92. पदोन्नति न चाहने के पीछे मेरी क्या चिंताएँ थीं?

वांग लेई, चीन

मैं कलीसिया में सफाई के काम में सहयोग कर रहा हूँ और कई वर्षों के अभ्यास के माध्यम से मैंने अपने कर्तव्यों से संबंधित कुछ सिद्धांत समझे हैं और मैंने अपने कर्तव्यों में कुछ नतीजे पाए हैं। जब मुद्दों पर चर्चा की जाती थी, अगुआ, उपयाजक और मेरे सहयोगी भाई-बहन आमतौर पर मेरे नजरिए से सहमत होते थे। जब उन्हें मामलों का साफ भेद पहचानने में मुश्किल होती थी तो वे संगति के लिए मेरे पास आते थे और मेरी राय मानते थे। मुझे श्रेष्ठता की भावना महसूस होने लगी, सोचने लगा कि मैं उनसे बेहतर हूँ। दिसंबर 2020 में मुझे दूसरे क्षेत्र में अपने कर्तव्य करने के लिए पदोन्नत किया गया। जिन दो बहनों के साथ मैं सहयोग कर रहा था, वे मुझसे ज्यादा समय से यह कर्तव्य निभा रही थीं और उन्हें सिद्धांतों की बेहतर समझ थी। कुछ बार हमने लोगों को बाहर निकालने से संबंधित सामग्री का एक साथ विश्लेषण किया और दोनों बहनों ने सिद्धांतों से जोड़कर उनका गहराई से विश्लेषण किया। मैं संगति में बोलना चाहता था, लेकिन मुझे लगता था कि उन्होंने ठीक वही संगति की है जो मैं समझता हूँ और जिन समस्याओं की ओर उन्होंने ध्यान दिलाया था उन पर मेरा ध्यान तक नहीं गया था, इसलिए मैंने सोचा कि कुछ न कहना ही बेहतर है और बोलने का कोई संदर्भ मूल्य नहीं होगा और मैं केवल अपर्याप्त ही दिखूँगा। इसलिए मैं चुप रहा। एक और मौके पर हमने एक बुरे व्यक्ति के निष्कासन के दस्तावेज का विश्लेषण किया। मुझे नहीं लगा कि वह वाकई बुरा व्यक्ति है, इसलिए मैंने अपने नजरिए से संगति की। फिर दोनों में से एक बहन ने कहा कि उसे भरोसा है कि इस व्यक्ति में एक बुरे व्यक्ति का सार है और उसने इस व्यक्ति के बुरे कर्मों और उसके कार्यकलापों के सार को ध्यान में रखते हुए अपना विश्लेषण पेश किया। दूसरी बहन भी उससे सहमत थी। उनकी बात सुनने के बाद मुझे लगा कि बहनों की संगति सही थी और सिद्धांतों पर आधारित थी और मुझे अचानक शर्मिंदगी हुई। मैंने मन ही मन सोचा, “मैंने खुद को मूर्ख बना लिया है। अब बहनें मेरे बारे में क्या सोचेंगी? क्या वे सोचेंगी कि मुझमें भेद पहचानने की कमी है और मेरी काबिलियत कम है?” बाद में जब हमने फिर से मिलकर सामग्री का विश्लेषण किया तो अपने विचार व्यक्त करने की मेरी हिम्मत ही नहीं हुई, डरता रहा कि अगर मेरी संगति गलत रही तो दूसरे लोग मुझे कैसे देखेंगे। पहले मैं जिन भाई-बहनों के साथ सहयोग करता था, उनका अपने कर्तव्यों में प्रदर्शन मेरे बराबर अच्छा नहीं था, लेकिन अब जिन बहनों के साथ मैं सहयोग कर रहा था, वे हर तरह से मुझसे बेहतर थीं, इसलिए मुझे लगा कि मैं वहाँ सबसे अक्षम व्यक्ति हूँ और मुझे अपनी उपस्थिति का कोई एहसास नहीं होता था और मैं अक्सर दबा हुआ महसूस करता था। उस दौरान मेरी अवस्था बहुत खराब थी और कई बार मैं इस स्थिति से भागना भी चाहता था और अब वहाँ अपने कर्तव्य नहीं करना चाहता था। जल्द ही कार्यभार में कमी के कारण कर्मियों को सुव्यवस्थित करने की जरूरत पड़ी और अगुआओं ने मेरी काबिलियत को औसत माना और मुझे दूसरे काम में लगा दिया।

कुछ समय बाद कार्यभार बढ़ने की वजह से अगुआओं ने मुझे दूसरे क्षेत्र में सफाई कार्य जारी रखने के लिए लिखा। जब मैंने उनका पत्र देखा तो मुझे कुछ प्रतिरोध महसूस हुआ, मैंने सोचा, “जिन भाई-बहनों के साथ मैं सहयोग करूँगा, वे सभी मुझसे बेहतर काबिलियत वाले हैं और वे सत्य की संगति करने और चीजों को देखने में भी मुझसे बेहतर हैं। मैं वहाँ अपने कर्तव्यों में अलग नहीं दिखूँगा और सिर्फ खुद को मूर्ख बनाऊँगा। मैं वहाँ नहीं जाना चाहता।” इसलिए मैंने बहाने बनाते हुए मना कर दिया, कहा कि मुझमें काबिलियत की कमी है और मैं यह कर्तव्य नहीं सँभाल सकता। जैसे-जैसे कार्यभार बढ़ता गया, अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने संगति में मुझे कई बार पत्र लिखे, लेकिन जब मैंने सोचा कि दूसरे क्षेत्र के भाई-बहनों में अच्छी काबिलियत और कार्य क्षमताएँ हैं तो मुझे लगा कि वहाँ मेरी कोई पूछ नहीं होगी, इसलिए मैं उनके अनुरोधों को अस्वीकार करता रहा। सच तो यह था कि मैं अपने कर्तव्यों से बचने को लेकर बहुत असहज था और मुझे अपराध बोध हो रहा था, लेकिन फिर मैंने मन में सोचा, “मैं कहीं भी अपने कर्तव्य निभाऊँ बात एक ही है, और यहाँ भी काम में सहयोग के लिए लोगों की जरूरत है, इसलिए मैं यहीं और ज्यादा मेहनत कर सकता हूँ और अपने कर्तव्य अच्छे से निभा सकता हूँ।”

कुछ समय बाद एक बहन ने मुझे एक पत्र लिखा, जिसमें उसने मेरे साथ संगति करने के लिए कर्तव्य बदले जाने के अपने अनुभव साझा किए और इशारा किया कि दूसरे क्षेत्र में अपने कर्तव्य निभाने की मेरी अनिच्छा की यह वजह हो सकती है कि मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे से बेबस रहता हूँ। उसने मुझे अपनी समस्याओं का सामना करने और उन्हें सुलझाने के लिए सत्य की खोज करने की भी याद दिलाई। बहन को संगति में अपने दिल की बात कहते हुए देखकर मैं बहुत प्रभावित हुआ। मुझे एहसास हो गया कि मैंने बार-बार अपने कर्तव्यों को अस्वीकार किया और ऐसा करके मैं वाकई परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर रहा हूँ! मैं जान गया कि यह मेरे लिए पश्चात्ताप करने का परमेश्वर की ओर से एक और अवसर है और मुझे इसका लाभ उठाना है। मैंने देखा कि बहन ने मेरे पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश ढूँढ़कर पत्र में दिया था : “जब लोगों का हठी स्वभाव होता है तो उनकी कैसी मनोदशा होती है? वे मुख्य रूप से जिद्दी और आत्मतुष्ट होते हैं। वे हमेशा अपने ही विचारों से चिपके रहते हैं, हमेशा अपनी ही बात को सही मानते हैं और निहायत कड़े और दुराग्रही होते हैं। यह हठधर्मिता का रवैया है। वे पुराने जमाने के किसी घिसे-पिटे रिकार्ड की तरह एक ही रट लगाए रहते हैं, किसी की नहीं सुनते, कोई कार्य पद्धति चाहे सही हो या गलत उसी पर अड़े रहते हैं, उसे ही अपनाने पर जोर देते हैं; उनमें थोड़ा-सा भी बदलने की भावना नहीं होती। जैसी कि कहावत है, ‘मरे हुए सूअर उबलते पानी से नहीं डरते।’ लोग अच्छी तरह जानते हैं कि क्या करना सही है, फिर भी वे वैसा नहीं करते, दृढ़तापूर्वक सत्य स्वीकारने से मना कर देते हैं। यह एक प्रकार का स्वभाव है : हठधर्मिता। तुम लोग किस प्रकार की स्थितियों में हठी स्वभाव प्रकट करते हो? क्या तुम प्रायः हठी होते हो? (हाँ।) बहुत बार! और चूँकि हठधर्मिता तुम्हारा स्वभाव है, इसलिए वह तुम्हारे जीवन में हर दिन और हर पल तुम्हारे साथ रहती है। हठधर्मिता लोगों को परमेश्वर के सामने आ पाने से रोकती है, वह उन्हें सत्य स्वीकार पाने से रोकती है और वह उन्हें सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने से रोकती है। और अगर तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाते, तो क्या तुम्हारे स्वभाव के इस पहलू में बदलाव हो सकता है? बड़ी मुश्किल से ही हो सकता है। क्या अब तुम लोगों के स्वभाव के इस हठधर्मिता वाले पहलू में कोई बदलाव आया है? और कितना बदलाव आया है? उदाहरण के लिए मान लो, तुम बेहद जिद्दी हुआ करते थे लेकिन अब तुममें थोड़ा बदलाव आया है : जब तुम किसी समस्या का सामना करते हो तो तुममें कुछ अंतःकरण की भावना होती है और तुम मन-ही-मन कहते हो, ‘इस मामले में मुझे कुछ सत्य का अभ्यास करना है। चूँकि परमेश्वर ने इस हठी स्वभाव को उजागर कर दिया है—चूँकि मैंने इसे सुना है और अब मैं इसे जानता हूँ—इसलिए मुझे बदलना होगा। जब मैंने अतीत में कुछ बार इस तरह की चीजों का सामना किया था, तो मैं अपनी दैहिक इच्छाओं के अनुसार चलकर असफल रहा था और मैं इससे खुश नहीं हूँ। इस बार मुझे सत्य का अभ्यास करना चाहिए।’ ऐसी आकांक्षा के साथ सत्य का अभ्यास करना संभव है, और यह बदलाव है। जब तुम कुछ समय इस तरह से अनुभव कर लेते हो और तुम और ज्यादा सत्यों को अभ्यास में लाने में सक्षम होते हो और इससे बड़े बदलाव आते हैं और तुम्हारा विद्रोही और हठी स्वभाव पहले से कम प्रकट होता है तो क्या तुम्हारे जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव आता है? अगर तुम्हारा विद्रोही स्वभाव स्पष्ट रूप से पहले से ज्यादा कम हो गया है, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारा समर्पण बढ़ गया है तो फिर वास्तविक बदलाव आ चुका है। तो सच्चा समर्पण पाने के लिए तुम्हें किस हद तक बदलना चाहिए? तुम तब सफल होगे जब तुममें थोड़ी-सी भी हठधर्मिता नहीं होगी, बल्कि सिर्फ समर्पण होगा। यह एक धीमी प्रक्रिया है। स्वभाव में बदलाव रातोरात नहीं होते, इसमें अनुभव का लंबा दौर लगता है, यहाँ तक कि पूरा जीवन भी लग सकता है। कभी-कभी बड़े-बड़े कष्ट सहने पड़ते हैं, मरने और पुनः जन्म लेने जैसे कष्ट, अपने सड़े-गले अंग काटने से भी ज्यादा दर्दनाक और कठिन कष्ट(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है)। परमेश्वर ने जो उजागर किया ठीक वही मेरी दशा थी। मैं एक अड़ियल स्वभाव में जी रहा था। इसने मुझे सत्य खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आने से रोक रखा था और मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में असमर्थ बना दिया था। मैंने दूसरे क्षेत्र में अपने कर्तव्य निभाने के लिए अगुआओं की व्यवस्था के बारे में पीछे मुड़कर सोचा। मैं जानता था कि मुझे कलीसिया के कार्य को प्राथमिकता देनी है, लेकिन मुझे फिक्र थी कि जिन बहनों के साथ मैं सहयोग करूँगा, उनमें मुझसे बेहतर काबिलियत और भेद पहचानने की समझ होगी और मुझे डर था कि अपने कर्तव्यों में उनके साथ सहयोग करने से न केवल मुझे कोई पहचान नहीं मिलेगी, बल्कि यह मुझे अपर्याप्त भी दिखाएगा और मुझे गौण महसूस कराएगा। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा के लिए मैंने बार-बार हठपूर्वक अपने कर्तव्यों से इनकार कर दिया और चाहे दूसरे मेरे साथ कितनी भी संगति करें, मैं सुनता ही नहीं था। मेरा दिल परमेश्वर के लिए पूरी तरह से बंद था। मैं वाकई अड़ियल और जिद्दी था! मैं जानता था कि उस क्षेत्र में काम का बोझ बहुत ज्यादा है और उन्हें मदद के लिए ज्यादा लोगों की जरूरत है, लेकिन इस महत्वपूर्ण क्षण में मुझे सिर्फ अपने आत्म-सम्मान और रुतबे की परवाह थी और मैंने कलीसिया के काम के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचा। मैं इतना स्वार्थी, नीच और बिल्कुल ही मानवता रहित था! मुझे वाकई बहुत पछतावा हुआ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरा स्वभाव बहुत जिद्दी और अड़ियल है। मैं सत्य जानता हूँ लेकिन उसका अभ्यास नहीं करता। मैं अपनी इस विद्रोही अवस्था को बदलने और अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य की खोज करने के लिए तैयार हूँ। मेरा मार्गदर्शन और मेरी अगुआई करो।” इसके बाद मैंने अगुआओं को पत्र लिखकर दूसरे क्षेत्र में अपने कर्तव्य करने की इच्छा जताई।

बाद में मैंने इस बात पर विचार किया कि मैं दूसरे क्षेत्र में अपने कर्तव्य करने के लिए क्यों तैयार नहीं था और मुझे एहसास हुआ कि ऐसा इसलिए था क्योंकि इससे मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे पर आँच आती थी। इसलिए मैंने सचेत रूप से इस पहलू पर सत्य की तलाश की। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधी आशीष पाने के लिए अपना कर्तव्य अनिच्छा से करते हैं। वे यह भी पूछते हैं कि क्या वे कर्तव्य करके खुद को प्रदर्शित करने और सम्मान पाने में सक्षम होंगे, और अगर वे इस कर्तव्य को करते हैं, तो क्या ऊपरवाले या परमेश्वर को इसका पता चलेगा। कर्तव्य करते समय वे इन्हीं सब चीजों पर विचार करते हैं। पहली चीज जो वे निश्चित कर लेना चाहते हैं, यह होती है कि कर्तव्य करने से उन्हें क्या-क्या लाभ मिल सकते हैं और क्या उन्हें आशीष मिल सकते हैं। यह उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज है। वे इस बारे में कभी नहीं सोचते कि कैसे परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखा जाए और कैसे परमेश्वर के प्रेम को चुकाया जाए, सुसमाचार का प्रचार कर परमेश्वर की गवाही कैसे दी जाए ताकि लोग परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करें और उन्हें खुशी मिले; वे कभी सत्य समझने या अपने भ्रष्ट स्वभाव सुलझाने का तरीका जानने और मानव के समान जीने की कोशिश तो बिल्कुल नहीं करते। वे इन चीजों पर कभी विचार नहीं करते। वे केवल इस बारे में सोचते हैं कि उन्हें आशीष और लाभ मिल सकते हैं या नहीं, अपने पैर कैसे जमाएँ, रुतबा कैसे हासिल करें, कैसे लोगों से सम्मान पाया जाए, और कलीसिया में और भीड़ में कैसे सबसे अलग दिखा जाए और सर्वश्रेष्ठ बना जाए। वे साधारण अनुयायी बनने के इच्छुक बिल्कुल भी नहीं होते। वे कलीसिया में हमेशा अग्रणी होना चाहते हैं, अपनी चलाना चाहते हैं, अगुआ बनना चाहते हैं, और चाहते हैं कि सभी उनकी बात सुनें। तभी वे संतुष्ट हो सकते हैं। तुम लोग देख सकते हो कि मसीह-विरोधियों के दिल इन्हीं बातों से भरे होते हैं। क्या वे वास्तव में परमेश्वर के लिए खपते हैं? क्या वे वास्तव में सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य करते हैं? (नहीं।) तो फिर वे क्या करना चाहते हैं? (सत्ता पाना चाहते हैं।) सही कहा। वे कहते हैं, ‘जहाँ तक मेरी बात है, लौकिक दुनिया में मैं बाकी सभी से आगे निकलना चाहता हूँ। मुझे हर समूह में प्रथम होना है। मैं दूसरे स्थान पर रहने से इनकार करता हूँ, और मैं कभी भी पिछलग्गू नहीं बनूँगा। मैं अगुआ बनना चाहता हूँ और लोगों के जिस भी समूह में मैं रहूँ, उसमें अपनी चलाना चाहता हूँ। अगर आखिरी फैसला मेरा नहीं होगा, तो मैं तुम लोगों को मनाने का हर संभव तरीका आजमाऊँगा और पूरी कोशिश करूँगा कि तुम सब मेरा सम्मान करो और मुझे अगुआ चुनो। जब मेरे पास रुतबा होगा, तो मेरा निर्णय अंतिम होगा, सभी को मेरी बात सुननी होगी। तुम्हें मेरे तरीके से काम करना होगा और मेरे नियंत्रण में रहना होगा।’ मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कर्तव्य करें, वे खुद को ऊँचे स्थान पर यानी प्रमुखता के स्थान पर रखने की कोशिश करेंगे। वे एक साधारण अनुयायी के रूप में अपने स्थान से कभी संतुष्ट नहीं हो सकते। और उन्हें सबसे अधिक जूनून किस चीज का होता है? लोगों के सामने खड़े होकर उन्हें आदेश देने, उन्हें डाँटने, और लोगों से अपनी बात मनवाने का जूनून। वे इस बारे में सोचते तक नहीं कि अपना कर्तव्य ठीक तरह कैसे करें—इसे करते हुए सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य सिद्धांतों को खोजना तो दूर की बात है। इसके बजाय, वे विशिष्ट दिखने के तरीके खोजने के लिए दिमाग के घोड़े दौड़ाते हैं, ताकि अगुआ उनके बारे में अच्छा सोचें और उन्हें आगे बढ़ाएँ, ताकि वे खुद अगुआ या कार्यकर्ता बन सकें, और दूसरे लोगों की अगुआई कर सकें। वे सारा दिन यही सोचते और इसी की उम्मीद करते रहते हैं। मसीह-विरोधी नहीं चाहते कि दूसरे उनकी अगुआई करें, न ही वे सामान्य अनुयायी बनना चाहते हैं, चुपचाप और बिना किसी तमाशे के अपने कर्तव्य करते रहना तो दूर की बात है। उनका कर्तव्य जो भी हो, यदि वे महत्वपूर्ण स्थान पर और आकर्षण का केंद्र नहीं हो सकते, यदि वे दूसरों से ऊपर नहीं हो सकते, और दूसरे लोगों की अगुआई नहीं कर सकते, तो उन्हें अपना कर्तव्य करना उबाऊ लगने लगता है, और वे नकारात्मक हो जाते हैं और ढीले पड़ जाते हैं। दूसरों से प्रशंसा और आराधना पाए बिना उनके लिए अपना काम और भी कम दिलचस्प हो जाता है, और उनमें अपना कर्तव्य करने की इच्छा और भी कम हो जाती है। लेकिन अगर अपना कर्तव्य करते हुए वे महत्वपूर्ण स्थान पर और आकर्षण का केंद्र हो सकते हों और अपनी बात मनवा सकते हों, तो वे अपनी स्थिति को मजबूत महसूस करते हैं और कैसी भी कठिनाइयाँ झेल सकते हैं। अपने कर्तव्य निर्वहन में हमेशा उनके व्यक्तिगत इरादे होते हैं, और वे हमेशा दूसरों को पराजित करने और अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करने की अपनी जरूरत पूरी करने के एक साधन के रूप में खुद को दूसरों से अलग दिखाना चाहते हैं। अपने कर्तव्य करते हुए, अत्यधिक प्रतिस्पर्धी होने—हर मामले में होड़ करने, विशिष्ट दिखने, सबसे आगे रहने, दूसरों से ऊपर उठने—के साथ-साथ वे यह भी सोचते रहते हैं कि अपने मौजूदा रुतबे, नाम और प्रतिष्ठा को कैसे कायम रखें(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य चाहे कहीं भी निभाएँ, ऐसा वे रुतबे की अपनी इच्छा पूरी करने के लिए करते हैं। अगर वे लोगों के बीच प्रमुख व्यक्ति या अगुआ हैं और वे दूसरों से अलग दिखने और सराहना पाने में सक्षम हैं तो वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें अत्यधिक प्रेरित होते हैं। लेकिन अगर वे दूसरों से अलग नहीं दिख पाते और हमेशा खुद को अलग दिखाने में नाकाम रहते हैं तो वे अपने कर्तव्य तक नहीं निभाना चाहते। इस समझ के साथ अनुसरण के बारे में अपने विचारों की तुलना करने पर मुझे एहसास हुआ कि वे मसीह-विरोधियों के विचारों के समान थे। जब मुझे दूसरे क्षेत्र में अपना कर्तव्य करने के लिए नियुक्त किया गया और मैंने देखा कि जिन बहनों के साथ मैं सहयोग करता था, उनमें मुझसे बेहतर काबिलियत और कार्य क्षमताएँ थीं, मैं उनके बीच अपर्याप्त और बेकार महसूस करता था और मुझे अपनी उपस्थिति का कोई एहसास नहीं होता था। इस कारण मैं अक्सर दुख और दमन की स्थिति में रहता था और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे करूँ, इस बारे में कोई विचार नहीं करता था, और मैं अक्सर इस स्थिति से बचना चाहता था। अपने कर्तव्य फिर से बदले जाने के बाद मैंने अपने द्वारा चुने गए गलत मार्ग पर विचार नहीं किया और जब अगुआओं ने मुझे फिर से दूसरे क्षेत्र में अपने कर्तव्य करने के लिए लगाया तो मैंने मना करने के बहाने ढूँढ़े क्योंकि मुझे लगा कि मैं दूसरों से अलग नहीं दिख पाऊँगा। भले ही भाई-बहनों ने मेरे साथ कई बार संगति की और मुझे पता था कि उस क्षेत्र में काम का बोझ बहुत ज्यादा है और मदद के लिए और लोगों की तत्काल जरूरत है, फिर भी मैंने कलीसिया के काम की उपेक्षा की। मुझे प्रतिष्ठा और रुतबे की बहुत ज्यादा फिक्र थी। मैं हमेशा दावा करता था कि मैं अपने कर्तव्य परमेश्वर को संतुष्ट करने और उसके प्रेम का बदला चुकाने के लिए करता हूँ, लेकिन अब मैंने देखा कि मेरा त्याग, खपना और कष्ट सहना सब प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर थे। मैं अपने कर्तव्य बिल्कुल नहीं कर रहा था, बल्कि परमेश्वर का इस्तेमाल करने और उसे धोखा देने की कोशिश कर रहा था। बाद में मैंने खुद से पूछा, “मैं प्रतिष्ठा और रुतबे को इतना महत्व क्यों देता हूँ?” ऐसा इस शैतानी जहर की वजह से हुआ कि “छोटे तालाब में बड़ी मछली होना बेहतर है” और “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” जैसे शैतानी जहर मेरे दिल में समा चुके थे और मेरे लिए अनुसरण के लक्ष्य और जीवित रहने के नियम बन गए थे। मेरा मानना था कि जीने का मतलब अलग दिखना और लोगों से सम्मान पाना है और ऐसा जीवन जीना सार्थक और मूल्यवान है। मैं जहाँ कहीं भी जाता था वहाँ अगर कभी भी अलग नहीं दिख पाता था या मुझे हमेशा नीची नजर से देखा जाता था तो मुझे लगता कि मैं दयनीय जीवन जी रहा हूँ। भले ही मैं अपने कर्तव्य करता हुआ दिखाई देता था, लेकिन आंतरिक रूप से मेरा ध्यान बस इस बात पर केंद्रित रहता था कि कैसे खुद को स्थापित किया जाए और प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल किया जाए और जब कलीसिया के काम को मेरे सहयोग की जरूरत थी तो मैं मना करने के बहाने ढूँढ़ता रहा क्योंकि प्रतिष्ठा और रुतबे की मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं हो रही थीं। इन शैतानी जहरों के अनुसार जीने से मैं वाकई अहंकारी और स्वार्थी हो गया, किसी मानव के समान नहीं था और मैं अनजाने में परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने और उसका प्रतिरोध करने लगा। उस दौरान मैंने बार-बार अपने कर्तव्यों से इनकार किया और अक्सर भयभीत और बेचैन रहा, मुझे लगा जैसे मैं खतरे के मुहाने पर हूँ। अपने कर्तव्यों के प्रति यह रवैया परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने वाला था और अगर मैंने परमेश्वर से पश्चात्ताप नहीं किया तो वह मुझे निश्चित रूप से दरकिनार कर देगा और निकाल देगा। इसका एहसास होने पर मुझे वाकई डर लगा और मैंने पहचाना कि अपने कर्तव्यों से इनकार करना एक गंभीर मुद्दा है। मैं पछतावे और अपराध बोध से भर गया और मुझे इस बात के लिए खुद से नफरत होने लगी कि मैं इस तरह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हूँ और अपने पीछे अपराध और कलंक छोड़ता जा रहा हूँ। मैं वाकई परमेश्वर का बहुत आभारी हूँ! प्रतिष्ठा और रुतबे की खोज एक ऐसा मार्ग है जहाँ से वापसी नहीं होती है, जो विनाश की ओर ले जाता है, इसलिए मैं अनुसरण के बारे में अपने विचार बदलना चाहता था।

बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों में अभ्यास और प्रवेश का मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “चूँकि तुम एक सदस्य के रूप में परमेश्वर के घर में शांति से रहना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले यह सीखना चाहिए कि एक अच्छा सृजित प्राणी कैसे बनें और अपनी जगह के अनुसार अपने कर्तव्यों को कैसे पूरा करें। परमेश्वर के घर में, फिर तुम एक ऐसे सृजित प्राणी बन जाओगे जो अपने नाम के अनुरूप जीता है। सृजित प्राणी तुम्हारी बाहरी पहचान और उपाधि है, और इसकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ और सार होना चाहिए। यह केवल उपाधि रखने की बात नहीं है; चूँकि तुम एक सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए। चूँकि तुम एक सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें उससे जुड़ी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। तो, एक सृजित प्राणी के कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ क्या हैं? परमेश्वर का वचन सृजित प्राणियों के कर्तव्यों, दायित्वों और जिम्मेदारियों को स्पष्ट रूप से बताता है, है ना? आज से, तुम परमेश्वर के घर के वास्तविक सदस्य हो, इसका मतलब है कि तुम खुद को परमेश्वर के बनाए गए प्राणियों में से एक के रूप में स्वीकारते हो। इसी के साथ, आज से तुम्हें अपने जीवन की योजनाओं पर पुनर्विचार करना चाहिए। तुम्हें उन आदर्शों, इच्छाओं और लक्ष्यों का अनुसरण करना छोड़ना और उन्हें त्यागना भी होगा जो तुमने अपने जीवन में पहले निर्धारित किए थे। इसके बजाय, एक सृजित प्राणी के पास जो जीवन लक्ष्य और दिशा होनी चाहिए, उसे पाने की योजना बनाने के लिए तुम्हें अपनी पहचान और परिप्रेक्ष्य को बदलना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारे लक्ष्य और दिशा एक अगुआ बनना या किसी उद्योग में अगुआई करना या उत्कृष्टता प्राप्त करना या ऐसा प्रसिद्ध व्यक्ति बनना नहीं होना चाहिए जो कोई खास कार्य करता है या जिसे किसी विशेष कौशल में महारत हासिल है। तुम्हारा लक्ष्य परमेश्वर से अपना कर्तव्य स्वीकार करना, यानी यह जानना होना चाहिए कि तुम्हें इस समय क्या कार्य करना चाहिए, और यह समझना चाहिए कि तुम्हें कौन-सा कर्तव्य निभाना है। तुम्हें खुद से यह पूछना होगा कि परमेश्वर तुमसे क्या अपेक्षा करता है और उसके घर में तुम्हारे लिए कौन-से कर्तव्य की व्यवस्था की गई है। तुम्हें उस कर्तव्य के संबंध में उन सिद्धांतों को समझना और उनके बारे में स्पष्टता प्राप्त करनी चाहिए जिन्हें समझा जाना चाहिए, धारण किया जाना चाहिए और जिनका पालन किया जाना चाहिए। यदि तुम उन्हें याद नहीं रख सकते, तो तुम उन्हें कागज पर लिख सकते हो या अपने कंप्यूटर पर रिकॉर्ड कर सकते हो। उनकी समीक्षा करने और उन पर विचार करने के लिए समय निकालो। सृजित प्राणियों के एक सदस्य के रूप में, तुम्हारे जीवन का प्राथमिक लक्ष्य एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना और एक योग्य सृजित प्राणी बनना होना चाहिए। यह जीवन का सबसे मौलिक लक्ष्य है जो तुम्हारे पास होना चाहिए। दूसरा और अधिक विशिष्ट लक्ष्य यह होना चाहिए कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य कैसे अच्छे से निभाएँ और एक योग्य सृजित प्राणी कैसे बनें। बेशक, तुम्हारी प्रतिष्ठा, रुतबे, घमंड, भविष्य वगैरह से संबंधित किसी भी लक्ष्य या दिशा को त्याग दिया जाना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ और मुझे सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य पूरे करने का प्रयास करना चाहिए। यह मेरी जिम्मेदारी है। मुझे हमेशा इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि दूसरे लोग मुझे किस रूप में देखते हैं या दूसरों से यह होड़ नहीं लेनी चाहिए कि किसके कौशल बेहतर हैं। मुझे समर्पण करना चाहिए, परमेश्वर के घर की जरूरतों और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्यों को व्यावहारिक तरीके से करना चाहिए, जो चीजें मुझे समझ में नहीं आती हैं उनके बारे में परमेश्वर से अधिक प्रार्थना करनी चाहिए, दूसरों के साथ संगति करनी चाहिए और सत्य सिद्धांतों में प्रयास करना चाहिए। यही अभ्यास करने का सही तरीका है।

अब जबकि मैं दूसरे क्षेत्र में अपना कर्तव्य कर रहा था, लोगों को निकालने संबंधी सामग्री का विश्लेषण करते समय मैं अभी भी कभी-कभी गलत निर्णय पर पहुँच जाता था या गलत आकलन कर लेता था। जब निकाले जाने के बारे में मेरे लिखे फैसलों में समस्याएँ मिलीं और सभी ने अपने सुझाव और सुधार बताए तो अब भी मुझे कुछ असहज महसूस हुआ और यह चिंता खाने लगी कि दूसरे मुझे कैसे देखते हैं। जब ये भावनाएँ उभरीं, मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से प्रतिष्ठा और रुतबे की अपनी इच्छा से बंध रहा हूँ और बेबस हो रहा हूँ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, और मैं अपनी कमियों का सही ढंग से सामना करने, सही सुझाव स्वीकारने और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने को तैयार हो गया। कुछ अनुभव के बाद मुझे पता चला है कि भले ही मेरे कर्तव्यों में अभी भी बहुत सी कमियाँ हैं, फिर भी मैंने साथी भाई-बहनों के मार्गदर्शन, संगति और मदद के माध्यम से लोगों का भेद पहचानने और लोगों और चीजों को देखने में प्रगति की है। मेरे शब्दों का चयन भी पहले की तुलना में बहुत अधिक सटीक हो गया है। इन चीजों ने वाकई मेरी बहुत सी कमियाँ सुधारने में मेरी मदद की है। हालाँकि मैं अभी भी कभी-कभी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में फिक्र करता हूँ, फिर भी मैं परमेश्वर से यह प्रार्थना करने में सक्षम हूँ कि मैं खुद के खिलाफ विद्रोह कर सकूँ और प्रतिष्ठा और रुतबे की अपनी इच्छा से इतना बेबस न होऊँ। मुझे बचाने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!

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2. शुद्धिकरण का मार्ग

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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