95. अपने बेटे की गिरफ्तारी से मैंने जो सबक सीखे
दिसंबर 2013 में एक दिन एक बहन ने मुझे फोन कर बताया कि मेरे बेटे को पुलिस ले गई है। यह खबर सुनकर मैं स्तब्ध रह गया और सोचने लगा, “मेरे बेटे ने बहुत समय से परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा है और उसमें आधार की भी कमी है। उसने अभी-अभी अपनी नौकरी छोड़कर अपना कर्तव्य निभाना शुरू किया था। उसे अभी कैसे गिरफ्तार किया जा सकता है?” जब मुझे पहले गिरफ्तार किया गया था तो पुलिस ने मुझे कलीसिया के अगुआओं और पैसों का पता-ठिकाना बताने को मजबूर करने के लिए हर तरह की यातनाएँ इस हद तक कि दी थीं कि मुझे लगा मेरे लिए मर जाना ही बेहतर होगा। उनमें से हर पुलिस अधिकारी क्रूर और निर्दयी है; वे दानव हैं। उन्हें हम परमेश्वर के विश्वासियों से गहरी नफरत है; वे हमें पीटकर मार भी डालें तो सजा नहीं होगी। मैं यह सोचकर चिंतित हो गया, “मेरा बेटा अभी छोटा है और उसने कभी इस तरह की पीड़ा नहीं झेली है! अगर वह यातना सहन नहीं कर पाया और यहूदा बन गया तो उसे बचाए जाने की संभावना पूरी तरह से खत्म हो जाएगी!” यह सोचकर मैं बुरी तरह चिंतित हो गया। अगले कुछ दिनों तक मैं न तो खा पाया और न ही ठीक से सो पाया। मानो मेरे दिल में कोई चाकू घोंप रहा हो; मैंने सोचा काश अपने बेटे की जगह मैं तकलीफ सह पाता। मैं लगातार परमेश्वर से प्रार्थना करता रहा, उससे अपने बेटे की देखभाल और सुरक्षा करने की विनती करता रहा। मेरे दिल में शिकायतें भी थीं और सोच रहा था, “मेरा बेटा थोड़े समय के लिए परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर से चला गया; परमेश्वर ने उसकी देखभाल और सुरक्षा क्यों नहीं की? अगर पुलिस ने उसे बुरी तरह घायल कर दिया तो वह भविष्य में कैसे गुजर-बसर करेगा? और अगर वे उसे पीट-पीटकर मार डालेंगे तो मैं उसे फिर कभी नहीं देख पाऊँगा।” मैं जितना ज्यादा इस बारे में सोचता, उतना ही ज्यादा परेशान होता और मेरा दिल अंधेरे में डूब जाता। परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के बावजूद मैं खुद को शांत नहीं कर पा रहा था और अंदर ही अंदर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को भी दोषी ठहरा रहा था कि उन्होंने परिवेश को सुरक्षित बनाए रखने के लिए किसी को प्रभारी नहीं बनाया जिसकी वजह से मेरा बेटा गिरफ्तार हो गया। उस समय मैं कलीसिया में सुसमाचार उपयाजक था और काफी व्यस्त रहता था, लेकिन कार्य पर ध्यान देने की मानसिकता में नहीं था; मैं बस अपने बेटे के बारे में ही सोचता रहता था।
दर्द और लाचारी के बीच मैंने लगातार परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरे बेटे की देखभाल और रक्षा करे ताकि वह यहूदा बनकर भाई-बहनों को धोखा न दे दे। प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “तुम्हारे साथ घटित होने वाली हर चीज में, चाहे वह अच्छी हो या बुरी, तुम्हें वह लाभ ही पहुँचाए और तुम्हें नकारात्मक न बनाए। इस बात पर ध्यान दिए बिना, तुम्हें चीजों पर परमेश्वर के पक्ष में खड़े होकर विचार करने में सक्षम होना चाहिए और मानवीय दृष्टिकोण से उनका विश्लेषण या अध्ययन नहीं करना चाहिए (यह तुम्हारे अनुभव में भटकना होगा)” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्ण बनाए जा चुके लोगों से प्रतिज्ञाएँ)। हाँ, हमारे साथ हर दिन जो कुछ भी होता है, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, वह सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित होता है और सभी में परमेश्वर के इरादे निहित होते हैं। जब मेरे बेटे की गिरफ्तारी की बात आई तो मैं इसे दैहिक परिप्रेक्ष्य से देख रहा था और नहीं चाहता था कि उसे कष्ट पहुँचे। इसलिए मुझे लगा कि उसकी गिरफ्तारी एक बुरी बात है और मैंने परमेश्वर से उसकी रक्षा न करने के लिए शिकायत भी की। मैंने अय्यूब के अनुभव के बारे में सोचा : जब अय्यूब अपनी धन-संपत्ति गँवा बैठा और उसके बच्चों पर विपत्ति आई और उसका शरीर भयंकर फोड़ों से भर गया तो उसकी पत्नी ने उसका उपहास किया और चाहा कि वह परमेश्वर को त्याग दे, लेकिन अय्यूब ने अपनी पत्नी को डाँटते हुए कहा, “तू तू एक मूढ़ स्त्री की सी बातें करती है, क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” (अय्यूब 2:10)। अय्यूब का हृदय परमेश्वर का भय मानता था; चाहे उसके साथ अच्छा हो या उस पर विपत्ति आए, वह हमेशा परमेश्वर से उसे स्वीकारता था, वह अपने होठों से न तो शिकायत करता था, न पाप करता था और न ही उसे नाराज करता था, वह परमेश्वर के प्रति समर्पित होकर उसके पवित्र नाम का गुणगान करता था। इसके उलट जब मैंने सिर्फ इतना ही सुना कि मेरे बेटे को गिरफ्तार कर लिया गया है, न कि यह कि उसकी जान को खतरा है तो मैंने शिकायतें दर्ज कराना शुरू कर दिया और यहाँ तक कि इसे अपने कर्तव्य पर भी असर डालने दिया। मुझमें और अय्यूब में बहुत अंतर था; मैं बहुत शर्मिंदा था! मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरे बेटे को जब गिरफ्तार किया गया तो वह अपना कर्तव्य निभा रहा था, पता नहीं इस वक्त उसका क्या हाल है। मुझे डर है कि वह यहूदा बन जाएगा और भविष्य में उसे दंडित किया जाएगा। हे परमेश्वर, मेरा हृदय दुखी है, अपना कर्तव्य निभाने के दौरान मेरी मनोदशा अशांत रहती है। मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं चिंतन कर अपनी समस्या को समझ सकूँ।” प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “मैं लोगों को अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त करने का अवसर नहीं देता, क्योंकि मैं दैहिक भावनाओं से रहित हूँ, और चरम सीमा तक लोगों की भावनाओं से घृणा करने लगा हूँ। लोगों के बीच की भावनाओं के कारण ही मुझे एक तरफ कर दिया गया है, और इस तरह मैं उनकी नजरों में ‘दूसरा’ बन गया हूँ; यह लोगों के बीच की भावनाओं के कारण ही है कि मैं भुला दिया गया हूँ; यह मनुष्य की भावनाओं के कारण ही है कि वह अपने ‘विवेक’ को पाने के अवसर का लाभ उठता है; यह मनुष्य की भावनाओं के कारण ही है कि वह हमेशा मेरी ताड़नाओं से विमुख रहता है; यह मनुष्य की भावनाओं के कारण ही है कि वह मुझे गलत और अन्यायी कहता है, और कहता है कि मैं चीजें सँभालने में मनुष्य की भावनाओं से बेपरवाह रहता हूँ। क्या पृथ्वी पर मेरे भी सगे-संबंधी हैं? किसने कभी, मेरी तरह, अपनी पूरी प्रबंधन-योजना के लिए बिना खाने या सोने के बारे में सोछे, दिन-रात काम किया है? मनुष्य की तुलना परमेश्वर से कैसे हो सकती है? मनुष्य परमेश्वर के साथ सुसंगत कैसे हो सकता है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 28)। “संपूर्ण मानवजाति भावनाओं की दशा में जीती है और इसलिए परमेश्वर उनमें से एक को भी छोड़ता नहीं है; वह संपूर्ण मानवजाति के हृदयों में छिपे रहस्यों को उजागर करता है। लोगों के लिए स्वयं को अपनी भावनाओं से पृथक करना इतना कठिन क्यों है? क्या ऐसा करना अंतरात्मा के मानकों के परे जाना है? क्या अंतरात्मा परमेश्वर की इच्छा पूरी कर सकती है? क्या भावनाएँ विपत्ति में लोगों की सहायता कर सकती हैं? परमेश्वर की नजरों में, भावनाएँ उसकी दुश्मन हैं—क्या यह परमेश्वर के वचनों में स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 28)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि उसे इस बात से घृणा है कि लोग अपनी भावनाओं के अनुसार जीते हैं। जब लोग भावनाओं के अनुसार कार्य करते हैं तो वे केवल पारिवारिक आसक्तियों और दैहिक स्वार्थों के बारे में सोचते हैं, वे सत्य या परमेश्वर के इरादे की खोज बिल्कुल नहीं करते; वे अपने हर कार्य में परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। मैं भी बिल्कुल वैसा ही था। जब मुझे पता चला कि मेरे बेटे को गिरफ्तार कर लिया गया है तो सबसे पहले मुझे यही ख्याल आया कि पुलिस जरूर उसके साथ मार-पीट करेगी, उसे परमेश्वर को नकारने और कलीसिया अगुआओं और कार्यकर्ताओं को धोखा देने को मजबूर करेगी। मुझे लगा अगर मेरा बेटा यातना न सह पाया और यहूदा बन गया तो वह उद्धार पाने का अवसर गँवा बैठेगा, वह न केवल भविष्य में आशीष पाने से वंचित हो जाएगा, बल्कि उसे नरक में भी दंडित किया जाएगा। चूँकि मेरा बेटा अभी छोटा ही था, मुझे लगा अगर पिटाई से वह अपंग हो गया तो भविष्य में कैसे जीवित रह पाएगा। और अगर उसे पीट-पीटकर मार डाला गया तो हमेशा के लिए मैं अपने बेटे को गँवा बैठूँगा। इन भयंकर परिणामों के बारे में सोचकर मेरे दिल में परमेश्वर के प्रति शिकायतें उठने लगीं और मेरे बेटे की देखभाल और सुरक्षा न करने के लिए मैं परमेश्वर को दोषी ठहराने लगा, यहाँ तक कि उससे तर्क-वितर्क और चीख-पुकार करने लगा। मेरा विवेक कहाँ चला गया था? मेरी मानवता कहाँ गायब हो गई थी? यह देखकर कि जो लोग अपनी भावनाओं के अनुसार जीते हैं, वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकते हैं, यह समझ में आया कि परमेश्वर ने हमें यह कहकर उजागर क्यों किया है कि “भावनाएँ उसकी दुश्मन हैं।”
अपनी खोज के दौरान मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “मुझे लगातार यह महसूस होता रहता है कि परमेश्वर हमें राह दिखाता हुआ जिस मार्ग पर ले जाता है, वह कोई सीधा मार्ग नहीं है, बल्कि वह गड्ढों से भरी टेढ़ी-मेढ़ी सड़क है; इसके अतिरिक्त, परमेश्वर कहता है कि मार्ग जितना ही ज़्यादा पथरीला होगा, उतना ही ज़्यादा वह हमारे स्नेहिल हृदयों को प्रकट कर सकता है। लेकिन हममें से कोई भी ऐसा मार्ग उपलब्ध नहीं करा सकता। अपने अनुभव में, मैं बहुत-से पथरीले, जोखिम-भरे मार्गों पर चला हूँ और मैंने भीषण दुख झेले हैं; कभी-कभी मैं इतना शोकग्रस्त रहा हूँ कि मेरा मन रोने को करता था, लेकिन मैं इस मार्ग पर आज तक चलता आया हूँ। मेरा विश्वास है कि यही वह मार्ग है जो परमेश्वर ने दिखाया है, इसलिए मैं सारे कष्टों के संताप सहता हुआ आगे बढ़ता जाता हूँ। चूँकि यह परमेश्वर का विधान है, इसलिए इससे कौन बच सकता है? मैं किसी आशीष के लिए याचना नहीं करता; मैं तो सिर्फ़ इतनी याचना करता हूँ कि मैं उस मार्ग पर चलता रह सकूँ, जिस पर मुझे परमेश्वर के इरादों के मुताबिक चलना अनिवार्य है। मैं दूसरों की नकल करते हुए उस मार्ग पर नहीं चलना चाहता, जिस पर वे चलते हैं; मैं तो सिर्फ़ इतना चाहता हूँ कि मैं आखिरी क्षण तक अपने निर्दिष्ट मार्ग पर चलने की अपनी निष्ठा का निर्वाह कर सकूँ। मैं दूसरों की सहायता की याचना नहीं करता; ईमानदारी से कहूँ तो मैं खुद भी दूसरों की सहायता नहीं कर सकता। ऐसा लगता है कि मैं इस मामले में बेहद संवेदनशील हूँ। मुझे नहीं मालूम कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मेरा हमेशा से यह विश्वास रहा है कि किसी व्यक्ति को जितना भी दुख भोगना है और अपने मार्ग पर जितनी दूर तक चलना है, वह सब परमेश्वर ने पहले से ही तय किया होता है, और इसमें सचमुच कोई किसी की मदद नहीं कर सकता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मार्ग ... (6))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में जितने भी कष्ट सहता है और जिन भी परिस्थितियों का सामना करता है, वह सब परमेश्वर बहुत पहले ही तय कर चुका होता है। मुझे अपने बेटे को परमेश्वर को सौंपकर उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो जाना चाहिए। मुझमें यह विवेक होना चाहिए और मुझे इसी का अभ्यास करना चाहिए। मेरे बेटे ने काफी समय से परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा था, जब बात बड़े लाल अजगर द्वारा परमेश्वर और सत्य से घृणा करने के सार की आई तो वह भेद नहीं पहचान रहा था। अब उसे गिरफ्तार कर लिया गया है और वह कष्ट सहेगा; इसमें परमेश्वर का नेक इरादा था और इससे भी बढ़कर, इसमें ऐसे सबक थे जो मेरे बेटे को सीखने चाहिए। मैंने विचार किया कि कितने ही भाई-बहनों को बड़े लाल अजगर ने गिरफ्तार किया और सताया था और उन सभी ने बहुत कष्ट सहे थे, लेकिन इन अनुभवों ने उन्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था दी थी। पीड़ा और क्लेश के बीच वे परमेश्वर को धोखा देने के बजाय हमेशा के लिए जेल में सड़ने को तैयार थे, अपनी देह और शैतान पर विजय प्राप्त कर रहे थे और आखिरकार परमेश्वर के लिए एक सुंदर और शानदार गवाही दे रहे थे। मैंने गिरफ्तार होने के खुद अपने अनुभव के बारे में भी विचार किया। भले ही उस समय मेरी देह को थोड़ी पीड़ा हुई थी, भले ही यातना और कष्ट सहते समय मैं कायर और कमजोर पड़ गया था, लेकिन जब मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उसके वचनों ने मेरा मार्गदर्शन किया और राह दिखाई तो उसमें मेरी आस्था भी बढ़ी। इस अनुभव के जरिए मैंने न केवल परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले बड़े लाल अजगर के दुष्ट सार का भेद पहचानना सीखा, बल्कि मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता की भी कुछ समझ हासिल हुई। इस समझ के साथ मैं अपने बेटे को परमेश्वर को सौंपने और परमेश्वर को सब कुछ आयोजित और व्यवस्थित करने देने को तैयार था।
एक महीने बाद मेरा बेटा वापस लौटा तो उसका चेहरा पीला पड़ गया था और उसका जोश ठंडा। मेरे बेटे का आध्यात्मिक कद छोटा था, वह यह स्वीकारने की हिम्मत नहीं कर पाया कि वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखता है, इसलिए उन्होंने आखिरकार उसे छोड़ दिया। इस असफलता का अनुभव करके मेरे बेटे ने कुछ सबक सीखे और वह बड़े लाल अजगर के भेद को और अधिक पहचानने लगा। उसने यह भी देखा कि उसका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और परमेश्वर में उसकी आस्था बिल्कुल भी सच्ची नहीं है। छह महीने बाद उसने फिर से अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर दिया।
अक्टूबर 2023 में एक दिन मुझे कलीसिया से एक पत्र मिला जिसमें लिखा था कि मेरे बेटे को फिर से गिरफ्तार कर लिया गया है। मेरे बेटे की कलीसिया से 30 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया था जिनमें अगुआ और कार्यकर्ता भी शामिल थे। मैंने विचार किया कि मेरे बेटे का पहले से ही गिरफ्तारी रिकॉर्ड है, अगर पुलिस को पता चला कि वह अगुआ रह चुका है तो यकीनन वे उसे कलीसिया के पैसों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बारे में जानकारी देने, और अपनी आस्था का त्याग करते हुए “तीन कथनों” पर हस्ताक्षर करने को मजबूर करेंगे। अब वह समय था जब परमेश्वर लोगों को प्रकट कर रहा था और उन्हें उनकी किस्म के अनुसार छाँट रहा था; अगर कम्युनिस्ट पार्टी ने मेरे बेटे का मत-परिवर्तन कर दिया या वह यातना बर्दाश्त नहीं कर पाया और “तीन कथनों” पर हस्ताक्षर करके परमेश्वर को धोखा दे दिया तो वह नर्क के द्वार खोल बैठेगा और बचाए जाने का अवसर गँवा देगा। यही सोचकर मुझे लगा जैसे मेरे गले में कुछ अटक गया है, मैं अपने बेटे के भविष्य और संभावनाओं को लेकर बेचैन हो गया और अपने कर्तव्य निर्वहन में मेरा बिल्कुल मन नहीं लग रहा था। मैं दिल में लगातार अपने बेटे के लिए परमेश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि वह मेरे बेटे पर दया करे और उसकी रक्षा करे ताकि वह इस कठिन समय से सुरक्षित निकल सके। कुछ भाई-बहनों ने देखा कि मेरा मन बहुत ही खिन्न है और मैं मायूसी में आहें भर रहा हूँ, उन्होंने मेरे साथ परमेश्वर के इरादे के बारे में संगति की और साथ ही मेरी मदद करने के लिए उसके बहुत से वचन भी खोजे। मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर अपनी भावनाओं से बेबस हो गया हूँ और इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “परमेश्वर, मेरे बेटे को पुलिस फिर से ले गई है। मैं इसे यूँ ही छोड़ नहीं सकता, मुझे उसके जीवन, भविष्य और नियति की चिंता हो रही है; मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं सत्य खोजूँ और इस मामले में बेबस न होऊँ।”
बाद में मुझे अपने बच्चों के लिए अपनी अपेक्षाओं को त्यागने के बारे में परमेश्वर की संगति याद आई और मैंने वे वचन ढूँढ़े और उन्हें पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ अज्ञानी माता-पिता जीवन या नियति की असलियत देख नहीं पाते हैं, परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं पहचानते और अपने बच्चों के विषय में अज्ञानता के काम करते हैं। मिसाल के तौर पर, अपने पैरों पर खड़े हो जाने के बाद उनके बच्चों का सामना कुछ खास स्थितियों, मुश्किलों या बड़ी घटनाओं से हो सकता है, कुछ बच्चे बीमारी का सामना करते हैं, कुछ कानूनी मुकदमों में फँस जाते हैं, कुछ का तलाक हो जाता है, कुछ धोखे या जालसाजी का शिकार हो जाते हैं, कुछ अगवा हो जाते हैं, उन्हें हानि होती है, उनकी जबरदस्त पिटाई होती है या वे मृत्यु का सामना करते हैं। कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो नशीली दवाओं का सेवन करने लगते हैं, वगैरह-वगैरह। इन खास और अहम हालात में माता-पिता को क्या करना चाहिए? ज्यादातर माता-पिता की ठेठ प्रतिक्रिया क्या होती है? क्या वे वही करते हैं जो माता-पिता की पहचान वाले सृजित प्राणियों को करना चाहिए? माता-पिता विरले ही ऐसी खबर सुन कर वैसी प्रतिक्रिया दिखाते हैं जैसी वे किसी अजनबी के साथ ऐसा होने पर दिखाएँगे। तनाव के कारण ज्यादातर माता-पिता के बाल रातों-रात सफेद हो जाते हैं, रात-ब-रात उन्हें नींद नहीं आती, दिन भर उन्हें भूख नहीं लगती, वे सोच-सोचकर अपना दिमाग मथ डालते हैं और कुछ तो तब तक फूट-फूट कर रोते हैं जब तक उनकी आँखें लाल न हो जाएँ और आँसू सूख न जाएँ। वे दिल से परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, विनती करते हैं कि परमेश्वर उनकी आस्था को ध्यान में रखकर उनके बच्चों की रक्षा करे, उन पर कृपा करे और उन्हें आशीष दे, उन पर दया करे और उनका जीवन बख्श दे। ऐसी हालत में माता-पिता के रूप में अपने बच्चों के प्रति उनकी तमाम इंसानी कमजोरियाँ, असुरक्षाएँ और भावनाएँ उजागर हो जाती हैं। इसके अलावा और क्या प्रकट होता है? परमेश्वर के विरुद्ध उनकी विद्रोहशीलता। वे परमेश्वर से याचना और प्रार्थना करते हैं, उससे अपने बच्चों को विपत्ति से दूर रखने की विनती करते हैं। कोई विपत्ति आ जाए तो भी वे प्रार्थना करते हैं कि उनके बच्चे न मरें, खतरे से बच जाएँ, उन्हें बुरे लोगों से नुकसान न पहुँचे, उनकी बीमारियाँ ज्यादा गंभीर न हों, बल्कि वे ठीक होने लगें, वगैरह-वगैरह। वे सच में किस लिए प्रार्थना कर रहे हैं? (हे परमेश्वर, इन प्रार्थनाओं से वे परमेश्वर के समक्ष शिकायती भावना रखते हुए माँगें रख रहे हैं।) एक ओर, वे अपने बच्चों की दुर्दशा से बेहद असंतुष्ट हैं, शिकायत कर रहे हैं कि परमेश्वर को उनके बच्चों के साथ ऐसा नहीं होने देना चाहिए था। उनका असंतोष शिकायत में मिश्रित है, और वे परमेश्वर को अपना मन बदलने, ऐसा न करने और उनके बच्चों को खतरे से बाहर निकालने, उन्हें सुरक्षित रखने, उनकी बीमारी ठीक करने, उन्हें कानूनी मुकदमों से बचाने, कोई विपत्ति आने पर उससे उन्हें बचाने, वगैरह के लिए कह रहे हैं—संक्षेप में, हर चीज को सुचारु रूप से होने देने का आग्रह कर रहे हैं। इस तरह प्रार्थना करके एक ओर वे परमेश्वर के बारे में शिकायत कर रहे हैं और दूसरी ओर वे उससे माँगें कर रहे हैं। क्या यह विद्रोहशीलता की अभिव्यक्ति नहीं है? (है।) निहितार्थ में वे कह रहे हैं कि परमेश्वर जो कर रहा है वह सही या अच्छा नहीं है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। चूँकि वे उनके बच्चे हैं और वे स्वयं विश्वासी हैं, इसलिए वे सोचते हैं कि परमेश्वर को उनके बच्चों के साथ ऐसा नहीं होने देना चाहिए। उनके बच्चे दूसरों से अलग हैं; परमेश्वर को आशीष देते समय उन्हें प्राथमिकता देनी चाहिए। चूँकि वे परमेश्वर में आस्था रखते हैं, इसलिए उसे उनके बच्चों को आशीष देने चाहिए और अगर वह न दे तो वे संतप्त हो जाते हैं, रोते हैं, नखरा दिखाते हैं और अब आगे परमेश्वर का अनुसरण नहीं करना चाहते। अगर उनका बच्चा मर जाए तो उन्हें लगता है कि अब वे भी नहीं जी सकते। क्या उनके मन में यही भाव होता है? (हाँ।) क्या यह परमेश्वर के विरुद्ध एक प्रकार का विरोध नहीं है? (है।) यह परमेश्वर के विरुद्ध विरोध करना है। ... जब परमेश्वर किसी और के भाग्य को आयोजित या शासित करता है तो जब तक इसका तुमसे लेना-देना न हो, तुम्हें यह ठीक लगता है। लेकिन तुम सोचते हो कि उसे तुम्हारे बच्चों के भाग्य पर शासन करने में समर्थ नहीं होना चाहिए। परमेश्वर की नजरों में पूरी मानवजाति परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है और कोई भी परमेश्वर के हाथों स्थापित संप्रभुता और व्यवस्थाओं से बच नहीं सकता। तुम्हारे बच्चे इसका अपवाद क्यों हों? परमेश्वर की संप्रभुता उसके द्वारा नियत और नियोजित है। क्या तुम्हारा उसे बदलना चाहना ठीक है? (नहीं, यह ठीक नहीं है।) यह ठीक नहीं है। इसलिए लोगों को मूर्खतापूर्ण या अविवेकपूर्ण चीजें नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर जो भी करता है वह पिछले जन्मों के कारणों और प्रभावों पर आधारित होता है—इसका तुमसे क्या लेना-देना है? अगर तुम परमेश्वर की संप्रभुता का प्रतिरोध करते हो तो तुम मृत्यु को तलाश रहे हो। अगर तुम नहीं चाहते कि तुम्हारे बच्चे इन चीजों का अनुभव करें तो इसका स्रोत न्याय, दया या दयालुता नहीं बल्कि स्नेह है—यह महज तुम्हारे स्नेह के प्रभाव के कारण है। ... लोगों के बीच सचमुच में जो रिश्ता होता है, वह देह और रक्त के बंधनों पर आधारित नहीं होता, बल्कि यह रिश्ता परमेश्वर द्वारा सृजित दो प्राणियों के बीच का होता है। इस प्रकार के रिश्ते में देह और रक्त के बंधन नहीं होते; यह केवल दो स्वतंत्र प्राणियों के बीच होता है। अगर तुम इस बारे में इस दृष्टिकोण से सोचो तो जब तुम्हारे बच्चे दुर्भाग्यवश बीमार पड़ जाएँ या उनका जीवन खतरे में हो तब बतौर माता-पिता तुम्हें इन मामलों का सामना सही ढंग से करना चाहिए। अपने बच्चों के दुर्भाग्य या गुजर जाने के कारण तुम्हें अपना शेष समय, जिस पथ पर तुम्हें चलना चाहिए, और जो जिम्मेदारियाँ और दायित्व तुम्हें पूरे करने हैं, उन्हें छोड़ना नहीं चाहिए—तुम्हें इस मामले का सामना सही ढंग से करना चाहिए। अगर तुम्हारे विचार और नजरिये सही हैं और तुम इन चीजों की असलियत समझ सकते हो तो तुम मायूसी, वेदना और लालसा पर जल्द काबू पा सकते हो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ आया कि मूलतः लोग स्वतंत्र जीव हैं जिनका एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं है। जब आत्मा पुनर्जन्म लेती है और इस भौतिक संसार में प्रवेश करती है, तभी लोगों के परिवार बनते हैं, पति-पत्नी, पिता-पुत्र, माता-पुत्री और ऐसे तमाम रिश्ते बनते हैं। लेकिन जब किसी व्यक्ति के सार की बात आती है तो मूलतः एक-दूसरे के बीच कोई संबंध नहीं होता। लेकिन लोग ऐसे मामलों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते और दैहिक पारिवारिक लगाव और रक्त संबंधों को सर्वोपरि मानते हैं। जब उनके बच्चे किसी विपत्ति या बीमारी का सामना करते हैं या उनके जीवन को खतरा होता है तो माता-पिता उनके स्नेह में डूबे रहते हैं और इतने दुखी हो जाते कि मरने की चाहत करने लगते हैं। वास्तव में लोग कौन सा मार्ग अपनाएँगे और उनकी नियति क्या होगी, यह परमेश्वर ने बहुत पहले ही तय कर दिया है, इसे माता-पिता तय नहीं करते। मिसाल के तौर पर मेरे पड़ोसियों को ही लीजिए। यह दम्पति जीवन भर किफायत से जिया, अपनी सारी मेहनत की कमाई अपनी बेटी पर खर्च कर दी। उन्होंने उसे एक अच्छे स्कूल में भेजा और उसे बेहतरीन शिक्षा दिलाई इस उम्मीद में कि भविष्य में उसे एक टिकाऊ नौकरी और आर्थिक सुरक्षा मिलेगी। लेकिन उनकी बेटी ने सही रास्ता नहीं अपनाया और छोटी उम्र में ही ड्रग्स लेने लगी। आखिरकार उसे ड्रग तस्करी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और 13 साल जेल की सजा सुनाई गई। उसके माता-पिता लगभग पागल ही हो गए। इसके अलावा एक कमउम्र बहन थी जिसके माता-पिता कई सालों से घर से दूर रहकर काम करते थे, उन्होंने अपनी बेटी को उसके चाचा की देखरेख में रख दिया। उसके माता-पिता ने उसकी पढ़ाई पर कभी ध्यान ही नहीं दिया, लेकिन आखिरकार उसे विश्वविद्यालय में दाखिला मिल गया और वह अपने चाचा-चाची के साथ परमेश्वर में विश्वास रखने लगी। अब वह बहन अपना कर्तव्य निभा रही है और जीवन में सही मार्ग पर चल रही है। इससे पता चलता है कि लोग जो भी मार्ग अपनाते हैं, उसका उनके माता-पिता की देखभाल और उनकी शिक्षा से कोई लेना-देना नहीं होता, उनके माता-पिता इसे बदल नहीं सकते। लेकिन मैं इन बातों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाया था, हमेशा अपने बेटे के भविष्य और भाग्य को लेकर चिंतित रहता था और अपना कर्तव्य भी सामान्य रूप से नहीं निभा पाता था; यहाँ तक कि परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने में भी बाधा आ रही थी। मुझे बस यही चिंता रहती थी कि अगर मेरा बेटा यातना सहन नहीं कर पाया और परमेश्वर को धोखा देकर यहूदा बन गया तो वह अपने उद्धार का अवसर खो बैठेगा। मैंने तो यहाँ तक चाहा कि परमेश्वर उसे उन दानवों की क्रूरता से बचाए और यह सुनिश्चित करे कि वह उस कठिन समय से सुरक्षित निकल जाए। क्या मेरे अंदर जरा सा भी विवेक था? मैंने इसके बारे में और गहराई से सोचा, जब मेरे बेटे को पहली बार गिरफ्तार किया गया था तो उसका आध्यात्मिक कद छोटा था और वह यह स्वीकार करने की हिम्मत नहीं कर पाया था कि वह परमेश्वर में विश्वास रखता है; उसके पास कोई गवाही नहीं थी। 10 साल बाद उसे फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और यकीनन परमेश्वर ने ही इसकी अनुमति दी थी। वह मेरे बेटे को पश्चात्ताप करने का मौका दे रहा था; वह उसकी परीक्षा ले रहा था। अगर मेरा बेटा बड़े लाल अजगर के अंधकारमय प्रभाव की बाधाओं पर विजय पा सका, परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में अडिग रहने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल सका तो इस बार उसका गिरफ्तार होना बहुत ही सार्थक और उसके लिए पूर्ण बनाए जाने का एक मार्ग होगा। लेकिन मैंने चीजों को अपनी भावनाओं के आधार पर देखा था और यह सोचकर परमेश्वर का इरादा नहीं खोजा था कि दैहिक कष्टों से मुक्त एक आरामदायक परिवेश उसके लिए फायदेमंद है। चीजों को देखने का मेरा तरीका परमेश्वर के इरादे के बिल्कुल अनुरूप नहीं था; यह सचमुच बेतुका था! इस बार गिरफ्तार होने के बाद मेरा बेटा अपनी गवाही में अडिग रह पाएगा या नहीं, यह उसके सार, आम तौर पर उसके द्वारा अपनाए गए आचरण और मार्ग पर निर्भर करता था। मुझे अपने बेटे के भविष्य और नियति को लेकर अत्यधिक चिंतित होकर पीड़ा में नहीं जीना चाहिए। यह समझकर मेरा दिल थोड़ा मुक्त हुआ।
अपनी खोज के दौरान मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “जन्म देने और बच्चे के पालन-पोषण के अलावा बच्चे के जीवन में माता-पिता का उत्तरदायित्व उसके बड़ा होने के लिए बाहर से महज एक परिवेश प्रदान करना है और बस इतना ही होता है क्योंकि सृष्टिकर्ता के पूर्वनियत करने के अलावा किसी भी चीज का उस व्यक्ति के भाग्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता। किसी व्यक्ति का भविष्य कैसा होगा, इसे कोई नियन्त्रित नहीं कर सकता; इसे बहुत पहले ही पूर्वनियत किया जा चुका होता है, किसी के भाग्य को उसके माता-पिता भी नहीं बदल सकते। जहाँ तक भाग्य की बात है, हर कोई स्वतन्त्र है और हर किसी का अपना भाग्य है। इसलिए किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके भाग्य को बिल्कुल भी नहीं रोक सकते और जब उस भूमिका की बात आती है जो किसी के भी माता-पिता जीवन में निभाते हैं तो उसमें जरा-सा भी योगदान नहीं दे सकते हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि व्यक्ति का जन्म चाहे जिस परिवार में होना पूर्वनियत हो और वह चाहे जिस परिवेश में बड़ा हो, वे जीवन में उसके ध्येय को पूरा करने के लिए मात्र पूर्वशर्तें होती हैं। वे किसी भी तरह से किसी व्यक्ति के भाग्य को या उस प्रकार की नियति को निर्धारित नहीं करते जिसमें रहकर कोई व्यक्ति अपने ध्येय को पूरा करता है। और इसलिए किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके ध्येय को पूरा करने में उसकी सहायता नहीं कर सकते और इसी तरह किसी के भी रिश्तेदार जीवन में उसकी भूमिका अच्छे से निभाने में उसकी सहायता नहीं कर सकते। कोई किस प्रकार अपने ध्येय को पूरा करता है और वह किस प्रकार के जीने के परिवेश में अपनी भूमिका निभाता है, यह पूरी तरह से जीवन में उसके भाग्य द्वारा निर्धारित होता है। दूसरे शब्दों में, कोई भी वस्तुपरक स्थितियाँ किसी व्यक्ति के ध्येय को, जो सृष्टिकर्ता द्वारा पूर्वनियत है, प्रभावित नहीं कर सकतीं। सभी लोग अपने-अपने परिवेश में जिसमें वे बड़े होते हैं, परिपक्व होते हैं; तब क्रमशः धीरे-धीरे, अपने रास्तों पर चल पड़ते हैं, और सृष्टिकर्ता द्वारा नियोजित उस नियति को पूरा करते हैं। वे स्वाभाविक रूप से, अनायास ही मानवजाति के विशाल समुद्र में प्रवेश करते हैं और जीवन में अपनी भूमिका ग्रहण करते हैं, जहाँ वे सृष्टिकर्ता के पूर्वनियत करने की खातिर उसकी संप्रभुता की खातिर सृजित प्राणियों के रूप में अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करना शुरू करते हैं” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर ने बच्चों के प्रति माता-पिता की जिम्मेदारियों के बारे में बहुत स्पष्टता से बात की है। एक पिता के रूप में मेरी जिम्मेदारी है कि मैं वयस्क हो जाने तक अपने बेटे की परवरिश करूँ, यह सुनिश्चित करूँ कि वह स्वस्थ तरीके से बड़ा हो, उसे परमेश्वर के सामने लाऊँ, उसे बताऊँ कि उसे परमेश्वर से जीवन मिला है, उसे परमेश्वर में विश्वास दिलाऊँ और सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करूँ। एक पिता के रूप में यह मेरी जिम्मेदारियाँ और दायित्व है। लेकिन मेरा बेटा गिरफ्तारी के बाद अपनी गवाही में अडिग रह पाएगा या नहीं और उसके आगे का परिणाम और मंजिल आशीष पाने का होगा या सजा पाने का, ये बातें मैं तय नहीं कर सकता। एक सृजित प्राणी होने के नाते मुझे विवेकपूर्ण तरीके से परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकारना और उनके प्रति समर्पित होना चाहिए। बस यही परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। यह समझ लेने पर मेरा हृदय पूरी तरह से मुक्त हो गया। मेरा बेटा अपनी गवाही में चाहे अडिग रह पाए या नहीं और भविष्य में उसे आशीष मिले या मुश्किलें, मैं यह स्वीकारने और उसके प्रति समर्पित होने को तैयार था।
अब जब मैं अपने बेटे के बारे में सोचता हूँ तो मुझे अब भी थोड़ी चिंता होती है, लेकिन इसका मेरी मनोदशा पर असर नहीं पड़ता और मैं अपना कार्य सामान्य रूप से कर पाता हूँ। मैं हृदय से परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ!