37. परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना क्या है

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

एक सच्‍चे सृजित प्राणी को यह जानना चाहिए कि सृष्टिकर्ता कौन है, मनुष्‍य का सृजन किसलिए हुआ है, एक सृजित प्राणी की जिम्‍मेदारियों को किस तरह पूरा करें, और संपूर्ण सृष्टि के प्रभु की आराधना किस तरह करें, उसे सृष्टिकर्ता के इरादों, इच्‍छाओं और अपेक्षाओं को समझना- बूझना और जानना चाहिए, उनकी परवाह करनी चाहिए, और सृष्टिकर्ता के इस मार्ग पर चलना चाहिए—परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो।

परमेश्वर का भय मानना क्‍या है? और बुराई से दूर कैसे रहा जा सकता है?

“परमेश्वर का भय मानने” का अर्थ अज्ञात डर या दहशत नहीं होता, न ही इसका अर्थ टाल-मटोल करना, दूर रहना, मूर्तिपूजा करना या अंधविश्‍वास होता है। वरन यह श्रद्धा, सम्मान, विश्वास, समझ, परवाह, समर्पण, अभिषेक और प्रेम के साथ-साथ बिना शर्त और बिना शिकायत आराधना, प्रतिदान और आत्मसमर्पण होता है। परमेश्वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्‍ची श्रद्धा, सच्‍चा विश्वास, सच्‍ची समझ, सच्‍ची परवाह या समर्पण नहीं होगा, वरन केवल डर और व्‍यग्रता, केवल शंका, गलतफहमी, टालमटोल और आनाकानी होगी; परमेश्वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्‍चा समर्पण और प्रतिदान नहीं होगा; परमेश्वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्‍ची आराधना और आत्मसमर्पण नहीं होगा, मात्र अंधी मूर्तिपूजा और अंधविश्‍वास होगा; परमेश्वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना मनुष्य संभवतः परमेश्वर के मार्ग पर नहीं चल पाएगा, या परमेश्वर का भय नहीं मानेगा, या बुराई का त्‍याग नहीं कर पाएगा। इसके विपरीत, मनुष्‍य का हर क्रियाकलाप और व्यवहार, परमेश्वर के प्रति विद्रोह और अवज्ञा से, निंदात्‍मक आरोपों और आलोचनात्मक आकलनों से तथा सत्‍य और परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अर्थ के विपरीत चलने वाले दुष्‍ट आचरण से भरा होगा।

जब मनुष्य को परमेश्वर में सच्‍चा विश्वास होगा, तो वह सच्चाई से उसका अनुसरण करेगा और उस पर निर्भर रहेगा; केवल परमेश्वर पर सच्‍चे विश्वास और निर्भरता से ही मनुष्य में सच्‍ची समझ और सच्चा बोध होगा; परमेश्वर के वास्‍तविक बोध के साथ उसके प्रति वास्‍तविक परवाह आती है; परमेश्वर के प्रति सच्ची परवाह से ही मनुष्य में सच्‍चा समर्पण आ सकता है; परमेश्वर के प्रति सच्‍चे समर्पण से ही मनुष्य सच्‍चा अभिषेक कर सकता है; परमेश्वर के सच्‍चे अभिषेक से ही मनुष्य बिना शर्त और बिना शिकायत प्रतिदान कर सकता है; सच्‍चे भरोसे और निर्भरता, सच्‍ची समझ और परवाह, सच्‍ची समर्पण, सच्‍चे अभिषेक और प्रतिदान से ही मनुष्य परमेश्वर के स्‍वभाव और सार को जान सकता है, सृष्टिकर्ता की पहचान कर सकता है; सृष्टिकर्ता को वास्‍तव में जान लेने के बाद ही मनुष्य अपने भीतर सच्‍ची आराधना और आत्मसमर्पण जाग्रत कर सकता है; सृष्टिकर्ता के प्रति सच्‍ची आराधना और आत्मसमर्पण होने के बाद ही वह वास्तव में अपने बुरे मार्ग त्‍याग पाएगा, अर्थात बुराई से दूर रह पाएगा।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, प्रस्तावना

अब हर कोई ऐसा इंसान बनना चाहता है जो परमेश्वर का भय माने और बुराई से दूर रहे। तो फिर परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का क्या अर्थ है? यह कहा जा सकता है कि इसमें परमेश्वर के प्रति समर्पित होने का प्रयास, और उसके प्रति अपने आपको पूरी तरह से अर्पित कर देना शामिल है। इसमें सचमुच परमेश्वर से डरना और उसका भय मानना शामिल है, जिसमें जरा-सा भी न तो कपट हो, न प्रतिरोध और न ही कोई विद्रोह हो। यह हृदय का पूरी तरह से शुद्ध होना और परमेश्वर के प्रति निष्ठावान और आज्ञाकारी होना है। यह निष्ठा और आज्ञाकारिता पूर्ण होनी चाहिए, सापेक्ष नहीं; यह समय या स्थान, या किसी की उम्र पर निर्भर नहीं होती है। परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का यही तरीका है। इस प्रकार की खोज के मार्ग पर चलते हुए, धीरे-धीरे तुम परमेश्वर को जानने लगोगे और उसके कर्मों का अनुभव करोगे; तुम्हें उसकी देख-रेख और सुरक्षा का एहसास होगा, उसके अस्तित्व के सत्य का बोध होगा, और उसकी संप्रभुता का एहसास होगा। आखिरकार, तुम्हें सचमुच यह एहसास होगा कि परमेश्वर हर चीज में है, और वह ठीक तुम्हारे बगल में है। तुम्हें इस तरह का एहसास होगा। अगर तुम परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण नहीं करोगे, तो तुम्हें कभी भी इन चीजों का ज्ञान नहीं होगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्‍वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्‍य है

अय्यूब के बारे में लोगों की पहली धारणा यह थी कि अय्यूब पूर्ण था, कि वह परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था, और यह कि उसके पास बहुत धन-संपत्ति और सम्माननीय हैसियत थी। ऐसे परिवेश में और ऐसी परिस्थितियों में रह रहे साधारण व्यक्ति के लिए, अय्यूब का आहार, जीवन की गुणवत्ता, और उसके व्यक्तिगत जीवन के विभिन्न पहलू अधिकांश लोगों के ध्यान के केंद्रबिंदु होंगे; इसलिए हमें पवित्र शास्त्र आगे पढ़ना होगा : “उसके बेटे बारी-बारी से एक दूसरे के घर में खाने-पीने को जाया करते थे; और अपनी तीनों बहिनों को अपने संग खाने-पीने के लिये बुलवा भेजते थे। जब जब भोज के दिन पूरे हो जाते, तब तब अय्यूब उन्हें बुलवाकर पवित्र करता, और बड़े भोर को उठकर उनकी गिनती के अनुसार होमबलि चढ़ाता था; क्योंकि अय्यूब सोचता था, ‘कदाचित् मेरे लड़कों ने पाप करके परमेश्वर को छोड़ दिया हो।’ इसी रीति अय्यूब सदैव किया करता था” (अय्यूब 1:4-5)। ... बाइबल अय्यूब के पुत्र और पुत्रियों के भोज का उल्लेख तो करती है, किंतु अय्यूब का कोई उल्लेख नहीं है; केवल इतना कहा गया है कि उसके पुत्र और पुत्रियाँ अक्सर एक साथ मिलकर खाते और पीते थे। दूसरे शब्दों में, उसने भोज आयोजित नहीं किए, न ही वह अपने पुत्र और पुत्रियों के साथ ख़र्चीले ढँग से खान-पान में शामिल हुआ। धनाढ्य और कई संपत्तियों और सेवकों से संपन्न होते हुए भी, अय्यूब का जीवन विलासी जीवन नहीं था। वह जीवन जीने के अपने सर्वोत्कृष्ट परिवेश से मोहित नहीं हुआ था, और उसने, अपनी संपदा के कारण, स्वयं को देह के आनंदों से ठूँस-ठूँसकर नहीं भरा या होमबलि चढ़ाना नहीं भूला, और इसके कारण अपने हृदय में परमेश्वर से धीरे-धीरे दूर तो वह और भी नहीं हुआ। तो, स्पष्ट रूप से, अय्यूब अपनी जीवनशैली में अनुशासित था, और उसे मिले परमेश्वर के आशीषों के परिणामस्वरूप वह लोभी या सुखवादी नहीं था, और वह जीवन की गुणवत्ता में तल्लीन नहीं था। इसके बजाय, वह विनम्र और शालीन था, वह ठाठ-बाट का आदी नहीं था, और परमेश्वर के सामने वह सतर्क और सावधान था। वह परमेश्वर के अनुग्रहों और आशीषों पर बहुधा विचार करता था, और निरंतर परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखता था। अपने दैनिक जीवन में, अय्यूब अपने पुत्र और पुत्रियों के हेतु होमबलि चढ़ाने के लिए प्रायः जल्दी उठ जाता था। दूसरे शब्दों में, न केवल अय्यूब स्वयं परमेश्वर का भय मानता था, बल्कि वह यह आशा भी करता था कि उसके बच्चे भी उसी प्रकार परमेश्वर का भय मानेंगे और परमेश्वर के विरुद्ध पाप नहीं करेंगे। अय्यूब की भौतिक संपदा का उसके हृदय में कोई स्थान नहीं था, न ही उसने परमेश्वर द्वारा ग्रहित स्थान लिया था; चाहे वे स्वयं अपने लिए हों या अपने बच्चों के लिए, अय्यूब के सभी दैनिक कार्यकलाप परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से जुड़े थे। यहोवा परमेश्वर का उसका भय उसके मुँह तक ही नहीं रुका, बल्कि वह कुछ ऐसा था जिसे उसने क्रियान्वित किया था और जो उसके दैनिक जीवन के प्रत्येक और सभी भागों में प्रतिबिंबित होता था। अय्यूब का यह वास्तविक आचरण हमें दिखाता है कि वह ईमानदार था, और उस सार से युक्त था जो न्याय और उन चीजों से जो सकारात्मक थीं प्रेम करता था। अय्यूब अपने पुत्रों और पुत्रियों को प्रायः भेजता और पवित्र करता था, इसका अर्थ है कि उसने अपने बच्चों के व्यवहार को अपनी स्वीकृति नहीं दी या अनुमोदन नहीं दिया था; इसके बजाय वह दिल से उनके व्यवहार से खिन्न होकर उनकी भर्त्सना करता था। उसने निष्कर्ष निकाला कि उसके पुत्र और पुत्रियों का व्यवहार यहोवा परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला नहीं था, और इसलिए वह प्रायः उनसे यहोवा परमेश्वर के सामने जाने और अपने पाप स्वीकार करने के लिए कहता था। अय्यूब के कार्यकलाप हमें उसकी मानवता का दूसरा पक्ष दिखाते हैं, वह पक्ष जिसमें वह कभी उनके साथ नहीं चलता था जो अक्सर पाप करते थे और परमेश्वर को नाराज करते थे, बल्कि इसके बजाय वह उनसे दूर रहता था और उनसे बचता था। यद्यपि ये लोग उसके पुत्र और पुत्रियाँ थे, फिर भी उसने अपने सिद्धांत इसलिए नहीं छोड़े कि वे उसके अपने सगे-संबंधी थे, न ही वह अपने मनोभावों के कारण उनके पापों में लिप्त हुआ। अपितु, उसने उनसे स्वीकार करने और यहोवा परमेश्वर की क्षमा प्राप्त करने का आग्रह किया, और उसने उन्हें चेताया कि वे अपने लोभी आनंद के वास्ते परमेश्वर को न तजें। दूसरों के साथ अय्यूब के व्यवहार के सिद्धांत उसके परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के सिद्धांतों से अलग नहीं किए जा सकते हैं। वह उससे प्रेम करता था जो परमेश्वर द्वारा स्वीकृत था, और उनसे घृणा करता था जो परमेश्वर के लिए घृणास्पद थे; और वह उनसे प्रेम करता था जो अपने हृदय में परमेश्वर का भय मानते थे, और उनसे घृणा करता था जो परमेश्वर के विरुद्ध बुराई या पाप करते थे। ऐसा प्रेम और ऐसी घृणा उसके दैनिक जीवन में प्रदर्शित होती थी, और यह अय्यूब का वही खरापन था जिसे परमेश्वर की नजरों से देखा गया था। स्वाभाविक रूप से, यह उसके दिन-प्रतिदिन के जीवन में दूसरों के साथ उसके रिश्तों में अय्यूब की सच्ची मानवता की अभिव्यक्ति और जीवन यापन भी है, जिसके बारे में हमें अवश्य सीखना चाहिए।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

परमेश्वर द्वारा शैतान से यह कहने के बाद कि “जो कुछ उसका है, वह सब तेरे हाथ में है; केवल उसके शरीर पर हाथ न लगाना,” शैतान चला गया, जिसके तुरंत बाद अय्यूब के ऊपर अचानक और भयंकर हमले होने लगे : पहले, उसके बैल और गधे लूट लिए गए और उसके कुछ सेवकों को मार दिया गया; फिर, उसकी भेड़-बकरियों और कुछ और सेवकों को आग में भस्म कर दिया गया; उसके पश्चात्, उसके ऊँट ले लिए गए और उसके कुछ और सेवकों की हत्या कर दी गई; अंत में, उसके पुत्र और पुत्रियों की जानें ले ली गईं। हमलों की यह श्रृंखला अय्यूब द्वारा अपने पहले प्रलोभन के दौरान झेली गई यातना थी। जैसा कि परमेश्वर द्वारा आदेशित था, इन हमलों के दौरान शैतान ने केवल अय्यूब की संपत्ति और उसके बच्चों को लक्ष्य बनाया था, और स्वयं अय्यूब को हानि नहीं पहुँचाई थी। तथापि, अय्यूब विशाल संपदा से संपन्न धनवान मनुष्य से तत्क्षण ऐसे व्यक्ति में बदल गया जिसके पास कुछ भी नहीं था। कोई भी व्यक्ति यह विस्मयकारी अप्रत्याशित झटका सहन नहीं कर सकता था या इसके प्रति समुचित प्रतिक्रिया नहीं कर सकता था, फिर भी अय्यूब ने अपने असाधारण पहलू का प्रदर्शन किया। पवित्र शास्त्र नीचे लिखा विवरण प्रदान करते हैं : “तब अय्यूब उठा, और बागा फाड़, सिर मुँड़ाकर भूमि पर गिरा और दण्डवत् किया।” यह सुनने के पश्चात् कि अय्यूब ने अपने बच्चे और अपनी सारी संपत्ति गँवा दी थी, यह अय्यूब की पहली प्रतिक्रिया थी। सबसे बढ़कर, वह आश्चर्यचकित, या घबराया हुआ नहीं दिखा, उसने क्रोध या नफ़रत तो और भी व्यक्त नहीं की। तो, तुम देखते हो कि वह अपने हृदय में पहले से ही पहचान गया था कि ये आपदाएँ आकस्मिक घटनाएँ नहीं थीं, या मनुष्य के हाथों से उत्पन्न नहीं हुई थीं, वे प्रतिफल या दण्ड का आगमन तो और भी नहीं थीं। इसके बजाय, यहोवा की परीक्षाएँ उसके ऊपर आ पड़ी थीं; वह यहोवा ही था जो उसकी संपत्ति और बच्चों को ले लेना चाहता था। उस समय अय्यूब बहुत शांत और सोच-विचार में स्पष्ट था। उसकी अचूक और खरी मानवता ने उसे अपने ऊपर आ पड़ी आपदाओं के बारे में तर्कसंगत और स्वाभाविक रूप से सटीक परख करने और निर्णय लेने में समर्थ बनाया, और इसके परिणामस्वरूप, उसने असामान्य शांत मन से व्यवहार किया : “तब अय्यूब उठा, और बागा फाड़, सिर मुँड़ाकर भूमि पर गिरा और दण्डवत् किया।” “बागा फाड़” का अर्थ है वह निर्वस्त्र था, और कुछ भी धारण नहीं किए था; “सिर मुँडाने” का अर्थ है वह नवजात शिशु के समान परमेश्वर के समक्ष लौट आया था; “भूमि पर गिरा, और दण्डवत् किया” का अर्थ है वह इस संसार में नग्न आया था, और आज भी उसके पास कुछ नहीं था, वह परमेश्वर के पास लौट आया था मानो नवजात शिशु हो। अय्यूब पर जो कुछ बीता था उस सबके प्रति उसके जैसे रवैये को कोई सृजित प्राणी हासिल नहीं कर सकता था। यहोवा में उसका विश्वास, विश्वास के क्षेत्र से आगे चला गया था; यह परमेश्वर के प्रति उसका भय, परमेश्वर के प्रति उसका समर्पण था; वह न केवल उसे देने के लिए, बल्कि उससे लेने के लिए भी परमेश्वर को धन्यवाद दे पाने में समर्थ था। इतना ही नहीं, वह स्वयं आगे बढ़कर वह सब करने में समर्थ था, जो अपना सब कुछ, अपने जीवन सहित, परमेश्वर को लौटाने के लिए आवश्यक था।

परमेश्वर के प्रति अय्यूब का भय और समर्पण मनुष्यजाति के लिए एक उदाहरण है, और उसकी पूर्णता और खरापन मानवता की पराकाष्ठा थी जिन्हें मनुष्य को धारण करना ही चाहिए। यद्यपि उसने परमेश्वर को नहीं देखा था, फिर भी उसे एहसास हुआ कि परमेश्वर सचमुच विद्यमान था, और इस एहसास के कारण वह परमेश्वर का भय मानता था, और परमेश्वर के अपने इसी भय के कारण, वह परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाया था। उसने परमेश्वर को वह सब जो उसका था लेने की खुली छूट दे दी, फिर भी उसे कोई शिकायत नहीं थी, और वह परमेश्वर के समक्ष गिर गया और उसने उससे कहा कि, बिल्कुल इसी क्षण, यदि परमेश्वर उसकी देह भी ले ले, तो वह, शिकायत किए बिना, ख़ुशी-ख़ुशी उसे ऐसा करने देगा। उसका समूचा आचरण उसकी अचूक और खरी मानवता के कारण था। कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी निश्छलता, ईमानदारी, और दयालुता के फलस्वरूप, अय्यूब परमेश्वर के अस्तित्व के अपने अहसास और अनुभव में अटल था। इस स्थापना के आधार पर उसने स्वयं अपने से भारी-भरकम अपेक्षाएँ की थीं और परमेश्वर के समक्ष अपनी सोच, व्यवहार, आचरण और क्रियाकलापों के सिद्धांतों को उसने अन्य बातों के अलावा परमेश्वर द्वारा अपने मार्गदर्शन और परमेश्वर के जो कर्म वह देख चुका था उनके अनुसार आदर्श ढँग से ढाला था। समय के साथ, उसके अनुभवों ने उसमें परमेश्वर का सच्चा और वास्तविक भय उत्पन्न किया और उसे बुराई से दूर रखा। यही उस अखंडता का स्रोत था जिसे अय्यूब ने दृढ़ता से थामे रखा था। अय्यूब सत्यनिष्ठ, निश्छल और दयालु मानवता से युक्त था, और उसे परमेश्वर का भय मानने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और बुराई से दूर रहने के साथ ही इस ज्ञान का वास्तविक अनुभव था कि “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया”। केवल इन्हीं चीज़ों के कारण वह शैतान के ऐसे शातिर हमलों के बीच अपनी गवाही पर डटा रह पाया, और जब परमेश्वर की परीक्षाएँ उसके ऊपर आ पड़ीं, तब केवल उन्हीं के कारण वह परमेश्वर को निराश नहीं करने और परमेश्वर को संतोषजनक उत्तर देने में समर्थ हो पाया।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

अय्यूब ने शैतान के विध्वंस झेले थे, किंतु फिर भी उसने यहोवा परमेश्वर का नाम नहीं तजा। उसकी पत्नी पहली थी जो बाहर आई और, मनुष्य की आँखों को दिखाई दे सकने वाले रूप में शैतान की भूमिका निभाते हुए, उसने अय्यूब पर आक्रमण किया। मूल पाठ इसका वर्णन इस प्रकार करता है : “तब उसकी स्त्री उससे कहने लगी, ‘क्या तू अब भी अपनी खराई पर बना है? परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा’” (अय्यूब 2:9)। ये वे शब्द थे जो मनुष्य के छद्मभेष में शैतान के द्वारा कहे गए थे। वे एक आक्रमण, और एक आरोप, और साथ ही फुसलावा, एक प्रलोभन, और कलंक भी थे। अय्यूब की देह पर आक्रमण करने में विफल होने पर, फिर शैतान ने उसकी सत्यनिष्ठा पर सीधा हमला किया, वह इसका उपयोग अय्यूब से उसकी सत्यनिष्ठा छुड़वाने, परमेश्वर का त्याग करवाने, और जीते नहीं रहने देने के लिए करना चाहता था। इसलिए शैतान भी अय्यूब को उकसाने के लिए ऐसे वचनों का उपयोग करना चाहता था : यदि अय्यूब यहोवा का नाम त्याग देता, तो उसे ऐसी यंत्रणा सहने की आवश्यकता नहीं होती, वह अपने को देह की यंत्रणा से मुक्त कर सकता था। अपनी पत्नी की सलाह का सामना करने पर, अय्यूब ने यह कहकर उसे झिड़का, “तू एक मूढ़ स्त्री की सी बातें करती है, क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” (अय्यूब 2:10)। अय्यूब लंबे समय से इन वचनों को जानता था, परंतु इस समय उनके बारे में अय्यूब के ज्ञान का सत्य सिद्ध हो गया था।

जब उसकी पत्नी ने उसे परमेश्वर को कोसने और मर जाने की सलाह दी, तो उसका आशय था : “तेरा परमेश्वर तुझसे ऐसा ही बर्ताव करता है, तो तू उसे कोसता क्यों नहीं? अभी भी जीवित रहकर तू क्या कर रहा है? तेरा परमेश्वर तेरे प्रति इतना अनुचित है, फिर भी तू कहता है कि ‘यहोवा का नाम धन्य है’। जब तू उसके नाम को धन्य कहता है तो वह तेरे ऊपर आपदा कैसे ला सकता है? जल्दी कर और उसका नाम त्याग दे, और अब से उसका अनुसरण मत करना। इसके बाद, तेरी परेशानियाँ समाप्त हो जाएँगी।” इसी पल, वह गवाही उत्पन्न हुई जो परमेश्वर अय्यूब में देखना चाहता था। कोई साधारण मनुष्य ऐसी गवाही नहीं दे सकता था, न ही हम इसके बारे में बाइबल की किसी अन्य कहानी में पढ़ते हैं—परंतु परमेश्वर ने अय्यूब द्वारा ये वचन कहे जाने के बहुत पहले ही यह देख लिया था। परमेश्वर ने तो इस अवसर का उपयोग बस अय्यूब को सबके सामने यह साबित करने देने के लिए करना चाहा था कि परमेश्वर सही था। अपनी पत्नी की सलाह का सामना करने पर, अय्यूब ने न केवल अपनी सत्यनिष्ठा को नहीं छोड़ा या परमेश्वर को नहीं त्यागा, बल्कि उसने अपनी पत्नी से यह भी कहा : “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” क्या ये वचन बहुत महत्व रखते हैं? यहाँ, केवल एक ही तथ्य इन वचनों का महत्व सिद्ध करने में सक्षम है। इन वचनों का महत्व यह है कि उन्हें परमेश्वर द्वारा अपने हृदय में स्वीकार किया गया है, ये वे वचन हैं जो परमेश्वर द्वारा वांछित थे, ये वे वचन हैं जिन्हें परमेश्वर सुनना चाहता था, और ये वे परिणाम हैं जिन्हें परमेश्वर देखने को लालायित था; ये वचन अय्यूब की गवाही के तत्व भी हैं। इसमें, अय्यूब की पूर्णता, खरापन, परमेश्वर का भय, और बुराई से दूर रहना प्रमाणित हुए थे। अय्यूब की अनमोलता इसमें निहित है कि जब उसे प्रलोभित किया गया था, और यहाँ तक कि जब उसका पूरा शरीर दुःखदायी फोड़ों से ढँक गया था, जब उसने अत्यधिक यंत्रणा सही थी, और जब उसकी पत्नी और कुटुंबियों ने उसे सलाह दी थी, तब भी उसने ऐसे वचन कहे थे। इसे दूसरे ढँग से कहें, तो अपने हृदय में वह मानता था कि, चाहे जो भी प्रलोभन हों, या दारुण दुःख या यंत्रणा चाहे जितनी भी कष्टदायी हो, यहाँ तक कि उसके ऊपर यदि चाहे मृत्यु ही आनी हो, तब भी वह परमेश्वर को नहीं त्यागेगा या परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग नहीं ठुकराएगा। तो, तुम देखो, कि परमेश्वर उसके हृदय में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता था, और उसके हृदय में केवल परमेश्वर ही था। यही कारण है कि हम पवित्र शास्त्र में उसके बारे में ऐसे विवरण पढ़ते हैं : इन सब बातों में भी अय्यूब ने अपने मुँह से कोई पाप नहीं किया। उसने न केवल अपने होंठों से पाप नहीं किया, बल्कि अपने हृदय में उसने परमेश्वर के बारे में कोई शिकायत भी नहीं की। उसने परमेश्वर के बारे में ठेस पहुँचाने वाले वचन नहीं कहे, न ही उसने परमेश्वर के विरुद्ध पाप किया। न केवल उसके मुँह ने परमेश्वर के नाम को धन्य किया, बल्कि अपने हृदय में भी उसने परमेश्वर के नाम को धन्य किया; उसका मुँह और हृदय एक जैसे थे। यह परमेश्वर द्वारा देखा गया सच्चा अय्यूब था, और बिल्कुल यही वह कारण था कि क्यों परमेश्वर ने अय्यूब को सँजोकर रखा था।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

अय्यूब परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में कैसे सक्षम हुआ? वह अपने मन में क्या सोच रहा था? वह इन बुरे कार्यों को करने से कैसे बचा? उसके हृदय में परमेश्वर का डर था। परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि उसका हृदय परमेश्वर का भय मानता था, परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान कर सकता था, और उसके हृदय में परमेश्वर के लिए जगह थी। वह इस बात से नहीं डरता था कि परमेश्वर उसके हृदय को देख लेगा, ना ही वह इससे डरता था कि परमेश्वर क्रोधित होगा। इसके बजाय वह परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करता था, उसे संतुष्ट करने को तैयार था और परमेश्वर के वचनों पर अडिग रहने की इच्छा रखता था। इसी वजह से वह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम हो पाया। वैसे तो हर कोई यह वाक्यांश कह सकता है कि “परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो”, फिर भी वे नहीं जानते कि अय्यूब ने यह किया कैसे। वास्तव में अय्यूब ने “परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने” को परमेश्वर में विश्वास करने के लिए सबसे आधारभूत और महत्वपूर्ण चीज माना। इसीलिए वह इन वचनों पर अडिग रह पाया, जैसे कि वह किसी धर्मादेश का पालन कर रहा हो। उसने परमेश्वर के वचन सुने क्योंकि वह हृदय से परमेश्वर को महान मानते हुए उसका सम्मान करता था। मनुष्य की नजर में परमेश्वर के वचन चाहे कितने ही साधारण लगें, भले ही वे वचन बहुत साधारण थे, लेकिन अय्यूब के हृदय में वे सर्वोच्च परमेश्वर के वचन थे; वे सबसे महान, सबसे महत्वपूर्ण वचन थे। चाहे उन वचनों को लोग हेय दृष्टि से देखें, अगर वे परमेश्वर के वचन हैं, तो लोगों को इनका पालन करना चाहिए, फिर चाहे इनकी वजह से उनका मजाक उड़ाया जाए या बदनामी हो। उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़े या यातना झेलनी पड़े, तब भी उन्हें अंत तक परमेश्वर के वचनों पर टिके रहना चाहिए; वे इनसे पीछे नहीं हट सकते। परमेश्वर का भय मानने का यही मतलब है। तुम्हें उस हर एक वचन पर टिके रहना है, जिसकी अपेक्षा परमेश्वर एक इंसान से करता है। जहाँ तक उन चीजों की बात है, जिन्हें परमेश्वर मना करता है या जिनसे परमेश्वर घृणा करता है, तो उन चीजों के बारे में न जानना ठीक है, लेकिन अगर तुम उन चीजों को जानते हो तो तुम्हें वे चीजें बिलकुल नहीं करनी चाहिए। तुम्हें अडिग रहने में सक्षम होना चाहिए, फिर चाहे तुम्हारा परिवार ही तुम्हें छोड़ दे, अविश्वासी तुम्हारा मजाक उड़ाएँ, या तुम्हारे करीबी लोग तुम्हारा तिरस्कार करें या तुम्हारा मजाक उडाएँ। तुम्हें अडिग रहने रहने की क्या जरूरत है? तुम्हें शुरुआत कहाँ से करनी है? तुम्हारे सिद्धांत क्या हैं? यह है, “मुझे परमेश्वर के वचनों पर टिके रहना है और उसकी इच्छा के अनुसार ही काम करना है। मैं उन चीजों पर अडिग रहूँगा, जो परमेश्वर को पसंद हैं और उन चीजों को त्यागने को संकल्पित रहूँगा, जिनसे परमेश्वर को घृणा है। अगर मुझे परमेश्वर की इच्छा के बारे में नहीं पता है, तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर मैं उसकी इच्छा जानता और समझता हूँ, तो मैं दृढ़ता से उसके वचनों को सुनूँगा और उनका पालन करूँगा। मुझे इससे डिगाने में कोई भी सक्षम नहीं होगा, और अगर दुनिया खत्म होने वाली होगी तो भी मैं नहीं डगमगाऊँगा।” परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का यही मतलब है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

अपने दैनिक जीवन में तुम लोगों का दिल किन मामलों में परमेश्वर का भय मानता है? और किन मामलों में नहीं? जब कोई तुम्हें ठेस पहुँचाता है या तुम्हारे हितों का अतिक्रमण करता है तो क्या तुम उससे नफरत कर पाते हो? और जब तुम किसी से नफरत करते हो, तो क्या उसे दंडित कर बदला लेने में सक्षम हो? (हाँ।) फिर तो तुम बहुत डरावने हो! अगर तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है, और तुम बुरे काम करने में सक्षम हो, फिर तो तुम्हारा यह दुष्ट स्वभाव कहीं ज्यादा गंभीर है! प्रेम और नफरत ऐसे गुण हैं जो एक सामान्य इंसान में होने चाहिए, लेकिन तुम्हें साफ तौर पर यह भेद पता होना चाहिए कि तुम किन चीजों से प्रेम करते हो और किनसे नफरत। अपने दिल में, तुम्हें परमेश्वर से, सत्य से, सकारात्मक चीजों और अपने भाई-बहनों से प्रेम करना चाहिए, जबकि दानव शैतान से, नकारात्मक चीजों से, मसीह-विरोधियों से और दुष्ट लोगों से नफरत करनी चाहिए। अगर तुम नफरत वश अपने भाई-बहनों को दबाकर उनसे बदला ले सकते हो तो यह बहुत भयावह होगा और यह दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव है। कुछ लोगों में केवल नफरत और दुष्टता के सोच-विचार आते हैं, लेकिन वे लोग कभी कोई दुष्टता नहीं करते। ये दुष्ट लोग नहीं हैं क्योंकि जब कुछ होता है तो वे सत्य को खोजने में सक्षम हैं, और अपने आचरण में और चीजों को निपटाने में सिद्धांतों का ध्यान रखते हैं! दूसरों से बातचीत करते हुए जितना पूछना चाहिए, वे उससे ज्यादा नहीं पूछते हैं; अगर उस व्यक्ति के साथ उनकी पटरी बैठ रही है तो वे बातचीत जारी रखते हैं; अगर पटरी नहीं बैठती तो बातचीत नहीं करेंगे। इसका असर न तो उनके कर्तव्यों पर पड़ता है, न जीवन-प्रवेश पर। उनके दिल में परमेश्वर है और वे उसका भय मानते हैं। उनमें परमेश्वर के अपमान की इच्छा नहीं होती और वे ऐसा करने से भी डरते हैं। हालांकि ऐसे लोगों के अंदर कुछ गलत सोच-विचार हो सकते हैं, लेकिन वे उन विचारों को नकार या त्याग सकते हैं। वे अपने कार्य-कलापों पर लगाम लगाकर रखते हैं और ऐसी कोई बात नहीं बोलते जो अनुचित हो या परमेश्वर का अपमान करती हो। जो लोग इस तरह से बोलते और पेश आते हैं, वे सिद्धांत वाले होते हैं और सत्य का अभ्यास करते हैं। हो सकता है कि तुम्हारा व्यक्तित्व किसी और से मेल न खाए, और तुम उसे पसंद भी न करो, लेकिन जब तुम उसके साथ मिलकर काम करते हो, तो तुम निष्पक्ष रहते हो और अपना कर्तव्य निभाने में अपनी भड़ास नहीं निकालते, या परमेश्वर के परिवार के हितों पर अपनी चिढ़ नहीं दिखाते; तुम सिद्धांतों के अनुसार मामले संभाल सकते हो। यह कौन-सी अभिव्यक्ति है? यह परमेश्वर के प्रति बुनियादी श्रद्धा की अभिव्यक्ति है। अगर तुममें इससे थोड़ी अधिक श्रद्धा है तो जब तुम यह देखते हो कि किसी व्यक्ति में कुछ कमियाँ या कमजोरियाँ हैं, तो भले ही उन्होंने तुम्हें ठेस पहुंचाई हो या वे तुम्हारे प्रति पूर्वाग्रह रखते हों, फिर भी तुम उनके साथ सही व्यवहार करते हो और प्यार से उनकी मदद करते हो। इसका मतलब है कि तुममें प्रेम है, तुममें इंसानियत है, तुम दयालु हो और सत्य का अभ्यास करते हो, तुम एक ऐसे ईमानदार व्यक्ति हो जिसमें सत्य की वास्तविकताएँ हैं और परमेश्वर के प्रति श्रद्धा है। यदि तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है, लेकिन तुममें इच्छा है, तुम सत्य के लिए प्रयास करने को तैयार हो, सिद्धांत के अनुसार कार्य करने को तैयार हो, चीजों से निपट सकते हो और लोगों के साथ सिद्धांत के अनुसार व्यवहार कर सकते हो, तो इसे भी परमेश्वर के प्रति थोड़ी-बहुत श्रद्धा ही माना जाएगा; यह बहुत ही बुनियादी बात है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है

एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो ईशनिंदा करता है, परमेश्वर का भय नहीं मानता, कर्तव्य निभाते समय लापरवाह और अनमना रहता है या कलीसिया के काम में गड़बड़ी कर बाधा डालता है, तो तुम सत्य-सिद्धांतों के अनुसार प्रतिक्रिया दोगे, तुम आवश्यकतानुसार उसे पहचानकर उजागर कर पाओगे। अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हें उन दुष्ट लोगों और शैतानों का पता चलता है जो कलीसिया के कार्य में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे जाए बिना, तुम उन्हें नजरअंदाज कर दोगे। तुम यह भी सोचोगे कि कलीसिया के कार्य में कोई भी बाधाएँ डाले तो इससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक विवेकहीन या नासमझ व्यक्ति, एक गैर-विश्वासी, एक सेवाकर्ता बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, चुने हुए होने का दिखावा करते हो, और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, इंसान से ज्यादा राक्षस जैसे हो, और स्पष्ट रूप से गैर-विश्वासियों में से एक हो। अगर तुम्हें परमेश्वर में सच्चा विश्वास है, तब यदि तुमने सत्य और जीवन नहीं भी प्राप्त किया है, तो भी तुम कम से कम परमेश्वर की ओर से बोलोगे और कार्य करोगे; कम से कम, जब परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान किया जा रहा हो, तो तुम उस समय खड़े होकर तमाशा नहीं देखोगे। यदि तुम अनदेखी करना चाहोगे, तो तुम्हारा मन कचोटेगा, तुम असहज हो जाओगे और मन ही मन सोचोगे, “मैं चुपचाप बैठकर तमाशा नहीं देख सकता, मुझे दृढ़ रहकर कुछ कहना होगा, मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, इस दुष्ट बर्ताव को उजागर करना होगा, इसे रोकना होगा, ताकि परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान न पहुँचे और कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त न हो।” यदि सत्य तुम्हारा जीवन बन चुका है, तो न केवल तुममें यह साहस और संकल्प होगा, और तुम इस मामले को पूरी तरह से समझने में सक्षम होगे, बल्कि तुम परमेश्वर के कार्य और उसके घर के हितों के लिए भी उस ज़िम्मेदारी को पूरा करोगे जो तुम्हें उठानी चाहिए, और उससे तुम्हारे कर्तव्य की पूर्ति हो जाएगी। यदि तुम अपने कर्तव्य को अपनी जिम्मेदारी, अपना दायित्व और परमेश्वर का आदेश समझ सको, और यह महसूस करो कि परमेश्वर और अपनी अंतरात्मा का सामना करने के लिए यह आवश्यक है, तो क्या फिर तुम सामान्य मानवता की निष्ठा और गरिमा को नहीं जी रहे होगे? तुम्हारा कर्म और व्यवहार “परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो” होगा, जिसके बारे में वह बोलता है। तुम इन वचनों के सार का पालन कर रहे होगे और उनकी वास्तविकता को जी रहे होगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

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