18. पारिवारिक, देह के रिश्तों को कैसे ग्रहण करें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

वे घातक प्रभाव, जो हज़ारों वर्षो की “राष्ट्रवाद की बुलंद भावना” ने मनुष्य के हृदय में गहरे छोड़े हैं, और साथ ही सामंती सोच, जिसके द्वारा लोग बिना किसी स्वतंत्रता के, बिना महत्वाकांक्षा या आगे बढ़ने की इच्छा के, बिना प्रगति की अभिलाषा के, बल्कि नकारात्मक और प्रतिगामी रहने और गुलाम मानसिकता से घिरे होने के कारण बँधे और जकड़े हुए हैं, इत्यादि—इन वस्तुगत कारकों ने मनुष्यजाति के वैचारिक दृष्टिकोण, आदर्शों, नैतिकता और स्वभाव पर अमिट रूप से गंदा और भद्दा प्रभाव छोड़ा है। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे मनुष्य आतंक की अँधेरी दुनिया में जी रहे हैं, और उनमें से कोई भी इस दुनिया के पार नहीं जाना चाहता, और उनमें से कोई भी किसी आदर्श दुनिया में जाने के बारे में नहीं सोचता; बल्कि, वे अपने जीवन की सामान्य स्थिति से संतुष्ट हैं, बच्चे पैदा करने और पालने-पोसने, उद्यम करने, पसीना बहाने, अपना रोजमर्रा का काम करने; एक आरामदायक और खुशहाल परिवार के सपने देखने, और दांपत्य प्रेम, नाती-पोतों, अपने अंतिम समय में आनंद के सपने देखने में दिन बिताते हैं और शांति से जीवन जीते हैं...। सैकड़ों-हजारों साल से अब तक लोग इसी तरह से अपना समय व्यर्थ गँवा रहे हैं, कोई पूर्ण जीवन का सृजन नहीं करता, सभी इस अँधेरी दुनिया में केवल एक-दूसरे की हत्या करने के लिए तत्पर हैं, प्रतिष्ठा और लाभ की दौड़ में और एक-दूसरे के प्रति षड्यंत्र करने में संलग्न हैं। किसने कब परमेश्वर की इच्छा जानने की कोशिश की है? क्या किसी ने कभी परमेश्वर के कार्य पर ध्यान दिया है? एक लंबे अरसे से मानवता के सभी अंगों पर अंधकार के प्रभाव ने कब्ज़ा जमा लिया है और वही मानव-प्रकृति बन गए हैं, और इसलिए परमेश्वर के कार्य को करना काफी कठिन हो गया है, यहाँ तक कि जो परमेश्वर ने लोगों को आज सौंपा है, उस पर वे ध्यान भी देना नहीं चाहते।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (3)

इस असली समाज में जीने वाले लोगों को शैतान बुरी तरह भ्रष्ट कर चुका है। लोग चाहे पढ़े-लिखे हों या नहीं, उनके विचारों और दृष्टिकोणों में ढेर सारी परंपरागत संस्कृति रची-बसी है। खास कर महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने पतियों की देखभाल करें, अपने बच्चों का पालन-पोषण करें, नेक पत्नी और प्यारी माँ बनें, अपना पूरा जीवन पति और बच्चों के लिए समर्पित कर उनके लिए जिएँ, यह सुनिश्चित करें कि परिवार को रोज तीन वक्त खाना मिले और साफ-सफाई जैसे सारे घरेलू काम करें। नेक पत्नी और प्यारी माँ होने का यही स्वीकार्य मानक है। हर महिला भी यही सोचती है कि चीजें इसी तरह की जानी चाहिए और अगर वह ऐसा नहीं करती तो फिर वह नेक औरत नहीं है, और अंतरात्मा का और नैतिकता के मानकों का उल्लंघन कर चुकी है। इन नैतिक मानकों का उल्लंघन कुछ महिलाओं की अंतरात्मा पर बहुत भारी पड़ता है; उन्हें लगता है कि वे अपने पति और बच्चों को निराश कर चुकी हैं और नेक औरत नहीं रहीं। लेकिन परमेश्वर पर विश्वास करने, उसके ढेर सारे वचन पढ़ने, कुछ सत्य समझ चुकने और कुछ मामलों की असलियत जान जाने के बाद तुम सोचोगी, “मैं सृजित प्राणी हूँ और मुझे इसी रूप में अपना कर्तव्य निभाकर खुद को परमेश्वर के लिए खपाना चाहिए।” इस समय क्या नेक पत्नी और प्यारी माँ होने, और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य करने के बीच कोई टकराव होता है? अगर तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ बनना चाहती हो तो फिर तुम अपना कर्तव्य पूरे समय नहीं कर सकती, लेकिन अगर तुम अपना कर्तव्य पूरे समय करना चाहती हो तो फिर तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ नहीं बन सकती। अब तुम क्या करोगी? अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से करने का फैसला कर कलीसिया के कार्य के लिए जिम्मेदार बनना चाहती हो, परमेश्वर के प्रति वफादार रहना चाहती हो, तो फिर तुम्हें नेक पत्नी और प्यारी माँ बनना छोड़ना पड़ेगा। अब तुम क्या सोचोगी? तुम्हारे मन में किस प्रकार की विसंगति उत्पन्न होगी? क्या तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुमने अपने पति और बच्चों को निराश कर दिया है? इस प्रकार का अपराधबोध और बेचैनी कहाँ से आती है? जब तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य नहीं निभा पातीं तो क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि तुमने परमेश्वर को निराश कर दिया है? तुम्हें कोई अपराधबोध या ग्लानि नहीं होती क्योंकि तुम्हारे दिलोदिमाग में सत्य का लेशमात्र संकेत भी नहीं मिलता है। तो फिर तुम क्या समझीं? परंपरागत संस्कृति और नेक पत्नी और प्यारी माँ होना। इस प्रकार तुम्हारे मन में “अगर मैं नेक पत्नी और प्यारी माँ नहीं हूँ तो फिर मैं नेक और भली औरत नहीं हूँ” की धारणा उत्पन्न होगी। उसके बाद से तुम इस धारणा के बंधनों से बँध जाओगी, और परमेश्वर में विश्वास करने और अपने कर्तव्य करने के बाद भी इसी प्रकार की धारणाओं से बँधी रहोगी। जब अपना कर्तव्य करने और नेक पत्नी और प्यारी माँ होने के बीच टकराव होता है तो भले ही तुम अनमने ढंग से अपना कर्तव्य करने का फैसला कर परमेश्वर के प्रति थोड़ी-सी वफादारी रख लो, फिर भी तुम्हें मन ही मन बेचैनी और अपराधबोध होगा। इसलिए अपना कर्तव्य करने के दौरान जब तुम्हें कुछ फुर्सत मिलेगी तो तुम अपने पति और बच्चों की देखभाल करने के मौके ढूँढ़ोगी, उन्हें और भी अधिक समय देना चाहोगी, और सोचोगी कि भले ही तुम्हें ज्यादा कष्ट झेलना पड़ रहा है तो भी यह ठीक है, बशर्ते अपने मन को सुकून मिलता रहे। क्या यह एक नेक पत्नी और प्यारी माँ होने के बारे में परंपरागत संस्कृति के विचारों और सिद्धांतों के असर का नतीजा नहीं है? अब तुम दो नावों पर सवार हो, अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती हो लेकिन नेक पत्नी और प्यारी माँ भी बनना चाहती हो। लेकिन परमेश्वर के सामने हमारे पास सिर्फ एक जिम्मेदारी और दायित्व होता है, एक ही मिशन होता है : सृजित प्राणी का अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना। क्या तुमने यह कर्तव्य अच्छे से निभाया? तुम फिर से रास्ते से क्यों भटक गईं? क्या तुम्हें वास्तव में कोई अपराध बोध नहीं है, क्या तुम्हारा दिल तुम्हें धिक्कारता नहीं है? चूँकि अभी तक तुम्हारे दिल में सत्य की बुनियाद नहीं पड़ी है, तुम्हारे दिल पर सत्य का शासन नहीं है, इसलिए अपना कर्तव्य करते हुए तुम रास्ते से भटक सकती हो। भले ही अब तुम अपना कर्तव्य कर पा रही हो, तुम वास्तव में अभी भी सत्य के मानकों और परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत दूर हो। क्या तुम अब इस तथ्य को स्पष्ट रूप से समझ सकती हो? परमेश्वर का यह कहने का क्या अर्थ है, “परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है”? इसका अर्थ हर व्यक्ति को यह एहसास कराना है : हमारा जीवन और हमारे प्राण परमेश्वर ने रचे हैं, ये हमें उसी से मिले हैं—अपने माता-पिता से नहीं, प्रकृति से तो बिल्कुल भी नहीं, ये चीजें हमें परमेश्वर ही देता है। हमारे माता-पिता से सिर्फ हमारी देह उत्पन्न हुई है, जैसे कि हमारे बच्चे हमसे उत्पन्न होते हैं, लेकिन उनकी किस्मत पूरी तरह परमेश्वर के हाथ में होती है। हम परमेश्वर पर विश्वास कर सकते हैं, यह भी परमेश्वर का दिया हुआ अवसर है; यह उसने निर्धारित किया है और उसका अनुग्रह है। इसलिए तुम्हें किसी दूसरे के प्रति दायित्व या जिम्मेदारी निभाने की जरूरत नहीं है; तुम्हें सृजित प्राणी के रूप में सिर्फ परमेश्वर के प्रति अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। लोगों को सबसे पहले यही करना चाहिए, यही व्यक्ति के जीवन का प्राथमिक कार्य है। अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से पूरा नहीं करतीं, तो तुम योग्य सृजित प्राणी नहीं हो। दूसरों की नजरों में तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ हो सकती हो, बहुत ही अच्छी गृहिणी, संतानोचित संतान और समाज की आदर्श सदस्य हो सकती हो, लेकिन परमेश्वर के समक्ष तुम ऐसी इंसान रहोगी जिसने अपना दायित्व या कर्तव्य बिल्कुल भी नहीं निभाया, जिसने परमेश्वर का आदेश तो स्वीकारा मगर इसे पूरा नहीं किया, जिसने इसे मँझधार में छोड़ दिया। क्या इस तरह के किसी व्यक्ति को परमेश्वर की स्वीकृति हासिल हो सकती है? ऐसे लोग व्यर्थ होते हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है

अगर हम इस पर बच्चों के परिप्रेक्ष्य से गौर करें, तो उनका जीवन और शरीर उनके माता-पिता से आते हैं, जिनमें उन्हें पाल-पोस कर बड़ा करने और शिक्षित करने की दयालुता भी है, इसलिए बच्चों को उनकी हर बात माननी चाहिए, अपना संतानोचित दायित्व निभाना चाहिए, और अपने माता-पिता की खामियाँ नहीं देखनी चाहिए। इन बातों का छिपा हुआ अर्थ यह है कि तुम्हें यह नहीं जानना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता असल में क्या हैं। अगर हम इस परिप्रेक्ष्य से इसका विश्लेषण करें, तो क्या यह नजरिया सही है? (नहीं यह गलत है।) हम सत्य के अनुसार इस मामले से कैसे पेश आएँ? इसे पेश करने का सही तरीका क्या है? क्या बच्चों का जीवन और उनके शरीर उन्हें माता-पिता द्वारा दिए गए हैं? (नहीं।) किसी व्यक्ति का दैहिक शरीर उसके माता-पिता से पैदा होता है, लेकिन माता-पिता को बच्चे जनने की क्षमता कहाँ से मिलती है? (यह परमेश्वर द्वारा दी जाती है, परमेश्वर से आती है।) व्यक्ति की आत्मा का क्या? यह कहाँ से आती है? यह भी परमेश्वर से आती है। तो मूल में, लोगों को परमेश्वर ने रचा है, और ये सब उसके द्वारा पूर्व-निर्धारित किए गए हैं। परमेश्वर ने ही तुम्हारा इस परिवार में जन्म लेना पूर्व-निर्धारित किया। परमेश्वर ने इस परिवार में एक आत्मा भेजी, फिर तुम इस परिवार में जन्मे, तुम्हारे माता-पिता के साथ तुम्हारा रिश्ता पूर्व-नियत है—यह परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित था। परमेश्वर की संप्रभुता और उसके पूर्व-निर्धारण के कारण, तुम्हारे माता-पिता तुम्हें पा सके, और तुम इस परिवार में जन्म ले सके। यह जड़ से बात पर गौर करना है। लेकिन अगर परमेश्वर ने चीजें इस तरह पूर्व-निर्धारित न की होतीं, तो? तो फिर तुम्हारे माता-पिता तुम्हें नहीं पाते, और तुम्हारा उनके साथ माता-पिता और संतान का रिश्ता नहीं रहा होता। कोई रक्त संबंध, कोई पारिवारिक वात्सल्य, कोई भी नाता नहीं रहा होता। इसलिए, यह कहना गलत है कि किसी व्यक्ति का जीवन उसे उसके माता-पिता देते हैं। एक और पहलू यह है कि बच्चे के परिप्रेक्ष्य से देखने पर, उसके माता-पिता उससे एक पीढ़ी बड़े हैं। लेकिन जहाँ तक सभी इंसानों का सवाल है, माता-पिता बाकी सब लोगों जैसे ही हैं, क्योंकि वे सभी भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं, और सभी में शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है। वे बाकी लोगों से जरा भी अलग नहीं हैं, और तुमसे भी अलग नहीं हैं। हालाँकि उन्होंने भौतिक रूप से तुम्हें जन्म दिया, और तुम्हारे देह-रक्त संबंध के अर्थ में वे तुमसे एक पीढ़ी बड़े हैं, फिर भी मानव स्वभाव के सार के अर्थ में तुम सभी लोग शैतान की सत्ता के अधीन जी रहे हो, और तुम सभी को शैतान ने भ्रष्ट किया है और तुम सबमें भ्रष्ट शैतानी स्वभाव हैं। सभी लोगों में भ्रष्ट शैतानी स्वभाव होने के तथ्य की दृष्टि से, सभी लोगों का सार एक है। चाहे वरिष्ठता या उम्र में अंतर हो या चाहे कोई इस दुनिया में जितनी जल्दी या देर से आए, सार के संदर्भ में, सभी लोगों में अनिवार्य रूप से वही भ्रष्ट स्वभाव होता है, वे सभी मनुष्य हैं जिन्हें शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है, और इस मामले में वे बिल्कुल अलग नहीं है। उनकी मानवता अच्छी हो या बुरी, चूँकि उनमें भ्रष्ट स्वभाव है, इसलिए वे लोगों और मामलों को देखने और सत्य पर गौर करने को लेकर एक-जैसा परिप्रेक्ष्य और नजरिया अपनाते हैं। इस अर्थ में, उनके बीच कोई अंतर नहीं है। साथ ही, इस दुष्ट मानवजाति के बीच जीने वाले सभी लोग इस बुरी दुनिया में उपलब्ध तमाम विविध विचारों और सोच को स्वीकार करते हैं, चाहे वे बातों के रूप में हों या विचारों के रूप में, आकार रूप में हों या विचारधारा के रूप में, और वे शैतान के हर तरह के विचार को स्वीकार करते हैं, चाहे वह सरकारी शिक्षा के जरिये हो, या सामाजिक आचार-विचार की शिक्षा के जरिये। ये चीजें जरा भी सत्य के अनुरूप नहीं हैं। उनमें कोई सत्य नहीं है, और लोग निश्चित रूप से नहीं समझते कि सत्य क्या है। इस नजरिये से, माता-पिता और बच्चे बराबर हैं, और दोनों में एक ही विचार और सोच हैं। बात बस इतनी ही है कि तुम्हारे माता-पिता ने ये विचार और सोच 20-30 साल पहले स्वीकार किए थे, जबकि तुमने इन्हें कुछ समय बाद स्वीकार किया। यानी, एक ही सामाजिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में, अगर तुम एक सामान्य व्यक्ति हो, तो तुमने और तुम्हारे माता-पिता ने शैतान से वही भ्रष्टता, सामाजिक आचार-विचार की वही शिक्षा और समाज की विविध बुरी प्रवृत्तियों से उपजने वाले वही विचार और सोच स्वीकार किए हैं। इस नजरिये से, बच्चे उसी प्रकार के हैं जिस प्रकार के उनके माता-पिता। अगर इस आधार को छोड़ दें कि परमेश्वर पूर्व-निर्धारण करता है, पूर्वनियत करता है और चयन करता है, तो परमेश्वर के दृष्टिकोण से, माता-पिता और बच्चे दोनों इस अर्थ में एक समान हैं कि वे सभी सृजित प्राणी हैं, और चाहे वे परमेश्वर की आराधना करने वाले सृजित प्राणी हों या न हों, उन सबको सामूहिक रूप से सृजित प्राणियों के रूप में जाना जाता है, और वे सभी परमेश्वर की संप्रभुता, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार करते हैं। इस नजरिये से, परमेश्वर की दृष्टि में माता-पिता और बच्चों का दर्जा वास्तव में एक-समान है, और वे सभी समान रूप से और बराबरी से परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करते हैं। यह एक वस्तुपरक तथ्य है। अगर वे सभी परमेश्वर द्वारा चुने गए हैं, तो उन सबके पास सत्य के अनुसरण के समान अवसर हैं। बेशक उनके पास परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करने और बचाए जाने के भी बराबर के अवसर हैं। इन समानताओं के अलावा, माता-पिता और बच्चों में बस एक ही अंतर है, जो यह है कि परिवार पदानुक्रम में माता-पिता का दर्जा उनके बच्चों से ऊपर होता है। परिवार पदानुक्रम में उनके दर्जे का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि वे सिर्फ एक पीढ़ी बड़े हैं, 20-30 साल बड़े—उम्र के बड़े अंतर के सिवाय यह कुछ नहीं है। और माता-पिता की विशेष हैसियत के कारण बच्चों को संतानोचित होकर अपने माता-पिता के प्रति अपने दायित्व निभाने चाहिए। किसी व्यक्ति की अपने माता-पिता के प्रति बस यही एक जिम्मेदारी है। लेकिन चूँकि सभी बच्चे और माता-पिता एक ही भ्रष्ट मानवजाति का हिस्सा हैं, माता-पिता अपने बच्चों के लिए नैतिक प्रतिमान नहीं हैं, न ही वे अपने बच्चों के सत्य के अनुसरण के लिए मानदंड या आदर्श हैं, न ही वे परमेश्वर की आराधना और आज्ञापालन के संबंध में अपने बच्चों के आदर्श हैं। बेशक माता-पिता सत्य का देहधारण नहीं हैं। लोगों की यह कोई बाध्यता या जिम्मेदारी नहीं है कि वे अपने माता-पिता को नैतिक प्रतिमान के रूप में लें, जिनकी आज्ञा का बिना शर्त पालन करना चाहिए। बच्चों को अपने माता-पिता के आचरण, कार्य और स्वभाव सार को जानने से डरना नहीं चाहिए। यानी अपने माता-पिता को सँभालने को लेकर, उन्हें ऐसे विचारों और सोच का पालन नहीं करना चाहिए, जैसे कि “माता-पिता हमेशा सही होते हैं।” यह सोच इस तथ्य पर आधारित है कि माता-पिता की हैसियत विशेष होती है, इस अर्थ में कि उन्होंने परमेश्वर के पूर्व-निर्धारण के अधीन तुम्हें जन्म दिया है, और तुमसे 20, 30 या 40-50 साल बड़े हैं। बस इस देह और रक्त संबंध के परिप्रेक्ष्य से, वे अपनी हैसियत और परिवार पदानुक्रम में अपने दर्जे के आधार पर अपने बच्चों से भिन्न हैं। लेकिन इस अंतर के कारण लोग मानते हैं कि उनके माता-पिता में कोई खामी नहीं है। क्या यह सही है? यह गलत, तर्कहीन है, और सत्य के अनुरूप नहीं है। कुछ लोग सोचते हैं कि माता-पिता और बच्चों के इस देह और रक्त संबंध के चलते उन्हें अपने माता-पिता से किस ढंग से पेश आना चाहिए। अगर माता-पिता परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो उनके साथ विश्वासियों की तरह पेश आना चाहिए; अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो उनके साथ अविश्वासियों जैसे पेश आना चाहिए। माता-पिता चाहे जिस प्रकार के लोग हों, उनके साथ तदनुरूप सत्य सिद्धांतों के अनुसार पेश आना चाहिए। अगर वे दानव हों, तो तुम्हें कहना चाहिए कि वे दानव हैं। अगर उनमें मानवता नहीं है, तो तुम्हें कहना चाहिए कि उनमें मानवता नहीं है। वे तुम्हें जो विचार और सोच सिखाते हैं अगर वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं, तो तुम्हें इन बातों को सुनने या स्वीकारने की जरूरत नहीं है, और तुम उन्हें उनके असली रूप में पहचानकर उजागर भी कर सकते हो। अगर तुम्हारे माता-पिता कहें, “मैं यह तुम्हारी ही भलाई के लिए कर रहा हूँ,” और वे झल्ला कर हंगामा खड़ा कर दें, तो क्या तुम परवाह करोगे? (नहीं, मैं परवाह नहीं करूँगा।) अगर तुम्हारे माता-पिता विश्वास न रखें, तो उन पर जरा भी ध्यान मत दो, और वह बात वहीं छोड़ दो। अगर वे बहुत बड़ा हंगामा करें, तो तुम देखोगे कि वे दानव हैं, उससे जरा भी कम नहीं हैं। परमेश्वर में आस्था से जुड़े ये सत्य ऐसे विचार और सोच हैं जिन्हें स्वीकार करने की लोगों को बड़ी जरूरत है। वे उन्हें स्वीकार नहीं कर सकते या उन्हें मान नहीं सकते, तो वे किस प्रकार की चीजें हैं? वे परमेश्वर के वचन नहीं समझते, तो वे अवमानवीय हैं, है न?

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (13)

तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बड़ा करते समय चाहे जितना भी पालन-पोषण किया हो, तुम्हारे प्रति चाहे जितनी भी जिम्मेदारियाँ पूरी की हों, वे बस वही कर रहे थे जो उन्हें एक सृजित मनुष्य की क्षमताओं के दायरे में करना ही चाहिए—यह उनका सहजज्ञान था। जरा पक्षियों को देखो, प्रजनन मौसम से एक महीने से भी पहले से वे अपने घोंसले बनाने के लिए लगातार सुरक्षित स्थान ढूँढ़ते रहते हैं। नर और मादा पक्षी बारी-बारी से बाहर जाते हैं और तरह-तरह के पौधे, पंख और डालियाँ लेकर अपेक्षाकृत घने वृक्षों में घोंसले बनाना शुरू कर देते हैं। अलग-अलग पक्षियों के तमाम छोटे-छोटे घोंसले बेहद मजबूत और पेचदार होते हैं। अपनी संतान की खातिर, पक्षी घोंसले और आश्रय बनाने में कड़ी मेहनत लगाते हैं। घोंसले बना लेने के बाद जब अंडे सेने का समय आता है, तो हर घोंसले में हमेशा एक पक्षी होता है; नर और मादा पक्षी रोज चौबीसों घंटे बारी-बारी से पारी देते हैं, और वे इस पर बड़ा ध्यान देते हैं—उनमें से एक के लौट आते ही दूसरा तुरंत वहाँ जाने के लिए उड़ जाता है। जल्दी ही कुछ चूजे पैदा होकर अंडे के खोल में चोंच मारकर अपने सिर बाहर निकालते हैं, और तुम उनके वृक्षों में उनका चहचहाना सुन सकते हो। वयस्क पक्षी उड़ कर आते-जाते रहते हैं, बड़ी सावधानी दिखाते हुए वे अपने चूजों को कभी कीड़े-मकोड़े तो कभी कुछ और खिलाने आते हैं। दो-चार महीने बाद कुछ चूजे थोड़ा बड़े हो जाते हैं, और फिर वे अपने घोंसले के मुहाने पर खड़े होकर पंख फड़फड़ा सकते हैं; उनके माता-पिता आते-जाते रहते हैं, बारी-बारी से अपने चूजों को खिलाते-पिलाते हैं, उनकी रक्षा करते हैं। ... सभी प्रकार के जीवित प्राणियों और पशुओं में ये सहजज्ञान और विधियाँ होती हैं, और वे उनका बढ़िया पालन कर उन्हें पूर्णता तक कार्यान्वित करते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे कोई भी व्यक्ति नष्ट नहीं कर सकता। कुछ विशेष पशु भी होते हैं, जैसे कि बाघ और सिंह। वयस्क हो जाने पर ये पशु अपने माता-पिता को छोड़ देते हैं, और उनमें से कुछ नर तो प्रतिद्वंद्वी भी बन जाते हैं, और जैसी जरूरत हो, वैसे काटते और लड़ते-झगड़ते हैं। यह सामान्य है, यह एक विधि है। वे बहुत स्नेही नहीं होते, वे लोगों की तरह यह कहकर अपनी भावनाओं में नहीं जीते, “मुझे उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना है, मुझे उनकी भरपाई करनी है—मुझे अपने माता-पिता का आज्ञापालन करना है। अगर मैंने उन्हें संतानोचित प्रेम नहीं दिखाया, तो दूसरे लोग मेरी निंदा करेंगे, मुझे बुरा समझेंगे, और पीठ पीछे मेरी आलोचना करेंगे। मैं इसे नहीं सह सकता!” पशु जगत में ऐसी बातें नहीं कही जातीं। लोग ऐसी बातें क्यों करते हैं? इस वजह से कि समाज में और लोगों के समुदायों में तरह-तरह के गलत विचार और सहमतियाँ हैं। लोगों के प्रभावित हो जाने, बिगड़ जाने और इन चीजों से सड़-गल जाने के बाद उनके भीतर माता-पिता और बच्चे के रिश्ते की व्याख्या करने और उससे निपटने के अलग-अलग तरीके पैदा होते हैं, और आखिरकार वे अपने माता-पिता से लेनदारों जैसा बर्ताव करते हैं—ऐसे लेनदार जिनका कर्ज वे पूरी जिंदगी नहीं चुका सकेंगे। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने माता-पिता के निधन के बाद पूरी जिंदगी अपराधी महसूस करते हैं, और सोचते हैं कि वे अपने माता-पिता की दयालुता के लायक नहीं थे, क्योंकि उन्होंने वह काम किया जिससे उनके माता-पिता खुश नहीं हुए या वे उस राह पर नहीं चले जो उनके माता-पिता चाहते थे। मुझे बताओ, क्या यह ज्यादती नहीं है? लोग अपनी भावनाओं के बीच जीते हैं, तो इन भावनाओं से उपजनेवाले तरह-तरह के विचारों से ही वे अतिक्रमित और परेशान हो सकते हैं। लोग एक ऐसे माहौल में जीते हैं जो भ्रष्ट मानवजाति की विचारधारा से रंगा होता है, तो वे तरह-तरह के गलत विचारों से अतिक्रमित और परेशान होते हैं, जिससे उनकी जिंदगी दूसरे जीवित प्राणियों से ज्यादा थकाऊ और कम सरल होती है। लेकिन फिलहाल, चूँकि परमेश्वर कार्यरत है, और चूँकि वह इन तमाम तथ्यों की सच्ची प्रकृति बताने और उन्हें सत्य समझने योग्य बनाने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है, इसलिए सत्य को समझ लेने के बाद ये गलत विचार और सोच तुम पर बोझ नहीं बनेंगे और फिर वे वह मार्गदर्शक भी नहीं बनेंगे जो तुम्हें बताए कि अपने माता-पिता से तुम्हें अपना रिश्ता कैसे निभाना चाहिए। तब तुम्हारा जीवन ज्यादा सुकून-भरा रहेगा। सुकून-भरा जीवन जीने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों का ज्ञान नहीं होगा—तुम अब भी ये चीजें जान सकोगे। यह बस इस पर निर्भर करता है कि तुम अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों से पेश आने के लिए कौन-सा नजरिया और तरीके चुनते हो। एक रास्ता भावनाओं की राह पकड़ना है और इन चीजों से भावनात्मक उपायों और शैतान द्वारा मनुष्य को दिखाए गए तरीकों, विचारों और सोच के साथ निपटना है। दूसरा रास्ता इन चीजों से परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सिखाए वचनों के आधार पर निपटना है। जब लोग ये मामले शैतान के गलत विचारों और सोच के अनुसार सँभालते हैं, तो वे बस अपनी भावनाओं की उलझनों में ही जी सकते हैं, और कभी भी सही-गलत में फर्क नहीं कर सकते। इन हालात में उनके पास जाल में फँसकर जीने के सिवाय कोई चारा नहीं रहता, वे हमेशा ऐसे मामलों में उलझे रहते हैं जैसे कि “तुम सही हो, मैं गलत। तुमने मुझे ज्यादा दिया है, मैंने तुम्हें कम दिया। तुम कृतघ्न हो। तुमने मेरे लिए बहुत ज्यादा किया है।” नतीजतन, कभी भी कोई ऐसा वक्त नहीं होता जब वे स्पष्ट बातें करते हों। लेकिन, लोगों के सत्य समझने के बाद, और जब वे गलत विचारों, सोच और भावनाओं से बच निकलते हैं, तो ये मामले उनके लिए सरल हो जाते हैं। अगर तुम उन सत्य सिद्धांतों, विचारों और सोच का पालन करते हो जो सही हैं और परमेश्वर से आए हैं, तो तुम्हारा जीवन बहुत सुकून-भरा हो जाएगा। अब अपने माता-पिता से अपने रिश्तों को सँभालने में न जनमत रुकावट बनेगा, न तुम्हारे जमीर की जागरूकता, और न ही तुम्हारी भावनाओं का बोझ; इसके विपरीत, ये चीजें तुम्हें इस योग्य बना देंगी कि तुम इस रिश्ते का सही और तार्किक ढंग से सामना कर सको। ... मैं इस विषय पर इसलिए संगति नहीं कर रहा हूँ कि तुम अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात करो, और निश्चित रूप से इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि तुम अपने और अपने माता-पिता के बीच सीमारेखा खींच लो—हम कोई आंदोलन शुरू नहीं कर रहे हैं, कोई सीमारेखा खींचने की जरूरत नहीं है। मैं इस पर सिर्फ इसलिए संगति कर रहा हूँ ताकि तुम्हें इन मामलों की सही समझ मिल सके, और सही विचार और सोच स्वीकारने में तुम्हें मदद मिल सके। साथ ही मैं इस पर इसलिए भी संगति कर रहा हूँ ताकि जब ये चीजें तुम्हारे सामने आएँ, तो तुम इनसे परेशान न हो जाओ या तुम्हारे हाथ-पाँव बँध न जाएँ, और इससे भी ज्यादा जरूरी बात यह है कि जब इन चीजों से तुम्हारा सामना हो, तो वे एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित न करें। इस तरह, मेरी संगति अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगी।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17)

अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा: क्या यह सत्य है? (नहीं।) अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा गलत नहीं होती है, यह एक सकारात्मक बात है—तो फिर मैं यह क्यों कहता हूँ कि यह सत्य नहीं है? यदि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास करते हैं और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करते हैं, तो क्या तुम संतानोचित हो? (हाँ।) तुम संतानोचित कैसे हो? तुम उनके साथ अपने भाई-बहनों से अलग व्यवहार करते हो। तुम उन्हें माता-पिता के रूप में सम्मान देते हो, तुम उनके द्वारा बताए गए हर काम को करते हो, और यदि वे बूढ़े हों, तो तुम उनकी देखभाल के लिए उनके पास रहते हो, जो तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने के लिए बाहर जाने से रोकता है। क्या ऐसा करना सही है? ऐसे समय में तुम्हें क्या करना चाहिए? यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यदि तुम अब भी आस-पास ही कहीं अपना कर्तव्य निभाते हुए उनकी देखभाल कर पा रहे हो, और तुम्हारे माता-पिता को परमेश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था पर आपत्ति नहीं है, तो तुम्हें एक पुत्र या पुत्री के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए और अपने माता-पिता की मदद करनी चाहिए। यदि वे बीमार हों, तो उनकी देखभाल करो; अगर उन्हें कोई परेशानी हो, तो उन्हें आराम दो; यदि तुम्हारी आर्थिक परिस्थितियाँ अनुमति दें, तो उन्हें पोषक आहार दो। बहरहाल, यदि तुम अपने कर्तव्य में व्यस्त रहते हो, यदि तुम्हारे माता-पिता की देखभाल करने वाला और कोई न हो, और वे भी परमेश्वर में विश्वास करते हों, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कौन-से सत्य का अभ्यास करना चाहिए? चूँकि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना सत्य नहीं, बल्कि केवल एक मानवीय जिम्मेदारी और दायित्व है, तो तुम्हें तब क्या करना चाहिए जब तुम्हारा दायित्व तुम्हारे कर्तव्य से टकराता हो? (अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए; कर्तव्य को पहले रखना चाहिए।) दायित्व अनिवार्य रूप से व्यक्ति का कर्तव्य नहीं है। अपना कर्तव्य निभाने का चुनाव करना सत्य का अभ्यास करना है, जबकि दायित्व पूरा करना सत्य का अभ्यास करना नहीं है। अगर परिस्थितियाँ सही हों, तो तुम यह जिम्मेदारी या दायित्व पूरा कर सकते हो, लेकिन अगर वर्तमान परिवेश इसकी अनुमति न दे, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, “मुझे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए—यही सत्य का अभ्यास करना है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना अपने जमीर से जीना है, सत्य के अभ्यास के लिए ये पर्याप्त नहीं है।” इसलिए, तुम्हें अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए और उस पर कायम रहना चाहिए। अगर अभी तुम्हारे पास कोई कर्तव्य नहीं है और तुम घर से दूर रहकर काम नहीं करते, और अपने माता-पिता के पास रहते हो, तो उनकी देखभाल करने के तरीके खोजो। उन्हें थोड़ा बेहतर जीने और उनके कष्ट कम करने में मदद करने की पूरी कोशिश करो। लेकिन यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि तुम्हारे माता-पिता किस तरह के लोग हैं। अगर तुम्हारे माता-पिता खराब मानवता के हैं और तुम्हें लगातार परमेश्वर में विश्वास करने से रोकते हैं, अगर वे तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने से दूर खींचते रहते हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें किस सत्य का अभ्यास करना चाहिए? (त्याग का।) उस समय तुम्हें उनका त्याग कर देना चाहिए। तुमने अपना दायित्व पूरा किया है। तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, इसलिए उनका भरण-पोषण करने का तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है। अगर वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परिवार हैं, तुम्हारे माता-पिता हैं। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तो तुम लोग अलग-अलग मार्ग पर चल रहे हो : वे शैतान में विश्वास करते हैं और शैतान की पूजा करते हैं, और वे शैतान के मार्ग पर चलते हैं, जो उन लोगों के मार्ग से भिन्न है जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं। अब तुम एक परिवार नहीं हो। वे परमेश्वर में विश्वास करने वालों को अपना विरोधी और शत्रु मानते हैं, इसलिए उनकी देखभाल करने का तुम्हारा दायित्व नहीं रह गया है और तुम्हें उनसे पूरी तरह से संबंध तोड़ लेना चाहिए। सत्य क्या है : अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना या अपना कर्तव्य निभाना? बेशक, अपना कर्तव्य निभाना सत्य है। परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाना केवल अपना दायित्व पूरा करना और वह करना नहीं है जो व्यक्ति को करना चाहिए। यह सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना है। यहाँ परमेश्वर का आदेश है; यह तुम्हारा दायित्व है, तुम्हारी जिम्मेदारी है। यह सच्ची जिम्मेदारी है, जो सृष्टिकर्ता के समक्ष अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना है। यह सृष्टिकर्ता की लोगों से अपेक्षा है और यह जीवन का बड़ा मामला है। लेकिन अपने माता-पिता का सम्मान करना एक बेटे या बेटी की जिम्मेदारी और दायित्व मात्र है। यह निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा आदेशित नहीं है और यह परमेश्वर की अपेक्षा तो बिल्कुल भी पूरी नहीं करता। इसलिए, इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने माता-पिता का सम्मान करने और केवल अपना कर्तव्य निभाने में से अपना कर्तव्य निभाना ही सत्य का अभ्यास करना है। एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना सत्य और एक अनिवार्य कर्तव्य है। अपने माता-पिता का सम्मान करना लोगों के प्रति संतानोचित होना है। इसका मतलब यह नहीं कि व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा है, न ही इसका मतलब यह है कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?

अगर अपने जीवन-परिवेश और उस संदर्भ के आधार पर, जिसमें तुम खुद को पाते हो, अपने माता-पिता का सम्मान करने से परमेश्वर का आदेश पूरा करने और अपना कर्तव्य निभाने में कोई टकराव नहीं होता—या, दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता का सम्मान करने से तुम्हारे निष्ठापूर्वक कर्तव्य-प्रदर्शन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता—तो तुम एक ही समय में उन दोनों का अभ्यास कर सकते हो। तुम्हें अपने माता-पिता से औपचारिक रूप से अलग होने, उन्हें औपचारिक रूप से त्यागने या नकारने की जरूरत नहीं। यह किस स्थिति में लागू होता है? (जब अपने माता-पिता का सम्मान करना व्यक्ति के कर्तव्य-प्रदर्शन से नहीं टकराता।) यह सही है। दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालने की कोशिश नहीं करते, और वे भी विश्वासी हैं, और वे वाकई तुम्हें अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाने और परमेश्वर का आदेश पूरा करने में समर्थन और प्रोत्साहन देते हैं, तो तुम्हारे माता-पिता के साथ तुम्हारा रिश्ता, आम शाब्दिक अर्थ में, रिश्तेदारों के बीच का दैहिक रिश्ता नहीं है, वह कलीसिया के भाई-बहनों के बीच का रिश्ता है। उस स्थिति में, उनके साथ कलीसिया के साथी भाई-बहनों की तरह बातचीत करने के अलावा तुम्हें उनके प्रति अपनी कुछ संतानोचित जिम्मेदारियाँ भी पूरी करनी चाहिए। तुम्हें उनके प्रति थोड़ा अतिरिक्त सरोकार दिखाना चाहिए। अगर इससे तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन प्रभावित नहीं होता, यानी, अगर वे तुम्हारे दिल को विवश नहीं करते, तो तुम अपने माता-पिता को फोन करके उनका हालचाल पूछ सकते हो और उनके लिए थोड़ा सरोकार दिखा सकते हो, तुम उनकी कुछ कठिनाइयाँ हल करने और उनके जीवन की कुछ समस्याएँ सुलझाने में मदद कर सकते हो, यहाँ तक कि तुम उनके जीवन-प्रवेश के संदर्भ में उनकी कुछ कठिनाइयाँ हल करने में भी मदद कर सकते हो—तुम ये सभी चीजें कर सकते हो। दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा नहीं डालते, तो तुम्हें उनके साथ यह रिश्ता बनाए रखना चाहिए, और तुम्हें उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। और तुम्हें उनके लिए सरोकार क्यों दिखाना चाहिए, उनकी देखभाल क्यों करनी चाहिए और उनका हालचाल क्यों पूछना चाहिए? क्योंकि तुम उनकी संतान हो और तुम्हारा उनके साथ यह रिश्ता है, तुम्हारी एक और तरह की जिम्मेदारी है, और इस जिम्मेदारी के कारण तुम्हें उनकी थोड़ी और खैर-खबर लेनी चाहिए और उन्हें और ज्यादा ठोस सहायता प्रदान करनी चाहिए। अगर यह तुम्हारे कर्तव्य-प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करता और अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और तुम्हारे कर्तव्य-प्रदर्शन में बाधा नहीं डालते या गड़बड़ी नहीं करते, और वे तुम्हें रोकते भी नहीं, तो तुम्हारे लिए उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना स्वाभाविक और उचित है और तुम्हें इसे उस हद तक करना चाहिए, जिस हद तक तुम्हारा जमीर तुम्हें न धिक्कारे—यह सबसे न्यूनतम मानक है, जिसे तुम्हें पूरा करना चाहिए। अगर तुम अपनी परिस्थितियों के प्रभाव और बाधा के कारण घर पर अपने माता-पिता का सम्मान नहीं कर पाते, तो तुम्हें इस नियम का पालन करने की जरूरत नहीं। तुम्हें अपने आपको परमेश्वर के आयोजनों के हवाले कर देना चाहिए और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए, और तुम्हें अपने माता-पिता का सम्मान करने पर जोर देने की जरूरत नहीं है। क्या परमेश्वर इसकी निंदा करता है? परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता; वह लोगों को ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं करता। ... अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और वे तुम्हारे समान नहीं बोलते या समान शौक और लक्ष्य साझा नहीं करते और उस मार्ग पर नहीं चलते जिस पर तुम चलते हो, यहाँ तक कि परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालते हैं और सताते हैं, तब तुम उन्हें पहचान सकते हो, उनका सार समझ सकते हो और उन्हें नकार सकते हो। बेशक, अगर वे परमेश्वर को गाली देते हैं या तुम्हें कोसते हैं, तो तुम उन्हें अपने दिल में कोस सकते हो। तो, “अपने माता-पिता का सम्मान करना”, जिसकी परमेश्वर बात करता है, किसे संदर्भित करता है? तुम्हें इसका अभ्यास कैसे करना चाहिए? अर्थात्, अगर तुम अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो, तो उन्हें थोड़ा पूरा करो, और अगर तुम्हें उसका मौका नहीं मिलता, या अगर उनके साथ तुम्हारी बातचीत में टकराव पहले ही बहुत ज्यादा हो गया है, और तुम्हारे बीच द्वंद्व है, और तुम पहले ही उस बिंदु पर पहुँच गए हो जहाँ तुम अब एक-दूसरे को नहीं देख सकते, तो तुम्हें जल्दी से उनसे अलग हो जाना चाहिए। जब परमेश्वर इस तरह के माता-पिता का सम्मान करने की बात करता है, तो उसका मतलब है कि तुम्हें उनकी संतान होने की अपनी स्थिति के परिप्रेक्ष्य से अपनी संतानोचित जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए, और वे चीजें करनी चाहिए जो एक बच्चे को करनी चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए या उनके साथ बहस नहीं करनी चाहिए, तुम्हें उनके साथ मार-पीट नहीं करनी चाहिए या उन पर चिल्लाना नहीं चाहिए, उनके साथ गाली-गलौज नहीं करना चाहिए और अपनी पूरी क्षमता से उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। ये वे चीजें हैं, जो मानवता के दायरे में की जानी चाहिए; ये वे सिद्धांत हैं जिनका पालन “अपने माता-पिता का सम्मान करने” के संबंध में करना चाहिए। क्या इन्हें करना आसान नहीं है? तुम्हें यह कहते हुए अपने माता-पिता के साथ क्रोधपूर्ण व्यवहार करने की आवश्यकता नहीं है : “हे राक्षसो और अविश्वासियो, परमेश्वर तुम लोगों को आग और गंधक की झील और अथाह गड्ढे में जाने का शाप देता है, वह तुम्हें नरक के अठारहवें स्तर पर भेज देगा!” यह आवश्यक नहीं है, तुम्हें इस चरम सीमा तक जाने की जरूरत नहीं है। अगर परिस्थितियाँ अनुकूल हों और स्थिति की माँग हो, तो तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी संतानोचित जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो। अगर यह आवश्यक न हो, या अगर परिस्थितियाँ अनुकूल न हों और यह संभव न हो, तो तुम इस दायित्व से मुक्त हो सकते हो। तुम्हें सिर्फ इतना करने की जरूरत है कि जब तुम अपने माता-पिता से मिलो और उनके साथ बातचीत करो, तो अपनी संतानोचित जिम्मेदारियाँ पूरी कर दो। जब तुम ऐसा कर लेते हो, तो तुम्हारा कार्य पूरा हो जाता है। तुम इस सिद्धांत के बारे में क्या सोचते हो? (यह अच्छा है।) अपने माता-पिता समेत, अन्य सभी लोगों के प्रति तुम्हारे व्यवहार के सिद्धांत होने चाहिए। तुम जल्दबाजी में कार्य नहीं कर सकते, और अपने माता-पिता के साथ सिर्फ इसलिए गाली-गलौज नहीं कर सकते कि वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास के लिए तुम्हें सताते हैं। दुनिया में बहुत सारे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, बहुत सारे अविश्वासी हैं, और बहुत सारे लोग हैं जो परमेश्वर का अपमान करते हैं—क्या तुम उन सभी को कोसोगे और उन सभी पर चिल्लाओगे? अगर नहीं, तो तुम्हें अपने माता-पिता पर भी नहीं चिल्लाना चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता पर चिल्लाते हो, पर उन दूसरे लोगों पर नहीं, तो तुम क्रोध के बीच जी रहे हो, और परमेश्वर इसे पसंद नहीं करता। ऐसा मत सोचो कि अगर तुम अपने माता-पिता के साथ बिना किसी वाजिब कारण के गाली-गलौज करते हो और यह कहते हुए उन्हें कोसते हो कि वे राक्षस, जीवित शैतान और शैतान के अनुचर हैं, और उन्हें नरक में जाने का शाप देते हो, तो परमेश्वर तुमसे संतुष्ट होगा—ऐसा बिल्कुल नहीं है। सक्रियता के इस झूठे प्रदर्शन के कारण परमेश्वर तुम्हें स्वीकार्य नहीं पाएगा या यह नहीं कहेगा कि तुममें मानवता है। इसके बजाय, परमेश्वर कहेगा कि तुम्हारे कार्यों में भावनाएँ और क्रोध शामिल है। परमेश्वर को तुम्हारा इस तरह से कार्य करना पसंद नहीं आएगा, यह बहुत चरम है और उसकी इच्छा के अनुरूप नहीं है। अपने माता-पिता समेत, अन्य सभी लोगों के प्रति तुम्हारे व्यवहार के सिद्धांत होने चाहिए; चाहे वे परमेश्वर में विश्वास करते हों या नहीं, और चाहे वे दुष्ट लोग हों या नहीं, तुम्हें उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। परमेश्वर ने मनुष्य को यह सिद्धांत बताया है : यह दूसरों के साथ उचित व्यवहार करने के बारे में है—बात बस इतनी है कि लोगों की अपने माता-पिता के प्रति अतिरिक्त जिम्मेदारी है। तुम्हें बस यह जिम्मेदारी निभाने की जरूरत है। चाहे तुम्हारे माता-पिता विश्वासी हों या नहीं, चाहे वे अपने विश्वास का अनुसरण करते हों या नहीं, चाहे जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण और उनकी मानवता तुम्हारे साथ मेल खाती हो या नहीं, तुम्हें बस उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की जरूरत है। तुम्हें उनसे बचने की जरूरत नहीं—बस हर चीज परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के अनुसार स्वाभाविक रूप से होने दो। अगर वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालते हों, तो भी तुम्हें अपनी पूरी क्षमता से अपनी संतानोचित जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, ताकि कम से कम तुम्हारा जमीर उनके प्रति ऋणी महसूस न करे। अगर वे तुम्हें बाधित नहीं करते और परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का समर्थन करते हैं, तो तुम्हें भी सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, उचित हो तो उनके साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। संक्षेप में, चाहे कुछ भी हो, मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ बदलतीं नहीं, और सत्य के वे सिद्धांत, जिनका लोगों को अभ्यास करना चाहिए, बदल नहीं सकते। इन मामलों में तुम्हें बस सिद्धांत कायम रखने और वे जिम्मेदारियाँ निभाने की जरूरत है, जिन्हें तुम निभा सकते हो।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (4)

परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? जिससे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, यदि वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास सही मार्ग है और यह उनका उद्धार कर सकता है, फिर भी ग्रहणशील नहीं होते, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे सत्य से विमुख रहने वाले और नफरत करने वाले लोग हैं और वे परमेश्वर का विरोध और उससे नफरत करते हैं—और स्वाभाविक तौर पर परमेश्वर उनसे अत्यंत घृणा और नफरत करता है। क्या तुम ऐसे माता-पिता से अत्यंत घृणा कर सकते हो? वे परमेश्वर का विरोध और उसकी आलोचना करते हैं—ऐसे में वे निश्चित रूप से दानव और शैतान हैं। क्या तुम उनसे नफरत कर उन्हें धिक्कार सकते हो? ये सब वास्तविक प्रश्न हैं। यदि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकें, तो तुम्हें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? जैसा कि परमेश्वर चाहता है, परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो। अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा, “कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई?” “क्योंकि जो कोई मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चले, वही मेरा भाई, और मेरी बहिन, और मेरी माता है।” ये वचन अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थे, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक स्पष्ट हैं : “उससे प्रेम करो, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा करो, जिससे परमेश्वर घृणा करता है।” ये वचन बिलकुल सीधे हैं, फिर भी लोग अकसर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते। अगर कोई व्यक्ति ऐसा है, जो परमेश्वर को नकारता और उसका विरोध करता है, जो परमेश्वर द्वारा शापित है, लेकिन वह तुम्हारी माता या पिता या कोई संबंधी है, और जहाँ तक तुम जानते हो वह कोई दुष्ट व्यक्ति नहीं है और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करता है, तो संभवतः तुम उस व्यक्ति से घृणा न कर पाओ, यहाँ तक कि उसके निकट संपर्क में बने रहो, तुम्हारे संबंध अपरिवर्तित रहें। यह सुनना कि परमेश्वर ऐसे लोगों से नफरत करता है, तुम्हें परेशान करेगा, और तुम परमेश्वर के पक्ष में खड़े नहीं हो पाओगे और उन लोगों को निर्ममता से नकार नहीं पाओगे। तुम हमेशा भावनाओं से बँधे रहते हो, और तुम उन्हें पूरी तरह छोड़ नहीं सकते। इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तुम्हारी भावनाएँ बहुत तीव्र हैं और ये तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं। वह व्यक्ति तुम्हारे लिए अच्छा है, इसलिए तुम उससे नफरत नहीं कर पाते। तुम उससे तभी नफरत कर पाते हो, जब उसने तुम्हें चोट पहुँचाई हो। क्या यह नफरत सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होगी? साथ ही, तुम परंपरागत धारणाओं से भी बँधे हो, तुम सोचते हो कि वे माता-पिता या रिश्तेदार हैं, इसलिए अगर तुम उनसे नफरत करोगे, तो समाज तुम्हारा तिरस्कार करेगा और जनमत तुम्हें धिक्कारेगा, कपूत, अंतरात्मा से विहीन, यहाँ तक कि अमानुष कहकर तुम्हारी निंदा करेगा। तुम्हें लगता है कि तुम्हें इसके लिए दैवीय निंदा और दंड भुगतना होगा। भले ही तुम उनसे नफरत करना चाहो, लेकिन तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें ऐसा नहीं करने देगी। तुम्हारी अंतरात्मा इस तरह काम क्यों करती है? इसका कारण यह है कि अपनी पारिवारिक विरासत, माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा और परंपरागत संस्कृति की समझ के जरिए तुम्हारे मन में बचपन से ही सोचने का एक ढर्रा बैठा दिया गया है। सोचने का यह ढर्रा तुम्हारे मन में बहुत गहरे पैठा हुआ है, और इसके कारण तुम गलती से यह विश्वास करते हो कि संतानोचित निष्ठा पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है, और अपने पुरखों से विरासत में मिली हर चीज हमेशा अच्छी होती है। पहले तुमने इसे सीखा और फिर यह तुम पर हावी हो जाता है, तुम्हारी आस्था में और सत्य स्वीकारने में आड़े आकर व्यवधान डालता है, और तुम्हें इस लायक नहीं छोड़ता कि तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में ला सको, तुम उससे प्रेम कर सको जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा कर सको जिससे परमेश्वर घृणा करता है। तुम दिल से जानते हो कि तुम्हें अपना जीवन परमेश्वर से मिला, अपने माता-पिता से नहीं, और तुम यह भी जानते हो कि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर पर विश्वास करना तो दूर उसका विरोध भी करते हैं, कि परमेश्वर उनसे घृणा करता है और तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पित होकर उसका साथ देना चाहिए, लेकिन तुम चाहो भी तो उनसे घृणा करने का साहस नहीं कर पाते। तुम इस कठिन स्थिति से निकलकर अपने में सुधार नहीं ला पाते, उनके लिए अपनी भावनाएँ नहीं दबा पाते और सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते। इसके मूल में क्या है? शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का इस्तेमाल तुम्हारे दिल, दिमाग और विचारों को बाँधने के लिए करता है, और तुम्हें परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं छोड़ता; तुम शैतान की इन चीजों के वश में आ चुके हो और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं रहे। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो तो ये चीजें तुम्हारे मन में खलल पैदा करती हैं, इनके कारण तुम सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध करने लगते हो, और तुममें इतनी शक्ति नहीं रहती कि अपने कंधे से परंपरागत संस्कृति का जुआ उतारकर फेंक सको। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता कर लेते हो : तुम यह विश्वास करना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही हैं और सत्य के अनुरूप भी हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचन ठुकरा या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और तुम बचाए जाने को महत्वपूर्ण नहीं समझते, तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी इस संसार में जी रहे हो और इन्हीं लोगों पर निर्भर रहकर जीवित रह सकते हो। समाज के आरोप-प्रत्यारोप झेलने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचन तज देना पसंद करते हो, खुद को नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के हवाले छोड़ देते हो, और परमेश्वर को नाराज करना और सत्य का अभ्यास न करना बेहतर समझते हो। क्या इंसान दीन-हीन नहीं है? क्या उन्हें परमेश्वर से उद्धार पाने की जरूरत नहीं है? कुछ लोगों ने बरसों से परमेश्वर पर विश्वास किया है, फिर भी उनके पास संतानोचित निष्ठा के मामले में कोई अंतर्दृष्टि नहीं है। वे वास्तव में सत्य को नहीं समझते। वे कभी भी सांसारिक संबंधों की बाधा नहीं तोड़ सकते; उनमें न साहस होता है न ही आत्मविश्वास, संकल्प होना तो दूरी की बात है, इसलिए वे परमेश्वर से प्रेम नहीं कर सकते, उसकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकते। कुछ लोग इससे परे तो देख सकते हैं लेकिन उनके लिए भी यह कहना आसान नहीं है, “मेरे माता-पिता परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं और वे मुझे भी विश्वास करने से रोकते हैं। वे शैतान हैं।” किसी भी अविश्वासी को यह विश्वास नहीं होता कि परमेश्वर का अस्तित्व है, या उसने स्वर्ग और धरती और सभी चीजें बनाई हैं, या मनुष्य को परमेश्वर ने बनाया है। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं, “मनुष्य को जीवन उसके माता-पिता ने दिया है और उसे उनका सम्मान करना चाहिए।” ऐसा विचार या दृष्टिकोण कहाँ से आता है? क्या यह शैतान से आता है? यह हजारों साल की परंपरागत संस्कृति है जिसने मनुष्य को इस तरह सिखाकर गुमराह किया है और उसे परमेश्वर की सृष्टि और संप्रभुता को ठुकराने को प्रेरित किया है। शैतान गुमराह और नियंत्रित न करे तो मानवजाति परमेश्वर के कार्यों की जाँच करेगी और उसके वचन पढ़ेगी, वह जान लेगी कि उसे परमेश्वर ने बनाया है, उसे परमेश्वर ने जीवन दिया है; वे जान लेंगे कि उनके पास जो कुछ भी है वह परमेश्वर ने दिया है, और यह परमेश्वर ही है जिसका उन्हें आभार मानना चाहिए। अगर कोई हमारा भला करता है, तो हमें उसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारना चाहिए—खासकर हमारे माता-पिता जिन्होंने हमें जन्म दिया और पाला-पोसा; यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर की सब पर संप्रभुता है; मनुष्य सिर्फ सेवा का जरिया है। अगर कोई खुद को परमेश्वर के लिए खपाने के लिए अपने माता-पिता या अपने पति (या पत्नी) और बच्चों को अपने से दूर कर सके तो फिर वह व्यक्ति और मजबूत हो जाएगा और परमेश्वर के सामने उसमें न्याय की अधिक समझ होगी।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है

एक दिन, जब तुम थोड़ा-बहुत सत्य समझ लोगे, तो तुम यह नहीं सोचोगे कि तुम्हारी माँ सबसे अच्छी इंसान है, या तुम्हारे माता-पिता सबसे अच्छे लोग हैं। तुम महसूस करोगे कि वे भी भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं, और उनके भ्रष्ट स्वभाव एक-जैसे हैं। उन्हें सिर्फ तुम्हारे साथ उनका शारीरिक रक्त-संबंध अलग करता है। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, तो वे भी अविश्वासियों के ही समान हैं। तब तुम उन्हें परिवार के किसी सदस्य के नजरिये से नहीं, या अपने देह के संबंध के नजरिये से नहीं, बल्कि सत्य के दृष्टिकोण से देखोगे। तुम्हें किन मुख्य पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर में विश्वास के बारे में उनके विचार, दुनिया पर उनके विचार, मामले सँभालने के बारे में उनके विचार, और सबसे महत्वपूर्ण बात, परमेश्वर के प्रति उनके दृष्टिकोण देखने चाहिए। अगर तुम इन पहलुओं का सही ढंग से आकलन करते हो, तो तुम स्पष्ट रूप से देख पाओगे कि वे अच्छे लोग हैं या बुरे। किसी दिन तुम स्पष्ट रूप से देख पाओगे कि वे बिल्कुल तुम्हारे जैसे भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग हैं। यह भी और स्पष्ट हो सकता है कि वे ऐसे दयालु लोग नहीं हैं जो तुमसे वास्तविक प्रेम करते हैं, जैसा कि तुम उन्हें समझते हो, और न वे तुम्हें सत्य की ओर या जीवन में सही रास्ते पर ले जाने में बिल्कुल भी समर्थ हैं। तुम स्पष्ट रूप से देख सकते हो कि उन्होंने तुम्हारे लिए जो कुछ किया है, वह बहुत लाभदायक नहीं है, और यह जीवन में सही रास्ता अपनाने में तुम्हारे लिए किसी काम का नहीं हैं। तुम यह भी देख सकते हो कि उनके कई अभ्यास और मत सत्य के विपरीत हैं, कि वे दैहिक हैं, और इससे तुम्हें उनसे घृणा होती है, और तुम उनसे दूर हटते और विमुख होते हो। अगर तुम इन चीजों को भाँप सको तो फिर तुम उनके साथ सही ढंग से व्यवहार कर पाओगे, तब तुम उनकी कमी महसूस नहीं करोगे, उनके बारे में चिंता नहीं करोगे और उनसे अलग होने में कोई परेशानी महसूस नहीं करोगे। उन्होंने माता-पिता के रूप में अपना उद्देश्य पूरा कर लिया है, इसलिए अब तुम उन्हें अपने सबसे करीबी लोग नहीं समझोगे और न ही उन्हें अपना आदर्श मानोगे। बल्कि, तुम उन्हें साधारण इंसान मानोगे और तब भावनाओं के बंधन से पूरी तरह से मुक्त हो जाओगे और अपनी भावनाओं और पारिवारिक स्नेह से उबर जाओगे। एक बार तुम ऐसा कर लोगे तो तुम्हें एहसास हो जाएगा कि ये चीजें संजोने लायक नहीं हैं। उस समय तुम देखोगे कि रिश्तेदार, परिवार और देह के संबंध सत्य को समझने और खुद को भावनाओं से मुक्त करने की राह की बाधाएँ हैं। इसका कारण यह है कि उनके साथ तुम्हारे पारिवारिक संबंध हैं—वे देह के संबंध जो तुम्हें पंगु बना देते हैं, तुम्हें गुमराह करते हैं और यकीन दिलाते हैं कि वे तुमसे सर्वोत्तम व्यवहार करते हैं, तुम्हारे सबसे निकट हैं, तुम्हारी चिंता सबसे ज्यादा करते हैं, तुम्हें सर्वाधिक प्रेम करते हैं—इन सबके कारण तुम स्पष्ट रूप से यह नहीं पहचान पाते कि वे लोग अच्छे हैं या बुरे। एक बार जब तुम इन भावनाओं से सचमुच किनारा कर लेते हो, भले ही तुम समय-समय पर उनके बारे में सोचते रहो, क्या तुम तब भी तहेदिल से उनकी कमी महसूस करोगे, उनके बारे में ही सोचते रहोगे, और क्या तब भी तुम उनके लिए वैसे ही तड़पोगे जैसे अभी तड़पते हो? ऐसा नहीं होगा। तुम ऐसा नहीं कहोगे : “जिस व्यक्ति के बिना मैं वाकई रह नहीं सकता वह मेरी माँ है; वही मुझसे प्यार करती है, मेरी देखभाल करती है और मेरी सबसे ज्यादा फिक्र करती है।” जब तुम इतना समझने लगोगे तो क्या उन्हें याद करते हुए तुम अब भी विलाप करोगे? नहीं। यह समस्या हल हो जाएगी। इसलिए जो समस्याएँ या मामले तुम्हारे लिए कठिनाई पैदा कर रहे हैं, उनके संबंध में अगर तुमने सत्य के उस पहलू को हासिल नहीं किया है और सत्य वास्तविकता के उस पहलू में प्रवेश नहीं किया है तो तुम ऐसी कठिनाइयों या दशाओं में फँसे रहोगे और इनसे कभी नहीं निकल पाओगे। अगर तुम इस प्रकार की कठिनाइयों और समस्याओं को जीवन की मुख्य समस्याएँ मानोगे और फिर इन्हें हल करने के लिए सत्य खोजोगे तो फिर तुम सत्य वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर लोगे; तुम अनजाने में ही, इन कठिनाइयों और समस्याओं से सबक सीख लोगे। जब समस्याएँ हल हो जाएँगी तो तुम्हें एहसास होगा कि तुम अपने माता-पिता और परिजनों के उतने करीब नहीं हो, तुम उनके प्रकृति सार को अधिक स्पष्टता से समझ सकोगे, और तुम समझ जाओगे कि वे सचमुच किस प्रकार के लोग हैं। जब तुम अपने प्रियजनों को स्पष्ट रूप से जान जाओगे तो कहोगे : “मेरी माँ सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करती है; वास्तव में वह सत्य से विमुख होती है और घृणा करती है। अपने सार में, वह दुष्ट इंसान है, शैतान है। मेरे पिता खुशामदी इंसान हैं और मेरी माँ के साथ खड़े हैं। वह न तो सत्य को स्वीकार करते हैं और न इसका अभ्यास करते हैं; वह सत्य का अनुसरण करने वाले इंसान नहीं हैं। अपने व्यवहार के आधार पर मेरे माता-पिता अविश्वासी हैं; वे दोनों ही शैतान हैं। मुझे उनसे पूरी तरह विद्रोह करना होगा और उनके साथ स्पष्ट सीमारेखा खींचनी होंगी।” इस तरह तुम सत्य के पक्ष में खड़े हो सकोगे और उन्हें त्याग सकोगे। जब तुम यह पहचान लोगे कि वे कौन हैं, किस किस्म के लोग हैं, तो क्या तब भी तुम्हारे मन में उनके लिए भावनाएँ उमड़ेंगी? क्या तुम तब भी उनके प्रति स्नेह महसूस करोगे? क्या तुम तब भी उनके साथ संबंध रखोगे? तुम ऐसा नहीं करोगे। क्या तुम्हें तब भी अपनी भावनाओं को रोकने की जरूरत पड़ेगी? (नहीं।) तो इन कठिनाइयों को हल करने के लिए तुम असल में किस पर यकीन करते हो? तुम सत्य समझने, परमेश्वर पर निर्भर रहने और परमेश्वर की ओर देखने पर यकीन करते हो। अगर तुम्हारे मन में इन चीजों को लेकर स्पष्टता है तो क्या तब भी तुम्हें खुद को रोकने की जरूरत है? क्या तब भी तुम्हें लगता है कि तुम्हारे साथ गलत हुआ है? क्या तुम्हें तब भी इतनी अधिक पीड़ा सहने की जरूरत है? क्या तुम्हें अपने साथ संगति करने और विचारधारा का कार्य करने के लिए तब भी दूसरों की जरूरत है? तुम्हें ऐसी जरूरत नहीं है क्योंकि तुम खुद पहले ही चीजों को सुलझा चुके हो—यह बहुत आसान है। विषय पर लौटें तो उनके बारे में सोचने की इच्छा या उनकी कमी खलने के मुद्दे को तुम कैसे हल करोगे? (सत्य को खोजकर।) ये भारी-भरकम शब्द हैं और सुनने में बहुत औपचारिक लगते हैं—थोड़ा और व्यावहारिक रूप से बताओ। (परमेश्वर के वचनों का प्रयोग कर उनके सार को स्पष्ट देखना; अर्थात, सार के आधार पर उनकी पहचान करना। तब हम अपने स्नेह और अपने दैहिक संबंधों को परे रखने में सक्षम रहेंगे।) बिल्कुल सही। तुम्हें लोगों के प्रकृति सार की पहचान परमेश्वर के वचनों के आधार पर करनी चाहिए। परमेश्वर के वचनों के अनुभव के बिना कोई भी व्यक्ति दूसरों के प्रकृति सार को स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकता है। परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर टिके रहकर ही दूसरे लोगों के प्रकृति सार को स्पष्ट समझा जा सकता है; केवल तभी मानवीय भावनाओं की समस्या का समूल समाधान किया जा सकता है। पहले अपने स्नेह और दैहिक संबंधों को छोड़कर शुरुआत करो; जिसके लिए भी तुम्हारी भावनाएँ सबसे तीव्र हों, सबसे पहले उसी का विश्लेषण कर पहचान करनी चाहिए। तुम्हें यह समाधान कैसा लगता है? (यह अच्छा है।) कुछ लोग कहते हैं : “जिन लोगों से मेरी भावनाएँ सबसे मजबूती से जुड़ी हैं, उन्हें पहचानना और उनका विश्लेषण करना—यह कितनी निष्ठुर बात है!” उन्हें पहचानने का अर्थ यह नहीं है कि तुम उनसे अपने संबंध तोड़ लो—इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम अपने माता-पिता से संतान का संबंध तोड़ लो, उन्हें पूरी तरह त्याग दो, कभी भी उनके साथ बातचीत न करो। तुम्हें अपने प्रियजनों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, लेकिन तुम उनके कारण किसी विवशता या उलझन के शिकार नहीं बन सकते हो क्योंकि तुम परमेश्वर के अनुयायी हो; तुम्हें यह सिद्धांत अपनाना होगा। अगर तुम अब भी उनके कारण विवशता में पड़ जाओ या उलझ जाओ तो तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा सकते, न तुम गंतव्य तक परमेश्वर का अनुसरण करने की गारंटी दे सकते हो। अगर तुम परमेश्वर के अनुयायी या सत्य के अनुरागी न होते तो कोई भी तुमसे यह अपेक्षा न करता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल अपना भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने से ही सच्चा बदलाव आ सकता है

अय्यूब ने अपने बच्चों के साथ कैसा व्यवहार किया? एक पिता के नाते उसने अपना दायित्व पूरा किया, उनके साथ सुसमाचार साझा किया और सत्य पर संगति की। उन्होंने चाहे अय्यूब की बात सुनी या नहीं, उसकी आज्ञा मानी या नहीं, लेकिन उसने उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए कभी मजबूर नहीं किया—उसने उनके साथ कभी मारपीट, चीख-पुकार नहीं की या उनके जीवन में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। उनके विचार और राय अय्यूब के विचारों से भिन्न थे, तो वे जो कुछ भी करते उसमें उसने कभी हस्तक्षेप नहीं किया, वे किस मार्ग पर जा रहे हैं, इस मामले में उसने कभी हस्तक्षेप नहीं किया। क्या अय्यूब अपने बच्चों से परमेश्वर में विश्वास रखने को लेकर थोड़ी बात करता था? निश्चय ही, वह इस विषय में उनसे काफी बातें करता था, लेकिन वे उसकी बात न सुनते थे और न ही स्वीकारते थे। इस चीज के प्रति अय्यूब का क्या रवैया था? उसका कहना था, “मैंने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी; जहां तक बात है कि वे कौन-सा मार्ग अपनाते हैं, यह उन्हीं पर निर्भर करता है, यह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं पर निर्भर करता है। यदि परमेश्वर उन पर कार्य नहीं करता है या उन्हें प्रेरित नहीं करता है, तो मैं उन्हें बाध्य करने का प्रयास नहीं करूँगा।” इसलिए अय्यूब ने परमेश्वर से उनके लिए प्रार्थना नहीं की, उनके लिए पीड़ा के आंसू नहीं बहाए, उनके लिए उपवास नहीं रखा या किसी भी तरह कष्ट नहीं उठाए। उसने ये सब नहीं किया। अय्यूब ने यह सब क्यों नहीं किया? क्योंकि इनमें से कुछ भी करना परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना नहीं था; वे सब बातें मानवीय विचारों से उपजी थीं, यह अपने तरीके को जबरदस्ती किसी पर थोपने के तरीके थे। जब अय्यूब के बच्चों ने उसका रास्ता नहीं अपनाया तो उसका यह रवैया था; तो जब उसके बच्चे मरे, तब उसका रवैया कैसा था? वह रोया या नहीं? क्या उसने अपनी भावनाओं को व्यक्त किया? क्या उसे दुख महसूस हुआ? बाइबल में इस बारे में कोई उल्लेख नहीं है। जब अय्यूब ने अपने बच्चों को मरते देखा, तो क्या उसका दिल टूटा या उसे दुख हुआ? (हाँ, हुआ था।) अगर हम बच्चों के प्रति उसके प्रेम के बारे में बात करें, तो निश्चित रूप से उसे थोड़ा दुख महसूस जरूर हुआ था, लेकिन फिर भी उसने परमेश्वर के प्रति समर्पण किया। उसने अपना समर्पण कैसे व्यक्त किया? उसने कहा : “ये बच्चे मुझे परमेश्वर ने दिए थे। चाहे वे परमेश्वर में विश्वास करें या न करें, उनका जीवन परमेश्वर के हाथ में है। यदि उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास किया होता, और परमेश्वर उन्हें ले लेना चाहता, तब भी वह उन्हें ले ही लेता; यदि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तब भी यदि परमेश्वर ने कहा होता कि उन्हें ले लिया जाएगा तो उन्हें ले लिया गया होता। यह सब परमेश्वर के हाथ में है; नहीं तो लोगों की जान कौन ले सकता है?” संक्षेप में, इस ले लिए जाने का क्या मतलब है? “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। उसने अपने बच्चों के मामले में भी यही रवैया अपनाए रखा। चाहे वे जिंदा हों या मृत, उसने यही रवैया अपनाए रखा। उसका अभ्यास का तरीका सही था; अपने अभ्यास के हर तरीके में, और जिस दृष्टिकोण, रवैये और दशा से उसने भी चीजों को संभाला उसमें वह हमेशा समर्पण, प्रतीक्षा, खोज और फिर ज्ञान प्राप्त करने की स्थिति में था। यह रवैया बहुत महत्वपूर्ण है। यदि लोग अपने किसी भी काम में इस तरह का रवैया न अपनाएँ और उनके व्यक्तिगत विचार विशेष रूप से प्रबल हों और व्यक्तिगत इरादों और लाभ को बाकी हर चीज से पहले रखें, तो क्या वे वास्तव में समर्पण कर रहे हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों में वास्तविक समर्पण नहीं देखा जा सकता; वे वास्तविक समर्पण प्राप्त करने में असमर्थ हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के अभ्यास के सिद्धांत

अय्यूब की मानवता का एक और पहलू उसके और उसकी पत्नी के बीच इस संवाद में प्रदर्शित होता है : “तब उसकी स्त्री उससे कहने लगी, ‘क्या तू अब भी अपनी खराई पर बना है? परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा।’ उसने उससे कहा, ‘तू एक मूढ़ स्त्री की सी बातें करती है, क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?’” (अय्यूब 2:9-10)। वह जो यंत्रणा भुगत रहा था उसे देखकर, अय्यूब की पत्नी ने उसे इस यंत्रणा से बच निकलने में सहायता करने के लिए सलाह देने की कोशिश की, तो भी उसके “भले इरादों” को अय्यूब की स्वीकृति प्राप्त नहीं हुई; इसके बजाय, उन्होंने उसका क्रोध भड़का दिया, क्योंकि उसने यहोवा परमेश्वर में उसके विश्वास और उसके प्रति उसके समर्पण को नकारा था, और यहोवा परमेश्वर के अस्तित्व को भी नकारा था। यह अय्यूब के लिए असहनीय था, क्योंकि उसने, दूसरों की तो बात ही छोड़ दें, स्वयं अपने को भी कभी ऐसा कुछ नहीं करने दिया था जो परमेश्वर का विरोध करता हो या उसे ठेस पहुँचाता हो। उस समय वह कैसे चुपचाप रह सकता था जब उसने दूसरों को ऐसे वचन बोलते देखा जो परमेश्वर की निंदा और उसका अपमान करते थे? इस प्रकार उसने अपनी पत्नी को “मूढ़ स्त्री” कहा। अपनी पत्नी के प्रति अय्यूब की प्रवृत्ति क्रोध और घृणा, और साथ ही भर्त्सना और फटकार की थी। यह अय्यूब की मानवता की—प्रेम और घृणा के बीच अंतर करने की—स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी, और उसकी खरी मानवता का सच्चा निरूपण था। अय्यूब में न्याय की एक समझ थी—ऐसी समझ जिसकी बदौलत वह बुराई की प्रवृत्तियों और ज्वार से नफ़रत करता था, और अनर्गल मतांतरों, बेतुके तर्कों और हास्यास्पद दावों से घृणा, उनकी भर्त्सना और उन्हें अस्वीकार करता था, और वह स्वयं अपने, सही सिद्धांतों और रवैये को उस समय सच्चाई से थामे रह सका जब उसे भीड़ के द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था और उन लोगों द्वारा छोड़ दिया गया था जो उसके क़रीबी थे।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

हर एक इंसान की अपनी किस्मत होती है और यह सब परमेश्वर ने पहले से निर्धारित कर रखा है; कोई भी किसी दूसरे की किस्मत की जिम्मेदारी नहीं ले सकता। तुम्हें अपने परिवार पर दबाव डालना बंद करना होगा और सब कुछ छोड़ना और त्याग करना सीखना होगा। तुम यह कैसे कर सकते हो? एक तरीका परमेश्वर से प्रार्थना करना है। तुम्हें यह भी सोचना चाहिए कि तुम्हारे रिश्तेदार जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते वे दुनिया की चीजों, धन और दुनिया की सुख-सुविधाओं के पीछे भागते हैं। वे शैतान के हैं और वे तुम से अलग तरह के इंसान हैं। अगर तुम अपना कर्तव्य पूरा नहीं करते और उनके बीच रहते हो तो तुम कष्ट का जीवन व्यतीत करोगे। क्योंकि तुम मामलों को उनसे अलग तरीके से देखते हो, इसलिए तुम्हारी उनके साथ आ नहीं बनेगी बल्कि तुम्हें दर्द ही होगा। सिर्फ दुःख होगा, सुख नहीं मिलेगा। क्या स्नेह तुम्हें शांति और आनंद दिला सकता है? देह की इच्छापूर्ति करने से तुम्हें दर्द, खालीपन और उम्र भर पछतावे के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। यह एक ऐसी चीज है जिसे तुम्हें अच्छी तरह से समझने की जरूरत है। इसलिए तुम्हारा अपने परिवार को याद करना एकतरफा है; यह बिना किसी कारण के जजबाती होना है! तुम उनसे अलग रास्ते पर चल रहे हो। जीवन और दुनिया को लेकर तुम्हारा नजरिया, जीवन-पथ और अनुसरण के लक्ष्य सभी अलग हैं। अब तुम अपने परिवार के साथ नहीं हो लेकिन क्योंकि तुम्हारा खून एक ही है, इसलिए तुम्हें हमेशा लगता है कि तुम उनके करीब हो और तुम एक परिवार हो। हालाँकि जब तुम सच में उनके साथ रहने लगोगे, तो उनके साथ कुछ दिनों तक रहना ही तुम्हें पूरी तरह से परेशान कर देगा। वे झूठ से भरे हुए हैं; वे जो कहते हैं वह सब झूठ, मीठी बात और धोखेबाजी है। दुनिया के साथ व्यवहार करने और उससे निपटने का उनका तरीका सभी शैतानी फलसफे और जीवन की आदर्श-सूक्तियों पर आधारित है। उनके ख्याल और नजरिये सभी गलत और बेतुके हैं और वे सुनने में बिल्कुल बर्दाश्त से बाहर हैं। तब तुम मन में सोचोगे कि “मैं उन्हें हर वक्त अपने मन में रखता था और मुझे लगातार डर रहता था कि वे ठीक से नहीं रह रहे हैं। लेकिन अब इन लोगों के साथ रहना सचमुच बर्दाश्त से बाहर है!” तुम्हें उनसे नफरत होगी। तुम्हें अभी तक पता नहीं चला है कि वे किस तरह के लोग हैं, इसलिए तुम अभी भी सोचते हो कि पारिवारिक संबंध किसी भी दूसरी चीज से ज्यादा जरूरी और ज्यादा असली हैं। तुम अभी भी लगाव के आगे मजबूर हो। लगाव की उन चीजों को जितना संभव हो सके छोड़ देने का प्रयास करो। अगर तुम नहीं कर सकते तो अपना कर्तव्य ऊपर रखो। परमेश्वर का आदेश और तुम्हारा मिशन सबसे जरूरी है। सबसे पहले अपना कर्तव्य पूरा करना बाकी सभी चीजों में सबसे ऊपर है और अभी अपने रक्त-संबंधियों की उन चीजों के बारे में चिंता न करो। जब तुम्हें दिया गया आदेश और कर्तव्य पूरा हो जाता है, तो सत्य तुम्हारे लिए और अधिक स्पष्ट हो जाता है, परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता अधिक से अधिक सामान्य हो जाता है, तुम्हारा परमेश्वर का आज्ञाकारी दिल हमेशा से अधिक बड़ा हो जाता है और तुम्हारा परमेश्वर से भय मानने वाला दिल हमेशा से अधिक बड़ा और अधिक स्पष्ट हो जाता है, तब तुम्हारे अंदर की दशा बदल जाएगी। एक बार जब तुम्हारी दशा बदल जाएगी, तो तुम्हारे सांसारिक नजरिये और स्नेह खत्म हो जाएँगे, तुम अब उन चीजों की तलाश नहीं करोगे और तुम्हारा दिल सिर्फ यह तलाशना चाहेगा कि परमेश्वर से कैसे प्यार करें, उसे कैसे संतुष्ट करें, कैसे उस तरीके से जिंदगी गुजारें जिससे वह प्रसन्न हो और सत्य के साथ कैसे जिएँ। जब तुम्हारा दिल इस ओर कोशिश करने लगता है, तो देह की इच्छाओं से जुड़ी चीजें धीरे-धीरे धूमिल पड़ने लगती हैं और वे तुम्हें बांध या नियंत्रित नहीं कर पातीं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

जो अपने सर्वथा अविश्वासी बच्चों और रिश्तेदारों को कलीसिया में खींचकर लाते हैं, वे बेहद स्वार्थी हैं और सिर्फ़ अपनी दयालुता का प्रदर्शन कर रहे हैं। ये लोग इसकी परवाह किए बिना कि उनका विश्वास है भी या नहीं और यह परमेश्वर की इच्छा है या नहीं, केवल प्रेमपूर्ण बने रहने पर ध्यान देते हैं। कुछ लोग अपनी पत्नी को परमेश्वर के सामने लाते हैं या अपने माता-पिता को परमेश्वर के सामने खींचकर लाते हैं और इसकी परवाह किए बिना कि क्या पवित्र आत्मा सहमत है या उनमें कार्य कर रहा है, वे आँखें बंद कर परमेश्वर के लिए “प्रतिभाशाली लोगों को अपनाते रहते हैं”। इन गैर-विश्वासियों के प्रति दयालुता दिखाने से आखिर क्या लाभ मिल सकता है? यहाँ तक कि अगर वे जिनमें पवित्र आत्मा उपस्थित नहीं है, परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए संघर्ष भी करते हैं, तब भी उन्हें बचाया नहीं जा सकता। जो लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं, उनके लिए वास्तव में इसे प्राप्त करना उतना आसान नहीं है। जो लोग पवित्र आत्मा के कार्य और परीक्षणों से नहीं गुज़रे हैं और देहधारी परमेश्वर के द्वारा पूर्ण नहीं बनाए गए हैं, वे पूर्ण बनाए जाने में सर्वथा असमर्थ हैं। इसलिए जिस क्षण से वे नाममात्र के लिए परमेश्वर का अनुसरण आरंभ करते हैं, उन लोगों में पवित्र आत्मा मौजूद नहीं होता। उनकी स्थिति और वास्तविक अवस्थाओं के प्रकाश में, उन्हें पूर्ण बनाया ही नहीं जा सकता। इसलिए, पवित्र आत्मा उन पर अधिक ऊर्जा व्यय न करने का निर्णय लेता है, न ही वह उन्हें किसी प्रकार का प्रबोधन प्रदान करता है, न उनका मार्गदर्शन करता है; वह उन्हें केवल साथ चलने की अनुमति देता है और अंततः उनके परिणाम प्रकट करेगा—यही पर्याप्त है। मानवता का उत्साह और इच्छाएँ शैतान से आते हैं और किसी भी तरह ये चीज़ें पवित्र आत्मा का कार्य पूर्ण नहीं कर सकतीं। चाहे लोग किसी भी प्रकार के हों, उनमें पवित्र आत्मा का कार्य अवश्य होना चाहिए। क्या मनुष्य दूसरे मनुष्यों को पूरा कर सकते हैं? पति अपनी पत्नी से क्यों प्रेम करता है? पत्नी अपने पति से क्यों प्रेम करती है? बच्चे क्यों माता-पिता के प्रति कर्तव्यशील रहते हैं? और माता-पिता क्यों अपने बच्चों से अतिशय स्नेह करते हैं? लोग वास्तव में किस प्रकार की इच्छाएँ पालते हैं? क्या उनकी मंशा उनकी खुद की योजनाओं और स्वार्थी आकांक्षाओं को पूरा करने की नहीं है? क्या उनका इरादा वास्तव में परमेश्वर की प्रबंधन योजना के लिए कार्य करने का है? क्या वे परमेश्वर के कार्य के लिए कार्य कर रहे हैं? क्या उनकी मंशा सृजित प्राणी के कर्तव्यों को पूरा करने की है? वे जो परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू करने के समय से पवित्र आत्मा की उपस्थिति को नहीं पा सके हैं, वे कभी भी पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं पा सकते; ये लोग निश्चित रूप से नष्ट की जाने वाली वस्तुएँ हैं। इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि कोई उनसे कितना प्रेम करता है, यह पवित्र आत्मा के कार्य का स्थान नहीं ले सकता। लोगों का उत्साह और प्रेम, मानवीय इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करता है, पर परमेश्वर की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता और न ही वे परमेश्वर के कार्य का स्थान ले सकते हैं। यहाँ तक कि अगर कोई उन लोगों के प्रति अत्यधिक प्रेम या दया दिखा भी दे, जो नाममात्र के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसके अनुसरण का दिखावा करते हैं, बिना यह जाने कि वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है, फिर भी वे परमेश्वर की सहानुभूति प्राप्त नहीं करेंगे, न ही वे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करेंगे। भले ही जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण करते हैं कमज़ोर काबिलियत वाले हों, और बहुत सी सच्चाइयाँ न समझते हों, वे तब भी कभी-कभी पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हैं; लेकिन जो काफी अच्छी काबिलियत वाले हैं, मगर ईमानदारी से विश्वास नहीं करते, वे पवित्र आत्मा की उपस्थिति प्राप्त कर ही नहीं सकते। ऐसे लोगों के उद्धार की कोई संभावना नहीं है। यदि वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ें या कभी-कभी उपदेश सुनें, या परमेश्वर की स्तुति गाएं, तब भी वे अंततः विश्राम के समय तक बच नहीं पाएंगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे

अतीत में बोले गए ये वचन, “जब कोई प्रभु पर विश्वास करता है, तो सौभाग्य उसके पूरे परिवार पर मुस्कराता है” अनुग्रह के युग के लिए उपयुक्त हैं, परंतु मानवता के गंतव्य से संबंधित नहीं हैं। ये केवल अनुग्रह के युग के दौरान एक चरण के लिए ही उपयुक्त थे। उन वचनों का अर्थ शांति और भौतिक आशीष पर आधारित था, जिनका लोगों ने आनंद लिया; उनका मतलब यह नहीं था कि प्रभु को मानने वाले का पूरा परिवार बच जाएगा, न ही उनका मतलब यह था कि जब कोई आशीष पाता है, तो पूरे परिवार को भी विश्राम में लाया जा सकता है। किसी को आशीष मिलेगा या दुर्भाग्य सहना पड़ेगा, इसका निर्धारण व्यक्ति के सार के अनुसार होता है, न कि सामान्य सार के अनुसार, जो वह दूसरों के साथ साझा करता है। इस प्रकार की लोकोक्ति या नियम का राज्य में कोई स्थान है ही नहीं। यदि कोई अंत में बच पाता है, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि उसने परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा किया है और यदि कोई विश्राम के दिनों तक बचने में सक्षम नहीं हो पाता, तो इसलिए क्योंकि वे परमेश्वर के प्रति विद्रोही रहे हैं और उन्होंने परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया है। प्रत्येक के पास एक उचित गंतव्य है। ये गंतव्य प्रत्येक व्यक्ति के सार के अनुसार निर्धारित किए जाते हैं और दूसरे लोगों से इनका कोई संबंध नहीं होता। किसी बच्चे का दुष्ट व्यवहार उसके माता-पिता को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता और न ही किसी बच्चे की धार्मिकता उसके माता-पिता के साथ बाँटी जा सकती है। माता-पिता का दुष्ट आचरण उनकी संतानों को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता, न ही माता-पिता की धार्मिकता उनके बच्चों के साथ साझा की जा सकती है। हर कोई अपने-अपने पाप ढोता है और हर कोई अपने-अपने आशीषों का आनंद लेता है। कोई भी दूसरे का स्थान नहीं ले सकता; यही धार्मिकता है। मनुष्य के नज़रिए से, यदि माता-पिता आशीष पाते हैं, तो उनके बच्चों को भी मिलना चाहिए, यदि बच्चे बुरा करते हैं, तो उनके पापों के लिए माता-पिता को प्रायश्चित करना चाहिए। यह मनुष्य का दृष्टिकोण है और कार्य करने का मनुष्य का तरीक़ा है; यह परमेश्वर का दृष्टिकोण नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के परिणाम का निर्धारण उसके आचरण से पैदा होने वाले सार के अनुसार होता है और इसका निर्धारण सदैव उचित तरीक़े से होता है। कोई भी दूसरे के पापों को नहीं ढो सकता; यहाँ तक कि कोई भी दूसरे के बदले दंड नहीं पा सकता। यह सुनिश्चित है। माता-पिता द्वारा अपनी संतान की बहुत ज़्यादा देखभाल का अर्थ यह नहीं कि वे अपनी संतान के बदले धार्मिकता के कर्म कर सकते हैं, न ही किसी बच्चे के माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ स्नेह का यह अर्थ है कि वे अपने माता-पिता के लिए धार्मिकता के कर्म कर सकते हैं। यही इन वचनों का वास्तविक अर्थ है, “उस समय दो जन खेत में होंगे, एक ले लिया जाएगा और दूसरा छोड़ दिया जाएगा। दो स्त्रियाँ चक्‍की पीसती रहेंगी, एक ले ली जाएगी और दूसरी छोड़ दी जाएगी।” लोग बुरा करने वाले बच्चों के प्रति गहरे प्रेम के आधार पर उन्हें विश्राम में नहीं ले जा सकते, न ही कोई अपनी पत्नी (या पति) को अपने धार्मिक आचरण के आधार पर विश्राम में ले जा सकता है। यह एक प्रशासनिक नियम है; किसी के लिए कोई अपवाद नहीं हो सकता। अंत में, धार्मिकता करने वाले धार्मिकता ही करते हैं और बुरा करने वाले, बुरा ही करते हैं। अंततः धार्मिकों को बचने की अनुमति मिलेगी, जबकि बुरा करने वाले नष्ट हो जाएंगे। पवित्र, पवित्र हैं; वे गंदे नहीं हैं। गंदे, गंदे हैं और उनमें पवित्रता का एक भी अंश नहीं है। जो लोग नष्ट किए जाएँगे, वे सभी दुष्ट हैं और जो बचेंगे वे सभी धार्मिक हैं—भले ही बुरा कार्य करने वालों की संतानें धार्मिक कर्म करें और भले ही किसी धार्मिक व्यक्ति के माता-पिता दुष्टता के कर्म करें। एक विश्वास करने वाले पति और विश्वास न करने वाली पत्नी के बीच कोई संबंध नहीं होता और विश्वास करने वाले बच्चों और विश्वास न करने वाले माता-पिता के बीच कोई संबंध नहीं होता; ये दोनों तरह के लोग पूरी तरह असंगत हैं। विश्राम में प्रवेश से पहले एक व्यक्ति के रक्त-संबंधी होते हैं, किंतु एक बार जब उसने विश्राम में प्रवेश कर लिया, तो उसके कोई रक्त-संबंधी नहीं होंगे। जो अपना कर्तव्य करते हैं, उनके शत्रु हैं जो कर्तव्य नहीं करते हैं; जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं और जो उससे घृणा करते हैं, एक दूसरे के उलट हैं। जो विश्राम में प्रवेश करेंगे और जो नष्ट किए जा चुके होंगे, वे बेमेल किस्म के अलग-अलग सृजित प्राणी हैं। जो सृजित प्राणी अपने कर्तव्य निभाते हैं, बचने में समर्थ होंगे, जबकि वे जो अपने कर्तव्य नहीं निभाते, विनाश की वस्तुएँ बनेंगे; यही नहीं, यह सब अनंत काल तक चलेगा। क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए अपने पति से प्रेम करती हो? क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए अपनी पत्नी से प्रेम करते हो? क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपने नास्तिक माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ हो? परमेश्वर पर विश्वास करने के मामले में मनुष्य का दृष्टिकोण सही या ग़लत है? तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो? तुम क्या पाना चाहते हो? तुम परमेश्वर से कैसे प्रेम करते हो? जो लोग पैदा हुए प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं कर सकते और जो पूरा प्रयास नहीं कर सकते, वे विनाश की वस्तु बनेंगे। आज लोगों में एक दूसरे के बीच भौतिक संबंध होते हैं, उनके बीच खून के रिश्ते होते हैं, किंतु भविष्य में, यह सब ध्वस्त हो जाएगा। विश्वासी और अविश्वासी संगत नहीं हैं, बल्कि वे एक दूसरे के विरोधी हैं। वे जो विश्राम में हैं, विश्वास करेंगे कि कोई परमेश्वर है और उसके प्रति समर्पित होंगे, जबकि वे जो परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं, वे सब नष्ट कर दिए गए होंगे। पृथ्वी पर परिवारों का अब और अस्तित्व नहीं होगा; तो माता-पिता या संतानों या पतियों और पत्नियों के बीच के रिश्ते कैसे हो सकते हैं? विश्वास और अविश्वास की अत्यंत असंगतता से ये संबंध पूरी तरह टूट चुके होंगे!

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे

जब एक बार मानवजाति विश्राम में प्रवेश कर लेती है, तो बुराई करने वाले नष्ट किए जा चुके होंगे, समस्त मानवता सही मार्ग पर होगी; सभी प्रकार के लोग अपने-अपने प्रकार के साथ होंगे, उन कार्यों के अनुसार जिनका उन्हें अभ्यास करना चाहिए। केवल यही मानवता के विश्राम का दिन होगा, यह मानवता के विकास की अपरिहार्य प्रवृत्ति होगी और केवल जब मानवता विश्राम में प्रवेश करेगी केवल तभी परमेश्वर की महान और चरम कार्यसिद्धि पूर्णता पर पहुँचेगी; यह उसके कार्य का समापन अंश होगा। यह कार्य मानवता के पतनशील भौतिक जीवन का अंत करेगा, साथ ही यह भ्रष्ट मानवता के जीवन का अंत करेगा। इसके बाद से मनुष्य एक नए क्षेत्र में प्रवेश करेंगे। यद्यपि सभी मनुष्य देह में जिएँगे, किंतु इस जीवन के सार और भ्रष्ट मानवता के सार में महत्त्वपूर्ण अंतर होंगे। इस अस्तित्व का अर्थ और भ्रष्ट मानवता के अस्तित्व का अर्थ भी भिन्न होता है। हालाँकि यह एक नए प्रकार के व्यक्ति का जीवन नहीं होगा, यह कहा जा सकता है कि यह उस मानवता का जीवन है, जो उद्धार प्राप्त कर चुकी है, साथ ही ऐसा जीवन, जिसने मानवता और तर्क को पुनः प्राप्त कर लिया है। ये वे लोग हैं, जो कभी परमेश्वर से विद्रोह करते थे, जिन्हें परमेश्वर द्वारा जीता गया था और फिर उसके द्वारा बचाया गया था; ये वे लोग हैं, जिन्होंने परमेश्वर का अपमान किया और बाद में उसकी गवाही दी। उसकी परीक्षा से गुजरकर बचने के बाद उनका अस्तित्व सबसे अधिक अर्थपूर्ण अस्तित्व होगा; ये वे लोग हैं, जिन्होंने शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दी और वे मनुष्य हैं, जो जीवित रहने के योग्य हैं। जो नष्ट किए जाएँगे वे लोग हैं, जो परमेश्वर के गवाह नहीं बन सकते और जो जीवित रहने के योग्य नहीं हैं। उनका विनाश उनके बुरे व्यवहार के कारण होगा और ऐसा विनाश ही उनके लिए सर्वोत्तम गंतव्य है। भविष्य में, जब मानवता एक सुंदर क्षेत्र में प्रवेश करेगी, तब पति और पत्नी के बीच, पिता और पुत्री के बीच या माँ और पुत्र के बीच ऐसे कोई संबंध नहीं होंगे, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं। उस समय, प्रत्येक मनुष्य अपने प्रकार के लोगों का अनुसरण करेगा और परिवार पहले ही ध्वस्त हो चुके होंगे। पूरी तरह असफल होने के बाद, शैतान फिर कभी मानवता को परेशान नहीं करेगा और मनुष्यों में अब और भ्रष्ट शैतानी स्वभाव नहीं होंगे। वे विद्रोही लोग पहले ही नष्ट किए जा चुके होंगे और केवल समर्पण करने वाले लोग ही बचेंगे। जब बहुत थोड़े से परिवार पूरी तरह बचेंगे; तो भौतिक संबंध कैसे बने रह सकते हैं? अतीत का मनुष्य का दैहिक जीवन पूरी तरह निषिद्ध होगा; तो लोगों के बीच भौतिक संबंध कैसे अस्तित्व में रह सकते हैं? शैतान के भ्रष्ट स्वभावों के बिना, मनुष्यों का जीवन अब अतीत के पुराने जीवन के समान नहीं होगा बल्कि एक नया जीवन होगा। माता-पिता बच्चों को गँवा देंगे और बच्चे माता-पिता को गँवा देंगे। पति पत्नियों को गँवा देंगे और पत्नियाँ पतियों को गँवा देंगी। फिलहाल लोगों का एक दूसरे के साथ भौतिक संबंध होता है, पर जब प्रत्येक विश्राम में प्रवेश कर लेगा, तो उनके बीच कोई संबंध नहीं होगा। केवल इस प्रकार की मानवता में ही धार्मिकता और पवित्रता होगी; केवल इस प्रकार की मानवता ही परमेश्वर की आराधना कर सकती है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे

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संदर्भ के लिए बाइबल के पद :"क्योंकि उदयाचल से लेकर अस्ताचल तक जाति-जाति में मेरा नाम महान् है, और हर कहीं मेरे नाम पर धूप और शुद्ध भेंट...

प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

उत्तर: हम परमेश्वर की वाणी कैसे सुनते हैं? हममें कितने भी गुण हों, हमें कितना भी अनुभव हो, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। प्रभु यीशु में विश्वास...

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