं दूसरों से सुझाव मांगूँगी और सत्य सिद्धांतों की खोज करूँगी ताकि बड़ी गलतियाँ करने से बचा जा सके। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और अच्छा है और उसका प्रेम और उद्धार बिना किसी झूठ के व्यावहारिक और वास्तविक है। अगर मुझे आत्म-चिंतन कर इस बात का एहसास होता, तो परमेश्वर मुझे अभ्यास करने का अवसर देता, लेकिन मैं हमेशा परमेश्वर के बारे में अटकलें लगाती रही, उसके प्रति सर्तक रही और यह मानती रही कि वह एक साधारण इंसान की तरह तुच्छ और विवेकशून्य होगा, जिसमें निष्पक्षता और धार्मिकता का अभाव होगा। मुझे लगा परमेश्वर इस कर्तव्य का इस्तेमाल मुझे बेनकाब करने और हटाने के लिए कर रहा है—क्या मैं परमेश्वर की निंदा नहीं कर रही थी? मैं कितनी धोखेबाज थी! परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और ईमानदार लोग सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकते हैं। लेकिन मेरे धोखेबाज स्वभाव ने मुझे परमेश्वर पर संदेह करने और उसके प्रति सतर्क रहने के लिए मजबूर किया। जो काम मुझे मिले, उन्हें मैंने दूसरों के सिर मढ़ दिया और मैं खुले और ईमानदार हृदय से अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभाने में असमर्थ रही। अगर मेरा रवैया ऐसा ही रहा, तो क्या मैं खुद को बर्बाद नहीं कर लूंगी? यह एहसास होने पर मुझे बहुत पछतावा हुआ और मैंने चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना की, अपना कर्तव्य निभाने का अवसर लेने की इच्छा जताई, और यह भी चाहा कि सफाई के काम को ठीक से करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करूँ और काम का विरोध कर उसे अस्वीकार न करूँ।

आगे बढ़ते हुए, मैंने कलीसिया में सफाई का कार्य शुरू कर दिया। एक दिन निष्कासन के एक मामले ने मेरा ध्यान खींचा। निष्कासन मिस ली का किया जाना था जो पहले मेरी मेजबान रह चुकी थी। वह हमेशा मेजबान के रूप में सेवा करती थी कम महत्वपूर्ण कार्य करने के कारण मुझे उससे उससे ईर्ष्या होती थी, क्योंकि मुझे लगता था कि उससे कोई बड़ा अपराध कम ही होगा—इस तरह से आस्था का अभ्यास करना कम जोखिम भरा होगा। लेकिन वास्तविकता ने मेरी धारणा का खंडन कर दिया—महत्वपूर्ण काम न करने के बावजूद मिस ली का अहंकारी स्वभाव कभी नहीं बदला था और वह अपनी बेटी, जो कलीसिया की एक अगुआ थी, को भी बहकाने और उसका इस्तेमाल करने की बेकार कोशिश कर रही थी ताकि कलीसिया पर नियंत्रण पा सके, जिससे कलीसिया में अराजकता आ गई थी। मेरे मन में यह भी विचार आया कि अधिकांश लोग जो छद्म-विश्वासियों और बुरे लोगों के रूप में बेनकाब किए गए थे, वे कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य नहीं निभा रहे थे, लेकिन अंततः सत्य का अनुसरण न करने, अपने शैतानी स्वभाव के अनुरूप अनमने और अनियंत्रित तरीके से कार्य करने, पश्चाताप न करने और हर प्रकार के बुरे काम करने के कारण उन्हें हटा दिया गया था। इस बात का मुझ पर काफी असर हुआ। फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “कुछ लोग सोचते हैं, ‘जो भी अगुआई करता है वह मूर्ख और अज्ञानी है और खुद अपने आप को बर्बाद कर रहा है, क्योंकि एक अगुआ के रूप में कार्य करने से लोग अनिवार्य रूप से परमेश्वर के सामने भ्रष्टता प्रकट करने को मजबूर हो जाते हैं। अगर वे यह काम नहीं करते तो क्या इतनी बड़ी भ्रष्टता सामने आती?’ कितना बेतुका विचार है! यदि तुम एक अगुआ के रूप में कार्य नहीं करते, तो क्या तुम भ्रष्टता का खुलासा नहीं करोगे? क्या अगुआ न होने का मतलब यह है कि भले ही तुम कम भ्रष्टता दिखाओ, तुम्हें उद्धार प्राप्त हो गया है? इस तर्क के अनुसार तो क्या वे सभी जो अगुआओं के रूप में सेवा नहीं करते, जीवित रह सकते हैं और बचाए जा सकते हैं? क्या यह कथन बहुत हास्यास्पद नहीं लगता? जो लोग अगुआओं के रूप में सेवा करते हैं वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परमेश्वर के वचन खाने-पीने और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का मार्गदर्शन देते हैं। यह उच्च अपेक्षा और मानक है, इसलिए यह अपरिहार्य है कि पहली बार प्रशिक्षण शुरू करने पर अगुआ कुछ भ्रष्ट अवस्थाएँ प्रकट करेंगे ही। यह सामान्य है और परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता। इसकी निंदा करना तो दूर रहा, परमेश्वर इन लोगों को प्रबुद्ध और रोशन कर उनका मार्गदर्शन भी करता है, और उन पर अतिरिक्त बोझ डालता है। अगर वे परमेश्वर के मार्गदर्शन और कार्य के प्रति समर्पण कर सकते हैं तो वे सामान्य लोगों की तुलना में जीवन में तेजी से प्रगति करेंगे। यदि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं तो वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चल सकते हैं। यही वह चीज है जिस पर परमेश्वर का सबसे अधिक आशीष होता है। कुछ लोग इसे समझ नहीं पाते और तथ्यों को तोड़-मरोड़ देते हैं। मानवीय समझ के अनुसार चाहे कोई अगुआ कितना भी बदल जाए, परमेश्वर परवाह नहीं करेगा; वह केवल यह देखेगा कि अगुआ और कार्यकर्ता कितनी भ्रष्टता प्रकट करते हैं और इसके आधार पर ही उनकी निंदा करेगा। और जो लोग अगुआ और कार्यकर्ता नहीं हैं वे चूँकि भ्रष्टता प्रकट नहीं करते, इसलिए चाहे वे खुद को न भी बदलें तो भी परमेश्वर उनकी निंदा नहीं करेगा। क्या यह बेतुकी बात नहीं है? क्या यह परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं है? यदि तुम अपने हृदय में इतनी गहराई से परमेश्वर का विरोध करते हो, तो क्या तुम्हें बचाया जा सकता है? तुम्हें नहीं बचाया जा सकता। परमेश्वर लोगों के परिणाम मुख्य रूप से इस आधार पर निर्धारित करता है कि उनके पास सत्य और सच्ची गवाही है या नहीं, और यह मुख्य रूप से इस पर निर्भर करता है कि क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं या नहीं हैं। यदि वे सत्य का अनुसरण करते हैं, अपने अपराध के लिए न्याय और ताड़ना दिए जाने के बाद वे सच में पश्चात्ताप कर पाते हैं, तो जब तक वे ऐसे शब्द नहीं कहते या ऐसी चीजें नहीं करते हैं जिनसे परमेश्वर की ईशनिंदा हो, वे निश्चित रूप से उद्धार प्राप्त करने में सक्षम होंगे। तुम लोगों की कल्पनाओं के अनुसार सभी सामान्य विश्वासी जो अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उद्धार प्राप्त कर सकते हैं, और जो अगुआ के रूप में सेवा करते हैं, उन सभी को हटा दिया जाना चाहिए। यदि तुम लोगों से अगुआ बनने के लिए कहा जाए, तो तुम सोचोगे कि ऐसा न करना ठीक नहीं रहेगा, लेकिन अगुआ के रूप में काम करना पड़ा तो अनजाने में ही भ्रष्टता प्रकट होगी और यह बिल्कुल अपनी गर्दन कटाने जैसी बात है। क्या यह सब सोचने का कारण परमेश्वर के बारे में तुम लोगों की गलतफहमियाँ नहीं है? यदि लोगों के परिणाम उनके द्वारा प्रकट भ्रष्टता के आधार पर निर्धारित किए जाते, तो किसी को भी नहीं बचाया जा सकता। उस स्थिति में परमेश्वर द्वारा उद्धार कार्य करने का क्या मतलब होगा? यदि सचमुच ऐसा ही हो तो परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ दिखेगी? मानवजाति परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देखने में असमर्थ रहेगी। इसलिए तुम सब लोगों ने परमेश्वर के इरादों को गलत समझा है, जो दर्शाता है कि तुम लोगों को परमेश्वर का सच्चा ज्ञान नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि परमेश्वर लोगों के परिणामों का निर्धारण इस आधार पर नहीं करता कि वे क्या कार्य करते हैं या उनकी कितनी भ्रष्टता बेनकाब हुई है, बल्कि इस आधार पर करता है कि भ्रष्टता बेनकाब होने के बाद वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने पर कितना ध्यान देते हैं। परमेश्वर उन लोगों को बचाता है जो शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए हैं; अगर परमेश्वर लोगों के परिणाम उनके द्वारा बेनकाब की गई भ्रष्टता के आधार पर निर्धारित करता, तो हम सभी को निकाल दिया जाएगा। तो उद्धार पाने में कौन सक्षम होगा? मेरी यह आस्था बहुत हास्यास्पद थी। मुझे एहसास हुआ कि भले ही अगुआओं और पर्यवेक्षकों की भ्रष्टता और कमियाँ अक्सर बेनकाब हो जाती हैं, लेकिन अगर वे सत्य का अनुसरण करेंगे, अक्सर आत्मचिंतन करेंगे और अपने मुद्दों को सुलझाने के लिए सत्य की खोज करेंगे, वे अधिक से अधिक सत्य समझेंगे और उनका जीवन प्रवेश पहले से अधिक तेजी से होगा। मुझे लगा उन झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों को जिन्हें बेनकाब कर हटा दिया गया था, नियति का सामना इसलिए नहीं करना पड़ा क्योंकि वे अगुआओं और पर्यवेक्षकों के रूप में सेवा कर रहे थे, बल्कि इसलिए करना पड़ा क्योंकि वे सभी सत्य से विमुख हो चुके थे, लगातार प्रतिष्ठा और रुतबे की चाहत में बुरे काम कर रहे थे जिससे कलीसिया का काम बाधित हुआ और कई बार काट-छाँट करने के बाद भी उन्होंने पश्चाताप नहीं किया था। मेरे मन में यह भी विचार आया कि जिस कारण से मुझे पहले अगुआ के रूप में मेरे कर्तव्य से बर्खास्त किया गया था, वह भी इसलिए था क्योंकि मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया था और सही मार्ग पर नहीं चल रही थी—इसका मेरे द्वारा किसी महत्वपूर्ण कर्तव्य को निभाने से कोई संबंध नहीं था। फिर भी, मैं इस तथ्य को समझने में नाकाम रही, मैंने अपने पतन और असफलता के मूल कारण पर चिंतन नहीं किया, और न ही ऐसे सबक सीखे जिन्हें मैं आगे चलकर समझ सकती थी, और इसके बजाय परमेश्वर के बारे में अटकलें लगाने और उसका मूल्यांकन करने के लिए एक भ्रामक दृष्टिकोण का इस्तेमाल किया। क्या यह परमेश्वर के प्रति ईशनिंदा नहीं थी? मैंने पतरस के बारे में सोचा, जो परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को पसंद करता था। अगर उसे परमेश्वर का न्याय और ताड़ना न मिलते तो वह घबरा जाता और बेचैन हो जाता और उसे लगता कि अब वह जीवित नहीं रह सकता। मैंने देखा कि पतरस पूरे हृदय से सत्य से प्रेम करता था, सकारात्मक चीजों के लिए तरसता था और परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, दंड और अनुशासन को सीने से लगाकर रखता था। उस माहौल में, वह अपनी कमियों और कमजोरियों पर चिंतन करने में सक्षम था, सत्य खोजकर खुद में बदलाव ला रहा था। लेकिन मैं नाकाम और बेनकाब होने के बाद, मैं सतर्कता, गलतफहमी, नकारात्मकता और प्रतिरोध की हालत में चली गई थी। मुझे डर था कि अगर मैंने कोई और महत्वपूर्ण काम लिया, तो मैं फिर बेनकाब हो जाऊँगी, इसलिए मैंने बार-बार कार्य ठुकरा दिए। मैंने देखा कि मैं वास्तव में सत्य से विमुख थी। मैं हमेशा अपने भ्रष्ट स्वभाव को छिपाना चाहती थी, लेकिन ऐसा करने से, मैं आत्म-ज्ञान पाने में असमर्थ थी, और न ही मैं समय पर अपने मुद्दों को हल करने के लिए सत्य की खोज कर पा रही थी। आखिरकार, मैं उद्धार पाने का अवसर खो दूँगी क्योंकि मेरा स्वभाव कभी नहीं बदलेगा। मुझे पतरस के अनुभवों के माध्यम से अभ्यास के कुछ मार्ग मिले : मेरी भ्रष्टता का खुलासा होने पर, मुझे खुद को जानने और उसे दूर करने के लिए सत्य की खोज करने पर ध्यान देना चाहिए, और मुझे खुद के लिए चेतावनी के रूप में दूसरों की असफलताओं से भी सबक लेना चाहिए।

अगस्त 2021 में, भाई-बहनों ने मुझे कलीसिया के एक अगुआ के रूप में सेवा करने के लिए चुना था। काम लेने को लेकर मुझे अभी भी झिझक थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं यह कर्तव्य निभाना चाहती हूँ और अपना योगदान देना चाहती हूँ, लेकिन मुझे चिंता है। तू मेरा मार्गदर्शन कर और मुझे निर्देश दे।” प्रार्थना के बाद, मैंने सोचा कि परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हुए, मैंने सीखा कि परमेश्वर का उद्देश्य लोगों से काम करवाना है उन्हें हटाना नहीं है, बल्कि वह चाहता है कि लोग अपने कर्तव्य-निर्वहन के दौरान सत्य खोजें, अपने स्वभाव में परिवर्तन लाएँ और उद्धार प्राप्त करें। मेरे मन में यह भी विचार आया कि अभी कलीसिया विभाजित है और कलीसिया के काम के लिए काफी लोगों की जरूरत है—उस महत्वपूर्ण पल में, मैं सिर्फ अपने निजी हितों पर ही विचार नहीं कर सकती थी। फिर से काम को अस्वीकारने का मतलब होगा कि मुझमें इंसानियत नहीं है! मुझे परमेश्वर के इरादे पर विचार कर वह कार्य जो मुझे करना चाहिए। बाद में, मैं सोचती रही, “जब भी मुझे कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य सौंपा जाता था, तो मैं क्यों कायर बन जाती थी और भयभीत हो जाती थी? इसके पीछे कौन से अनुचित इरादे थे?” अपनी खोज के बीच में, मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते, और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि, फायदे और रुतबे को अपनी आशीषों की प्राप्त करने की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत खो गई, तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी, और यह उन्हें अपना जीवन खोने जैसा लगता है। वे सोचते हैं, ‘मुझे सावधान रहना है, मुझे लापरवाह नहीं होना चाहिए! परमेश्वर के घर, भाई-बहनों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। मैं उनमें से किसी पर भरोसा नहीं कर सकता। जिस व्यक्ति पर तुम सबसे ज्यादा भरोसा कर सकते हो और जो सबसे ज्यादा विश्वसनीय है, वह तुम खुद हो। अगर तुम अपने लिए योजनाएँ नहीं बना रहे, तो तुम्हारी परवाह कौन करेगा? तुम्हारे भविष्य पर कौन विचार करेगा? कौन इस पर विचार करेगा कि तुम्हें आशीष मिलेंगे या नहीं? इसलिए, मुझे अपने लिए सावधानीपूर्वक योजनाएँ बनानी होंगी और गणनाएँ करनी होंगी। मैं गलती नहीं कर सकता या थोड़ा भी लापरवाह नहीं हो सकता, वरना अगर कोई मेरा फायदा उठाने की कोशिश करेगा तो मैं क्या करूँगा?’ इसलिए, वे परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से सतर्क रहते हैं, और डरते हैं कि कोई उन्हें पहचान लेगा या उनकी असलियत जान लेगा, और फिर उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा और आशीष पाने का उनका सपना नष्ट हो जाएगा। वे सोचते हैं कि आशीष प्राप्त करने की आशा रखने के लिए उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बरकरार रखना चाहिए। मसीह-विरोधी आशीष प्राप्ति को स्वर्ग से भी अधिक बड़ा, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो मुश्किल से ही उल्लेखनीय हैं या टिप्पणी के योग्य हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे आशीष प्राप्ति होने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का मार्ग रखते हैं। इसलिए जब उनका कर्तव्य समायोजित किया जाता है, अगर यह पदोन्नति हो, तो मसीह-विरोधी सोचेगा कि उन्हें धन्य होने की आशा है। अगर यह पदावनति हो, टीम-अगुआ से सहायक टीम-अगुआ के रूप में, या सहायक टीम-अगुआ से नियमित समूह-सदस्य के रूप में, तो वे इसके एक बड़ी समस्या होने की भविष्यवाणी करते हैं और उन्हें आशीष पाने की अपनी आशा दुर्बल लगती है। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? क्या यह उचित दृष्टिकोण है? बिल्कुल नहीं। यह दृष्टिकोण बेतुका है!(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों ने उजागर किया कि कैसे मसीह-विरोधी सिर्फ आशीष पाने के लिए ही परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे कर्तव्य में अपने हितों को सबसे ज्यादा प्राथमिकता देते हैं और आशीष पाने को अत्यधिक अहम मानते हैं। अपने व्यवहार पर विचार करते हुए, मैंने देखा कि मैं भी मसीह-विरोधी की तरह ही थी। मैंने यह नहीं सोचा कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य सर्वोत्तम तरीके से कैसे निभाऊँ, इसके बजाय आशीष पाने को प्राथमिकता दी। अपने कर्तव्य में, मैं हमेशा कायर और सतर्क रहती थी, मुझे हमेशा यही चिंता रहती थी कि अगर मैंने गलती की और मुझे किसी अपराध के लिए चिह्नित कर दिया गया, तो मैं आशीष पाने का अवसर गंवा दूँगी। मुझे एहसास हुआ कि मेरा व्यवहार शैतानी दर्शन का परिणाम था जैसे “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “गुण मत देखो, पर दोष से बचो” जो मेरे काम और हृदय में गहराई से जड़ें जमा चुके थे मेरे जीवन के सिद्धांत बन गए थे। मैं बस यही मानती थी कि लोगों को अपने लिए जीना चाहिए और आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करना सही और उचित है। जब कलीसिया ने मुझसे अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए कहा, तो मैंने बार-बार तौला कि किस काम से मुझे ज्यादा आशीष मिलेंगे साथ ही मेरी कमियों और भ्रष्टता के बेनकाब होने का जोखिम भी नहीं होगा और ऐसी स्थिति में पड़ने से भी बचूँगी जहां मैं कोई बड़ी गलती कर बैठूँ। मैं सिर्फ वही कार्य करने के लिए तैयार थी जो इन शर्तों को पूरा करता हो। इसके विपरीत, मैंने ऐसे किसी भी कार्य का विरोध किया और उसे अस्वीकार कर दिया जिस्से मुझे आशीष न मिले पाएँ। कार्य के हर पहलू पर मेरा आशीष पाना हावी था और मैं बहुत सोच-समझकर चुनती थी कौन सा काम लूँ—मैंने कलीसिया के काम के बारे में जरा भी नहीं सोचा। परमेश्वर के प्रति मेरा समर्पण और वफादारी कहाँ थी? मैं सांसारिक व्यवहार के लिए शैतानी दर्शन के अनुरूप जीती थी, हमेशा परमेश्वर से बदले में कुछ पाने की कोशिश करती थी और अपनी संभावनाओं और गंतव्य के लिए मुझे मिले कर्तव्य को अस्वीकार करती थी। क्या मैं परमेश्वर को धोखा नहीं दे रही थी? जितना मैंने सोचा, उतना ही मुझे लगा कि परमेश्वर में विश्वास करने के मेरे इरादे वास्तव में बहुत ही घृणित थे। अगर मैंने इस मुद्दे को नहीं सुलझाया, तो यह एक बाधा बन जाएगी जो मुझे परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते पर कदम रखने से रोक देगी। वास्तव में, अगर मेरा रवैया यही रहा और मेरा जीवन स्वभाव नहीं बदला, तो परमेश्वर मुझसे घृणा करेगा और आखिरकार मुझे हटा दिया जाएगा। मैंने पौलुस के बारे में सोचा, जिसने अपना पूरा जीवन परमेश्वर के लिए खुद को खपाने में लगा दिया, ताकि उसे मुकुट पहनाया जा सके और पुरस्कृत किया जा सके। अपने काम के दौरान उसने सत्य का पालन नहीं किया या खुद में स्वभावगत बदलाव नहीं ला पाया, और कई वर्षों तक काम करने के बावजूद, उसका शैतानी स्वभाव ज्यूँ का त्यूँ बना रहा। आखिरकार, उसे परमेश्वर द्वारा उसका विरोध करने के लिए दंडित किया गया। मैं पौलुस के ही मार्ग पर चल रही थी और अगर मैंने पश्चाताप नहीं किया, तो परमेश्वर मुझसे घृणा करेगा क्योंकि मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया और मुझे निकाल दिया जाएगा! मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेके और प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मुझे अब एहसास हुआ है कि मैं कितनी स्वार्थी और नीच हूँ। जब से मैं आस्था में आई हूँ, मैंने सिर्फ आशीष की कामना की है। मैं इस गलत मार्ग पर चलते रहना नहीं चाहती। मैं बस अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहती हूँ और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना चाहती हूँ।”

बाद में, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला, जिसने मुझे अपने कर्तव्यों को निभाने के अर्थ और मूल्य को बेहतर ढंग से समझने में मदद की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई व्यक्ति क्या कर्तव्य निभाता है, यह सबसे उचित काम है जो वह कर सकता है, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर और सबसे न्यायपूर्ण काम है। सृजित प्राणियों के रूप में, लोगों को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और केवल तभी वे सृष्टिकर्ता की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में जीते हैं और वे वह सब जो परमेश्वर द्वारा प्रदान किया जाता है और हर वह चीज जो परमेश्वर से आती है, स्वीकार करते हैं, इसलिए उन्हें अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायोचित है, और यह परमेश्वर का आदेश है। इससे यह देखा जा सकता है कि लोगों के लिए सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना धरती पर रहते हुए किए गए किसी भी अन्य काम से कहीं अधिक उचित, सुंदर और भद्र होता है; मानवजाति के बीचइससे अधिक सार्थक या योग्य कुछ भी नहीं होता, और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की तुलना में किसी सृजित व्यक्ति के जीवन के लिए अधिक अर्थपूर्ण और मूल्यवान अन्य कुछ भी नहीं है। पृथ्वी पर, सच्चाई और ईमानदारी से सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने वाले लोगों का समूह ही सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करने वाला होता है। यह समूह सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण नहीं करता; वे परमेश्वर की अगुआई और मार्गदर्शन के प्रति समर्पण करते हैं, केवल सृष्टिकर्ता के वचन सुनते हैं, सृष्टिकर्ता द्वारा व्यक्त किए गए सत्य स्वीकारते हैं, और सृष्टिकर्ता के वचनों के अनुसार जीते हैं। यह सबसे सच्ची, सबसे शानदार गवाही है, और यह परमेश्वर में विश्वास की सबसे अच्छी गवाही है। सृजित प्राणी के लिए एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने में सक्षम होना, सृष्टिकर्ता को संतुष्ट करने में सक्षम होना, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर चीज होती है, और यह कुछ ऐसा है जिसे एक कहानी के रूप में फैलाया जाना चाहिए जिसकी सभी लोग इसकी प्रशंसा करें। सृजित प्राणियों को सृष्टिकर्ता जो कुछ भी सौंपता है उसे बिना शर्त स्वीकार लेना चाहिए; मानवजाति के लिए यह खुशी और सौभाग्य दोनों की बात है, और उन सबके लिए, जो एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करते हैं, कुछ भी इससे अधिक सुंदर या स्मरणीय नहीं होता—यह एक सकारात्मक चीज़ है। ... एक सृजित प्राणी के रूप में, जब व्यक्ति सृष्टिकर्ता के सामने आता है, तो उसे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए। यही करना सबसे उचित है, और उसे यह जिम्मेदारी पूरी करनी ही चाहिए। इस आधार पर कि सृजित प्राणी अपने कर्तव्य निभाते हैं, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति के बीच और भी बड़ा कार्य किया है, और उसने लोगों पर कार्य का एक और चरण पूरा किया है। और वह कौन-सा कार्य है? वह मानवजाति को सत्य प्रदान करता है, जिससे उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए परमेश्वर से सत्य हासिल करने, और इस प्रकार अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने और शुद्ध होने का अवसर मिलता है। इस प्रकार, वे परमेश्वर के इरादों को पूरा कर पाते हैं और जीवन में सही मार्ग अपना पाते हैं, और अंततः, वे परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने, पूर्ण उद्धार प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं, और अब शैतान के दुखों के अधीन नहीं रहते हैं। यही वह प्रभाव है जो परमेश्वर चाहता है कि अपने कर्तव्य का निर्वहन करके मानवजाति अंततः प्राप्त करे(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। वास्तव में, जिस तरह बच्चों का अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्य और जिम्मेदारी होती है, उसी तरह सृजित प्राणियों के लिए भी कर्तव्य निभाना एक जिम्मेदारी है। अपना कर्तव्य निभाने में किसी भी तरह का लेन-देन नहीं होना चाहिए। मैं एक सृजित प्राणी हूँ, और परमेश्वर ने मुझे जीवन दिया है, मुझे वह सब दिया है जिसकी मुझे जरूरत है और अनुग्रह के साथ मुझे अपने सामने आने की अनुमति दी है ताकि मैं उसके वचनों की आपूर्ति पा सकूँ और एक कर्तव्य निभा सकूँ—यह परमेश्वर के प्रेम और दया का प्रतीक है। परमेश्वर को उम्मीद है कि मैं अपने कर्तव्य के दौरान सत्य की खोज करूँगी और जीवन प्रवेश करूँगी। वह चाहता है कि मेरे लिए उसके द्वारा बनाई गई परिस्थितियों के माध्यम से, मैं आत्म-चिंतन कर आत्म-ज्ञान प्राप्त करूँ, अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करूँ, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर कदम रखूँ, अपनी भ्रष्टता को छोड़ूँ और उससे उद्धार पाऊँ। मुझे आशीष पाने के अपने इरादे और इच्छा को छोड़ना था, अपना हृदय परमेश्वर को देना था, और परमेश्वर के हृदय को सुकून देने के लिए अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को ईमानदारी से पूरा करना था। उसके बाद, मुझे अपने कर्तव्य में बहुत अधिक स्वतंत्रता महसूस हुई; हालाँकि मैं अभी भी कई बार चौकन्नी रहती थी और परमेश्वर को गलत समझती थी, मैंने सचेत रहते हुए सत्य की खोज शुरू की, अपने खिलाफ विद्रोह किया, कलीसिया के हितों को प्राथमिकता दी, सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य किया, और कायर और सतर्क होने से परहेज किया। एक बार जब मैंने उस तरीके से अभ्यास करना शुरू किया, तो मुझे बहुत अधिक शांति और सहजता महसूस हुई।

इस पूरे अनुभव पर फिर से सोचते हुए, चाहे एक अगुआ के रूप में काम करना हो या बर्खास्त होना, मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ने इन सभी स्थितियों को सावधानीपूर्वक आयोजित किया था ताकि मैं आत्म-ज्ञान प्राप्त कर अपने भ्रष्टता को दूर कर सकूँ। यह परमेश्वर के वचनों का प्रबोधन और रोशनी थी जिससे मुझे अपने गलत विचारों, भ्रष्टता और अपने कर्तव्य में अशुद्धता को पहचानने का मौका मिला, मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के सच्चे इरादे को समझा, और आखिरकार अपनी गलतफहमी और सतर्कता से मुक्त हो गई।

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