73. मैं कठिनाइयों से पीछे क्यों हटती रही?

बर्था, म्याँमार

मई 2022 में मुझे कलीसिया अगुआ के रूप में चुना गया। मैं परमेश्वर के अनुग्रह और मुझे ऊँचा उठाने के लिए बहुत आभारी थी, मुझे लगा कि मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना है। शुरू में मैं अपने कर्तव्य में बहुत सक्रिय थी, जब भी मुझे कोई चीज समझ नहीं आती तो मैं उच्च अगुआ से बात करने की कोशिश करती और समझ हासिल करने के बाद मैं संगति करती और समस्या का समाधान कर लेती थी। बाद में जैसे-जैसे कोविड-19 लॉकडाउन में ढील दी जाने लगी, बहुत से नवागत कार्य करने लगे, लेकिन वे सभा नहीं कर पा रहे थे या अपने कर्तव्यों का पालन सामान्य रूप से नहीं कर पा रहे थे। इस स्थिति का सामना करते हुए मैं कुछ असमंजस में थी और मन ही मन सोच रही थी, “अगुआ होने के नाते मुझे भाई-बहनों का समर्थन और मदद करनी चाहिए, उनकी समस्याओं और कठिनाइयों का समाधान करना चाहिए।” फिर मैंने एक-एक कर भाई-बहनों के साथ संगति की, लेकिन इससे मुझे कोई नतीजे नहीं मिले, इसलिए मैं आगे उनकी सहायता करने नहीं जाना चाहती थी। मुझे लगा कि चूँकि मुझे कार्य पर जाना है और सुसमाचार का प्रचार करना है, अगर मुझे उन भाई-बहनों की सहायता भी करनी पड़ी जो नियमित रूप से सभाओं में नहीं आते तो मेरे पास आराम करने का भी समय नहीं होगा। मैं बहुत थका हुआ महसूस कर रही थी, यहाँ तक कि कलीसिया अगुआ का पद भी छोड़ देना चाहती थी। मैं एक नकारात्मक दशा में जी रही थी, सोच रही थी कि मेरी काबिलियत अच्छी नहीं है, मैं समस्याओं का समाधान नहीं कर पाती और मुझमें कोई कार्यक्षमता भी नहीं है। इसलिए मैं बस चाहती थी कि उच्च अगुआ मेरा कर्तव्य बदल दें।

बाद में मैंने अपने विचार उच्च अगुआ के साथ साझा किए, मेरे विचार सुनकर उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा : “इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है सभी मामलों में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना—यह सबसे महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपने मस्तिष्क के कोने में धकेल देते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्ति है? तुम कहते हो, ‘भले ही मेरी योग्यता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।’ फिर भी, जब तुम्हें कोई कर्तव्य मिलता है, तो तुम इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं किया तो तुम्हें पीड़ा सहनी और इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, इसलिए तुम अपने कर्तव्य से बचने के लिए बहाने बनाते हो या फिर सुझाते हो कि इसे कोई और करे। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्ति है? स्पष्ट रूप से, नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति समर्पित होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है : एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिए साजिश न करना। ये ईमानदारी की अभिव्यक्तियाँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यक्तियाँ होनी चाहिए। अगर तुम जानते और समझते हो कि क्या करना है, लेकिन तुम इसे करते नहीं हो, तो तुम अपने कर्तव्य में अपना पूरा दिल और अपनी सारी शक्ति नहीं लगा रहे हो। बल्कि तुम धूर्त और काहिल हो। क्या इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने वाले लोग ईमानदार होते हैं? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर के पास ऐसे धूर्त और धोखेबाज लोगों का कोई उपयोग नहीं है; उन्हें निकाल देना चाहिए। परमेश्वर कर्तव्य निभाने के लिए सिर्फ ईमानदार लोगों का उपयोग करता है। यहाँ तक कि निष्ठावान मजदूर भी ईमानदार होने चाहिए। जो लोग हमेशा अनमने और धूर्त होते हैं और ढिलाई के तरीके तलाशते रहते हैं—वे सभी लोग धोखेबाज हैं, वे सभी राक्षस हैं। उनमें से कोई भी वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता और वे सभी निकाल दिए जाएँगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन बताते हैं कि ईमानदार लोग सभी मामलों में सत्य खोजते हैं और अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होते हैं। वे अपना कर्तव्य निभाने में अपना पूरा मन और शक्ति लगा देते हैं और ऐसे लोग होते हैं जिन पर दूसरे लोग कार्य करने के लिए भरोसा कर सकते हैं। जब कोई कपटी व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाते हुए ऐसे मामलों का सामना करता है जिनमें उसके निजी हित शामिल होते हैं या जिनमें कष्ट और परिश्रम की आवश्यकता होती है तो वह जिम्मेदारी से बचने के बहाने ढूँढ़ने लगता है। अगर वह अपना कर्तव्य निभाता भी है तो पूरा प्रयास नहीं करता और अपनी थोड़ी-बहुत ऊर्जा ही इस्तेमाल करता है। यह धूर्तता करना और ढीला पड़ना है। मैंने इसकी तुलना अपने व्यवहार से की। जब मैंने देखा कि नवागत नियमित रूप से सभाओं में नहीं आ रहे हैं, उनकी मदद करने और उनके साथ संगति करने की कोशिशों के बावजूद मुझे कोई नतीजे नहीं मिले हैं तो उन्हें सहारा देने और अधिक मानसिक प्रयास करने में मैं और ज्यादा समय नहीं लगाना चाहती थी। मैंने तो यहाँ तक कह दिया कि ऐसा इसलिए है क्योंकि उनकी कठिनाइयों को हल करने के लिए मेरी काबिलियत पर्याप्त नहीं है, मुझमें कार्यक्षमता की कमी है और मैं चाहती हूँ कि उच्च अगुआ मुझे कोई दूसरा कर्तव्य सौंप दे। असल में मुश्किलों से बचने की अपनी मंशा छिपाने के लिए मैं बहाने बना रही थी, अपने दैहिक सुखों में लिप्त रहने की खातिर जिम्मेदारी लेने से बच रही थी। एक अगुआ के तौर पर मुझे भाई-बहनों को सींचने और उनका साथ देने की अपनी जिम्मेदारी अच्छे से पूरी करनी चाहिए थी। लेकिन मैं तो कोई कष्ट उठाना या कीमत चुकाना ही नहीं चाहती थी। मैं तो हमेशा अपने दैहिक हितों की ही सोचती रहती थी और आराम में लिप्त रहती थी। इस तरह अपना कर्तव्य निभाकर मैं बस लापरवाही और धूर्तता कर रही थी, ढिलाई करने के तरीके ढूँढ रही थी। मैं एक स्वार्थी, घृणित और कपटी स्वभाव प्रकट कर रही थी। इन बातों का एहसास होने पर मुझे थोड़ी-बहुत ग्लानि हुई। मैंने नवागतों की सहायता करने में अपना दिल नहीं लगाया था, बल्कि ढिलाई और लापरवाही बरती थी। ऐसी बातों से परमेश्वर घृणा करता है। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, हाल ही में बहुत से नवागत आए हैं जो नियमित रूप से सभाओं में नहीं आ रहे हैं और सुसमाचार प्रचारक भी काफी कम हैं। हालाँकि मैंने उनके साथ संगति की है, लेकिन चूँकि मैं दैहिक कष्टों से डरती हूँ और कोई कीमत नहीं चुकाना चाहती, इसलिए मैंने उनकी वास्तविक कठिनाइयों को दूर करने की पूरी कोशिश नहीं की है। मैं अपने कर्तव्य के प्रति लापरवाही भरा रवैया बदलने को तैयार हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो।” उसके बाद एक-एक करके मैंने उन भाई-बहनों की सहायता करनी शुरू कर दी जो नियमित रूप से सभाओं में नहीं आ रहे थे। उनकी कुछ ऐसी दशाओं और कठिनाइयों के बारे में जिनका समाधान मुझे नहीं आता था, मैंने अपने साथी के साथ उन पर चर्चा की और नवागतों के साथ संगति करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचन खोजे। कुछ समय तक ऐसा करने पर कुछ नवागत नियमित रूप से सभाओं में आने लगे और कुछ कर्तव्य भी निभाने में सक्षम हो पाए। एक नवागत सुसमाचार प्रचार में बहुत सक्रिय था, इसलिए मैंने उसे सुसमाचार प्रचार करने के लिए अपने साथ जोड़ लिया। धीरे-धीरे सभी लोग सुसमाचार प्रचार में ज्यादा सक्रिय हो गए और अब मुझे चीजें उतनी मुश्किल नहीं लग रही थीं। मुझे एहसास हुआ कि अगर मैं पूरा प्रयास अपने कर्तव्य में लगाऊँ तो परमेश्वर भी मेरा मार्गदर्शन करेगा। इस तरह अभ्यास करने से मुझे अब थकान महसूस नहीं होती थी और दिल में सुकून था। शुरू में मुझे लगता था कि चूँकि मैंने इस मामले को अनुभव कर लिया है, मुझे दैहिक सुखों में लिप्त रहने के अपने भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ हो गई है और मैं थोड़ी-बहुत बदल गई हूँ, लेकिन जब वास्तविक परिस्थितियाँ मेरे सामने आईं तो मैंने इस संबंध में फिर भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया।

एक बार अगुआ चाहती थी कि मैं प्रचारक बनने का प्रशिक्षण लूँ और मुख्य रूप से कई कलीसियाओं के सुसमाचार कार्य की प्रभारी बनूँ। जब मैंने यह सुना तो मेरे मन में मिली-जुली भावनाएँ उठीं। मुझे लगा चूँकि मेरा कार्य-समय अनियमित होगा और मुझे कभी भी शिफ्ट में बुलाया जा सकता है और चूँकि प्रचारक होने का कार्यभार ज्यादा होगा, इसलिए मेरे पास खाली समय कम बचेगा। खासकर सुसमाचार प्रचार करने और परमेश्वर की गवाही देने के मामले में मुझमें बहुत सारी कमियाँ थीं। मुझे अभी और अध्ययन और प्रशिक्षण की जरूरत थी और इसमें मेरा बहुत समय चला जाएगा। इन सब बातों को सोचकर मैं इस जिम्मेदारी से बचना चाहती थी। मैंने मुखर होकर अपने विचार व्यक्त किए, मेरे सरोकार सुनकर अगुआ ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर सुनाया : “तुम लोगों को यह समझना ही होगा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर कब या किस चरण में अपना काम कर रहा है, उसे हमेशा अपने साथ काम करने के लिए कुछ लोगों की जरूरत पड़ती है। इन लोगों का परमेश्वर के कार्य में सहयोग करना या सुसमाचार फैलाने में अपनी भूमिका निभाना उसके द्वारा पूर्वनियत है। तो क्या परमेश्वर के पास उस हर एक इंसान के लिए एक आदेश है जिसे उसने पूर्वनियत किया है? हर किसी का एक मिशन और एक जिम्मेदारी होती है और हर किसी के लिए एक आदेश होता है। जब परमेश्वर तुम्हें एक आदेश देता है तो यह तुम्हारी जिम्मेदारी बन जाती है। तुम्हें यह जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेने की जरूरत है, यह तुम्हारा कर्तव्य है। कर्तव्य क्या है? यह वह मिशन है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। मिशन क्या है? (परमेश्वर का आदेश इंसान का मिशन है। हर किसी को अपना जीवन परमेश्वर के आदेश को पूरा करने के लिए जीना चाहिए। यह आदेश ही उसके दिल में एकमात्र चीज होनी चाहिए और उसे किसी और चीज के लिए नहीं जीना चाहिए।) परमेश्वर का आदेश इंसान का मिशन है; यह समझ सही है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें परमेश्वर के आदेश को पूरा करने के लिए दुनिया में लाया गया है। अगर तुम इस जीवन में सिर्फ सामाजिक सीढ़ी चढ़ने, पैसा इकट्ठा करने, एक अच्छा जीवन जीने, परिवार के करीब रहने का मजा लेने और प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे का मजा लेने के पीछे भागते हो—अगर तुम सामाजिक रुतबा हासिल कर लेते हो, तुम्हारा परिवार प्रतिष्ठित हो जाता है और तुम्हारे परिवार में हर कोई सुरक्षित और स्वस्थ है—लेकिन तुम उस मिशन को अनदेखा कर देते हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है, क्या इस जीवन का कोई मूल्य है जिसे तुम जी रहे हो? मरने के बाद तुम परमेश्वर को कैसे जवाब दोगे? तुम जवाब नहीं दे पाओगे और यह सबसे बड़ा विद्रोह है; यह सबसे बड़ा पाप है! परमेश्वर के घर में तुममें ऐसा कौन है जो इस समय संयोग से अपना कर्तव्य निभा रहा है? तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए चाहे जिस भी पृष्ठभूमि से आए, इसमें कुछ भी संयोग से नहीं हुआ है। इस कर्तव्य को बिना सोचे समझे सिर्फ कुछ विश्वासियों को खोज लेने से नहीं निभाया जा सकता; यह परमेश्वर ने युगों पहले से पूर्वनियत कर रखा था। किसी चीज के पूर्वनियत होने का क्या मतलब है? विशेष रूप से क्या? इसका मतलब यह है कि अपनी पूरी प्रबंधन योजना में, परमेश्वर ने बहुत पहले ही योजना बना ली थी कि तुम धरती पर कितनी बार आओगे, अंत के दिनों के दौरान तुम किस वंश और किस परिवार में पैदा होगे, इस परिवार की परिस्थितियाँ क्या होंगी, तुम मर्द होगे या औरत, तुम्हारी खूबियाँ क्या होंगी, तुम्हारी शिक्षा किस स्तर की होगी, तुम कितना साफ-साफ बोलने वाले होगे, तुम्हारी काबिलियत कितनी होगी और तुम कैसे दिखोगे। उसी ने यह तय किया कि तुम किस उम्र में परमेश्वर के घर में आकर अपना कर्तव्य निभाना शुरू करोगे और कब कौन-सा कर्तव्य निभाओगे। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए हर कदम पहले से पूर्वनियत कर दिया था। जब तुम पैदा भी नहीं हुए थे और जब तुम अपने पिछले कई जीवनों में धरती पर आए थे तो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए पहले से ही व्यवस्था की थी कि कार्य के इस आखिरी चरण में तुम क्या कर्तव्य निभाओगे। यह बिल्कुल भी कोई मजाक नहीं है! सच्चाई यह है कि तुम्हें यहाँ धर्मोपदेश सुनने का मौका मिल रहा है, यह भी परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित था। इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए! इसके अलावा, तुम्हारा कद, तुम्हारा हुलिया, तुम्हारी आँखें कैसी दिखती हैं, तुम्हारी कद-काठी, तुम्हारी सेहत, तुम्हारे जीवन के अनुभव क्या हैं और तुम किसी खास उम्र में कौन-से कर्तव्य अपने कंधों पर ले सकते हो और तुम्हारे पास किस तरह के गुण और काबिलियत हैं—ये बहुत पहले परमेश्वर ने तुम्हारे लिए निर्धारित किए थे और बेशक ये अब व्यवस्थित नहीं किए जा रहे। परमेश्वर ने लंबे समय से उन्हें तुम्हारे लिए निर्धारित किया हुआ है जिसका मतलब यह है कि अगर वह तुम्हारा उपयोग करने का इरादा रखता है तो वह तुम्हें यह आदेश और यह मिशन देने से पहले ही तुम्हें तैयार कर चुका होगा। तो क्या तुम्हारा उससे भागना स्वीकार्य है? क्या इसके बारे में तुम्हारा अधूरे मन से रहना स्वीकार्य है? दोनों ही स्वीकार्य नहीं हैं; यह परमेश्वर को निराश करने वाली बात होगी! लोगों द्वारा अपना कर्तव्य छोड़ना सबसे खराब प्रकार का विद्रोह है। यह एक घिनौना काम है। परमेश्वर ने श्रमसाध्य विचार किया है, तुम्हारे लिए आज तक पहुँचने और तुम्हें यह मिशन सौंपे जाने के लिए अनादि काल से इसे पूर्वनिर्धारित किया है। तो क्या यह मिशन तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है? क्या यह वह नहीं है जो तुम्हारी जिंदगी को मूल्यवान बनाता है? अगर तुम उस मिशन को पूरा नहीं करते हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है तो तुम अपनी जिंदगी का मोल और मतलब खो देते हो; यह ऐसा है जैसे कि तुम बेकार में ही जिए जा रहे हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि कोई व्यक्ति किसी समय विशेष में कोई भी कर्तव्य करे, वह सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित होता है और मुझे इसे स्वीकार करना चाहिए क्योंकि यह एक मनुष्य का दायित्व है। लेकिन अपने कर्तव्य का सामना करने पर मैंने उससे बचने की कोशिश की क्योंकि मुझे दैहिक कष्ट का डर था। इस तरह मैं अपने कर्तव्य को अस्वीकार रही थी और यह मेरी ओर से पूरी तरह विद्रोह था! परमेश्वर लोगों को वह करने के लिए मजबूर नहीं करता जो उनके लिए कठिन हो, न ही वह लोगों को वह करने पर विवश करता है जो उनकी क्षमताओं से परे हो। जब मैंने पहली बार सुसमाचार का प्रचार करना शुरू किया तो कमियाँ और अपर्याप्तताएँ होना सामान्य बात थी और अगर प्रशिक्षण के दौरान मुझे कुछ समझ नहीं आता था तो मैं पूछ सकती थी। अगर मैं अपनी जिम्मेदारियों को ईमानदारी से पूरा करती तो परमेश्वर संतुष्ट होता। मैंने विचार किया कि मैं पहले अपने कर्तव्यों में कितनी लापरवाही बरतती थी और इसने मेरे अंदर अपराधबोध की भावनाएँ पैदा कर दी थीं। और अब मुझे प्रचारक बनने का अवसर मिला था; यह बिल्कुल अप्रत्याशित था। मैं वास्तव में खुद को अयोग्य महसूस कर रही थी। अब मैं अपने कर्तव्य से और नहीं बच सकती थी। मुझे अपने दैहिक हितों को त्यागकर परमेश्वर के इरादे के प्रति विचारशील होना होगा।

बाद में एक बहन ने मुझे बताया कि वह अपने कर्तव्य से लगातार बचना चाहती थी, उसने इस पर आगे न तो विचार किया और न ही इसे आगे समझा। मैंने विचार किया कि मैं भी ऐसी ही दशा में थी। जब भी मुझे किसी कठिन कर्तव्य का सामना करना पड़ता था तो मेरे दिल में सबसे पहले यही चीज प्रकट होती थी कि मैं उससे बचूँ और अपनी देह को कष्ट न दूँ। मेरे अंदर ऐसी अभिव्यक्तियाँ क्यों थीं? अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। उस प्रकृति में विशिष्ट रूप से क्या शामिल होता है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीजों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकार कर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट मानवजाति ने शैतान के इस जहर के अनुसार जीवन जीया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। “मनुष्य की देह साँप के समान है : इसका सार अपने जीवन को हानि पहुँचाना है—और जब पूरी तरह से उसकी मनमानी चलने लगती है तो तुम जीवन पर से अपना अधिकार खो बैठते हो। देह शैतान की है। इसके भीतर हमेशा असंयमित इच्छाएँ होती हैं; यह हमेशा अपने लिए सोचती है, यह हमेशा सुविधा की कामना करती है और आराम भोगना चाहती है, इसमें चिंता का या तात्कालिकता की भावना का अभाव होता है, यह आलस्य में धँसी रहती है और अगर तुम इसे एक निश्चित बिंदु तक संतुष्ट करते हो तो यह अंततः तुम्हें निगल जाएगी। कहने का अर्थ है कि यदि तुम इसे इस बार संतुष्ट करोगे तो अगली बार यह फिर खुद को संतुष्ट करने की माँग करेगी। इसकी हमेशा असंयमित इच्छाएँ और नई माँगें रहती हैं और अपने आपको और अधिक पोषित करवाने और अपने सुख के बीच रहने के लिए तुम्हारे द्वारा अपने को दिए गए बढ़ावे का फायदा उठाती है—और यदि तुम इस पर कभी जीत नहीं हासिल करोगे तो तुम अंततः स्वयं को बरबाद कर लोगे। तुम परमेश्वर के सामने जीवन हासिल कर सकते हो या नहीं और तुम्हारा अंतिम परिणाम क्या होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम देह के प्रति अपने विद्रोह का अभ्यास कैसे करते हो। परमेश्वर ने तुम्हें बचाया है और तुम्हें चुना और पूर्वनिर्धारित किया है, फिर भी यदि आज तुम उसे संतुष्ट करने के अनिच्छुक हो, तुम सत्य को अभ्यास में लाने के अनिच्छुक हो, तुम अपनी देह के विरुद्ध एक सच्चे परमेश्वर-प्रेमी हृदय के साथ विद्रोह करने के अनिच्छुक हो तो अंततः तुम अपने आप को बरबाद कर लोगे और इस प्रकार चरम पीड़ा सहोगे। यदि तुम हमेशा अपनी देह को खुश करते हो तो शैतान तुम्हें धीरे-धीरे निगल लेगा और तुम्हें जीवन से या आत्मा के स्पर्श से रहित छोड़ देगा, तब तक जब तक कि वह दिन नहीं आ जाता जब तुम भीतर से पूरी तरह अंधकारमय नहीं हो जाते। जब तुम अंधकार में जिओगे तो तुम्हें शैतान के द्वारा बंदी बना लिया जाएगा, तुम्हारे हृदय में अब परमेश्वर नहीं होगा और उस समय तुम परमेश्वर के अस्तित्व को नकार दोगे और उसे छोड़ दोगे(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। परमेश्वर के वचन उजागर करते हैं कि शैतान के जहर में जीने से लोग स्वार्थी हो जाते हैं, चाहे वे कुछ भी करें वे अपने हितों को पहले ध्यान में रखते हैं जिससे वे उन कर्तव्यों से कतराते हैं जो उनकी देह को कष्ट पहुँचाते हैं या बोझ बन जाते हैं। मैं “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना” जैसे शैतानी जहर के अनुसार जी रही थी। जब भी मामले आते तो मैं पहले अपने दैहिक हितों को संतुष्ट करने की कोशिश करती, मुझे यह भी लगता कि ये विचार सही हैं और इनका पालन करके मैं दूसरों से ज्यादा समझदार बन गई हूँ। इसलिए जब भी अपने कर्तव्यों से मेरा सामना होता, मैं सबसे पहले यही सोचती कि कहीं मेरी देह को कष्ट तो नहीं होगा और अगर मेरी देह को कष्ट होता या उस पर बोझ पड़ता तो मैं उनसे कतराती या उन्हें पूरा करने में लापरवाही बरतती। जब नवागत असामान्य दशा में होते और सहारे के लिए उन्हें परमेश्वर के वचनों की संगति की जरूरत होती तो मैं यह सोचने के लिए कोई कीमत नहीं चुकाना चाहती थी कि इस समस्या को कैसे हल करना है और नतीजतन मेरी संगति का कोई असर न होता था और सही समय पर कुछ नवागतों को समय पर सहायता न मिल पाती थी। जब अगुआ ने मुझे एक प्रचारक का दायित्व सौंपने की व्यवस्था की तो मैंने सोचा कि एक प्रचारक के रूप में कार्यभार ज्यादा बढ़ जाएगा, इसमें और ज्यादा समय और मेहनत लगेगी और मैं दैहिक सुख प्राप्त नहीं कर पाऊँगी, इसलिए एक बार फिर मैंने अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ने की सोची। मैंने देखा कि मैं इन शैतानी जहर के सहारे जी रही हूँ, अपनी देह को बहुत ज्यादा संजो रही हूँ, यथास्थिति से संतुष्ट हो रही हूँ, प्रगति के लिए प्रयास नहीं कर रही हूँ, स्वार्थी और धोखेबाज बनती जा रही हूँ। एक सामान्य मानवता के व्यक्ति को ऐसे नहीं जीना चाहिए। मैं आराम में डूबी हुई थी और जो कर सकती थी वह नहीं कर रही थी और नतीजतन कलीसिया के कार्य में विलंब हो रहा था। परमेश्वर मेरे जैसे लोगों से घृणा करता है। इसलिए मैं अपने कर्तव्यों के प्रति अपना रवैया बदलना चाहती थी और अब और देह-सुख की लालसा नहीं करना चाहती थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं अब अपनी देह को संतुष्ट नहीं करना चाहती। मैं अपनी दशा बदलने और अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए तैयार हूँ।”

बाद में वा भाषियों की एक कलीसिया थी जिसे एक पर्यवेक्षक की जरूरत थी, एक बहन ने सुझाव दिया कि मैं इस कलीसिया के कार्य का जायजा लूँ। जब मैंने पहली बार यह सुझाव सुना तो मैं इससे बचना चाहती थी, क्योंकि वा भाषी कलीसिया की जिम्मेदारी लेने के लिए बहुत समय और दैहिक कष्ट की आवश्यकता होती, हालाँकि मैं वा जातीय समूह से हूँ लेकिन मैं यह भाषा नहीं बोल पाती और केवल रोजमर्रा की बुनियादी बातें ही समझ पाती हूँ। अगर मैं पर्यवेक्षक बन गई तो बहुत सारी कठिनाइयाँ आएँगी और मैं भाषा सीखने के लिए मेहनत नहीं करना चाहती थी, इसलिए एक बार फिर मैंने अपने कर्तव्य से बचने की सोची। अपनी गलत दशा का एहसास होने पर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं तुम्हारा इरादा समझ सकूँ और इस कर्तव्य को स्वीकारने के लिए अपनी देह के खिलाफ विद्रोह कर सकूँ।” बाद में एक बहन ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा : “परमेश्वर के इरादों के प्रति तुम जितने अधिक विचारशील रहोगे, तुम्हारा बोझ उतना अधिक होगा और तुम जितना ज्यादा बोझ वहन करोगे, तुम्हारा अनुभव भी उतना ही ज्यादा समृद्ध होगा। जब तुम परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहोगे, तो परमेश्वर तुम पर एक बोझ डाल देगा, और उसने तुम्हें जो काम सौंपें हैं, उनके बारे में वह तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। जब परमेश्वर द्वारा तुम्हें यह बोझ दिया जाएगा, तो तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते समय संबंधित सत्य पर ध्यान दोगे। यदि तुम्हारे ऊपर भाई-बहनों के जीवन की मनोदशा से जुड़ा कोई बोझ है तो यह बोझ है जो परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया है, और तुम प्रतिदिन की प्रार्थना में इस बोझ को हमेशा अपने साथ रखोगे। परमेश्वर जो करता है वही तुम पर डाल दिया गया है, और तुम वो करने के लिए तैयार हो जिसे परमेश्वर करना चाहता है; परमेश्वर के बोझ को अपना बोझ समझने का यही अर्थ है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहो)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि हम जितना ज्यादा अपने कर्तव्यों में परमेश्वर के इरादों पर विचार करते हैं, वह उतना ही ज्यादा बोझ हम पर डालता है। और हम अपने भाई-बहनों की दशा के प्रति एक दायित्व-बोध विकसित करते हैं और इस तरह हम धीरे-धीरे अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित होते जाते हैं। अपने सामने आने वाली विभिन्न समस्याओं में सत्य खोजने पर हम अपने जीवन में तेजी से आगे बढ़ते हैं। इस बात को ध्यान में रखकर मैंने वा भाषियों की कलीसिया की देखरेख करने के लिए बहन के प्रस्ताव को स्वीकार लिया। शुरू में जब मैंने यह कार्य करना शुरू किया तो मुझे यह मुश्किल लगा, लेकिन कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ सहयोग करने से मुझे अपने कर्तव्य कम मुश्किल लगने लगे। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी। इस तरह से अपने कर्तव्यों का पालन करने से मुझे ज्यादा सुकून मिला।

इन अनुभवों से गुजरकर मुझे एहसास हुआ कि दैहिक सुखों में लिप्त रहने से मैं अपने कर्तव्यों के प्रति दायित्व-बोध खो बैठती हूँ और उन कठिन कर्तव्यों से बचती हूँ जिनमें कष्ट उठाना अपेक्षित होता है। अगर मैं दैहिक सुखों में ही लिप्त रही और अपनी देह के खिलाफ विद्रोह न किया तो आखिरकार मैं अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाऊँगी और खुद को बर्बाद कर लूँगी। जब मैंने दैहिक हितों को त्याग दिया, अपने कर्तव्यों को स्वीकार लिया और मैं समस्याओं के समाधान के लिए सत्य खोजने में सक्षम हो गई तो इस तरह अभ्यास करने से मुझे अधिक सहजता महसूस हुई और मैं अधिक तेजी से प्रगति करने लगी।

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21. अफ़वाहों के फन्‍दे से आज़ादी

शिआओयुन, चीनमैं सेना की एक स्‍त्री अधिकार हुआ करती थी! 1999 में एक दिन एक पादरी ने मुझे प्रभु यीशु के सुसमाचार का उपदेश दिया। मेरे संजीदा...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 9) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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