90. बीमारी का फिर से आना

यांग यी, चीन

मैंने 1995 से प्रभु यीशु में विश्वास रखना शुरू किया। विश्वासी बनने के बाद, मेरी बरसों पुरानी दिल की बीमारी चमत्कारिक ढंग से ठीक हो गयी। मैं प्रभु की शुक्रगुज़ार थी, अक्सर दान भी देती थी। तीन साल के बाद, मुझे परमेश्वर का और भी बड़ा आशीष मिला जब मैंने अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकारा और प्रभु के लौटने का स्वागत किया। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने जाना कि कैसे परमेश्वर इंसान को शुद्ध करने और बचाने के लिए सत्य व्यक्त करता और अंत के दिनों में न्याय का कार्य करता है, और लोगों को सुंदर मंज़िल की ओर ले जाता है। मैंने सोचा, परमेश्वर का आशीष पाकर अच्छी मंज़िल पर पहुँचना है तो मुझे उसके लिए खुद को खपाना, कष्ट उठाना और त्याग करना चाहिए, नेक काम करने चाहिए। तो मैं सुसमाचार का प्रचार और कभी-कभी मेज़बानी करने लगी, और जो भी संभव था, वह सब करने लगी। मैं मुश्किल हालात में जी रहे भाई-बहनों को पैसों का दान भी देती। एक बार, सुसमाचार का प्रचार करते समय, मुझे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, यातना दी और जेल में डाल दिया। तब भी परमेश्वर को धोखा देकर मैं यहूदा नहीं बनी। मुझे लगा मैंने इतने अच्छे काम किए हैं तो यकीनन मुझे परमेश्वर का आशीष मिलेगा। फिर 2018 में, अचानक बीस साल पुरानी दिल की बीमारी ने फिर सिर उठाया, हाई ब्लड-प्रेशर के कारण मैं दो बार अस्पताल पहुँच गई। मैंने सोचा, कुछ भी हो जाए, मैं शिकायत नहीं करूँगी। मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। हैरत की बात थी कि मैं दो हफ्तों में ही ठीक होकर घर आ गयी। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी। मैंने सोचा, इतनी बीमार होकर भी मैंने शिकायत नहीं की, बल्कि ठीक होकर अपने काम में भी लग गयी, मैं परमेश्वर के प्रति सच में निष्ठावान और आज्ञाकारी हूँ।

फिर, फरवरी 2019 में, मेरी दिल की बीमारी और हाई ब्लड-प्रेशर अचानक फिर उभरे, हालत पहले से ज़्यादा खराब थी। जल्द ही पता चला कि मुझे डायबिटीज़ भी है, और भयंकर कमर-दर्द भी था। मैं कुछ करने लायक नहीं बची थी, लेटे-लेटे ही खाती थी, बाथरूम जाने के लिए भी बहू की मदद लेनी पड़ती थी। सारा दिन बिस्तर पर पड़ी रहती थी, इतनी भी ताकत नहीं बची थी कि कुछ बोल या पलक झपका पाऊँ। एक रात, मेरी हालत ज़्यादा बिगड़ गयी, सीने में इतना दर्द होने लगा कि साँस भी लेना मुश्किल हो गया, मानो साँस लेते ही दम निकल जाएगा। वो दर्द आधे घंटे रहा, लगा किसी भी पल प्राण निकल सकते हैं। इतनी पीड़ा में मैंने सोचा : इतनी बीमार हूँ कि पलकें भी नहीं झपक सकती, क्या मेरा समय आ गया? अगर मैं मर गयी तो राज्य में प्रवेश कैसे करूँगी? मुझे न कभी राज्य का आशीष मिलेगा, न मैं इसका शानदार दृश्य देख पाऊँगी। क्या मेरे लिए सब-कुछ समाप्त हो गया? जितना सोचती मुझे उतना बुरा लगता। प्रार्थना करने पर भी परमेश्वर का इरादा न समझ पायी। लगातार हो रहे बीमारी के दर्द ने मेरी जीने की इच्छा ही छीन ली। लेकिन मैं यह भी जानती थी कि परमेश्वर नहीं चाहता था कि मैं मरूँ। समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ, मैं अनजाने में परमेश्वर से माँगने लगी : "मैं कब ठीक होऊँगी? मेरी उम्र की सभी परिचित बहनें तंदुरुस्त हैं, लेकिन मैंने खुद को उनसे कम नहीं खपाया या मेरा योगदान कम नहीं है। मैंने परमेश्वर के लिए इतना कुछ दिया है, कंजूसी से खर्चा चलाकर ज़रूरतमंद भाई-बहनों को दान दिया। मैंने अपना हर काम पूरी मुस्तैदी से किया है। जब मैं गिरफ्तार हुई, जेल गयी और कष्ट उठाए, तो भी मैंने परमेश्वर को धोखा नहीं दिया। क्या मैंने पर्याप्त नेक कर्म नहीं किए? परमेश्वर मुझे आशीष देकर मेरी रक्षा क्यों नहीं करता, मुझे तंदुरुस्त क्यों नहीं बनाता?" मैं लगातार शिकायतें कर रही थी, मेरा मन कलुषित हो गया था।

उसके बाद जब मेरे दिल में और भी ज़्यादा दर्द होने लगा, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने (परमेश्वर से) प्रार्थना में कहा : हे परमेश्वर, मेरी दिल की बीमारी और बढ़ गयी है। मैं तेरा इरादा समझ नहीं पा रही, जान नहीं पा रही हूँ कि इसे अनुभव कैसे करूँ। प्रिय परमेश्वर, मैं तुझसे विद्रोह या तेरा विरोध नहीं करना चाहती। मुझे प्रबुद्ध कर, राह दिखा कि मैं इस अनुभव से सीख सकूँ। प्रार्थना के बाद, मेरे मन में परमेश्वर के ये वचन आए : "बीमारी के प्रारंभ का अनुभव कैसे किया जाना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसकी इच्छा को समझने की तलाश में उसके सामने आना चाहिए, और यह जाँचना चाहिए कि तुमसे क्या भूल हुई थी, या तुम्हारे भीतर वे कौनसे भ्रष्ट स्वभाव हैं जिन्हें तुम हल नहीं कर सकते हो। तुम पीड़ा के बिना अपने भ्रष्ट स्वभावों को हल नहीं कर सकते। लोगों को पीड़ा से ग्रस्त करना ही होगा; इसके बाद ही वे स्वच्छंद होना बंद करेंगे और सदा परमेश्वर के सामने जिएँगे। जब दुख का सामना करना पड़ेगा, तो लोग हमेशा प्रार्थना करेंगे। उस समय भोजन, वस्त्र, या मौज-मस्ती का कोई विचार नहीं होगा; अपने दिल में, वे बस प्रार्थना करेंगे, और यह जाँचेंगे कि क्या उन्होंने इस दौरान कोई भी भूल की है। ज्यादातर समय, जब लोग किसी गंभीर बीमारी या असामान्य रोग से घिर जाते हैं, और इससे उन्हें बहुत पीड़ा होती है, तो ये चीजें अनायास ही नहीं होती; चाहे तुम बीमार हो या स्वस्थ, इन सब के पीछे परमेश्वर की इच्छा होती है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'हर चीज को सत्य की आँखों से देखो')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके, मैं उसके इरादे स्पष्टता से समझ पायी। परमेश्वर इस बीमारी के ज़रिए मेरे प्राण नहीं ले रहा था, न ही वह अकारण मुझे कष्ट दे रहा था। बल्कि, मेरी बीमारी भ्रष्टता उजागर करने का एक तरीका-मात्र थी, वह मुझे सबक सिखा रहा था—ये मुझे बचाने का परमेश्वर का तरीका था। मुझे परमेश्वर को गलत समझना या उसे दोष नहीं देना चाहिए, मुझे तो आत्म-चिंतन करने की ज़रूरत है।

वचनों के कुछ ऐसे अंश थे जिनसे मुझे उस समय की अपनी स्थिति को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिली। "बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुज़ारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैंने अपना क्रोध नीचे मनुष्यों पर उतारा और उसका सारा आनंद और शांति छीन ली, तो मनुष्य संदिग्ध हो गया। जब मैंने मनुष्य को नरक का कष्ट दिया और स्वर्ग के आशीष वापस ले लिए, तो मनुष्य की लज्जा क्रोध में बदल गई। जब मनुष्य ने मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहा, तो मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया और उसके प्रति घृणा महसूस की; तो मनुष्य मुझे छोड़कर चला गया और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगा। जब मैंने मनुष्य द्वारा मुझसे माँगा गया सब-कुछ वापस ले लिया, तो हर कोई बिना कोई निशान छोड़े गायब हो गया। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य मुझ पर इसलिए विश्वास करता है, क्योंकि मैं बहुत अनुग्रह देता हूँ, और प्राप्त करने के लिए और भी बहुत-कुछ है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?')। "मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य के संबंध के समान है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कार्य करता है। इस प्रकार के संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेनदेन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझदारी नहीं होती, केवल दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है')। "मैंने मनुष्य के लिए आरंभ से ही बहुत कठोर मानक रखा है। यदि तुम्हारी वफ़ादारी इरादों और शर्तों के साथ आती है, तो मैं तुम्हारी तथाकथित वफादारी के बिना रहूँगा, क्योंकि मैं उन लोगों से घृणा करता हूँ जो मुझे अपने इरादों से धोखा देते हैं और शर्तों के साथ मुझसे ज़बरन वसूली करते हैं। मैं मनुष्यों से सिर्फ़ यही चाहता हूँ कि वे मेरे प्रति पूरे वफादार हों और सब चीज़े एक शब्द : विश्वास के वास्ते—और उसे साबित करने के लिए करें" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'क्या तुम परमेश्वर के एक सच्चे विश्वासी हो?')। परमेश्वर के न्याय के वचन सीने में चाकू की तरह घुस गए। मुझे बड़ी शर्म आयी और मैं तुरंत होश में आ गयी। मैं आत्मचिंतन करने लगी, मेरी इतने बरसों की आस्था का लक्ष्य आखिर क्या था? मैंने सोचा कि कैसे मैं विश्वासी बनकर, मुश्किलों में पड़े भाई-बहनों की मदद किया करती थी, कलीसिया का हर ज़रूरी काम अपनी क्षमता के अनुसार किया करती थी, सीसीपी द्वारा गिरफ्तार कर जेल में यातना दिए जाने पर भी मैंने परमेश्वर को धोखा नहीं दिया। मुझे लगा मैंने बहुत अच्छे-अच्छे काम किए हैं। लेकिन परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन और तथ्यों के ज़रिए उजागर होने पर, मुझे एहसास हुआ कि मैंने परमेश्वर की संतुष्टि के लिए खुद को खपाया या समर्पित नहीं किया, बल्कि मैंने उसका अनुग्रह और आशीष पाने, अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखने और सुंदर मंज़िल पाने के लिए यह सब किया था। तो जब मैं पहली बार बीमार पड़ी, मैंने सोचा चूँकि मैंने परमेश्वर के लिए खुद को इतना खपाया है, तो वह मुझे मरने नहीं देगा, इसलिए मैंने परमेश्वर को दोष नहीं दिया। दूसरी बार हालत ज़्यादा खराब हो गयी, मैं अपना ख्याल रखने लायक न रही, लंबी बीमारी से जूझते हुए सिर पर मौत का खतरा मंडराने लगा, मुझे आशीष पाने और स्वर्ग के राज्य में जाने के आसार धुँधले दिखे, तब मुझे खुद को खपाने का पछतावा हुआ। मैं तो अपने पिछले त्याग और व्यय को लेकर परमेश्वर से बहस भी करने लगी। मैं परमेश्वर से सौदेबाज़ी करके उसे धोखा दे रही थी, जो उसके लिए खुद को खपाने से एकदम विपरीत था! मैंने विचार किया कि मैं इतनी गलत क्यों थी? परमेश्वर के वचनों ने बताया कि मेरी यह सोच गलत थी कि परमेश्वर के लिए खुद को खपाने, दान देने के कारण वो मुझे आशीष देगा, मुझे अच्छा स्वास्थ्य और अच्छा गंतव्य देगा, जैसा कि लौकिक जगत में, व्यक्ति के काम के आधार पर उसे पारिश्रमिक देना उचित समझा जाता है। मैंने अपने कष्टों और त्याग को पूँजी समझा जिससे मैं अच्छी मंज़िल के लिए परमेश्वर से सौदेबाज़ी कर सकती थी, और जब यह सब नहीं मिला, तो मैं दोष देने, विद्रोह करने पर उतर आयी। मैं एकदम अतर्कसंगत थी! परमेश्वर पवित्र और धार्मिक है—वो चाहता है हम निष्ठा से दें। लेकिन मेरी घृणित मंशा परमेश्वर से सौदेबाज़ी करने की थी। मैं उससे कपट और उसका विरोध कर रही थी। अगर मैंने जल्द प्रायश्चित नहीं किया, तो परमेश्वर घृणा करते हुए मुझे हटा देगा।

मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उसके वचनों के ज़रिए समस्या की जड़ को समझने की कोशिश की। फिर र्मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। मैं तो बस अपने लिए सोचूँगा, बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी ख़ातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; वे चीजों को त्यागते हैं, परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं और परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं—लेकिन फिर भी वे ये सब स्वयं के लिए करते हैं। संक्षेप में, यह सब स्वयं के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है। दुनिया में, सब कुछ निजी लाभ के लिए होता है। परमेश्वर पर विश्वास करना आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ही कोई व्यक्ति सब कुछ छोड़ देता है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कोई व्यक्ति बहुत दुःख का भी सामना कर सकता है। यह सब मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति का प्रयोगसिद्ध प्रमाण है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'बाहरी परिवर्तन और स्वभाव में परिवर्तन के बीच अंतर')। "जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि शैतान का जहर क्या है, इसे वचनों के माध्यम से पूरी तरह से व्यक्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, 'लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?' तो लोग जवाब देंगे, 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।' यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का तर्क लोगों का जीवन बन गया है। कुछ भी हो, लोग बस अपने लिए ही काम करते हैं। इसलिए वे केवल अपने लिए ही जीते हैं। 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये'—यही मनुष्य का जीवन और फ़लसफ़ा है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह कथन वास्तव में शैतान का जहर है और जब इसे मनुष्य के द्वारा आत्मसात कर लिया जाता है तो यह उनकी प्रकृति बन जाता है। इन वचनों के माध्यम से शैतान की प्रकृति उजागर होती है; ये पूरी तरह से इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। और यही ज़हर मनुष्य के अस्तित्व की नींव बन जाता है और उसका जीवन भी, यह भ्रष्ट मानवजाति पर लगातार हजारों सालों से इस ज़हर के द्वारा हावी रहा है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी प्रकृति के सार को उजागर कर दिया। परमेश्वर के साथ मेरे सौदेबाज़ी करने और उसे धोखा देने की वजह यह थी कि शैतान मुझे बुरी तरह से भ्रष्ट कर चुका था। मेरे विचार और धारणाएँ शैतानी विष से ही प्रभावित थे। मैं इस तरह के शैतानी तर्क और सिद्धांतों के अनुसार जी रही थी कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," और "कभी घाटे का सौदा मत करो," हमेशा अपने हित के लिए काम करते हुए केवल परमेश्वर से सौदेबाज़ी करने के लिए ही खर्च करती थी। मैं परमेश्वर से कुछ न कुछ हासिल करने और छोटे-छोटे खर्चों के बदले उससे आशीष पाने की ताक में रहती थी। मैं शैतान के ज़हर के सहारे जी रही थी, स्वार्थी (और नीच) बनकर निजी हित चाहती थी। आशीष और लाभ न मिलने पर, परमेश्वर को दोष भी देती। मेरे अंदर इंसानियत नाम की चीज़ नहीं थी! मैंने विचार किया कि किस तरह इंसान को बचाने के लिए परमेश्वर ने, पहला देहधारण किया, उसके छुटकारे के लिए वह सूली चढ़ा, अपने दूसरे देहधारण में, वह बड़े लाल अजगर के देश में आया, सीसीपी ने उसका उत्पीड़न किया, धार्मिक जगत ने उसकी निंदा कर उसे नकारा। परमेश्वर ने भयंकर कष्ट और अपमान सहा, फिर भी हमारे सिंचन और पोषण के लिए सत्य व्यक्त किया। परमेश्वर ने हमसे कभी कुछ नहीं माँगा, वह इंसान के लिए चुपचाप खुद को खपाता रहा है। लेकिन मैंने परमेश्वर का प्रेम चुकाने की कभी नहीं सोची, बल्कि उससे आशीष और अच्छी मंज़िल की माँग की। और इच्छा पूरी न होने पर मैंने उसे दोषी ठहराया। मेरा ज़मीर आखिर कहाँ था? मैं तो इंसान कहलाने लायक भी नहीं थी, उसके राज्य में प्रवेश करने की तो बात ही छोड़ो। जब सब समझ आया तो, मुझे खुद से नफ़रत हो गयी और मैंने परमेश्वर का आभार माना। अगर मैंने बीमारी से बिस्तर न पकड़ा होता, मौत का भय न होता, तो मैंने कभी आत्म-चिंतन न किया होता, गलत रास्ते पर ही चलती रहती, मुझे पता भी न चलता और परमेश्वर मुझे त्याग कर निकाल देता। परमेश्वर ने मुझ पर दया करके मुझे गलत रास्ते पर जाने से बचा लिया, उसने अपने वचनों के न्याय और ताड़ना और बीमारी के शोधन द्वारा मुझे जगाया मुझे आत्मचिंतन करने और अपनी शरण में आने दिया। यह सब परमेश्वर के उद्धार और प्रेम का ही अंग था। मैंने भावुक होकर परमेश्वर से प्रार्थना की : "प्रिय परमेश्वर! अब मुझे समझ में आया कि यह बीमारी मेरे लिए तेरे प्रेम और उद्धार का अंग है। मैं समर्पण को तैयार हूँ। केवल इस तरह के न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन के ज़रिए ही, मैं एक विश्वासी के नाते अपनी गलत मंशाओं को पहचानकर अपने भ्रष्ट स्वभाव को बदल सकती हूँ। मैं अपने गलत लक्ष्य और धारणाएँ बदलने और परमेश्वर के प्राणी का कर्तव्य निभाने को तैयार हूँ।"

फिर मैंने देहधारी परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : "नुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर')। अब समझ गयी हूँ कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ। परमेश्वर के लिए भेंट देना और खुद को खपाना सही है, यह मेरा कर्तव्य है। मुझे परमेश्वर से कुछ माँगना नहीं चाहिए, लेकिन मैं अपनी घृणित मंशाओं के तहत, अपने खर्च के बदले परमेश्वर से आशीष और अच्छी मंज़िल चाहती थी। मैं कितनी गलत थी! परमेश्वर ने मुझे जीवन दिया, वह मुझे अच्छा स्वास्थ्य और मंज़िल दे या न दे, मुझे अपने कर्तव्य में उसका अनुसरण और उसके लिए खुद को खपाना चाहिए, जैसे किसी बच्चे को हमेशा अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहिए, भले ही वे बच्चे के साथ कैसा भी बर्ताव करें, उसे उनकी संपत्ति मिले या न मिले। क्योंकि ये ज़िम्मेदारियाँ और कर्तव्य हैं। भले अभी मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ था और हालत खराब थी, लेकिन अब मैं परमेश्वर को गलत समझकर उसे दोष नहीं दे रही थी। चाहे मैं ठीक हो पाऊँ या नहीं, मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार थी।

दरअसल, जहाँ तक यह सवाल है कि नेक कर्म कौन-से हैं और कौन-से कामों से परमेश्वर की प्रशंसा मिलती है, पहले, मैं इन्हें अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परखती थी, लेकिन यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं है। फिर परमेश्वर के वचनों में, न्याय का मानक पता चलने पर, मैं समझ गयी कि नेक कर्म क्या होते हैं। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों का न्याय अच्छे या बुरे के रूप में किया जाता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि अपने विचारों, अभिव्यक्तियों और कार्यों में तुममें सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य की वास्तविकता को जीने की गवाही है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो इसमें कोई शक नहीं कि तुम कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को किस नज़र से देखता है? तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हरा पाते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और ऐसे निशानों से भरे पड़े हैं जिनसे परमेश्वर शर्मिंदा होता है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुम परमेश्वर के लिये अपने आपको खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि तुम अपने फ़ायदे के लिये काम कर रहे हो। 'अपने फ़ायदे के लिए' से क्या अभिप्राय है? शैतान के लिये काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, 'हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।' परमेश्वर की नज़र में तुमने अच्छे कर्म नहीं किये हैं, बल्कि तुम्हारा व्यवहार दुष्टों वाला हो गया है। परमेश्वर की स्वीकृति पाने के बजाय, तुम तिरस्कृत किए जाओगे। परमेश्वर में ऐसी आस्था रखने वाला इंसान क्या हासिल करने का प्रयास करता है? क्या इस तरह की आस्था अंतत: व्यर्थ नहीं हो जाएगी?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "चूँकि तुम निश्चित हो कि यह रास्ता सही है, इसलिए तुम्हें अंत तक इसका अनुसरण करना चाहिए; तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखनी चाहिए। चूँकि तुमने देख लिया है कि स्वयं परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाने के लिए पृथ्वी पर आया है, इसलिए तुम्हें पूरी तरह से अपना दिल उसे समर्पित कर देना चाहिए। भले ही वह कुछ भी करे, यहाँ तक कि बिलकुल अंत में तुम्हारे लिए एक प्रतिकूल परिणाम ही क्यों न निर्धारित कर दे, अगर तुम फिर भी उसका अनुसरण कर सकते हो, तो यह परमेश्वर के सामने अपनी पवित्रता बनाए रखना है। परमेश्वर को एक पवित्र आध्यात्मिक देह और एक शुद्ध कुँवारापन अर्पित करने का अर्थ है परमेश्वर के सामने ईमानदार दिल बनाए रखना। मनुष्य के लिए ईमानदारी ही पवित्रता है, और परमेश्वर के प्रति ईमानदार होने में सक्षम होना ही पवित्रता बनाए रखना है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपनी भक्ति बनाए रखनी चाहिए')। इन्हें पढ़कर मुझे समझ आया कि परमेश्वर चाहता है, लोग सच्चे बनें, बिना किसी अपेक्षा के वे उसके लिए त्याग करने को तैयार हों सत्य का अभ्यास करें और अपने कर्तव्यों में परमेश्वर की गवाही दें। असल में नेक कामों का यही अर्थ है। पहले नेक कामों की मेरी समझ विकृत थी। मुझे लगता था अगर मैं खुद को खपाती हूँ, कष्ट सहती और त्याग करती हूँ, तो मैं नेक काम संचित कर रही हूँ जिन्हें परमेश्वर याद रखेगा। फिर मुझे याद आया कि किस तरह अनुग्रह के युग में, प्रभु यीशु ने भेंट देने के लिए एक गरीब विधवा की प्रशंसा की थी। ज़्यादातर लोगों को लगा कि उसके कुछ सिक्कों की कोई खास कीमत नहीं थी, लेकिन परमेश्वर यह नहीं देखता कि किसी ने कितना दान दिया है, वह उनकी नीयत देखता है। विधवा को परमेश्वर में सच्ची आस्था थी—वह कोई सौदेबाज़ी या लेनदेन नहीं कर रही थी, इसलिए उसे परमेश्वर की प्रशंसा मिली। मैंने खुद को खपाया था, उस विधवा से कई गुना ज़्यादा दिया था, तो परमेश्वर ने मेरी प्रशंसा क्यों नहीं की? परमेश्वर को मेरे व्यय से चिढ़ नहीं थी, उसे मेरी धूर्त मंशाओं और कपट से चिढ़ थी। मैं परमेश्वर के साथ ईमानदार नहीं थी; मेरा दान सौदेबाज़ी और अशुद्ध था। इस तरह से मैंने चाहे जितना दिया होता, वो कभी भी नेक काम न कहलाता। परमेश्वर की इच्छा का एहसास होने पर, मैंने उससे प्रार्थना की कि अब मुझे चाहे स्वास्थ्य-लाभ और अच्छी मंज़िल मिले या न मिले, लेकिन मैं अब भी परमेश्वर के प्रेम के प्रतिदान के लिए खुद को खपाऊँगी। मेरा कमर-दर्द और दिल की बीमारी बनी रही, लेकिन अब मैं न तो अपनी बीमारी को लेकर परेशान थी, न ही अपनी ख्वाहिश और आशीषों के कब्ज़े में थी—मैं निरंतर परमेश्वर के वचनों को खा-पी रही थी, सभाओं में जा रही थी और यथासंभव अपने कर्तव्य निभा रही थी।

मुझे अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकारने का मौका, और उसकी वाणी सुनने का सौभाग्य मिला है—उसने यह सब विशेष रूप से मेरे उत्कर्ष के लिए किया है। परमेश्वर के वचनों की व्याख्या और न्याय के ज़रिए, मैंने जान लिया है कि शैतान ने मुझे इतना भ्रष्ट कर दिया है कि मैं इंसान कहलाने लायक नहीं हूँ। अब जाकर मैंने थोड़ा-बहुत विवेक और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता पायी है। अब चूँकि मुझमें बदलाव आ गया है, मैं अगर मर भी जाऊँ, तो मेरा जीवन व्यर्थ नहीं जाएगा। आशीषों की इच्छाओं का त्याग करके और बीमारी को रुकावट न बनने देकर, मैं बहुत स्थिर महसूस करती हूँ। फिर मैंने अपनी बीमारी का कोई इलाज नहीं कराया, अपने आप ही मेरी सेहत सुधरने लगी। अब मैं बैठकर कंप्यूटर पर काम कर सकती हूँ, और परमेश्वर के लिए गवाही के लेख लिख सकती हूँ। मैं अब अपना ध्यान भी रख सकती हूँ। मैं तहेदिल से परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ कि उसने मेरी बीमारी के ज़रिए मुझे सबक सिखाया, और मैं अपने लिए उसका उद्धार और प्रेम देख पायी। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया, "परमेश्वर में अपने विश्वास में लोग, भविष्य के लिए आशीर्वाद पाने की खोज करते हैं; यह उनकी आस्‍था में उनका लक्ष्‍य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन, उनकी प्रकृति के भीतर के भ्रष्टाचार का हल परीक्षण के माध्यम से किया जाना चाहिए। जिन-जिन पहलुओं में तुम शुद्ध नहीं किए गए हो, इन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाता है, परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपने खुद के भ्रष्टाचार को जान जाओ। अंततः तुम उस बिंदु पर पहुंच जाते हो जहां तुम मर जाना और अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ देना और परमेश्वर की सार्वभौमिकता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करना अधिक पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों को कई वर्षों का शुद्धिकरण नहीं मिलता है, अगर वे एक हद तक पीड़ा नहीं सहते हैं, तो वे, अपनी सोच और हृदय में देह के भ्रष्टाचार के बंधन से बचने में सक्षम नहीं होंगे। जिन भी पहलुओं में तुम अभी भी शैतान के बंधन के अधीन हो, जिन भी पहलुओं में तुम अभी भी अपनी इच्छाएं रखते हो, जिनमें तुम्हारी अपनी मांगें हैं, यही वे पहलू हैं जिनमें तुम्हें कष्ट उठाना होगा। केवल दुख से ही सबक सीखा जा सकता है, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे को समझने में समर्थ होना" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परीक्षणों के बीच परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करें')

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