19. विवाह को कैसे ग्रहण करें

बाइबल से उद्धृत वचन

“फिर यहोवा परमेश्वर ने कहा, ‘आदम का अकेला रहना अच्छा नहीं; मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊँगा जो उस से मेल खाए’” (उत्पत्ति 2:18)

“तब यहोवा परमेश्‍वर ने आदम को भारी नींद में डाल दिया, और जब वह सो गया तब उसने उसकी एक पसली निकालकर उसकी जगह मांस भर दिया। और यहोवा परमेश्‍वर ने उस पसली को जो उसने आदम में से निकाली थी, स्त्री बना दिया; और उसको आदम के पास ले आया। तब आदम ने कहा, ‘अब यह मेरी हड्डियों में की हड्डी और मेरे मांस में का मांस है; इसलिए इसका नाम नारी होगा, क्योंकि यह नर में से निकाली गई है।’ इस कारण पुरुष अपने माता–पिता को छोड़कर अपनी पत्नी से मिला रहेगा, और वे एक ही तन बने रहेंगे” (उत्पत्ति 2:21-24)

“फिर स्त्री से उसने कहा, ‘मैं तेरी पीड़ा और तेरे गर्भवती होने के दु:ख को बहुत बढ़ाऊँगा; तू पीड़ित होकर बालक उत्पन्न करेगी; और तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।’ और आदम से उसने कहा, ‘तू ने जो अपनी पत्नी की बात सुनी, और जिस वृक्ष के फल के विषय मैं ने तुझे आज्ञा दी थी कि तू उसे न खाना, उसको तू ने खाया है इसलिये भूमि तेरे कारण शापित है। तू उसकी उपज जीवन भर दु:ख के साथ खाया करेगा; और वह तेरे लिये काँटे और ऊँटकटारे उगाएगी, और तू खेत की उपज खाएगा; और अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा, और अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है; तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा’” (उत्पत्ति 3:16-19)

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

इसका मूल और स्रोत परमेश्वर की रचना में है। परमेश्वर ने पहले मनुष्य को बनाया, जिसे एक साथी की जरूरत थी जो उसकी मदद करे और उसका साथ दे, उसके साथ रहे, इसलिए परमेश्वर ने उसके लिए एक साथी बनाया, और इस तरह मनुष्य की शादी की शुरुआत हुई। बस इतना ही। यह इतना सरल है। तुम्हारे पास शादी के बारे में यह बुनियादी समझ होनी चाहिए। शादी हमें परमेश्वर से मिली है; यह उसके द्वारा व्यवस्थित और निर्धारित की गई है। कम से कम तुम कह सकते हो कि यह कोई नकारात्मक चीज नहीं, बल्कि एक सकारात्मक चीज है। यह भी सटीक रूप से कहा जा सकता है कि शादी उचित है, यह मानव जीवन में और लोगों के अस्तित्व की प्रक्रिया में एक उचित पड़ाव है। यह बुरी नहीं है, न ही यह मानवजाति को भ्रष्ट करने का कोई उपकरण या साधन है; यह उचित और सकारात्मक है, क्योंकि इसे परमेश्वर द्वारा बनाया और निर्धारित किया गया था, और बेशक, उसने ही इसकी व्यवस्था की थी। मनुष्य की शादी का मूल परमेश्वर की रचना में निहित है, और उसने इसे खुद ही व्यवस्थित और निर्धारित किया है, इसलिए इस दृष्टिकोण से देखा जाए, तो व्यक्ति के पास शादी के बारे में बस यह परिप्रेक्ष्य होना चाहिए कि यह परमेश्वर से आती है, यह एक उचित और सकारात्मक चीज है, और यह कोई नकारात्मक, बुरी, स्वार्थी या अंधकारमय चीज नहीं है। यह न तो मनुष्य से आती है, न ही शैतान से, और यह प्रकृति में अपने आप तो बिल्कुल नहीं विकसित हुई है; बल्कि, परमेश्वर ने इसे अपने हाथों से बनाया, और व्यवस्थित और निर्धारित किया है। यह एकदम निश्चित है। यह शादी की सबसे मौलिक और सटीक परिभाषा और अवधारणा है।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (9)

शादी का असल प्रयोजन सिर्फ मानवजाति की संख्या में बढ़ोतरी के लिए नहीं है, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण रूप से यह इसलिए है कि इसके जरिये परमेश्वर हरेक पुरुष और महिला के लिए एक साथी चुने, जो उनके जीवन में हर वक्त पर उनका साथ देगा, फिर चाहे वह कठिन और पीड़ादायक वक्त हो, या आसान, आनंदमय और खुशनुमा वक्त—इन सब में, उनके पास भरोसा करने, दिलोदिमाग से उनके साथ एक होने, और उनके दुख, दर्द, खुशी और आनंद में साथ देने के लिए कोई होता है। लोगों के लिए शादी की व्यवस्था करने के पीछे परमेश्वर का यही अभिप्राय है, और यह हरेक व्यक्ति की व्यक्तिपरक आवश्यकता भी है। जब परमेश्वर ने मानवजाति की रचना की, तो वह नहीं चाहता था कि लोग अकेले रहें, इसलिए उसने उनके लिए शादी की व्यवस्था की। शादी में, पुरुष और महिला अलग-अलग भूमिकाएँ निभाते हैं, और सबसे जरूरी बात यह है कि वे एक-दूसरे का साथ देते हैं और एक-दूसरे को सहारा देते हैं, हर दिन अच्छे से जीते हैं, जीवन की राह पर अच्छी तरह से आगे बढ़ते हैं। एक ओर, वे एक-दूसरे का साथ दे सकते हैं, और दूसरी ओर, वे एक-दूसरे को सहारा दे सकते हैं—यही शादी का वास्तविक अर्थ है और इसके अस्तित्व का प्रयोजन है। बेशक, लोगों को शादी के बारे में यही समझ और रवैया रखना चाहिए, और यही वह जिम्मेदारी और दायित्व है जो उन्हें शादी के प्रति निभाना चाहिए।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (9)

किसी भी व्यक्ति के जीवन में विवाह एक महत्वपूर्ण घटना होती है; यह वह समय होता है जब कोई विभिन्न प्रकार के उत्तरदायित्वों को वहन करना और धीरे-धीरे विभिन्न प्रकार के ध्येयों को पूरा करना आरम्भ करता है। स्वयं अनुभव करने से पहले, लोगों के मन में विवाह के बारे में बहुत से भ्रम होते हैं, और ये सभी भ्रम बहुत ही खूबसूरत होते हैं। महिलाएँ कल्पना करती हैं कि उनका होने वाला पति सुन्दर राजकुमार होगा, और पुरुष कल्पना करते हैं कि वे स्नो व्हाइट से विवाह करेंगे। इन कल्पनाओं से पता चलता है कि विवाह को लेकर प्रत्येक व्यक्ति की कुछ निश्चित अपेक्षाएँ होती हैं, उनकी स्वयं की माँगें और मानक होते हैं। यद्यपि इस बुराई से भरे युग में लोगों के पास विवाह के बारे में विकृत संदेशों की भरमार हो जाती है, जो और भी अधिक अतिरिक्त अपेक्षाओं को जन्म देते हैं और लोगों को तमाम तरह के बोझ एवं अजीब-सी सोच से लाद देते हैं। जिसने विवाह किया है, वह जानता है कि कोई इसे किसी भी तरह से क्यों न समझे, उसका दृष्टिकोण इसके प्रति कुछ भी क्यों न हो, विवाह व्यक्तिगत पसंद का मामला नहीं है।

व्यक्ति अपने जीवन में कई लोगों के संपर्क में आता है, किन्तु कोई नहीं जानता है कि उसका जीवनसाथी कौन बनेगा। हालाँकि विवाह के बारे में प्रत्येक की अपनी सोच और अपने व्यक्तिगत उद्देश्य होते हैं, फिर भी कोई पूर्वानुमान नहीं लगा सकता कि अंततः कौन उसका सच्चा जीवनसाथी बनेगा, इस विषय पर उसकी अपनी अवधारणाएँ ज्यादा मायने नहीं रखतीं। तुम जिस व्यक्ति को पसंद करते हो उससे मिलने के बाद, उसे पाने का प्रयास कर सकते हो; किन्तु वह तुममें रुचि रखता है या नहीं, वह तुम्हारा जीवन साथी बनने योग्य है या नहीं, यह तय करना तुम्हारा काम नहीं है। तुम जिसे चाहते हो ज़रूरी नहीं कि वह वही व्यक्ति हो जिसके साथ तुम अपना जीवन साझा कर पाओगे; और इसी बीच कोई ऐसा व्यक्ति जिसकी तुमने कभी अपेक्षा भी नहीं की थी, वह चुपके से तुम्हारे जीवन में प्रवेश कर जाता है और तुम्हारा साथी बन जाता है, तुम्हारा जीवनसाथी तुम्हारे भाग्य का सबसे महत्वपूर्ण अंग बन जाता है, जिसके साथ तुम्हारा भाग्य अभिन्न रूप से बँधा हुआ है। इसलिए, यद्यपि संसार में लाखों विवाह होते हैं, फिर भी हर एक भिन्न है : कितने विवाह असंतोषजनक होते हैं, कितने सुखद होते हैं; कितने विवाह संबंध पूर्व और पश्चिम के बीच होते हैं, कितने उत्तर और दक्षिण के बीच; कितने परिपूर्ण जोड़े होते हैं, कितने समकक्ष श्रेणी के होते हैं; कितने सुखद और सामंजस्यपूर्ण होते हैं, कितने दुःखदाई और कष्टपूर्ण होते हैं; कितने दूसरों के मन में ईर्ष्या जगाते हैं, कितनों को गलत समझा जाता है और उन पर नाक-भौं सिकोड़ी जाती है; कितने आनन्द से भरे होते हैं, कितने आँसूओं से भरे हैं और मायूसी पैदा करते हैं...। इन अनगिनत तरह के विवाहों में, मनुष्य विवाह के प्रति वफादारी और आजीवन प्रतिबद्धता दर्शाता है, प्रेम, आसक्ति, एवं कभी अलग न होने, या परित्याग और न समझ पाने की भावना को प्रकट करता है। कुछ लोग विवाह में अपने साथी के साथ विश्वासघात करते हैं, यहाँ तक कि घृणा करते हैं। चाहे विवाह से खुशी मिले या पीड़ा, विवाह में हर एक व्यक्ति का ध्येय सृजनकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित होता है और यह कभी बदलता नहीं; यह ध्येय ऐसा है जिसे हर एक को पूरा करना होता है। प्रत्येक विवाह के पीछे निहित हर व्यक्ति का भाग्य अपरिवर्तनीय होता है; इसे बहुत पहले ही सृजनकर्ता द्वारा निर्धारित किया जा चुका होता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III

विवाह किसी व्यक्ति के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। यह व्यक्ति के भाग्य का परिणाम है, और किसी के भाग्य में एक महत्वपूर्ण कड़ी है; यह किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत इच्छा या प्राथमिकताओं पर आधारित नहीं होता है, और किसी भी बाहरी कारक द्वारा प्रभावित नहीं होता है, बल्कि यह पूर्णतः दो पक्षों के भाग्य, युगल के दोनों सदस्यों के भाग्य के लिए सृजनकर्ता की व्यवस्थाओं और उसके पूर्वनिर्धारणों द्वारा निर्धारित होता है। सतही तौर पर, विवाह का उद्देश्य मानवजाति को कायम रखना है, लेकिन वास्तव में, विवाह केवल एक रस्म है जिससे व्यक्ति अपने ध्येय को पूरा करने की प्रक्रिया में गुज़रता है। विवाह में, लोग मात्र अगली पीढ़ी का पालन-पोषण करने की भूमिका नहीं निभाते हैं; वे ऐसी अनेक भूमिकाएँ अपनाते हैं जो विवाह को कायम रखने के लिए ज़रूरी होती हैं और उन उद्देश्यों को अपनाते हैं जिनकी पूर्ति की अपेक्षा ये भूमिकाएँ उनसे करती है। चूँकि व्यक्ति का जन्म आसपास की चीज़ों, घटनाओं, और उन परिवर्तनों को प्रभावित करता है जिनसे लोग गुज़रते हैं, इसलिए उसका विवाह भी अनिवार्य रूप से इन लोगों, घटनाओं और चीज़ों को प्रभावित करेगा, यही नहीं, कई तरीकों से उन सब को रूपान्तरित भी करेगा।

जब कोई व्यक्ति स्वावलंबी बन जाता है, तो वह अपनी स्वयं की जीवन यात्रा आरंभ करता है, जो उसे धीरे-धीरे उन लोगों, घटनाओं, और चीज़ों की ओर ले जाती है, जिनका उसके विवाह से संबंध होता है। साथ ही, वह दूसरा व्यक्ति जो उस विवाह में होगा, धीरे-धीरे उन्हीं लोगों, घटनाओं एवं चीज़ों की ओर आ रहा होता है। सृजनकर्ता की संप्रभुता के अधीन, दो असंबंधित लोग जिनके भाग्य जुड़े हैं, धीरे-धीरे एक विवाह में प्रवेश करते हैं और, चमत्कारपूर्ण ढ़ंग से, एक परिवार बन जाते हैं : “एक ही रस्सी पर लटकी हुई दो टिड्डियाँ।” इसलिए जब कोई विवाह करता है, तो उसकी जीवन-यात्रा उसके जीवनसाथी को प्रभावित करेगी, और उसी तरह उसके साथी की जीवन-यात्रा भी जीवन में उसके भाग्य को प्रभावित और स्पर्श करेगी। दूसरे शब्दों में, मनुष्यों के भाग्य परस्पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, और कोई भी दूसरों से पूरी तरह से अलग होकर जीवन में अपना ध्येय पूरा नहीं कर सकता है या अपनी भूमिका नहीं निभा सकता है। व्यक्ति का जन्म संबंधों की एक बड़ी श्रृंखला पर प्रभाव डालता है; बड़े होने की प्रक्रिया में भी संबंधों की एक जटिल श्रृंखला शामिल होती है; और उसी प्रकार, विवाह अनिवार्य रूप से मानवीय संबंधों के एक विशाल और जटिल जाल के बीच विद्यमान होता आता है और इसी में कायम रहता है, विवाह में उस जाल का प्रत्येक सदस्य शामिल होता है और यह हर उस व्यक्ति के भाग्य को प्रभावित करता है जो उसका भाग है। विवाह दोनों सदस्यों के परिवारों का, उन परिस्थितियों का जिनमें वे बड़े हुए थे, उनके रंग-रूप, उनकी आयु, उनकी काबिलियतों, उनकी प्रतिभाओं, या अन्य कारकों का परिणाम नहीं है; बल्कि, यह साझा ध्येय और संबंधित भाग्य से उत्पन्न होता है। यह विवाह का मूल है, सृजनकर्ता द्वारा आयोजित और व्यवस्थित मनुष्य के भाग्य का एक परिणाम है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III

तुम्हारे मन में शादी के बारे में कोई व्यक्तिपरक या अवास्तविक कल्पनाएँ नहीं होनी चाहिए, जैसे कि तुम्हारा जीवनसाथी कौन है या वह कैसा व्यक्ति है; तुम्हें परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी रवैया रखना चाहिए, परमेश्वर की व्यवस्थाओं और विधान के प्रति समर्पण करना चाहिए, और यह भरोसा रखना चाहिए कि परमेश्वर तुम्हारे लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति ही चुनेगा। क्या आज्ञाकारी रवैया होना जरूरी नहीं है? (बिल्कुल है।) दूसरी बात, तुम्हें जीवनसाथी चुनने के उन मानदंडों को भी त्यागना होगा जो समाज की बुरी प्रवृत्तियों ने तुममें डाले हैं और फिर अपना जीवनसाथी चुनने के लिए सही मानदंड स्थापित करना होगा, यानी कम से कम तुम्हारा जीवनसाथी ऐसा व्यक्ति हो जो तुम्हारी तरह परमेश्वर में विश्वास करे और उसी मार्ग पर चले जिस पर तुम चलती हो—यह बात सामान्य परिप्रेक्ष्य से है। इसके अलावा, तुम्हारा जीवनसाथी शादी में एक पुरुष या महिला की जिम्मेदारियाँ निभाने में सक्षम होना चाहिए; उसे एक जीवनसाथी की जिम्मेदारियाँ निभानी आनी चाहिए। तुम इस पहलू को कैसे आँकोगी? तुम्हें अपने जीवनसाथी की मानवता की गुणवत्ता देखनी चाहिए, जैसे कि क्या उसमें जिम्मेदारी की भावना और अंतरात्मा है। और तुम यह कैसे आँकोगी कि किसी के पास अंतरात्मा और मानवता है या नहीं? अगर तुम उसके साथ नहीं जुड़ती तो तुम्हारे पास यह जानने का कोई और तरीका नहीं होगा कि उसकी मानवता कैसी है, और अगर तुम उनके साथ जुड़ती हो, वो भी काफी कम समय के लिए, तब भी शायद तुम यह पता न लगा पाओ कि वह कैसा व्यक्ति है। तो फिर, तुम यह कैसे आँकोगी कि उस व्यक्ति में मानवता है या नहीं? तुम यह देखोगी कि वह व्यक्ति अपने कर्तव्य की, परमेश्वर के आदेश की, और परमेश्वर के घर के कार्य की जिम्मेदारी उठाता है या नहीं, और क्या वह परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा कर सकता है और क्या वह अपने कर्तव्य में ईमानदार है—यह किसी व्यक्ति की मानवता की गुणवत्ता को आँकने का सबसे अच्छा तरीका है। मान लो कि इस व्यक्ति का चरित्र बहुत सच्चा है और वह परमेश्वर के घर द्वारा सौंपे गए कार्य को लेकर बेहद समर्पित, जिम्मेदार, गंभीर और ईमानदार रहता है, वह बहुत सावधानी बरतता है, बिल्कुल भी लापरवाही नहीं करता, किसी चीज को अनदेखा नहीं करता, और वह सत्य का अनुसरण करता है, परमेश्वर की हर बात ध्यान से और निष्ठापूर्वक सुनता है। जैसे ही उसे परमेश्वर के वचन समझ में आ जाते हैं, वह फौरन उन्हें अभ्यास में लाता है; भले ही ऐसे व्यक्ति में ऊँची काबिलियत न हो, पर कम से कम वह अपने कर्तव्य और कलीसिया के कार्य के प्रति लापरवाही नहीं करता, और ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभा सकता है। अगर वह अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान और जिम्मेदार है, तो वह यकीनन सच्चे दिल से तुम्हारे साथ अपना जीवन बिताएगा और मरते दम तक तुम्हारी जिम्मेदारी उठाएगा—ऐसे व्यक्ति का चरित्र परीक्षणों का सामना कर सकता है। भले ही तुम बीमार पड़ो, बूढ़ी हो जाओ, बदूसरत हो जाओ या तुममें दोष और कमियाँ हों, यह व्यक्ति हमेशा तुम्हारे साथ उचित व्यवहार कर तुम्हें बर्दाश्त करेगा, और वह हमेशा तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की हिफाजत करने, तुम्हें टिकाऊ जीवन देने की अपनी पूरी कोशिश करेगा, ताकि तुम शांति से जी सको। शादीशुदा जीवन में यह किसी भी महिला-पुरुष के लिए सबसे खुशी की बात होती है। ऐसा जरूरी नहीं कि वह तुम्हें एक समृद्ध, विलासितापूर्ण या रोमांटिक जीवन दे सके, और यह भी जरूरी नहीं कि वह तुम्हें स्नेह या किसी अन्य पहलू के संदर्भ में कुछ भी अलग दे सके, पर कम-से-कम वह तुम्हें सुकून देगा और उसके साथ तुम्हारा जीवन व्यवस्थित हो जाएगा, और कोई खतरा या असहजता की भावना नहीं रहेगी। उस व्यक्ति को देखकर तुम यह जान लोगी कि 20-30 साल बाद या बुढ़ापे में उसके साथ जीवन कैसा होगा। जीवनसाथी चुनने के लिए इस तरह का व्यक्ति ही तुम्हारा मानदंड होना चाहिए। बेशक, जीवनसाथी चुनने का यह मानदंड थोड़ा ऊँचा है और आधुनिक मानवजाति के बीच ऐसे व्यक्ति को खोजना आसान नहीं है, है न? यह आँकने के लिए कि किसी का चरित्र कैसा है और क्या वह शादी में अपनी जिम्मेदारियाँ निभा पाएगा, तुम्हें कर्तव्य के प्रति उसका रवैया देखना होगा—यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह देखना होगा कि क्या उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है। अगर है, तो कम-से-कम वह कुछ भी अमानवीय या अनैतिक काम नहीं करेगा, और इसलिए वह यकीनन तुम्हारे साथ अच्छी तरह पेश आएगा। अगर उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है, वह बेशर्म और मनमाना है, या उसकी मानवता दुष्ट, कपटी और अहंकारी है; अगर उसके दिल में परमेश्वर नहीं है और वह खुद को दूसरों से श्रेष्ठ मानता है; अगर वह अपने कार्य, अपने कर्तव्यों और यहाँ तक कि परमेश्वर के आदेश और परमेश्वर के घर के किसी भी प्रमुख मामले से मनमाने तरीके से निपटता है, मनमर्जी से काम करता है, कभी भी सतर्क नहीं रहता, सिद्धांत नहीं खोजता, और खास तौर से चढ़ावे के मामले में वह इन्हें लापरवाही से लेकर इनका गलत इस्तेमाल करता है और वह किसी बात से नहीं डरता, तो तुम्हें ऐसे किसी व्यक्ति की तलाश बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के बिना वह आदमी कुछ भी कर सकता है। अभी ऐसा आदमी शायद तुमसे मीठी-मीठी बातें कर अपने अटूट प्यार का वादा करे, पर एक दिन आएगा जब वह खुश नहीं होगा, जब तुम उसकी जरूरतों को पूरा नहीं कर पाओगी और उसके मन को नहीं भाओगी, तब वह कहेगा कि उसे तुमसे प्यार नहीं है और अब उसके दिल में तुम्हारे लिए कोई भावना नहीं है, और वह जब चाहे तब तुम्हें छोड़कर चला जाएगा। भले ही तुम दोनों का अभी तक तलाक न हुआ हो, फिर भी वह किसी और को ढूँढ़ने में लग जाएगा—यह सब मुमकिन है। वह तुम्हें कभी भी, कहीं भी छोड़ सकता है और वह कुछ भी करने में सक्षम है। ऐसे पुरुष बहुत खतरनाक होते हैं और उन्हें अपना पूरा जीवन सौंप देना ठीक नहीं है। अगर तुम्हें अपने प्रेमी, अपने प्रियतम, अपने चुने हुए जीवनसाथी के रूप में ऐसा व्यक्ति मिले, तो तुम मुसीबत में पड़ जाओगी। चाहे वह लंबा, अमीर और सुंदर ही क्यों न हो, बेहद प्रतिभाशाली क्यों न हो, और भले ही वह तुम्हारी अच्छी देखभाल करता हो और तुम्हारा ख्याल रखता हो, और सतही तौर पर कहें, तो वह विशेष रूप से उन मानदंडों पर खरा उतरता हो कि वह तुम्हारा बॉयफ्रेंड है या पति हो सके, फिर भी अगर उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है, तो यह व्यक्ति तुम्हारा जीवनसाथी नहीं हो सकता। अगर तुम उस पर मुग्ध होकर उसके साथ प्रेम की डगर पर कदम बढ़ाती हो और फिर उससे शादी कर लेती हो, तो वह तुम्हारे जीवनभर के लिए बुरा अनुभव और तबाही बनकर रह जाएगा। तुम कहती हो, “मैं नहीं डरती, मैं सत्य का अनुसरण करती हूँ।” तुम एक दुष्ट के चंगुल में फँस चुकी हो, जो परमेश्वर से नफरत करता है, परमेश्वर की अवज्ञा करता है, और परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास भंग करने के लिए हर तरह के पैंतरे आजमाता है—क्या तुम इस मुसीबत से उबर लोगी? अपने छोटे आध्यात्मिक कद और आस्था से तुम उसके अत्याचार को बर्दाश्त नहीं कर पाओगी, और कुछ दिन बाद ही तुम इतनी त्रस्त हो जाओगी कि दया की भीख माँगने लगोगी और परमेश्वर में विश्वास जारी नहीं रख पाओगी। तुम परमेश्वर में अपना भरोसा खो बैठोगी और तुम्हारा मन इस शत्रुतापूर्ण द्वंद्व से भरा होगा। यह मांस की चक्की में पिसकर टुकड़े-टुकड़े हो जाने जैसा है, इसमें मनुष्य जैसा कुछ भी नहीं है, तुम पूरी तरह इस दलदल में फँस चुकी होगी, जब तक कि आखिर में तुम्हारा हश्र उसी शैतान जैसा नहीं हो जाता जिससे तुमने शादी की है, और तुम्हारा जीवन वहीं खत्म हो जाएगा।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (10)

क्या शादी के बाद वैवाहिक सुख की तलाश लोगों के जीवन का लक्ष्य नहीं होना चाहिए? क्या इसका परमेश्वर द्वारा निर्धारित शादी के मकसद से कोई लेना-देना है? (नहीं।) परमेश्वर ने मनुष्य के लिए शादी की व्यवस्था की है, और उसने तुम्हें ऐसा परिवेश भी दिया है जहाँ तुम शादी के ढाँचे में रहकर एक पुरुष या महिला का कर्तव्य निभा सकते हो। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था की है, यानी उसने तुम्हें एक जीवनसाथी दिया है। यह साथी जीवनभर तुम्हारा साथ देगा और जीवन की हर अवस्था में तुम्हारे साथ रहेगा। “साथ” से मेरा क्या मतलब है? मेरा कहने का मतलब है कि तुम्हारा जीवनसाथी तुम्हारी मदद और देखभाल करेगा, और तुम्हारे साथ मिलकर जीवन की हर मुश्किल का सामना करेगा। यानी, तुम्हारे सामने चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, तुम उनका सामना अकेले नहीं करोगे, बल्कि तुम दोनों मिलकर उनका सामना करोगे। इस तरह से जीने से जीवन कुछ हद तक आसान और अधिक सुकून भरा हो जाता है, जहाँ दोनों लोग अपने-अपने काम करते हैं और दोनों अपने-अपने कौशल और गुणों का उपयोग करते हुए अपना जीवन शुरू करते हैं। कितनी सरल बात है। लेकिन, परमेश्वर ने कभी लोगों से यह कहकर अपेक्षा नहीं रखी, “मैंने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था की है। अब तुम शादीशुदा हो तो तुम्हें मरते दम तक अपने जीवनसाथी से प्यार करना और उसे खुश रखना होगा—यही तुम्हारा मकसद है।” परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था की है, एक जीवनसाथी दिया है, और जीवन जीने का एक अलग परिवेश दिया है। जीवन के ऐसे माहौल और हालात में, वह निश्चित करता है कि तुम्हारा जीवनसाथी तुम्हारे साथ सब कुछ साझा करे और तुम्हारे साथ मिलकर हर मुश्किल का सामना करे, ताकि तुम ज्यादा आजादी से और आराम से जीवन जी सको, और इसी के साथ वह तुम्हें जीवन की एक अलग अवस्था का आकलन करने देता है। हालाँकि, परमेश्वर ने तुम्हें शादी के लिए बेचा नहीं है। मेरे कहने का क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि परमेश्वर ने तुमसे तुम्हारा जीवन, तुम्हारा भाग्य, तुम्हारा मकसद, तुम्हारे जीवन का मार्ग, तुम्हारे जीवन की दिशा और तुम्हारी आस्था छीनकर सब कुछ निर्धारित करने का जिम्मा तुम्हारे जीवनसाथी को नहीं सौंप दिया है। उसने यह नहीं कहा कि एक महिला का भाग्य, लक्ष्य, जीवन पथ और जीवन के प्रति नजरिया उसका पति तय करेगा या किसी पुरुष का भाग्य, लक्ष्य, जीवन के प्रति नजरिया और उसके जीवन की दिशा उसकी पत्नी तय करेगी। परमेश्वर ने कभी भी ऐसी बातें नहीं कही हैं और चीजों को इस तरह से निर्धारित नहीं किया है। बताओ, जब परमेश्वर ने मानवजाति के लिए शादी की व्यवस्था रखी थी तो क्या उसने ऐसा कुछ कहा था? (नहीं।) परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा कि वैवाहिक सुख की तलाश एक महिला या पुरुष के जीवन का लक्ष्य होना चाहिए, और यह कि तुम्हें अपने जीवन का मकसद पूरा करने और एक सृजित प्राणी जैसा आचरण करने के लिए अपनी शादी की खुशी को बनाए रखना होगा—परमेश्वर ने कभी ऐसी कोई बात नहीं कही। परमेश्वर ने यह भी नहीं कहा, “तुम्हें शादी के ढाँचे में रहकर अपने जीवन का मार्ग चुनना होगा। तुम्हें उद्धार प्राप्त होगा या नहीं, यह तुम्हारी शादी और तुम्हारा जीवनसाथी तय करेंगे। जीवन और भाग्य के प्रति तुम्हारा नजरिया तुम्हारा जीवनसाथी तय करेगा।” क्या परमेश्वर ने कभी ऐसी बात कही है? (नहीं।) परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था की और तुम्हें एक जीवनसाथी दिया है। शादी के बाद भी परमेश्वर के समक्ष तुम्हारी पहचान और दर्जा नहीं बदलता है—तुम अब भी तुम ही हो। अगर तुम महिला हो तो शादी के बाद भी तुम परमेश्वर के सामने एक महिला ही रहोगी; अगर तुम पुरुष हो तो शादी के बाद भी परमेश्वर के सामने तुम एक पुरुष ही रहोगे। लेकिन तुम दोनों के बीच एक चीज समान है, और वह यह है कि चाहे तुम पुरुष हो या महिला, तुम सभी सृष्टिकर्ता के सामने एक सृजित प्राणी हो। शादी के ढाँचे में, तुम एक-दूसरे से प्यार करते हो और एक-दूसरे के प्रति सहनशील रहते हो, तुम एक दूसरे की मदद और सहयोग करते हो, और यही तुम्हारे लिए जिम्मेदारियाँ निभाना है। लेकिन, परमेश्वर के सामने, जो जिम्मेदारियाँ तुम्हें निभानी चाहिए और जो मकसद तुम्हें पूरा करना चाहिए उसकी जगह अपने साथी के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियाँ नहीं ले सकती हैं। इसलिए, जब भी अपने साथी के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों और परमेश्वर के समक्ष रहकर एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारियों को निभाने के बीच टकराव की स्थिति हो, तो तुम्हें अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के बजाय एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए। तुम्हें यही दिशा और यही लक्ष्य चुनना चाहिए, और बेशक, यही मकसद पूरा करना चाहिए। हालाँकि, कुछ लोग गलती से वैवाहिक सुख की तलाश, या अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने, उसका ध्यान रखने, उसकी देखभाल करने और उससे प्यार करने को अपने जीवन का मकसद बना लेते हैं, और वे अपने साथी को अपना आसमान, अपनी नियति बना लेते हैं—यह गलत है। तुम्हारी नियति परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, इसमें तुम्हारा साथी कुछ नहीं कर सकता। शादी तुम्हारी नियति नहीं बदल सकती, और न ही वह इस तथ्य को बदल सकती है कि तुम्हारी नियति परमेश्वर तय करता है। जीवन के प्रति तुम्हारा जो नजरिया होना चाहिए और तुम्हें जिस मार्ग पर चलना चाहिए, वो तुम्हें परमेश्वर की शिक्षाओं और अपेक्षाओं के वचनों में खोजना चाहिए। ये चीजें तुम्हारे साथी पर निर्भर नहीं हैं और इन्हें तय करना उसके हाथ में नहीं है। उसे बस तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, उसका तुम्हारे भाग्य पर कोई काबू नहीं होना चाहिए, और न ही उसे तुमसे अपने जीवन की दिशा बदलने की माँग करनी चाहिए, उसे यह तय नहीं करना चाहिए कि तुम किस मार्ग पर चलोगे, जीवन के प्रति तुम्हारा नजरिया क्या रहेगा; तुम्हें उद्धार पाने से रोकना या बाधित करना तो दूर रहा। जहाँ तक शादी की बात है, लोगों को बस इसे परमेश्वर की व्यवस्था मानकर मनुष्य के लिए निर्धारित शादी की परमेश्वर की परिभाषा के अनुरूप चलना चाहिए, जहाँ पति-पत्नी दोनों ही एक-दूसरे के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरा करेंगे। वे अपने साथी की नियति, उसका पिछला जीवन, वर्तमान जीवन या अगला जीवन तय नहीं कर सकते, शाश्वत जीवन की तो बात छोड़ ही दो। तुम्हारी मंजिल, तुम्हारी नियति, और तुम्हारे जीवन का मार्ग केवल सृष्टिकर्ता तय कर सकता है। इसलिए, एक सृजित प्राणी होने के नाते, चाहे तुम्हारी भूमिका पत्नी की हो या पति की, तुम्हारे जीवन की खुशियाँ एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने और एक सृजित प्राणी का मकसद पूरा करने से ही आती हैं। सिर्फ शादी कर लेने से खुशियाँ नहीं मिल जाती हैं, और शादी के ढाँचे में रहकर एक पत्नी या पति की जिम्मेदारियाँ निभाने से तो बिल्कुल भी नहीं मिलती हैं। बेशक, जीवन में जो मार्ग तुम चुनते हो और जो नजरिया अपनाते हो, वह वैवाहिक सुख पर आधारित नहीं होना चाहिए; यह पति-पत्नी में से किसी एक के द्वारा निर्धारित तो बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए—यह बात तुम्हें समझनी होगी। इसलिए, जो लोग शादी करने के बाद केवल वैवाहिक सुख की तलाश करते हैं और इस तलाश को ही अपना मकसद मानते हैं उन्हें ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों को त्याग देना चाहिए, और अपने अभ्यास का तरीका और जीवन की दिशा बदलनी चाहिए। तुम बस परमेश्वर के विधान के अनुसार शादी करके अपने साथी के साथ जीवन जी रहे हो, और एक साथ जीवन बिताते हुए पत्नी या पति की जिम्मेदारियाँ निभाना पर्याप्त है। जहाँ तक यह सवाल है कि तुम किस मार्ग पर चलते हो और जीवन के प्रति क्या नजरिया अपनाते हो, इसका तुम्हारे साथी पर कोई दायित्व नहीं है और उसे इन चीजों का फैसला करने का कोई अधिकार नहीं है। भले ही तुम शादीशुदा हो और तुम्हारा एक जीवनसाथी है, तुम्हारा तथाकथित जीवनसाथी सिर्फ एक पत्नी या पति होने का वह अर्थ रखता है जो परमेश्वर ने निर्धारित किया है। वे केवल पत्नी या पति होने की जिम्मेदारियाँ निभा सकते हैं, और तुम सिर्फ उन चीजों को चुन सकते हो और उनका फैसला कर सकते हो जो तुम्हारे जीवनसाथी से संबंधित नहीं हैं। बेशक, इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि तुम्हारी पसंद और फैसले अपनी प्राथमिकताओं और समझ पर आधारित नहीं होने चाहिए, बल्कि परमेश्वर के वचनों पर आधारित होने चाहिए। क्या तुम इस मामले पर की गई संगति को समझ रहे हो? (हाँ।) इसलिए, शादी के ढाँचे में किसी भी कीमत पर वैवाहिक सुख की तलाश करने वाले पति या पत्नी का कोई भी कार्य या कोई भी त्याग परमेश्वर याद नहीं रखेगा। चाहे तुम कितने ही अच्छे से या कितने ही सटीक तरीके से अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाओ, या अपने साथी की उम्मीदों पर खरा उतरो—दूसरे शब्दों में, चाहे तुम कितने ही अच्छे से या कितने ही सटीक तरीके से अपना वैवाहिक सुख बनाए रखते हो, या चाहे यह कितना ही बेहतरीन हो—इसका मतलब यह नहीं है कि तुमने एक सृजित प्राणी का मकसद पूरा कर लिया है, और न ही इससे साबित होता है कि तुम ऐसे सृजित प्राणी हो जो मानक अनुरूप है। हो सकता है कि तुम एक आदर्श पत्नी या एक आदर्श पति हो, लेकिन यह बस शादी के ढाँचे तक ही सीमित है। तुम कैसे इंसान हो, सृष्टिकर्ता इसे इस आधार पर मापता है कि तुम उसके समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभाते हो, तुम किस मार्ग पर चलते हो, जीवन के प्रति तुम्हारा नजरिया क्या है, जीवन में तुम किस चीज का अनुसरण करते हो, और एक सृजित प्राणी होने का मकसद कैसे पूरा करते हो। इन चीजों को ध्यान में रखते हुए परमेश्वर एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे द्वारा अपनाया गया मार्ग और तुम्हारी मंजिल निर्धारित करता है। वह इन चीजों को इस आधार पर नहीं मापता है कि तुम पत्नी या पति के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को कैसे पूरा करते हो; न ही इस आधार पर कि अपने साथी के प्रति तुम्हारा प्यार परमेश्वर को खुश रखता है या नहीं।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (11)

हम वैवाहिक सुख के अनुसरण को त्यागने के बारे में संगति इसलिए नहीं कर रहे कि तुम शादी को ही त्याग दो, न ही इसका मकसद तुम्हें तलाक लेने के लिए उकसाना है, बल्कि हम यह संगति इसलिए कर रहे हैं ताकि तुम वैवाहिक सुख के संबंध में अपनी सभी इच्छाओं को त्याग दो। सबसे पहले, तुम्हें उन विचारों को त्याग देना चाहिए जो तुम्हारे वैवाहिक सुख के अनुसरण में तुम पर हावी हैं, और फिर तुम्हें वैवाहिक सुख के पीछे भागने के अभ्यास को त्यागकर अपना ज्यादातर समय और ऊर्जा एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने और सत्य के अनुसरण में लगाना चाहिए। जहाँ तक शादी की बात है, अगर यह तुम्हारे सत्य के अनुसरण में बाधा नहीं डालती या उसके आड़े नहीं आती है, तो तुम्हें जो दायित्व पूरे करने चाहिए, जो मकसद पूरा करना चाहिए, और शादी के ढांचे के भीतर तुम्हें जो भूमिका निभानी चाहिए, वह नहीं बदलेगी। इसलिए, तुम्हें वैवाहिक सुख का अनुसरण त्यागने के लिए कहने का मतलब यह नहीं है कि तुम औपचारिकता के चक्कर में शादी को ही त्याग दो या तलाक ले लो, बल्कि इसका मतलब एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें अपना मकसद पूरा करने और वह कर्तव्य निभाने के लिए कहना है जो तुम्हें शादी में निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों को पूरा करने के आधार पर निभाना चाहिए। बेशक, अगर तुम्हारा वैवाहिक सुख का अनुसरण एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित, बाधित या यहाँ तक कि उसे बर्बाद करता है, तो तुम्हें न सिर्फ वैवाहिक सुख के अनुसरण को, बल्कि अपनी पूरी शादी को ही त्याग देना चाहिए। इन समस्याओं पर संगति करने का अंतिम उद्देश्य और अर्थ क्या है? यह कि वैवाहिक सुख तुम्हारे कदमों को न रोके, तुम्हारे हाथ न बाँधे, तुम्हारी आँखों पर पर्दा न डाले, तुम्हारी दृष्टि विकृत न करे, तुम्हें परेशान न करे और तुम्हारे दिमाग को काबू न करे; यह संगति इसलिए है ताकि तुम्हारा जीवन और जीवन पथ वैवाहिक सुख के अनुसरण से न अट जाए, और ताकि तुम शादी में पूरी की जाने वाली जिम्मेदारियों और दायित्वों के प्रति सही रवैया अपना सको और उन जिम्मेदारियों और दायित्वों के संबंध में, जो तुम्हें पूरे करने चाहिए, उनके बारे में सही फैसले ले सको। अभ्यास करने का एक बेहतर तरीका यह है कि तुम अपना ज्यादा समय और ताकत अपना कर्तव्य निभाने में लगाओ, वह कर्तव्य निभाओ जो तुम्हें निभाना चाहिए, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए मकसद को पूरा करो। तुम्हें कभी नहीं भूलना चाहिए कि तुम एक सृजित प्राणी हो, परमेश्वर ने ही तुम्हें जीवन के इस पड़ाव पर लाकर खड़ा किया है, वह परमेश्वर ही है जिसने तुम्हें शादी की व्यवस्था दी, एक परिवार दिया और वो जिम्मेदारियाँ सौंपी जो तुम्हें शादी के ढांचे के भीतर निभानी चाहिए, और कि वह तुम नहीं हो जिसने तुम्हारी शादी तय की है, या ऐसा नहीं है कि तुम्हारी शादी बस यूँ ही हो गई, या फिर तुम अपनी क्षमताओं और ताकत के भरोसे अपने वैवाहिक सुख को बरकरार रख सकते हो। क्या अब मैंने इसे स्पष्ट रूप से समझा दिया है? (हाँ।) क्या तुम समझते हो कि तुम्हें क्या करना है? क्या अब तुम्हारा मार्ग स्पष्ट है? (हाँ।) अगर वैवाहिक जीवन में तुम्हारी जिम्मेदारियों और दायित्वों और एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे कर्तव्य और मकसद के बीच कोई टकराव या विरोधाभास नहीं है, तो ऐसी परिस्थिति में तुम्हें शादी के ढाँचे के भीतर जरूरत के मुताबिक अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, उन्हें अच्छे से पूरा करना चाहिए, वे जिम्मेदारियाँ उठानी चाहिए जो तुम्हें उठानी हैं और उनसे भागने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। तुम्हें अपने साथी की, उसके जीवन की, उसकी भावनाओं और उसके बारे में हर चीज की जिम्मेदारी लेनी होगी। हालाँकि, जब शादी के ढाँचे के भीतर तुम्हारे द्वारा निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों और दायित्वों और एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे मकसद और कर्तव्य के बीच कोई टकराव होता है, तो तुम्हें अपना कर्तव्य या मकसद नहीं बल्कि शादी के ढांचे के भीतर अपनी जिम्मेदारियों को त्याग देना चाहिए। परमेश्वर तुमसे यही अपेक्षा करता है, यह तुम्हारे लिए परमेश्वर का आदेश है और बेशक, हर पुरुष और महिला से परमेश्वर यही अपेक्षा करता है। जब तुम यह सब करने में सक्षम होगे तभी सत्य और परमेश्वर का अनुसरण करोगे। अगर तुम इसमें सक्षम नहीं हो और इस तरह से अभ्यास नहीं कर सकते, तो तुम बस नाममात्र के विश्वासी हो, तुम सच्चे दिल से परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, और सत्य का अनुसरण करने वालों में से भी नहीं हो। अब तुम्हारे पास अपना कर्तव्य निभाने के लिए चीन छोड़ने का अवसर और परिस्थिति है, और कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए चीन छोड़ता हूँ, तो मुझे अपने जीवनसाथी को घर पर छोड़ना होगा। क्या हम फिर कभी एक-दूसरे को नहीं देख पाएँगे? क्या हमें अलग नहीं रहना पड़ेगा? क्या हमारी शादी खत्म नहीं हो जाएगी?” कुछ लोग सोचते हैं, “अरे, मेरी जीवनसाथी मेरे बिना कैसे जिएगी? अगर मैं वहाँ नहीं हुआ तो क्या हमारी शादी टूट नहीं जाएगी? क्या हमारी शादी टूट जाएगी? फिर मैं भविष्य में क्या करूँगा?” क्या तुम्हें भविष्य की चिंता करनी चाहिए? तुम्हें सबसे ज्यादा किस बात की चिंता करनी चाहिए? अगर तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति बनना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे ज्यादा चिंता यह करनी चाहिए कि उस चीज को कैसे त्याग सको जिसे त्यागने के लिए परमेश्वर तुमसे कहता है और उस मकसद को कैसे पूरा कर सको जिसे परमेश्वर तुम्हें पूरा करने के लिए कहता है। अगर भविष्य में तुम्हें बिना शादी के और बिना अपने साथी के रहना है, तो आने वाले दिनों में भी तुम इतनी ही अच्छी तरह से बुढ़ापे तक जीवित रह सकते हो। हालाँकि, अगर तुम यह अवसर छोड़ देते हो, तो यह तुम्हारे कर्तव्य और उस मकसद को त्यागने के समान है जो परमेश्वर ने तुम्हें सौंपा है। परमेश्वर के लिए, तब तुम ऐसे व्यक्ति नहीं रहोगे जो सत्य का अनुसरण करता है, जो वास्तव में परमेश्वर को चाहता है, या जो उद्धार पाना चाहता है। अगर तुम सक्रियता से उद्धार पाने और अपना मकसद पूरा करने का अपना अवसर और अधिकार त्यागना चाहते हो और इसके बजाय शादी को चुनते हो, पति-पत्नी की तरह साथ रहने का फैसला करते हो, अपने जीवनसाथी के साथ रहना और उसे संतुष्ट करना चुनते हो, और अपनी शादी को बरकरार रखना चाहते हो, तो अंत में तुम कुछ चीजें हासिल करोगे और कुछ चीजें खो दोगे। तुम्हें अंदाजा तो है न कि तुम क्या खो दोगे? शादी तुम्हारा सब कुछ नहीं है, न ही वैवाहिक सुख तुम्हारा सब कुछ है—यह तुम्हारी किस्मत तय नहीं कर सकता, यह तुम्हारा भविष्य भी तय नहीं कर सकता, तो फिर तुम्हारी मंजिल तय करना तो दूर की बात है। तो, लोगों को क्या फैसला करना चाहिए, और क्या उन्हें वैवाहिक सुख का अनुसरण त्यागकर एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए, यह उन पर निर्भर करता है।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (10)

परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था सिर्फ इसलिए की है ताकि तुम अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना सीख सको, किसी दूसरे इंसान के साथ शांतिपूर्ण ढंग से रह सको और मिलकर जीवन बिता सको, और इसका अनुभव कर सको कि अपने जीवनसाथी के साथ जीवन बिताना कैसा होता है, और तुम एक साथ मिलकर सभी तरह के हालात का सामना कैसे कर सकते हो, जिससे तुम्हारा जीवन पहले से अधिक समृद्ध और अलग हो जाए। लेकिन, वह तुम्हें शादी की भेंट नहीं चढ़ाता है, और बेशक, वह तुम्हें तुम्हारे साथी के हाथों बेचता भी नहीं है ताकि तुम उसकी गुलामी करो। तुम उसके गुलाम नहीं हो, और वह तुम्हारा मालिक नहीं है। तुम दोनों बराबर हो। तुम्हें अपने साथी के प्रति सिर्फ एक पत्नी या पति की जिम्मेदारियाँ निभानी हैं, और जब तुम ये जिम्मेदारियाँ निभाते हो, तो परमेश्वर तुम्हें एक संतोषजनक पत्नी या पति मानता है। तुम्हारे साथी के पास ऐसा कुछ नहीं है जो तुम्हारे पास नहीं है, और तुम अपने साथी से कमतर तो बिल्कुल नहीं हो। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास और सत्य का अनुसरण करते हो, अपना कर्तव्य निभा सकते हो, अक्सर सभाओं में हिस्सा ले सकते हो, परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए प्रार्थना कर सकते हो और परमेश्वर के समक्ष आ सकते हो, तो ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर स्वीकार करता है और ये वही चीजें हैं जो एक सृजित प्राणी को करनी चाहिए और एक सृजित प्राणी को ऐसा ही सामान्य जीवन जीना चाहिए। इसमें शर्म की कोई बात नहीं है, और न ही इस तरह का जीवन जीने के लिए तुम्हें अपने साथी का ऋणी महसूस करना चाहिए—तुम उसके ऋणी नहीं हो। पत्नी होने के नाते अगर तुम चाहो, तो तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में अपने साथी को गवाही देने का दायित्व निभा सकती हो। हालाँकि, अगर वह परमेश्वर में विश्वास नहीं करता है, और तुम्हारे चुने हुए मार्ग पर नहीं चलता है, तो तुम्हें अपनी आस्था या अपने चुने हुए मार्ग के बारे में उसे कोई जानकारी देने या कुछ समझाने की जरूरत नहीं है, न तो तुम पर इसकी कोई जिम्मेदारी है और न ही उसे यह सब जानने का हक है। तुम्हारा समर्थन करना, तुम्हें प्रोत्साहित करना और तुम्हारी ढाल बनकर खड़े रहना उसकी जिम्मेदारी और दायित्व है। अगर वह इतना भी नहीं कर सकता, तो उसमें मानवता नहीं है। ऐसा क्यों? क्योंकि तुम सही मार्ग पर चल रही हो, और तुम्हारे सही मार्ग पर चलने के कारण ही तुम्हारे परिवार और तुम्हारे जीवनसाथी को आशीष मिली है और वह तुम्हारे साथ परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठा रहा है। तुम्हारे साथी को इसके लिए तुम्हारा आभारी होना चाहिए; ऐसा नहीं वह तुम्हारे खिलाफ भेदभाव करने लगे या तुम्हारी आस्था के कारण या तुम्हें सताए जाने के कारण तुम्हें धमकाए या फिर यह माने कि तुम्हें घर के काम और दूसरी चीजों में अधिक ध्यान देना चाहिए या यह कि तुम उसकी कर्जदार हो। तुम भावनात्मक या आध्यात्मिक रूप से या किसी अन्य तरीके से उसकी ऋणी नहीं हो—उल्टा वही तुम्हारा ऋणी है। परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के कारण ही उसे परमेश्वर के अतिरिक्त अनुग्रह और आशीष का आनंद उठा रहा है, और उसे ये चीजें असाधारण रूप से मिलती हैं। “उसे ये चीजें असाधारण रूप से मिलती हैं” से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि ऐसे व्यक्ति को ये चीजें पाने का कोई हक नहीं है और उसे यह सब नहीं मिलना चाहिए। उसे यह सब क्यों नहीं मिलना चाहिए? क्योंकि वह परमेश्वर का अनुसरण नहीं करता या परमेश्वर को स्वीकार नहीं करता, इसलिए जिस अनुग्रह का वह आनंद लेता है वह परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के कारण आता है। वह तुम्हारे साथ रहकर फायदा उठाता है और तुम्हारे साथ ही आशीष पाता है, और इसके लिए उसे तुम्हारा आभारी होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, क्योंकि वह इन अतिरिक्त आशीषों और इस अनुग्रह का आनंद लेता है, तो उसे अपनी जिम्मेदारियाँ अधिक निभानी चाहिए और परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का अधिक समर्थन करना चाहिए। घर में एक इंसान परमेश्वर में विश्वास करता है, तो कुछ लोगों का पारिवारिक व्यवसाय अच्छा चलता है और वे बहुत कामयाब होते हैं। वे बहुत पैसा कमाते हैं, उनका परिवार अच्छा जीवन जीता है, उनकी संपत्ति बढ़ती है, और उनका जीवन स्तर उन्नत होता है—ये सब चीजें कैसे आईं? अगर तुममें से कोई परमेश्वर में विश्वास नहीं करता, तो क्या तुम्हारे परिवार को यह सब कुछ मिलता? कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर ने उनका समृद्ध भाग्य निर्धारित किया है।” बात तो सही है कि यह परमेश्वर ने निर्धारित किया है, लेकिन अगर उनके परिवार में परमेश्वर में विश्वास करने वाला वह एक इंसान नहीं होता, तो उनका व्यवसाय इतना शानदार और धन्य नहीं होता। क्योंकि उनके परिवार का एक सदस्य परमेश्वर में विश्वास करता है, क्योंकि परमेश्वर में विश्वास करने वाले उस एक सदस्य की आस्था सच्ची है, वह ईमानदारी से अनुसरण करता है, और वह खुद को परमेश्वर के प्रति समर्पित करने और खपाने के लिए तैयार है, तो उसके अविश्वासी जीवनसाथी को भी असाधारण रूप से अनुग्रह और आशीष मिलती है। परमेश्वर के लिए यह छोटी सी चीज है। अविश्वासी इसके बाद भी संतुष्ट नहीं होते, वे तो परमेश्वर के विश्वासियों को दबाते और धमकाते भी हैं। देश और समाज विश्वासियों पर जैसा अत्याचार करता है वह पहले से ही उनके लिए एक आपदा है, और फिर भी उनके परिवार वाले उन पर दबाव बनाने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में, अगर तुम्हें अब भी लगता है कि तुम उन्हें निराश कर रहे हो और अपनी शादी के गुलाम बनने को तैयार हो, तो तुम्हें ऐसा बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का समर्थन नहीं करते, तो कोई बात नहीं; वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का बचाव नहीं करते हैं, तब भी कोई बात नहीं। वे ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन, उन्हें इसलिए तुम्हारे साथ गुलाम जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो। तुम गुलाम नहीं हो, एक मनुष्य हो, एक गरिमामय और ईमानदार व्यक्ति हो। कम से कम, परमेश्वर के सामने तुम एक सृजित प्राणी हो, किसी के गुलाम नहीं। अगर तुम्हें गुलाम बनना ही है, तो सत्य का गुलाम बनो, परमेश्वर का गुलाम बनो, किसी व्यक्ति का गुलाम मत बनो, और अपने जीवनसाथी को अपना मालिक को बिल्कुल मत मानो। दैहिक रिश्तों के मामले में, तुम्हारे माता-पिता के अलावा, इन संसार में तुम्हारे सबसे करीब तुम्हारा जीवनसाथी ही है। फिर भी परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास के कारण तुम्हें वे दुश्मन मानते हैं और तुम पर हमले और अत्याचार करते हैं। वे तुम्हारे सभा में जाने का विरोध करते हैं, कोई अफवाह सुनने को मिल जाए तो वे घर आकर तुम्हें डाँटते हैं और तुम्हारे साथ बुरा बर्ताव करते हैं। यहाँ तक कि जब तुम घर पर परमेश्वर के वचन पढ़ते या प्रार्थना करते हो और उनके सामान्य जीवन में कोई दखल नहीं देते, तब भी वे तुम्हें फटकारेंगे और तुम्हारा विरोध करेंगे, और तुम्हें पीटेंगे भी। बताओ, यह सब क्या है? क्या वे राक्षस नहीं हैं? क्या यह वही व्यक्ति है जो तुम्हारे सबसे करीब है? क्या ऐसा व्यक्ति इस लायक है कि तुम उसके प्रति अपनी कोई भी जिम्मेदारी निभाओ? (नहीं।) नहीं, वह इस लायक नहीं है! और इसलिए, ऐसा शादीशुदा जीवन जीने वाले कुछ लोग अभी भी अपने साथी के इशारों पर नाचते हैं, सब कुछ त्यागने को तैयार रहते हैं, वे अपना कर्तव्य निभाने में दिया जाने वाला समय, अपना कर्तव्य निभाने का अवसर, और यहाँ तक कि अपना उद्धार पाने का मौका भी त्यागने को तैयार होते हैं। उन्हें ये चीजें नहीं करनी चाहिए और कम से कम उन्हें ऐसे विचारों को पूरी तरह त्याग देना चाहिए। परमेश्वर का ऋणी होने के अलावा, लोग किसी और के ऋणी नहीं हैं। तुम पर अपने माता-पिता, अपने पति, अपनी पत्नी, अपने बच्चों का कोई कर्ज नहीं है, और दोस्तों का तो बिल्कुल भी नहीं है—तुम किसी के भी ऋणी नहीं हो। लोगों के पास जो कुछ भी है सब परमेश्वर से आता है, उनकी शादी भी। अगर हम ऋणी होने की बात करें, तो लोग सिर्फ परमेश्वर के ऋणी हैं। बेशक, परमेश्वर यह माँग नहीं करता कि तुम उसका कर्ज उतारो, वह बस इतना चाहता है कि तुम जीवन में सही मार्ग पर चलो। शादी को लेकर परमेश्वर का सबसे बड़ा इरादा यह है कि तुम अपनी शादी के कारण अपनी गरिमा और ईमानदारी मत गँवाओ, ऐसे इंसान मत बनो जिसके पास अनुसरण का कोई सही मार्ग न हो, जीवन के प्रति कोई नजरिया या अनुसरण के लिए कोई दिशा न हो, और तुम ऐसे व्यक्ति मत बनो जो अपनी शादी का गुलाम बनने के लिए सत्य का अनुसरण करना छोड़ दे, उद्धार पाने का मौका गँवा दे, और परमेश्वर के दिए हुए किसी भी आदेश या मकसद को त्याग दे। अगर तुम अपनी शादी इस तरह संभालते हो, तो तुम्हारा शादी न करना और अकेले जीवन जीना ही बेहतर होता। अगर तुम सब कुछ करने के बाद भी शादी की ऐसी परिस्थिति या ढाँचे से खुद को मुक्त नहीं कर सकते, तो फिर इस शादी को पूरी तरह खत्म कर देना ही सबसे अच्छा रहेगा, और तुम्हारा एक आजाद पंछी की तरह जीना बेहतर होगा। जैसा कि मैंने कहा है, शादी की व्यवस्था करने के पीछे परमेश्वर का इरादा यह है कि तुम्हें एक जीवनसाथी मिले और तुम अपने साथी के साथ मिलकर जीवन के सभी उतार-चढ़ावों का सामना करो और जीवन के हर पड़ाव से गुजरो, ताकि तुम जीवन के हर पड़ाव में अकेले न रहो, कोई तुम्हारे साथ हो, कोई ऐसा हो जिसे तुम अपने मन की बातें बता सको, और जो तुम्हें सुकून दे और तुम्हारी देखरेख कर सके। लेकिन, परमेश्वर तुम्हें या तुम्हारे हाथ-पैर बाँधने के लिए शादी का इस्तेमाल नहीं करता, जिससे कि तुम्हारे पास अपना मार्ग चुनने का कोई हक ही नहीं हो और तुम्हें शादी का गुलाम बनना पड़े। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी निर्धारित की है और एक जीवनसाथी की व्यवस्था की है; उसने तुम्हारे लिए कोई मालिक नहीं ढूँढा है, और न ही वह चाहता है कि तुम अपने अनुसरण, अपने जीवन के लक्ष्यों, अपने अनुसरण के लिए सही दिशा और उद्धार पाने के अधिकार के बिना शादी के दायरे तक ही सीमित रहो। इसके विपरीत, चाहे तुम शादीशुदा हो या नहीं हो, परमेश्वर ने तुम्हें जो सबसे बड़ा अधिकार दिया है, वह है अपने जीवन के लक्ष्यों का अनुसरण करना, जीवन के प्रति सही नजरिया अपनाना और उद्धार पाने की कोशिश करना। कोई तुमसे यह अधिकार नहीं छीन सकता और कोई इसमें दखल नहीं दे सकता, तुम्हारा जीवनसाथी भी नहीं। तो, तुम लोगों में से जो अपनी शादी में गुलामों की भूमिका निभाते हैं उन्हें ऐसे जीना छोड़ देना चाहिए, अपनी शादी में गुलामी करने की चाह से संबंधित विचारों और अभ्यासों को त्याग देना चाहिए, और इन हालात को पीछे छोड़ देना चाहिए। अपने जीवनसाथी के सामने बेबस मत हो, और न ही अपने साथी की भावनाओं, विचारों, बातों, रवैयों या यहाँ तक कि उनके कार्यों से प्रभावित, सीमित या बाधित हो। ये सब पीछे छोड़ो और साहसी बनकर परमेश्वर पर भरोसा करो। तुम जब चाहो तब परमेश्वर के वचन पढ़ो, जब तुम्हें सभाओं में जाना चाहिए तब सभाओं में जाओ, क्योंकि तुम एक मनुष्य हो, कोई कुत्ता नहीं, और तुम्हें अपने व्यवहार पर नियंत्रण रखने या अपने जीवन पर अंकुश लगाने या काबू रखने के लिए किसी की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारे पास जीवन में अपना लक्ष्य और दिशा निर्धारित करने का अधिकार है—यह अधिकार तुम्हें परमेश्वर ने दिया है, और खासकर, तुम सही मार्ग पर चल रहे हो। सबसे अहम बात यह है कि जब परमेश्वर के घर को कोई कार्य करने के लिए तुम्हारी जरूरत पड़े, जब परमेश्वर का घर तुम्हें कोई कर्तव्य सौंपे, तो तुम्हें बिना कुछ सोचे-विचारे सब कुछ त्यागकर वह कर्तव्य निभाना चाहिए जो तुम्हें निभाना है और परमेश्वर का दिया हुआ मकसद पूरा करना चाहिए। अगर इस कार्य के लिए तुम्हें दस दिन या एक महीने के लिए घर छोड़ना पड़ता है, तो तुम्हें अच्छी तरह अपना यह कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर का दिया हुआ आदेश पूरा करना चाहिए और परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करना चाहिए—सत्य का अनुसरण करने वालों के पास यही रवैया, दृढ़ संकल्प, और इच्छा होनी चाहिए। अगर इस काम के लिए तुम्हें छह महीने, एक साल या न जाने कितने वक्त के लिए दूर रहना पड़ता है, तो तुम्हें कर्तव्यनिष्ठा से अपने परिवार और अपने पति या पत्नी को त्याग देना चाहिए और जाकर परमेश्वर का दिया हुआ मकसद पूरा करना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि यही वह समय है जब परमेश्वर के घर के कार्य और तुम्हारे कर्तव्य को तुम्हारी सबसे ज्यादा जरूरत है, न कि तुम्हारी शादी या तुम्हारे साथी को। इसलिए, तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि तुम शादीशुदा हो तो तुम्हें अपनी शादी की गुलामी करनी है, या अगर तुम्हारी शादी खत्म हो जाती या टूट जाती है तो यह शर्मिंदगी की बात है। वास्तव में, यह कोई शर्मिंदगी की बात नहीं है, और तुम्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि तुम्हारी शादी किन परिस्थितियों में टूटी थी और परमेश्वर की व्यवस्था क्या थी। अगर यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित और नियंत्रित था, और इसमें इंसान का कोई हाथ नहीं था, तो यह बहुत अच्छी बात है; तुम्हारा सिर्फ एक मकसद से यानी परमेश्वर को संतुष्ट करके एक सृजित प्राणी के रूप में अपना मकसद पूरा करने के लिए अपनी शादी को त्याग देना सम्मान की बात है। परमेश्वर इसे याद रखेगा और उसे यह स्वीकार्य होगा, और इसीलिए मैं कहता हूँ कि यह बहुत अच्छी बात है, कोई शर्मिंदगी की बात नहीं! भले ही कुछ लोगों की शादियाँ इसलिए टूटती हैं क्योंकि उनका साथी उन्हें छोड़ देता है और उन्हें धोखा देता है—आम बोलचाल की भाषा में कहें, तो उन्हें लात मारकर निकाल दिया जाता है—यह कोई शर्मिंदगी की बात नहीं है। बल्कि, तुम्हें कहना चाहिए, “यह मेरे लिए सम्मान की बात है। ऐसा क्यों? क्योंकि मेरी शादी उस मुकाम तक पहुँचकर उस तरह से खत्म हुई जो परमेश्वर द्वारा निर्धारित और नियंत्रित था। परमेश्वर के मार्गदर्शन से ही मैं यह कदम उठा पाई। अगर परमेश्वर ऐसा नहीं करता और उसने मुझे लात मारकर निकाला नहीं होता, तो मेरे पास यह कदम उठाने का विश्वास और साहस नहीं होता। परमेश्वर की संप्रभुता और मार्गदर्शन का धन्यवाद! परमेश्वर की महिमा बनी रहे!” यह एक सम्मान की बात है। सभी प्रकार की शादियों में, तुम्हें ऐसा अनुभव मिल सकता है, तुम परमेश्वर के मार्गदर्शन में सही मार्ग पर चलने का फैसला कर सकती हो, परमेश्वर का दिया गया मकसद पूरा कर सकती हो और ऐसी प्रतिज्ञा और प्रेरणा के साथ ऐसे हालत में अपने साथी को छोड़कर अपनी शादी तोड़ सकती हो, और इसके लिए तुम बधाई की पात्र हो। इसमें कम से कम एक खुशी की बात तो यह है कि अब तुम अपनी शादी की गुलाम नहीं हो। तुम अपनी शादी की गुलामी से बच गई हो, और अपनी शादी की गुलामी की वजह से अब तुम्हें चिंता करने, पीड़ा सहने और संघर्ष करने की कोई जरूरत नहीं है। उसी पल से, तुम बच गई हो, तुम अब आजाद हो, और यह एक अच्छी बात है। इसी के साथ, मैं उम्मीद करता हूँ कि जिनकी शादियाँ पहले बहुत पीड़ादायक ढंग से टूटी हैं और जो अभी भी इस घटना की छाया में जी रहे हैं, वे वास्तव में अपनी शादी और उसकी यादों को भुला सकें, इस शादी ने उन्हें जो नफरत, गुस्सा और पीड़ा दी है उसे त्याग सकें; उन्हें अपने साथी की खातिर किए गए अपने सभी त्यागों और प्रयासों के बदले में बेवफाई, विश्वासघात और उपहास का सामना करना पड़ा हो, तब भी उन्हें अब मन में कोई पीड़ा या गुस्सा नहीं रखना चाहिए। मुझे उम्मीद है कि तुम यह सब भुला दोगे, और इस बात की खुशी मनाओगे कि तुम अब अपनी शादी के गुलाम नहीं हो, जश्न मनाओ कि अब तुम्हें अपनी शादी में अपने मालिक के लिए कुछ भी करने या अनावश्यक त्याग करने की जरूरत नहीं है; बल्कि तुम परमेश्वर के मार्गदर्शन और संप्रभुता में जीवन के सही मार्ग पर चल रहे हो, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा रहे हो, और अब तुम्हें परेशान होने या किसी बात की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। बेशक, अब तुम्हें अपने पति या पत्नी के बारे में सोचने, चिंता करने या बेचैन होने या उसकी यादों में डूबे रहने की कोई जरूरत नहीं है, अब से सब कुछ अच्छा होगा, अब तुम्हें अपने निजी मामलों के बारे में अपने पति या पत्नी से चर्चा नहीं करनी होगी, तुम्हें उससे लाचार महसूस करने की अब कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें बस सत्य खोजना है, और परमेश्वर के वचनों में सिद्धांत और आधार ढूँढना है। तुम आजाद हो चुके हो और अब अपनी शादी के गुलाम नहीं हो। यह सौभाग्य की बात है कि तुमने शादी के उस खौफनाक अनुभव को पीछे छोड़ दिया है, तुम वास्तव में परमेश्वर के समक्ष आए हो, अब अपनी शादी के कारण बाधित नहीं हो, और अब तुम्हारे पास परमेश्वर के वचन पढ़ने, सभाओं में हिस्सा लेने, और आध्यात्मिक भक्ति करने के लिए ज्यादा समय है। तुम पूरी तरह से आजाद हो, तुम्हें अब किसी और की मनोदशा के हिसाब से किसी खास तरीके से काम नहीं करना है; तुम्हें किसी के उपहासपूर्ण ताने सुनने, और किसी की मानसिक स्थिति और भावनाओं का ख्याल रखने की जरूरत नहीं है—तुम अकेले जीवन जी रहे हो, जो बढ़िया है! अब तुम गुलाम नहीं हो, तुम उस माहौल से बाहर निकल सकते हो जहाँ तुम्हें लोगों के प्रति विभिन्न जिम्मेदारियाँ निभानी थीं, अब तुम एक सच्चे सृजित प्राणी बन सकते हो, सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन एक सृजित प्राणी बन सकते हो और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सकते हो—यह सब सच्चे मन से करना कितना शानदार है! तुम्हें अपनी शादी के बारे में दोबारा कभी बहस या चिंता नहीं करनी होगी, परेशान नहीं होना होगा, और उन तकलीफों और विकट परिस्थितियों को बर्दाश्त करना या सहना नहीं होगा, पीड़ा नहीं झेलनी होगी, और दोबारा कभी अपनी शादी को लेकर नाराज नहीं होना होगा, तुम्हें फिर कभी उस घिनौने माहौल और जटिल परिस्थिति में नहीं रहना पड़ेगा। यह बहुत अच्छा है, ये सब अच्छी बातें हैं और सब अच्छा चल रहा है। जब कोई सृष्टिकर्ता के समक्ष आता है, तो वह परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता और बोलता है। सब कुछ सुचारु रूप से चलता है, अब वे बेकार के झगड़े नहीं होते और तुम्हारा दिल शांत हो जाता है। ये सब अच्छी चीजें हैं, लेकिन यह शर्म की बात है कि कुछ लोग अभी भी ऐसे घिनौने वैवाहिक माहौल में गुलाम बने रहने को तैयार हैं, और वे न तो इससे बचकर निकल पाते हैं या न ही इसे छोड़ पाते हैं। जो भी हो, मुझे अभी भी उम्मीद है कि भले ही ये लोग अपनी शादियाँ खत्म न करें और टूटी हुई शादियों की यादों को पीछे न छोड़ पाएँ, तो कम से कम उन्हें अपनी शादी की गुलामी तो नहीं करनी चाहिए। चाहे तुम्हारा जीवनसाथी कोई भी हो, चाहे उनके पास कैसी भी प्रतिभा या मानवता हो, उसका रुतबा कितना भी ऊँचा हो, वह चाहे कितना भी कुशल और काबिल हो, तब भी वह तुम्हारा मालिक नहीं है। वह तुम्हारा जीवनसाथी है, तुम्हारी बराबरी का है। वह तुमसे ज्यादा श्रेष्ठ नहीं है, और न ही तुम उससे कमतर हो। अगर वह अपनी वैवाहिक जिम्मेदारियाँ नहीं निभा पाता है, तो उसे फटकारना तुम्हारा अधिकार है, और उसे संभालना और समझाना भी तुम्हारा ही दायित्व है। सिर्फ इसलिए अपना अपमान और शोषण मत होने दो कि तुम्हें वह बहुत ताकतवर लगता है या तुम्हें इस बात का डर है कि वह तुमसे ऊब जाएगा, तुम्हें ठुकरा देगा और तुमसे नफरत करेगा या तुम्हें त्याग देगा, या फिर क्योंकि तुम अपने वैवाहिक रिश्ते को बनाए रखना चाहती हो, जानबूझकर खुद को उसका गुलाम और अपनी शादी का गुलाम बनाती हो—यह सही नहीं है। किसी व्यक्ति को ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, और न ही उसे शादी के ढाँचे में रहकर इस तरह की जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। परमेश्वर तुमसे किसी का गुलाम या मालिक बनने को नहीं कहता है। वह बस इतना चाहता है कि तुम अपनी जिम्मेदारियाँ निभाओ, और इसलिए तुम्हें शादी में निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों को सही से समझना चाहिए, और तुम्हें उस भूमिका को भी सही से समझना और साफ तौर पर देखना होगा जिसे तुम शादी में निभाओगी। अगर तुम जो भूमिका निभाती हो वह विकृत है और मानवता के अनुरूप नहीं है या परमेश्वर ने जो निर्धारित किया है उसके अनुरूप नहीं है, तो तुम्हें खुद की पड़ताल करनी चाहिए और इस स्थिति से बाहर निकलने के तरीके पर विचार करना चाहिए। अगर तुम अपने जीवनसाथी को फटकार लगा सकती हो, तो उसे फटकार लगाओ; अगर अपने जीवनसाथी को फटकारने से तुम्हें बुरे नतीजे भुगतने पड़ेंगे, तो तुम्हें एक समझदार और उपयुक्त फैसला करना चाहिए।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (11)

जब लोगों की शादी होती है, तो वे सभी अपने आपको भाग्यशाली और खुश समझते हैं। ज्यादातर लोग मानते हैं कि शादी के बाद उनका साथी उनके चुने हुए भविष्य के जीवन का प्रतीक है, और बेशक, इस जीवन में उनकी शादी ही उनकी मंजिल है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि शादी करने वाला हर व्यक्ति शादी को अपनी मंजिल मानता है, और ऐसी शादी के बाद यही शादी उनकी मंजिल होती है। “मंजिल” का क्या मतलब है? इसका मतलब है एक आधार पाना। वे अपनी संभावनाओं, अपने भविष्य और अपनी खुशियों का जिम्मा अपनी शादी और अपने जीवनसाथी को सौंप देते हैं, और इसी वजह से शादी के बाद उन्हें लगता है कि अब उन्हें किसी और चीज की चाहत या चिंता नहीं होगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सोचते हैं कि उन्हें अपनी मंजिल मिल चुकी है, और यह मंजिल उनका साथी और वह घर है जो उन्होंने उस व्यक्ति के साथ मिलकर बसाया है। चूँकि उन्हें अपनी मंजिल मिल गई है, तो उन्हें किसी और चीज का अनुसरण या आशा करने की जरूरत नहीं है। ... अगर शादी के बाद, कोई व्यक्ति शादी को ही अपनी मंजिल मान लेता है, और अपने सभी लक्ष्यों, जीवन के प्रति अपने नजरिए, अपने जीवन के मार्ग, और परमेश्वर की अपेक्षाओं को अपने खाली समय में की जाने वाली अनावश्यक चीजें मान लेता है, तो फिर बिना सोचे-विचारे अपनी शादी को ही अपनी मंजिल मान लेना अच्छी बात नहीं है, बल्कि इसके विपरीत यही चीज जीवन में उसके सही लक्ष्यों के अनुसरण, जीवन के प्रति उसके सही नजरिए और यहाँ तक कि उद्धार पाने की उसकी कोशिश के लिए एक अड़चन, रास्ते का रोड़ा और बाधा बन जाती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि शादी के बाद जब कोई अपने साथी को ही अपनी मंजिल और किस्मत मान लेता है, तो उसे लगता है कि उसके साथी की विभिन्न भावनाएँ, उसकी खुशियाँ और दुख-सुख, सब उसके अपने हैं, और उसकी अपनी खुशियाँ, दुख-सुख और विभिन्न भावनाएँ उसके साथी से जुड़ी हैं, और इस तरह उसके साथी का जीवन, मरण, खुशी और आनंद उसके अपने जीवन, मरण, खुशी और आनंद से जुड़ी है। इसलिए, इन लोगों की यह सोच कि उनकी शादी ही उनके जीवन की मंजिल है, यह उनके जीवन के मार्ग, सकारात्मक चीजों और उद्धार पाने की कोशिश को बहुत धीमा और निष्क्रिय बना देती है। अगर अपनी शादी में परमेश्वर का अनुसरण करने वाले व्यक्ति का साथी परमेश्वर का अनुसरण न करने का फैसला करता है, बल्कि सांसारिक चीज पाने के पीछे भागता है, तो परमेश्वर का अनुसरण करने वाले व्यक्ति पर इसका बहुत गंभीर प्रभाव पड़ेगा। ... ऐसा इसलिए है क्योंकि उसके दिल में, उसका पति ही उसकी आत्मा है, वही उसका जीवन है, और इससे भी बढ़कर, वही उसका आसमान और उसका सब कुछ है। उसके दिल में बसा उसका पति उससे सबसे अधिक प्यार करता है, और वह भी अपने पति से सबसे अधिक प्यार करती है। लेकिन अब वह उलझन में पड़ गई है : अगर उसका पति परमेश्वर में उसके विश्वास का विरोध करता है और उसकी प्रार्थनाओं का कोई फायदा नहीं होता, तब क्या होगा? वह इस बारे में बहुत चिंता करती है। जब उसे घर से दूर जाकर अपना कर्तव्य निभाना होता है, तो भले ही वह भी परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाना चाहती है, मगर जब उसे पता चलता है कि अपना कर्तव्य निभाने के लिए उसे घर छोड़कर कहीं दूर जाना पड़ेगा, और उसे लंबे समय तक दूर रहना पड़ सकता है, तो उसे बहुत पीड़ा होती है। ऐसा क्यों? क्योंकि उसे चिंता है कि अगर वह घर छोड़ देगी तो उसके पति का ख्याल रखने वाला कोई नहीं होगा, उसे अपने पति की याद आएगी और उसकी चिंता सताती रहेगी। उसे उसकी परवाह होगी और वह उसके लिए तड़पेगी और उसे महसूस होगा कि वह उसके बिना नहीं जी सकती, वह अपने जीवन की दिशा और उम्मीद खो बैठेगी, और वह पूरे दिल से अपना कर्तव्य भी नहीं निभा पाएगी। अब, इस बारे में सोचते ही उसका दिल पीड़ा से भर जाता है कि कहीं ऐसा वाकई न हो जाए। इसलिए कलीसिया में, वह कभी किसी और जगह पर जाकर कर्तव्य निभाने के बारे में पूछने की हिम्मत नहीं करती है, या अगर कोई ऐसा काम आता है जिसमें किसी को लंबे समय के लिए दूर जाना पड़े और रात को घर से दूर सोना पड़े, तो वह कभी इस काम के लिए अपने कदम बढ़ाने या ऐसे किसी अनुरोध पर अपनी सहमति देने की हिम्मत नहीं कर पाती है। उससे जो बन पाता है वह करती है, अपने भाई-बहनों के लिए पत्र भेजती है, या कभी-कभी उनके लिए अपने घर पर सभाएँ आयोजित करती है, मगर कभी भी पूरे दिन अपने पति से दूर रहने की हिम्मत नहीं करती। ... इन लोगों को लगता है कि अपने साथी को देख पाने, उनका हाथ थामने और उनके साथ रहने का मतलब है कि उनके पास जीवन भर का सहारा है, जो उन्हें शांत रखेगा और दिलासा देगा। उन्हें लगता है कि उन्हें खाने या कपड़ों के बारे में सोचना नहीं होगा, कोई चिंता नहीं करनी पड़ेगी और उनका साथी ही उनकी मंजिल है। अविश्वासियों से जुड़ी एक कहावत है, “जीवन में तेरा साथ है तो मुझे और क्या चाहिए।” ये लोग अपनी शादी और अपने जीवनसाथी के बारे में दिल की गहराइयों से ऐसा ही महसूस करते हैं; जब उनका साथी खुश होता है तो वे खुश होते हैं, उनका साथी बेचैन होता है तो वे बेचैन होते हैं, और जब उनका साथी तकलीफ उठाता है तो वे भी तकलीफ महसूस करते हैं। अगर उनके साथी की मौत हो जाती है, तो वे भी और जीना नहीं चाहते। और अगर उनका साथी उन्हें छोड़कर किसी से प्यार करने लगे, तब वे क्या करते हैं? (वे जीना नहीं चाहते।) कुछ लोग जीना नहीं चाहते तो वे आत्महत्या कर लेते हैं, और कुछ अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं। बताओ, यह सब क्या है? कैसा व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है? मानसिक संतुलन खो बैठना यह दर्शाता है कि उसे खुद पर काबू नहीं है। कुछ महिलाएँ अपने पति को अपने जीवन की मंजिल मानती हैं, और जब उन्हें ऐसा व्यक्ति मिल जाएगा, तो वे कभी किसी और से प्यार नहीं करेंगी—यह “जीवन में उसका साथ है तो मुझे और क्या चाहिए” वाली समस्या है। लेकिन उसका पति उसे निराश करता है, किसी और के प्यार में पड़ जाता है और अब उसे नहीं चाहता है। तो अंत में क्या होता है? फिर वह सभी पुरुषों से बेहद नफरत करने लगती है। जब उसके सामने कोई दूसरा आदमी आता है तो वह उस पर थूकना चाहती है, उसे गालियाँ देना और पीटना चाहती है। वह हिंसक बन जाती है, और अपना विवेक खो देती है। कुछ महिलाएँ ऐसी भी हैं जो वाकई पागल हो जाती हैं। जो लोग शादी को सही ढंग से नहीं समझते हैं तो उनका यही नतीजा होता है।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (11)

जब तुम्हारा साथी तुमसे बेवफाई करे, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें झगड़ा करके मुसीबत मोल नहीं लेनी चाहिए, न ही बखेड़ा खड़ा करके जमीन पर लोटना चाहिए। तुम्हें समझना चाहिए कि ऐसा होने से आसमान नहीं टूट पड़ता, न ही अपनी मंजिल पाने का तुम्हारा सपना टूटता है, और बेशक इसका मतलब यह भी नहीं है कि अब तुम्हारी शादी खत्म हो जाएगी और टूट जाएगी, और इसका यह मतलब तो बिल्कुल नहीं है कि तुम्हारी शादी विफल हो गई या अब इसका कोई हल ही नहीं निकल सकता। दरअसल, सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं, और चूँकि लोग बुरी प्रवृत्तियों और संसार के आम तौर-तरीकों से प्रभावित होते हैं और उनमें खुद को इन बुरी प्रवृत्तियों से बचाए रखने की क्षमता भी नहीं है, तो लोग गलतियाँ करने से नहीं बच पाते हैं, बेवफाई करते हैं, अपनी शादी से भटक जाते हैं, और अपने जीवनसाथी को निराश करते हैं। अगर तुम इस परिप्रेक्ष्य से इस समस्या पर गौर करो, तो यह कोई इतनी बड़ी बात नहीं है। सभी शादीशुदा लोगों के परिवार संसार के आम परिवेश और समाज की बुरी प्रवृत्तियों और आम तौर-तरीकों से प्रभावित होते हैं। एक व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से देखें, तो लोगों में यौन इच्छाएँ होती हैं, और इसके अलावा वे फिल्मों और टेलीविजन नाटकों में दिखने वाले पुरुषों और महिलाओं के प्रेम संबंधों और समाज में मौजूद पोर्नोग्राफी जैसी चीजों से प्रभावित होते हैं। लोगों के लिए उन सिद्धांतों का पालन करना मुश्किल हो जाता है जिनका पालन उन्हें करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, लोगों के लिए नैतिक आधार बनाए रखना मुश्किल हो जाता है। यौन इच्छा की सीमाएँ आसानी से टूट जाती हैं; यौन इच्छा अपने आप में भ्रष्ट चीज नहीं है, पर लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं, और क्योंकि लोग ऐसे सामान्य परिवेश में रहते हैं, तो जब महिला-पुरुष संबंधों की बात आती है तो वे आसानी से गलतियाँ कर बैठते हैं, और तुम्हें यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए। भ्रष्ट स्वभाव वाला कोई भी व्यक्ति ऐसे सामान्य परिवेश में लालच या प्रलोभन मिलने पर अडिग नहीं रह पाता है। मनुष्य की यौन इच्छा कभी भी और कहीं भी उमड़ सकती है, और लोग कभी भी और कहीं भी बेवफाई कर सकते हैं। ऐसा इसलिए नहीं कि यौन इच्छा में ही कोई समस्या है, बल्कि इसलिए कि लोगों में ही कुछ गड़बड़ है। लोग अपनी यौन इच्छाओं के नाम पर ऐसी चीजें करते हैं जिससे वे अपनी नैतिकता, सदाचार और ईमानदारी खो देते हैं; जैसे कि बेवफाई करना, प्रेम संबंध बनाना, और रखैल रखना वगैरह। इसलिए परमेश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति होने के नाते अगर तुम इन चीजों पर सही ढंग से विचार कर सकते हो, तो तुम्हें इनसे विवेकशील ढंग से निपटना चाहिए। तुम एक भ्रष्ट मनुष्य हो और वह भी एक भ्रष्ट मनुष्य है, इसलिए तुम्हें सिर्फ इस कारण उससे अपने जैसा बनने और वफादार रहने को नहीं कहना चाहिए कि तुम अपनी शादी के प्रति वफादार हो, तुम्हें उससे कभी बेवफाई न करने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। ऐसा कुछ होने पर तुम्हें सही तरीके से इसका सामना करना चाहिए। ऐसा क्यों? हर किसी को ऐसे माहौल या लालच का सामना करने का मौका मिलता है। तुम अपने जीवनसाथी पर बाज की तरह नजर रख सकती हो पर इससे कुछ होगा नहीं, और तुम जितने करीब से उस पर नजर रखोगी, उतनी ही जल्दी और तेजी से ऐसी घटना घटेगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि सभी भ्रष्ट स्वभाव के हैं, हर कोई बुरे समाज के इस सामान्य परिवेश में रहता है, और बहुत कम लोग ही हैं जो व्यभिचारी नहीं होते। केवल अपनी स्थिति या हालात से ही वे ऐसा होने से बचे हुए हैं। ऐसी बहुत कम ही चीजें हैं जिनमें इंसान जानवरों से बेहतर है। कम से कम, एक जानवर स्वाभाविक रूप से अपनी यौन प्रवृत्ति पर प्रतिक्रिया करता है, लेकिन इंसान ऐसा नहीं करते हैं। मनुष्य सोच-समझकर व्यभिचार और अनाचार में लिप्त हो सकते हैं—केवल लोग ही व्यभिचार में लिप्त हो सकते हैं। इसलिए इस बुरे समाज के आम परिवेश में न केवल अविश्वासी बल्कि लगभग सभी लोग ऐसी चीजें करने में सक्षम हैं। यह एक निर्विवाद तथ्य है, और कोई इस समस्या से नहीं बच सकता। चूँकि ऐसी चीज किसी के साथ भी हो सकती है, तो फिर तुम अपने पति के साथ ऐसा होने क्यों नहीं देती? वास्तव में ऐसा होना बहुत आम बात है। क्योंकि तुम उसके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ी हुई हो, इसलिए जब वह तुम्हें छोड़कर चला जाता है, तो तुम इस झटके से उबर नहीं पाती और यह सब बर्दाश्त नहीं कर पाती हो। अगर ऐसा किसी और के साथ हुआ होता, तो तुम बस व्यंग्यपूर्ण ढंग से मुस्कुराते हुए सोचती, “यह तो आम बात है। क्या समाज में सभी लोग ऐसे ही नहीं हैं?” वो कहावत है न? केक के बारे में? (वे दोहरा फायदा उठाना उठाना चाहते हैं, अपना केक खाना भी चाहते हैं और इसे पूरा बचाना भी चाहते हैं।) ये सब संसार की बुरी प्रवृत्तियों से जुड़े लोकप्रिय शब्द और बातें हैं। यह एक आदमी के लिए सराहनीय बात है। अगर किसी आदमी के पास केक नहीं है और वह कोई केक खा भी नहीं पाता है, तो इससे पता चलता है कि उस आदमी में कोई क्षमता नहीं है और लोग उस पर हँसेंगे। इसलिए, जब किसी महिला के साथ कुछ ऐसा होता है, तो वह बखेड़ा खड़ा कर सकती है, जमीन पर लोट सकती है, गुस्सा उतार सकती है, रो-रोकर मुसीबत खड़ी कर सकती है, और यह सब होने के कारण खाना-पीना छोड़ सकती है, उसमें मर जाने, खुद को फाँसी लगाने और खुदकुशी करने की इच्छा हो सकती है। कुछ महिलाएँ गुस्से में अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठती हैं। यह साफ तौर पर शादी के प्रति उसके रवैये से संबंधित है, और बेशक इसका सीधा संबंध उसके इस विचार से भी है कि “उसका जीवनसाथी ही उसकी मंजिल है।” महिला मानती है कि शादी तोड़कर उसके पति ने उसके जीवन की मंजिल की जिम्मेदारी और बेहतरीन महत्वाकांक्षा को नष्ट कर दिया है। क्योंकि पहले उसके पति ने ही उनकी शादी के संतुलन को बिगाड़ा, उसने ही पहले नियम तोड़े, उसका साथ छोड़ा, शादी की कसमें तोड़ीं और उसके सुंदर सपने को बुरा सपना बना दिया, इसलिए वह खुद को इस तरह से व्यक्त कर ऐसा अतिवादी व्यवहार कर रही है। अगर लोग शादी के बारे में परमेश्वर से मिली सही समझ को अपनाएँगे, तो वे कुछ हद तक विवेकशील व्यवहार कर पाएँगे। जब सामान्य लोगों के साथ ऐसी चीजें होती हैं, तो वे दुखी होते हैं, रोते हैं, और उन्हें पीड़ा होती है। लेकिन जब वे शांत होकर परमेश्वर के वचनों पर विचार करेंगे, तो समाज के सामान्य परिवेश के बारे में सोचेंगे, और फिर उस वास्तविक स्थिति के बारे में सोचेंगे कि सभी भ्रष्ट स्वभाव के हैं, तो वे इस मामले से विवेकशील ढंग से और सही तरीके से निपटेंगे, और वे हड्डी पर चिपके कुत्ते की तरह इस पर अड़े रहने के बजाय इसे भुला देंगे। “भुला देंगे” से मेरा क्या मतलब है? मेरे कहने का मतलब है कि क्योंकि तुम्हारे पति ने तुम्हारे साथ ऐसा किया है और तुम्हारी शादी के प्रति बेवफाई की है, तो तुम्हें इस तथ्य को स्वीकार लेना चाहिए और उसके साथ बैठकर बात करनी चाहिए, उससे पूछना चाहिए, “तुम क्या चाहते हो? अब हम क्या करेंगे? हमें अपनी शादी बनाए रखनी चाहिए या इसे तोड़कर अपने-अपने रास्ते चलना चाहिए?” बस बैठकर उससे बात करो; लड़ने या मुसीबत खड़ी करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम्हारा पति शादी तोड़ने को कहता है, तो कोई बड़ी बात नहीं है। अविश्वासी अक्सर कहते हैं, “समुद्र में बहुत सारी मछलियाँ हैं,” “आदमी बसों की तरह होते हैं—जल्द ही कोई और आ जाएगा,” और वह दूसरी कहावत भी है न? “एक पेड़ के चक्कर में पूरा जंगल मत गँवाओ।” और यह पेड़ सिर्फ भद्दा ही नहीं है बल्कि अंदर से सड़ा हुआ भी है। क्या ये कहावतें सही हैं? अविश्वासी इन कहावतों से खुद को दिलासा देते हैं, लेकिन क्या इनका सत्य से कोई लेना-देना है? (नहीं।) तो सही सोच और दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? जब तुम्हारे साथ ऐसा कुछ हो, तो सबसे पहले तुम्हें गुस्सा नहीं होना चाहिए, तुम्हें अपने गुस्से पर काबू कर कहना चाहिए, “आओ, शांति से बैठकर बात करते हैं। तुम क्या करने की सोच रहे हो?” वह कहता है, “मैं इस शादी को बनाए रखने की कोशिश करना चाहता हूँ।” और फिर तुम कहती हो, “अगर ऐसा है तो कोशिश जारी रखते हैं। अब और प्रेम संबंध मत बनाना, एक पति की जिम्मेदारियाँ निभाना, और हम बीती बात भूलकर एक नई शुरुआत कर सकते हैं। लेकिन अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो हम अलग हो जाएँगे और अपने-अपने रास्ते चले जाएँगे। शायद परमेश्वर ने निर्धारित किया हो कि हमारी शादी यहीं खत्म हो जानी चाहिए। अगर ऐसा है, तो मैं उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पण के लिए तैयार हूँ। तुम चौड़े रास्ते पर चल सकते हो, मैं परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चलूँगी, और फिर हम एक दूसरे को प्रभावित नहीं करेंगे। मैं तुम्हारे मामलों में टाँग नहीं अड़ाऊँगी, और तुम भी मुझे बेबस नहीं करोगे। मेरी किस्मत तुम्हारे हाथों में नहीं है और तुम मेरी मंजिल नहीं हो। मेरी किस्मत और मेरी मंजिल परमेश्वर के हाथों में है। इस जीवन में कौन-सा पड़ाव मेरा आखिरी पड़ाव होगा, और वही मेरी मंजिल होगी—यह मुझे परमेश्वर से पूछना चाहिए, वह सब जानता है, वह संप्रभुता रखता है, और मैं उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहती हूँ। जो भी हो, अगर तुम मेरे साथ इस शादी को नहीं बनाए रखना चाहते हो, तो हम शांति से अलग हो जाएँगे। भले ही मेरे पास कोई विशेष कौशल नहीं है और यह परिवार आर्थिक रूप से तुम्हारे ऊपर निर्भर है, फिर भी मैं तुम्हारे बिना जी सकती हूँ, और मैं अच्छे से रहूँगी। परमेश्वर एक गौरैया को भी भूखा नहीं रहने देता, तो वह मेरे लिए, एक जीवित इंसान के लिए कितना कुछ करेगा। मेरे हाथ-पैर हैं, मैं अपना ध्यान खुद रख सकती हूँ। तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर परमेश्वर ने यह निर्धारित किया है कि मैं तुम्हारे साथ के बिना जीवन भर अकेली रहूँगी, तो मैं समर्पण करने को तैयार हूँ, और इस तथ्य को बिना किसी शिकायत के स्वीकारना चाहती हूँ।” क्या ऐसा करना अच्छी बात नहीं है? (बिल्कुल है।) अच्छी बात है, है न? बहस और झगड़ा करने की कोई जरूरत नहीं, और इस बात को लेकर निरंतर मुसीबत खड़ी करने की जरूरत तो बिल्कुल नहीं है, ताकि सबको इसका पता चल जाए—इन सबकी कोई जरूरत नहीं। शादी किसी और का नहीं, बल्कि तुम्हारा और तुम्हारे पति का निजी मामला है। अगर शादी में कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो तुम दोनों को साथ मिलकर इसे सुलझाना होगा, और इसके नतीजे भुगतने होंगे। परमेश्वर के विश्वासी होने के नाते, तुम्हें नतीजे की परवाह किए बिना परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। बेशक, जब शादी की बात आती है, तो चाहे कैसी भी दरारें आएँ या नतीजे कैसे भी हों, तुम्हारी शादी बनी रहे या नहीं, तुम अपनी शादी में एक नए जीवन की शुरुआत कर पाते हो या नहीं, या तुम्हारी शादी उसी मुकाम पर टूट जाए, तुम्हारी शादी तुम्हारी मंजिल नहीं है, और न ही तुम्हारा जीवनसाथी तुम्हारी मंजिल है। परमेश्वर ने उसका तुम्हारे जीवन और अस्तित्व में आना निर्धारित किया था, ताकि वह तुम्हारे जीवन के मार्ग में तुम्हारा साथ दे सके। अगर वह पूरे रास्ते तुम्हारा साथ दे पाता है और अंत तक तुम्हारे साथ चलता रहता है, तो इससे बेहतर और कुछ नहीं है, और तुम्हें परमेश्वर के अनुग्रह के लिए धन्यवाद करना चाहिए। अगर शादी के दौरान कोई समस्या आती है, चाहे दरारें आती हैं या तुम्हारी पसंद के विरुद्ध कुछ होता है, जिसकी वजह से तुम्हारी शादी टूट जाती है, तो इसका मतलब यह नहीं कि अब तुम्हारे पास कोई मंजिल नहीं है, अब तुम्हारा जीवन अंधकार में पड़ गया है, आगे कोई रोशनी नहीं है, और अब तुम्हारा कोई भविष्य नहीं है। यह भी हो सकता है कि तुम्हारी शादी का टूटना तुम्हारे लिए एक शानदार जीवन की शुरुआत हो। यह सब परमेश्वर के हाथों में है, और सब आयोजन और व्यवस्था परमेश्वर ही करेगा। ऐसा हो सकता है कि शादी टूटने से तुम्हें इसकी गहरी समझ मिले और तुम बेहतर मूल्यांकन कर पाओ। बेशक, तुम्हारी शादी का टूटना तुम्हारे जीवन के लक्ष्यों और दिशा के लिए और जिस मार्ग पर तुम चलते हो उसके लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ हो सकता है। यह तुम्हें मनहूस यादें देकर नहीं जाएगा, और यह दर्दनाक यादें तो बिल्कुल नहीं देगा, न ही यह पूरी तरह नकारात्मक अनुभव और नतीजे देगा, बल्कि इससे तुम्हें सकारात्मक और सक्रिय अनुभव मिलेंगे जो तुम्हें अभी तक शादी में बने रहने से शायद नहीं मिल पाते। अगर तुम्हारी शादी बनी रहती, तो शायद तुम अपने आखिरी समय तक हमेशा यही सादा, औसत दर्जे का और नीरस जीवन जीती रहती। लेकिन, अगर तुम्हारी शादी खत्म होकर टूट जाती है, तो जरूरी नहीं कि यह कोई खराब बात हो। इससे पहले तुम अपनी शादी की खुशी और जिम्मेदारियों के साथ ही अपने जीवनसाथी के प्रति अपनी भावनाओं या जीवन जीने के तरीकों की चिंता करने, उसकी देखभाल करने, उसका ख्याल रखने, उसकी परवाह करने और उसके बारे में फिक्र करने को लेकर बेबस महसूस करती थी। लेकिन, तुम्हारी शादी टूटने के दिन से ही तुम्हारे जीवन की सभी परिस्थितियाँ, जीवन जीने के तुम्हारे लक्ष्य और अनुसरण के तरीके पूरी तरह से बदल जाते हैं, और ऐसा कहना सही होगा कि तुममें यह बदलाव तुम्हारी शादी टूटने के कारण ही आया है। ऐसा हो सकता है कि यह परिणाम, बदलाव और परिवर्तन परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए निर्धारित की गई शादी से और उस शादी को खत्म करने के लिए रास्ता दिखाकर परमेश्वर तुम्हें जो हासिल कराना चाहता है उसकी वजह से आया हो। भले ही तुम्हें पीड़ा हुई है और तुमने एक पेचीदा मार्ग अपनाया है, और भले ही तुमने अपनी शादी के ढाँचे में कुछ अनावश्यक त्याग और समझौते किए हैं, लेकिन अंत में तुम्हें जो हासिल होता है वह वैवाहिक जीवन में रहकर हासिल नहीं किया जा सकता। इसलिए, चाहे जो भी हो, इस विचार और दृष्टिकोण को त्याग देना ही सही है कि “शादी ही तुम्हारी मंजिल है।” चाहे तुम्हारी शादी बनी रहती है या उसमें दरारें आती हैं, या तुम्हारी शादी टूटने के कगार पर पहुँच जाती है या वह पहले ही टूट चुकी है, किसी भी परिस्थिति में, शादी अपने आपमें तुम्हारी मंजिल नहीं है। लोगों को यह बात समझनी चाहिए।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (11)

परमेश्वर ने तुम्हें एक स्थिर जीवन और एक जीवनसाथी बस इसलिए दिया है ताकि तुम बेहतर जीवन जी सको और तुम्हारा ख्याल रखने वाला कोई हो, जो तुम्हारे साथ खड़ा हो, इसलिए नहीं कि तुम परमेश्वर और उसके वचनों को ही भूल जाओ या जीवनसाथी पाने के बाद अपना कर्तव्य निभाने के दायित्व या जीवन में उद्धार पाने के लक्ष्य को त्यागकर सिर्फ अपने जीवनसाथी के लिए जियो। अगर तुम वाकई ऐसा करते हो, इसी तरह से जीते हो, तो मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम जल्द-से-जल्द अपना रास्ता बदलोगे। चाहे कोई तुम्हारे लिए कितना ही जरूरी क्यों न हो, या वह तुम्हारे जीवन, तुम्हारी आजीविका या जीवन के मार्ग में कितना ही महत्व रखता हो, वह तुम्हारी मंजिल नहीं हैं, क्योंकि वह सिर्फ एक भ्रष्ट मनुष्य है। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए तुम्हारे मौजूदा जीवनसाथी की व्यवस्था की है और तुम उसके साथ जीवन बिता सकते हो। अगर परमेश्वर का मन बदल जाता है और वह तुम्हारे लिए कोई और जीवनसाथी निर्धारित करता है, तब भी तुम अच्छी तरह जी सकते हो, और इसलिए तुम्हारा मौजूदा जीवनसाथी ही तुम्हारा सब कुछ नहीं है और वह तुम्हारी मंजिल भी नहीं है। तुम्हारी मंजिल सिर्फ परमेश्वर के हाथों में है, और समस्त मानवजाति की मंजिल परमेश्वर के हाथों में ही है। अपने माँ-बाप को छोड़ने के बाद भी तुम जिंदा रह सकते हो और जीवन बिता सकते हो, और बेशक अपने जीवनसाथी को छोड़ने के बाद भी तुम उतना ही अच्छा जीवन जी सकते हो। तुम्हारी मंजिल न तो तुम्हारे माँ-बाप हैं और न ही तुम्हारा जीवनसाथी। सिर्फ इसलिए कि तुम्हारे पास एक साथी है जिसे तुम अपनी आत्मा, अपना मन और अपना शरीर सौंप सकते हो, जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीजों को मत भूलो। अगर तुम परमेश्वर को भूल जाते हो, यह भूल जाते हो कि उसने तुम्हें क्या जिम्मेदारी सौंपी है, उस कर्तव्य को भूल जाते हो जो एक सृजित प्राणी को निभाना चाहिए, और अपनी पहचान को भुला देते हो, तो तुम अपनी अंतरात्मा और विवेक पूरी तरह से खो दोगे। चाहे तुम्हारा जीवन आज कैसा भी है, तुम शादीशुदा हो या नहीं हो, सृष्टिकर्ता के सामने तुम्हारी पहचान कभी नहीं बदलेगी। कोई व्यक्ति तुम्हारी मंजिल नहीं हो सकता, और तुम खुद को किसी और के हाथों में नहीं सौंप सकते। सिर्फ परमेश्वर ही तुम्हें एक उपयुक्त मंजिल दे सकता है, मानवजाति का जीवन सिर्फ परमेश्वर के हाथों में है, और यह कभी नहीं बदलेगा।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (11)

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प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

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