8. बीमारी के अनुभव से मुझे बहुत कुछ मिला
“परमेश्वर पर विश्वास करते हुए लोग भविष्य के लिए आशीष पाने में लगे रहते हैं; यही उनकी आस्था का लक्ष्य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन उनकी प्रकृति की भ्रष्टता परीक्षणों और शोधन के माध्यम से दूर की जानी चाहिए। तुम जिन-जिन पहलुओं में शुद्ध नहीं हो और भ्रष्टता दिखाते हो, उन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाकर उसमें परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपनी भ्रष्टता को जान जाओ। अंततः तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करने के लिए मर जाना पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों का कई वर्षों तक शोधन न हो, अगर वे एक हद तक पीड़ा न सहें, तो वे अपनी सोच और हृदय में देह की भ्रष्टता की बाध्यताएँ तोड़ने में सक्षम नहीं होंगे। जिन किन्हीं पहलुओं में लोग अभी भी अपनी शैतानी प्रकृति की बाध्यताओं में जकड़े हैं और जिन भी पहलुओं में उनकी अपनी इच्छाएँ और मांगें बची हैं, उन्हीं पहलुओं में उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। केवल दुख भोगकर ही सबक सीखे जा सकते हैं, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्य कष्ट और परीक्षणों से गुजरकर समझ में आते हैं। कोई भी व्यक्ति आरामदायक और सहज परिवेश या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। जब भी मैं परमेश्वर के वचनों का यह अंश को पढ़ती हूँ तो इससे मुझे बीमारी के मेरे अनुभव की याद आती है। अगर मेरी बीमारी ने मेरा प्रकाशन न किया होता तो मैं केवल आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने के अपने गलत नजरिए को कभी नहीं पहचान पाती। और मैं अपने भविष्य की संभावनाओं और गंतव्य के प्रति होने वाली चिंता और घबराहट नहीं छोड़ पाती। ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद, जिनकी वजह से मुझे यह बीमारी हुई और मुझे अप्रत्याशित पुरस्कार मिले।
बचपन से ही मैं बहुत बीमार पड़ती थी। जब मैं 21 साल की थी तो मुझे ब्रोंकाइटिस हो गया था और तीन महीने तक हल्का बुखार रहा था। मैंने कई छोटे-बड़े अस्पतालों के चक्कर लगाए लेकिन कोई भी इसका इलाज नहीं कर सका। साथ ही इलाज के लिए मैं जो दवाई पी रही थी, उसने मेरे पेट और रक्त वाहिकाओं को गंभीर नुकसान पहुँचाया, और मेरे पास घर जाकर आराम करने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा। घर आने के बाद मैं खाना तक नहीं खा पाई और मेरी सेहत बिगड़ती चली गई। ऐसा लगा जैसे मैं बस मरने का इंतजार कर रही हूँ। मेरा बेइंतहा दर्द देखकर मेरी माँ ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का सुसमाचार मुझ तक फैलाया। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि मानवजाति का सृजन परमेश्वर ने किया है, साथ ही मानवजाति की भ्रष्टता की उत्पत्ति कहाँ से हुई है, लोगों का जीवन इतना कष्टमय क्यों है, वे इस पीड़ा से कैसे मुक्ति पा सकते हैं, व्यक्ति को एक सार्थक जीवन जीने के लिए क्या करना चाहिए, इत्यादि। उन दिनों मुझे हर दिन परमेश्वर के वचन पढ़ने से अधिक आनंद और किसी चीज में नहीं आता था। ऐसा लगता था मानो मैं अपनी बीमारी भूल गई हूँ। बाद में मेरी सेहत में थोड़ा सुधार हुआ और मैंने कलीसियाई जीवन जीना शुरू किया। छह महीने बाद मैं पूरी तरह ठीक हो गई। परमेश्वर के अनुग्रह का आनन्द लेने के बाद मैंने अपने हृदय में संकल्प लिया कि मैं अपना पूरा जीवन उसको अर्पित कर दूँगी और उसके प्रेम को चुकाने के लिए खुद को खपा दूँगी। उसके बाद मैं पूरी सक्रियता से अपने कर्तव्य में जुट गई। चाहे बारिश हो या आंधी आए, ठंड हो या गर्मी, या फिर हमें कम्युनिस्ट पार्टी की गिरफ्तारियों और उत्पीड़न का सामना करना पड़े, मैं हर परिस्थिति में अपना कर्तव्य निभाती रही।
इसी तरह 9 वर्ष तुरंत बीत गए और कम्युनिस्ट पार्टी का उत्पीड़न भी लगातार गंभीर होता रहा। मैं भाग्यशाली थी कि चीन से भागकर एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश में आ सकी जहां मैंने परमेश्वर में विश्वास करना जारी रखा। उन सालों के दौरान मैं लगातार अपना कर्तव्य निभाती रही। कुछ समय के लिए मैं उन नवागंतुकों से अलग टाइम जोन में थी, जिनका मैं सिंचन कर रही थी, और हर दिन मुझे अपने काम के लिए देर तक जागना पड़ता था। भले ही मैं कभी-कभी मैं बहुत थक जाती थी, लेकिन जब मैं उस महान गंतव्य के बारे में सोचती थी जिसे परमेश्वर ने हमारे लिए बनाया था तो मुझे लगता था कि उसके लिए किसी भी तरह की पीड़ा सही जा सकती है। वर्ष 2021 में मुझे बार-बार सीने में जकड़न और दिल की धड़कन बढ़ने की समस्या होने लगी और मेरी धड़कन में अक्सर उतार-चढ़ाव आने लगे। इसके अलावा मेरा पूरा शरीर थक जाता था और मुझे अक्सर नींद आती रहती थी। शुरुआत में मैंने ध्यान नहीं दिया और सोचा कि थोड़ा आराम मिलने पर मैं ठीक हो जाऊँगी। इसके अलावा, नवागंतुकों ने अभी-अभी सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकारा था और अभी तक उनकी नींव स्थिर नहीं थी; अगर अगर मैं तुरंत उनका सिंचन नहीं करती तो उनके जीवन को नुकसान होता। हालाँकि कई महीने बीत गए और मेरे लक्षण बद से बदतर होते गए। कभी-कभी मेरे दिल में अचानक तेज दर्द उठता था। मैं थोड़ी चिंतित थी, डरती थी कि कहीं मुझे कोई गंभीर बीमारी तो नहीं है। लेकिन फिर मैं सोचती, “भले ही बचपन से ही मेरा स्वास्थ्य खराब रहा है लेकिन मुझे कभी कोई बड़ी बीमारी नहीं हुई। मुमकिन है कि इन दिनों देर तक जागने से ये सामान्य शारीरिक प्रतिक्रियाएँ दिख रही हों। यह शायद किसी गंभीर बीमारी का संकेत नहीं है। साथ ही, इन वर्षों में मैंने सब कुछ त्याग दिया और परमेश्वर के लिए खुद को खपाया है, लिहाजा उसे मेरी रक्षा करनी चाहिए और मुझे कोई बड़ी बीमारी नहीं होनी चाहिए।”
फरवरी 2022 की एक शाम को मैं अपने कम्प्यूटर पर सामान्य कामकाज कर रही थी, तभी मुझे अपने दिल में दर्द की हल्की चुभन महसूस हुई। पहले तो मैं सहना चाहती थी और इसे गुजरने देना चाहती थी लेकिन हालत बद से बदतर होती गई, ऐंठन जैसा महसूस होने लगा। मुझे साँस लेने में तकलीफ होने लगी और आखिरकार मैं खड़ी नहीं रह सकी और फर्श पर गिर गई। जब ऐसा हुआ तो मैं बहुत डर गई और अपने आँसू नहीं रोक पाई। घर की दूसरी बहन ने मुझे पाया और उठाकर बिस्तर पर सुलाया और देखते ही देखते मुझे नींद आ गई। जब मैं उठी तो रात के 9 बज चुके थे, मैं छत को घूरती रही, अभी जो कुछ हुआ था उसे याद करके सोचती रही, “क्या मैं दिल के दर्द से बेहोश हुई थी? क्या मुझे वाकई दिल की बीमारी है? दिल की बीमारियाँ जानलेवा होती हैं; क्या मैं मरने वाली हूँ? मैंने सब कुछ त्याग दिया था और अपना कर्तव्य निभाया था तो परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की?” मैं समझ नहीं पा रही थी कि मुझे इस बीमारी का सामना कराने के पीछे परमेश्वर का इरादा क्या था। मुझे अपना मन शांत करके परमेश्वर के वचन पढ़ने थे, इसलिए मैंने अपना फोन निकाला और परमेश्वर के ये वचन देखे : “परीक्षणों से गुजरते समय लोगों का कमजोर होना, या उनके भीतर नकारात्मकता आना, या परमेश्वर के इरादों या अपने अभ्यास के मार्ग के बारे में स्पष्टता का अभाव होना सामान्य है। चाहे जो हो, तुम्हें परमेश्वर के कार्य पर आस्था होनी चाहिए, परमेश्वर को नकारना नहीं चाहिए, बिल्कुल अय्यूब की तरह। यद्यपि अय्यूब कमजोर था और अपने जन्म के दिन को धिक्कारता था, फिर भी उसने इस बात से इनकार नहीं किया कि मनुष्य के जीवन में सभी चीजें यहोवा द्वारा प्रदान की गई हैं, और यहोवा ही उन सबको वापस लेने वाला है। उसे चाहे जिन परीक्षणों से गुजारा गया, उसने यह विश्वास बनाए रखा। अपने अनुभव में, तुम चाहे परमेश्वर के वचनों के द्वारा जिस भी शोधन से गुजरो, परमेश्वर को मानवजाति से जिस चीज की अपेक्षा है, संक्षेप में, वह है परमेश्वर पर उनकी आस्था और उनका परमेश्वर-प्रेमी हृदय। इस तरह से कार्य करके जिस चीज को वह पूर्ण बनाता है, वह है लोगों का विश्वास, प्रेम और अभिलाषाएँ। परमेश्वर लोगों पर पूर्णता का कार्य करता है, और वे इसे देख नहीं सकते, महसूस नहीं कर सकते; इन परिस्थितियों में तुम्हारा विश्वास आवश्यक होता है। लोगों का विश्वास तब आवश्यक होता है, जब कोई चीज खुली आँखों से न देखी जा सकती हो, और तुम्हारा विश्वास तब आवश्यक होता है, जब तुम अपनी धारणाएँ नहीं छोड़ पाते। जब तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में स्पष्ट नहीं होते, तो तुमसे यही अपेक्षा की जाती है कि तुम आस्था बनाए रखो, दृढ़ रुख अपनाए रखो और अपनी गवाही में मजबूती से खड़े रहो। जब अय्यूब इस मुकाम पर पहुँचा, तो परमेश्वर उसे दिखाई दिया और उससे बोला। अर्थात्, केवल अपनी आस्था के भीतर से ही तुम परमेश्वर को देखने में समर्थ हो पाओगे, और जब तुम्हारे पास आस्था होगी तो परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाएगा। आस्था के बिना वह ऐसा नहीं कर सकता। परमेश्वर तुम्हें वह सब प्रदान करेगा, जिसे पाने की तुम आशा करते हो। अगर तुम्हारे पास विश्वास नहीं है, तो तुम्हें पूर्ण नहीं बनाया जा सकता और तुम परमेश्वर के कार्य को देखने में असमर्थ होगे, उसकी सर्वशक्तिमत्ता को तो बिलकुल भी नहीं देख पाओगे। जब तुम्हारे पास यह विश्वास होता है कि तुम अपने व्यावहारिक अनुभव में उसके कार्य को देख सकते हो, तो परमेश्वर तुम्हारे सामने प्रकट होगा और भीतर से तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। इस विश्वास के बिना परमेश्वर ऐसा करने में असमर्थ होगा। अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास खो चुके हो, तो तुम कैसे उसके कार्य का अनुभव कर पाओगे? इसलिए, जब तुम्हारे पास विश्वास होता है और तुम परमेश्वर पर संदेह नहीं करते, फिर चाहे वह कुछ भी करे, अगर तुम उस पर सच्चा विश्वास करते हो, केवल तभी वह तुम्हारे अनुभवों में तुम्हें प्रबुद्ध और रोशन करेगा, और केवल तभी तुम उसके कार्य को देख पाओगे। ये सभी चीजें विश्वास के माध्यम से ही प्राप्त की जाती हैं। विश्वास केवल शोधन के माध्यम से ही आता है, और शोधन की अनुपस्थिति में विश्वास विकसित नहीं हो सकता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे थोड़ा शांत होने में मदद की। मुझे एहसास हुआ कि मैं परमेश्वर के परीक्षणों में से एक का सामना कर रही थी और मुझे यह बीमारी होने के पीछे परमेश्वर का इरादा था; मैं बस अभी तक इसे समझ नहीं पाई थी। जब अय्यूब को परीक्षणों का सामना करना पड़ा तो वह परमेश्वर का इरादा नहीं समझ पाया था, लेकिन फिर भी उसने पापपूर्ण शब्द नहीं बोले। इसके बजाय उसने प्रार्थना की और मार्गदर्शन माँगा, परमेश्वर के लिए खूबसूरत गवाही दी। आखिरकार परमेश्वर ने खुद को अय्यूब के सामने प्रकट किया; यह कितना बड़ा आशीष था। अब मैं दिल की समस्या के कारण बेहोश हो गई थी और भले ही मैं अभी भी नहीं समझ पा रही थी कि परमेश्वर का इरादा क्या था, मुझे अय्यूब से सीखना चाहिए और पापपूर्ण शब्द नहीं बोलने चाहिए। साथ ही परमेश्वर यह भी देख रहा था कि क्या मुझमें सच्ची आस्था है। अतीत में जब मेरी सेहत अच्छी थी तो मैं बिना किसी शिकायत के खुद को उसके लिए खपाने, अपने कर्तव्य में कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम थी। अब जब मैं इस बीमारी से जूझ रही थी तो मैं परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं कर सकती थी। मुझे परमेश्वर के इरादे को खोजना चाहिए थे; मैं उस में अपनी आस्था नहीं खो सकती थी।
उसके बाद उस दौरान मेरा स्वास्थ्य बिगड़ता गया। अक्सर मेरे दिल की धड़कनें तेज हो जाती थीं और सीने में जकड़न होती थी और मेरे पूरे शरीर में कमजोरी महसूस होती थी। जब मैं बोलती थी तो मुझे अक्सर साँस लेने में मुश्किल होती थी और मैं साँस लेने के लिए हाँफने लगती थी और मैं साधारण घरेलू काम भी नहीं कर पाती थी। अपनी हालत देखकर मैं परेशान होकर सोचने लगी, “मैं सिर्फ 30 साल की हूँ; क्या मुझे भविष्य में वाकई अर्ध-विकलांग व्यक्ति की तरह जीना पड़ेगा? मैंने 21 साल की उम्र में परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू कर दिया था, अपनी जवानी खपा दी थी और सब कुछ त्याग दिया था। कम्युनिस्ट पार्टी के उत्पीड़न का सामना करते हुए भी मैं पीछे नहीं हटी थी। फिर परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की? अब हर कोई सक्रियता से अपने कर्तव्य कर रहा है, लेकिन मुझे यह बीमारी हो गई है। इस महत्वपूर्ण क्षण में मैं अपना कर्तव्य करने या अच्छे कर्मों की तैयारी करने में असमर्थ हूँ। क्या मुझे अभी भी अच्छा परिणाम और मंजिल मिलेगी?” जितना मैंने सोचा, मैं उतनी ही परेशान हो गई और मैं अकेले में रोने के लिए बालकनी में छिप गई। जितना मैं रोती, उतना ही मुझे लगता कि मेरे साथ गलत हुआ है, यह सोचा कि मेरी वर्तमान दुर्दशा वाकई दयनीय है। रोने के बाद मेरा मन थोड़ा शांत हुआ और मैंने घुटनों के बल बैठकर परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, यह बीमारी मुझे बहुत परेशान कर रही है और मुझे नहीं पता कि तुम्हारा इरादा क्या है। मुझे पता है कि मुझे तुमसे शिकायत नहीं करनी चाहिए या बिना वजह तुमसे माँगें नहीं करनी चाहिए, लेकिन मेरा दिल बहुत कमजोर है और मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। अपना इरादा समझने, खुद को जानने और इन परिस्थितियों के बीच सबक सीखने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “परमेश्वर मनुष्य को परिवार के सदस्य के रूप में देखता था, फिर भी मनुष्य परमेश्वर से एक अजनबी-सा व्यवहार करता था। परन्तु परमेश्वर के कार्य की एक समयावधि के पश्चात्, मनुष्य की समझ में आ गया कि परमेश्वर क्या प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था। लोग जानने लगे थे कि वही सच्चा परमेश्वर है; वे यह भी जान गए थे कि वे परमेश्वर से क्या प्राप्त कर सकते हैं। उस समय मनुष्य परमेश्वर को किस रूप में देखता था? मनुष्य अनुग्रह, आशीष एवं प्रतिज्ञाएँ पाने की आशा करते हुए परमेश्वर को जीवनरेखा के रूप में देखता था। उस समय परमेश्वर मनुष्य को किस रूप में देखता था? परमेश्वर मनुष्य को अपने विजय के एक लक्ष्य के रूप में देखता था। परमेश्वर मनुष्य का न्याय करने, उसकी परीक्षा लेने, उसका परीक्षण करने के लिए वचनों का उपयोग करना चाहता था। किन्तु उस समय जहाँ तक मनुष्य का संबंध था, परमेश्वर एक वस्तु था जिसे वह अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए उपयोग कर सकता था। लोगों ने देखा कि परमेश्वर द्वारा जारी सत्य उन पर विजय पा सकता है, उन्हें बचा सकता है, उनके पास उन चीजों को जिन्हें वे परमेश्वर से चाहते थे और उस मंजिल को जिसे वे चाहते थे, प्राप्त करने का एक अवसर है। इस कारण, उनके हृदय में थोड़ी सी ईमानदारी आ गयी, और वे इस परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए तैयार हो गए” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैं बहुत व्यथित और परेशान थी। परमेश्वर मुझे अपने घर में लाया था और मेरे साथ परिवार जैसा व्यवहार किया था, मुझे अपना कर्तव्य करने का मौका दिया था और मुझे अपने कर्तव्य में विभिन्न सत्य पाने में सक्षम बनाया था ताकि मैं आखिरकार अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकूँ और परमेश्वर का उद्धार पा सकूँ। हालाँकि मैंने परमेश्वर को जीवन रेखा माना था, मैं उससे सिर्फ अनुग्रह और आशीष पाना चाहती थी। जब मुझे यह बीमारी हुई तो मैं हिसाब लगाने लगी कि मैंने परमेश्वर के लिए कितना त्याग किया है, सोच रही थी कि चूँकि मैंने उसके लिए खुद को त्यागा और खपाया था, इसलिए मुझे बीमार नहीं पड़ना चाहिए था, और परमेश्वर को मुझे अच्छी सेहत का आशीष देना चाहिए था। जब मुझे मनचाही चीज नहीं मिली तो मैं हतोत्साहित और निराश हो गई। इससे पता चला कि मेरा परमेश्वर के लिए सब कुछ त्यागना और खुद को खपाना उसके प्रेम का बदला चुकाने के लिए नहीं था। इसके बजाय मैं उसके साथ सौदेबाजी कर रही थी; मैं अनुग्रह और आशीष पाने के लिए त्याग कर रही और खप रही थी। यह देखकर कि परमेश्वर में मेरी आस्था में अभी भी बहुत सी घृणित मंशाएँ हैं, मैं बहुत परेशान हो गई और सोचा कि मैं परमेश्वर के उद्धार के लायक नहीं हूँ। मैंने सोचा कि परमेश्वर यह देखकर कितना परेशान होगा कि मैं सिर्फ उस से आशीष पाने के लिए अपना कर्तव्य निभा रही हूँ। अगर कोई बच्चा सिर्फ इसलिए अपने माता-पिता की देखभाल कर रहा है ताकि उसे विरासत में संपत्ति मिल सके तो माता-पिता निश्चित रूप से दुखी होंगे। मैं भी उस गैर-संतानोचित बच्चे की तरह ही थी, सिर्फ अपने हित साधने के लिए मेहनत कर रही थी और खुद को खपा रही थी। परमेश्वर यह तो बिल्कुल नहीं देखना चाहता था। यह समझकर मैंने पश्चात्ताप में परमेश्वर से प्रार्थना की। मैं आशीष पाने का अपना इरादा छोड़ने और परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपना कर्तव्य निभाने को तैयार थी। उसके बाद मैंने अपने सोने का समय समायोजित करना शुरू कर दिया। मैं आमतौर पर थोड़ा और आराम करने, अपने खाने-पीने को नियंत्रित करने और हर दिन सामान्य तरीके से अपना कर्तव्य करने पर ध्यान केंद्रित करती थी। मेरे लिए हैरानी की बात थी कि एक सप्ताह बाद मेरा स्वास्थ्य धीरे-धीरे बेहतर होने लगा था। मैं परमेश्वर का धन्यवाद और स्तुति किए बिना न रह सकी।
उसी वर्ष दिसंबर में मुझे नया काम सौंपा गया। चूँकि मुझे काम से परिचित होना था और समूह में भाई-बहनों के काम की जाँच भी करनी थी, ऐसे कई दिन होते थे जब मुझे सोने में अपेक्षाकृत देर हो जाती थी। एक दिन शाम 5 बजे के बाद मुझे अपने दिल में हल्का दर्द महसूस हुआ। यह काफी देर तक चला और दर्द बढ़ता चला गया। मैं बाथरूम जाने के लिए उठी और जब मैं वापस बाहर आई तो मुझे लगा कि मेरे दिल में कुछ गंभीर गड़बड़ है और मैं मुश्किल से साँस ले पा रही थी। मैं सीधे खड़ी नहीं हो पा रही थी, इसलिए मैंने अपना हाथ दरवाजे पर रखा और फिर धीरे-धीरे फर्श पर गिर गई। मैं लगभग आधे घंटे तक फर्श पर लेटी रही। मेरा दिल जरा भी ठीक नहीं लग रहा था और मेरा पूरा शरीर लगातार काँप रहा था। मुझे वहाँ लेटी देखकर एक बहन घबरा गई और उसने मुझे मेरे बिस्तर तक पहुँचाया। बाद में रात 10 बजे के बाद मैंने उठकर लैपटॉप डेस्क को बिस्तर तक खींचना चाहा लेकिन मुझमें बिल्कुल भी ताकत नहीं थी। उस समय मेरे दिल में बहुत तकलीफ हो रही थी और मैंने सोचा, “अगर भविष्य में मेरा स्वास्थ्य हमेशा खराब रहेगा तो मेरा क्या होगा?” अगले दिन मैं एक बहन के साथ जाँच करवाने अस्पताल गई, लेकिन नतीजों से पता चला कि सब कुछ सामान्य था। मुझे नहीं पता था कि इससे मैं खुश हो जाऊँ या फिक्र करूँ। यह अच्छा था कि मुझे कोई बीमारी नहीं थी, लेकिन वाकई मेरे साथ कुछ तो गड़बड़ थी और अगर बीमारी की पहचान नहीं की जा सकती थी तो इसका इलाज करने का कोई तरीका नहीं था। बाद में मेरी स्वास्थ्य स्थिति देखते हुए पर्यवेक्षक ने मेरा कार्यभार कम कर दिया। यह देखकर कि मेरे कर्तव्यों को बार-बार कम किया जा रहा था, न चाहते हुए भी मुझे फिक्र होने लगी और मैंने सोचा, “मेरा कर्तव्य धीरे-धीरे गायब हो रहा है तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि मेरे पास अच्छे कर्मों की तैयारी करने के कम से कम अवसर होंगे? मैं भविष्य में अच्छे कर्मों की तैयारी कैसे करूँगी और उद्धार कैसे पाऊँगी?” यह सोचकर मैं थोड़ी नकारात्मक हो गई। उसके बाद मेरी सेहत और भी बिगड़ गई और मुझे अपने कमरे से बाथरूम तक जाते समय दीवार का सहारा लेना पड़ता था। मैं आमतौर पर सिर्फ बिस्तर पर बैठी रह पाती थी और जब मैं सीधी खड़ी नहीं हो पाती तो बस दीवार से टेक लगा लेती या डेस्क के सहारे आराम करती थी। मैंने मन ही मन सोचा, “पहले मैं कुछ देर तक आराम करने के बाद ठीक हो जाती थी। अब मेरी हालत क्यों बिगड़ती जा रही है? हर कोई अपने कर्तव्यों को करने में व्यस्त है; अगर मैं अपनी बीमारी के कारण अपना कर्तव्य नहीं निभा सकी तो क्या मैं उद्धार पाने का अपना मौका नहीं खो दूँगी? इसके बाद जब तक मेरा स्वास्थ्य इजाजत देता है, मैं अपने कर्तव्य पर डटी रहूँगी। अभी मैं सिर्फ सीमित कर्तव्य ही कर सकती हूँ, लेकिन जब तक मैं अपने कर्तव्य पर कायम रहूँगी, शायद परमेश्वर देखेगा कि मैं डटे रहने में सक्षम हूँ और मुझे जल्दी ठीक कर देगा।” उसके बाद मेरा स्वास्थ्य खराब ही रहा और मेरे दिल का दर्द और भी बढ़ता गया। मैं किसी चीज का डर नहीं सहन कर पाती थी, और अगर कोई तेज आवाज होती थी तो मेरे दिल में बेचैनी होती थी। मैंने सोचा, “इस बीमारी के बावजूद मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए हर संभव प्रयास कर रही हूँ तो मेरा स्वास्थ्य इस तरह क्यों बिगड़ रहा है? परमेश्वर ने मुझे ठीक क्यों नहीं किया है? यह बीमारी लगभग दो साल से चल रही है। मैं अस्पताल गई थी लेकिन वे इसका पता नहीं लगा सके और मैं इसे ठीक करने के लिए कुछ भी नहीं कर सकती थी। अब मेरे लिए आत्मनिर्भर होकर जीना भी मुश्किल है और मेरे पास अपना कर्तव्य निभाने के लिए पर्याप्त ऊर्जा नहीं बची है। क्या मुझे हटा दिया जाएगा?” मैं अंदर से कमजोर से कमजोर होती जा रही थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और मार्गदर्शन माँगा।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “आम लोग बीमार होने पर हमेशा कष्ट में डूबे रहकर उदास हो जाते हैं, और उनके सहन करने की एक सीमा होती है। वैसे एक बात ध्यान देने की है : अगर लोग बीमार पड़ने पर बीमारी से छुटकारा पाकर बच निकलने के लिए हमेशा अपनी शक्ति पर निर्भर रहने की सोचें, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? अपने रोग के साथ क्या वे और ज्यादा कष्ट नहीं झेलेंगे, और ज्यादा उदास नहीं हो जाएँगे? इसलिए लोग रोग से जितना ज्यादा घिरे हुए हों, उतना ही उन्हें परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होने के लिए सत्य और अभ्यास करने का मार्ग खोजना चाहिए। लोग जितना ज्यादा बीमारी से घिरे हुए हों, उतना ही उन्हें परमेश्वर के समक्ष आकर अपनी भ्रष्टता और परमेश्वर से की जाने वाली अपने नावाजिब माँगों को जानना चाहिए। तुम बीमारी से जितने ज्यादा घिरे हुए हो, उतनी ही ज्यादा तुम्हारी सच्चे समर्पण की परख होती है। इसलिए, बीमार पड़ने पर, परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित रहने और अपनी शिकायतों और नावाजिब माँगों के खिलाफ विद्रोह करने की तुम्हारी काबिलियत दिखाती है कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो सचमुच सत्य का अनुसरण कर परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है, तुम गवाही देते हो, परमेश्वर के प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण सच्चा है और परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकता है, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण महज नारेबाजी और सिद्धांत नहीं हैं। बीमार होने पर लोगों को इस बात पर अमल करना चाहिए। जब तुम बीमार पड़ते हो, तो यह तुम्हारी नावाजिब माँगों और परमेश्वर के प्रति अवास्तविक कल्पनाओं और धारणाओं का खुलासा करने के लिए होता है, यह परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति समर्पण की परीक्षा लेने के लिए भी होता है। अगर तुम इन चीजों की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हो, तो तुम्हारे पास परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण की सच्ची गवाही और असली प्रमाण है। परमेश्वर यही चाहता है, एक सृजित प्राणी के पास यह होना चाहिए और उसे इसे जीना चाहिए। क्या ये सारी चीजें सकारात्मक नहीं हैं? (जरूर हैं।) लोगों को इन सभी चीजों का अनुसरण करना चाहिए। इसके अलावा, अगर परमेश्वर तुम्हें बीमार पड़ने देता है, तो क्या वह कभी भी कहीं भी तुमसे तुम्हारा रोग ले नहीं सकता? (जरूर ले सकता है।) परमेश्वर कभी भी कहीं भी तुम्हारा रोग तुमसे ले सकता है, तो क्या वह ऐसा नहीं कर सकता कि तुम्हारा रोग तुममें बना रहे और तुम्हें कभी न छोड़े? (जरूर कर सकता है।) अगर परमेश्वर ऐसा कुछ करता है कि यह रोग तुम्हें कभी न छोड़े, तो क्या तब भी तुम अपना कर्तव्य निभा पाओगे? क्या तुम परमेश्वर में अपनी आस्था रख पाओगे? क्या यह परीक्षा नहीं है? (हाँ है।) अगर तुम बीमार पड़कर कई महीने बाद ठीक हो जाओ, तो परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण की परीक्षा नहीं होती, और तुम्हारे पास कोई गवाही नहीं होती। कुछ महीने तक रोग सहना आसान है, लेकिन अगर तुम्हारा रोग दो-तीन साल चले, और तुम्हारी आस्था और परमेश्वर के प्रति वफादार और समर्पित बने रहने की तुम्हारी कामना बदलने के बजाय और सच्ची हो जाए, तो क्या यह नहीं दिखाता कि तुम जीवन में विकसित हो चुके हो? क्या तुम्हें इसका फल नहीं मिलेगा? (हाँ।) तो सत्य का सच्चा अनुसरण करने वाला कोई व्यक्ति बीमार होने पर अपने रोग से आए विविध लाभों से गुजर कर उनका खुद अनुभव करता है। वह व्याकुल होकर अपने रोग से बच निकलने की कोशिश नहीं करता, न ही चिंता करता है कि रोग के लंबा खिंचने पर नतीजा क्या होगा, उसके कारण कौन-सी समस्याएँ पैदा होंगी, कहीं रोग बदतर तो नहीं हो जाएगा, या कहीं वह मर तो नहीं जाएगा—वह ऐसी चीजों के बारे में चिंता नहीं करता। ऐसी चीजों की चिंता न करने के साथ-साथ ऐसे लोग सकारात्मक रुख रख पाते हैं, परमेश्वर में सच्ची आस्था रखकर उसके प्रति समर्पित और वफादार रह पाते हैं। इस तरह अभ्यास करके, वे गवाही हासिल कर पाते हैं, यह उन्हें उनके जीवन-प्रवेश और स्वभावगत परिवर्तन में बड़ा लाभ प्रदान करता है, और यह उनकी उद्धार-प्राप्ति की ठोस बुनियाद बना देता है। यह कितना अद्भुत है!” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचन अंधकार के बीच रोशनी की तरह थे, मुझे सांत्वना दे रहे थे और मुझे अभ्यास करने का मार्ग दे रहे थे। परमेश्वर जानता था कि मुझे इस समय सबसे ज्यादा किस चीज की जरूरत है। उसने ये परिस्थितियाँ बनाई थीं ताकि मैं उनसे सत्य खोज सकूँ और अपना भ्रष्ट स्वभाव समझ पाऊँ। साथ ही परमेश्वर मेरी आस्था और मेरे समर्पण की परीक्षा लेना चाहता था। परमेश्वर के लिए मुझे इस बीमारी से बचाना आसान होता, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। इसके बजाय मेरे लक्षण और भी बिगड़ते गए और निश्चित रूप से इसमें उसका इरादा था। बीमारी के साथ इन दो अनुभवों ने मेरे विद्रोहीपन को काफी हद तक प्रकट किया। हर बार जब मैं इस बीमारी का सामना करती थी तो शुरू में मेरी व्यक्तिपरक इच्छा शायद समर्पण करने और शिकायत न करने की होती थी, लेकिन जब बीमारी ज्यादा गंभीर हो जाती तो मैं परमेश्वर से शिकायत और तर्क-वितर्क करने लगती थी। पिछले दो साल से मैं लगातार इन परिस्थितियों का अनुभव कर रही थी, लेकिन मैं अपनी गवाही में कभी अडिग नहीं रही थी, हमेशा सौदेबाजी करने का इरादा रखती थी। परमेश्वर ने लगातार मेरे अनुभव के लिए ये परिस्थितियाँ बनाई थीं और यही मेरे जीवन के प्रति उसका जिम्मेदारी दिखाना और मुझे बचाना था। मैं अंतरात्मा रहित होकर परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं कर सकती थी। एक तरफ इन परिस्थितियों का सामना करते हुए मुझे सच्चा समर्पण करने की जरूरत थी और अपनी पूरी क्षमता से अपना कर्तव्य निभाना था। दूसरी तरफ मुझे अपने द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों को भी समझना था और उन सत्यों की खोज करनी थी जिनमें मुझे प्रवेश करना चाहिए।
एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “हमने अभी-अभी इस बारे में बात की कि मसीह-विरोधी सत्य से कैसे विमुख हैं, कैसे उन्हें अधर्मी और दुष्ट चीजें पसंद हैं, कैसे वे अपने हित साधने और आशीष पाने का निरंतर प्रयास करते हैं, आशीष हासिल करने का इरादा और इच्छा कभी नहीं छोड़ते, और कैसे हमेशा परमेश्वर के साथ सौदे करने की कोशिश करते हैं। तो, इस मामले को कैसे पहचाना और वर्गीकृत किया जाना चाहिए? अगर हम इसे हर चीज से पहले लाभ को प्राथमिकता देना कहें, तो यह बहुत हल्की बात होगी। यह वैसा ही है जैसे पौलुस ने स्वीकार किया कि उसकी देह में एक कांटा चुभा है, और उसे अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए काम करना चाहिए, लेकिन अंत में, वह फिर भी धार्मिकता का मुकुट पाने की इच्छा रखता था। इसकी प्रकृति क्या है? (शातिरपना।) यह एक तरह का शातिर स्वभाव है। लेकिन इसकी प्रकृति क्या है? (परमेश्वर के साथ सौदे करना।) इसकी प्रकृति ऐसी है। वह अपने हर काम में लाभ की तलाश करता था, हर चीज को सौदे के रूप में लेता था। गैर-विश्वासियों के बीच एक कहावत है : ‘मुफ्त की दावत जैसी कोई चीज नहीं होती है।’ मसीह-विरोधी भी इसी तर्क को अपने मन में रखते हैं, और सोचते हैं कि, ‘अगर मैं तुम्हारे लिए काम करता हूँ, तो तुम मुझे बदले में क्या दोगे? मुझे क्या फायदे हो सकते हैं?’ इस प्रकृति को संक्षेप में कैसे व्यक्त किया जाना चाहिए? यह लाभ से प्रेरित होना, लाभ को हर चीज से ऊपर रखना, और स्वार्थी और नीच होना है। मसीह-विरोधी लोगों का प्रकृति सार यही है। वे केवल लाभ और आशीष प्राप्त करने के उद्देश्य से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। यदि वे कुछ कष्ट सहते हैं या कुछ कीमत चुकाते हैं, तो वह सब भी परमेश्वर के साथ सौदा करने के लिए होता है। आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की उनकी मंशा और इच्छा बहुत बड़ी होती है, और वे उससे कसकर चिपके रहते हैं। वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए अनेक सत्यों में से किसी को भी स्वीकार नहीं करते और अपने हृदय में हमेशा सोचते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करना आशीष प्राप्त करने और एक अच्छी जगह पहुंचना सुनिश्चित करने के लिए है, कि यह सर्वोच्च सिद्धांत है, और इससे बढ़कर कुछ भी नहीं हो सकता। वे सोचते हैं कि लोगों को आशीष प्राप्त करने के अलावा परमेश्वर पर विश्वास नहीं करना चाहिए, और अगर यह सब आशीष के लिए नहीं है, तो परमेश्वर पर विश्वास का कोई अर्थ या महत्व नहीं होगा, कि यह अपना अर्थ और मूल्य खो देगा। क्या ये विचार मसीह-विरोधियों में किसी और ने डाले थे? क्या ये किसी अन्य की शिक्षा या प्रभाव से निकले हैं? नहीं, वे मसीह-विरोधियों के अंतर्निहित प्रकृति सार द्वारा निर्धारित होते हैं, जिसे कोई भी नहीं बदल सकता। आज देहधारी परमेश्वर के इतने सारे वचन बोलने के बावजूद, मसीह-विरोधी उनमें से किसी को भी स्वीकार नहीं करते, बल्कि उनका विरोध करते हैं और उनकी निंदा करते हैं। सत्य के प्रति उनके विमुख होने और सत्य से घृणा करने की प्रकृति कभी नहीं बदल सकती। अगर वे बदल नहीं सकते, तो यह क्या संकेत करता है? यह संकेत करता है कि उनकी प्रकृति दुष्ट है। यह सत्य का अनुसरण करने या न करने का मुद्दा नहीं है; यह दुष्ट स्वभाव है, यह निर्लज्ज होकर परमेश्वर के विरुद्ध हल्ला मचाना और परमेश्वर को नाराज करना है। यह मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार है; यही उनका असली चेहरा है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे गहन आत्म-चिंतन की अवस्था में डाल दिया। परमेश्वर ने उजागर किया कि मसीह-विरोधी आशीष पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और अपने कर्तव्यों में परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करते हैं। वे सत्य का अनुसरण करने और अपना जीवन स्वभाव बदलने के लिए परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते। पिछले दो वर्षों से लगातार बीमार रहने से मेरा असली आध्यात्मिक कद बेनकाब हो गया था। शुरू में मैं इसे सामान्य रूप से अनुभव कर पाती थी, लेकिन लंबे समय में जब मेरी हालत खराब हो गई तो मेरी शिकायतें और गलतफहमियाँ सामने आने लगीं और मैंने खुद के त्याग और खपाने का इस्तेमाल परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क के लिए करना शुरू कर दिया। हर कोई बीमारी और मृत्यु का अनुभव करता है; ये चीजें सामान्य हैं। परमेश्वर पर विश्वास और अपना कर्तव्य करने के लिए सब कुछ त्यागना मेरा अपना चुनाव था और कुछ ऐसा था जो मैंने स्वेच्छा से किया था। अपने कर्तव्य और अपनी बीमारी में खुद को खपाने का एक दूसरे से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन मैंने खुद को खपाने का इस्तेमाल परमेश्वर से अनुचित माँगें करने के लिए पूँजी के रूप में किया। मैंने सोचा कि चूँकि मैंने परमेश्वर का अनुसरण और अपना कर्तव्य करने के लिए सब कुछ त्याग दिया था, इसलिए परमेश्वर को मेरी रक्षा करनी चाहिए, मुझे यह बीमारी या इतना कष्ट नहीं सहने देना चाहिए, और मुझे भविष्य में एक अच्छी मंजिल देनी चाहिए। जब ऐसा नहीं हुआ तो मैंने शिकायत की, तर्क-वितर्क किया और परमेश्वर के आगे चीख-पुकार की। मैंने पौलुस के बारे में सोचा, जो पूरे यूरोप में सुसमाचार फैलाने और बहुत सारे काम करने के लिए गया था, यह सब सिर्फ मुकुट और भविष्य में एक अच्छी मंजिल पाने के लिए कर रहा था। पौलुस ने कहा, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। इन बातों को बोलते हुए पौलुस स्पष्ट रूप से परमेश्वर के साथ सौदेबाजी कर रहा था। एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य करना पूरी तरह से स्वाभाविक है और इससे भी अधिक यह परमेश्वर द्वारा मनुष्य को ऊपर उठाना है। लेकिन पौलुस ने परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के मामले को सौदेबाजी के नजरिए से देखा, अपने कर्तव्य को करने के अर्थ को पूरी तरह से विकृत कर दिया। अगर वह परमेश्वर से पुरस्कार पाने में असमर्थ रहता था तो वह उसके साथ तर्क-वितर्क करता था और शोर मचाता था, जिससे उसका क्रूर और दुष्ट स्वभाव पूरी तरह से उजागर हो गया। मैंने देखा कि परमेश्वर में अपनी आस्था में मैं जिस मार्ग पर चलती थी, वह पौलुस के मार्ग के समान ही था। अगर मैं इसी तरह चलता रही तो मुझे पक्का अंत में उसी की तरह दंडित किया जाएगा। इसका एहसास होने पर मैं थोड़ी डर गई और सोचने लगी, “यह पता चला है कि परमेश्वर में अपनी आस्था में आशीष के अनुसरण की प्रकृति और नतीजे बहुत गंभीर हैं। मैं खोज के प्रति इस गलत दृष्टिकोण का अनुसरण नहीं कर सकती।”
भले ही मेरी अवस्था कुछ हद तक उलट गई, लेकिन मेरा स्वास्थ्य बेहतर नहीं हुआ, और यह लगातार बिगड़ता गया। मुझे लगा कि मेरे दिन अब गिने-चुने रह गए हैं और कभी-कभी मेरे मन में कुछ नकारात्मक विचार आते थे, जैसे कि, “क्या यह बीमारी मुझे बेनकाब करने और दंडित करने का परमेश्वर का तरीका नहीं है? वरना यह ठीक होने के बजाय बढ़ती क्यों जा रही है?” यह सोचकर मेरे दिल में बहुत तकलीफ होती थी और इससे निपटना मुश्किल था। एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा जो कहते हैं : “लोगों को बार-बार यह जांच करनी चाहिए कि उनके दिल में कुछ ऐसा तो नहीं है जो परमेश्वर के साथ असंगत है या उसके बारे में गलतफहमी है।” तो मैंने परमेश्वर के वचनों का पूरा अंश खोजा और उसे पढ़ा : “लोगों को बार-बार यह जांच करनी चाहिए कि उनके दिल में कुछ ऐसा तो नहीं है जो परमेश्वर के साथ असंगत है या उसके बारे में गलतफहमी है। गलतफहमियां कैसे पैदा होती हैं? लोग परमेश्वर को गलत क्यों समझ लेते हैं? (क्योंकि उनका स्वार्थ प्रभावित होता है।) ... दया, उद्धार, देखभाल, सुरक्षा और लोगों की प्रार्थनाएं सुनने के अलावा और किन तरीकों से परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है? (दंड, अनुशासन, काट-छांट, न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शोधन से।) सही कहा। परमेश्वर प्रचुर तरीकों से अपना प्रेम प्रदर्शित करता है : प्रहार करके, अनुशासित करके, तिरस्कृत करके, और न्याय, ताड़ना, परीक्षणों, शोधन इत्यादि से। ये सभी परमेश्वर के प्रेम के पहलू हैं। सिर्फ यही परिप्रेक्ष्य व्यापक और सत्य के अनुरूप है। अगर तुम इसे समझते हो, तो जब तुम अपनी जांच करके यह पाते हो कि तुम्हारे मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियां हैं, तब क्या तुम अपनी गलतियां पहचानने और यह चिंतन करके कि तुमसे कहां गलती हुई है, एक अच्छा काम करने में सक्षम नहीं होते? क्या यह परमेश्वर के बारे में तुम्हारी गलतफहमियां दूर करने में मदद नहीं कर सकता? (हां, कर सकता है।) ऐसा करने के लिए तुम्हें सत्य खोजना चाहिए। अगर लोग सत्य खोजते हैं, तो वे परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियां दूर कर सकते हैं, और जब वे परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियां दूर कर लेते हैं, तब वे परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं के आगे समर्पण कर सकते हैं। ... परमेश्वर लोगों पर अनुग्रह और आशीषें बरसा सकता है और उन्हें उनका दैनिक भोजन दे सकता है, पर वह यह सब वापस भी ले सकता है। यह परमेश्वर का अधिकार, सार और स्वभाव है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे तुरंत प्रसन्न कर दिया। यह पता चला कि मेरा दृष्टिकोण हमेशा से गलत था : मुझे विश्वास था कि अगर परमेश्वर किसी से प्रेम करता है तो वह उसे निरंतर आशीष देगा, उसके लिए सब कुछ सुचारू रूप से चलाएगा और उसे सुरक्षित और स्वस्थ रखेगा, जबकि अगर वह किसी से प्रेम नहीं करता है तो वह उसे उतार-चढ़ाव, असुविधाओं, बीमारियों आदि के रूप में कई दर्दनाक चीजों से पीड़ित करेगा। इसलिए जब मेरा स्वास्थ्य बिगड़ता रहा तो मैंने सोचा कि यह शायद मुझे दंडित करने का परमेश्वर का तरीका हो सकता है और मैं अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में निराशा और दर्द में जी रही थी। इस बारे में विस्तार से सोचने पर भले ही बीमारी के ये दो साल दर्दनाक लगें, मैंने इस प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर से और भी अधिक प्रार्थना की और मार्गदर्शन माँगा और मुझे लगा कि मैं उसके और करीब आ गई हूँ। मैंने यह भी पहचाना कि आशीष पाने के लिए मैंने अपने मन में बहुत मजबूत इरादा पाल रखा था। यह सब परमेश्वर का मुझे आशीष देने का तरीका था; यह मेरा विशेषाधिकार था। यह वैसा ही है जैसा कि परमेश्वर के वचनों में व्यक्त किया गया है : परमेश्वर का प्रेम सिर्फ दया और प्रेमपूर्ण दयालुता, देखभाल और सुरक्षा ही नहीं है। न्याय और ताड़ना के साथ परीक्षण और शोधन भी परमेश्वर का प्रेम है; वे उसके आशीष और अनुग्रह हैं। प्रेम दिखाने का यह तरीका शायद मुझे पसंद न आया हो, लेकिन यह वही था जिसकी मुझे जरूरत थी। इन परिस्थितियों के बिना मैं खुद को समझ नहीं पाती। इस समय मैंने लोगों को बचाने में परमेश्वर की विचारशीलता का प्रत्यक्ष अनुभव किया था। परमेश्वर हमेशा से मुझे बचा रहा था और फिर भी उसे मेरी गलतफहमियाँ और शिकायतें सहनी पड़ीं। यह सोचकर मुझे खुद से नफरत हुई, जबकि उसी समय परमेश्वर के प्रेम से मैं गहराई से प्रभावित हुई।
उस दौरान मैं अक्सर पतरस के अनुभव के बारे में सोचती थी। मुझे पता था कि मैं उसकी मानवता या परमेश्वर से प्रेम करने के उसके दृढ़ संकल्प की बराबरी नहीं कर सकती, लेकिन मैं जानना चाहती थी कि जब उसने न्याय और ताड़ना और परीक्षण और शोधन का सामना किया तो उसका अनुभव कैसा था और वह अपनी अत्यधिक तकलीफ और कमजोरी के समय से कैसे गुजरा। मैंने परमेश्वर के वचनों की दो वीडियो रीडिंग देखनी शुरू कीं : “पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान” और “पतरस ने यीशु को कैसे जाना।” मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अब तुम्हें उस मार्ग को स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ हो जाना चाहिए, जिस पर पतरस चला था। यदि तुम पतरस के मार्ग को स्पष्ट रूप से देख सको, तो तुम उस कार्य के बारे में निश्चित होगे जो आज किया जा रहा है, इसलिए तुम शिकायत नहीं करोगे या नकारात्मक नहीं होगे, या किसी भी चीज़ की लालसा नहीं करोगे। तुम्हें पतरस की उस समय की मनोदशा का अनुभव करना चाहिए : वह दुख से त्रस्त था; उसने फिर कोई भविष्य या आशीष नहीं माँगा। उसने सांसारिक लाभ, प्रसन्नता, प्रसिद्धि या धन-दौलत की कामना नहीं की; उसने केवल सर्वाधिक अर्थपूर्ण जीवन जीना चाहा, जो कि परमेश्वर के प्रेम को चुकाने और परमेश्वर को अपनी सबसे अधिक बहुमूल्य वस्तु समर्पित करने के लिए था। तब वह अपने हृदय में संतुष्ट होता। उसने प्रायः इन शब्दों में यीशु से प्रार्थना की : ‘प्रभु यीशु मसीह, मैंने एक बार तुझे प्रेम किया था, किंतु मैंने तुझे वास्तव में प्रेम नहीं किया था। यद्यपि मैंने कहा था कि मुझे तुझ पर विश्वास है, किंतु मैंने तुझे कभी सच्चे हृदय से प्रेम नहीं किया। मैंने केवल तुझे देखा, तुझे सराहा, और तुझे याद किया, किंतु मैंने कभी तुझे प्रेम नहीं किया, न ही तुझ पर वास्तव में विश्वास किया।’ अपना संकल्प करने के लिए उसने लगातार प्रार्थना की, और वह यीशु के वचनों से हमेशा प्रोत्साहित होता और उनसे प्रेरणा प्राप्त करता। बाद में, एक अवधि तक अनुभव करने के बाद, यीशु ने अपने लिए उसमें और अधिक तड़प पैदा करते हुए उसकी परीक्षा ली। उसने कहा : ‘प्रभु यीशु मसीह! मैं तुझे कितना याद करता हूँ, और तुझे देखने के लिए कितना लालायित रहता हूँ। मुझमें बहुत कमी है, और मैं तेरे प्रेम का बदला नहीं चुका सकता। मैं तुझसे प्रार्थना करता हूँ कि मुझे शीघ्र ले जा। तुझे मेरी कब आवश्यकता होगी? तू मुझे कब ले जाएगा? मैं कब एक बार फिर तेरा चेहरा देखूँगा? मैं भ्रष्ट होते रहने के लिए इस शरीर में अब और नहीं जीना चाहता, न ही अब और विद्रोह करना चाहता हूँ। मेरे पास जो कुछ भी है, वह सब मैं यथाशीघ्र तुझे समर्पित करने के लिए तैयार हूँ, और अब मैं तुझे और दुखी नहीं करना चाहता।’ उसने इसी तरह से प्रार्थना की, किंतु उस समय वह नहीं जानता था कि यीशु उसमें क्या पूर्ण करेगा। उसकी परीक्षा की पीड़ा के दौरान, यीशु पुनः उसके सामने प्रकट हुआ और बोला : ‘पतरस, मैं तुझे पूर्ण बनाना चाहता हूँ, इस तरह कि तू फल का एक टुकड़ा बन जाए, जो मेरे द्वारा तेरी पूर्णता का ठोस रूप हो, और जिसका मैं आनंद लूँगा। क्या तू वास्तव में मेरे लिए गवाही दे सकता है? क्या तूने वह किया, जो मैं तुझे करने के लिए कहता हूँ? क्या तूने मेरे कहे वचनों को जिया है? तूने एक बार मुझे प्रेम किया, किंतु यद्यपि तूने मुझे प्रेम किया, पर क्या तूने मुझे जिया है? तूने मेरे लिए क्या किया है? तू महसूस करता है कि तू मेरे प्रेम के अयोग्य है, पर तूने मेरे लिए क्या किया है?’ पतरस ने देखा कि उसने यीशु के लिए कुछ नहीं किया था, और परमेश्वर को अपना जीवन देने की पिछली शपथ स्मरण की। और इसलिए, उसने अब और शिकायत नहीं की, और तब से उसकी प्रार्थनाएँ और अधिक बेहतर हो गईं। उसने यह कहते हुए प्रार्थना की : ‘प्रभु यीशु मसीह! एक बार मैंने तुझे छोड़ा था, और एक बार तूने भी मुझे छोड़ा था। हमने अलग होकर, और साहचर्य में एक-साथ, समय बिताया है। फिर भी तू मुझे अन्य सभी की अपेक्षा सबसे ज्यादा प्रेम करता है। मैंने बार-बार तेरे विरुद्ध विद्रोह किया है और तुझे बार-बार दुःखी किया है। ऐसी बातों को मैं कैसे भूल सकता हूँ? जो कार्य तूने मुझ पर किया है और जो कुछ तूने मुझे सौंपा है, मैं उसे हमेशा मन में रखता हूँ, और कभी नहीं भूलता। जो कार्य तूने मुझ पर किया है, उसके लिए मैंने वह सब किया है, जो मैं कर सकता हूँ। तू जानता है कि मैं क्या कर सकता हूँ, और तू यह भी जानता है कि मैं क्या भूमिका निभा सकता हूँ। मैं खुद को तेरे आयोजनों की दया पर रखना चाहता हूँ और मेरे पास जो कुछ भी है, वह सब मैं तुझे समर्पित कर दूँगा। केवल तू ही जानता है कि मैं तेरे लिए क्या कर सकता हूँ। यद्यपि शैतान ने मुझे बहुत मूर्ख बनाया और मैंने तेरे विरुद्ध विद्रोह किया, किंतु मुझे विश्वास है कि तू मुझे उन अपराधों के लिए स्मरण नहीं करता, और कि तू मेरे साथ उनके आधार पर व्यवहार नहीं करता। मैं अपना संपूर्ण जीवन तुझे समर्पित करना चाहता हूँ। मैं कुछ नहीं माँगता, और न ही मेरी अन्य आशाएँ या योजनाएँ हैं; मैं केवल तेरे इरादों के अनुसार कार्य करना चाहता हूँ और तेरी इच्छा के अनुसार चलना चाहता हूँ। मैं तेरे कड़वे कटोरे में से पीऊँगा और मैं तेरे आदेश के लिए हूँ’” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस ने यीशु को कैसे जाना)। “तुम लोगों को उस मार्ग के बारे में स्पष्ट होना चाहिए, जिस पर तुम लोग चलते हो; तुम लोगों को उस मार्ग के बारे में स्पष्ट होना चाहिए, जिस पर तुम भविष्य में चलोगे, और इस बारे में भी कि वह क्या है जिसे परमेश्वर पूर्ण बनाएगा, और तुम लोगों को क्या सौंपा गया है। किसी दिन शायद तुम लोगों की परीक्षा ली जाएगी, और जब वह समय आएगा, तब यदि तुम लोग पतरस के अनुभवों से प्रेरणा प्राप्त करने में समर्थ होगे, तो यह इस बात को दर्शाएगा कि तुम लोग वास्तव में पतरस के मार्ग पर चल रहे हो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस ने यीशु को कैसे जाना)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे बहुत प्रभावित किया और पतरस के परमेश्वर से प्रेम करने के दृढ़ संकल्प ने भी। पतरस के अनुभव के बारे में पढ़ने के बाद मुझे अपमानित महसूस हुआ और शर्मिंदगी हुई। परीक्षणों के बीच पतरस हमेशा यह खोजता था कि उसे परमेश्वर से और अधिक शुद्धता से कैसे प्रेम करना चाहिए और जब वह परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर पाता था तो वह खुद से घृणा करता था। वह हमेशा यह खोजता रहता था कि उसे अपनी सबसे कीमती चीजें परमेश्वर को कैसे अर्पित करनी चाहिए। लेकिन अपनी बीमारी के दौरान मैंने विद्रोहीपन और गलतफहमियों के अलावा कुछ भी प्रकट नहीं किया था। मैं या तो इस बात को लेकर चिंतित रहती थी कि अगर मेरी बीमारी और गंभीर हो गई तो मेरे भविष्य का गंतव्य क्या होगा या मुझे डर रहता था कि मैं मरने वाली हूँ। मैं सोचती थी कि परमेश्वर ने मुझे बेनकाब करने और दंडित करने के लिए ये परिस्थितियाँ बनाई हैं। मैं सिर्फ अपने हितों पर विचार करती थी और मैंने परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कुछ भी नहीं किया था। मेरा आध्यात्मिक कद दयनीय रूप से छोटा था और मैं किसी भी कठिनाई का सामना नहीं कर पाती थी। भले ही अभी मेरे शरीर में काफी कमजोरी थी और मैं जो कर्तव्य कर सकती थी, वे काफी सीमित थे, मैं सत्य का अनुसरण करने का अपना संकल्प नहीं खो सकती थी। मैंने चाहे खुद को जिन भी परिस्थितियों में पाया हो, मैं एक सृजित प्राणी थी और परमेश्वर को प्रेम करना और जानना ही वह लक्ष्य था, जिसे मुझे इस जीवन में अपनाना चाहिए था। अगर मैं इस धरती पर जीवित थी तो मुझे सत्य का अनुसरण करना था और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना था।
एक दिन सुबह से ही मेरे शरीर में कमजोरी महसूस होने लगी। मेरे दिल में पहले से भी ज्यादा दर्द उठने लगा और अब यह लंबे समय तक होने लगा। मैंने लगभग पूरा दिन बिस्तर पर लेटे-लेटे बिताया। जब शाम हुई तो यह और भी गंभीर हो गया और साँस लेना मुश्किल हो गया। मेरे साथ रहने वाली बहन ने एम्बुलेंस बुलाई और मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे नहीं लगता कि मैं ज्यादा समय तक जीवित रह पाऊँगी। क्या तुमने पहले से निर्धारित कर दिया है कि मैं इस उम्र से ज्यादा नहीं जियूँगी? क्या मैं मरने वाली हूँ?” ठीक तभी परमेश्वर के वचनों का एक वाक्य स्पष्टता से मेरे दिमाग में आया : “जब तक तुम्हारी एक भी सांस बाकी है, परमेश्वर तुम्हें मरने नहीं देगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6)। रोशनी की किरण की तरह परमेश्वर के वचनों ने मेरा हृदय रोशन कर दिया। मैं साँस ले पाऊँगी या नहीं, यह परमेश्वर के हाथों में था। अगर वह मुझे मरने नहीं देगा तो मैं नहीं मरूँगी। मैंने पतरस के अनुभवों के बारे में सोचा, जिसके बारे में मैंने इस दौरान अक्सर पढ़ा था। मृत्यु का सामना करते हुए भी पतरस परमेश्वर से प्रार्थना कर रहा था, कह रहा था कि वह उससे पर्याप्त प्रेम नहीं कर पाया। पतरस के अनुभव ने मुझे प्रेरित किया और मैंने मन ही मन परमेश्वर से अपने हृदय में प्रार्थना की, “परमेश्वर, चाहे मैं मरूँ या न मरूँ, मुझे भरोसा है कि सब कुछ तुम्हारे हाथों में है। अगर तुमने पहले से तय कर रखा है कि मैं सिर्फ इस उम्र तक ही जीवित रहूँगी तो मुझे कोई शिकायत नहीं है। भले ही मैं पतरस की बराबरी न कर पाऊँ, लेकिन मैं उससे सीखने और तुम्हारे सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार हूँ। एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे यही करना चाहिए। परमेश्वर, मैं तुम्हें अपना धन्यवाद और स्तुति अर्पित करने के लिए तैयार हूँ।” बाद में जब एम्बुलेंस ने मुझे अस्पताल पहुँचाया और डॉक्टर ने विभिन्न जाँच कीं तो मुझे बहुत सुकून मिला। चेकअप के बाद भी डॉक्टर निश्चित नहीं थे कि मुझे किस तरह की बीमारी थी तो आगे इलाज करने का कोई मतलब नहीं था। डॉक्टर ने मुझे ठीक होने के लिए घर भेज दिया। मुझे और भी दृढ़ विश्वास हो गया कि मेरा जीवन परमेश्वर के हाथों में है और डॉक्टर यह तय नहीं कर सकता कि मैं जियूँगी या मर जाऊँगी। अगर मुझे मरना ही था तो डॉक्टर के पास मुझे बचाने का कोई तरीका नहीं था और अगर मुझे नहीं मरना था तो ऐसा नहीं होगा। जब मैं घर पहुँची तो मैं अभी भी बहुत कमजोर थी और सो गई। जागने पर मैंने अनजाने में अपने हाथों से मुट्ठी भींच ली। अप्रत्याशित रूप से मेरे हाथों पहले के मुकाबले ज्यादा मजबूती महसूस हुई। मैंने अपनी चप्पल पहनी और बिस्तर से बाहर निकली, मुझे एहसास हुआ कि किसी तरह मैं बिना किसी सहारे के सामान्य रूप से चल सकती हूँ। मुझे यकीन नहीं हो रहा था; क्या मैं वाकई ऐसे ही ठीक हो गई थी? उसके बाद एक हफ्ते तक मुझे किसी कमजोरी के लक्षण और ताकत की कमी महसूस नहीं हुई और बाद में मैं अपना कर्तव्य सामान्य रूप से करने लगी। अब एक साल बीत चुका है। मेरा शरीर धीरे-धीरे ठीक हो रहा है और मैं अपना कर्तव्य सामान्य रूप से करने में सक्षम हूँ।
इस अनुभव के बाद मैं वाकई प्रत्यक्ष समझ गई कि परमेश्वर के परीक्षण और शोधन मनुष्य को शुद्ध करने और बचाने के लिए हैं। भले ही इस बीमारी के दौरान मुझे थोड़ी तकलीफ हुई, लेकिन मुझे जो लाभ मिला वह उस दर्द से कहीं ज्यादा था जो मैंने महसूस किया था। यह ऐसी चीज है जिसे मैं किसी भी चीज से नहीं बदलना चाहूँगी। इसने मेरे जीवन में समृद्धि ला दी है।