72. स्वर्ग के राज्य का मार्ग
जब स्वर्ग के राज्य में प्रवेश की बात आती है, तो बहुत से लोग सोचते हैं, “चूँकि हमें प्रभु में आस्था है और हमारे पाप क्षमा कर दिए गए हैं, जब प्रभु आएगा तो वह हमें सीधे अपने राज्य में आरोहित कर देगा।” कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि केवल पवित्र लोग ही प्रभु को देख सकते हैं। उन्हें लगता है, “हम अभी भी लगातार पाप कर रहे हैं—पाप की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं, तो क्या हम सचमुच स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं?” इस प्रश्न पर कुछ लोग कह सकते हैं, “हमारे पापी होने के बावजूद, प्रभु यीशु हमारा शाश्वत पापबलि है, अगर हम उसके सामने अपने पापों को स्वीकार कर लेते हैं तो वह हमें माफ कर देगा। तब वह हमें पापी नहीं समझेगा और हम उसके राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।” लेकिन मैं इस तरह नहीं सोचती, क्योंकि बाइबल कहती है : “क्योंकि सच्चाई की पहिचान प्राप्त करने के बाद यदि हम जान बूझकर पाप करते रहें, तो पापों के लिये फिर कोई बलिदान बाकी नहीं” (इब्रानियों 10:26)। इससे साबित होता है कि पापबलि सीमित है। जो सत्य मार्ग को जानते हैं फिर भी पाप करते हैं, उन्हें परमेश्वर द्वारा उद्धार प्राप्त नहीं होगा। तो फिर हमें स्वर्ग के राज्य में कैसे प्रवेश करना चाहिए? मैं इस बात को कभी नहीं समझ पाई—जब मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़े, तब जाकर मुझे शुद्धिकरण और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश का मार्ग मिला।
मेरा जन्म एक ईसाई घराने में हुआ। बचपन से ही मैं अपने माता-पिता के साथ सेवाओं में भाग लिया करती थी। मैं कलीसिया की गतिविधियों में भी सक्रिय रूप से भाग लिया करती थी। जब मैं बड़ी हुई तो खुद को प्रभु के लिए और भी अधिक उत्साह से खपाया करती थी। कभी-कभी मैं पादरी के साथ शहर से बाहर प्रार्थना सभा आयोजित करने जाती थी। लेकिन तमाम उत्साह के बावजूद, मुझे सेवाओं से कोई संतुष्टि नहीं मिल रही थी। पादरी के उपदेशों में हमेशा वही पुरानी बातें होती थीं, कोई नया प्रबोधन नहीं था। व्यक्तिगत रूप से मैं अक्सर प्रभु की शिक्षाओं के अनुसार नहीं जी पाती थी। मैं हमेशा पाप करने और कबूल करने के चक्र में ही फँसी रहती थी। उदाहरण के लिए, जब मैं देखती कि मेरी माँ मेरे भाई-बहनों को कोई तोहफा या पैसे देती हैं और मुझे कभी कुछ नहीं देती, तो मुझे ईर्ष्या होती और गुस्सा आता और उस चीज को लेकर शिकायत करती। कलीसिया के लिए मेरी सेवा में, जब भी पादरी मुझे कोई काम देता, तो मैं सोचती कि वह जरूर मेरी तरफदारी और मुझ पर मेहरबानी कर रहा होगा। मैं गर्व से फूल जाती और बाकी सहकर्मियों को नीची नजर से देखने लगती। बाइबल कहती है : “सबसे मेल मिलाप रखो, और उस पवित्रता के खोजी हो जिसके बिना कोई प्रभु को कदापि न देखेगा” (इब्रानियों 12:14)। लेकिन उसके बावजूद मेरे अंदर ईर्ष्या, घृणा और अकड़ भरी हुई थी। अपने परिवार के साथ मेरे संबंध अच्छे नहीं थे, दूसरों को अपने समान प्रेम करने और सभी के साथ सामंजस्य बैठाने की तो बात ही दूर है। प्रभु पवित्र है; क्या मेरे जैसा व्यक्ति सच में उसकी प्रशंसा प्राप्त कर उसके राज्य में प्रवेश कर सकता है? मैं वाकई उलझन में थी, इसलिए मैंने पादरी और कलीसिया के अन्य सदस्यों से मदद मांगी। लेकिन पादरी ने बस इतना कहा, “विश्वासियों के रूप में हमारे पाप माफ कर दिए गए हैं। प्रभु यीशु की पापबलि हमेशा के लिए प्रभावी है। अतः अतीत में किए गए और भविष्य में किए जाने वाले अपने सभी पापों के लिए, अगर हम प्रार्थना कर प्रभु के सामने पाप स्वीकार करेंगे, तो वह हमें बिना शर्त माफ कर देगा। तब प्रभु देखेगा कि हम पाप-रहित हैं और हमें उसके राज्य में प्रवेश की अनुमति मिल जाएगी। हमें प्रभु में विश्वास रखना चाहिए।” लेकिन पादरी की बातें सुनकर भी मेरी उलझन दूर नहीं हुई। प्रभु हमारे पापों को क्षमा कर देता है, लेकिन बाइबल फिर यह बात क्यों कहती है, “क्योंकि सच्चाई की पहिचान प्राप्त करने के बाद यदि हम जान बूझकर पाप करते रहें, तो पापों के लिये फिर कोई बलिदान बाकी नहीं” (इब्रानियों 10:26)? इससे साबित होता है कि प्रभु हमारे पापों को बिना शर्त हमेशा के लिए माफ नहीं करेगा। मुझे कोई स्पष्टता नहीं मिली थी और मैं बस यह सोचकर खुद को सांत्वना दे सकती थी : प्रभु का प्रेम असीम और अनंत है, इसलिए शायद पादरी सही है। अगर मैंने प्रार्थना करना और कुबूल करना जारी रखा, तो प्रभु उन पापों को नहीं देखेगा और जब वह आएगा तो वह मुझे स्वर्ग के राज्य में आरोहित करेगा। उसके बाद मैं इस उम्मीद में बाइबल पढ़ती और सेवाओं में भाग लेती रही, कि जब प्रभु आएगा तो मैं उसके राज्य में पहुँच जाऊँगी।
फिर मैं दो बहनों से ऑनलाइन मिली। हम अक्सर बातचीत करते थे, अपनी आस्था के आधार पर एक-दूसरे को प्रोत्साहित और प्रेरित करते और अपने विचार साझा करते थे। एक दिन उनमें से एक ने मुझसे पूछा, “एक विश्वासी के रूप में तुम्हारी सबसे बड़ी आशा क्या है?” बिना किसी हिचकिचाहट के मैंने कहा, “बेशक, परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना!” फिर उसने पूछा, “तो क्या तुम जानती हो कि किस तरह के लोग परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं?” जब उसने यह बात कही, तो मैंने सोचा, “इसी बात को लेकर तो मैं उलझन में हूँ। पादरी और कलीसिया के सभी सदस्य कहते हैं कि प्रभु में विश्वास रखने और उसके नाम पर बपतिस्मा लेने से, हमारे पाप माफ हो जाते हैं और हम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। क्या उसके सवाल का मतलब यह है कि उसकी राय अलग है?” फिर उसने कहा, “मुझे लगता था कि अपनी आस्था में अगर हम प्रभु का नाम स्वीकारते हैं और उसके नाम पर प्रार्थना और पाप कुबूल करते हैं, तो प्रभु हमारे पापों को क्षमा कर देगा। फिर जब वह आएगा, तो वह हमें स्वर्ग के राज्य में आरोहित करेगा। लेकिन फिर मुझे एहसास हुआ कि भले ही प्रभु में विश्वास रखने से हमारे पाप माफ हो जाते हैं, फिर भी हम पाप करने और प्रभु का विरोध करने में लिप्त रहते हैं। उदाहरण के लिए : प्रभु की अपेक्षा है कि हम दूसरों से अपने समान प्रेम करें, सहनशीलता का अभ्यास करें और उसकी महिमा का गुणगान करने के लिए नमक और प्रकाश बनें, लेकिन हम हमेशा छोटी-छोटी बातों पर बहस में फँसे रहते हैं। आपदाओं और परीक्षणों के वक्त हम प्रभु को दोष और धोखा देते हैं। हम केवल आशीष पाने और उसके राज्य में प्रवेश करने के लिए काम करते और खुद को खपाते हैं। यह प्रभु के साथ सौदेबाजी करने का प्रयास है। इस तरह से जीना दूर-दूर तक भी प्रभु के इरादे के अनुरूप जीना नहीं है। बाइबल साफ कहती है : ‘इसलिये तुम पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ’ (लैव्यव्यवस्था 11:45)। ‘मैं तुम से सच सच कहता हूँ कि जो कोई पाप करता है वह पाप का दास है। दास सदा घर में नहीं रहता; पुत्र सदा रहता है’ (यूहन्ना 8:34-35)। परमेश्वर पवित्र और धार्मिक है और स्वर्ग का राज्य उसके शासन के अधीन है। यह पवित्र भूमि है। परमेश्वर मलिन लोगों को अपनी पवित्र भूमि को मलिन नहीं करने देगा। जो लोग हमेशा पाप करते हैं, प्रभु का विरोध और उसके विरुद्ध विद्रोह करते हैं, वे अभी भी पाप के अनुचर हैं और परमेश्वर के राज्य में कतई प्रवेश नहीं कर सकते।” बहन की संगति सुनकर मैंने कहा, “तुमने सही कहा। अपनी आस्था में हम अक्सर झूठ बोलते हैं, पाप करते हैं और खुद को पाप से मुक्त नहीं कर पाते। मैंने इस चीज को काफी गहराई से अनुभव किया है। इसने हमेशा मुझे बहुत भ्रमित किया है। क्या हम वाकई इस तरह परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं? मैंने अपने पादरी और कलीसिया के सदस्यों से चर्चा की है, लेकिन मुझे कभी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। तुम्हारी संगति से आखिरकार मुझे कुछ समझ हासिल हो रही है। जो लोग हमेशा पाप करते रहते हैं और शुद्ध नहीं किये गये हैं, वे परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते। लेकिन एक बात मुझे अभी भी समझ नहीं आई, हम पाप क्यों करते रहते हैं, जबकि हम विश्वासियों को प्रभु ने माफ कर दिया है?”
मेरे प्रश्न के उत्तर में बहन ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े : “क्योंकि मनुष्य को छुटकारा दिए जाने और उसके पाप क्षमा किए जाने को केवल इतना ही माना जा सकता है कि परमेश्वर मनुष्य के अपराधों का स्मरण नहीं करता और उसके साथ अपराधों के अनुसार व्यवहार नहीं करता। किंतु जब मनुष्य को, जो कि देह में रहता है, पाप से मुक्त नहीं किया गया है, तो वह निरंतर अपना भ्रष्ट शैतानी स्वभाव प्रकट करते हुए केवल पाप करता रह सकता है। यही वह जीवन है, जो मनुष्य जीता है—पाप करने और क्षमा किए जाने का एक अंतहीन चक्र। अधिकतर मनुष्य दिन में सिर्फ इसलिए पाप करते हैं, ताकि शाम को उन्हें स्वीकार कर सकें। इस प्रकार, भले ही पापबलि मनुष्य के लिए हमेशा के लिए प्रभावी हो, फिर भी वह मनुष्य को पाप से बचाने में सक्षम नहीं होगी। उद्धार का केवल आधा कार्य ही पूरा किया गया है, क्योंकि मनुष्य में अभी भी भ्रष्ट स्वभाव है। ... मनुष्य के लिए अपने पापों से अवगत होना आसान नहीं है; उसके पास अपनी गहरी जमी हुई प्रकृति को पहचानने का कोई उपाय नहीं है, और उसे यह परिणाम प्राप्त करने के लिए वचन के न्याय पर भरोसा करना चाहिए। केवल इसी प्रकार से मनुष्य इस बिंदु से आगे धीरे-धीरे बदल सकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))। “यद्यपि यीशु मनुष्यों के बीच आया और अधिकतर कार्य किया, फिर भी उसने केवल समस्त मानवजाति के छुटकारे का कार्य ही पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि के रूप में सेवा की; उसने मनुष्य को उसके समस्त भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिए जाने के बाद, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए देह में वापस आ गया, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना)। परमेश्वर के वचन पढ़कर उसने मेरे साथ संगति साझा की : “अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु ने केवल छुटकारे का कार्य किया, न कि मानवजाति के शुद्धिकरण और परिवर्तन का कार्य। हम सभी जानते हैं कि पुराने नियम की व्यवस्था के युग के बाद के समय में, व्यवस्था का पालन न करने पर लोगों को फाँसी दिए जाने का खतरा रहता था। तब परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से देहधारी हुआ और मानवजाति के लिए पापबलि के रूप में सूली पर चढ़ गया और मनुष्य को उसके पापों से छुटकारा दिलाया। प्रभु के सामने अपने पापों को स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने पर, लोगों के पापों को क्षमा किया जा सकता था, वे प्रभु द्वारा प्रदत्त प्रचुर अनुग्रह, शांति और खुशी का लाभ उठा सकते थे। इस तरह पापों को क्षमा करना दर्शाता है कि अब व्यवस्था के तहत मृत्युदंड नहीं दिया जाएगा। इसका मतलब यह नहीं है कि मनुष्य पाप से मुक्त हो गया, इसका यह मतलब तो बिल्कुल भी नहीं है कि मनुष्य फिर कभी पाप नहीं करेगा। हमारी आस्था के जरिए हमारे पाप क्षमा किये जाते हैं, लेकिन हमारी पापी प्रकृति अभी भी हमारे भीतर गहरी जड़ें जमाये हुए है। हमारे अंदर अहंकार, छल और बुराई जैसे शैतानी स्वभाव भरे हुए हैं। उदाहरण के लिए, हम अपने हितों की रक्षा के लिए अपने विवेक तक के विरुद्ध चले जाते हैं, झूठ बोलते हैं और धोखा देते हैं। अगर लोग हमारी इच्छानुसार कार्य न करें, तो हम भड़क जाते हैं और उन्हें फटकारते हैं। हम रुतबे के लिए होड़ करते हैं और लाभ चाहते हैं, हम ईर्ष्यालु और झगड़ालू हैं। हम बुरी सांसारिक प्रवृत्तियों का भी अनुसरण करते हैं और दैहिक सुखों का स्वाद लेते हैं, वगैरह। हम जानते हैं कि पाप करना प्रभु के इरादे के अनुरूप नहीं है, हम अक्सर पश्चात्ताप और पाप कबूल करने के लिए प्रभु के सामने आते हैं, लेकिन फिर भी हम निरंतर पाप करते रहते हैं। यह सब हमारी शैतानी प्रकृति का परिणाम है। जब तक हम अपनी पापी प्रकृति की जड़ को नहीं काटेंगे, तब तक हमारे पाप डंठल से कटी हुई जंगली घास के समान होंगे, जड़ निरंतर बढ़ती रहेगी। इसलिए परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय का कार्य करके हमारी पापी प्रकृति को पूरी तरह से दूर कर रहा है, हमारे भ्रष्ट स्वभावों को शुद्ध कर बदल रहा है ताकि हम फिर कभी पाप न करें या परमेश्वर का विरोध न करें। स्वर्ग के राज्य के योग्य होने का यही एकमात्र तरीका है।”
बहन की संगति सुनने के बाद मुझे समझ आ गया कि पापों की क्षमा का अर्थ केवल यह है कि प्रभु यीशु ने हमारे पापों को क्षमा कर दिया है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम पापी नहीं रहे। न ही इसका मतलब यह है कि प्रभु हमारे पापों को असीमित रूप से माफ करता रहेगा, जैसा कि मेरे पादरी ने दावा किया था। बहन की संगति बहुत व्यावहारिक और पूरी तरह से बाइबल के अनुरूप थी : “क्योंकि सच्चाई की पहिचान प्राप्त करने के बाद यदि हम जान बूझकर पाप करते रहें, तो पापों के लिये फिर कोई बलिदान बाकी नहीं” (इब्रानियों 10:26)। पादरी ने जो कहा था उसने मुझे बेहद भ्रमित कर दिया था। प्रभु पवित्र है। क्या वह वाकई हमें अपने राज्य में ले जाएगा भले ही हम हर समय पाप करते रहें? मैं इसे समझ नहीं सकी थी, इसलिए मैं बस पादरी की बातों पर भरोसा करके बाइबल का अध्ययन करती रही, प्रार्थना करती रही और अपने पाप कबूल करती रही और आशा करती रही कि जब प्रभु आएगा तो वह हमारे पापों को नहीं देखेगा बल्कि हमें सीधे अपने राज्य में ले जाएगा। अब उन बातों पर विचार करती हूँ तो यह बात वाकई दूर की कौड़ी लगती है। बहन ने कहा था कि प्रभु अपनी वापसी पर मनुष्य को शुद्ध करने के लिए न्याय का कार्य करेगा, तो मैंने फौरन उससे पूछा कि परमेश्वर असल में यह कार्य कैसे करेगा। उसने तसल्ली से जवाब दिया : “बाइबल में इस बारे में कई भविष्यवाणियाँ हैं। उदाहरण के लिए : ‘मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा’ (यूहन्ना 16:12-13)। ‘वो जो मुझे नकार देता है, और मेरे वचन नहीं स्वीकारता, उसका भी न्याय करने वाला कोई है : मैंने जो वचन बोले हैं वे ही अंत के दिन उसका न्याय करेंगे’ (यूहन्ना 12:48)। ये पद बताते हैं कि परमेश्वर अंत के दिनों में मानवजाति का न्याय करने और उसे शुद्ध करने के लिए सत्य व्यक्त करेगा। प्रभु यीशु अब अंत के दिनों के देहधारी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के रूप में लौट आया है। वह सत्य व्यक्त करता है और परमेश्वर के घर से शुरू करके न्याय का कार्य करता है ताकि मनुष्य की पापी प्रकृति और शैतानी स्वभावों का समाधान कर, आखिरकार मानवजाति को शैतान के प्रभाव से मुक्ति दिला सके।” फिर उसने मुझे परमेश्वर के वचनों के पाठ के वीडियो दिखाए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अंत के दिनों का मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों को विश्लेषित करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर के प्रति समर्पण किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, और काट-छाँट करने की इन तमाम विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर के इरादों, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)। “न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से मनुष्य अपने भीतर के गंदे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने के योग्य हो सकता है। आज किया जाने वाला समस्त कार्य इसलिए है, ताकि मनुष्य को स्वच्छ और परिवर्तित किया जा सके; वचन के द्वारा न्याय और ताड़ना के माध्यम से, और साथ ही शुद्धिकरण के माध्यम से भी, मनुष्य अपनी भ्रष्टता दूर कर सकता है और शुद्ध बनाया जा सकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))।
वीडियो के बाद बहन ने मेरे साथ संगति की : “अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर मुख्य रूप से सत्य का उपयोग करता है ताकि भ्रष्ट मानवजाति की शैतानी प्रकृति के साथ ही उन विभिन्न शैतानी स्वभावों का न्याय और खुलासा कर सके जो उसका प्रतिरोध और उसके विरुद्ध पाप करते हैं। साथ ही, वह उन सभी सत्यों को भी स्पष्ट करता है जिनका हमें अपनी आस्था में अभ्यास करना चाहिए—उदाहरण के लिए, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध कैसे बनाएं, सामान्य मानवता कैसे जिएं, परमेश्वर से प्रेम और उसके प्रति समर्पण कैसे करें, परमेश्वर में विश्वास कैसे रखें और उसके इरादों के अनुरूप उसकी सेवा कैसे करें, वगैरह। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना से, हम देख सकते हैं कि शैतान ने हमें कितनी बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है और हम अहंकार, छल और बुराई जैसे शैतानी स्वभावों से कैसे भरे हुए हैं। हममें मानवता की थोड़ी सी भी झलक नहीं दिखती, बल्कि हम शैतान का मूर्त रूप हैं, हम परमेश्वर के सामने रहने लायक नहीं हैं। हम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को भी जान सकते हैं जो कोई अपराध सहन नहीं करता, हम अपने आप से घृणा और तिरस्कार करना शुरू कर परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप कर सकते हैं। तब हमारे भ्रष्ट स्वभावों में धीरे-धीरे बदलाव आ सकता है, तब हममें परमेश्वर का थोड़ा भय होगा और उसके प्रति समर्पण होगा।” इसके बाद उसने अपने कुछ अनुभव साझा किए। उसने कहा कि पहले प्रभु में अपनी आस्था में, उसे लगता था कि चूँकि उसने खुद को खपाया है, बहुत कुछ त्यागा है, कठिनाइयों का अनुभव किया है और प्रभु के लिए कीमत चुकाई है, वह प्रभु से बेहद प्रेम करती है और बाकियों से श्रेष्ठ है। वह इसे पूंजी के रूप में उपयोग कर दूसरों को तुच्छ समझती थी, उसे लगता था कि वह मुकुट और पुरस्कार पाने के लिए सबसे उपयुक्त है। अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य प्राप्त करने के बाद, उसने मानवजाति का न्याय करने और उसे उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़े। उसने यह अंश देखा : “तुम लोगों के लिए सबसे अच्छा यह होगा कि तुम लोग स्वयं को जानने के सत्य पर ज्यादा मेहनत करो। तुम लोगों को परमेश्वर का अनुग्रह क्यों नहीं मिला? तुम्हारा स्वभाव उसके लिए घिनौना क्यों है? तुम्हारा बोलना उसके अंदर जुगुप्सा क्यों उत्पन्न करता है? जैसे ही तुम लोग थोड़ी-सी निष्ठा दिखा देते हो, तुम अपनी तारीफ के गीत गाने लगते हो और अपने छोटे-से योगदान के लिए पुरस्कार माँगने लगते हो; जब तुम थोड़ा-सा समर्पण दिखा देते हो, तो दूसरों को नीची निगाह से देखने लगते हो; और कुछ छोटे-मोटे काम संपन्न करते ही तुम परमेश्वर की अवहेलना करने लगते हो। ... यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तुम परमेश्वर के साथ संगत नहीं हो सकते हो। यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि तुम लोग बिल्कुल अयोग्य हो, तुम डींगें मारते रहते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि तुम्हारी समझ इस हद तक खराब हो गई है कि अब तुममें आत्म-नियंत्रण नहीं रहा?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। इसे पढ़कर वह व्यथित और लज्जित हुई थी। तब उसे एहसास हुआ कि उसका लगातार आत्म-प्रशंसा करना और दूसरों को नीची नजर से देखने वाला रवैया और यह मानना कि वह मुकुट के लायक है, पूरी तरह से उसके अहंकारी शैतानी स्वभाव का परिणाम था। उसे एहसास हुआ कि उसका परमेश्वर के प्रति खुद को खपाना समर्पण नहीं था, बल्कि आशीष पाने और परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करना था। उसने अपने अहंकारी, शैतानी स्वभाव को, साथ ही अपनी आस्था की अशुद्धता को समझा। उसने देखा कि वह शैतानी स्वभाव से भरी हुई है, उसके बावजूद बेशर्मी और अनुचित तरीके से आशीष और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाने की उम्मीद लगाए बैठी है। वह खुद से नफरत करने और तुच्छ समझने लगी, और फिर उसने यह नहीं सोचा कि वह औरों से बेहतर है। उसने परमेश्वर के प्रति अपने प्रेम का बखान करने या यह माँग करने का साहस नहीं किया कि वह उसे पुरस्कार दे और मुकुट पहनाए। इसके बजाय, वह जानती थी कि उसे नेकनीयती से परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने का प्रयास करना चाहिए और एक सृजित प्राणी के रूप में पूरी निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। उसकी संगति सुनकर, मुझे इस बात की बेहतर समझ आई कि परमेश्वर अंत के दिनों में अपना न्याय का कार्य कैसे करता है। मुझे लगा कि उसकी अनुभवात्मक गवाही मेरे लिए बहुत व्यावहारिक और उपयोगी है। मैंने सोचा कि मैं भी तो वैसी ही थी—पादरी ने मुझ पर मेहरबानी की और मुझे कार्य सौंपे, तो मैं खुद को भाई-बहनों से बेहतर और उन्हें तुच्छ समझने लगी। घर पर भी यही सोचती कि सब लोग मेरे इर्द-गिर्द घूमें। यह मेरा अहंकारी स्वभाव था। मुझे लगा कि अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से मैं भी शुद्ध होकर बदल सकती हूँ। उस रात हमने देर तक बातें कीं, उससे मुझे बहुत अधिक आध्यात्मिक पोषण और संतुष्टि मिली।
फिर मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का व्यापक अध्ययन किया और पाया कि परमेश्वर के वचन न केवल मानवजाति की भ्रष्टता के पीछे के सत्य और परमेश्वर के कार्य के रहस्यों को उजागर करते हैं, बल्कि यह भी विस्तार से बताते हैं कि भ्रष्ट स्वभावों को कैसे दूर किया जाए, एक सार्थक जीवन कैसे जिया जाए और सत्य के कौन-से अन्य पहलू होते हैं। मुझे एहसास हुआ कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सत्य और परमेश्वर की वाणी हैं। मैं पूरी तरह से आश्वस्त हो गई कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही लौटकर आया प्रभु यीशु है और मैंने अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया। मुझे वो बरस याद आए जब मैं प्रभु में विश्वास रखते हुए भी पाप में जी रही थी और खुद को इसके चंगुल से नहीं निकाल पा रही थी—मैं इस बात को लेकर बहुत उलझन में थी कि स्वर्ग के राज्य में कैसे प्रवेश करूँ। आखिरकार अब मुझे शुद्धिकरण और स्वर्ग के राज्य का मार्ग मिल गया है! सर्वशक्तिमान परमेश्वर को धन्यवाद!