63. रिपोर्ट से क्या हासिल हुआ
सन् 2019 की गर्मियों में, मैंने सुना था कि हमारी कलीसिया की एक अगुआ बहन जोसलिन ने भाई इलाय को सिंचन कार्य का सुपरवाइजर बनाया है, यह कहते हुए कि उसमें अच्छी काबिलियत है और सभाओं में उसकी संगति प्रबुद्ध करती है। मैं इस खबर से दंग रह गई थी। मैं उसके साथ काम कर चुकी थी और उसके बारे में काफी कुछ जानती थी। यह सच था कि वह अच्छी बातें कर लेता था और सभाओं में संगति के दौरान लगातार बोलता रहता था, पर अधिकांश बातों में केवल शब्द और सिद्धांत होते थे, जिनसे वास्तविक समस्याएँ हल नहीं होती थीं। वह बहुत अहंकारी भी था और सब कुछ मनमाने ढंग से करता था, दूसरों से चर्चा करने के बजाय वह खुद ही काम से जुड़े फैसले ले लेता था। इससे कुछ मुश्किलें पैदा हो गईं और कलीसिया के काम को नुकसान पहुंचा। एक बहन और मैंने कई बार उसे समझाने की कोशिश की, पर वह लगातार बहस करता था और इसे स्वीकार नहीं करता था, कभी आत्म-चिंतन नहीं करता था और अंततः उसने कोई बदलाव नहीं किया। कुछ समय बाद मुझे एहसास हुआ कि वह सिर्फ शब्दों और सिद्धांतों पर भाषण झाड़ता रहता है, पर सत्य को स्वीकार नहीं करता। कलीसिया में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को चुनने का सिद्धांत यह है कि उस व्यक्ति को सत्य की शुद्ध समझ होनी चाहिए, उनमें सत्य को स्वीकारने की क्षमता, जिम्मेदारी की भावना और अच्छी काबिलियत होनी चाहिए। इसके अलावा सिंचन कार्य के सुपरवाइजर को सत्य पर संगति के जरिए मुद्दों को सुलझाना और कुछ वास्तविक काम भी आना चाहिए। जोसलिन ने इलाय को सिंचन कार्य का सुपरवाइजर सिर्फ इसलिए बनाया था क्योंकि उसमें थोड़ी काबिलियत और बात करने का हुनर था। यह सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था। मैंने इस बारे में जितना सोचा, उतनी ही बेचैन हो जाती, मैं जोसलिन से मिलकर उसे अपने मन की बात बताना चाहती थी, पर मैं हिचकिचा जाती थी। मैंने मन में सोचा, “मुझे सिंचन कार्य के सुपरवाइजर पद से हाल ही में बरखास्त किया गया है। अगर मैं अगुआ द्वारा अभी-अभी चुने गए व्यक्ति पर आपत्ति करती हूँ तो मेरी कैसी छवि बनेगी? क्या लोग कहेंगे कि मुझे अभी-अभी इस कर्तव्य से बरखास्त किया गया है, इसलिए मैं अपनी जगह लेने वाले व्यक्ति से जल रही हूँ और पूरा दम लगाकर उसमें मीन-मेख निकाल रही हूँ। अगर वो कहेंगे कि मैं कलीसिया के काम में रुकावट डाल रही हूँ तो क्या होगा? जाने दो, अपनी टांग अड़ाकर मुसीबत मोल लेने के बजाय चीजों को सरल रखना बेहतर है।” इसलिए मैं जब मुँह खोलने ही वाली होती थी कि चुप हो जाती थी। बाद में मैंने सुना कि कुछ भाई-बहन भी पहले इलाय के साथ काम कर चुके थे और उन्हें लगता था कि वह कभी अपने कर्तव्य में कोई जिम्मेदारी नहीं लेता था और वह सुपरवाइजर के काम के लिए ठीक नहीं था। ये सुनकर मुझे और भी यकीन हो गया कि मैं उसके बारे में सही सोच रही थी और मैंने सोचा, “मुझे जोसलिन से जल्द-से-जल्द बात करनी चाहिए ताकि एक गलत व्यक्ति की वजह से कलीसिया के काम में देरी न हो। मगर उसी ने इलाय को नियुक्त किया था, इसलिए अगर मैं यह मुद्दा उठाती तो उसके मुँह पर उसी को दोष देना न होता? मैंने उसके साथ पहले काम किया है तो मैंने उसे काफी अहंकारी, आत्मतुष्ट और मनमानी करते पाया है। मैंने इन मामलों पर उससे बात की तो उसने न सिर्फ मानने से इनकार किया, बल्कि मुझे बुरी तरह फटकार भी लगाई। इसलिए अगर मैं उस व्यक्ति में समस्या का जिक्र करती हूँ, जिसे उसने अभी पदोन्नत किया है तो वह शायद सोचे कि मैं जानबूझकर अकड़ दिखा रही थी और उसे गिराना चाहती थी। फिर अगर वह मेरे पीछे पड़ गई तो मैं क्या करूँगी? मुझे याद है कि कुछ साल पहले जब मैंने और एक बहन ने एक अगुआ में कुछ कमियाँ बताई थीं, तो उसने हम पर गुट बनाकर उस पर हमला करने का आरोप लगा दिया था। इस बात पर मेरा काम छिन गया था। हालाँकि बाद में वह अगुआ एक मसीह-विरोधी के रूप में बेनकाब करके निकाल दिया गया, पर मुझे लंबे समय तक कोई कर्तव्य नहीं मिला क्योंकि एक मसीह-विरोधी मुझे रोक रहा था। मुझे डर है कि जोसलिन मेरी बताई समस्या को मानेगी नहीं और फिर मुझे किसी बहाने अपने कर्तव्य से दूर कर देगी। तब मैं क्या करूँगी? यह कर्तव्य निभाने का अहम समय है। अगर ऐसे समय में मैं कोई कर्तव्य निभाकर अच्छे कर्म न कर सकूँ, तो मुझे डर है कि मैं उद्धार का अपना अवसर खो दूँगी। तो क्या मैं सब कुछ नहीं खो दूँगी?” यह सोचकर मैंने यह मामला उठाने का ख्याल अपने दिमाग से निकाल दिया।
इसके बाद मैंने कुछ भाई-बहनों को यह कहते सुना कि इलाय जबसे सिंचन कार्य का सुपरवाइजर बना था, वह सभाओं में सिर्फ शब्दों और सिद्धांतों पर भाढण झाड़ रहा था और डींगें हांक रहा था, वह लोगों की असल समस्याएँ सुलझाने में कोई मदद नहीं कर रहा था। वह अपने कर्तव्य में कोई जिम्मेदारी भी नहीं उठा रहा था और उसके साथ जुड़े कुछ नए सदस्यों ने सभाओं में आना बंद कर दिया था क्योंकि वे कम्युनिस्ट पार्टी की अफवाहों से गुमराह हो गए थे। उसने समय रहते उन्हें संगति और मदद नहीं दी थी, इसलिए उनमें से कुछ आस्था छोड़ दी थी। यह सब सुनकर मुझे एहसास हुआ कि समस्या कितनी गंभीर थी। अगर वह सुपरवाइजर बना रहा तो इससे कलीसिया के कार्य को और ज्यादा नुकसान होगा और मुझे लगा कि मुझे जल्द-से-जल्द इसकी रिपोर्ट जोसलिन से करनी चाहिए। पर मैं उसे नाराज कर मुसीबत मोल लेने से डरती थी, इसलिए मैं बड़ी उलझन में थी : “मैं रिपोर्ट करूँ या नहीं? अगर करती हूँ तो मुझे खुद पर इसके असर का डर है, अगर नहीं करती हूँ तो मैं अपराध-बोध महसूस करूँगी। मैं सोचती हूँ कि मैं कैसे यह मुद्दा उठाऊँ कि मैं बची भी रहूँ और कुछ गलत भी न हो।” मैं इन ख्यालों में उलझी रही, मानो मकड़ी के जाले में फँसी हूँ, जो मुझे बेचैन और परेशान कर रहा था।
एक बार एक सभा में हमारे समूह अगुआ ने हमसे पूछा कि इलाय की तरक्की के बारे में हमारे क्या विचार हैं, अगर हैं तो उसे एक संदेश भेजकर बताएं। यह सुनते ही मैं झूम उठी और सोचने लगी, “यह बहुत अच्छा मौका था। वह आगे रहेगा और वह हमारे विचार इकट्ठे करके अगुआ से साझा कर देगा, तब अगुआ को पता भी नहीं चलेगा कि किसने क्या लिखा था। अगर वह खोजबीन करती भी है तो हमारा समूह अगुआ हमारा सुरक्षा-कवच होगा।” मैंने आखिर अपने हिसाब से समस्याओं के बारे में लिखकर उसे समूह अगुआ को थमा दिया। अगली सुबह उसने मुझे यह कहकर चौंका दिया कि मैंने जो रिपोर्ट किया था, वह उसने अगुआ को आगे भेज दिया है। मेरे तो होश ही उड़ गए कि उसने अगुआ से उन्हें पूरे समूह के विचारों की तरह साझा नहीं किया था। मैंने पूछा, “तुमने मेरा संदेश जोसलिन को सीधे ही क्यों भेज दिया?” मेरी जोरदार प्रतिक्रिया देखकर उसने मुझसे कहा, “सभी के विचार अगुआ को भेजे गए हैं और हमें अपने विचारों को लेकर ईमानदार होना चाहिए। चिंता की क्या बात है?” मैं समझ नहीं पाई कि इसका क्या जवाब दूँ। मैं यह सोचकर हैरान भी थी और थोड़ी शर्मिंदा भी कि “सही है। मैं क्यों इस मामले में ईमानदारी बरतने से इतना डर रही थी?” मैंने मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर के सम्मुख जाकर प्रार्थना की और आत्मचिंतन किया।
आत्मचिंतन के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें अंतरात्मा नहीं है और सामान्य मानवता का विवेक नहीं है? सीधे शब्दों में कहा जाये तो, वे ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें मानवता का अभाव है, वह बहुत ही खराब मानवता वाला व्यक्ति है। अधिक विस्तार में जाएँ तो ऐसा व्यक्ति किस लुप्त मानवता का प्रदर्शन करता है? विश्लेषण करो कि ऐसे लोगों में कैसे लक्षण पाए जाते हैं और वे कौन-से विशिष्ट प्रकटन दर्शाते हैं। (वे स्वार्थी और नीच होते हैं।) स्वार्थी और नीच लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं और अपने को उन चीजों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर के इरादों का लिहाज नहीं करते हैं। वे अपने कर्तव्य को करने या परमेश्वर की गवाही देने की कोई जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। ... कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ पर कोई जिम्मेदारी नहीं लेते। वे पता चलने वाली समस्याओं की रिपोर्ट भी तुरंत अपने वरिष्ठों को नहीं करते। लोगों को विघ्न-बाधा डालते देखकर वे आँखें मूँद लेते हैं। जब वे दुष्ट लोगों को बुराई करते देखते हैं, तो वे उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करते। वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, न ही इस बात पर विचार करते हैं कि उनका कर्तव्य और जिम्मेदारी क्या है। जब ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते; वे खुशामदी लोग हैं और सुविधा के लालची होते हैं; वे केवल अपने घमंड, साख, हैसियत और हितों के लिए बोलते और कार्य करते हैं, और वे अपना समय और प्रयास ऐसी चीजों में लगाना चाहते हैं, जिनसे उन्हें लाभ मिलता है। ऐसे इंसान के क्रियाकलाप और इरादे हर किसी को स्पष्ट होते हैं : जब भी उन्हें अपनी हैसियत दिखाने या आशीष प्राप्त करने का कोई मौका मिलता है, ये उभर आते हैं। लेकिन जब उन्हें अपनी हैसियत दिखाने का कोई मौका नहीं मिलता या जैसे ही कष्ट उठाने का समय आता है, वैसे ही वे उसी तरह नज़रों से ओझल हो जाते हैं जैसे कछुआ अपना सिर खोल में छिपा लेता है। क्या इस तरह के इंसान में अंतरात्मा और विवेक होता है? (नहीं।) क्या ऐसा बर्ताव करने वाले, ज़मीर और विवेक से रहित इंसान, आत्म-निंदा एहसास करता है? इस प्रकार के व्यक्ति में आत्म-निंदा की कोई भावना नहीं होती; इस प्रकार के इंसान की अंतरात्मा किसी काम की नहीं होती। उन्हें कभी भी अपनी अंतरात्मा से फटकार का एहसास नहीं होता, तो क्या वे पवित्र आत्मा की झिड़की या अनुशासन को महसूस कर सकते हैं? नहीं, वे नहीं कर सकते” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत हूबहू बयान कर दी। मैं जानती थी कि अगुआ सिद्धांतों के अनुसार लोगों को नियुक्त नहीं कर रही थी और मैंने पाया कि इलाय सुपरवाइजर के तौर पर वास्तविक काम नहीं कर रहा था और यह कि वह भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में बाधा बन रहा था। मुझे कलीसिया के काम की रक्षा करने के लिए आगे बढ़कर रिपोर्ट करनी चाहिए थी। यह परमेश्वर के चुने हुए व्यक्ति के नाते मेरा परम कर्तव्य था। पर इसके बजाय मुझे जोसलिन की नाराजगी और अपने कर्तव्य से हटाए जाने का डर था, इसलिए मैंने मामले से आँखें मूँद ली थीं। भले ही मैंने अपने विचार लिखकर समूह अगुआ से साझा किए थे, पर मैं नहीं चाहती थी कि जोसलिन को पता चले कि यह मैंने लिखा है और मुझे डर था कि इससे मेरे लिए मुसीबत न खड़ी हो जाए। मुझे एहसास हुआ कि मैं हर मामले में अपने भले के बारे में सोच रही थी, कलीसिया के हितों को बचाने के बारे में बिल्कुल नहीं सोच रही थी। मुझमें अंतरात्मा और तर्क की कितनी कमी थी। मुझे परमेश्वर के वचनों से सिंचन और पोषण का कितना आनंद मिला है, पर जब कलीसिया के काम पर आंच आई, तो मैं सिर्फ खुद को बचाने की सोचती रही। परमेश्वर के लिए मेरी कोई निष्ठा नहीं थी। मैंने जिस थाली में खाया उसी में छेद किया। मुझमें मानवता नाम की चीज ही नहीं थी। मैं जितना सोचा उतना ही मुझे अपराधबोध महसूस हुआ और मैंने सोचा : “ऐसे मामले से सामना होने पर मैं इतनी भयभीत और चिंतित क्यों हो गई? सिर्फ एक सच्ची बात कहना भी मेरे लिए इतना मुश्किल हो गया—मैं किस तरह के स्वभाव के वश में थी?”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे सब कुछ साफ हो गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का केवल संकल्प और इच्छा ही होती है; सत्य उनका जीवन नहीं बना है। इसके परिणाम स्वरूप, जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे राक्षसी लोगों या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह कलीसिया के कार्य में बाधा पड़ती है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फ़िर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? दोनों में से कुछ नहीं; यह मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभावों द्वारा बेबस होने का परिणाम है। तुम्हारे द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों में से एक है कपटी स्वभाव; जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो पहली चीज जो तुम सोचते हो वह है तुम्हारे हित, पहली चीज जिस पर तुम विचार करते हो वह है नतीजे, कि यह तुम्हारे लिए फायदेमंद होगा या नहीं। यह एक कपटी स्वभाव है, है न? दूसरा है स्वार्थी और नीच स्वभाव। तुम सोचते हो, ‘परमेश्वर के घर के हितों के नुकसान से मेरा क्या लेना-देना? मैं कोई अगुआ नहीं हूँ, तो मुझे इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए? इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है।’ ऐसे विचार और शब्द तुम सचेतन रूप से नहीं सोचते, बल्कि ये तुम्हारे अवचेतन द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं—जो वह भ्रष्ट स्वभाव है जो तब दिखता है जब लोग किसी समस्या का सामना करते हैं। ऐसे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे सोचने के तरीके को नियंत्रित करते हैं, वे तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देते हैं और तुम जो कहते हो उसे नियंत्रित करते हैं। अपने दिल में, तुम खड़े होकर बोलना चाहते हो, लेकिन तुम्हें आशंकाएँ होती हैं, और जब तुम बोलते भी हो, तो इधर-उधर की हाँकते हो, और बात बदलने की गुंजाइश छोड़ देते हो, या फिर टाल-मटोल करते हो और सत्य नहीं बताते। स्पष्टदर्शी लोग इसे देख सकते हैं; वास्तव में, तुम अपने दिल में जानते हो कि तुमने वह सब नहीं कहा जो तुम्हें कहना चाहिए था, कि तुमने जो कहा उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, कि तुम सिर्फ बेमन से कह रहे थे, और समस्या हल नहीं हुई है। तुमने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है, फिर भी तुम खुल्लमखुल्ला कहते हो कि तुमने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है, या जो कुछ हो रहा था वह तुम्हारे लिए अस्पष्ट था। क्या यह सच है? और क्या तुम सचमुच यही सोचते हो? क्या तब तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव के नियंत्रण में नहीं हो? भले ही तुम जो कुछ कहते हो उसका कुछ हिस्सा तथ्यों के अनुरूप हो, लेकिन मुख्य स्थानों और महत्वपूर्ण मुद्दों पर तुम झूठ बोलते हो और लोगों को धोखा देते हो, जो साबित करता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो झूठ बोलता है, और जो अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीता है। तुम जो कुछ भी कहते और सोचते हो, वह तुम्हारे मस्तिष्क द्वारा संसाधित किया गया होता है, जिससे तुम्हारा हर कथन नकली, खोखला, झूठा हो जाता है; वास्तव में, तुम जो कुछ भी कहते हो वह तथ्यों के विपरीत, खुद को सही ठहराने की खातिर, अपने फायदे के लिए होता है, और तुम्हें लगता है कि जब तुम लोगों को गुमराह करते हो और उन्हें विश्वास दिला देते हो, तो तुम अपने लक्ष्य हासिल कर लेते हो। ऐसा है तुम्हारे बोलने का तरीका; यह तुम्हारा स्वभाव भी दर्शाता है। तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव से नियंत्रित हो। तुम जो कहते और करते हो, उस पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं होता। यहाँ तक कि अगर तुम चाहते भी, तो भी तुम सच न बता पाते या वह न कह पाते जो तुम वास्तव में सोचते हो; चाहकर भी तुम सत्य का अभ्यास न कर पाते; चाहकर भी तुम अपनी जिम्मेदारियाँ न निभा पाते” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मेरी समझ में आया कि मैं इसलिए सत्य का अभ्यास नहीं कर रही थी या कलीसिया के काम की रक्षा नहीं कर रही थी क्योंकि मैं प्रकृति से कपटी, स्वार्थी और नीच थी। मैंने इस बारे में सोचा कि मैं जानती थी कि इलाय की नियुक्ति में जोसलिन ने सिद्धांतों का पालन नहीं किया था और कैसे वह कोई वास्तविक काम न करने के कारण कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचा रहा था। यह सब मेरे सामने दिन के उजाले की तरह साफ था और मुझे पता था कि मुझे इस बारे में बताना चाहिए कि यह कलीसिया के काम के हित में होगा, कि इससे हरेक को जीवन प्रवेश में फायदा होगा, पर मैं कभी भी आगे बढ़कर कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। तब जब मेरे समूह अगुआ ने पहल की तो मैंने आखिरकार अपने विचार लिख दिए, लेकिन यह पता चलते ही कि उसने उन्हें सीधे अगुआ को भेज दिया है, मैं चिड़चिड़ा गई और सोचने लगी कि उसने मुझे उजागर कर दिया है। मैं यही तरकीब निकालने के लिए दिमाग लगा रही थी कि अपने-आपको कैसे बचाऊँ, ताकि मुझ पर कोई आंच न आए। मैं ऐसे शैतानी फलसफों के अनुसार चल रही थी कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “चीजों को वैसे ही चलने दो अगर वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित न करती हों,” “समझदार लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं, वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं,” और “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।” ये बातें मेरे विचारों पर छाई हुई थीं और मुझे अपने वश में किए हुए थीं, जिससे मैं धूर्त और कपटी बन गई थी। हालाँकि मुझमें आस्था थी, मैं परमेश्वर के वचन पढ़ती थी, मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई भी जगह नहीं थी। मैं किसी असली हालात पर शायद ही कोई सच्ची बात कह सकती थी या रोशनी डाल सकती थी। मैं शैतान की गोद में खेल रही थी और एक गई-गुजरी जिंदगी जी रही थी। मैं स्वार्थी और घृणित थी और मुझमें मानवता का अंश तक नहीं था। इसने परमेश्वर को मुझसे घृणा करने को मजबूर कर दिया। मुझे बहुत पछतावा होने लगा और मैंने परमेश्वर से मौन प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं कितनी स्वार्थी और कपटी हूँ। समस्या देखकर भी मैं जिम्मेदारी लेने से कतराती रही और मैं न सत्य का अभ्यास कर रही थी न कलीसिया के काम की रक्षा कर रही थी। मैं गए-गुजरे ढंग से जी रही थी। परमेश्वर, मैं इस तरह और नहीं जीना चाहती। मैं सत्य का अभ्यास कर तुम्हें संतुष्ट करना चाहती हूँ।” प्रार्थना के बाद मेरा आत्मविश्वास थोड़ा बढ़ा, मैंने यह चिंता करनी छोड़ दी कि मेरी रिपोर्ट पढ़ने के बाद जोसलिन की क्या प्रतिक्रिया होगी।
मैंने सोचा था कि अपनी समस्याओं के बारे में हमारी रिपोर्ट पढ़ने के बाद जोसलिन को पता चल जाएगा कि वह इलाय को नियुक्त करने के बारे में सिद्धांतों का उल्लंघन कर रही थी, पर उसने न तो आत्मचिंतन किया और न इलाय को तुरंत बरखास्त किया। इसके अलावा, मैंने पाया कि वह वास्तविक रूप में धीमे या अप्रभावी परियोजनाओं की समस्याओं से भी नहीं निपट रही थी। मैंने सोचा : “वह सत्य को स्वीकार नहीं करती और न कोई असली काम करती है, इसलिए झूठे अगुआओं की पहचान के सिद्धांतों के आधार पर ऐसा लगता है कि वह भी वैसी ही है।” मैं ऊपर के स्तर पर इसकी रिपोर्ट करना चाहती थी, पर मैं फिर यह सोचकर हिचकिचाने लगी, “अगर उसे पता चल गया तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगी? अगर उसे बरखास्त न किया गया और अगुआ बनी रही, तो क्या वह मुझे दबाने के बहाने नहीं तलाशेगी? कोई बात नहीं। बदलाव या वास्तविक काम से इनकार करना उसकी समस्या है, इसलिए मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहिए और फिर देखते हैं कि क्या होता है।” इसलिए मैंने मामले को जस का तस छोड़ दिया।
कुछ दिन बाद मैंने सुना कि किसी दूसरी कलीसिया का अगुआ मसीह-विरोधी के रूप में बेनकाब हो गया और निकाल दिया गया। उसने एक अगुआ के रूप में काफी कुकर्म किए थे और हर किसी को पता था, पर कोई भी कुछ कहने से डरता था। पूरी कलीसिया में किसी एक ने भी उसकी शिकायत नहीं की, उसके उजागर होने और निकाल दिए जाने के बाद भी वे उसके बुरे कामों को सामने नहीं लाए। वे अनजान होने का दावा कर दूसरों पर दोष मढ़ते रहे। वे सब उस मसीह-विरोधी का पक्ष लेकर उसे बचा रहे थे, शैतान के सहयोगी बनकर परमेश्वर का विरोध कर रहे थे, जिससे सचमुच परमेश्वर के स्वभाव का अपमान हुआ। नतीजा यह हुआ कि पूरी कलीसिया को अलग-थलग कर दिया गया ताकि वे आत्मचिंतन कर सकें। इसका मुझ पर बहुत गहरा असर हुआ और मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आ गए : “यदि कलीसिया में ऐसा कोई भी नहीं है जो सत्य का अभ्यास करने का इच्छुक हो, और परमेश्वर की गवाही में दृढ़ रह सकता हो, तो उस कलीसिया को पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया जाना चाहिए और अन्य कलीसियाओं के साथ उसके संबंध समाप्त कर दिये जाने चाहिए। इसे ‘मृत्यु दफ़्न करना’ कहते हैं; इसी का अर्थ है शैतान को ठुकराना। यदि किसी कलीसिया में कई स्थानीय गुण्डे हैं, और कुछ ‘छोटी-मोटी मक्खियों’ द्वारा उनका अनुसरण किया जाता है जिनमें विवेक का पूर्णतः अभाव है, और यदि ऐसी कलीसियाओं में लोग, सच्चाई जान लेने के बाद भी, इन गुण्डों की जकड़न और तिकड़म को नकार नहीं पाते, तो उन सभी मूर्खों को अंत में निकाल दिया जायेगा। भले ही इन छोटी-छोटी मक्खियों ने कुछ खौफनाक न किया हो, लेकिन ये और भी धूर्त, ज़्यादा मक्कार और कपटी होती हैं, इस तरह के सभी लोगों को निकाल दिया जाएगा। एक भी नहीं बचेगा! जो शैतान से जुड़े हैं, उन्हें शैतान के पास भेज दिया जाएगा, जबकि जो परमेश्वर से संबंधित हैं, वे निश्चित रूप से सत्य की खोज में चले जाएँगे; यह उनकी प्रकृति के अनुसार तय होता है। उन सभी को नष्ट हो जाने दो जो शैतान का अनुसरण करते हैं! इन लोगों के प्रति कोई दया-भाव नहीं दिखाया जायेगा। जो सत्य के खोजी हैं उनका भरण-पोषण होने दो और वे अपने हृदय के तृप्त होने तक परमेश्वर के वचनों में आनंद प्राप्त करें। परमेश्वर धार्मिक है; वह किसी से पक्षपात नहीं करता। यदि तुम शैतान हो, तो तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते; और यदि तुम सत्य की खोज करने वाले हो, तो यह निश्चित है कि तुम शैतान के बंदी नहीं बनोगे—इसमें कोई संदेह नहीं है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचनों से, मुझे उसके प्रतापी, धार्मिक स्वभाव का पता चला जो अपमान बर्दाश्त नहीं करता, मैंने सत्य को व्यवहार में न लाने वालों के लिए उसके कोप को भी जाना। भले ही ऊपर से ऐसा प्रतीत होता हो कि उन्होंने सचमुच कोई दुष्टता नहीं की है, पर वे देखते रहे जब मसीह-विरोधी बुराई कर रहा था और उन्होंने उसकी रिपोर्ट कर उसे उजागर करने के लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने मसीह-विरोधी को मनमानी करने, कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाने दिया, पर उंगली तक नहीं उठाई। वे मसीह-विरोधी को बचा रहे थे और शैतान के साथी थे। यह मसीह-विरोधी का बुराई में साथ देना था और इसने परमेश्वर के स्वभाव को गंभीर रूप से अपमानित किया। क्या मैं एकदम ऐसी ही नहीं थी? मैंने परमेश्वर के कितने ही वचन पढ़े थे और कुछ विवेक भी प्राप्त किया था। मैंने देखा था कि अगुआ व्यक्ति के चुनाव में सिद्धांत का पालन नहीं कर रही थी, सत्य को नहीं स्वीकार सकी थी और इससे भी ज्यादा उसने वास्तविक काम नहीं किया था, जो पहले ही कलीसिया के काम में अड़चन बन गया था। मैंने देखा कि वह एक झूठी अगुआ थी। पर मुझे उसकी नाराजगी से डर लगता था कि वह मुझे दबाएगी, इसलिए मैंने यूँ ही चलने दिया क्योंकि इसका मुझ पर निजी तौर पर कोई असर नहीं था। मैंने सोचा कि बदलना या न बदलना उसका मामला था, इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं। मुझे परमेश्वर से इतना पोषण मिला था, पर मैंने जिस थाली में खाया उसी में छेद किया और शैतान के साथ खड़ी हो गई। मैंने कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचते देखा, फिर भी कुछ नहीं किया। क्या मैं शैतान की तरह ही नहीं थी? हालाँकि मैं एक कर्तव्य निभा रही थी, पर परमेश्वर की नज़र मेरी हर छोटी-से-छोटी हरकत पर थी। मैं जानती थी कि अगर मैंने प्रायश्चित्त नहीं किया, तो परमेश्वर घृणा कर मुझे हटा देगा। यह मेरे लिए बड़ा डरावना विचार था। मैं फौरन ही परमेश्वर से प्रार्थना करके प्रायश्चित्त करने लगी : “परमेश्वर, मैंने एक झूठे अगुआ को इस तरह काम करते देखा, जो सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है और कलीसिया के काम को बाधित कर रहा है, पर मैंने उसे उजागर कर उसकी रिपोर्ट नहीं की, ताकि खुद को बचा सकूँ। मैं शैतान की साथी रही हूँ। मैं कितनी विद्रोही और घृणित हूँ। परमेश्वर, मैं प्रायश्चित्त करना चाहती हूँ।”
बाद में मैंने सोचा, “मैं अगुआ की रिपोर्ट करने से इतना डर क्यों रही थी? मुझे किस चीज का डर था?” प्रार्थना और खोज के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े, जिनसे इस मामले को समझने में मुझे मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “किसी अगुआ या कार्यकर्ता के साथ पेश आने के तरीके के संबंध में लोगों का क्या रवैया होना चाहिए? कोई अगुआ या कार्यकर्ता जो करता है, अगर वह सही और सत्य के अनुरूप हो, तो तुम उसका आज्ञापालन कर सकते हो; अगर वह जो करता है वह गलत है और सत्य के अनुरूप नहीं है, तो तुम्हें उसका आज्ञापालन नहीं करना चाहिए और तुम उसे उजागर कर सकते हो, उसका विरोध कर एक अलग राय रख सकते हो। अगर वह वास्तविक कार्य करने में असमर्थ हो या कलीसिया के काम में बाधा डालने वाले बुरे कार्य करता हो, और पता चल जाता है कि वह एक नकली अगुआ, नकली कार्यकर्ता या मसीह-विरोधी है, तो तुम उसे पहचानकर उजागर कर सकते हो और उसकी रिपोर्ट कर सकते हो। लेकिन, परमेश्वर के कुछ चुने हुए लोग सत्य नहीं समझते और विशेष रूप से कायर होते हैं। वे नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों द्वारा दबाए और सताए जाने से डरते हैं, इसलिए वे सिद्धांत पर बने रहने की हिम्मत नहीं करते। वे कहते हैं, ‘अगर अगुआ मुझे बाहर निकाल दे, तो मैं खत्म हो जाऊँगा; अगर वह सभी लोगों से मुझे उजागर करवा दे या मेरा त्याग करवा दे, तो फिर मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं कर पाऊँगा। अगर मुझे कलीसिया से निकाल दिया गया, तो फिर परमेश्वर मुझे नहीं चाहेगा और मुझे नहीं बचाएगा। और क्या मेरी आस्था व्यर्थ नहीं चली जाएगी?’ क्या ऐसी सोच हास्यास्पद नहीं है? क्या ऐसे लोगों की परमेश्वर में सच्ची आस्था होती है? कोई नकली अगुआ या मसीह-विरोधी जब तुम्हें निकाल देता है, तो क्या वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर रहा होता है? जब कोई नकली अगुआ या मसीह-विरोधी तुम्हें दंडित कर निकाल देता है, तो यह शैतान का काम होता है, और इसका परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं होता; जब लोगों को कलीसिया से निकाला या निष्कासित किया जाता है, तो यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप सिर्फ तभी होता है, जब यह कलीसिया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच एक संयुक्त निर्णय होता है, और जब निकालना या निष्कासन पूरी तरह से परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं और परमेश्वर के वचनों के सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होता है। किसी नकली अगुआ या मसीह-विरोधी द्वारा निष्कासित किए जाने का यह अर्थ कैसे हो सकता है कि तुम्हें बचाया नहीं जा सकता? यह शैतान और मसीह-विरोधी द्वारा किया जाने वाला उत्पीड़न है, और इसका यह मतलब नहीं कि परमेश्वर द्वारा तुम्हें बचाया नहीं जाएगा। तुम्हें बचाया जा सकता है या नहीं, यह परमेश्वर पर निर्भर करता है। कोई इंसान यह निर्णय लेने के योग्य नहीं कि तुम्हें परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है या नहीं। तुम्हें इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए। और नकली अगुआ और मसीह-विरोधी द्वारा तुम्हारे निष्कासन को परमेश्वर द्वारा किया गया निष्कासन मानना—क्या यह परमेश्वर की गलत व्याख्या करना नहीं है? बेशक है। और यह परमेश्वर की गलत व्याख्या करना ही नहीं है, बल्कि परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करना भी है। यह एक तरह से परमेश्वर की निंदा भी है। और क्या परमेश्वर की इस तरह गलत व्याख्या करना अज्ञानतापूर्ण और मूर्खता नहीं है? जब कोई नकली अगुआ या मसीह-विरोधी तुम्हें निष्कासित करता है, तो तुम सत्य क्यों नहीं खोजते? कुछ विवेक प्राप्त करने के लिए तुम किसी ऐसे व्यक्ति को क्यों नहीं खोजते, जो सत्य समझता हो? और तुमने उच्च अधिकारियों को इसकी रिपोर्ट क्यों नहीं करते? यह साबित करता है कि तुम्हें इस बात पर विश्वास नहीं है कि परमेश्वर के घर में सत्य सर्वोच्च है, यह दर्शाता है कि तुम्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं है, कि तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करता है। अगर तुम परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता पर भरोसा करते हो, तो तुम नकली अगुआ या मसीह-विरोधी के प्रतिशोध से क्यों डरते हो? क्या वे तुम्हारे भाग्य का निर्धारण कर सकते हैं? अगर तुम भलीभाँति समझने, और यह पता लगाने में सक्षम हो कि उनके कार्य सत्य के विपरीत हैं, तो परमेश्वर के उन चुने हुए लोगों के साथ संगति क्यों नहीं करते जो सत्य समझते हैं? तुम्हारे पास मुँह है, तो तुम बोलने की हिम्मत क्यों नहीं करते? तुम नकली अगुआ या मसीह-विरोधी से इतना क्यों डरते हो? यह साबित करता है कि तुम कायर, बेकार, शैतान के अनुचर हो। अगर किसी झूठे नेता या मसीह-विरोधी द्वारा धमकी दिए जाने पर, तुम उच्च अधिकारियों को इसकी रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं करते, तो इससे पता चलता है कि तुम पहले से ही शैतान से बंधे हुए हो और तुम उनके साथ एक दिल हो; क्या यह शैतान का अनुसरण करना नहीं है? ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक कैसे हो सकता है? सीधे-सरल रूप में कहें तो वह नीच है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद तीन : सत्य का अनुसरण करने वालों को वे निकाल देते हैं और उन पर आक्रमण करते हैं)। “परमेश्वर के सभी कार्य या मानवता के गंतव्य से संबंधित वचन प्रत्येक व्यक्ति के सार के अनुसार उचित रूप से लोगों के साथ व्यवहार करेंगे; थोड़ी-सी भी त्रुटि नहीं होगी और एक भी ग़लती नहीं की जाएगी। केवल जब लोग कार्य करते हैं, तब ही मनुष्य की भावनाएँ या अर्थ उसमें मिश्रित होते हैं। परमेश्वर जो कार्य करता है, वह सबसे अधिक उपयुक्त होता है; वह निश्चित तौर पर किसी सृजित प्राणी के विरुद्ध झूठे दावे नहीं करता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। इसे पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि मैंने अगुआ की समस्या की रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं की क्योंकि मेरा नजरिया भ्रामक था। मुझे लगता था एक अगुआ मेरा भविष्य और भाग्य तय कर सकती है, इसलिए अगर मैंने उसे नाराज किया और उसने मुझे दबाया और कर्तव्य नहीं करने दिया तो मैं उद्धार की सारी उम्मीद ही खो दूँगी। मैं अगुआओं को परमेश्वर से ऊपर रख रही थी। मैं किस तरह सच्ची विश्वासी थी? इंसान का भाग्य परमेश्वर के हाथ में है। मेरा अंतिम परिणाम क्या है और क्या मुझे बचाया जाएगा, यह पूरी तरह परमेश्वर के हाथ में है। यह कोई इंसान तय नहीं करता। हालांकि एक अगुआ के काम पर उंगली उठाने के लिए मुझसे पहले भी बुरा व्यवहार किया गया था, पर बाद में भाई-बहनों को एहसास हुआ कि वह एक मसीह-विरोधी था और उसे कलीसिया से हटा दिया गया था। कुछ समय तक एक मसीह-विरोधी के अनुचित दमन के बावजूद मैंने उद्धार का अवसर नहीं खोया था, उल्टे मसीह-विरोधियों के बारे में मुझमें विवेक पैदा हो गया था और मैंने कुछ सबक सीखे थे। कुछ भाई-बहन हैं जो कलीसिया के काम को बचाने के लिए झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को उजागर कर उनकी रिपोर्ट करते हैं, फिर झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी उनका दमन करते और उनके पीछे पड़ जाते हैं। उनमें से कुछ को कलीसिया से निकाल भी दिया जाता है, पर चूँकि उनमें सच्ची आस्था होती है और वे निरंतर सुसमाचार फैलाते और अपना कर्तव्य निभाते रहते हैं, तो उन्हें पवित्र आत्मा का कार्य और परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है। वे अब भी अच्छे कर्म तैयार कर उद्धार पा सकते हैं। जब मसीह-विरोधियों को उजागर करके हटाया जाता है, तो उन्हें वापस कलीसिया में ले लिया जाता है। इससे मुझे परमेश्वर की धार्मिकता और उसके घर में सत्य के राज का पता चला; हर चीज पर परमेश्वर का राज है। मैं उस कलीसिया के बारे में फिर सोचने लगी जहाँ एक भी व्यक्ति ने मसीह-विरोधी को उजागर नहीं किया और हरेक ने बस उसके कुकर्मों से आँखें मूँदे रखीं, जो खुद उन पर असर न करे उसे अनदेखा करते रहे, मसीह-विरोधी को कलीसिया को बाधित करने की खुली छूट दे दी। भले ही उन्हें दबाया नहीं गया और वे कलीसिया में अपना कर्तव्य करते रहे, वे एक मसीह-विरोधी का पक्ष लेकर परमेश्वर के खिलाफ खड़े हो गए थे। आखिर में पूरे कलीसिया से परमेश्वर ने घृणा कर उसे ठुकरा दिया। यह सोचते हुए मुझे विश्वास हो गया कि झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों की रिपोर्ट न करना शैतान को बचाना और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाना है और जब वे कलीसिया के काम को बिगाड़ रहे हों तब उनकी रिपोर्ट न करना परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करना है। मैं डर-सी गई और सच में मुझे खुद से नफरत होने लगी। इससे मुझे सत्य को व्यवहार में लाने की प्रेरणा मिली।
मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश के बारे में सोचा : “हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम वफादार रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्हें इन चीज़ों के बारे में अवश्य विचार करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का रास्ता दिखाया। इस मामले में मुझे कलीसिया के हितों को सबसे पहले रखना था, उसे प्राथमिकता देनी थी और सचेत रहकर अपनी गलत मंशाओं के विरुद्ध विद्रोह करना था। मुझे अपने निजी हितों को पहले रखने से बचना था। इसलिए मैंने जो समस्याएँ देखी थीं, उन्हें लिखकर ऊँचे अगुआ से शिकायत की तैयारी कर ली। तभी कुछ दूसरी बहनों ने मुझे बताया कि उन्होंने भी देखा था कि जोसलिन वास्तविक काम नहीं करती, उसने कलीसिया में लंबे समय से चल रही समस्याओं को नहीं सुलझाया था, मनमाने ढंग से लोगों को पदोन्नत किया था और वह कुछ खराब काबिलियत वाले लोगों को बरखास्त करने से इनकार करती रहती थी, जो अपने काम में अकुशल थे और जो लंबे समय से अपने कर्तव्य में लापरवाह रहे थे, इसके लिए उसके पास बहाना यह होता था कि कोई अच्छा उम्मीदवार नहीं मिल पा रहा है। इससे कलीसिया के काम को बहुत नुकसान पहुँचा। सिद्धांतों के अनुसार जोसलिन एक झूठी अगुआ थी। इसलिए हम सबने मिल-जुल कर उसकी शिकायत का पत्र लिखकर एक अगुआ को सौंप दिया।
बाद में, ऊपर के अगुआओं ने मामले की जाँच की, तो उन्होंने पाया कि जोसलिन ने कभी कोई वास्तविक काम नहीं किया था, उसका रवैया तानाशाही का था और दूसरों को काबू में रखने के लिए अपने रुतबे का इस्तेमाल करती थी। उसकी एक झूठे अगुआ के रूप में पहचान हो गई और उसे हटा दिया गया। इलाय को भी सिंचन कार्य के सुपरवाइजर के तौर पर अयोग्य पाकर किसी दूसरे काम में लगा दिया गया। मामले के इस नतीजे का पता चलते ही मेरे मन में तरह-तरह की भावनाएँ उमड़ने लगीं। मैंने देखा कि परमेश्वर के घर में सचमुच मसीह और सत्य का बोलबाला है, सत्य को व्यवहार में लाने को लेकर मेरा आत्म-विश्वास और भी बढ़ गया। मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गई। मैं परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और मार्गदर्शन के लिए सचमुच आभारी हूँ, जिसने धीरे-धीरे मुझे शैतानी फलसफों के नियंत्रण और बंधनों से मुक्त किया और मुझमें इतनी हिम्मत जगाई कि मैं सत्य का अभ्यास कर सकूँ, एक झूठे अगुआ की शिकायत कर सकूँ और कुछ सम्मान से जी सकूँ!