91. मैं अब काम से दूर रहने का रवैया नहीं अपनाऊँगी

जून 2021 में मैं अपनी कलीसिया में वीडियो का काम देखती थी। काम का बोझ बढ़ने पर मुझे एक और समूह का काम देखने को कहा गया। मैंने सोचा, "जो काम मेरी जिम्मेदारी है, उसी में मैं इतनी व्यस्त हूँ। अगर मुझे और काम करना पड़ा, तो क्या मैं ज्यादा व्यस्त होकर थक नहीं जाऊँगी?" हालाँकि मुझे पता था कि इस समूह के भाई-बहन काम जानते थे। वे सभी इसमें अच्छे थे और अपने कर्तव्यों में असरदार थे। काम की देखरेख में ज्यादा चिंता करने या काफी समय देने और मेहनत करने की जरूरत नहीं पड़ेगी, यह सोचकर मैं सहमत हो गई। सबसे पहले, मैंने समय-समय पर समूह में काम की स्थिति का पता किया, क्या प्रगति सामान्य थी और क्या किसी को अपने कर्तव्य में कोई कठिनाई थी। हालाँकि मुझे पता था कि मुझे बारीकी से देखना चाहिए, मैंने सोचा कि मेरे पास देखने के लिए दूसरे काम भी हैं, और हर समूह की बारीकियों को समझने की कोशिश में काम बहुत ज्यादा हो जाएगा। समूह में काम सामान्य रूप से चल रहा था, इसलिए मुझे चीजें समझने में ज्यादा समय नहीं लगा। फिर, समूह अगुआ वहाँ मौजूद था, भाई-बहन भरोसेमंद थे और अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाते थे। पिछले कुछ सालों से कोई बड़ी समस्या नहीं आई थी, तो मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं थी। मैं थोड़ी कम खोज-खबर लेती तो भी चल जाता। इसलिए मैंने शायद ही इस समूह के काम के बारे में पूछा।

दो महीने से ज्यादा गुजरने के बाद एक दिन एक भाई ने मुझे बताया कि इस समूह के हाल ही में बनाए दो वीडियो में दिक्कतें हैं, और यदि दूसरी बहनों ने समय पर न देखा होता, तो इससे काम में देरी हो जाती। पहले तो मुझे यकीन नहीं हुआ, पर बाद में मेरे भाई ने मुझे वीडियो की समस्याओं के स्क्रीनशॉट भेजे, सचमुच समूह के साथ समस्याएँ थीं। समूह के भाई-बहनों को अपने कर्तव्यों में गंभीर दिक्कतें थीं। फिर मुझे पता क्यों नहीं था? मुझे इस काम में कई महीने हो चुके थे, मगर मुझे नहीं पता कि सब कुछ कैसे चल रहा था। बस इसे अपने आप चलने दिया। मैं पूरी तरह अनजान थी कि समूह के सदस्यों ने अपने कर्तव्य कैसे निभाए थे। लगा कि ये समस्याएँ मेरी व्यावहारिक कार्य की कमी के कारण हुईं। जब गौर किया तो पता चला कि चूँकि इस दौरान समूह में कोई भी काम की देखरेख नहीं कर रहा था, वे अनुभव के आधार पर अपना कर्तव्य निभा रहे थे, किसी पर कोई बोझ नहीं था, और कभी-कभी जब बहुत सारा काम होता तो वे जैसे-तैसे काम करने लगते थे। हालाँकि दो लोगों ने वीडियो की जांच में सहयोग किया, मगर वे बस यूं ही काम कर रहे थे, इसलिए समस्याओं का पता नहीं लगा सके। यह सब होते देखकर मुझे बहुत दुख हुआ। इन समस्याओं का पता लगाना मुश्किल नहीं था, और अगर मैंने समूह के काम का ठीक से हिसाब लिया होता, तो मैं उनसे अनजान न होती। मैं कितनी गैर-जिम्मेदार थी! मैं आत्मचिंतन करती रही, खुद से पूछती रही कि पिछले तीन महीनों में मैंने उनके काम की उपेक्षा क्यों की।

बाद में परमेश्वर के वचन में मैंने पढ़ा, "नकली अगुआ कभी भी खुद को समूह-निरीक्षकों के काम की स्थिति के बारे में सूचित नहीं रखते, या उन पर नजर नहीं रखते, न ही वे जीवन-प्रवेश से संबंधित स्थिति का कोई हिसाब-किताब रखने या उसे समझने की कोशिश करते हैं, इसके साथ ही, वे महत्वपूर्ण कार्य के लिए जिम्मेदार समूह-निरीक्षकों और कार्मिकों के अपने कार्य और कर्तव्य के प्रति और परमेश्वर में विश्वास, सत्य और परमेश्वर को लेकर उनके रवैये से खुद को अवगत रखने, उन पर नजर रखने या उन्हें समझने का प्रयास करते हैं; नकली अगुआ उनके रूपांतरणों, उनकी प्रगति या उनके काम के दौरान उभरने वाले विभिन्न मुद्दों के बारे में भी खुद को अवगत नहीं रखते, खासकर जब बात कार्य के विभिन्न चरणों के दौरान होने वाली गलतियों और व्यतिक्रमों के कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर प्रभाव की हो। नकली अगुआ इसके बारे में कुछ नहीं जानते कि क्या इन गलतियों और भटकावों को हल किया गया है। इन विवरणों के बारे में कुछ न जानने के कारण, समस्याएँ आने पर वे निष्क्रिय हो जाते हैं। हालाँकि, जब नकली अगुआ काम करते हैं, तो वे इन विवरणों की परवाह बिल्कुल नहीं करते। वे बस समूह-निरीक्षकों की व्यवस्था कर देते हैं, और फिर मान लेते हैं कि कार्य सौंपने के बाद उनका काम समाप्त हो गया है। वे मानते हैं कि इसके साथ ही उनका काम खत्म हो गया है और बाद में होने वाली किसी भी समस्या का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। चूँकि नकली अगुआ हर समूह के निरीक्षकों के निरीक्षण, मार्गदर्शन और आगे की कार्रवाई में विफल रहते हैं, चूँकि वे इन क्षेत्रों में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में विफल रहते हैं, इसलिए कार्य बर्बाद जाता है। अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में लापरवाह होने का यही अर्थ है। परमेश्वर इंसान के अंतरतम सत्व को देख लेता है; लोगों में यह क्षमता नहीं होती, इसलिए जब वे कार्य करते हैं तो उन्हें अधिक सावधान होना पड़ता है, और उन्हें अधिक ध्यान देना चाहिए, और चीजों पर नजर रखने और निरीक्षण और मार्गदर्शन करने अक्सर वहाँ जाना चाहिए जहाँ कार्य किया जा रहा है, क्योंकि ऐसा करने के द्वारा ही वे सुनिश्चित कर सकते हैं कि कलीसिया का काम सामान्य रूप से आगे बढ़ रहा है। निस्संदेह, झूठे अगुआ अपने काम में गैर-जिम्मेदार होते हैं। वे शुरू से ही गैर-जिम्मेदार होते हैं, जब वे काम की व्यवस्था करते हैं। वे कभी निरीक्षण नहीं करते, आगे की कार्रवाई नहीं करते, और मार्गदर्शन प्रदान नहीं करते। परिणामस्वरूप, कुछ निरीक्षक जो आने वाली तमाम समस्याएँ सुलझाने में असमर्थ होते हैं, और काम में कामयाब होने के गुण से रहित होते हैं, वे निरीक्षक की अपनी भुमिका में बने रहते हैं। अंत में, कार्य में बार-बार विलंब होता है, समस्त प्रकार की समस्याएँ अनसुलझी रह जाती हैं और कार्य बर्बाद हो जाता है। यह नकली अगुआओं द्वारा निरीक्षकों की स्थिति समझने, निरीक्षण और आगे की कार्रवाई करने में विफलता का परिणाम है। यह पूरी तरह से नकली अगुआओं द्वारा कर्तव्य की उपेक्षा करने के कारण होता है" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचन में मैंने देखा कि झूठे अगुआ अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करते हैं, व्यावहारिक कार्य नहीं करते, उन्हें लगता है कि हर समूह का सुपरवाइजर है, इसलिए वे काम से दूर रहने का नजरिया अपना सकते हैं, नतीजतन कलीसिया के काम में समस्याएँ आती हैं। बाहर से तो ये झूठे अगुआ कोई बुरा काम नहीं करते, पर कलीसिया के काम के प्रति गैर-जिम्मेदार होने के कारण, वे कई तरह के कामों की प्रगति और प्रभावशीलता पर गहरा असर डालते हैं, जिससे परोक्ष रूप से कलीसिया के काम में बाधा आती है। परमेश्वर चाहता है कि अगुआ और कार्यकर्ता उसके घर के कार्य की नियमित और व्यवस्थित प्रगति तय करें और समय पर काम की खोज-खबर लेते रहें और देखरेख करें। यही अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी और कर्तव्य है। लेकिन जब से मैंने इस समूह का काम संभाला, मुझे लगा कि वहाँ समूह अगुआ की मौजूदगी में सब कुछ सामान्य रूप से चल रहा था, इसलिए मैंने दूर-रहो का नजरिया अपनाया, कभी उनके काम की जांच नहीं की या खोज-खबर नहीं ली, काम की प्रक्रियाओं में खामियों को बारीकी से नहीं देखा, और ध्यान नहीं दिया कि कब वे सुस्त होकर जैसे-तैसे अपना काम निपटाने लगे। इस दौरान अपनी धारणाओं और सोच के आधार पर मैंने माना कि वे अपने कर्तव्य व्यावहारिक और गंभीर होकर निभा रहे थे और भरोसेमंद थे। मुझे लगा कि उनके काम की निगरानी करने और खोज-खबर लेने की जरूरत नहीं है। नतीजा ये कि मेरे कर्तव्य में नुकसान और बाधा पैदा हुई। परमेश्वर के वचन से मैंने जाना कि मैं कर्तव्य में उपेक्षा कर रही थी, और असल में झूठी अगुआ थी। हालाँकि मेरा इरादा बुरा कर्म करने का नहीं था, मगर मेरे व्यावहारिक काम न करने के कारण, जो चूक और समस्याएँ पता लगाई जा सकती थीं, वो कभी हल ही नहीं हो पाईं और अब वीडियो के काम में जो समस्या आई, वह सीधे मेरी लापरवाही और अपने कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार होने से जुड़ी थी। हालाँकि दूसरों ने समय पर समस्याएँ ढूंढकर ज्यादा गंभीर नुकसान और खराब नतीजों से बचाया, फिर भी इन्हें सुधारने के लिए दोबारा काम करने में काफी मेहनत चाहिए थी। मैंने देखा कि मैं जैसे-तैसे काम करती थी और आराम चाहती थी। कार्य की देखरेख न करने और खोज-खबर न लेने से मेरा काफी समय और ऊर्जा बची, पर इससे सीधे कलीसिया के काम की प्रगति में देर हुई, और इसे फिर से करने में मेरे भाई-बहनों का समय लगा। मैं बुरा कर्म करने के साथ ही कलीसिया के कार्य को बाधित और खराब कर रही थी! इसका एहसास होते ही मैं बहुत डर गई और आत्मचिंतन करती रही। मैं समस्या को समझे बिना लंबे समय तक दूर-रहो वाला नजरिया क्यों अपनाए रही?

बाद में परमेश्वर के वचन पढ़कर इस बात की और समझ पाई कि मैंने व्यावहारिक कार्य क्यों नहीं किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "झूठे अगुआ उन निरीक्षकों की जाँच नहीं करेंगे जो वास्तविक कार्य नहीं कर रहे हैं, या जो अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें बस एक निरीक्षक चुनना है और सब-कुछ ठीक हो जाएगा; फिर निरीक्षक सभी कार्य मामलों को संभालेगा, उन्हें तो बस बीच-बीच में सभाएँ आयोजित करते रहना है, उन्हें काम पर नजर रखने या यह पूछने की आवश्यकता नहीं होगी कि कैसा चल रहा है, वे इन बातों से दूर रह सकते हैं। ... नकली अगुआ कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकते, न ही वे समूह अगुआओं और निरीक्षकों के कार्य को गंभीरता से लेते हैं। लोगों के बारे में उनका नजरिया उनकी अपनी सोच और कल्पनाओं पर आधारित होता है। किसी को कुछ समय के लिए अच्छा काम करते देखकर, उसे लगता है कि वह व्यक्ति हमेशा ही अच्छा काम करेगा, उसमें कोई बदलाव नहीं आएगा; अगर कोई कहता है कि इस व्यक्ति के साथ कोई समस्या है, तो वह उस पर विश्वास नहीं करता, अगर कोई उस व्यक्ति पर उंगली उठाता है, तो वह उसे अनदेखा कर देता है। क्या तुम्हें लगता है कि नकली अगुआ बेवकूफ होता है? वे बेवकूफ और मूर्ख होते हैं। उन्हें क्या चीज बेवकूफ बनाती है? वे यह मानते हुए लोगों पर सहर्ष विश्वास कर लेते हैं कि चूँकि जब उन्होंने इस व्यक्ति को चुना था, तो इस व्यक्ति ने शपथ ली थी, प्रतिज्ञा की थी और आँसू बहाते हुए प्रार्थना की थी, यानी वह भरोसे के लायक है और भविष्य में उसके साथ कभी कोई समस्या नहीं होगी। नकली अगुआओं को लोगों की प्रकृति की कोई समझ नहीं होती; वे भ्रष्ट मानव-जाति की असल स्थिति से अनजान होते हैं। वे कहते हैं, 'निरीक्षक के रूप में चुने जाने के बाद कोई कैसे बदल सकता है? इतना गंभीर और विश्वसनीय प्रतीत होने वाला व्यक्ति कामचोरी कैसे कर सकता है? वह कामचोरी नहीं करेगा, है न? उसमें बहुत ईमानदारी है।' चूँकि नकली अगुआओं की ऐसी कल्पनाएँ होती हैं, और वे अपने सहज-ज्ञान पर बहुत अधिक भरोसा करते हैं, यह अंततः उन्हें कलीसिया के काम में उत्पन्न होने वाली कई समस्याओं का समय पर समाधान करने में असमर्थ बना देता है, और संबंधित निरीक्षक को तुरंत बदलने और उसे दूसरी जगह भेजने से रोकता है। वे प्रामाणिक नकली अगुआ हैं। और यहाँ मुद्दा क्या है? क्या नकली अगुआओं के अपने काम के प्रति दृष्टिकोण का लापरवाही और अन्यमनस्कता से कोई संबंध है? एक ओर तो वे देखते हैं कि बड़ा लाल अजगर पागलों की तरह गिरफ्तारियाँ कर रहा है, तो वे खुद को सुरक्षित रखने के लिए यह सोचकर किसी को भी प्रभारी चुन लेते हैं कि इससे उनकी समस्या सुलझ जाएगी और उन्हें इस पर और ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। वे मन ही मन क्या सोचते हैं? 'यह बहुत ही शत्रुतापूर्ण परिवेश है, कुछ समय के लिए मुझे छिप जाना चाहिए।' यह भौतिक सुखों का लोभ है, है न? झूठे अगुआ की यह भी एक बड़ी विफलता होती है : वे अपनी कल्पनाओं के आधार पर लोगों पर जल्दी भरोसा कर लेते हैं। और यह सत्य को न समझने के कारण होता है, है न? परमेश्वर के वचन भ्रष्ट लोगों का सार कैसे प्रकट करते हैं? जब परमेश्वर ही लोगों पर भरोसा नहीं करता, तो वे क्यों करें? रूप-रंग से लोगों को आँकने के बजाय परमेश्वर उनके दिलों पर लगातार नजर रखता है—तो नकली अगुआओं को दूसरों को आँकते और उन पर भरोसा करते समय इतना लापरवाह क्यों होना चाहिए? नकली अगुआ बहुत घमंडी होते हैं, है न? वे यह सोचते हैं, 'जब मैंने इस व्यक्ति को खोजा था, तो मैं गलत नहीं था। कोई गड़बड़ नहीं हो सकती; वह निश्चित रूप से ऐसा नहीं है, जो गड़बड़ करे, मस्ती करना पसंद करे और मेहनत से नफरत करे। वे पूरी तरह से भरोसेमंद और विश्वसनीय हैं। वे बदलेंगे नहीं; अगर वे बदले, तो इसका मतलब होगा कि मैं उनके बारे में गलत था, है न?' यह कैसा तर्क है? क्या तुम कोई विशेषज्ञ हो? क्या तुम्हारे पास एक्सरे जैसी दृष्टि है? क्या यह तुम्हारा विशेष कौशल है? तुम उस व्यक्ति के साथ एक-दो साल तक रह सकते हो, लेकिन क्या तुम उसकी प्रकृति और सार को पूरी तरह से उजागर करने वाले किसी उपयुक्त वातावरण के बिना यह देख पाओगे कि वह वास्तव में कौन है? अगर परमेश्वर द्वारा उन्हें उजागर न किया जाए, तो तुम्हें तीन या पाँच वर्षों तक उनके साथ रहने के बाद भी यह जानने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा कि उनकी प्रकृति और सार किस तरह का है। और जब तुम उनसे शायद ही कभी मिलते हो, शायद ही कभी उनके साथ होते हो, तो यह भी कितना सच होगा? उनके साथ थोड़ी-बहुत बातचीत या किसी के द्वारा उनके सकारात्मक मूल्यांकन के आधार पर तुम प्रसन्नतापूर्वक उन पर भरोसा कर लेते हो और ऐसे लोगों को कलीसिया का काम सौंप देते हो। इसमें क्या तुम अत्यधिक अंधे नहीं हो जाते हो? उतावले नहीं हो जाते हो? और जब नकली अगुआ इस तरह से काम करते हैं, तो क्या वे बेहद गैर-जिम्मेदार नहीं होते?" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचन से पता चलता है कि झूठे अगुआ आलसी, अज्ञानी और मूर्ख होते हैं। वे लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचन के आधार पर नहीं बल्कि धारणाओं और विचारों से देखते हैं, फिर भी उन्हें लगता है कि वे लोगों और चीजों को साफ समझ सकते हैं। वे लापरवाही से किसी पर भरोसा करके पूरी तरह उन पर काम की जिम्मेदारी छोड़ सकते हैं, जबकि वे खुद दूर-रहो की सोच अपनाते और लालची होकर रुतबे के फायदों का मजा लेते हैं। परमेश्वर के वचन के प्रकाशन से मैंने आखिर देखा कि मैं वैसी ही आलसी और मूर्ख, झूठी अगुआ थी जिसका परमेश्वर ने जिक्र किया है। आलसी प्रकृति के चलते मुझे हमेशा लगता था कि मुझ पर ज्यादा काम की जिम्मेदारी है, और हर समूह के काम पर नजर रखना बहुत थकाने वाला होगा, इसलिए मैंने एक समूह के काम के लिए समूह अगुआ पर भरोसा करके दूसरे समूह के काम की खोज-खबर लेती रही, और सोचा कि अगर काम सामान्य रूप से चला, तो मुझे उस पर नजर रखने को समय नहीं देना पड़ेगा। मैंने देखा कि मैंने कर्तव्य से बचने का हर संभव प्रयास किया था। मैंने दूर-रहो का नजरिया रखते हुए सुपरवाइजर का ओहदा बनाए रखा। मैं वास्तव में गैर-जिम्मेदार थी! मैं बहुत दंभी भी थी। अपनी धारणाओं और कल्पना के आधार पर मैंने सोचा कि समूह में सभी ने अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाए हैं, इसलिए मुझे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है, और अगर मैं उनके काम पर नजर न रखूँ तो भी वो उसे जारी रखेंगे। इसलिए मैंने कई महीने उनसे काम के बारे में नहीं पूछा या निगरानी नहीं की, जिससे काम में समस्याएँ सामने आईं। मैं सत्य को नहीं समझी या चीजें साफ नहीं देख पाई थी, फिर भी मुझे खासकर खुद पर यकीन था, कि जिन पर मैंने भरोसा किया, वे गलत नहीं होंगे। मैं बहुत अहंकारी और मूर्ख थी। इस खयाल से मुझे पछतावा हुआ। मुझे समझ आया कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों से व्यवहार करना और अपना कर्तव्य निभाना अहम है। मैं अपने कर्तव्य के बारे में परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक हिस्से तलाशने लगी।

जल्द ही मैंने परमेश्वर के वचन का अंश पढ़ा। "चूँकि नकली अगुआ कार्य की प्रगति की स्थिति को नहीं समझते, वे तुरंत पहचान नहीं कर पाते, तो फिर काम में आने वाली समस्याओं का समाधान करने की तो बात ही दूर है, जिससे अकसर बार-बार देरी होती रहती है। किसी खास काम में, चूँकि लोगों के पास सिद्धांतों की कोई समझ नहीं होती, और, इसकी देखरेख के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं होता, इसलिए उस काम को अंजाम देने वाले लोग नकारात्मकता, निष्क्रियता और प्रतीक्षा की स्थिति में रहते हैं, जो कार्य की प्रगति को गंभीर रूप से प्रभावित करती है। यदि अगुआ ने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर दी होतीं—यदि उसने कार्यभार सँभाल लिया होता, काम आगे बढ़ाया होता, काम में तेजी दिखाई होती, और मार्गदर्शन देने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ा होता जो संबंधित किस्म के काम को समझता है, तो बार-बार की देरी से नुकसान होने के बजाय काम और अधिक तेजी से प्रगति करता। तो अगुआओं के लिए काम की वास्तविक स्थिति को समझना और उस पर पकड़ रखना अति महत्वपूर्ण है। निस्संदेह अगुआओं के लिए यह समझना और जानना अत्यधिक आवश्यक है कि कार्य कैसे प्रगति कर रहा है—क्योंकि प्रगति कार्य की दक्षता और उस कार्य से अपेक्षित परिणामों से संबंध रखती है। अगर किसी अगुआ में इस बात की समझ की भी कमी है कि काम कैसे आगे बढ़ रहा है, और उसकी जाँच नहीं करता या उस पर नजर नहीं रखता, तो काम करने वाले अधिकतर लोगों का रवैया नकारात्मक और निष्क्रिय हो जाता है, वे गंभीर रूप से बेपरवाह हो जाते हैं और उनमें भार का कोई बोध नहीं रहता, वे लापरवाह और अनमने हो जाते हैं और इस तरह कार्य की प्रगति धीमी पड़ जाती है। यदि मार्गदर्शन और निरीक्षण के लिए, लोगों को अनुशासित और उनका निपटारा करने के लिए ऐसा कोई न हो जिसमें भार का बोध हो, कार्य का व्यावहारिक ज्ञान हो—तो स्वाभाविक तौर पर कार्यकुशलता और प्रभावशीलता बहुत धीमी पड़ जाएगी। यदि अगुआ और कर्मी यह भी न देख पाएँ, तो वे मूर्ख और अंधे हैं। तो, यह बेहद महत्वपूर्ण है कि अगुआ और कर्मी कार्य की प्रगति की खोज-खबर लें, उस पर नजर रखें और खुद को उससे परिचित कराएँ, लोग आलसी होते हैं, इसलिए अगुआओं और कर्मियों के मार्गदर्शन, प्रेरणा और पूछने-जानने की कार्रवाई के बिना कार्य की प्रगति की नवीनतम जानकारी रखने वाले अगुआओं के बिना लोगों के धीमे पड़ने, सुस्त होने, असावधान हो जाने की संभावना होती है—अगर काम के प्रति यही उनका रवैया रहता है, तो इस कार्य की प्रगति और साथ ही इसकी प्रभावशीलता गंभीर रूप से प्रभावित होगी। इन परिस्थितियों को देखते हुए, योग्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं को चुस्ती से काम की हर मद पर नजर रखनी चाहिए और कर्मचारियों और काम से संबंधित स्थिति के बारे में अवगत रहना चाहिए; उन्हें नकली अगुआओं की तरह बिल्कुल नहीं होना चाहिए" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचन ने कर्तव्य के लायक होने के लिए मुझे अभ्यास का मार्ग बताया। अगुआ या सुपरवाइजर के बतौर हमें अपने कर्तव्य का बोझ उठाना होगा, देह-सुख की लालसा छोड़नी होगी, अपने काम की जिम्मेदारी लेनी होगी, और समय पर खोज-खबर लेना, चीजों को देखना, निगरानी करना और जांचना होगा। काम से जुड़े लोगों के लिए हमें उनकी हालत और कर्तव्यों का बारीकी से हिसाब रखना होगा, ताकि समय पर समस्याएँ ढूंढकर चूक को ठीक किया जा सके। क्योंकि लोग अभी तक पूर्ण नहीं हुए हैं, उन सभी में भ्रष्ट स्वभाव हैं, जब उनकी हालत अच्छी होती हैं, वे अपने कर्तव्य ईमानदारी, जिम्मेदारी और प्रभावी ढंग से कर सकते हैं, पर इसका मतलब यह नहीं कि वे पूरी तरह विश्वसनीय हैं। जब उनकी हालत असामान्य होती है या वे भ्रष्ट स्वभाव से जीते हैं, तो वे अनजाने ही बिना तैयारी के ऐसे काम करते हैं जिनसे कलीसिया के काम में बाधा आती है। इसलिए जब लोग अपने कर्तव्य निभाते हैं, अगुआओं, कार्यकर्ताओं और सुपरवाइजरों को उनके काम की जांच करनी और खोज-खबर लेनी होती है, समस्याएँ मिलने पर उन्हें समय रहते ठीक करना होता है। यह उनकी जिम्मेदारी है। एक बार जब मैं ये जरूरतें समझ गई, तो मैंने इस समूह के कामों की खोज-खबर लेना और बारीकी से देखना शुरू कर दिया, मैं नियमित रूप से उनके भटकाव दूर करने काम की बैठकों में जाती, जब मुझे समस्याएँ मिलतीं, तो मैं समूह अगुआ से समय रहते बात कर लेती। बाद में हमने एक साथ कार्य योजना और समूह की प्रगति पर भी चर्चा की, और कार्य तय समय के भीतर पूरा कर लिया गया। हमने काम की जरूरत के मुताबिक कर्मचारियों को कम किया ताकि दूसरों को उन कर्तव्यों में लगा सकें जहां उनकी ज्यादा जरूरत थी। इस तरह अभ्यास करके मुझे कहीं ज्यादा सुकून मिला। इसी के साथ मैंने अपनी जिम्मेदारी के दायरे में आने वाले काम की पहले के मुकाबले ज्यादा लगन से खोज-खबर ली। अब मुझे लगा कि मैं सत्य का अभ्यास करती थी और मुझमें कुछ बदलाव आए थे, मगर नई परिस्थितियाँ आते ही मैं फिर से उजागर हो गई।

जल्दी ही, मेरे काम का बोझ बढ़ गया, मुझे अपने कर्तव्य में एक काम पूरा करने में काफी समय लगाना पड़ता था। मुझे लगा कि मैंने पहले हर समूह के काम की विस्तार से खोज-खबर ली थी, और अब चीजें ठीक थीं। हर समूह के बारे में विस्तार से पूछताछ करने में बहुत समय और कोशिश लगेगी, इससे मेरे पास समय की कमी हो जाएगी और मुझ पर काफी दबाव पड़ेगा। मुझे खयाल आया कि अगर मैं किसी समूह को कुछ काम सौंप दूँ, तो मुझे इतनी चिंता करने की जरूरत नहीं होगी। मुझे ऐसा एक समूह याद आया जहां समूह के दोनों अगुआ अपने कर्तव्यों में सक्रिय थे और कीमत चुका सकते थे। अगर मैं उन्हें अपने समूह का काम सौंप दूँ और बारीकी से खोज-खबर लेने को कहूँ, तो मुझे केवल चीजों की दिशा देखनी होगी और काम की बैठकों में नियमित रूप से जाना होगा। अगर मैं उन्हें बाकी चीजें करने दूँ तो ज्यादा समस्या नहीं होगी। इस तरह मेरी पुरानी समस्या ने फिर से सिर उठाया। मैंने नए काम में खुद को डुबो लिया और उस समूह के काम के बारे में पूछना छोड़ दिया। मुझे लगा कि समूह के अगुआ चीजें संभाल सकते हैं, और अगर कोई समस्या आती है तो वे मुझे बता सकते थे। एक दिन समूह के अगुआओं में से एक ने बताया कि मैंने चीजों की ठीक से खोज-खबर नहीं ली थी या उनके काम के बारे में विस्तार से नहीं पूछा था। समूह में कुछ लोग टालमटोल कर रहे थे और आलसी हो गए थे, पर मैंने न तो इसकी खोज-खबर नहीं ली और न इसे हल किया, इससे कार्य की प्रगति पर असर पड़ रहा था। यह सुनकर मैंने प्रतिरोध किया। मैंने सोचा, "क्या आप दोनों समूह अगुआ इसे नहीं देख सकते? मैं अभी कुछ और काम कर रही हूँ। अगर मैं सावधान रहकर हर काम में इतना समय लगाऊँ तो क्या मैं कभी काम खत्म कर पाऊंगी? क्या यह मुझसे ज्यादा उम्मीद रखना नहीं है?" मगर अपने तर्कों से मैं थोड़ी असहज हो गई। फिर सोचने पर लगा कि मैंने शायद ही कभी उनके काम की खोज-खबर ली थी। भाई-बहनों की हालत, क्या वे अपने कर्तव्य में सैद्धांतिक थे, और उनके काम की गुणवत्ता, इन सभी चीजों को मैं नहीं समझ पाई थी। फिर मैं सोचने लगी, पहले मैंने दूर-रहो का नजरिया रखकर अपने कर्तव्य में अपराध किए थे, तो मैं फिर से वही काम क्यों कर रही थी?

बाद में मैंने परमेश्वर के वचन में इसे पढ़ा। "मेरी पीठ पीछे बहुत-से लोग हैसियत के लाभों की अभिलाषा करते हैं, वे ठूँस-ठूँसकर खाना खाते हैं, सोना पसंद करते हैं तथा देह की इच्छाओं पर पूरा ध्यान देते हैं, हमेशा भयभीत रहते हैं कि देह से बाहर कोई मार्ग नहीं है। वे कलीसिया में अपना उपयुक्त कार्य नहीं करते, पर मुफ़्त में कलीसिया से खाते हैं, या फिर मेरे वचनों से अपने भाई-बहनों की भर्त्सना करते हैं, और अधिकार के पदों से दूसरों के ऊपर आधिपत्य जताते हैं। ये लोग निरंतर कहते रहते हैं कि वे परमेश्वर की इच्छा पूरी कर रहे हैं और हमेशा कहते हैं कि वे परमेश्वर के अंतरंग हैं—क्या यह बेतुका नहीं है? यदि तुम्हारे इरादे सही हैं, पर तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुसार सेवा करने में असमर्थ हो, तो तुम मूर्ख हो; किंतु यदि तुम्हारे इरादे सही नहीं हैं, और फिर भी तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर की सेवा करते हो, तो तुम एक ऐसे व्यक्ति हो, जो परमेश्वर का विरोध करता है, और तुम्हें परमेश्वर द्वारा दंडित किया जाना चाहिए! ऐसे लोगों से मुझे कोई सहानुभूति नहीं है! परमेश्वर के घर में वे मुफ़्तखोरी करते हैं, हमेशा देह के आराम का लोभ करते हैं, और परमेश्वर की इच्छाओं का कोई विचार नहीं करते; वे हमेशा उसकी खोज करते हैं जो उनके लिए अच्छा है, और परमेश्वर की इच्छा पर कोई ध्यान नहीं देते। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें परमेश्वर के आत्मा की जाँच-पड़ताल स्वीकार नहीं करते। वे अपने भाई-बहनों के साथ हमेशा छल करते हैं और उन्हें धोखा देते रहते हैं, और दो-मुँहे होकर वे, अंगूर के बाग़ में घुसी लोमड़ी के समान, हमेशा अंगूर चुराते हैं और अंगूर के बाग़ को रौंदते हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर के अंतरंग हो सकते हैं? क्या तुम परमेश्वर के आशीष प्राप्त करने लायक़ हो? तुम अपने जीवन एवं कलीसिया के लिए कोई उत्तरदायित्व नहीं लेते, क्या तुम परमेश्वर का आदेश लेने के लायक़ हो? तुम जैसे व्यक्ति पर कौन भरोसा करने की हिम्मत करेगा? जब तुम इस प्रकार से सेवा करते हो, तो क्या परमेश्वर तुम्हें कोई बड़ा काम सौंप सकता है? क्या इससे कार्य में विलंब नहीं होगा?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप सेवा कैसे करें)। "भूल जाओ कि तुम कितने प्रतिभाशाली हो, तुम्हारी क्षमता कितनी अधिक है, या तुम कितने सुशिक्षित हो; महत्वपूर्ण यह है कि तुम वास्तविक कार्य करते हो या नहीं, और तुम एक अगुआ की जिम्मेदारियाँ पूरी करते हो या नहीं। अगुआ के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान क्या तुमने अपनी जिम्मेदारी के दायरे में आने वाले प्रत्येक विशिष्ट कार्य में भाग लिया, कार्य के दौरान उत्पन्न हुई कितनी समस्याएँ तुमने प्रभावी ढंग से हल कीं, तुम्हारे कार्य, तुम्हारी अगुआई, तुम्हारे मार्गदर्शन से कितने लोग सत्य के सिद्धांतों को समझ पाए, कलीसिया का कार्य कितना विकसित किया गया और आगे बढ़ाया गया? ये चीजें हैं, जो मायने रखती हैं। भूल जाओ कि तुम कितने मंत्र दोहरा सकते हैं, कितने शब्दों और सिद्धांतों में तुमने महारत हासिल की है, भूल जाओ कि तुम प्रतिदिन कितने घंटे मेहनत करते हो, तुम कितने थके हुए हो, और भूल जाओ कि सड़क पर तुमने कितना समय बिताया है, तुम कितनी कलीसियाओं में गए हो, तुमने कितने जोखिम उठाए हैं, तुमने कितने कष्ट उठाए हैं, ये तमाम बातें भूल जाओ। सिर्फ यह देखो कि तुम्हारी जिम्मेदारियों के दायरे में आने वाला कार्य कितना प्रभावी रहा है, इससे कोई परिणाम निकला है या नहीं, परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं में से ऐसी कितनी व्यवस्थाएँ और लक्ष्य तुम हासिल कर पाए हो जो तुमसे अपेक्षित थे, तुम्हारे द्वारा कितनी फलीभूत हुई हैं, तुम उन्हें कितने अच्छे से फलीभूत कर पाए हो, कितने अच्छे से उनका जायजा लिया गया है, काम के दौरान जो लापरवाही, विचलन या फिर सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है, उनमें से कितनी समस्याओं को तुम हल कर पाए हो, उन्हें सुधार पाए हो, उन कमियों को दूर कर पाए हो और मानव संसाधन, प्रशासन या विविध विशिष्ट कार्यों से संबंधित कितनी समस्याओं को तुम सुलझा पाए हो और, क्या तुमने उन्हें सिद्धांत और परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के अनुसार हल किया है, इत्यादि—ये सभी वे मानक हैं, जिनके द्वारा यह जाँचा जा सकता है कि कोई अगुआ या कर्मी अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर रहा है या नहीं" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि जिन्हें रुतबे के लाभ की इच्छा है, जो कपटी हैं और चालबाजी करते हैं, और जो खुद के दैहिक हितों की सोचते हैं, परमेश्वर को उनसे गहरी घृणा और चिढ़ है। ऐसे लोग कर्तव्य में कोई सकारात्मक भूमिका नहीं निभा पाते, न वे तुरंत अपने कर्तव्यों में चूक का पता लगाकर उन्हें ठीक कर सकते हैं, वे अपनी गैर-जिम्मेदारी के कारण अपने ही कर्तव्यों को नुकसान भी पहुँचा सकते हैं और कलीसिया का काम बाधित और खराब कर सकते हैं। ऐसे लोग अपने कर्तव्य में बिल्कुल भी ईमानदार नहीं होते और परमेश्वर का आदेश मानने लायक नहीं होते। यदि वे पश्चात्ताप नहीं करते, तो आखिर में परमेश्वर उनसे घृणा कर उन्हें त्याग देगा। अगुआओं और कार्यकर्ताओं के मूल्यांकन में परमेश्वर का मानक यह नहीं है कि वे कितने रास्तों पर चलते हैं या कितना काम करते हैं, इसके बजाय यह है कि क्या वे व्यावहारिक कार्य करते हैं या कर्तव्य में वास्तविक नतीजे लाते हैं। परमेश्वर के वचन के खुलासे से मुझे शर्मिंदगी हुई। कलीसिया ने मेरे लिए वीडियो बनाने के अहम काम को संभालने की व्यवस्था की, मुझे और अधिक बोझ उठाने को कहा, तरक्की देकर प्रशिक्षित किया, पर मुझमें कोई मानवता नहीं थी, मैं कर्तव्य में बिल्कुल भी कष्ट नहीं उठाना चाहती थी। जब काम का बोझ थोड़ा बढ़ा, तो मैंने बस यही सोचा कि कैसे कष्ट और चिंता कम हो, मुझे डर था कि अतिरिक्त चिंता से मेरी देह को कष्ट होगा। जब मेरे भाई-बहनों ने बताया कि मैंने अपने कर्तव्य में कोई व्यावहारिक काम नहीं किया, तो मैंने खुद को सही ठहराने के लिए तरह-तरह के बहाने तलाशे। मैं वैसी ही थी जैसे परमेश्वर ने कहा है, "परमेश्वर के घर में वे मुफ़्तखोरी करते हैं, हमेशा देह के आराम का लोभ करते हैं, और परमेश्वर की इच्छाओं का कोई विचार नहीं करते; वे हमेशा उसकी खोज करते हैं जो उनके लिए अच्छा है।" सुपरवाइजर के बतौर मुझे अपनी जिम्मेदारी वाले सभी कामों की समय पर देखरेख करनी और खोज-खबर लेनी थी, चूक और खामियां मिलते ही तुरंत उन्हें ठीक करना था ताकि कलीसिया का काम सामान्य रूप से चलता रहे। यह मेरा कर्तव्य था। मगर मैं धूर्त लोमड़ी की तरह थी। अपने कर्तव्य में चालबाज, कपटी और गैर-जिम्मेदार थी, मैं वास्तव में काम किए बिना ही सुपरवाइजर के ओहदे पर बैठी थी, मैंने काम की बारीकियों के बारे में खोज-खबर नहीं ली। नतीजा यह कि मैंने समय पर समूह की समस्याएँ ढूंढकर नहीं सुलझाईं, और कार्य बेअसर हो गया, जिससे कलीसिया के काम की सामान्य प्रगति पर असर पड़ा। मैं असल में अपना कर्तव्य बिल्कुल नहीं निभा रही थी। जाहिर है मैं बस बेवजह अपने पद पर काबिज थी। मैंने खुलेआम सबको धोखा दिया और व्यावहारिक काम नहीं किया। मैं बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं थी! कलीसिया ने मुझे काम दिया, और मुझसे जिम्मेदारी लेने को कहा, पर मैंने दूर-रहो का नजरिया अपनाया। मैं वास्तव में ऐसे अहम कर्तव्य के लायक नहीं थी। अगर मैं हमेशा ऐसे गैर-जिम्मेदार रवैये से कर्तव्य निभाती, व्यावहारिक काम न करती, तो अंत में परमेश्वर मुझसे घृणा कर मुझे त्याग सकता था! यह सोचकर मैं थोड़ी डरी हुई थी, तो मैंने परमेश्वर से मेरी गलत दशा बदलने के लिए मुझे रास्ता दिखाने को कहा, मैंने कहा कि मैं सावधानी से काम करके जिम्मेदारियां पूरी करना चाहती हूँ।

बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों में अभ्यास के मार्ग मिले। "जो लोग वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे अपनी लाभ-हानि की गणना किए बिना स्वेच्छा से अपने कर्तव्य निभाते हैं। चाहे तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो या नहीं, तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय अपने अंतःकरण और विवेक पर निर्भर होना चाहिए और सच में कड़ी मेहनत करनी चाहिए। कड़ी मेहनत करने का क्या मतलब है? यदि तुम केवल कुछ सांकेतिक प्रयास करने और थोड़ी शारीरिक कठिनाई झेलने से संतुष्ट हो, लेकिन अपने कर्तव्य को बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेते या सत्य के सिद्धांतों की खोज नहीं करते, तो यह लापरवाही और बेमन से काम करना है—इसे वास्तव में प्रयास करना नहीं कहते। प्रयास करने का अर्थ है उसे पूरे मन से करना, अपने हृदय में परमेश्वर का भय मानना, परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील रहना, परमेश्वर की अवज्ञा करने और उसे आहत करने से डरना, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए किसी भी कठिनाई को सहना : यदि तुम्हारे पास ऐसा हृदय है जो इस तरह से परमेश्वर से प्रेम करता है, तो तुम अच्छे से अपना कर्तव्य निभा पाओगे। यदि तुम्हारे मन में परमेश्वर का भय नहीं है, तो अपने कर्तव्य का पालन करते समय, तुम्हारे मन में दायित्व वहन करने का भाव नहीं होगा, उसमें तुम्हारी कोई रुचि नहीं होगी, अनिवार्यतः तुम लापरवाह और अनमने रहोगे, तुम चलताऊ काम करोगे और उससे कोई प्रभाव पैदा नहीं होगा—जो कि कर्तव्य का निर्वहन करना नहीं है। यदि तुम सच में दायित्व वहन करने की भावना रखते हो, कर्तव्य निर्वहन को निजी दायित्व समझते हो, और तुम्हें लगता है कि यदि तुम ऐसा नहीं समझते, तो तुम जीने योग्य नहीं हो, तुम पशु हो, अपना कर्तव्य ठीक से निभाकर ही तुम मनुष्य कहलाने योग्य हो और अपनी अंतरात्मा का सामना कर सकते हो—यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय दायित्व की ऐसी भावना रखते हो—तो तुम हर कार्य को निष्ठापूर्वक करने में सक्षम होगे, सत्य खोजकर सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाओगे और इस तरह अच्छे से अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे। अगर तुम परमेश्वर द्वारा सौंपे गए मिशन, परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो त्याग किए हैं और उसे तुमसे जो अपेक्षाएँ हैं, उन सबके योग्य हो, तो इसी को वास्तव में कठिन प्रयास करना कहते हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे बहुत शर्म आई। मैंने वर्षों परमेश्वर में विश्वास किया था और परमेश्वर के बहुत से वचन पढ़े थे, मगर मुझे लगा कि थोड़ा और काम करने का मतलब है देह को ज्यादा कष्ट देना और चिंता करना, इसलिए मैंने इसे परेशानी और थकान माना, और दूर-रहो का रवैया अपनाया। मैंने देखा कि मेरी प्रकृति स्वार्थी और आलसी थी, मुझमें परमेश्वर के लिए कोई ईमानदारी नहीं थी, और मैंने कर्तव्य के लिए कोई वास्तविक बोझ नहीं उठाया। सुपरवाइजर के बतौर मैंने वह काम नहीं किया जो एक सुपरवाइजर को करना चाहिए। मैं अपने कर्तव्य से विमुख हो गई थी। परिवार का कुत्ता भी घर की रखवाली करता और मालिक का वफादार होता है। मैं एक सृजित प्राणी हूँ, पर मैंने सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा नहीं किया। मैं इंसान कहलाने लायक कहाँ थी? कलीसिया में मुझसे अधिक काम के लिए जिम्मेदार कई भाई-बहन थे, जिन्होंने ईमानदारी से कर्तव्य निभाए थे, कष्ट सहकर कीमत चुकाई थी, और अपने कर्तव्यों में अधिक समय दिया था, और यह सब बिना थके किया था। इसके उलट जितना उन्होंने परमेश्वर की इच्छा पर सोचा, उतनी ही परमेश्वर ने उन्हें आशीष दी, और वे जीवन में बढ़ते गए। अतीत का सोचती हूँ, तो मेरा कार्यभार उचित था, यह बहुत ज्यादा नहीं था, और अगर मैं दैहिक इच्छाओं का त्याग करती, कष्ट सहती, कीमत चुकाती, तो हर समूह के काम की बारीकियों पर नजर रखना पूरी तरह संभव था। उसके बाद मैंने अपनी कार्य सूची को ठीक किया, नई सूची के अनुसार अपनी जिम्मेदारी वाली हर चीज पर ध्यान दिया, और कर्तव्य में बिल्कुल भी देर नहीं हुई।

एक दिन मैं समूह के संदेश पढ़ रही थी, तो मुझे एक समूह के कार्य में कुछ चूक दिखी। मैंने जल्दी से समस्या का विश्लेषण किया, समूह अगुआ से बात की और समाधान खोज लिया। इस दौरान मैं काफी हैरान थी। व्यावहारिक कार्य का अर्थ यह नहीं कि सारा दिन समूह में लोगों पर नजर रखने में बिता दें। बस आप थोड़ा और मेहनती होकर ऐसा कर सकते हैं। पहले मैं समूह के इन संदेशों को पढ़ती ही नहीं थी। इससे समस्याएँ वहीं रह जाती थीं और मैं उन पर कभी ध्यान नहीं देती थी। जब मैंने थोड़ी और कोशिश की तो समस्याओं और गड़बड़ियों का पता लगा पाई, काम को नुकसान पहुँचाने से पहले समय रहते उन्हें हल कर पाई। उसके बाद मैंने समूह के हर सदस्य से उसके काम के बारे में जानने के लिए बात की, और मैंने इस प्रक्रिया से और अधिक चूकों का पता लगाया। समूह अगुआ और मैंने उनके साथ सिद्धांतों पर संगति की, चूकों का समाधान जल्दी हो गया, और काम की प्रभावशीलता सुधर गई। हालाँकि उन दिनों मैं थोड़ी अधिक व्यस्त थी, इस तरह अभ्यास करने से मुझे बेहद आराम और सुकून मिला।

परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए मैं उसकी आभारी थी। इन अनुभवों के जरिए मुझे अपनी स्वार्थी, आलसी प्रकृति की थोड़ी समझ मिली। मैंने यह भी देखा कि गैर-जिम्मेदारी और आराम की लालसा काम में देरी कर सकती है, समस्या गंभीर हुई तो कलीसिया का काम बाधित और खराब हो सकता है। एक सुपरवाइजर के नाते मैं दूर-रहो का नजरिया नहीं रख सकती। मुझे काम की बार-बार खोज-खबर लेनी और देखरेख करनी होगी, समस्याओं को पहचानकर समाधान करना पड़ेगा। केवल इसी तरह कर्तव्य निभाकर मैं अच्छे नतीजे पा सकती हूँ और परमेश्वर की इच्छा पूरी कर सकती हूँ।

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