70. मैं दूसरों की समस्याएँ उजागर करने से क्यों डरती हूँ?

स्कूल में, मेरे कुछ सहपाठी बहुत बेबाकी से बोला करते थे। दूसरों को गलत करते देख, उनके सामने ही उनकी गलती बता देते, जिससे वे अक्सर नाराज हो जाते और उन्हें किनारे कर दिया जाता। मैंने सोचा : “क्या इन लोगों को अक्ल नहीं है? कहावत है, ‘अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है’ और ‘लोगों की कमियों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए।’ सब कुछ देखो, पर सब बोलो मत, इस तरह कोई भी इंसान भीड़ का हिस्सा बन सकता है। अगर तुम्हारी बातें बहुत सीधी हैं, तो इरादे बुरे न होने पर भी लोग अच्छे से पेश नहीं आएँगे और तुम्हें ठुकरा देंगे। इस तरह तुम दोस्त कैसे बना सकोगे?” इसलिए दूसरों के साथ मेलजोल में, मैं कभी सीधे उनकी समस्याएँ नहीं बताती थी। मेरे सहपाठी मुझे पसंद करते थे, मेरे दोस्त थे, वे कहते कि मैं मिलनसार और अच्छी हूँ, मैं सोचती थी कि मेरे पास अच्छी मानवता है। परमेश्वर में आस्था रखने के बाद, मैं भाई-बहनों के साथ भी इसी तरह पेश आई। दूसरों में समस्याएँ दिखने पर मैं उन्हें नहीं बताती थी। हमेशा यही लगता कि सीधी बात करने से लोग परेशान हो जाएँगे, शायद उन्हें लगे कि मैं उन पर निशाना साधकर उनकी कमियाँ उजागर करना चाहती हूँ, और इससे हमारा रिश्ता टूट सकता है। जब मैंने एक प्रकाशन का अनुभव किया और परमेश्वर के वचन पढ़े, तब पता चला कि दूसरों से पेश आने का मेरा तरीका सत्य और परमेश्वर के विरुद्ध था।

2015 की बात है, वीडियो कार्य में लेस्ली मेरी साथी थी। वह मुझसे पहले से आस्था रखती थी था और मुझसे बड़ी भी थी। हम एक-दूसरे के प्रति विनम्र थे, हमारी अच्छी बनती थी, और कोई मतभेद नहीं था। बाद में, मुझे सुपरवाइजर बना दिया गया। एक बार, दूसरों ने रिपोर्ट कर दी कि लेस्ली लापरवाह, धूर्त और बेईमान है, और वह काम में बाधा डाल रही है। मुझे लेस्ली की समस्या काफी गंभीर लगी, इसलिए सहकर्मियों से उसकी समस्याएँ सामने लाकर उजागर करने के बारे में बात की, ताकि वह आत्म-चिंतन करके खुद को जाने और पश्चात्ताप करके बदल सके। मेरे सहकर्मी मुझसे सहमत थे, उन्होंने पूछा कि लेस्ली के साथ संगति करने किसे जाना चाहिए। मैं चुपचाप खड़ी रही, समस्या हल करने के लिए आगे नहीं बढ़ना चाहती थी। मैंने सोचा : “समस्याएँ सामने लाने पर क्या वह सोचेगी कि मैं उस पर निशाना साध रही हूँ? फिर हम साथ काम कैसे कर पाएँगे?” मुझे हैरानी हुई जब सबने सुझाव दिया कि मुझे लेस्ली के साथ संगति करनी चाहिए। मैं वहाँ से भाग जाना चाहती थी, लेकिन अगर मैंने उसकी समस्याएँ नहीं बताईं, तो कलीसिया के कार्य पर असर पड़ता रहेगा। अंत में, मैंने मन कड़ा करके हामी भर दी। मैंने मानसिक रूप से तैयार होने में थोड़ा समय लिया, उसकी समस्याएँ सामने लाने के लिए खुद को प्रोत्साहित किया। मैं मन-ही-मन शुरु से अंत तक वो सारी बातें दोहराती रही जो मुझे उससे कहनी थी। मगर उसे देखते ही सब गड़बड़ हो गया। लगा जैसे मेरी घिग्घी बंध गई हो, मैं बोल ही नहीं पा रही थी। तो मैंने उससे विनम्रता से पूछा : “इन दिनों तुम्हारी दशा ठीक तो है? कोई दिक्कत तो नहीं आ रही? तुम वीडियो बनाने में इतना समय क्यों ले रही हो?” लेस्ली ने बताया कि वह अपने बेटे के स्कूल न जाने की वजह से चिंतित है, इसलिए काम में देरी हो गई। मैंने सोचा : “उसका कहना है उसे कुछ दिक्कतें आ रही हैं। अगर मैंने उसे लापरवाह, धूर्त, और बेईमान बताकर उजागर किया, तो क्या वह सोचेगी कि मैं बहुत कठोर बनकर उस पर निशाना साध रही हूँ? अगर हमारा रिश्ता टूट गया, तो हमारे बीच कुछ भी अच्छा नहीं रहेगा।” यह सोचकर, मैंने उसकी समस्याएँ सामने न लाने का फैसला किया। मैंने उसे दिलासा देने वाली बातें कहीं और उसके काम की स्थिति के बारे में थोड़ी-बहुत बात की।

उसके पास कोई वास्तविक आत्म-ज्ञान नहीं था, इसलिए वह अपने काम में लापरवाही करती रही, और उसके वीडियो में काफी समस्याएँ आईं। मुझे एहसास हुआ कि लेस्ली की समस्याएँ बहुत गंभीर थीं, अगर वह नहीं बदली तो उसे बर्खास्त करना पड़ जाएगा। बाद में, मैंने दोबारा उसके साथ संगति की। मैंने सोचा, इस बार मैं उसकी समस्याएँ जरूर सामने लाऊँगी। मगर जैसे ही बात करने बैठी, मैं फिर से कुछ नहीं कह पायी। बस सोचती रही कि उसे कैसे बताऊँ जिससे उसे बुरा भी न लगे, वह अपनी समस्याएँ जान जाए, और यह भी न लगे कि मैं उस पर निशाना साध रही हूँ या उसके साथ पक्षपात कर रही हूँ। मैंने चतुराई से कहा : “तुम हमेशा अपने कर्तव्य में लापरवाही क्यों करती हो?” तब लेस्ली ने बताया कि कभी-कभी वह उपन्यास पढ़ने की चाह में डूबकर अपने कर्तव्य को नजरअंदाज कर देती है। यह कहते हुए उसकी आँखों से आँसू छलक पड़े। मैंने सोचा : “वह कितनी दुखी है। अगर मैंने कहा कि वह धूर्त और बेईमान है, तो क्या वह इसे बर्दाश्त कर पाएगी? कुछ न कहना ही सही होगा। वैसे भी, कम-से-कम वह अपनी समस्या पहचान गयी है, तो अब सुधार जरूर करेगी।” मैंने दिखाया कि मैं उसकी दशा समझती हूँ, और उसे अपने कर्तव्य में अधिक मेहनत करने को प्रोत्साहित किया। इसके बाद, उसने कोई पश्चात्ताप नहीं किया, उसका लापरवाह नजरिया बद-से-बदतर होता गया, और आखिर में उसे बर्खास्त कर दिया गया। मैंने तब भी आत्म-चिंतन नहीं किया और बात आई-गई हो गई।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे अपनी दशा की थोड़ी समझ हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “लोगों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना और दूसरों से पेश आना चाहिए; यह मानवीय आचरण का सबसे बुनियादी सिद्धांत है। अगर लोग मानवीय आचरण के सिद्धांत नहीं समझेंगे तो वे सत्य का अभ्यास कैसे कर सकते हैं? सत्य का अभ्यास करना खोखले शब्द बोलना और नारे लगाना नहीं है। जीवन में व्यक्ति का सामना चाहे किसी भी चीज से हो, यदि यह इंसानी आचरण के सिद्धांत, घटनाओं पर दृष्टिकोण या कर्तव्य निर्वहन के मामले से जुड़ा हो, तो उन्हें विकल्प चुनना होता है, और उन्हें सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में आधार और सिद्धांत तलाशने चाहिए और फिर अभ्यास का मार्ग खोजना चाहिए। इस तरह का अभ्यास कर सकने वाले ही सत्य के मार्ग पर चलते हैं। कितनी भी बड़ी मुसीबतें आने पर, इस तरह सत्य के मार्ग पर चल पाना, पतरस के मार्ग पर चलना, सत्य का अनुसरण करना है। उदाहरण के तौर पर : लोगों से बातचीत करते समय किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? शायद तुम्हारा मूल दृष्टिकोण यह है कि सद्भाव एक खजाना है और सहनशीलता प्रतिभा है, कि तुम्हें शांति बनाए रखनी चाहिए, दूसरों का अपमान करने से बचना चाहिए, और किसी को नाराज नहीं करना चाहिए, जिससे दूसरों के साथ अच्छे संबंध बने रहें। इसी दृष्टिकोण में सिमटकर, जब तुम दूसरों को कोई गलत काम करते या सिद्धांतों का उल्लंघन करते देखते हो तो तुम चुप रहते हो। किसी को नाराज करने के बजाय, तुम कलीसिया के काम का नुकसान ज्यादा पसंद करते हो। तुम सबके साथ सद्भाव बनाए रखने की कोशिश करते हो, फिर चाहे वह कोई भी हो। तुम केवल वही बातें कहते हो जो दूसरों को भाती हैं—केवल उनकी भावनाएँ आहत न करने और उनका सम्मान बरकरार रखने के बारे में सोचते हो। अगर तुम्हें किसी में कोई समस्या नजर भी आ जाए, तो भी तुम संयम बरतते हो—उसकी पीठ पीछे भले ही तुम समस्या के बारे में बोलो, लेकिन उसके सामने तुम शांति और अपना रिश्ता बनाए रखते हो। ऐसे आचरण के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या ऐसा व्यक्ति खुशामदी नहीं होता? क्या यह धूर्त होना नहीं है? यह आचरण के सिद्धांतों का उल्लंघन है; तो क्या इस तरह से कार्य करना नीचता नहीं है? ऐसा करने वाले न तो अच्छे लोग होते हैं और न ही नेक होते हैं। तुमने चाहे कितने भी कष्ट सहे हों, कोई भी कीमत चुकाई हो, यदि तुम्हारा आचरण सिद्धांतों से रहित है, तो तुम असफल हो गए हो और परमेश्वर के सामने तुम्हें कोई स्वीकृति नहीं मिलेगी, न तो परमेश्वर तुम्हें याद करेगा और न ही वह तुमसे प्रसन्न होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। परमेश्वर के वचनों से स्पष्ट हो गया कि मेरे जीवन में जो भी हो, अगर उसमें आचरण या चीजों के प्रति नजरिये के सिद्धांत शामिल हैं, तो मुझे हमेशा सत्य के सिद्धांत खोजने चाहिए। तब तक, मैंने भाई-बहनों की समस्याएँ बताने की हिम्मत नहीं की थी, और मुझे लगा इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लगा अगर हमारी अच्छी बनती है और हमारे बीच कोई मतभेद नहीं है, तो सब सही है। मैंने पढ़ा कि परमेश्वर कहता है : “तुमने चाहे कितने भी कष्ट सहे हों, कोई भी कीमत चुकाई हो, यदि तुम्हारा आचरण सिद्धांतों से रहित है, तो तुम असफल हो गए हो और परमेश्वर के सामने तुम्हें कोई स्वीकृति नहीं मिलेगी, न तो परमेश्वर तुम्हें याद करेगा और न ही वह तुमसे प्रसन्न होगा।” ये वचन मेरे दिल को छू गए। भले ही ऐसा लगा हो कि मैं कुछ बुरा नहीं कर रही थी, पर हमेशा लोगों को नाराज करने से डरती थी, कभी ईमानदारी से उनकी समस्याएँ बताने की हिम्मत नहीं की। अगर कोई समस्या देखकर अंदर से गुस्सा आता, तो भी मैं उनसे मुस्कुराकर ही मिलती थी, यानी जो समस्याएँ हल हो जानी थीं वो नहीं हुईं, और कलीसिया-कार्य का नुकसान हुआ। परमेश्वर कहता है कि ऐसा इंसान धूर्त और कपटी होता है, आचरण में सिद्धांतवादी नहीं होता। मैंने लेस्ली का मामला कैसे संभाला, उस पर चिंतन किया। मैं अच्छे से जानती थी कि वह धूर्त और बेईमान थी, काम की प्रगति पर बुरा असर डाल रही थी, पर सीधी बात करके उसे नाराज करने से डरती थी। शायद उसे लगे कि मैं बहुत कठोर हूँ, और वह मेरे खिलाफ हो जाये। मुझे डर था कि वह गलती नहीं मानेगी, नाराज हो जाएगी, फिर हमारे बीच कुछ भी ठीक नहीं रहेगा। अपना रिश्ता बचाने की खातिर, मैं उसे उजागर करने या उसका निपटान करने से बहुत डरती थी। मैंने उसकी लापरवाह होने की समस्या को बद से बदतर होते देखा और मैं बहुत गुस्सा थी, पर संगति करते हुए, उससे दुश्मनी मोल लेने से डरती थी, मैंने कभी उसकी समस्या बताने या उजागर करने की हिम्मत नहीं की। मुझे जो महसूस हुआ उसकी परवाह किये बिना मैंने इस विषय पर बस घुमा-फिराकर बात की और उसे दिलासा भी दिया। सुपरवाइजर होने के नाते, समस्याएँ देखकर उन्हें उजागर या हल न करना पूरी तरह गैर-जिम्मेदार और बेहद लापरवाह होना था। आखिर में मैंने देखा कि मैं सबके साथ “अच्छी इंसान” होने का खेल खेल रही थी, मुझे लगता था कि विचारशील और समझदार होना अच्छा इंसान होना है। तथ्यों का खुलासा होने के बाद ही मैंने अपना नजरिया पूरी तरह से बदला। लेस्ली की समस्याएँ देखने के बाद भी मैंने न तो उसे बताया और न ही उसकी मदद की। इसलिए, वह अपनी समस्या के सार या परिणामों को नहीं देख पाई, उसके जीवन को नुकसान हुआ, और कलीसिया के कार्य में देरी हुई। मैं बहुत स्वार्थी, धूर्त, और कपटी इंसान थी। कैसे कहती कि मुझमें अच्छी मानवता है?

बाद में, एक सभा में, मैंने परमेश्वर के वचनों में इनका विश्लेषण पढ़ा, “लोगों की कमियों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए” और “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।” फिर मैं समझ गई कि मैं दूसरों की समस्याएँ इसलिए नहीं बताना चाहती थी क्योंकि मैं इन विचारों से प्रभावित थी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “जीवन जीने के दर्शनों में एक सिद्धांत है, जो कहता है, ‘अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।’ इसका मतलब है कि मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे स्पष्ट दिखें—दूसरों से अनुचित ढंग से पेश न आने या उनकी कमियाँ उजागर न करने के सिद्धांत बनाए रखने चाहिए। लोगों को एक-दूसरे को धोखा देना चाहिए, एक-दूसरे से छिपाना चाहिए, एक दूसरे के साथ साजिश करने में लिप्त होना चाहिए; और हालाँकि वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपने मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। चूँकि तुम जानते हो कि तुम्हारे द्वारा किसी की कमियाँ उजागर किए जाने या चोट पहुँचाए जाने के बाद वह तुम्हारा दुश्मन बन जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा, और चूँकि तुम खुद को ऐसी स्थिति में नहीं डालना चाहते, इसलिए तुम जीवन जीने के दर्शनों के ऐसे सिद्धांत इस्तेमाल करते हो, ‘लोगों की कमजोरी पर प्रहार मत करो, और कभी उनकी कमियाँ उजागर मत करो।’ इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है, तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, वे एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिलकुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (हाँ, है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग अपनी भावनाएँ जाहिर नहीं कर सकते, न ही गहन विचार-विनिमय कर सकते हैं, न वे जो चाहते हैं वह कह सकते हैं, न ही जो उनके दिल में होता है, या जो समस्याएँ वे दूसरे में देखते हैं, या ऐसे शब्द जो दूसरे के लिए लाभदायक हों, उन्हें जोर से कह सकते हैं। इसके बजाय, वे अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं ताकि औरों का समर्थन मिलता रहे। वे सच बोलने या सिद्धांतों का पालन करने की हिम्मत नहीं करते, कि कहीं लोगों के साथ उनकी दुश्मनी न हो जाए। जब कोई उनके लिए खतरा नहीं बन रहा होता, तो क्या वे अपेक्षाकृत आराम और शांति से नहीं रहते? क्या ‘लोगों की कमजोरी पर प्रहार मत करो, और कभी उनकी कमियाँ उजागर मत करो’ इस वाक्यांश का प्रचार करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (हाँ, है।) स्पष्ट रूप से, यह अस्तित्व का एक शातिर, कपटपूर्ण तरीका है, जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, और जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीने वाले लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे कुछ भी कह सकें। वे एक-दूसरे के साथ रक्षात्मक होते हैं, हिसाब लगाते और रणनीतिक होते हैं, दोनों ही उस रिश्ते से जो चाहते हैं, वह लेते हैं। क्या ऐसा नहीं है? इसके मूल में, ‘लोगों की कमजोरी पर प्रहार मत करो, और कभी उनकी कमियाँ उजागर मत करो’ का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है। सार के इन विभिन्न पहलुओं को देखते हुए, क्या लोगों के सद्गुण से यह अपेक्षा करना कि ‘लोगों की कमजोरी पर प्रहार मत करो, और कभी उनकी कमियाँ उजागर मत करो’ एक उच्च नीति है? क्या यह सकारात्मक है? (नहीं।) तो फिर यह लोगों को क्या सिखा रहा है? कि तुम्हें किसी को परेशान नहीं करना चाहिए या किसी को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए, वरना तुम खुद चोट खाओगे; और यह भी, कि तुम्हें किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने किसी अच्छे दोस्त को चोट पहुँचाते हो, तो दोस्ती धीरे-धीरे बदलने लगेगी; वे तुम्हारे अच्छे, करीबी दोस्त न रहकर गली से गुजरने वाले अजनबी या तुम्हारे दुश्मन बन जाएँगे। लोगों को इस तरह सिखाने से कौन-सी समस्याएँ हल हो सकती हैं? भले ही इस तरह से कार्य करने से, तुम शत्रु नहीं बनाते और कुछ शत्रु कम भी हो जाते हैं, तो क्या इससे लोग तुम्हारी प्रशंसा और अनुमोदन करेंगे और हमेशा तुम्हारे मित्र बने रहेंगे? क्या यह सद्गुण के मानक को पूरी तरह से हासिल करता है? अधिक से अधिक, यह जीने का एक फलसफा मात्र है(वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। “दूसरों की कमियों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए” और “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है”, इन कहावतों पर परमेश्वर का विश्लेषण सुनकर लगा जैसे वह मेरे सामने खड़ा होकर मुझे उजागर कर रहा है। आचरण के इन सिद्धांतों के अनुसार चलकर, मैं जो भी कहती और करती वह सिर्फ मेरी रक्षा के लिए होता। मैं चाहे जिसके साथ भी होती, हमेशा किसी से दुश्मनी मोल न लेने या नाराज न करने के सिद्धांत पर चलती थी। जब मैं स्कूल में थी, मैंने बेबाकी से बोलने वालों को किनारे किये जाते देखा, तो मुझे लगा कि दूसरों के साथ निभाने के लिए हमें अपनी असली भावनाएं जाहिर नहीं करनी चाहिए, लोगों की समस्याएँ बताकर उन्हें नाराज नहीं करना चाहिए। इस तरह, लोग हमें पसंद करेंगे और हम आसानी से घुल-मिल पाएँगे। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी, मैंने भाई-बहनों के साथ व्यवहार का यही तरीका अपनाया। मैं नापसंद न की जाऊँ या चोट न पहुँचाऊँ, इसके लिए, जब भी लोगों को उजागर करने की जरूरत होती और वे नाराज हो सकते थे, मैं पीछे हट जाती थी या किसी साथी को यह मामला संभालने कह देती थी। कभी-कभी संगति करते हुए, मैं हालात के अनुरूप कुछ बेकार की बातें कह देती थी, जिससे बहुत-सी समस्याएँ समय रहते हल नहीं होती थीं। मैं इन सांसारिक फलसफों के अनुसार चलती थी, जैसे “एक और मित्र का अर्थ है एक और मार्ग” और “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है,” जिन्हें मैंने अपने आचरण का आधार बना लिया था। मैंने कभी किसी को अपनी असली सोच नहीं बताई, मैं ज्यादा से ज्यादा नकली और कपटी बन गई। मन-ही-मन सोचती थी कि अगर दूसरों के साथ मेरे रिश्ते अच्छे होंगे, उनसे मेरी अच्छी बनेगी, तो लोग मुझे पसंद करेंगे, और मुझे आसानी से उनकी स्वीकृति मिल जाएगी। अगर कभी मैं सिद्धांतों के खिलाफ कुछ कहती या करती हूँ, तो लोग मुझे माफ कर मान बनाए रखने देंगे। दूसरों से मेलजोल में, मैं सिद्धांतों के खिलाफ थी। मैं बस सबको खुश और मुस्कुराते हुए देखना चाहती थी, नहीं चाहती थी कि कोई किसी की कमियां उजागर करे ताकि मेरा नाम कभी खराब न हो, मैं अपना रुतबा और छवि बनाए रख सकूँ। क्या मैं लोगों को जीतकर उनका इस्तेमाल नहीं करना चाहती थी? मैं भले ही अच्छी, सुशील, और सहानुभूति रखने वाली इंसान लगूं, पर इन सबके पीछे, मैं बस अपना फायदे देख रही थी। मैं सच में दुष्ट थी! लेस्ली के मामले पर दोबारा सोचूँ तो, स्पष्ट था कि वह धूर्त और बेईमान है, पर उसे नाराज न करने के लिए, मैंने उसकी समस्याएँ नहीं बताईं, जिससे कार्य की प्रगति पर असर पड़ा। ऐसे बर्ताव से मैं न सिर्फ उसे नुकसान पहुँचाया, बल्कि कलीसिया-कार्य में भी देरी की। परमेश्वर ने हमेशा संगति की है कि हमें सत्य को अपना मानदंड बनाकर, लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना और काम करना चाहिए। मगर रोजमर्रा के जीवन में, मैं शैतानी फलसफों के अनुसार जी रही थी, हमेशा अपनी कथनी और करनी में संयम बरतती थी। मैं संगति करके दूसरों की मदद नहीं कर पा रही थी, अगुआ की जिम्मेदारियाँ निभाना तो दूर रहा। मैंने सोचा ही नहीं कि कैसे बात करूँ जिससे दूसरे इसे समझें, न ही कलीसिया कार्य की रक्षा का सोचा। न चाहते हुए भी मैं कलीसिया-कार्य का नुकसान होते देखती रही और अच्छी इंसान होने का ढोंग करती रही। मैं अपने फायदों की खातिर कलीसिया के हितों की बलि चढ़ा रही थी। मैं बेईमान थी, मुझमें मानवता नहीं थी! इसी तरह चलती रही, तो परमेश्वर मुझसे नफरत करेगा, दूसरे लोग भी मुझे ठुकरा देंगे। मैंने प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं कलीसिया-कार्य को नुकसान पहुँचते देखकर भी हमेशा अच्छी बनी रहती हूँ। मैं कलीसिया के हितों की रक्षा नहीं कर रही, इससे तुम्हें घृणा होती होगी। हे परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। मुझे मार्ग दिखाओ ताकि मैं अपनी समस्या हल कर सकूँ, कलीसिया-कार्य की रक्षा करने वाला न्याय का भाव रखने वाली इंसान बनूँ।”

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के कुछ और वचन पढ़े। “जब कुछ घटित होता है, तो तुम एक जीवन-दर्शन के अनुसार जीते हो और सत्य का अभ्यास नहीं करते। तुम हमेशा दूसरों को ठेस पहुँचाने से डरते हो, लेकिन परमेश्वर को ठेस पहुँचाने से नहीं डरते, यहाँ तक कि अपने पारस्परिक संबंधों की रक्षा के लिए परमेश्वर के घर के हित भी त्याग दोगे। इस तरह कार्य करने के क्या परिणाम होते हैं? तुम अपने पारस्परिक संबंध तो अच्छी तरह से सुरक्षित कर लोगे, लेकिन परमेश्वर को नाराज कर दोगे, और वह तुमसे घृणा कर तुम्हें अस्वीकृत कर देगा, और तुमसे गुस्सा हो जाएगा। कुल मिलाकर इनमें से कौन-सी चीज बेहतर है? अगर तुम नहीं बता सकते, तो तुम पूरी तरह से भ्रमित हो; यह साबित करता है कि तुम्हें सत्य की थोड़ी-सी भी समझ नहीं है। अगर तुम इस समस्या को कभी न समझते हुए ऐसे ही चलते रहे, तो वास्तव में खतरा बहुत बड़ा है, और अंत में, तुम सत्य प्राप्त करने में असमर्थ होगे। वह तुम्हीं होगे, जिसे नुकसान होगा। अगर तुम इस मामले में सत्य की खोज नहीं करते और असफल हो जाते हो, तो क्या तुम भविष्य में सत्य खोज पाओगे? अगर तुम अभी भी ऐसा नहीं कर सकते, तो यह अब नुकसान उठाने का मुद्दा नहीं रहेगा—अंततः तुम्हें बाहर कर दिया जाएगा। अगर तुम्हारे पास एक ‘नेक व्यक्ति’ होने की प्रेरणाएं और दृष्टिकोण हैं, तब तुम सभी मामलों में सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों का पालन नहीं कर पाओगे, तुम हमेशा असफल होकर नीचे गिरोगे। यदि तुम जागरूक नहीं होते और कभी सत्य नहीं खोजते, तो तुम गैर-विश्वासी हो और कभी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाओगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? इस तरह की चीजों से सामना होने पर, तुम्हें प्रार्थना में परमेश्वर को पुकारना चाहिए, उद्धार के लिए विनती करनी चाहिए और माँगना चाहिए कि परमेश्वर तुम्हें अधिक आस्था और शक्ति दे, तुम्हें समर्थ बनाए कि तुम सिद्धांत का पालन करो, वो करो जो तुम्हें करना चाहिये, चीजों को सिद्धांत के अनुसार संभालो, अपनी बात पर मजबूती से खड़े रहो, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने हितों को, अपनी प्रतिष्ठा और एक ‘नेक व्यक्ति’ होने के दृष्टिकोण को छोड़ने में सक्षम हो, और अगर तुम एक ईमानदार, संपूर्ण हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिये, तो तुमने शैतान को हरा दिया है, और तुमने सत्य के इस पहलू को हासिल कर लिया है। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, दूसरों के साथ अपने संबंध बनाए रखते हो और कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, सिद्धांतों का पालन नहीं करते, तो क्या तुम अन्य मामलों में सत्य का अभ्यास कर पाओगे? तुममें न तो आस्था होगी और न ही शक्ति होगी। यदि तुम सत्य नहीं खोजते या स्वीकार नहीं करते, तो क्या परमेश्वर में ऐसी आस्था से तुम सत्य प्राप्त कर पाओगे? (नहीं।) और यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, तो क्या तुम बचाए जा सकते हो? नहीं बचाए जा सकते। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, सत्य की वास्तविकता से पूरी तरह वंचित रहते हो, तो तुम कभी भी नहीं बचाए जा सकते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से स्पष्ट हो गया कि मेरा सिद्धांत परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना नहीं बल्कि हमेशा रिश्ते बनाए रखना और कभी दुश्मनी मोल न लेना था। जब मैं कुछ ऐसा देखती जो सत्य के अनुरूप न होता, तो मैं उसे होने देती थी, ताकि दूसरों के साथ अपना रिश्ता बचाकर रख सकूँ और मैं सुरक्षित महसूस करूँ। मैंने देखा कि मैं बीच के मार्ग पर चल रही थी, पूरी तरह सिद्धांतहीन थी। परमेश्वर चाहता है हमारी कथनी और करनी उसके वचन के अनुसार हो, हम उसकी पसंद से प्रेम और उसकी नापसंद से नफरत करें, और अच्छे-बुरे का भेद कर पाएँ, सभी तरह के लोगों को परख सकें, और सिद्धांतों के अनुसार लोगों से पेश आएँ। यही अभ्यास परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। लेस्ली को अपने काम में देरी करते देखकर भी मैंने न तो उसकी आलोचना की, न उसे उजागर किया। न चाहकर भी उसे रोते देखकर दिलासा दी, अच्छी इंसान होने का ढोंग किया। ऐसा करके, मैं अपना रिश्ता बचा रही थी, उसके गुनाह में शामिल होकर शैतान का साथ दे रही थी। मैं एकदम मूर्ख थी। पहले, मुझे नहीं लगता था कि ऐसा व्यवहार इतनी बड़ी समस्या होगी। मगर जब तथ्यों का खुलासा हुआ तब मैंने जाना कि आचरण के इन फलसफों के अनुसार जीना असल में सही मार्ग नहीं है। सुपरवाइजर थी पर लोगों को नाराज करने से डरती थी, मुझमें न्याय का भाव नहीं था। जो समस्याएँ दिखीं उन्हें सामने लाने या हल करने के लिए मैंने संगति नहीं की, जिससे समस्याएँ बढ़ती चली गईं। यह वास्तविक कार्य करना नहीं, बल्कि परमेश्वर का विरोध करना है।

बाद में, मुझे परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग मिला : “अगर तुम परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना चाहते हो, तो तुम्हारा हृदय उसकी तरफ मुड़ना चाहिए; फिर इसी बुनियाद पर तुम दूसरे लोगों के साथ भी सामान्य संबंध रखोगे। अगर परमेश्वर के साथ तुम्हारा सामान्य संबंध नहीं है, तो चाहे तुम दूसरों के साथ संबंध बनाए रखने के लिए कुछ भी कर लो, चाहे तुम जितनी भी मेहनत कर लो या जितनी भी ऊर्जा लगा दो, वह सब इंसानी जीवन-दर्शन से संबंधित ही होगा। तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार सामान्य पारस्परिक संबंध स्थापित करने के बजाय लोगों के बीच अपनी स्थिति सुरक्षित कर रहे होगे और इंसानी दृष्टिकोणों और इंसानी फलसफों के जरिये उनकी प्रशंसा प्राप्त कर रहे होगे। अगर तुम लोगों के साथ अपने संबंधों पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, और उसके बजाय परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बनाए रखते हो, अगर तुम अपना हृदय परमेश्वर को देने और उसकी आज्ञा का पालन करने के लिए तैयार हो, तो तुम्हारे पारस्परिक संबंध स्वाभाविक रूप से सामान्य हो जाएँगे। तब ये संबंध देह पर नहीं, बल्कि परमेश्वर के प्रेम की बुनियाद पर निर्मित होंगे। दूसरे लोगों के साथ तुम्हारे लगभग कोई दैहिक संपर्क नहीं होंगे, बल्कि तुम्हारे बीच आध्यात्मिक स्तर पर संगति और आपसी प्रेम, सुख और पोषण होगा। यह सब परमेश्वर को संतुष्ट करने की बुनियाद पर किया जाता है—ये संबंध इंसानी जीवन-दर्शनों के जरिये नहीं बनाए रखे जाते, ये स्वाभाविक रूप से तब बनते हैं, जब व्यक्ति परमेश्वर के लिए दायित्व वहन करता है। उनके लिए तुम्हारी ओर से किसी कृत्रिम, इंसानी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती, तुम्हें सिर्फ परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की आवश्यकता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों से स्पष्ट हो गया कि सांसारिक फलसफों से सामान्य पारस्परिक संबंध नहीं निभाए जाते। परमेश्वर के वचनों के अभ्यास पर इनकी नींव होती है। समस्या आने पर, हमें सत्य का अभ्यास करना, सिद्धांतों के अनुसार काम करना, कलीसिया के कार्य की रक्षा करना और भाई-बहनों के जीवन का बोझ उठाना चाहिए। सामान्य पारस्परिक संबंध बनाए रखने का यही तरीका है। मुझे कुछ भाई-बहनों के अनुभव की गवाहियाँ याद आईं। जब उन्हें दूसरों की समस्याएँ दिखीं, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार इसे बताया और उनकी मदद की। भले ही कभी-कभी लोगों का नाम खराब हुआ, मगर सत्य की खोज करने वाले, इस संगति और आलोचना से अपनी कमियों और भ्रष्ट स्वभाव को जान पाये, अपनी गलत दशा को ठीक कर जीवन में प्रगति कर पाये और अपने कर्तव्य में बेहतर परिणाम हासिल कर पाये। वास्तव में स्नेही और मददगार होना यही है। मगर जो सत्य की खोज नहीं करते, आलोचना और निपटारे से उनका असली चेहरा सामने आ जाता है। वे सत्य से ऊब चुके होते हैं, काट-छाँट और निपटारा होने पर, वे बहाने बनाते और विरोध करते हैं, कुछ स्वीकारते नहीं। ऐसा इंसान सच्चा भाई या बहन नहीं होता, इन्हें ठुकराकर निकाल देना चाहिए। यह एहसास होने पर, मुझे समझ आया कि परमेश्वर के वचन ही हमारे कर्मों और व्यवहार का मानदंड होने चाहिए, हमें इनके अनुसार ही दूसरों से पेश आना चाहिए। अच्छा व्यवहार करने और सामान्य मानवता के मानकों पर खरे उतरने का यही सही तरीका है।

बाद में, पता चला कि एक बहन अहंकारी और दंभी बनकर दूसरों के सुझाव नहीं मान रही थी। वह मनमर्जी करके काम में देरी कर रही थी। मुझे संगति करके उसकी समस्याएँ बतानी थी, ताकि वह आत्म-चिंतन करके खुद को जान सके, पर मैं थोड़ी हिचकिचा रही थी। अगर उसने स्वीकार नहीं किया तो? क्या वह मेरे खिलाफ होकर कहेगी कि मैं उसे निशाना बना रही हूँ? मैंने अपनी पिछली नाकामी को और हाल ही में पढ़े परमेश्वर के वचनों को याद किया, इससे मेरे अंदर कुछ हलचल-सी हुई। अगर मैंने रिश्ता बचाने की खातिर कलीसिया के कार्य को अनदेखा किया, तो परमेश्वर को नाराज करूँगी। इस बार, परमेश्वर मेरा रवैया देख रहा था कि मैं पश्चात्ताप करके खुद को बदलती हूँ या नहीं। मैं लोगों से पहले की तरह व्यवहार नहीं कर सकती थी। मैंने परमेश्वर के इन वचनों को याद किया : “इस तरह की चीजों से सामना होने पर, तुम्हें प्रार्थना में परमेश्वर को पुकारना चाहिए, उद्धार के लिए विनती करनी चाहिए और माँगना चाहिए कि परमेश्वर तुम्हें अधिक आस्था और शक्ति दे, तुम्हें समर्थ बनाए कि तुम सिद्धांत का पालन करो, वो करो जो तुम्हें करना चाहिये, चीजों को सिद्धांत के अनुसार संभालो, अपनी बात पर मजबूती से खड़े रहो, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। लगा जैसे परमेश्वर मुझे यह कदम उठाने को प्रोत्साहित कर रहा है। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर मुझे आस्था और हिम्मत देने को कहा ताकि मैं सत्य का अभ्यास कर सकूँ, कलीसिया-कार्य को आगे रखूँ, दूसरों को नाराज करने से डरना और रिश्ते बचाना बंद कर दूं। प्रार्थना के बाद, मैं उस बहन के पास गई। उसके व्यवहार के आधार पर उसकी समस्या उजागर करने के साथ ही, मैंने यह भी बताया कि वह अहंकारी है और दूसरों के सुझाव नहीं मानती, ऐसा करना सत्य से ऊब जाना और शैतानी स्वभाव होना है। अगर वह कलीसिया के कार्य में रुकावट डालती रही, पश्चात्ताप करके नहीं बदली, तो बर्खास्त कर दी जाएगी। यह सब कहने के बाद, मैं पहले जैसा महसूस नहीं कर रही थी, मुझे दूसरों की नफरत का डर नहीं था। बल्कि, मैं ज्यादा सुकून और शांति महसूस कर रही थी। इससे पहले, मैं हमेशा आचरण के शैतानी फलसफों के अनुसार जीती थी, लोगों को नाराज करने, मतभेद होने और विवाद पैदा होने से डरती थी। दूसरों से मेलजोल में, मैं हमेशा लोगों का मान बनाए रखने और रिश्ते बचाने के बारे में सोचती थी, जिससे मैंने सत्य के अभ्यास के कई मौके गँवा दिए। अब जब मुझे लोगों की समस्या बतानी होती है, तब भी थोड़ा डरती हूँ, पर परमेश्वर से प्रार्थना करके, सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने के लिए अपना इरादा और नजरिया दुरुस्त कर लेती हूँ। इस अनुभव से मैं अपनी गलत सोच बदल पाई। मैं परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ।

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