15. अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना ही सच्ची गवाही है
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
परमेश्वर में विश्वास रखने वाले हर व्यक्ति को परमेश्वर की इच्छा समझनी चाहिये। अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभाने वाले लोग ही परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं, परमेश्वर व्यक्ति को जो काम सौंपता है, उसे पूरा करने से ही उसके कर्तव्यों का निर्वहन संतोषजनक हो सकता है। परमेश्वर के आदेश की पूर्णता के मानक हैं। प्रभु यीशु ने कहा: "तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन से, और अपने सारे प्राण से, और अपनी सारी बुद्धि से, और अपनी सारी शक्ति से प्रेम रखना।" परमेश्वर से प्रेम करना उसका एक पहलू है जिसकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है। वास्तव में, जब तक परमेश्वर ने लोगों को एक आदेश दिया है, और जब तक वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो परमेश्वर उनसे इन मानकों की अपेक्षा करता है : वे अपने पूर्ण हृदय से, अपने पूर्ण प्राण से, अपने पूरे दिमाग से, और अपनी पूरी ताकत के साथ काम करें। यदि तू मौजूद तो है, लेकिन तेरा हृदय मौजूद नहीं है—यदि तेरे दिमाग की स्मृति और विचार मौजूद हैं, लेकिन तेरा हृदय नहीं—और यदि तू अपनी क्षमताओं द्वारा चीजें पूरी करता है, तो क्या तू परमेश्वर का आदेश पूरा कर रहा है? तो, परमेश्वर के आदेश को पूरा करने के लिए और अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक और अच्छे ढंग से निभाने के लिए किस तरह का मानक प्राप्त करना चाहिए? यह मानक है अपने कर्तव्य को पूरे हृदय से, अपने पूरे प्राण से, अपने पूरे मन से, और अपनी पूरी ताकत से करना। अगर परमेश्वर के लिए प्रेम से भरे हृदय के बिना तुम अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभाने की कोशिश करते हो, तो बात नहीं बनेगी। अगर परमेश्वर के लिये तुम्हारा प्रेम मजबूत होता जाए और अधिक सच्चा होता जाए, तो स्वाभाविक रूप से तुम पूरे दिल से, पूरे प्राण से, पूरे मन से, और पूरी शक्ति से अपना कर्तव्य निभा पाओगे।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं?
यदि तुम्हारे पास वास्तव में विवेक है, तो तुम्हारे पास बोझ और उत्तरदायित्व की भावना अवश्य होनी चाहिए। तुम्हें कहना चाहिए : “चाहे मुझे जीता जाए या पूर्ण बनाया जाए, मुझे गवाही देने का यह चरण सही ढंग से पूरा करना चाहिए।” एक सृजित प्राणी के रूप में व्यक्ति को परमेश्वर द्वारा सर्वथा जीता जा सकता है, और अंततः वह परमेश्वर-प्रेमी हृदय से परमेश्वर के प्रेम को चुकाते हुए और पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हुए, परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम हो जाता है। यह मनुष्य का उत्तरदायित्व है, यह वह कर्तव्य है जिसे मनुष्य को अवश्य करना चाहिए, और यह वह बोझ है जिसे मनुष्य द्वारा अवश्य वहन किया जाना चाहिए, और मनुष्य को यह आदेश पूरा करना चाहिए। केवल तभी वह वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (3)
अब मैं तुम्हारी निष्ठा और समर्पण, तुम्हारा प्रेम और गवाही चाहता हूँ। यहाँ तक कि अगर तुम इस समय नहीं जानते कि गवाही क्या होती है या प्रेम क्या होता है, तो तुम्हें अपना सब-कुछ मेरे पास ले आना चाहिए और जो एकमात्र खजाना तुम्हारे पास है : तुम्हारी निष्ठा और समर्पण, उसे मुझे सौंप देना चाहिए। तुम्हें जानना चाहिए कि मेरे द्वारा शैतान को हराए जाने की गवाही मनुष्य की निष्ठा और समर्पण में निहित है, साथ ही मनुष्य के ऊपर मेरी संपूर्ण विजय की गवाही भी। मुझ पर तुम्हारे विश्वास का कर्तव्य है मेरी गवाही देना, मेरे प्रति वफादार होना, और किसी और के प्रति नहीं, और अंत तक समर्पित बने रहना। इससे पहले कि मैं अपने कार्य का अगला चरण आरंभ करूँ, तुम मेरी गवाही कैसे दोगे? तुम मेरे प्रति वफादार और समर्पित कैसे बने रहोगे? तुम अपने कार्य के प्रति अपनी सारी निष्ठा समर्पित करते हो या उसे ऐसे ही छोड़ देते हो? इसके बजाय तुम मेरे प्रत्येक आयोजन (चाहे वह मृत्यु हो या विनाश) के प्रति समर्पित हो जाओगे या मेरी ताड़ना से बचने के लिए बीच रास्ते से ही भाग जाओगे? मैं तुम्हारी ताड़ना करता हूँ ताकि तुम मेरी गवाही दो, और मेरे प्रति निष्ठावान और समर्पित बनो। इतना ही नहीं, ताड़ना वर्तमान में मेरे कार्य के अगले चरण को प्रकट करने के लिए और उस कार्य को निर्बाध आगे बढ़ने देने के लिए है। अतः मैं तुम्हें समझाता हूँ कि तुम बुद्धिमान हो जाओ और अपने जीवन या अस्तित्व के महत्व को बेकार रेत की तरह मत समझो। क्या तुम सही-सही जान सकते हो कि मेरा आने वाला काम क्या होगा? क्या तुम जानते हो कि आने वाले दिनों में मैं किस तरह काम करूँगा और मेरा कार्य किस तरह प्रकट होगा? तुम्हें मेरे कार्य के अपने अनुभव का महत्व और साथ ही मुझ पर अपने विश्वास का महत्व जानना चाहिए। मैंने इतना कुछ किया है; मैं उसे बीच में कैसे छोड़ सकता हूँ, जैसा कि तुम सोचते हो? मैंने ऐसा व्यापक काम किया है; मैं उसे नष्ट कैसे कर सकता हूँ? निस्संदेह, मैं इस युग को समाप्त करने आया हूँ। यह सही है, लेकिन इससे भी बढ़कर तुम्हें जानना चाहिए कि मैं एक नए युग का आरंभ करने वाला हूँ, एक नया कार्य आरंभ करने के लिए, और, सबसे बढ़कर, राज्य के सुसमाचार को फैलाने के लिए। अतः तुम्हें जानना चाहिए कि वर्तमान कार्य केवल एक युग का आरंभ करने और आने वाले समय में सुसमाचार को फैलाने की नींव डालने तथा भविष्य में इस युग को समाप्त करने के लिए है। मेरा कार्य उतना सरल नहीं है जितना तुम समझते हो, और न ही वैसा बेकार और निरर्थक है, जैसा तुम्हें लग सकता है। इसलिए, मैं अब भी तुमसे कहूँगा : तुम्हें मेरे कार्य के लिए अपना जीवन देना ही होगा, और इतना ही नहीं, तुम्हें मेरी महिमा के लिए अपने आपको समर्पित करना होगा। लंबे समय से मैं उत्सुक हूँ कि तुम मेरी गवाही दो, और इससे भी बढ़कर, लंबे समय से मैं उत्सुक हूँ कि तुम सुसमाचार फैलाओ। तुम्हें समझना ही होगा कि मेरे हृदय में क्या है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?
हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन मेंतुम अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम निष्ठावान रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्हें इन चीज़ों के बारे में अवश्य विचार करना चाहिए। अगर तुम इन पर बार-बार विचार करते हो और इन्हें समझ लेते हो, तो तुम्हारे लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना आसान हो जाएगा। अगर तुम्हारे पास ज्यादा काबिलियत नहीं है, अगर तुम्हारा अनुभव उथला है, या अगर तुम अपने पेशेवर कार्य में दक्ष नहीं हो, तब तुम्हारेतुम्हारे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, हो सकता है कि तुम्हें अच्छे परिणाम न मिलें—पर तब तुमने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया होगा। तुमतुम अपनी स्वार्थपूर्णइच्छाएँ या प्राथमिकताएँ पूरी नहीं करते। इसके बजाय, तुम लगातार कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हो। भले ही तुम्हें अपने कर्तव्य में अच्छे परिणाम प्राप्त न हों, फिर भी तुम्हारा दिल निष्कपट हो गया होगा; अगर इसके अलावा, इसके ऊपर से, तुम अपने कर्तव्य में आई समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो, तब तुम अपना कर्तव्य निर्वहन मानक स्तर का कर पाओगे और साथ ही, तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। किसी के पास गवाही होने का यही अर्थ है।
कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं, लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते। वे हमेशा देह के स्तर पर जीते हैं, दैहिक-सुखों की इच्छा करते हैं, हमेशा अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं को पूरा करते हैं। वे चाहे कितने भी वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करें, वे कभी भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं करेंगे। यह परमेश्वर को शर्मिंदा करने का संकेत है। तुम कहते हो, “मैंने परमेश्वर के प्रतिरोध जैसा कुछ नहीं किया। मैंने उसे शर्मिंदा कैसे कर दिया?” तुम्हारे सभी विचार और ख्याल दुष्टतापूर्ण हैं। तुम जो करते हो, उसके पीछे की मंशाएँ, लक्ष्य और उद्देश्य और तुम्हारे कार्यों के परिणाम हमेशा शैतान को संतुष्ट करते हैं, जिससे तुम उसके उपहास के पात्र बनते हो और उसे तुम्हारे विरुद्ध कुछ-न-कुछ जानकारी मिल ही जाती है। तुमने एक भी गवाही नहीं दी है जो एक ईसाई को देनी चाहिए। तुम शैतान के हो। तुम सभी चीज़ों में परमेश्वर का नाम बदनाम करते हो और तुम्हारे पास सच्ची गवाही नहीं है। क्या परमेश्वर तुम्हारे द्वारा किए गए कृत्यों को याद रखेगा? अंत में, परमेश्वर तुम्हारे सभी कृत्यों, व्यवहार और कर्तव्यों के बारे में क्या निष्कर्ष निकालेगा? क्या उसका कोई नतीजा नहीं निकलना चाहिए, किसी प्रकार का कोई वक्तव्य नहीं आना चाहिए? बाइबल में, प्रभु यीशु कहता है, “उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?’ तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ’” (मत्ती 7:22-23)। प्रभु यीशु ने ऐसा क्यों कहा? धर्मोपदेश देने, दुष्टात्माओं को निकालने और प्रभु के नाम पर इतने चमत्कार करने वालों में से इतने सारे लोग कुकर्मी क्यों हो गए? इसका कारण यह था कि उन्होंने प्रभु यीशु द्वारा व्यक्त किए गए सत्यों को स्वीकार नहीं किया, उन्होंने उसकी आज्ञाओं का पालन नहीं किया, और सत्य के लिए उनके दिल में कोई प्रेम नहीं था। वे सिर्फ प्रभु के लिए किए गए अपने काम, उठाए गए कष्टों और त्यागों के बदले में स्वर्ग के राज्य के आशीष चाहते थे। ऐसा करके, वे परमेश्वर के साथ एक सौदा करने की कोशिश कर रहे थे, और वे परमेश्वर का इस्तेमाल करने और परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश कर रहे थे, इसलिए प्रभु यीशु उनसे नाराज था, उनसे घृणा करता था और उनकी कुकर्मियों के रूप में निंदा करता था। आज लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर रहे हैं, लेकिन कुछ अब भी नाम और हैसियत के पीछे भागते हैं, और हमेशा विशिष्ट दिखना चाहते हैं, हमेशा अगुआ और कार्यकर्ता बनना और नाम और हैसियत पाना चाहते हैं। हालांकि वे सभी कहते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, और वे परमेश्वर के लिए त्याग करते हैं और खपते हैं, पर वे अपनी प्रतिष्ठा, लाभ और हैसियत के लिए ही अपने कर्तव्य निभाते हैं और उनके सामने हमेशा निजी योजनाएँ रहती हैं। वे परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी या निष्ठावान नहीं हैं, वे थोड़ा भी आत्मचिंतन किए बिना अनियंत्रित रूप से बुरे कर्म कर सकते हैं, इसलिए वे कुकर्मी बन जाते हैं। परमेश्वर इन कुकर्मियों से घृणा करता है, और उन्हें बचाता नहीं है। वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों को अच्छे या बुरे के रूप में आंका जाता है? वह यह है कि वह अपने विचारों, भावात्मक अभिव्यक्तियों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य वास्तविकता को जीने की गवाही रखता है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को कैसे देखता है? परमेश्वर के लिए, तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हराते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और उस अपमान से निशानों से भरे हुए हैं जो तुमने परमेश्वर का किया है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुमपरमेश्वर के लिये खुद को खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि अपने फायदे के लिए काम कर रहे हो। “अपने फायदे के लिए” इसका क्या मतलब है? इसका सही-सही मतलब है, शैतान के फायदे के लिए काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, “हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।” परमेश्वर की नजर में तुम्हारे कार्यों को अच्छे कर्मों के रूप में नहीं देखा जाएगा, बल्कि उन्हें बुरे कर्म माना जाएगा। उन्हें न केवल परमेश्वर की स्वीकृति हासिल नहीं होगी—बल्कि उनकी निंदा भी की परमेश्वर में ऐसे विश्वास से कोई क्या हासिल करने की आशा कर सकता है? क्या इस तरह का विश्वास अंततः व्यर्थ नहीं हो जाएगा?
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है
चाहे तुम किसी भी परीक्षण का सामना क्यों न करो, तुम्हें परमेश्वर के सम्मुख अवश्य आना चाहिए—यही सही है। अपने कर्तव्य के निर्वाह में कोई विलंब किए बिना तुम्हें अपने बारे में चिंतन-मनन करना चाहिए। मगर इतना चिंतन-मनन भी न करते रहो कि अपना कर्तव्य ही न निभा पाओ, महत्वहीन चीजों पर ध्यान देकर महत्वपूर्ण चीजों को अनदेखा मत करो—वह मूर्खतापूर्ण होगा। चाहे तुम्हारे सामने कोई भी परीक्षण क्यों न हो, तुम्हें इसे परमेश्वर द्वारा दिए गए एक बोझ के रूप में देखना चाहिए। कुछ लोगों को कोई बड़ी बीमारी और असहनीय कष्ट झेलने पड़ते हैं, और कुछ मृत्यु का भी सामना करते हैं। उन्हें इस तरह की स्थिति को कैसे देखना चाहिए? कई मामलों में परमेश्वर के परीक्षण एक बोझ होते हैं जो वह लोगों को देता है। परमेश्वर तुम्हें कितना भी भारी बोझ क्यों न दे, तुम्हें उस बोझ का भार उठाना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर तुम्हें समझता है, और यह जानता है कि तुम वह बोझ उठा पाओगे। परमेश्वर तुम्हें जो बोझ देता है, वह तुम्हारी कद-काठी, या तुम्हारी सहनशक्ति की अधिकतम सीमा से अधिक नहीं होगा; इसलिए तुम निश्चित रूप से उसे वहन करने में सक्षम होगे। परमेश्वर चाहे तुम्हें किसी भी तरह का बोझ या किसी भी तरह का परीक्षण दे, एक बात याद रखो : प्रार्थना करने के बाद चाहे तुम परमेश्वर की इच्छा को समझ पाओ या नहीं, चाहे तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन और प्रकाश प्राप्त कर पाओ या नहीं; और इस परीक्षण द्वारा परमेश्वर चाहे तुम्हें अनुशासित कर रहा हो या तुम्हें चेतावनी दे रहा हो, अगर तुम इसे नहीं समझ पाते हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में देर नहीं करते और निष्ठापूर्वक उसका निर्वाह करते रहते हो, तो परमेश्वर तुमसे संतुष्ट रहेगा और तुम अपनी गवाही में मजबूती से खड़े रहोगे। यह देखकर कि वे किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त हैं और मरने वाले हैं, कुछ लोग मन ही मन सोचते हैं, “मैंने मौत से बचने के लिए ही परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था—लेकिन ऐसा लगता है कि इतने वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाने के बाद भी वह मुझे मरने देगा। मुझे अपने काम से मतलब रखना चाहिए, वही चीजें करनी चाहिए जो मैं हमेशा से करना चाहता था, और इस जीवन में उन चीजों का आनंद लेना चाहिए जिनका मैंने आनंद नहीं लिया है। मैं अपना कर्तव्य निभाना छोड़ सकता हूँ।” यह क्या रवैया है? तुम इतने वर्षों से अपना कर्तव्य निभा रहे हो, तुमने ये तमाम उपदेश सुने हैं, और फिर भी तुमने सत्य को नहीं समझा। एक परीक्षण तुम्हें डगमगा देता है, तुम्हें घुटनों पर ले आता है, और तुम्हें बेनकाब कर देता है। क्या इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर द्वारा देखभाल किए जाने के योग्य है? (वे योग्य नहीं हैं।) उनमें जरा-सी भी निष्ठा नहीं है। तो इतने वर्षों तक उन्होंने अपना जो कर्तव्य निभाया है, उसे क्या कहते हैं? इसे “सेवा करना” कहते हैं, और वे सिर्फ मेहनत करते रहे हैं। अगर परमेश्वर में अपनी आस्था और सत्य की खोज में तुम यह कहने में सक्षम हो, “परमेश्वर कोई भी बीमारी या अप्रिय घटना मेरे साथ होने दे—परमेश्वर चाहे कुछ भी करे—मुझे आज्ञापालन करना चाहिए, और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर रहना चाहिए। अन्य सभी चीजों से पहले मुझे सत्य के इस पहलू—आज्ञापालन—को अभ्यास में लाना चाहिए, मुझे इसे कार्यान्वित करना और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की वास्तविकता को जीना ही चाहिए। साथ ही, परमेश्वर ने जो आदेश मुझे दिया है और जो कर्तव्य मुझे निभाना चाहिए, मुझे उनका परित्याग नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए,” क्या यह गवाही देना नहीं है? जब तुम्हारा इस तरह का संकल्प होता है और तुम्हारी इस तरह की अवस्था होती है, तो क्या तब भी तुम परमेश्वर की शिकायत कर सकते हो? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते। ऐसे समय में तुम मन ही मन सोचोगे, “परमेश्वर ने मुझे यह साँस दी है, उसने इन तमाम वर्षों में मेरा पोषण और मेरी रक्षा की है, उसने मुझसे बहुत-सा दर्द लिया है और मुझे बहुत-सा अनुग्रह और बहुत-से सत्य दिए हैं। मैंने ऐसे सत्यों और रहस्यों को समझा है, जिन्हें लोग कई पीढ़ियों से नहीं समझ पाए हैं। मैंने परमेश्वर से इतना कुछ पाया है, इसलिए मुझे भी परमेश्वर को कुछ लौटाना चाहिए! पहले मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा था, मैं कुछ भी नहीं समझता था, और मैं जो कुछ भी करता था, उससे परमेश्वर को दुख पहुँचता था। हो सकता है, मुझे परमेश्वर को लौटाने का भविष्य में और अवसर न मिले। मेरे पास जीने के लिए जितना भी समय बचा हो, मुझे अपनी बची हुई थोड़ी-सी शक्ति अर्पित करके परमेश्वर के लिए वह सब करना चाहिए जो मैं कर सकता हूँ, ताकि परमेश्वर यह देख सके कि उसने इतने वर्षों से मेरा जो पोषण किया है, वह व्यर्थ नहीं गया, बल्कि फलदायक रहा है। मुझे परमेश्वर को और दुखी या निराश करने के बजाय उसे सुख पहुँचाना चाहिए।” इस तरह सोचने के बारे में तुम्हारा क्या विचार है? यह सोचकर अपने आपको बचाने और कतराने की कोशिश न करो कि “यह बीमारी कब ठीक होगी? जब यह ठीक हो जाएगी, तो मैं अपना कर्तव्य निभाने का भरसक प्रयास करूँगा और आज्ञाकारी रहूँगा। मैं बीमार होते हुए आज्ञाकारी कैसे रह सकता हूँ? मैं एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?” जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम नहीं हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम परमेश्वर को शर्मिंदा न करने में सक्षम हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, जब तक तुम्हारा मस्तिष्क स्वस्थ है, क्या तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत न करने में सक्षम हो? (हाँ।) अभी “हाँ” कहना बड़ा आसान है, पर यह उस समय इतना आसान नहीं होगा जब यह सचमुच तुम्हारे साथ घटेगा। और इसलिए, तुम लोगों को सत्य का अनुसरण करना चाहिए, अकसर सत्य पर कठिन परिश्रम करना चाहिए, और यह सोचने में ज्यादा समय बिताना चाहिए कि “मैं परमेश्वर की इच्छा पूरी कैसे कर सकता हूँ? मैं परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान कैसे कर सकता हूँ? मैं सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?”
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है
अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारा किसी भी चीज़ से सामना हो—नकारात्मकता और कमज़ोरी, या निपटान के बाद बुरी मन:स्थिति में होना—तुम्हें कर्तव्य के साथ ठीक से पेश आना चाहिए, और तुम्हें साथ ही सत्य को खोजना और परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए। ये काम करने से तुम्हारे पास अभ्यास करने का मार्ग होगा। अगर तुम अपना कर्तव्य निर्वाह बहुत अच्छे ढंग से करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी मन:स्थिति से बिल्कुल प्रभावित नहीं होना चाहिए। तुम्हें चाहे जितनी निराशा या कमज़ोरी महसूस हो रही हो, तुम्हें अपने हर काम में पूरी सख्ती के साथ सत्य का अभ्यास करना चाहिए, और सिद्धांतों पर अडिग रहना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो न सिर्फ दूसरे लोग तुम्हें स्वीकार करेंगे, बल्कि परमेश्वर भी तुम्हें पसंद करेगा। इस तरह, तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे, जो ज़िम्मेदार है और दायित्व का निर्वहन करता है; तुम सचमुच में एक अच्छे व्यक्ति होगे, जो अपने कर्तव्यों को सही स्तर पर निभाता है और जो पूरी तरह से एक सच्चे इंसान की तरह जीता है। ऐसे लोगों का शुद्धिकरण किया जाता है और वे अपने कर्तव्य निभाते समय वास्तविक बदलाव हासिल करते हैं, उन्हें परमेश्वर की दृष्टि में ईमानदार कहा जा सकता है। केवल ईमानदार लोग ही सत्य का अभ्यास करने में डटे रह सकते हैं और सिद्धांत के साथ कर्म करने में सफल हो सकते हैं, और मानक स्तर के अनुसार कर्तव्यों को निभा सकते हैं। सिद्धांत पर चलकर कर्म करने वाले लोग अच्छी मन:स्थिति में होने पर अपने कर्तव्यों को ध्यान से निभाते हैं; वे सतही ढंग से कार्य नहीं करते, वे अहंकारी नहीं होते और दूसरे उनके बारे में ऊंचा सोचें इसके लिए दिखावा नहीं करते। बुरी मन:स्थिति में होने पर भी वे अपने रोज़मर्रा के काम को उतनी ही ईमानदारी और ज़िम्मेदारी से पूरा करते हैं और उनके कर्तव्यों के निर्वाह के लिए नुकसानदेह या उन पर दबाव डालने वाली या उनके कर्तव्यों में बाधा पहुँचाने वाली किसी चीज़ से सामना होने पर भी वे परमेश्वर के सामने अपने दिल को शांत रख पाते हैं और यह कहते हुए प्रार्थना करते हैं, “मेरे सामने चाहे जितनी बड़ी समस्या खड़ी हो जाए—भले ही आसमान फट कर गिर पड़े—जब तक मैं जीवित हूँ, अपना कर्तव्य निभाने की भरसक कोशिश करने का मैं दृढ़ संकल्प लेता हूँ। मेरे जीवन का प्रत्येक दिन वह दिन होगा जब मैं अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाऊंगा, ताकि मैं परमेश्वर द्वारा मुझे दिये गये इस कर्तव्य, और उसके द्वारा मेरे शरीर में प्रवाहित इस सांस के योग्य बना रहूँ। चाहे जितनी भी मुश्किलों में रहूँ, मैं उन सबको परे रख दूंगा क्योंकि कर्तव्य निर्वाह करना मेरे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है!” जो लोग किसी व्यक्ति, घटना, चीज़ या माहौल से प्रभावित नहीं होते, जो किसी मन:स्थिति या बाहरी स्थिति से बेबस नहीं होते, और जो परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गये कर्तव्यों और आदेशों को सबसे आगे रखते हैं—वही परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होते हैं और सच्चाई के साथ उसके सामने समर्पण करते हैं। ऐसे लोगों ने जीवन-प्रवेश हासिल किया है और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश किया है। यह सत्य को जीने की सबसे सच्ची और व्यावहारिक अभिव्यक्तियों में से एक है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है
जो लोग परमेश्वर के सामने अपना कर्तव्य नहीं निभाते, वे पहले से ही सर्वाधिक जघन्य अपराधों के दोषी हैं, जिसके लिए मृत्यु भी अपर्याप्त सज़ा है, फिर भी वे परमेश्वर के साथ बहस करने और उसके साथ अपनी बराबरी करने की धृष्टता करते हैं। ऐसे लोगों को पूर्ण बनाने का क्या महत्व है? जब लोग अपना कर्तव्य पूरा करने में विफल होते हैं, तो उन्हें अपराध और कृतज्ञता महसूस करनी चाहिए; उन्हें अपनी कमजोरी और अनुपयोगिता, अपनी विद्रोहशीलता और भ्रष्टता से घृणा करनी चाहिए, और इससे भी अधिक, उन्हें परमेश्वर को अपना जीवन अर्पित कर देना चाहिए। केवल तभी वे सृजित प्राणी होते हैं, जो परमेश्वर से सच्चा प्रेम करते हैं, और केवल ऐसे लोग ही परमेश्वर के आशीषों और प्रतिज्ञाओं का आनंद लेने और उसके द्वारा पूर्ण किए जाने के योग्य हैं। और तुम लोगों में से अधिकतर क्या हैं? तुम लोग उस परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करते हो, जो तुम लोगों के मध्य रहता है? तुम लोगों ने उसके सामने अपना कर्तव्य किस तरह निभाया है? क्या तुमने, अपने जीवन की कीमत पर भी, वह सब कर लिया है, जिसे करने के लिए तुम लोगों से कहा गया था? तुम लोगों ने क्या बलिदान किया है? क्या तुम लोगों को मुझसे कुछ ज्यादा नहीं मिला है? क्या तुम लोग विचार कर सकते हो? तुम लोग मेरे प्रति कितने वफादार हो? तुम लोगों ने मेरी किस प्रकार से सेवा की है? और उस सबका क्या हुआ, जो मैंने तुम लोगों को दिया है और तुम लोगों के लिए किया है? क्या तुम लोगों ने यह सब माप लिया है? क्या तुम सभी लोगों ने इसका आकलन और तुलना उस जरा-से विवेक के साथ कर ली है, जो तुम लोगों के भीतर है? तुम्हारे शब्द और कार्य किसके योग्य हो सकते हैं? क्या तुम लोगों का इतना छोटा-सा बलिदान उस सबके बराबर है, जो मैने तुम लोगों को दिया है? मेरे पास और कोई विकल्प नहीं है और मैं पूरे हृदय से तुम लोगों के प्रति समर्पित रहा हूँ, फिर भी तुम लोग मेरे बारे में दुष्ट इरादे रखते हो और मेरे प्रति अनमने रहते हो। यही तुम लोगों के कर्तव्य की सीमा, तुम लोगों का एकमात्र कार्य है। क्या ऐसा ही नहीं है? क्या तुम लोग नहीं जानते कि तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने में बिल्कुल असफल हो गए हो? तुम लोगों को सृजित प्राणी कैसे माना जा सकता है? क्या तुम लोगों को यह स्पष्ट नहीं है कि तुम क्या व्यक्त कर रहे हो और क्या जी रहे हो? तुम लोग अपना कर्तव्य पूरा करने में असफल रहे हो, पर तुम परमेश्वर की सहनशीलता और भरपूर अनुग्रह प्राप्त करना चाहते हो। इस प्रकार का अनुग्रह तुम जैसे बेकार और अधम लोगों के लिए नहीं, बल्कि उन लोगों के लिए तैयार किया गया है, जो कुछ नहीं माँगते और खुशी से बलिदान करते हैं। तुम जैसे मामूली लोग स्वर्ग के अनुग्रह का आनंद लेने के बिल्कुल भी योग्य नहीं हैं। केवल कठिनाई और अनंत सज़ा ही तुम लोगों को अपने जीवन में मिलेगी! यदि तुम लोग मेरे प्रति विश्वसनीय नहीं हो सकते, तो तुम लोगों के भाग्य में दुःख ही होगा। यदि तुम लोग मेरे वचनों और कार्यों के प्रति जवाबदेह नहीं हो सकते, तो तुम्हारा परिणाम दंड होगा। राज्य के समस्त अनुग्रह, आशीषों और अद्भुत जीवन का तुम लोगों के साथ कोई लेना-देना नहीं होगा। यही वह अंत है, जिसके तुम काबिल हो और जो तुम लोगों की अपनी करतूतों का परिणाम है! वे अज्ञानी और घमंडी लोग न केवल पूरी कोशिश नहीं करते, बल्कि वे अपना कर्तव्य भी नहीं निभाते, बस वे अनुग्रह के लिए अपने हाथ पसार देते हैं, मानो वे जो माँगते हैं, उसके योग्य हों। और यदि वे वह प्राप्त नहीं कर पाते, जो वे माँगते हैं, तो वे और भी कम निष्ठावान बन जाते हैं। ऐसे लोगों को सही कैसे माना जा सकता है? तुम लोग कमजोर क्षमता के और विवेकशून्य हो; प्रबंधन के कार्य के दौरान तुम लोगों को जो कर्तव्य पूरा करना चाहिए, उसे करने में तुम पूर्णतः अक्षम हो। तुम लोगों का महत्व पहले ही तेजी से घट चुका है। अपने साथ ऐसा उपकार करने का बदला चुकाने की तुम्हारी विफलता पहले ही चरम विद्रोह का कृत्य है, जो तुम्हारी निंदा करने के लिए पर्याप्त है और तुम्हारी कायरता, अक्षमता, अधमता और अनुपयुक्तता प्रदर्शित करता है। कौन-सी चीज़ तुम्हें अपने हाथ पसारे रखने का अधिकार देती है? तुम लोगों का मेरे कार्य में थोड़ी-सी भी सहायता करने में अक्षम होना, वफ़ादार होने में अक्षम होना, और मेरे लिए गवाही देने में अक्षम होना तुम्हारे कुकर्म और असफलताएँ हैं, इसके बावजूद तुम लोग मुझ पर आक्रमण करते हो, मेरे बारे में झूठी बातें करते हो, और शिकायत करते हो कि मैं अधर्मी हूँ। क्या यही तुम्हारी निष्ठा है? क्या यही तुम्हारा प्रेम है? इससे अधिक तुम लोग और क्या कर सकते हो? जो भी कार्य किया गया है, उसमें तुम लोगों ने क्या योगदान दिया है? तुमने खुद को कितना खपाया किया है? तुम लोगों को कोई दोष न देकर मैंने पहले ही बड़ी सहनशीलता दिखाई है, फिर भी तुम लोग बेशर्मी से मुझसे बहाने बनाते हो और निजी तौर पर मेरी शिकायत करते हो। क्या तुम लोगों में मानवता का हलका-सा भी निशान है? यद्यपि मनुष्य का कर्तव्य उसके मन और उसकी अवधारणाओं से दूषित है, फिर भी तुम्हें अपना कर्तव्य अवश्य निभाना चाहिए और अपनी वफादारी दिखानी चाहिए। मनुष्य के कार्य में अशुद्धताएँ उसकी क्षमता की समस्या हैं, जबकि, यदि मनुष्य अपना कर्तव्य पूरा नहीं करता, तो यह उसकी विद्रोहशीलता दर्शाता है। मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कर्तव्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी। जो लोग अपना कर्तव्य बेमन से करते हैं और सत्य की खोज नहीं करते, वे अंत में त्याग दिए जाएँगे, क्योंकि ऐसे लोग सत्य के अभ्यास में अपना कर्तव्य पूरा नहीं करते, और अपना कर्तव्य निभानेमें सत्य का अभ्यास नहीं करते। ये वे लोग हैं, जो अपरिवर्तित रहते हैं और शापित किए जाएँगे। उनकी न केवल अभिव्यक्तियाँ अशुद्ध हैं, बल्कि वे जो कुछ भी व्यक्त करते हैं, वह दुष्टतापूर्ण होता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर