71. ज्ञान का अभाव कोई बहाना नहीं है
मई 2021 में, मुझे कलीसिया अगुआ के तौर पर सेवा के लिए चुना गया था और हमारे वीडियो प्रोडक्शन के काम का प्रभारी बना दिया गया। मैं इस जिम्मेदारी को लेकर थोड़ी चिंतित थी और सोच रही थी, “मैंने पहले थोड़ा-बहुत वीडियो प्रोडक्शन का काम किया जरूर है, लेकिन इसमें मुझे कोई खास महारत हासिल नहीं है। क्या मैं वाकई इस काम का निरीक्षण अच्छे से कर पाऊँगी? अगर मेरा काम अच्छा नहीं रहा और मुझे हटा दिया गया, तो भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? इसके अलावा, मैं जिन लोगों का निरीक्षण कर रही हूँ, उन सबको मुझसे अधिक तकनीकी ज्ञान है—अगर मैं उनके काम से जुड़ी समस्या नहीं समझ पाई और कोई ठोस सुझाव नहीं दे पाई, तो पक्का उन्हें लगेगा कि मैं अनाड़ी हूँ और प्रभावी पर्यवेक्षक नहीं हूँ और अगुआ बनने लायक नहीं हूँ।” इस बात ने मुझे थोड़ा चिंतित कर दिया, लेकिन मुझे पता था कि पहले मुझे यह नया कार्य स्वीकारना चाहिए और कलीसिया की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो जाना चाहिए।
काम को जल्दी से जल्दी आगे बढ़ाने के लिए मैं भाई-बहनों के बीच काम को लेकर होने वाली चर्चाओं में बैठती। शुरू में तो मैं उनकी बातें ध्यान से सुनती, लेकिन धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि मैं उनके काम से जुड़ी बहुत-सी तकनीकी चीजें समझ नहीं पा रही हूँ और कोई योगदान नहीं दे पा रही हूँ। मुझे यही चिंता थी कि अगर भाई-बहनों ने मुझसे मेरी राय पूछी और मैं कोई ठोस सुझाव नहीं दे पाई, तो उन्हें लगेगा कि मैं अपनी क्षमताओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही हूँ, जब मुझे खुद ही उन चीजों की कोई समझ नहीं है, तो मैं उनके काम की क्या जाँच करूँगी। मेरे बारे में उनकी कोई अच्छी राय नहीं बनेगी। अगुआ के रूप में अपनी छवि बनाए रखने के लिए, परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ को साझा करने के अलावा, मैं सभाओं और हमारी चर्चाओं तथा काम के अवलोकन के दौरान एक शब्द भी नहीं बोलती थी। मैं वीडियो निर्माण के व्यावसायिक पक्ष से संबंधित चर्चाओं में भाग लेना या उन पर ध्यान देना नहीं चाहती थी। मैंने दायित्व लेना एकदम बंद कर दिया था और हमेशा यही सोचती, “मुझे वैसे भी चीजों के तकनीकी पक्ष की कोई समझ तो है नहीं, इसलिए अगर उनके जीवन प्रवेश में कोई दिक्कत आती है तो बस उसे हल करूँगी। जहाँ तक तकनीकी मुद्दों का सवाल है, मैं उन्हें केवल परमेश्वर पर भरोसा और प्रार्थना करने और आपस में चर्चा करने पर छोड़ देती हूँ।” मुझे याद है एक बार एक बहन एक वीडियो पर काम कर रही थी, उसने सुझाव माँगने के लिए वीडियो समूह को भेजा। उस समय मुझे लगा कि चूँकि मुझे प्रोडक्शन के तकनीकी पक्ष की समझ नहीं है, मैं वीडियो में कोई समस्या नहीं ढूँढ पाऊँगी, अगर मैंने सबके सामने कुछ गलत कह दिया, तो इज्जत चली जाएगी। तो सोचा कि मैं कोई सुझाव नहीं दूँगी और वीडियो को बारीकी से नहीं देखा। उसके बाद एक समूह अगुआ को उस बहन के वीडियो में कोई समस्या नजर आई और मुझसे पूछा कि मैंने उस पर ध्यान दिया क्या। मुझे शर्मिंदगी हुई क्योंकि मैंने वीडियो को ध्यान से नहीं देखा था। कोई मुझे ढूँढ न पाए, इसलिए मैंने सारी चर्चाओं के अंत तक इंतजार करती ताकि सबने जो कुछ कहा है उसका अवलोकन कर सारांश दे सकूँ या मैं संक्षेप में बेमन से कोई बात जोड़ देती, जैसे, “जो कुछ भी कहा गया है मैं उससे काफी हद तक सहमत हूँ, मेरे पास और कुछ जोड़ने के लिए नहीं है।” मैंने पूरी सभा के दौरान शायद ही कुछ कहा हो, मुझे बहुत ही शर्मिंदगी और पीड़ा हुई—मुझे यहाँ तक लगा कि मेरी वहाँ कोई जरूरत ही नहीं थी। उसके बाद तो मैंने काम के तकनीकी पहलुओं से और भी ज्यादा बचना शुरू कर दिया। मैं शायद ही कभी समूह के अगुआ के काम की जाँच करती। सभाओं के दौरान मैं बस लोगों की मौजूदा अवस्था का अंदाजा लेती, यह देखती कि वे अपने कार्य में भार वहन कर रहे हैं या सिर्फ औपचारिकता निभा रहे हैं। जहाँ तक उनके वीडियो निर्माण से जुड़ी समस्याओं और मुद्दों की बात थी, मैंने यह सोचकर उसके विस्तार में जाने की जहमत नहीं उठाई कि समूह अगुआ इसे संभाल सकता है और सही तकनीकी कौशल वाले लोग इन समस्याओं को हल कर लेंगे। अगर मैं उनकी समस्याओं को हल नहीं भी कर पाई, तो इससे निकम्मी के तौर पर उजागर होने से भी बच जाऊँगी। अपनी यह छवि बनाने के लिए कि मैं कुछ वास्तविक कार्य तो कर ही सकती हूँ, जब कभी मैं यह देखती-सुनती कि कोई व्यक्ति बुरी अवस्था में है या नकारात्मक हो गया है, तो मैं संगति के जरिए उसकी सहायता के लिए तत्परता से परमेश्वर के वचन खोजती। लेकिन जैसे ही वे अपने कार्य से जुड़ी कोई समस्या लेकर आते, मैं बस बेमन से कह देती, “जब हम अपनी अवस्था सुधार कर परमेश्वर पर भरोसा करते हैं, तो परमेश्वर इन समस्याओं को हल करने के लिए हमारा मार्गदर्शन करता है।” जब भी मैंने यह कहती, तो उनकी स्थिति में अस्थायी सुधार होता, लेकिन जैसे ही उन्हें किसी नई समस्या से जूझना पड़ता और उनके मुद्दे अनसुलझे रह जाते, तो वे फिर से नकारात्मक हो जाते। चूँकि मैं न तो वास्तविक मुद्दे हल कर पा रही थी और न ही काम की जाँच और निरीक्षण कर रही थी, तो वीडियो निर्माण कार्य में बहुत-सी समस्याएँ पैदा हो गईं, भाई-बहनों के तकनीकी कौशल में उल्लेखनीय सुधार नहीं हो रहा था, उन्हें अपने काम में प्रासंगिक सिद्धांतों की समझ नहीं थी, वे बार-बार वही गलतियाँ करते थे, परिणामस्वरूप, काम की गुणवत्ता कम हो गई थी। हालाँकि मेरे वरिष्ठ अगुआ ने इस मुद्दे की ओर इशारा भी किया और मेरी मदद करने की कोशिश भी की, लेकिन मुझे अपने बारे में कोई वास्तविक जानकारी नहीं थी। जल्दी ही मुझे हटा दिया गया क्योंकि मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में वास्तविक काम नहीं कर पाई थी।
अचानक हटा दिए जाने पर मुझे बहुत बुरा लगा और मैं सोचती रही, “आखिर हर दिन अपने कर्तव्य-निर्वहन में व्यस्त रहने के बावजूद मैं ऐसी झूठी अगुआ क्यों बन गई जिसने वास्तविक कार्य नहीं किया? आखिर मेरी असफलता का कारण क्या था?” उस दौरान मैंने झूठे अगुआओं को पहचानने के बारे में बहुत सारे सत्य पढ़े और देखा कि लगभग सभी झूठे अगुआओं का व्यवहार जो वास्तविक कार्य करने में असफल रहे और परमेश्वर ने जिनका विश्लेषण किया था, मेरे व्यवहार से मेल खाता था। ऐसा लग रहा था मानो परमेश्वर मुझे व्यक्तिगत रूप से उजागर कर रहा है। यह विशेष रूप से इन अंशों पर खरा उतरता था : “नकली अगुआओं का एक लक्षण यह है कि वे सत्य सिद्धांतों से जुड़ी किसी भी समस्या को पूरी तरह से समझाने या स्पष्ट करने में असमर्थ होते हैं। अगर कोई उनसे कुछ जानना चाहता है तो वे उसे केवल कुछ खोखले शब्द और धर्म-सिद्धांत भर बता सकते हैं। जब उन्हें ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़े जिनका समाधान किया जाना हो, तो वे अक्सर इस तरह के कथनों में उत्तर देते हैं, ‘तुम सभी इस कर्तव्य को निभाने के विशेषज्ञ हो। अगर तुम लोगों को कोई समस्या है, तो तुम्हें खुद ही उसका समाधान निकालना चाहिए। मुझसे मत पूछो; मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ और मुझे इसकी समझ नहीं है। इसे तुम लोग अपने आप हल करो।’ ... नकली अगुआ अक्सर लोगों को टालने और सवालों से बचने के लिए ‘मुझे समझ में नहीं आता, मैंने इसे कभी नहीं सीखा, मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ’ जैसे कारण और बहाने गिनाते हैं। वे काफी विनम्र लग सकते हैं; परंतु यह नकली अगुआओं से जुड़ी एक गंभीर समस्या को उजागर करता है—उन्हें कुछ कामों के पेशेवर ज्ञान से जुड़ी समस्याओं की कोई समझ नहीं होती है, वे अशक्त महसूस करते हैं और बेहद अजीब और शर्मिंदा दिखते हैं। फिर वे क्या करते हैं? वे सभाओं के दौरान सबके साथ संगति करने के लिए सिर्फ परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश जुटा सकते हैं और लोगों को प्रेरित करने के लिए कुछ धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात कर सकते हैं। थोड़े दयालु किस्म के अगुआ लोगों के प्रति चिंता दिखाकर समय-समय पर उनसे पूछ सकते हैं, ‘क्या हाल ही में तुम्हें अपने जीवन में किसी कठिनाई का सामना करना पड़ा है? क्या तुम्हारे पास पर्याप्त लत्ते-कपड़े हैं? क्या तुम में से कोई ऐसा है जो दुर्व्यवहार कर रहा है?’ यदि हर कोई कहता है कि उन्हें ऐसी कोई समस्या नहीं है तो वे जवाब देते हैं, ‘तो कोई समस्या नहीं है। तुम लोग अपना काम जारी रखो; मुझे दूसरे मामले देखने हैं’ और वे इस डर से तुरंत वहाँ से चले जाते हैं कि कोई सवाल पूछकर उनसे समाधान करने के लिए कह सकता है जिससे वे शर्मनाक स्थिति में पड़ सकते हैं। नकली अगुआ इसी तरह काम करते हैं—वे किसी भी वास्तविक समस्या का समाधान नहीं कर सकते। कलीसिया के कार्य को वे कैसे प्रभावी ढंग से कार्यान्वित सकते हैं? नतीजतन, अनसुलझी समस्याओं का ढेर अंततः कलीसिया के कार्य में बाधा डालता है। यह नकली अगुआओं की कार्यशैली का एक प्रमुख लक्षण और अभिव्यक्ति है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2))। “बेशक अगुआ होने का अनिवार्य रूप से यह मतलब नहीं है कि उनमें हर तरह के पेशे की समझ हो, लेकिन उन्हें समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक सत्य सिद्धांतों की संगति स्पष्ट रूप से करनी चाहिए, फिर चाहे समस्याएँ जिस किसी पेशे से संबंधित हों। अगर लोग सत्य सिद्धांतों को समझते हैं तो समस्याओं को उसी के अनुसार हल किया जा सकता है। नकली अगुआ समस्याओं को हल करने के लिए सत्य सिद्धांतों की संगति से बचने के लिए ‘मैं इस काम से मैं अनजान हूँ; मैं इस पेशे को नहीं समझता’ जैसे कारण गिनाते हैं। यह वास्तविक कार्य करना नहीं है। अगर नकली अगुआ समस्याओं को हल करने से बचने के लिए ऐसे कारण गिनाते हैं कि ‘मैं इस काम से अनभिज्ञ हूँ; मैं इस पेशे को नहीं समझता’ तो वे अगुआई के कार्य के लिए उपयुक्त नहीं हैं। सबसे अच्छी बात यह होगी कि वे इस्तीफा दे दें और किसी और को अपनी जगह लेने दें। लेकिन क्या नकली अगुआओं के पास इस तरह का विवेक होता है? क्या वे इस्तीफा दे पाएँगे? नहीं दे पाएँगे। वे तो यहाँ तक सोचते हैं, ‘लोग क्यों कहते हैं कि मैं कोई कार्य नहीं कर रहा हूँ? मैं हर दिन सभाएँ करता हूँ और इतना व्यस्त रहता हूँ कि मैं समय पर भोजन भी नहीं कर पाता और कम सो पाता हूँ। कौन कहता है कि समस्याओं का समाधान नहीं हो रहा है? मैं उनके साथ सभाएँ और संगति करता हूँ और उनके लिए परमेश्वर के वचनों के अंश ढूँढ़ता हूँ।’ ... तुम देख रह हो कि नकली अगुआ वास्तविक कार्य नहीं कर सकते, फिर भी वे ढेरों बहाने बनाते हैं। वे सचमुच बेशर्म और घिनौने हैं! उनकी काबिलियत इतनी कम है, वे किसी भी पेशे को नहीं समझते और पेशेवर काम की हर मद में निहित सत्य सिद्धांतों की समझ उनमें नहीं होती—उन्हें अगुआ बनाए रखने का क्या फायदा? वे बस मूर्ख और निकम्मे हैं! जब वे कोई वास्तविक कार्य कर ही नहीं सकते, तो फिर कलीसिया के अगुआ के रूप में क्यों सेवारत हैं? वे बस सूझ-बूझ रहित हैं। चूँकि उनमें आत्म-जागरूकता की कमी है, इसलिए उन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों की प्रतिक्रियाएँ सुननी चाहिए और यह मूल्यांकन करना चाहिए कि क्या वे अगुआ होने के मानक पूरा करते हैं। फिर भी, नकली अगुआ इन बातों पर कभी विचार नहीं करते। अगुआ के रूप में उनकी कई सालों की सेवा के दौरान कलीसिया के कार्य में चाहे जितनी भी देरी हुई हो और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश का कितना भी नुकसान हुआ हो, उन्हें इसकी परवाह नहीं होती। यह सिरे से नकली अगुआओं का बदसूरत चेहरा है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अंदर तक हिला दिया। झूठे अगुआओं का व्यवहार और लक्षण जिन्हें परमेश्वर ने उजागर किया था, पूरी तरह मेरी वास्तविक अवस्था के अनुरूप थे। परमेश्वर कहता है कि झूठे अगुआ अपने तकनीकी ज्ञान की कमी को एक बहाने के रूप में उपयोग करके कार्य के सभी पहलुओं की देखरेख और जाँच में शामिल होने से बचते हैं और भाई-बहनों के कर्तव्यों में उनकी वास्तविक समस्याओं और कठिनाइयों को हल नहीं करते। वे केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलकर ही संतुष्ट रहते हैं और विशिष्ट, वास्तविक मुद्दों को निपटाने से बचते या उनसे दूर भागते हैं। मेरा व्यवहार बिल्कुल वैसा ही था। जब से मुझे अगुआ चुना गया था, मुझे यही चिंता सताती कि चूँकि मुझे वीडियो प्रोडक्शन का तकनीकी ज्ञान नहीं है, इस काम की जाँच करते समय मेरी कमियाँ उजागर हो जाएँगी। मुझे डर था कि भाई-बहन मेरी असलियत जान लेंगे और सबके सामने मुझे शर्मिंदा होना पड़ेगा। अपना रुतबा और प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए, मैं तकनीकी ज्ञान की कमी होने का बहाना बनाकर काम की चर्चाओं में भाग लेने से बचती। मैं शायद ही कभी भाई-बहनों से उनके मुद्दों और कठिनाइयों के बारे में पूछने की जहमत उठाती, मुझे डर रहता कि मैं उनकी समस्याओं का समाधान नहीं कर पाऊँगी और मुझे शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। जब कभी वे मुझसे कोई सवाल पूछते थे, तो मैं बस कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के जरिए उन्हें टाल देती थी। क्या मैं उन्हें धोखा नहीं दे रही थी? देखने में लगता था जैसे मैं काफी व्यस्त हूँ—सभा और सहभागिता करने में मसरूफ हूँ, लोगों की समस्याओं का समाधान और वास्तविक कार्य कर रही हूँ—लेकिन असल में मैं बस अपनी प्रतिष्ठा बचाने का काम कर रही थी, केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में ही बात करती थी। मैं लोगों के सामने दिखावा कर रही थी, जबकि हकीकत में, जहाँ तक संभव हो, भाई-बहनों के बेहद वास्तविक मुद्दों से निपटने से बचने की कोशिश करती थी। यहाँ तक कि मुझे साफ दिखाई देता था कि भाई-बहन उन मुद्दों से जूझ रहे हैं जो उनकी स्थिति को प्रभावित कर रहे हैं, उनके कार्य के परिणामों को प्रभावित कर रहे हैं, लेकिन मैं उनके मुद्दों को हल करने की जिम्मेदारी नहीं लेती थी। बल्कि मैं अपने तकनीकी ज्ञान की कमी का इस्तेमाल मुद्दों को टालने और उन्हें ताक पर रख देने के बहाने के रूप में करती, या फिर उस जिम्मेदारी को समूह अगुआओं के मत्थे मढ़कर उन्हें इससे निपटने को कहती। जब अपने व्यवहार पर विचार करती हूँ, तो लगता है मैं कोई वास्तविक कार्य नहीं कर रही थी। मैं बस अनमने भाव से औपचारिकता निभा रही थी और धोखेबाजी कर रही थी। एक अगुआ के तौर पर क्या मैं वही नहीं थी जिसे परमेश्वर “बेबकूफ” और “बेकार” कहता है? मेरे पास अगुआ का पद तो था, लेकिन मेरे पास कोई जिम्मेदारी नहीं थी, मैंने केवल अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बनाए रखने के लिए काम किया, एक अगुआ के रूप में मुझे जो वास्तविक कार्य करना चाहिए था, वह मैंने नहीं किया और जो जिम्मेदारियाँ मुझे निभानी चाहिए थीं, मैंने नहीं निभाईं, इन तमाम चीजों ने वीडियो प्रोडक्शन पर गहरा असर डाला। मैं एक झूठी अगुआ थी जो किसी भरोसे के लायक नहीं थी। इन तमाम बातों का एहसास होने पर मुझे बेहद पछतावा हुआ और प्रायश्चित करते हुए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मुझे पता है मेरी हरकतों से तुझे ठेस पहुँची है और तू मायूस हुआ है। मैं प्रायश्चित करने को तैयार हूँ, मेरी बस इतनी विनती है कि राह दिखाकर मुझे प्रबुद्ध कर ताकि मैं अपनी भ्रष्टता और विद्रोह को जान सकूँ।”
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा जिसमें कहा गया है : “अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है, और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी लोग जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का होता है, और कुछ नहीं। मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : ‘मेरे रुतबे का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे अच्छी प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरा रुतबा बढ़ेगा?’ यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; वे अन्यथा इन समस्याओं पर विचार नहीं करेंगे। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर ने खुलासा किया कि मसीह-विरोधी प्रतिष्ठा और रुतबे को बहुत ज्यादा महत्व देते हैं और इसे अपने जीवन का आधार मानते हैं। वे चाहे कैसी भी स्थिति में हों या कुछ भी कर रहे हों, उनका उद्देश्य और शुरुआती बिंदु हमेशा प्रतिष्ठा और रुतबे के इर्द-गिर्द केंद्रित होता है। अपने बारे में सोचा तो लगा कि मैं भी तो वैसी ही हूँ। अगुआ बनने के बाद मैंने कभी सोचा ही नहीं कि काम कितना महत्वपूर्ण है या मैं परमेश्वर के इरादों के प्रति सचेत रहकर अपना कार्य अच्छे से कैसे कर सकती हूँ, बल्कि केवल अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में ही सोचा। मुझे यही चिंता सताती रहती थी कि कहीं भाई-बहनों को पता न चल जाए कि मुझे कार्य के तकनीकी पक्ष की समझ नहीं है और अपना काम अच्छे से नहीं कर सकती। बल्कि यह फिक्र रहती थी कि मेरी पोल खुल गई तो मुझे हटा दिया जाएगा। अगुआ के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, मैंने लगातार अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बनाए रखने के लिए ही काम किया। मैं अपनी कमियाँ छिपाने के लिए, हमेशा तकनीकी कामों से बचती थी और ऐसे किसी भी काम की जाँच नहीं करती थी। मुझे चिंता रहती थी कि अगर लोगों को मेरी वास्तविक तकनीकी क्षमता का पता चल गया, तो उन्हें लगेगा कि मैं काम का निरीक्षण करने और अगुआ बनने योग्य नहीं हूँ। इतना ही नहीं, इस तथ्य को छिपाने के लिए कि मैं वास्तविक काम नहीं कर रही थी और एक अगुआ के तौर पर अपना रुतबा बनाए रखने के लिए, मैं खुद को सभाओं का आयोजन करने और ऐसे काम करने में व्यस्त रखती जिससे मेरी प्रतिष्ठा बढ़े, मैं धर्म-सिद्धांत पर बोलती, नारे लगाती और बेमन से काम करती। मैंने अपने भाई-बहनों को गुमराह करने के लिए खुद को व्यस्त और जिम्मेदार दिखाने की कोशिश की और चालाकी से लोगों को दिखाती जैसे कि मैं वास्तविक काम कर रही हूँ। मैं बस इसी धोखाधड़ी और कपटपूर्ण हरकतों में लिप्त रहती और नतीजतन, वीडियो निर्माण कार्य में देरी होती। मुझे एहसास हुआ कि मुझे शैतान ने बुरी तरह भ्रष्ट कर दिया है। “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” और “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है” जैसे शैतानी विष मेरी प्रकृति बन चुके थे। मैं ऐसे विष में जी रही थी और परमेश्वर में अपने विश्वास में अपना कर्तव्य निभाते हुए केवल अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में ही सोचती थी। मुझे न तो कलीसिया के काम की कोई फिक्र थी और न ही भाई-बहनों के जीवन प्रवेश की कोई परवाह। मैं उन कार्यों को करने से भी कतराती थी, जो मैं जानती थी कि मुझे करने चाहिए—मैं कितनी स्वार्थी, नीच, धोखेबाज और चालाक थी!
मैंने सोचा कि भले ही कलीसिया अगुआ के तौर पर मुझे वीडियो प्रोडक्शन का तकनीकी ज्ञान न हो, फिर भी मुझे भाई-बहनों के साथ मिलकर हमारे काम में आने वाली वास्तविक समस्याओं को ताकि हम अपने काम में आने वाली वास्तविक समस्याओं का समाधान कर सकें। यह मेरा दायित्व था और अपने कर्तव्य-निर्वहन के अंग के रूप में मुझे कम से कम इतना तो करना ही चाहिए था। फिर भी मैं परमेश्वर के इरादों के बारे में जरा भी सचेत नहीं थी, मुझे तो बस अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बनाए रखने की परवाह थी। मैं हमेशा अपने ज्ञान की कमी का बहाना बनाकर टालमटोल करती और वास्तविक काम न करती, जिससे मेरे भाई-बहनों की समस्याओं के समाधान में देरी होती, वे अभ्यास का मार्ग न खोज पाते और वीडियो प्रोडक्शन पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता। ये सब मेरे अपराध थे। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का अपमान नहीं किया जा सकता—मेरा हटाया जाना पूरी तरह से मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे की चाहत और मसीह-विरोधी मार्ग पर चलने का परिणाम था। अगर मैंने प्रायश्चित करके अपने आपको न बदला, तो मैं निश्चित रूप से उजागर कर हटा दी जाऊँगी।
फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “वास्तव में, अगुआ होने के नाते, कार्य की व्यवस्था करने के बाद, तुम्हें कार्य की प्रगति का अनुवर्तन करना चाहिए। अगर तुम उस कार्यक्षेत्र से परिचित नहीं हो तब भी—यदि तुम्हें इसके बारे में कोई भी जानकारी न हो तब भी—तुम अपना काम करने का तरीका खोज सकते हो। तुम किसी ऐसे व्यक्ति को खोज सकते हो जो इस पर सचमुच पकड़ रखता हो, जो विचाराधीन पेशे को समझता हो, चीजों का पुनरीक्षण कर सकता हो और सुझाव दे सकता हो। उनके सुझावों से तुम उपयुक्त सिद्धांतों की पहचान कर सकते हो, और इस तरह तुम काम के अनुवर्तन में सक्षम हो सकते हो। चाहे विचाराधीन पेशे के प्रकार से तुम परिचित हो या नहीं, या उस काम को समझते हो या नहीं, उसकी प्रगति से अवगत रहने के लिए तुम्हें कम से कम उस कार्य का प्रभार अवश्य लेना चाहिए, अनुवर्ती कार्य करने चाहिए, उसकी प्रगति के बारे में लगातार सवाल करने चाहिए। तुम्हें ऐसे मामलों पर पकड़ बनाए रखनी चाहिए; यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, यह तुम्हारे कार्यभार का अंग है। काम का अनुवर्तन न करना, काम दूसरे को सौंपने के बाद और कुछ न करना, उससे पल्ला झाड़ लेना—यह नकली अगुआओं के कार्य करने का तरीका है। कार्य के संबंध में अनुवर्तन न करना या निर्देश न देना, आने वाली समस्याओं के समाधान के बारे में पूछताछ न करना और काम की प्रगति या उसकी दक्षता पर पकड़ न रखना—ये भी नकली अगुआओं की अभिव्यक्तियाँ हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे इस बात का एहसास कराया कि कलीसिया अगुआ बनने के लिए इंसान को सब-कुछ समझने और काबिल होने की आवश्यकता नहीं है। अगुआओं और कर्मियों को चाहे तकनीकी जानकारी हो या नहीं, फिर भी उन्हें कार्य में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए, प्रगति पर नजर रखनी चाहिए, निरीक्षण करना चाहिए, समयबद्ध तरीके से मुद्दों को पहचान कर उनका समाधान करना चाहिए। अगुआओं और कर्मियों को अपने कर्तव्य के प्रति यही रवैया अपनाना चाहिए और परमेश्वर भी उनसे यही अपेक्षा रखता है। मुझे कलीसिया में ऐसे कुछ अगुआओं और कर्मियों का ख्याल आया जो तकनीकी कौशल की आवश्यकता वाले कार्य के कुछ क्षेत्रों के प्रभारी थे—उनमें कुछ कमियाँ और दोष होने के बावजूद, वे अपने काम का भार वहन करते थे, समयबद्ध तरीके से कार्य की प्रगति का निरीक्षण करते और उस पर नजर रखते थे, भाई-बहनों को सिद्धांत के अनुसार अपना काम करने के लिए उनका पूरा मार्गदर्शन करते थे, भाई-बहनों के साथ मिलकर उनकी ताकत और कमजोरियों को समझकर उनके साथ मिलकर काम करते थे। धीरे-धीरे वे थोड़ा-बहुत तकनीकी कौशल और सत्य सिद्धांत सीखने-समझने लगे थे, और उनके कार्य के परिणाम लगातार सुधारने लगे थे। इससे मुझे नूह की कहानी याद आ गई। जब नूह ने नाव बनाने की ठानी, तो उसने पहले कभी नाव नहीं बनाई थी, उसे तो यह भी नहीं पता था कि नाव दिखती कैसी है। फिर भी उसका मन निर्मल था, उसने यह जिम्मेदारी उठाई, वह परमेश्वर के इरादों के प्रति सचेत था। जब परमेश्वर उसे कुछ करने को कहता, तो वह उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करता। अंततः नाव ने धीरे-धीरे एक आकार ले लिया और नूह ने सफलतापूर्वक परमेश्वर के आदेश को पूरा किया। जबकि मैंने अपने कर्तव्य-निर्वहन को कैसे लिया? एक कलीसिया अगुआ के रूप में, मैंने यह नहीं सोचा कि परमेश्वर के इरादों के प्रति सचेत कैसे रहना है, कलीसिया के काम को अच्छे से पूरा करते हुए अपना कर्तव्य कैसे निभाना है, इसके बजाय मैं अगुआ के रूप में अपने पद पर बैठकर हमेशा खुद को दूसरों से बेहतर और अधिक सक्षम दिखाने के तरीके खोजती रहती थी। मुझे यह डर रहता कि अगर मैंने तकनीकी काम में हिस्सा लिया और मेरी कमियाँ और दोष उजागर हो गए तो भाई-बहन मुझे हेय दृष्टि से देखेंगे। तो मैं हमेशा वीडियो प्रोडक्शन के तकनीकी पहलुओं में अपने ज्ञान की कमी को एक बहाने के रूप में इस्तेमाल करती ताकि मुझे उसमें शामिल न होना पड़े—मैं कितनी अहंकारी पाखंडी थी! तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि एक अगुआ होना कोई पद या रुतबा नहीं है, बल्कि एक जिम्मेदारी और भार है। मुझे अपनी कमियों और दोषों से सही ढंग से लड़ना होगा, अगुआ के पद और रुतबे के प्रति अपने जुनून से छुटकारा पाना होगा। मुझे परमेश्वर के इरादों का ख्याल रखना होगा, कलीसिया के काम की जिम्मेदारी समझनी होगी, सबकी ताकत और कमजोरियों को संतुलित और पूरा करने के लिए भाई-बहनों के साथ तालमेल से सहयोग करना होगा और कलीसिया का काम अच्छे से करना होगा। मैं कार्य के कुछ तकनीकी पहलुओं की जानकार नहीं थी, लेकिन मैं उन भाई-बहनों को खोज सकती थी जिन्हें उसकी जानकारी थी और उनके साथ मिलकर चर्चा कर सकती थी। मैं उनसे और सुझाव और आइडिया ले सकती थी और सबको अभ्यास का मार्ग तलाशने और हमारे मुद्दों को हल करने के लिए एक साथ काम करने को कह सकती थी। इस तरह काम करने से काम के सभी पहलू सामान्य रूप से आगे बढ़ सकेंगे। अगर हम खोजने और चर्चा करने के बाद भी अपने मुद्दों का समाधान न कर पाएँ, तो हम वरिष्ठ अगुआओं से मदद माँग सकते हैं—इससे यह सुनिश्चित होगा कि हमारे काम में किसी भी समस्या की पहचान हो जाएगी और समयबद्ध तरीके से उसका समाधान भी निकल आएगा और कलीसिया के कार्य में विलम्ब नहीं होगा। मुझे यही करना चाहिए था और मैं ऐसा करने में पूरी तरह सक्षम थी। मुझे कलीसिया के कार्य के प्रति एक जिम्मेदार रवैया अपनाना चाहिए और मैं जो कुछ कर सकती हूँ उसे करने के लिए मुझे हर संभव प्रयास करना चाहिए। ऐसा करके ही मैं अपना कर्तव्य और जिम्मेदारी निभा पाऊँगी। मुझे एहसास हुआ कि पहले मैं प्रतिष्ठा और रुतबे पर बहुत अधिक जोर देती थी। मैं हमेशा अपने तकनीकी ज्ञान की कमी को एक बहाने के रूप में इस्तेमाल करती और अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बनाए रखने के लिए पूरे सक्रिय तौर पर काम करती, और यही चीज अंततः कलीसिया के वीडियो निर्माण कार्य में देरी का कारण बनी।
फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियतकी स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्हें अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्यों को दूर रखना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखानी चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगे कि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्ट व्यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्ट करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि हम चाहे कोई भी काम कर रहे हों, हमें अपने इरादे हमेशा सही रखने चाहिए, व्यक्तिगत इच्छाओं, प्रतिष्ठा और रुतबे की आकांक्षाओं को दरकिनार कर कलीसिया के काम को बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। हमें इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि दूसरे हमारे बारे में क्या सोचते हैं, बल्कि हमें परमेश्वर की जाँच को स्वीकार कर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए—ऐसा करके ही हम सीधा-सरल और ईमानदारी भरा जीवन जी सकते हैं। मैंने विचार किया कि एक अगुआ के रूप में चुना जाना मेरे लिए महज अभ्यास करने का एक अवसर था, इसका मतलब यह नहीं था कि मैं इस पद के लिए पूरी तरह से योग्य हूँ। मुझे अपने कर्तव्य-निर्वहन के दौरान भी निरंतर सत्य की खोज करनी थी और अपना काम अच्छे से करने के लिए भाई-बहनों के साथ मिलकर कार्य करना था। लेकिन मैं बहुत विद्रोही थी, मैंने केवल अपने रुतबे और प्रतिष्ठा की सोची और वास्तविक कार्य नहीं किया, जिसके कारण कलीसिया के काम को नुकसान हुआ और मुझे हटने को मजबूर होना पड़ा। जब मुझे परमेश्वर के इरादे समझ में आ गए, तो मैंने अपना कर्तव्य-निर्वहन करते हुए परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करने का संकल्प लिया और यह भी संकल्प लिया कि मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की नहीं सोचूँगी और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कार्य करूँगी।
इसके तुरंत बाद कलीसिया ने मुझे नए लोगों का सिंचन-कार्य सौंप दिया और कुछ महीनों बाद मुझे समूह अगुआ के रूप में पदोन्नत कर दिया। एक बार फिर मुझे चिंता होने लगी : “मैं काफी समय से नए लोगों का सिंचन नहीं रही हूँ, मुझमें अनुभव की कमी है और नए लोगों के सिंचन की मेरी योग्यता दूसरे भाई-बहनों से बेहतर नहीं है। क्या मैं वाकई एक प्रभावी समूह अगुआ के रूप में सेवा कर पाऊँगी? अगर मैं अपना काम अच्छे से न करूँ और भाई-बहनों के लिए अभ्यास का वास्तविक मार्ग न सुझा पाऊँ, तो क्या उन्हें यह नहीं लगेगा कि मैं समूह अगुआ के रूप में सेवा करने योग्य नहीं हूँ? क्या मेरी अगुआ को यह नहीं लगेगा कि मुझमें योग्यता और काबिलियत की कमी है?” मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बनाए रखने की इच्छा पाल रही हूँ। मुझे अपनी पिछली असफलता से सीखे सबक याद आए और मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की। प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे स्पष्टता और अभ्यास का मार्ग मिला। मुझे प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर अपनी कमियों और दोषों को नहीं छिपाना चाहिए। बल्कि मुझे अपनी कमियों के प्रति उचित दृष्टिकोण रखना चाहिए, एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करना चाहिए और जितना समझता हूँ, उतना ही करना चाहिए, अपना कर्तव्य और उत्तरदायित्व निभाना चाहिए। उसके बाद मैं सक्रिय रूप से काम की प्रगति पर नजर रखने लगी और जब कभी मेरे सामने ऐसी समस्याएँ आतीं जिनके बारे में मुझे जानकारी न होती या जिन्हें मैं स्वयं न संभाल पाती, तो मैं भाई-बहनों के साथ मिलकर उस समस्या का समाधान करने का प्रयास करती। जब भी भाई-बहन चर्चा के लिए सभा करते, मैं पूरी लगन से उनसे सीखती और उनके द्वारा बताए गए उपयोगी अभ्यास मार्गों को आत्मसात करती। मैं अक्सर खुद को दर्शन के सत्य से युक्त करती। कुछ समय तक इस तरह से अभ्यास करने पर, मैं धीरे-धीरे थोड़े-बहुत सिद्धांत समझने लगी, मेरा काम धीरे-धीरे बेहतर होता चला गया और मैं शांत और सहज महसूस करने लगी।
मैंने हटाए जाने के इस अनुभव पर विचार किया, परमेश्वर के वचनों ने मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन किया है, प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए मेरे प्रयास की सच्चाई और ऐसे कार्यों के परिणामों का मुझे ज्ञान दिया है। उसके वचनों ने मेरे भ्रामक दृष्टिकोण को सुधारने में भी मदद की है। यह सब परमेश्वर का प्रेम और उद्धार है!