81. सुसमाचार साझा करने का एक अविस्मरणीय अनुभव
सुसमाचार के जिस अनुभव ने मुझ पर सबसे गहरी छाप छोड़ी, वह अप्रैल 2021 में हुआ, जब मैं राफायल नामक एक कैथोलिक भाई से ऑनलाइन मिली। मैंने उसके साथ परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य साझा किया और संगति करते हुए पाया कि उसकी काबिलियत अच्छी है और वह सत्य को जल्दी समझ लेता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़कर उसे लगा कि यह परमेश्वर की वाणी है, इसलिए वह सच्चे मार्ग की खोज और जांच-पड़ताल करने और सभाओं में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए तैयार था। मगर ताज्जुब यह कि एक दिन एक बहन ने संदेश भेजा, जिसमें कहा गया था कि राफायल अपने पुराने कैथोलिक याजक से मिला था और अब सभाओं में नहीं आ रहा था। यह सुनकर मैंने सोचा कि उसके मन में कई धारणाएँ और भ्रांतियाँ बैठा दी गई होंगी। मैंने तुरंत उससे संपर्क किया और पाया कि वह हमारी बातों से भ्रमित हो गया था, पर उसने यह नहीं बताया कि वह किस बारे में भ्रमित था। उस समय, मुझे नहीं पता था कि उसके साथ संगति कैसे करूँ, कुछ समझ नहीं आया। मैं जानती ही नहीं थी कि अब क्या करना है। मैं परमेश्वर को पुकारती रही, कहा कि अगर वह परमेश्वर की भेड़ है, तो उसे रास्ता दिखाए, और यह भी कहा कि मैं संगति में वह सब कुछ करने को तैयार हूँ जो मैं कर सकती हूँ।
बाद में, बहन अनिला और मैंने राफायल को एक-साथ संगति करने के लिए आमंत्रित किया। जब वह हमारी बैठक में शामिल हुआ, तो बहुत उत्साहित था, वह ढेर सारे धार्मिक सिद्धांत बकता गया, उसने प्रभु यीशु के प्रति अपनी निष्ठा और दृढ़ आस्था के बारे में बताया। उसे लगा कि चूँकि प्रभु यीशु ने पुरुष के रूप में देहधारण किया और स्वर्ग के परमेश्वर को “पिता” कहा, और चूँकि धार्मिक दुनिया में लोग स्वर्ग के परमेश्वर को “परमपिता परमेश्वर” कहने के आदी हैं, तो प्रभु को एक पुरुष के रूप में ही लौटना चाहिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का स्त्री के रूप में प्रकट होना और कार्य करना उसे अस्वीकार्य था। उसके शब्दों की तीव्रता देखकर मैं समझ नहीं पाई कि उसके साथ बातचीत कैसे शुरू करूँ। मैंने परमेश्वर से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना की। तब मैंने राफायल से कहा, “मुझे भरोसा है कि प्रभु यीशु में तुम्हारी आस्था सचमुच अटूट है, पर जरा एक पल को सोचो। हम अक्सर प्रभु यीशु से प्रार्थना करते हैं, पर क्या उसे असल में जानते हैं? क्या हमें सचमुच पता है कि प्रभु यीशु स्वयं परमेश्वर का देहधारण है? क्या हमें वास्तव में पता है कि वह सत्य, मार्ग और जीवन है? क्या कह सकते हैं कि हम प्रभु यीशु का दिव्य सार जानते हैं? क्या हम दावा कर सकते हैं कि प्रभु यीशु के लौटने पर हम सचमुच उसे जान पाएंगे? ऐसा क्यों है कि हम उस पर विश्वास करते हैं? क्या उसके जन्म के परिवार या उसके प्रकटन के कारण?” जवाब में राफायल ने कुछ नहीं कहा। फिर मैंने उसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के कुछ अंश पढ़कर सुनाए : “परमेश्वर पर लोगों के विश्वास का सार परमेश्वर के आत्मा पर विश्वास है, और यहाँ तक कि देहधारी परमेश्वर पर उनका विश्वास इसलिए है, क्योंकि यह देह परमेश्वर के आत्मा का मूर्त रूप है, जिसका अर्थ यह है कि ऐसा विश्वास अभी भी पवित्र आत्मा पर विश्वास है। आत्मा और देह के मध्य अंतर हैं, परंतु चूँकि यह देह पवित्रात्मा से आता है और वचन देह बनता है, इसलिए मनुष्य जिसमें विश्वास करता है, वह अभी भी परमेश्वर का अंतर्निहित सार है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो परमेश्वर को और उसके कार्य को जानते हैं, केवल वे ही परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं)। “देहधारण का अर्थ है कि परमेश्वर का आत्मा देह बन जाता है, अर्थात्, परमेश्वर देह बन जाता है; देह के द्वारा किया जाने वाला कार्य पवित्रात्मा का कार्य है, जो देह में साकार होता है, देह द्वारा अभिव्यक्त होता है। परमेश्वर के देह को छोड़कर अन्य कोई भी देहधारी परमेश्वर की सेवकाई को पूरा नहीं कर सकता; अर्थात्, केवल परमेश्वर का देहधारी देह, यह सामान्य मानवता—अन्य कोई नहीं—दिव्य कार्य को व्यक्त कर सकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार)। उसके लिए परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैंने संगति की, “हम सभी जानते हैं कि प्रभु यीशु एक बढ़ई परिवार में जन्मा था। वह सामान्य दिखता था, बाहरी तौर पर दूसरों से अलग नहीं था, पर उस देह को परमेश्वर के आत्मा ने पहना था और वह स्वयं देहधारी परमेश्वर था। इसलिए नहीं कि वह यहूदी था और हमारी उस पर आस्था है, न ही इसलिए कि वह मरियम से जन्मा था, उसके लिंग या उसके प्रकटन के कारण तो और भी कम। उस पर हमारी आस्था है क्योंकि उसमें परमेश्वर के आत्मा का सार है, क्योंकि वह सत्य, मार्ग और जीवन है। केवल वही सत्य व्यक्त कर सका और दिव्य कार्य कर सका। इसी तरह अब हमारी सर्वशक्तिमान परमेश्वर में आस्था क्यों है? इसलिए क्योंकि सर्वशक्तिमान परमेश्वर लौटकर आया प्रभु यीशु है, वह प्रभु यीशु का आत्मा है जो एक बार फिर सामान्य इंसान की देह में आया है, हमारे बीच रह रहा है, सत्य व्यक्त कर रहा है और अंत के दिनों में न्याय और स्वच्छता का कार्य कर रहा है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर और प्रभु यीशु दोनों का एक ही स्रोत है, और दोनों में परमेश्वर के आत्मा का सार है। चाहे परमेश्वर का देहधारण जिस किसी परिवार में हो, वह कैसा दिखता है या उसका लिंग क्या है, इनमें से कुछ भी उसका सार नहीं बदल सकते। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने कई सत्य व्यक्त किए हैं और वह अंत के दिनों में न्याय का कार्य करता है। यह इस बात को साबित करने को काफी है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर, परमेश्वर के आत्मा का देहधारण है और वही लौटकर आया प्रभु यीशु है।”
राफायल धीरे-धीरे सत्य खोजने को तैयार हो गया। उसने कहा कि वह मेरी हर बात से सहमत था, पर अभी भी नहीं समझ पाया कि परमेश्वर ने इस बार महिला के रूप में देहधारण करना क्यों चुना। उसे थोड़ा सहज देखकर मैंने उससे पूछा, “परमेश्वर देह में कार्य करने के लिए जिस रूप या लिंग को चुनता है, क्या उसे हम तय कर सकते हैं? जब माँ हमें जन्म देती है, तो हम उसका रूप नहीं चुन पाते, वह चाहे जैसी दिखे, हमें उसे स्वीकारना होता है। बच्चों के पास यही कारण होना चाहिए। क्या तुम सहमत हो?” राफायल ने सिर हिलाया और कहा, “बेशक, हमें चुनने का कोई अधिकार नहीं है।” मैंने आगे कहा, “इसी तरह परमेश्वर ने देहधारण के लिए जैसी देह चुनी है, चाहे वह आदमी हो या औरत, क्या यह हम तय कर सकते हैं? अगर हम कहें कि परमेश्वर को पुरुष रूप में ही स्वीकारेंगे, स्त्री के रूप में नहीं, क्या यह तर्कहीन बात नहीं है? परमेश्वर के देहधारण का लिंग स्वयं परमेश्वर का मामला है और उसकी पसंद है। मनुष्य के रूप में हम टिप्पणी करने लायक नहीं हैं, है न? परमेश्वर सृष्टि का प्रभु है। परमेश्वर की बुद्धि स्वर्गों से भी ऊँची है और उसके विचार मनुष्य के विचारों से ऊँचे हैं। हम बस तुच्छ इंसान हैं; हम उसके कार्य में परमेश्वर की बुद्धि की थाह कैसे लगा सकते हैं? परमेश्वर के प्रकटन और कार्य के संबंध में हमें चुनाव का बिल्कुल भी अधिकार नहीं है। परमेश्वर देह बन गया है, जब तक वह सत्य व्यक्त करता है और परमेश्वर का कार्य करता है, चाहे उसका लिंग कुछ भी हो, वह स्वयं परमेश्वर है, हमें उसे स्वीकार कर उसके प्रति समर्पित हो जाना चाहिए। केवल यही तर्कसंगत है और केवल यही बुद्धिमान व्यक्ति होना है।” राफायल ने गंभीरता से सुना और मेरा खंडन नहीं किया।
मैंने उसके लिए बाइबल के कुछ अंश पढ़े : “आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था” (यूहन्ना 1:1)। “पृथ्वी बेडौल और सुनसान पड़ी थी, और गहरे जल के ऊपर अन्धियारा था; तथा परमेश्वर का आत्मा जल के ऊपर मण्डराता था” (उत्पत्ति 1:2)। “तब परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया, अपने ही स्वरूप के अनुसार परमेश्वर ने उसको उत्पन्न किया; नर और नारी करके उसने मनुष्यों की सृष्टि की” (उत्पत्ति 1:27)। “इसलिये तुम अपने विषय में बहुत सावधान रहना। क्योंकि जब यहोवा ने तुम से होरेब पर्वत पर आग के बीच में से बातें कीं तब तुम को कोई रूप न दिखाई पड़ा, कहीं ऐसा न हो कि तुम बिगड़कर चाहे पुरुष चाहे स्त्री के, चाहे पृथ्वी पर चलनेवाले किसी पशु, चाहे आकाश में उड़नेवाले किसी पक्षी के, चाहे भूमि पर रेंगनेवाले किसी जन्तु, चाहे पृथ्वी के जल में रहनेवाली किसी मछली के रूप की कोई मूर्ति खोदकर बना लो” (व्यवस्थाविवरण 4:15-18)। मैंने संगति की, “बाइबल के इन अंशों से हम देख सकते हैं कि परमेश्वर सार में आत्मा है, उसका कोई निश्चित रूप नहीं, और वह अपनी आराधना के लिए खुद को किसी छवि में ढालने की अनुमति इंसानों को नहीं देता। उत्पत्ति में यह लिखा है कि शुरुआत में परमेश्वर ने पहले पुरुष को बनाया, फिर स्त्री को अपनी छवि में बनाया। तो क्या कहेंगे कि परमेश्वर पुरुष है या स्त्री? तुम कह सकते हो कि पुरुष है, और फिर भी उसने अपनी छवि में स्त्री को बनाया। तुम कह सकते हो कि नारी है, और फिर भी परमेश्वर ने पुरुष को भी अपनी छवि में बनाया। तो यहाँ क्या चल रहा है? परमेश्वर एक धार्मिक परमेश्वर है, उसने अपनी छवि में स्त्री और पुरुष बनाए। पहली बार उसने पुरुष के रूप में देहधारण किया था, और अंत के दिनों में स्त्री के रूप में किया है, यानी वह दोनों लिंगों के साथ उचित व्यवहार करता है। अगर परमेश्वर दोनों बार पुरुष रूप में देहधारी होता, तो महिलाओं के प्रति अन्याय होता। यह कहना कि परमेश्वर या तो पुरुष है या स्त्री, परमेश्वर को बांधना है, जिससे उसे सर्वाधिक नफरत है। हर बार परमेश्वर मानवता को बचाने के लिए देहधारण करता है, और देहधारण का अर्थ है मानव का रूप लेना, चाहे पुरुष हो या स्त्री। हालाँकि परमेश्वर के देहधारी होने के लिंग को छोड़ दें तो उसका सार हमेशा से अपरिवर्तनीय है।” लगा, बात राफायल की समझ में आ गई और वह मेरी बात से सच में सहमत हो गया। फिर मैंने उसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के कुछ अंश भेजे : “परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य के प्रत्येक चरण के अपने व्यवहारिक मायने हैं। जब यीशु का आगमन हुआ, तो वह पुरुष रूप में आया, लेकिन इस बार के आगमन में परमेश्वर, स्त्री रूप में आता है। इससे तुम देख सकते हो कि परमेश्वर द्वारा पुरुष और स्त्री, दोनों का ही सृजन उसके काम के लिए उपयोगी हो सकता है, वह कोई लिंग-भेद नहीं करता। जब उसका आत्मा आता है, तो वह इच्छानुसार किसी भी देह को धारण कर सकता है और वही देह उसका प्रतिनिधित्व करता है; चाहे पुरुष हो या स्त्री, दोनों ही परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, यदि यह उसका देहधारी शरीर है। यदि यीशु स्त्री के रूप में आ जाता, यानी अगर पवित्र आत्मा ने लड़के के बजाय लड़की के रूप में गर्भधारण किया होता, तब भी कार्य का वह चरण उसी तरह से पूरा किया गया होता। और यदि ऐसा होता, तो कार्य का वर्तमान चरण पुरुष के द्वारा पूरा किया जाता और कार्य उसी तरह से पूरा किया जाता। प्रत्येक चरण में किए गए कार्य का अपना अर्थ है; कार्य का कोई भी चरण दोहराया नहीं जाता है या एक-दूसरे का विरोध नहीं करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दो देहधारण पूरा करते हैं देहधारण के मायने)। “यदि परमेश्वर केवल एक पुरुष के रूप में देह में आए, तो लोग उसे पुरुष के रूप में, पुरुषों के परमेश्वर के रूप में परिभाषित करेंगे, और कभी विश्वास नहीं करेंगे कि वह महिलाओं का परमेश्वर है। तब पुरुष यह मानेंगे कि परमेश्वर पुरुषों के समान लिंग का है, कि परमेश्वर पुरुषों का प्रमुख है—लेकिन फिर महिलाओं का क्या? यह अनुचित है; क्या यह पक्षपातपूर्ण व्यवहार नहीं है? यदि यही मामला होता, तो वे सभी लोग जिन्हें परमेश्वर ने बचाया, उसके समान पुरुष होते, और एक भी महिला नहीं बचाई गई होती। जब परमेश्वर ने मानवजाति का सृजन किया, तो उसने आदम को बनाया और उसने हव्वा को बनाया। उसने न केवल आदम को बनाया, बल्कि पुरुष और महिला दोनों को अपनी छवि में बनाया। परमेश्वर केवल पुरुषों का ही परमेश्वर नहीं है—वह महिलाओं का भी परमेश्वर है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3))। “परमेश्वर केवल पवित्र आत्मा, पवित्रात्मा, सात गुना तीव्र पवित्रात्मा या सर्व-व्यापी पवित्रात्मा ही नहीं है, बल्कि एक मनुष्य भी है—एक साधारण मनुष्य, एक अत्यधिक सामान्य मनुष्य। वह नर ही नहीं, नारी भी है। वे इस बात में एक-समान हैं कि वे दोनों ही मनुष्यों से जन्मे हैं, और इस बात में असमान हैं कि एक पवित्र आत्मा द्वारा गर्भ में आया और दूसरा मनुष्य से जन्मा किंतु सीधे पवित्रात्मा से उत्पन्न है। वे इस बात में एक-समान हैं कि परमेश्वर द्वारा धारित दोनों देह परमपिता परमेश्वर का कार्य करते हैं, और असमान इस बात में हैं कि एक ने छुटकारे का कार्य किया, जबकि दूसरा विजय का कार्य करता है। दोनों परमपिता परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन एक प्रेममय-करुणा और दयालुता से भरा मुक्तिदाता है और दूसरा कोप और न्याय से भरा धार्मिकता का परमेश्वर है। एक सर्वोच्च सेनापति है जिसने छुटकारे का कार्य आरंभ किया, जबकि दूसरा धार्मिक परमेश्वर है जो विजय का कार्य संपन्न करता है। एक आरंभ है, दूसरा अंत। एक निष्पाप देह है, दूसरा वह देह जो छुटकारे को पूरा करता है, कार्य जारी रखता है और कभी भी पापी नहीं है। दोनों एक ही पवित्रात्मा हैं, लेकिन वे भिन्न-भिन्न देहों में वास करते हैं और भिन्न-भिन्न स्थानों पर पैदा हुए थे और उनके बीच कई हजार वर्षों का अंतर है। फिर भी उनका संपूर्ण कार्य एक-दूसरे का पूरक है, कभी परस्पर-विरोधी नहीं है, और एक-दूसरे के तुल्य है। दोनों ही मनुष्य हैं, लेकिन एक बालक था और दूसरी बालिका” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ क्या है?)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद अनिला ने संगति की, “परमेश्वर का कार्य हमेशा नया होता है, कभी पुराना नहीं होता, वह उसे दोहराता नहीं। परमेश्वर का कार्य हमेशा नया होकर बदलता और लगातार उन्नत हो रहा होता है। अगर परमेश्वर को कार्य दोहराना पड़ता, तो इंसान उसे सीमांकित कर सकता था और हमें उसका सच्चा ज्ञान न होता। पहली बार जब परमेश्वर ने देहधारण किया तो वह इंसान था, तो प्रभु के फिर से एक इंसान की देह में लौटने के क्या नतीजे होंगे? इंसान परमेश्वर को पुरुष के रूप में सीमांकित करेगा, और सोचेगा कि परमेश्वर केवल पुरुषों को पहचानता है, उनका पक्ष लेता है। वह सोचेगा कि वह स्त्रियों से प्यार नहीं करता और उनसे दूर रहता है, और इसलिए स्त्रियों के साथ हमेशा भेदभाव होगा। क्या यह समझ सही है? क्या यह महिलाओं के लिए उचित है? क्या यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है? क्या ये बातें सिर्फ इंसानी धारणाएं और कल्पनाएं नहीं हैं? परमेश्वर धार्मिक है, वह पुरुषों-स्त्रियों से समान व्यवहार करता है। परमेश्वर ने एक बार पुरुष और एक बार स्त्री के बतौर देहधारण किया है। यह बहुत सार्थक है! अंत के दिनों में स्त्री के रूप में देहधारण करने वाले परमेश्वर ने सभी की धारणाएं उलट दी हैं, परमेश्वर के बारे में मनुष्य की भ्रामक समझ को उलट दिया है, इंसान की बनाई सीमाओं को तोड़ दिया है, लोगों को दिखाया है कि वह केवल पुरुषों का नहीं, स्त्रियों का भी परमेश्वर है। वह पूरी मानवता का परमेश्वर है। कोई भी अपनी धारणाएं बनाकर उसे पुरुष या स्त्री में सीमांकित नहीं कर सकता।”
अनिला की बात पूरी होने के बाद मैंने आगे कहा, “वास्तव में, चाहे परमेश्वर अपने देहधारणों में जैसा भी रूप ले, उसका सार नहीं बदलता। ये रूप देहधारी परमेश्वर का आत्मा हैं। ये स्वयं परमेश्वर के प्रतिनिधि हैं, और दिव्य कार्य करने में सक्षम हैं। अनुग्रह के युग में परमेश्वर देहधारी हुआ और मानवजाति की पापबलि के रूप में सूली पर चढ़ाया गया। प्रभु यीशु इंसान था और मानवता के छुटकारे के लिए वह सूली पर चढ़ गया। यदि परमेश्वर ने पहली बार एक स्त्री के रूप में देहधारण किया होता, तो वह अभी भी छुटकारे का कार्य पूरा कर रहा होता और मानवजाति को पश्चात्ताप का मार्ग देने के लिए सत्य व्यक्त करता। इसलिए परमेश्वर के देहधारण का लिंग और रूप अहम नहीं है, और उसमें महानता का प्रकटन है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि उसके पास परमेश्वर का सार है, वह सत्य व्यक्त करता है और मानवता को बचाने का कार्य करता है। सच्चे मार्ग की जांच-पड़ताल करते हुए हमें इन्हीं बातों पर पूरा ध्यान देना चाहिए।” फिर मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा : “जो देहधारी परमेश्वर है, उसके पास परमेश्वर का सार होगा और जो देहधारी परमेश्वर है, उसके पास परमेश्वर की अभिव्यक्ति होगी। चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया है, इसलिए वह उस कार्य को सामने लाएगा, जो वह करना चाहता है, और चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया है, इसलिए वह उसे अभिव्यक्त करेगा जो वह है और वह मनुष्य के लिए सत्य को लाने, उसे जीवन प्रदान करने और उसे मार्ग दिखाने में सक्षम होगा। जिस देह में परमेश्वर का सार नहीं है, वह निश्चित रूप से देहधारी परमेश्वर नहीं है; इसमें कोई संदेह नहीं। अगर मनुष्य यह पता करना चाहता है कि क्या यह देहधारी परमेश्वर है, तो इसकी पुष्टि उसे उसके द्वारा अभिव्यक्त स्वभाव और उसके द्वारा बोले गए वचनों से करनी चाहिए। इसे ऐसे कहें, व्यक्ति को इस बात का निश्चय कि यह देहधारी परमेश्वर है या नहीं और कि यह सही मार्ग है या नहीं, तो उसे इसकी पहचान उसके सार के आधार पर करनी चाहिए। और इसलिए, यह निर्धारित करने की कुंजी कि यह देहधारी परमेश्वर की देह है या नहीं, उसके बाहरी स्वरूप के बजाय उसके सार (उसका कार्य, उसके कथन, उसका स्वभाव और कई अन्य पहलू) में निहित है। यदि मनुष्य केवल उसके बाहरी स्वरूप की ही जाँच करता है, और परिणामस्वरूप उसके सार की अनदेखी करता है, तो इससे उसके अज्ञ और अज्ञानी होने का पता चलता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना)। मैंने संगति जारी रखी, “परमेश्वर का वचन एकदम साफ है। यह परमेश्वर का देहधारण है या नहीं, इसका पता लगाने के लिए खास बात ये देखना है कि क्या वह सत्य व्यक्त कर परमेश्वर का कार्य कर सकता है। यदि आप सच्चे मार्ग की जांच करते हुए उसकी वाणी सुनने पर ध्यान नहीं देते, इसके बजाय देहधारण के प्रकटन और लिंग के आधार पर आलोचना करते हैं, तो क्या आप प्रभु यीशु का विरोध करने की फरीसियों वाली गलती नहीं कर रहे? फरीसियों ने देखा कि उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और प्रकटन पूरी तरह उनकी धारणाओं और मसीहा की उनकी भ्रांति से मेल नहीं खाता, तो उन्होंने प्रभु यीशु की आलोचना की, उसके वचनों या कार्य को खोजे या जांचे बिना उसकी निंदा की। अंत में उन्होंने परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाते हुए यीशु को सूली पर चढ़ा दिया, और इसलिए वे दंडित और शापित हुए। यदि लोग सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते या परमेश्वर की वाणी सुनने पर ध्यान नहीं देते, और सर्वशक्तिमान परमेश्वर से इनकार और विरोध करते हैं क्योंकि स्त्री के रूप में देहधारण उनकी धारणाओं के मुताबिक नहीं है, तो क्या यह परमेश्वर को फिर से सूली पर चढ़ाना नहीं है?”
राफायल के साथ संगति करने के बाद, उसने कहा कि वह सत्य खोजता रहेगा, और जब हमने उसे अगली शाम एक सभा में बुलाया, तो वह तुरंत मान गया। मगर, मुझे ताज्जुब हुआ जब वह अगली शाम नहीं आया और मेरे फोन करने पर उसने उसका जवाब भी नहीं दिया। मैं काफी चिंतित थी। इसलिए, हर सुबह उठकर मैं उसे परमेश्वर के कुछ वचन भेजती, इस उम्मीद में कि एक दिन वह जवाब देगा। मगर उसने मेरे संदेश कभी नहीं पढ़े, और सच में मेरी उम्मीद टूटने लगी। बाद में, मेरे दूसरे भाई-बहनों ने उससे संपर्क करने की कोशिश की, पर संपर्क नहीं हो सका। मैं फिर से निराशा की स्थिति में डूब गई, मुझे लगा कि यह तो होना ही था। मैं उस पर अपनी उम्मीद पूरी तरह छोड़ने वाली थी, कि तभी मुझे एक लेख मिला, जिसमें एक बहन का एक इतालवी भाई के साथ सुसमाचार साझा करने का अनुभव बताया गया था। मैं इस भाई को जानती थी जिसके साथ सुसमाचार साझा किया गया था, क्योंकि वर्तमान में वह सुसमाचार फैलाने में मेरा साथी था। इस भाई में अच्छी मानवता थी और सत्य की शुद्ध समझ थी, इसलिए मैंने कभी अपेक्षा नहीं की थी कि सुसमाचार सुनते समय उसकी इतनी धारणाएं होंगी या वह बहन दो महीने तक उससे संपर्क नहीं कर पाएगी। फिर भी बहन ने हार नहीं मानी। वह बस तब तक प्रतीक्षा करती रही और उसके साथ परमेश्वर के वचन पर संगति के मौके ढूंढती रही, जब तक सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन ने अंततः एक-एक करके उसकी धारणाएं सुलझा नहीं दीं, और उसने अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकार नहीं लिया। बहन के अनुभव ने मुझे बहुत द्रवित किया, पर साथ ही मुझे शर्मिंदा भी किया। परमेश्वर ने बहुत कार्य किया है, बहुत बड़ी कीमत चुकाई है, और अपने सामने आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए बहुत-से लोगों, घटनाओं और चीजों की व्यवस्था की है। अगर मैं मनुष्य को बचाने की परमेश्वर की गहरी विचारशीलता को समझती, तो मुझे उसके इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए था। पर जरा सी कठिनाई होने पर मैं पीछे हटने और हार मानने को तैयार थी। मुझमें दृढ़ता की पूरी तरह कमी थी। मेरी वफादारी और गवाही कहाँ थी? तब मैंने परमेश्वर का वचन पढ़ा : “सुसमाचार फैलाने में तुम्हें पहले अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। तुम जो कर सकते हो और जो तुम्हें करना चाहिए, उसे करने में तुम्हें अपने अंतःकरण और समझ से काम लेना चाहिए। सच्चे मार्ग की छानबीन करने वाले इंसान की जो भी धारणाएँ हों या वह जो भी प्रश्न उठाए, तुम्हें प्रेमपूर्वक उनका समाधान करना चाहिए। अगर तुम वाकई कोई समाधान नहीं दे सकते, तो तुम उसे पढ़कर सुनाने के लिए परमेश्वर के वचनों के कुछ प्रासंगिक अंश या दिखाने के लिए अनुभवजन्य गवाही के प्रासंगिक वीडियो या सुसमाचार की गवाही वाली कुछ प्रासंगिक फिल्में ढूँढ़ सकते हो। इसके कारगर होने की पूरी संभावना है; कम से कम तुम अपनी जिम्मेदारी तो पूरी कर ही रहे होगे, और अपनी अंतरात्मा में अपराधी तो महसूस नहीं करोगे। लेकिन अगर तुम लापरवाह हो और जैसे-तैसे काम निपटाते हो, तो तुम चीजों में देरी कर सकते हो, और तब उस इंसान को जीतना आसान नहीं होगा। दूसरों तक सुसमाचार फैलाने में इंसान को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। ‘जिम्मेदारी’ शब्द को कैसे समझा जाए? इसे ठीक-ठीक कैसे अमल में लाया और लागू किया जाना चाहिए? तुम्हें यह समझना चाहिए कि प्रभु का स्वागत और अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के बाद, तुम पर उन लोगों को उसके कार्य की गवाही देने का दायित्व होता है जो उसके प्रकटन के लिए प्यासे हैं। तो तुम उनमें सुसमाचार कैसे फैलाओगे? चाहे ऑनलाइन हो या वास्तविक जीवन में, तुम्हें इसे उस तरीके से फैलाना चाहिए जिससे लोगों को जीता जा सके और जो प्रभावी हो। सुसमाचार फैलाना कोई ऐसा काम नहीं है जिसे तुम जब चाहो तब करो, जब तुम्हारा मन हो तब करो और जब तम्हारा मन न हो तब न करो। न ही यह तुम्हारी प्राथमिकताओं के अनुसार किया जाने वाला काम है, जहाँ तुम यह तय कर सको कि किसे प्राथमिकता दी जाए और किसे नहीं, यानी जो लोग तुम्हें पसंद हैं उन्हें सुसमाचार सुनाया और जो पसंद नहीं, उन्हें नहीं सुनाया। सुसमाचार परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके घर के सिद्धांतों के अनुसार फैलाया जाना चाहिए। तुम्हें एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी और कर्तव्य निभाने चाहिए, और सच्चे मार्ग की छानबीन करने वालों के सामने जो सत्य तुम समझते हो उनकी, परमेश्वर के वचनों की और परमेश्वर के कार्य गवाही देने के लिए वह सब करना चाहिए, जो तुम कर सकते हो। तुम्हें इसी तरह एक सृजित के प्राणी की जिम्मेदारी और कर्तव्य पूरा करना चाहिए। सुसमाचार फैलाते समय व्यक्ति को क्या करना चाहिए? उसे अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए, वह सब करना चाहिए जो वह कर सकता है, और हर कीमत चुकाने के लिए तैयार होना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। “तो, जो कोई सच्चे मार्ग की जाँच कर रहा हो, उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए? अगर वह सुसमाचार फैलाने के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुरूप है, तो हमारा दायित्व है कि हम उसके साथ इसका प्रचार करें; भले ही उसका वर्तमान रवैया खराब और स्वीकार न करने वाला हो, हमें धैर्य से काम लेना चाहिए। हमें कब तक और किस हद तक धैर्य रखना चाहिए? जब तक वह तुम्हें नकार न दे और तुम्हें अपने घर न आने दे, और कोई चर्चा काम न आए, न ही उसे बुलाना या किसी दूसरे का उसे जाकर आमंत्रित करना काम आए, और वह तुम्हें स्वीकार न करे। ऐसी स्थिति में, उस तक सुसमाचार फैलाने का कोई तरीका नहीं है। तभी तुमने अपनी जिम्मेदारी पूरी की होगी। अपना कर्तव्य निभाने का यही अर्थ है। हालाँकि, जब तक थोड़ी-सी भी आशा बची हो, तो तुम्हें हर संभव उपाय करने के बारे में सोचना चाहिए और उसे परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाने और उसके कार्य की गवाही देने का भरसक प्रयास करना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो, तुम दो या तीन साल से किसी के संपर्क में रहे हो। तुमने उसके सामने कई बार सुसमाचार फैलाने और परमेश्वर की गवाही देने की कोशिश की है, लेकिन उसका इसे स्वीकार करने का कोई इरादा नहीं है। फिर भी, उसकी समझ बहुत अच्छी है और वह वास्तव में एक संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता है। ऐसे में तुम्हें क्या करना चाहिए? सबसे पहले, तुम्हें उससे बिल्कुल भी निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि उसके साथ सामान्य बातचीत करते रहना चाहिए, और उसे परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाना और उसके कार्य की गवाही देना जारी रखना चाहिए। उससे निराश मत हो; अंत तक धैर्य रखो। किसी अज्ञात दिन, वह जागेगा और महसूस करेगा कि यह सच्चे मार्ग की जाँच करने का समय है। इसीलिए धैर्य रखना और अंत तक दृढ़ता से डटे रहना सुसमाचार फैलाने का बहुत महत्वपूर्ण पहलू है। और ऐसा क्यों करना है? क्योंकि यह सृजित प्राणी का कर्तव्य है। चूँकि तुम उसके संपर्क में हो, इसलिए तुम पर उसे परमेश्वर का सुसमाचार सुनाने का दायित्व और जिम्मेदारी है। परमेश्वर के वचन और सुसमाचार पहली बार सुनने से लेकर उसके बदल जाने के बीच कई प्रक्रियाएँ शामिल होंगी, और इसमें समय लगता है। यह अवधि तुमसे उस दिन तक धैर्य रखने और प्रतीक्षा करने की माँग करती है, जब तक कि वह खुद को बदल न ले और तुम उसे परमेश्वर के सामने, उसके घर में वापस न ले आओ। यह तुम्हारा दायित्व है। दायित्व क्या होता है? यह ऐसी जिम्मेदारी होती है जिससे बचा नहीं जा सकता, जिसके प्रति व्यक्ति का नैतिक दायित्व होता है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे कोई माँ अपने बच्चे के साथ पेश आती है। बच्चा कितना भी अवज्ञाकारी या शरारती हो, या अगर वह बीमार हो और खाना न खा रहा हो, तो माँ का क्या दायित्व है? यह जानते हुए कि यह उसकी संतान है, वह उसे दुलारती है, उससे प्यार करती है और उसकी परवाह करती है। चाहे बच्चा उसे अपनी माँ माने या न माने, उसके साथ कैसा भी व्यवहार करे—सब समय उसके साथ रहती है, उसकी रक्षा करती है, वह एक पल के लिए भी उसे नहीं छोड़ती, निरंतर इंतजार करती है कि वह विश्वास करने लगे कि वह उसकी माँ है और उसके आगोश में लौट आए। इस तरह, वह लगातार उस पर नजर रखती है और उसकी परवाह करती है। जिम्मेदारी का यही मतलब है; नैतिक दायित्व होने का यही अर्थ है। सुसमाचार फैलाने में लगे हुए लोग अगर इस तरह से, लोगों के प्रति इस तरह का स्नेही दिल रखकर अभ्यास करेंगे, तो वे सुसमाचार फैलाने के सिद्धांत कायम रख पाएँगे और नतीजे हासिल करने में पूरी तरह सक्षम होंगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। परमेश्वर ने सुसमाचार कर्मियों की जिम्मेदारी बहुत साफ-साफ बताई है। सुसमाचार पाने वाले हर संभावित इंसान की स्थिति अलग होती है और उससे अलग व्यवहार करना चाहिए। आप अपनी धारणाओं, कल्पनाओं या पूर्वाग्रहों पर भरोसा नहीं कर सकते, जो उन्हें रोकती और सीमाओं में बांधती हैं, जल्दबाजी में उन्हें छोड़ना तो भूल ही जाएं। अगर सिद्धांतों के अनुसार आप किसी को सही सुसमाचार पाने वाला समझते हैं, तो आपको भरसक प्रयास करना होगा और अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य की गवाही देने के लिए हर साधन उपयोग करना होगा, और उन्हें परमेश्वर के सामने ले जाना होगा। ये वे सिद्धांत हैं, जो सुसमाचार फैलाने में इस्तेमाल होने चाहिए। हालाँकि, भाई राफायल से संपर्क न हो पाने के कुछ समय बाद ही मुझमें धैर्य और संवेदना कम हो गई थी। मैं कठिन समय से गुजर रही थी और उसके साथ संगति की कोशिश नहीं करना चाहती थी, मुझे लगा कि उसके हमें अनदेखा करने, फोन का जवाब न देने और हमारे संदेश न पढ़ने से, मैं कुछ और नहीं कर सकती। मुझे जो संगति करनी चाहिए थी, वह मैंने की, वह राफायल ही था जिसने उसे स्वीकार नहीं किया, मैं और अधिक प्रयास नहीं कर सकती थी, तो उसे कुछ समय के लिए अलग कर दिया। फिर भी, मैंने बहुत असहज महसूस किया। मैं सोचती रही कि इस भाई में सच्ची आस्था, और एक अच्छी काबिलियत और सत्य समझने की क्षमता है, पर एक याजक के बाधा डालने और गुमराह करने के कारण वह धार्मिक धारणाओं में जकड गया है। मुझे इस अहम पल में उसकी मदद करनी थी, मैं बस यूँ ही निष्क्रिय नहीं रह सकती थी। मुझे एक सुसमाचार-कर्मी की जिम्मेदारियां पूरी करनी थीं। इसलिए मैंने उसकी मदद की उम्मीद के साथ अनुभवात्मक गवाही का लेख भेजा। चाहे वह पढ़े या न पढ़े, मैं जो कर सकती थी, वह सब मुझे करना था।
कुछ दिन बाद उसने मुझे संदेश भेजा, “मैं इस पूरे समय प्रार्थना करता रहा हूँ। हालाँकि मैंने कुछ नहीं कहा है, पर मैं जानता हूँ कि परमेश्वर हमारे दिलों को जांचता है। मेरा मन सर्वशक्तिमान परमेश्वर को पुकार रहा है कि वह मुझे प्रबुद्ध कर मार्गदर्शन करे, ताकि मैं गलती कर उसे नाराज न करूँ।” मैं बहुत द्रवित हुई। फिर जवाब में मैंने उसे यह कहते देखा, “यह दुनिया बहुत भ्रष्ट और बुरी है। परमेश्वर के करीब जाना लोगों के लिए कितना कठिन है। बुराई के खिलाफ एकमात्र हथियार सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन और बाइबल हैं।” उसने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का वचन स्वीकार किया था, इससे साबित हुआ कि वह परमेश्वर की वाणी समझ सकता था और उसकी वापसी की आशा थी। मगर मुझे पता था कि वह भयंकर अंदरूनी संघर्ष से गुजर रहा था, और मुझे चिंता हुई कि शायद वह किसी भी समय मेरे संदेश पढ़ना बंद कर देगा। मैं बहुत चिंतित थी, इसलिए मैंने खुद को शांत किया और परमेश्वर से प्रार्थना की। प्रार्थना के समय मुझे परमेश्वर के वचन का एक वाक्यांश याद आया : “परमेश्वर किसी भी कीमत पर, या अंतिम क्षण तक, मनुष्य को आसानी से नहीं त्यागेगा।” प्रेरित होकर मैंने जल्दी से परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े : “योना की पुस्तक 4:10-11 में निम्नलिखित अंश दर्ज किया गया है : ‘तब यहोवा ने कहा, “जिस रेंड़ के पेड़ के लिये तू ने कुछ परिश्रम नहीं किया, न उसको बढ़ाया, जो एक ही रात में हुआ, और एक ही रात में नष्ट भी हुआ; उस पर तू ने तरस खाई है। फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिसमें एक लाख बीस हज़ार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दाहिने बाएँ हाथों का भेद नहीं पहिचानते, और बहुत से घरेलू पशु भी उसमें रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊँ?”’ ये यहोवा परमेश्वर के वास्तविक वचन हैं, जो उसके और योना के बीच हुए वार्तालाप से दर्ज किए गए हैं। यद्यपि यह संवाद संक्षिप्त है, फिर भी यह मानवजाति के प्रति सृष्टिकर्ता की परवाह और उसे त्यागने की उसकी अनिच्छा से भरा हुआ है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। “यद्यपि योना को नीनवे के लोगों के लिए यहोवा परमेश्वर के वचनों की घोषणा का काम सौंपा गया था, किंतु उसने यहोवा परमेश्वर के इरादों को नहीं समझा, न ही उसने नगर के लोगों के लिए उसकी चिंताओं और अपेक्षाओं को समझा। इस फटकार से परमेश्वर उसे यह बताना चाहता था कि मनुष्य उसके अपने हाथों की रचना है, और उसने प्रत्येक व्यक्ति के लिए कठिन प्रयास किया है, प्रत्येक व्यक्ति अपने कंधों पर परमेश्वर की अपेक्षाएँ लिए हुए है, और प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर के जीवन की आपूर्ति का आनंद लेता है; प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर ने भारी कीमत चुकाई है। इस फटकार ने योना को यह भी बताया कि परमेश्वर मनुष्य पर तरस खाता है, जो उसके हाथों की रचना है, वैसे ही जैसे योना ने स्वयं कद्दू पर तरस खाया था। परमेश्वर किसी भी कीमत पर, या अंतिम क्षण तक, मनुष्य को आसानी से नहीं त्यागेगा; खासकर इसलिए, क्योंकि नगर में बहुत सारे बच्चे और निरीह मवेशी थे” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरा दिल भर आया, इसलिए मैंने राफायल से कहा : “भाई, तुम विचारशील व्यक्ति हो, जो परमेश्वर की वाणी समझ सकता है। परमेश्वर ने अंत के दिनों में देहधारण कर हमारा पोषण करने, हमें पाप के बंधन से बचाने और अपने राज्य में प्रवेश हेतु शुद्ध करने के लिए सत्य के लाखों वचन व्यक्त किए हैं। आशा है कि तुम हमारे भाग्य और नतीजों से जुड़े इस मामले पर अच्छी तरह सोच सकते हो। मैं तुम्हारे लिए प्रार्थना करूँगी। परमेश्वर तुम्हें खुले दिल से जल्द ही अपने घर में वापस आने की अनुमति दे।” फिर मैंने उसे परमेश्वर के वचन के तीन अंशों का पाठ भेजा। इनमें से परमेश्वर के वचन के एक अंश ने उसे आत्मचिंतन के लिए प्रेरित किया, और उसे एक अहम मोड़ पर ले आया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “यीशु की वापसी उन लोगों के लिए एक महान उद्धार है, जो सत्य को स्वीकार करने में सक्षम हैं, पर उनके लिए जो सत्य को स्वीकार करने में असमर्थ हैं, यह दंडाज्ञा का संकेत है। तुम लोगों को अपना स्वयं का रास्ता चुनना चाहिए, और पवित्र आत्मा के खिलाफ निंदा नहीं करनी चाहिए और सत्य को अस्वीकार नहीं करना चाहिए। तुम लोगों को अज्ञानी और अभिमानी व्यक्ति नहीं बनना चाहिए, बल्कि ऐसा बनना चाहिए जो पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के प्रति समर्पण करता हो और सत्य के लिए लालायित होकर इसकी खोज करता हो; सिर्फ इसी तरीके से तुम लोग लाभान्वित होगे। मैं तुम लोगों को परमेश्वर में विश्वास के रास्ते पर सावधानी से चलने की सलाह देता हूँ। निष्कर्ष पर पहुँचने की जल्दी में न रहो; और परमेश्वर में अपने विश्वास में लापरवाह और विचारहीन न बनो। तुम लोगों को जानना चाहिए कि कम से कम, जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं उनके पास विनम्र और परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होना चाहिए। जिन्होंने सत्य सुन लिया है और फिर भी इस पर अपनी नाक-भौंह सिकोड़ते हैं, वे मूर्ख और अज्ञानी हैं। जिन्होंने सत्य सुन लिया है और फिर भी लापरवाही के साथ निष्कर्षों तक पहुँचते हैं या उसकी निंदा करते हैं, ऐसे लोग अभिमान से घिरे हैं। जो भी यीशु पर विश्वास करता है वह दूसरों को शाप देने या निंदा करने के योग्य नहीं है। तुम सब लोगों को ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो समझदार है और सत्य स्वीकार करता है। शायद, सत्य के मार्ग को सुनकर और जीवन के वचन को पढ़कर, तुम विश्वास करते हो कि इन 10,000 वचनों में से सिर्फ़ एक ही वचन है, जो तुम्हारे दृढ़ विश्वास और बाइबल के अनुसार है, और फिर तुम्हें इन 10,000 वचनों में खोज करते रहना चाहिए। मैं अब भी तुम्हें सुझाव देता हूँ कि विनम्र बनो, अति-आत्मविश्वासी न बनो और अपनी बहुत बड़ाई न करो। परमेश्वर का भय मानने वाले अपने थोड़े-से हृदय से तुम अधिक रोशनी प्राप्त करोगे। यदि तुम इन वचनों की सावधानी से जाँच करो और इन पर बार-बार मनन करो, तब तुम समझोगे कि वे सत्य हैं या नहीं, वे जीवन हैं या नहीं। शायद, केवल कुछ वाक्य पढ़कर, कुछ लोग इन वचनों की आँखें मूँदकर यह कहते हुए निंदा करेंगे, ‘यह पवित्र आत्मा की थोड़ी प्रबुद्धता से अधिक कुछ नहीं है,’ या ‘यह एक झूठा मसीह है जो लोगों को गुमराह करने आया है।’ जो लोग ऐसी बातें कहते हैं वे अज्ञानता से अंधे हो गए हैं! तुम परमेश्वर के कार्य और बुद्धि को बहुत कम समझते हो और मैं तुम्हें पुनः शुरू से आरंभ करने की सलाह देता हूँ! तुम लोगों को अंत के दिनों में झूठे मसीहों के प्रकट होने की वजह से आँख बंदकर परमेश्वर द्वारा अभिव्यक्त वचनों का तिरस्कार नहीं करना चाहिए और चूँकि तुम गुमराह होने से डरते हो, इसलिए तुम्हें पवित्र आत्मा के खिलाफ निंदा नहीं करनी चाहिए। क्या यह बड़ी दयनीय स्थिति नहीं होगी? यदि, बहुत जाँच के बाद, अब भी तुम्हें लगता है कि ये वचन सत्य नहीं हैं, मार्ग नहीं हैं और परमेश्वर की अभिव्यक्ति नहीं हैं, तो फिर अंततः तुम दंडित किए जाओगे और आशीष के बिना होगे। यदि तुम ऐसा सत्य, जो इतने सादे और स्पष्ट ढंग से कहा गया है, स्वीकार नहीं कर सकते, तो क्या तुम परमेश्वर के उद्धार के अयोग्य नहीं हो? क्या तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो, जो परमेश्वर के सिंहासन के सामने लौटने के लिए पर्याप्त सौभाग्यशाली नहीं है? इस बारे में सोचो! उतावले और अविवेकी न बनो और परमेश्वर में विश्वास के साथ खेल की तरह पेश न आओ। अपनी मंज़िल के लिए, अपनी संभावनाओं के वास्ते, अपने जीवन के लिए सोचो और स्वयं से खेल न करो। क्या तुम इन वचनों को स्वीकार कर सकते हो?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जब तक तुम यीशु के आध्यात्मिक शरीर को देखोगे, परमेश्वर स्वर्ग और पृथ्वी को फिर से बना चुका होगा)। उस दिन राफायल ने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा और इस पर अपनी भावनाओं और समझ के बारे में मुझे एक लंबा संदेश भेजा। मैं देख सकती थी कि वह भ्रमित और चिंतित था कि कहीं गलत रास्ता न अपना ले, उसे लगता था कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर में आस्था का अर्थ था दूसरे संप्रदाय का अनुसरण और प्रभु यीशु को धोखा देना। मैंने उसे भेजने के लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश ढूँढ़ा और संगति की, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया किसी धार्मिक समूह से नहीं जुड़ी है। लौटकर आए प्रभु यीशु के प्रकटन और कार्य के कारण इसकी दिशा बदली, इसलिए नहीं कि किसी ने नए संप्रदाय की स्थापना की हो। सर्वशक्तिमान परमेश्वर न्याय का कार्य करने, राज्य के युग की शुरुआत करने और अनुग्रह के युग को खत्म करने के लिए सत्य व्यक्त करता है। स्वयं देहधारी परमेश्वर के अलावा दुनिया में कोई अगुआ, या महान या प्रसिद्ध व्यक्ति नहीं है जो सत्य व्यक्त कर सके, अगुआई कर सके या मानवता को बचा सके। हालाँकि सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य प्रभु यीशु या यहोवा के कार्य से भिन्न है, वे सार रूप में एक ही परमेश्वर हैं। यहोवा, यीशु और सर्वशक्तिमान परमेश्वर अलग-अलग युगों में परमेश्वर के अलग नाम हैं। मगर चाहे परमेश्वर का नाम या कार्य जैसे भी बदलें, उसका सार नहीं बदलता। परमेश्वर हमेशा के लिए परमेश्वर है। परमेश्वर कहता है : ‘जो कार्य यीशु ने किया, उसने यीशु के नाम का प्रतिनिधित्व किया, और उसने अनुग्रह के युग का प्रतिनिधित्व किया; जहाँ तक यहोवा द्वारा किए गए कार्य की बात है, उसने यहोवा का प्रतिनिधित्व किया, और उसने व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व किया। उनका कार्य दो भिन्न-भिन्न युगों में एक ही पवित्रात्मा का कार्य था। ... यद्यपि उन्हें दो भिन्न-भिन्न नामों से बुलाया गया, फिर भी यह एक ही पवित्रात्मा था, जिसने कार्य के दोनों चरण संपन्न किए, और जो कार्य किया जाना था, वह सतत था। चूँकि नाम भिन्न था, और कार्य की विषय-वस्तु भिन्न थी, इसलिए युग भिन्न था। जब यहोवा आया, तो वह यहोवा का युग था, और जब यीशु आया, तो वह यीशु का युग था। और इसलिए, हर आगमन के साथ परमेश्वर को एक नाम से बुलाया जाता है, इससे एक युग का प्रतिनिधित्व होता है, और वह एक नए मार्ग का सूत्रपात करता है; और हर नए मार्ग पर वह एक नया नाम अपनाता है, जो दर्शाता है कि परमेश्वर हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता, और कि उसका कार्य आगे की दिशा में प्रगति करने से कभी नहीं रुकता। इतिहास हमेशा आगे बढ़ रहा है, और परमेश्वर का कार्य हमेशा आगे बढ़ रहा है। उसकी छह-हज़ार-वर्षीय प्रबंधन योजना को अंत तक पहुँचने के लिए उसे आगे की दिशा में प्रगति करते रहना चाहिए। हर दिन उसे नया कार्य करना चाहिए, हर वर्ष उसे नया कार्य करना चाहिए; उसे नए मार्गों का सूत्रपात करना चाहिए, नए युगों का सूत्रपात करना चाहिए, नया और अधिक बड़ा कार्य आरंभ करना चाहिए, और इनके साथ, नए नाम और नया कार्य लाना चाहिए। ... यहोवा के कार्य से लेकर यीशु के कार्य तक, और यीशु के कार्य से लेकर इस वर्तमान चरण तक, ये तीन चरण परमेश्वर के प्रबंधन के पूर्ण विस्तार को एक सतत सूत्र में पिरोते हैं, और वे सब एक ही पवित्रात्मा का कार्य हैं। दुनिया के सृजन से परमेश्वर हमेशा मानवजाति का प्रबंधन करता आ रहा है। वही आरंभ और अंत है, वही प्रथम और अंतिम है, और वही एक है जो युग का आरंभ करता है और वही एक है जो युग का अंत करता है। विभिन्न युगों और विभिन्न स्थानों में कार्य के तीन चरण अचूक रूप में एक ही पवित्रात्मा का कार्य हैं। इन तीन चरणों को पृथक करने वाले सभी लोग परमेश्वर के विरोध में खड़े हैं। अब तुम्हारे लिए यह समझना उचित है कि प्रथम चरण से लेकर आज तक का समस्त कार्य एक ही परमेश्वर का कार्य है, एक ही पवित्रात्मा का कार्य है। इस बारे में कोई संदेह नहीं हो सकता’ (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3))। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का वचन बहुत साफ है। मानवता को बचाने के परमेश्वर के कार्य को तीन चरणों में बाँटा गया है। पहला चरण व्यवस्था के युग का कार्य था, जिसमें यहोवा ने इस्राएलियों की पृथ्वी पर रहने में अगुआई करने के लिए व्यवस्थाएं जारी कीं। दूसरा चरण अनुग्रह के युग में छुटकारे का कार्य था, तब पहली बार परमेश्वर ने मानवजाति की पापबलि के बतौर कार्य करने के लिए देहधारण किया था। कार्य का तीसरा चरण अंत के दिनों में न्याय का कार्य है जैसी प्रकाशित वाक्य की पुस्तक में भविष्यवाणी की गई है। कार्य के ये तीन चरण मानवता को बचाने के लिए परमेश्वर की संपूर्ण प्रबंधन योजना है। हर युग में परमेश्वर अलग-अलग कार्य करता है, पर तीनों चरणों का कार्य एक ही परमेश्वर करता है। मैं एक सरल उदाहरण दूँगी। परमेश्वर के प्रबंधन कार्य की तुलना घर के निर्माण से की जा सकती है। व्यवस्था का युग घर की नींव की तरह है, क्योंकि नींव के बिना घर बिल्कुल नहीं बन सकता। अनुग्रह का युग घर के ढांचे की तरह है, क्योंकि ढांचे के बिना घर खड़ा नहीं रह सकता। राज्य का युग छत के समान है। इस अंतिम चरण के बिना घर अधूरा रहता है और हवा या बारिश को रोक नहीं सकता। इसलिए इन तीन चरणों में हरेक चरण जरूरी है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर में हमारी आस्था का अर्थ यह नहीं कि हमने प्रभु यीशु को धोखा दिया है, किसी भिन्न परमेश्वर में आस्था की तो बात ही नहीं। हम बस मेमने के पदचिह्नों पर चल रहे हैं। वर्तमान में दुनिया में कई प्रमुख धर्म हैं और परमेश्वर के विश्वासी दो हजार से अधिक संप्रदायों में बँटे हुए हैं। अपने पिछले संप्रदायों की परवाह किए बिना अधिक से अधिक भाई-बहनें सच्ची आस्था और परमेश्वर के प्रकटन की प्यास के साथ अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य स्वीकार करने आए हैं, उसके वचन के सिंचन और पोषण को स्वीकारने आए हैं। यह तथ्य दिन की तरह साफ है। यह बाइबल की इस भविष्यवाणी को भी पूरा करता है, ‘कि समयों के पूरे होने का ऐसा प्रबन्ध हो कि जो कुछ स्वर्ग में है और जो कुछ पृथ्वी पर है, सब कुछ वह मसीह में एकत्र करे’ (इफिसियों 1:10)। ‘अन्त के दिनों में ऐसा होगा कि यहोवा के भवन का पर्वत सब पहाड़ों पर दृढ़ किया जाएगा, और सब पहाड़ियों से अधिक ऊँचा किया जाएगा; और हर जाति के लोग धारा के समान उसकी ओर चलेंगे’ (यशायाह 2:2)।” मुझे जो कहना था, उसे देखकर राफायल ने प्रार्थना वाली इमोजी भेजकर कहा, “आप सही कह रही हैं, सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही सच्चा परमेश्वर है, हम सभी को उसके नाम की छत्रछाया में आना चाहिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर मुझे बुलाता है। वह मेरे मन, मेरी चिंताओं और आशंकाओं के बारे में जानता है।” फिर मैंने उसे कुछ सुसमाचार फिल्में और परमेश्वर के कुछ वचन भेजे। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना भी की, और कहा कि चाहे राफायल अंततः सभाओं में आए या न आए, मैं हर संभव कोशिश करूँगी, और प्रतीक्षा करना, सत्य खोजना और समर्पण करना सीखूँगी।
चार दिन बाद मुझे उससे एक अप्रत्याशित संदेश मिला जिसमें उसने पूछा था कि क्या वह सभाओं में आना जारी रखे। उसने यह भी कहा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर का वचन उनके लिए बहुत कीमती था और वह इसके बिना नहीं रह सकता। परमेश्वर के वचन से उसने बाइबल के कई सत्य और रहस्य जाने। परमेश्वर के वचन से वह खिंचा चला आया। उस पल, मैं अपने आँसू नहीं रोक सकी। मैं वास्तव में परमेश्वर की शुक्रगुजार हूँ! बाद में उसने कहा कि उसने मेरे भेजे गए परमेश्वर के वचन पढ़े थे, और उनमें पूछे गए प्रश्नों से उसे बहुत अपराध-बोध हुआ। उसने कहा, “मैं आस्था में लापरवाह नहीं हो सकता या इसे खेल नहीं मान सकता था, इसलिए मैंने सच्चे मार्ग की जांच जारी रखने का फैसला किया है। प्रभु की वापसी मेरे लिए बहुत अहम है, मैं उसके स्वागत का मौका नहीं खोना चाहता। अंततः मैं उसे नाराज करना या धोखा नहीं देना चाहता।” मैं बहुत उत्साहित हुई! मैंने परमेश्वर के वचन का अधिकार और सामर्थ्य देखा। परमेश्वर के वचनों ने राफायल को मोड़ा और उससे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने का निर्णय कराया।
इस अनुभव से मैं सचमुच प्रभावित हुई, मुझे एहसास हुआ कि चाहे मैं सुसमाचार पाने वाले किसी भी संभावित इंसान से मिलूँ, अगर वे परमेश्वर की वाणी समझ सकते हैं, मुझे उन्हें परमेश्वर के घर में लाने का अपना कर्तव्य और दायित्व पूरा करना चाहिए। केवल इसी तरह कर्तव्य निभाने से हम ऋणों और पछतावों को पीछे छोड़ सकते हैं। परमेश्वर का धन्यवाद!