4. सच्चा आत्मज्ञान क्या है

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

कई हजार सालों की भ्रष्टता के बाद, मनुष्य संवेदनहीन और मंदबुद्धि हो गया है; वह एक दानव बन गया है जो परमेश्वर का इस हद तक विरोध करता है कि परमेश्वर के प्रति मनुष्य की विद्रोहशीलता इतिहास की पुस्तकों में दर्ज की गई है, यहाँ तक कि मनुष्य खुद भी अपने विद्रोही आचरण का पूरा लेखा-जोखा देने में असमर्थ है—क्योंकि मनुष्य शैतान द्वारा पूरी तरह से भ्रष्ट किया जा चुका है, और उसके द्वारा रास्ते से इतना भटका दिया गया है कि वह नहीं जानता कि कहाँ जाना है। आज भी मनुष्य परमेश्वर को धोखा देता है : मनुष्य जब परमेश्वर को देखता है तब उसे धोखा देता है, और जब वह परमेश्वर को नहीं देख पाता, तब भी उसे धोखा देता है। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो परमेश्वर के शापों और कोप का अनुभव करने के बाद भी उसे धोखा देते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य की समझ ने अपना मूल कार्य खो दिया है, और मनुष्य की अंतरात्मा ने भी अपना मूल कार्य खो दिया है। जिस मनुष्य को मैं देखता हूँ, वह मनुष्य के भेस में एक जानवर है, वह एक जहरीला साँप है, मेरी आँखों के सामने वह कितना भी दयनीय बनने की कोशिश करे, मैं उसके प्रति कभी दयावान नहीं बनूँगा, क्योंकि मनुष्य को काले और सफेद के बीच, सत्य और असत्य के बीच अंतर की समझ नहीं है। मनुष्य की समझ बहुत ही सुन्न हो गई है, फिर भी वह आशीष पाना चाहता है; उसकी मानवता बहुत नीच है, फिर भी वह एक राजा का प्रभुत्व पाने की कामना करता है। ऐसी समझ के साथ वह किसका राजा बन सकता है? ऐसी मानवता के साथ वह सिंहासन पर कैसे बैठ सकता है? सच में मनुष्य को कोई शर्म नहीं है! वह दंभी अभागा है! तुम लोगों में से जो आशीष पाने की कामना करते हैं, उनके लिए मेरा सुझाव है कि पहले शीशे में अपना बदसूरत प्रतिबिंब देखो—क्या तुम एक राजा बनने लायक हो? क्या तुम्हारे पास आशीष पा सकने लायक मुँह है? तुम्हारे स्वभाव में जरा-सा भी बदलाव नहीं आया है और तुमने किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया है, फिर भी तुम एक बेहतरीन कल की कामना करते हो। तुम अपने आप को धोखा दे रहे हो! ऐसी गंदी जगह में जन्म लेकर मनुष्य समाज द्वारा बुरी तरह संक्रमित कर दिया गया है, वह सामंती नैतिकता से प्रभावित हो गया है, और उसे “उच्चतर शिक्षा संस्थानों” में पढ़ाया गया है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, जीवन के बारे में क्षुद्र दृष्टिकोण, सांसारिक आचरण के घृणित फलसफे, बिल्कुल बेकार अस्तित्व, भ्रष्ट जीवन-शैली और रिवाज—इन सभी चीजों ने मनुष्य के हृदय में गंभीर घुसपैठ कर ली है, उसकी अंतरात्मा को बुरी तरह खोखला कर दिया है और उस पर गंभीर प्रहार किया है। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से और अधिक दूर हो गया है, और परमेश्वर का और अधिक विरोधी हो गया है। दिन-प्रतिदिन मनुष्य का स्वभाव और अधिक शातिर बन रहा है, और एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर के लिए कुछ भी त्याग करे, एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रति समर्पण करे, इसके अलावा, न ही एक भी व्यक्ति ऐसा है जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रकटन की खोज करे। इसके बजाय, इंसान शैतान की सत्ता में रहकर, आनंद का अनुसरण करने के सिवाय कुछ नहीं करता और कीचड़ की धरती पर खुद को देह की भ्रष्टता में डुबा देता है। सत्य सुनने के बाद भी जो लोग अंधकार में जीते हैं, उसे अभ्यास में लाने का कोई विचार नहीं करते, न ही वे परमेश्वर का प्रकटन देख लेने के बावजूद उसे खोजने की ओर उन्मुख होते हैं। इतनी भ्रष्ट मानवजाति को उद्धार का मौका कैसे मिल सकता है? इतनी पतित मानवजाति प्रकाश में कैसे जी सकती है?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है

खुद को जानने का मतलब है अपने हर वचन और कर्म को जानना, और हर कार्यकलाप को जानना; अपने विचारों और ख्यालों को जानना, अपने इरादों, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को जानना। तुम्हें शैतान के सांसारिक लोकाचार के फलसफे भी जानने चाहिए, उसके विभिन्न विष भी जानने चाहिए तो परंपरागत सांस्कृतिक ज्ञान भी प्राप्त करना चाहिए। तुम्हें सत्य खोजकर इन चीजों को स्पष्ट रूप से पहचानना चाहिए। इस तरीके से तुम सत्य को समझ लोगे और खुद को सच्चे ढंग से जान लोगे। भले ही किसी व्यक्ति ने परमेश्वर पर विश्वास शुरू करने के बाद से ही बड़ी संख्या में अच्छे कर्म किए होंगे, फिर भी वे कई चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते हैं, सत्य की समझ पा लेना तो दूर की बात है। फिर भी अपने बहुत से अच्छे कर्मों के कारण उन्हें लगता है कि वे पहले से ही सत्य का अभ्यास कर रहे हैं, पहले ही परमेश्वर के प्रति समर्पण कर चुके हैं और पहले ही उसकी इच्छा को काफी संतुष्ट कर चुके हैं। जब तुम्हारे सिर पर कोई संकट नहीं आता, तो तुमसे जो कुछ कहा जाता है तुम वह सब कर लेते हो, किसी कर्तव्य के निभाने को लेकर तुम्हारे मन में कोई पछतावा नहीं होता, और तुम प्रतिरोध नहीं करते हो। जब तुमसे सुसमाचार प्रचार करने के लिए कहा जाता है तो तुम शिकायत नहीं करते और इस कठिनाई को झेल सकते हो, और जब तुमसे दौड़-भाग करके कार्य करने या कोई काम पूरा करने को कहा जाता है तो तुम वैसा करते हो। इस वजह से तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हो और ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करते हो। फिर भी अगर तुमसे गंभीरता से पूछा जाए, “क्या तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है? ऐसे व्यक्ति हो जिसका स्वभाव बदल चुका है?”—अगर हर व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों के सत्य की कसौटी पर तौला जाए—तो कहा जा सकता है कि मानक के अनुरूप कोई नहीं है, और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करने में कोई सक्षम नहीं है। इसलिए सारी भ्रष्ट मानवजाति को आत्म-चिंतन करना चाहिए। मनुष्यों को उन स्वभावों पर चिंतन करना चाहिए जिनके अनुसार वे जीते हैं, उन शैतानी फलसफों, तर्क, पाखंडों और भ्रांतियों पर चिंतन करना चाहिए जो उनकी सारी कथनी-करनी का स्रोत हैं। उन्हें इसके मूल कारण पर चिंतन करना चाहिए कि वे अपना भ्रष्ट स्वभाव क्यों प्रकट करते हैं, उनके मनमाने ढंग से कार्य करने का सार क्या है, और वे किस लिए और किसके लिए जीते हैं। अगर इसे सत्य की कसौटी पर कसा जाए तो फिर सभी लोगों को निंदा झेलनी पड़ेगी। इसका कारण क्या है? इसका कारण यही है कि मानवजाति बहुत भ्रष्ट है। लोग सत्य को नहीं समझते, और वे सब के सब अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हैं। उन्हें रत्तीभर भी आत्म-ज्ञान नहीं है, वे हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, अपनी प्राथमिकताओं और तौर-तरीकों के आधार पर कर्तव्य निभाते हैं, और परमेश्वर की सेवा करने के तरीके में धार्मिक सिद्धांतों का अनुकरण करते हैं। इतना ही नहीं, वे अभी भी मानते हैं कि वे आस्था से ओतप्रोत हैं, कि उनके कार्य बहुत ही उचित हैं, और अंत में उन्हें लगता है कि वे बहुत कुछ हासिल कर चुके हैं। इसका एहसास किए बिना ही वे सोचने लगते हैं कि वे पहले ही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कार्य कर रहे हैं, और उसे पूरी तरह संतुष्ट कर चुके हैं, कि वे पहले ही परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर चुके हैं और उसकी इच्छा का पालन कर रहे हैं। अगर तुम्हें ऐसा लगता है या अगर तुम सोचते हो कि परमेश्वर पर कई वर्षों के विश्वास के दौरान तुम कुछ लाभ हासिल कर चुके हो, तो फिर तुम्हें ध्यानपूर्वक अपना परीक्षण करने के लिए परमेश्वर के सामने और भी ज्यादा आना चाहिए। अपनी आस्था के इन वर्षों के दौरान तुम जिस मार्ग पर चले हो, तुम्हें उसे अच्छी तरह देखना चाहिए कि क्या परमेश्वर के समक्ष तुम्हारे सारे कार्यकलाप और कर्म पूरी तरह उसकी इच्छा के अनुसार रहे हैं या नहीं। यह परीक्षण करो कि तुम्हारे कौन-से बर्ताव परमेश्वर विरोधी थे, कौन-से उसके प्रति समर्पण वाले थे, और क्या तुम्हारे क्रियाकलाप परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे उतरे हैं और उन्हें संतुष्ट कर चुके हैं। तुम्हें ये सारी चीजें स्पष्ट करनी चाहिए, क्योंकि केवल तभी तुम खुद को जानोगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है

आत्मज्ञान का अर्थ यह जानना है कि हमारे विचारों और दृष्टिकोण में बुनियादी तौर पर कौन-सी चीजें सत्य से मेल नहीं खातीं, भ्रष्ट स्वभाव से जुड़ी होती हैं और परमेश्वर की शत्रु होती हैं। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों जैसे अहंकार, आत्मतुष्टता, झूठ और धोखेबाजी की समझ पा लेना आसान है। तुम इन्हें सिर्फ कुछ बार सत्य पर संगति करके या बार-बार संगति करके या भाई-बहनों द्वारा तुम्हारी दशा बताए जाने के जरिए थोड़ा-सा जान सकते हो। इसके अलावा अहंकार और धोखेबाजी हर व्यक्ति में है, इनमें अंतर सिर्फ मात्रा का होता है, इसलिए इन्हें जानना अपेक्षाकृत सरल है। लेकिन व्यक्ति के विचार और दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, यह पहचानना कठिन होता है, यह अपने भ्रष्ट स्वभाव जानने जितना सरल नहीं होता। जब व्यक्ति का व्यवहार या बाहरी अभ्यास थोड़ा-सा बदलता है तो उस व्यक्ति को लगता है कि मानो वह बदल चुका है, लेकिन यह मात्र व्यवहारगत बदलाव होता है, इसका यह मतलब नहीं होता कि चीजों को लेकर उसका दृष्टिकोण वास्तव में बदल चुका है। लोगों के दिल की गहराइयों में अभी भी कई धारणाएँ और कल्पनाएँ, तमाम विचार, ख्याल, परंपरागत संस्कृति के जहर और परमेश्वर से बैर रखने वाली कई चीजें होती हैं। ये चीजें उनके अंदर छिपी होती हैं और इन्हें अभी खोजा जाना बाकी है। ये उनके भ्रष्ट स्वभावों के प्रकाशन का मूल होती हैं और ये अंदर से मनुष्य के प्रकृति सार से निकलती हैं। यही वजह है कि जब परमेश्वर कुछ ऐसा करता है जो तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाता तो तुम उसका प्रतिरोध और विरोध करोगे। तुम नहीं समझोगे कि परमेश्वर ने ऐसा क्यों किया है, और भले ही तुम जानते हो कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसमें सत्य होता है और तुम समर्पण भी करना चाहते हो, लेकिन तुम ऐसा नहीं कर पाते। तुम समर्पण क्यों नहीं कर पाते? तुम किस वजह से विरोध और प्रतिरोध करते हो? इसका कारण यह है कि मनुष्य के विचारों और दृष्टिकोण में ऐसी कई चीजें हैं जो परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण होती हैं, उन सिद्धांतों के प्रति शत्रुतापूर्ण होती हैं जिनके आधार पर परमेश्वर कार्य करता है और उसके सार के प्रति शत्रुतापूर्ण होती हैं। इन चीजों का ज्ञान पाना लोगों के लिए कठिन है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है

आत्म-ज्ञान के कौन से पहलू हैं? पहला तो यह जानना है कि किसी की बातचीत और कार्यों में कौन से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होते हैं। कभी-कभी, यह अहंकार होता है, कभी कपट या शायद दुष्टता, हठधर्मिता अथवा विश्वासघात आदि और भी चीजें हैं। इसके अलावा, जब किसी व्यक्ति पर कोई मुसीबत आती है, तो उसे यह जानने के लिए अपनी जांच करनी चाहिए कि कहीं उसका ऐसा कोई इरादा या मंशा तो नहीं है जो सत्य के अनुरूप न हो। उसे यह भी जांचना चाहिए कि क्या उसकी बातचीत या कार्यों में ऐसा कुछ तो नहीं है जो परमेश्वर का विरोध या उससे विद्रोह करता हो, विशेष रूप से अपने कर्तव्य के संदर्भ में—क्या वह भार वहन करता है और समर्पित है, क्या वह सच में खुद को परमेश्वर के लिए खपा रहा है या कहीं वह सौदेबाजी तो नहीं कर रहा है या लापरवाह तो नहीं हो रहा है। आत्म-ज्ञान का अर्थ यह जानना भी है कि क्या उसमें अपनी कोई धारणाएँ और कल्पनाएँ तो नहीं हैं, अनावश्यक अपेक्षाएँ तो नहीं हैं या परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ और शिकायतें तो नहीं हैं और क्या उसका हृदय आज्ञाकारी है। इसका अर्थ यह जानना है कि क्या वह सत्य खोज सकता है, परमेश्वर से प्राप्त कर सकता है और जब उसे परमेश्वर द्वारा आयोजित परिस्थितियों, लोगों, मामलों और चीजों का सामना करना पड़ता है, तो क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है। इसका अर्थ यह जानना है कि क्या उसमें अंतरात्मा और विवेक है और क्या वह सत्य-प्रेमी है। इसका अर्थ यह जानना है कि जब उस पर कोई मुसीबत आती है तो क्या वह समर्पित होता है या बहाने बनाने की कोशिश करता है, और क्या वह धारणाओं और कल्पनाओं का आश्रय लेता है या इन मामलों को समझने के लिए सत्य की खोज करता है। यह आत्म-ज्ञान का दायरा है। विभिन्न स्थितियों, लोगों, मामलों और चीजों के प्रति अपने दृष्टिकोण के संदर्भ में इंसान को इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि क्या वह सत्य से प्रेम करता है और क्या परमेश्वर में सच्ची आस्था रखता है। यदि कोई अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानकर यह समझ सकता है कि परमेश्वर के विरुद्ध उसका विद्रोह कितना बड़ा है, तो इसका अर्थ है कि वह समझदार हो गया है। इसके अलावा, जब उन मामलों की बात आती है जिनमें परमेश्वर के साथ उनका व्यवहार शामिल होता है, तो व्यक्ति को इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या उसमें धारणाएँ हैं, क्या परमेश्वर के नाम और देहधारण के प्रति उसके व्यवहार में श्रद्धा और आज्ञाकारिता है और विशेषकर सत्य के संबंध में उसका दृष्टिकोण क्या है। एक व्यक्ति को अपनी कमियों, अपने आध्यात्मिक कद का पता होना चाहिए और उसे यह भी जानना चाहिए कि क्या उसमें सत्य की वास्तविकता है, साथ ही उसे यह ज्ञान भी होना चाहिए कि क्या उसका अनुसरण और जिस मार्ग पर वह चल रहा है, वह सही और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। लोगों को ये तमाम बातें जाननी चाहिए। संक्षेप में, आत्म-ज्ञान के विभिन्न पहलुओं में अनिवार्यत: निम्नलिखित शामिल होती हैं : अपनी काबिलियत का ज्ञान, अपने द्वारा प्रकट किए जाने वाले स्वभाव का ज्ञान, अपने कार्यों में अपने इरादों और मंशा का ज्ञान, अपनी मानवता की गुणवत्ता का ज्ञान, अपनी प्राथमिकताओं और खोज का ज्ञान, वह जिस मार्ग पर चल रहा है, उसका ज्ञान, चीजों के बारे में अपने विचारों का ज्ञान, जीवन और मूल्यों के बारे में अपने दृष्टिकोण का ज्ञान, परमेश्वर और सत्य के प्रति अपने रवैये का ज्ञान। आत्म-ज्ञान मुख्यत: इन्हीं पहलुओं से युक्त होता है।

—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2)

खुद को जानने के लिए तुम्हें अपनी भ्रष्टता के खुलासों, अपने भ्रष्ट स्वभाव, अपनी नाजुक कमजोरियों और अपने प्रकृति सार के बारे में पता होना चाहिए। तुम्हें बहुत विस्तार से उन चीजों के बारे में भी पता होना चाहिए जो तुम्हारे दैनिक जीवन में सामने आती हैं—तुम्हारे इरादे, तुम्हारे नजरिए और हर एक बात में तुम्हारा रवैया—चाहे तुम घर पर हो या बाहर, चाहे जब तुम सभाओं में होते हो, या जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हो, या किसी भी मुद्दे का सामना करते हो। इन पहलुओं के माध्यम से तुम्हें खुद को जानना होगा। बेशक, खुद को एक अधिक गहरे स्तर पर जानने के लिए, तुम्हें परमेश्वर के वचनों को एकीकृत करना होगा; केवल उसके वचनों के आधार पर स्वयं को जानकर ही तुम परिणाम हासिल कर सकते हो।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण का महत्व और उसके अनुसरण का मार्ग

पतरस ने स्वयं को जानने का और यह देखने का प्रयत्न किया था कि परमेश्वर के वचनों के शुद्धिकरण से और परमेश्वर द्वारा उसके लिए उपलब्ध कराए गए विभिन्न परीक्षणों के भीतर उसमें क्या प्रकट हुआ था। जब वह वास्तव में खुद को समझने लगा, तो पतरस को एहसास हुआ कि मनुष्य कितनी गहराई तक भ्रष्ट हैं, वे परमेश्वर की सेवा करने की दृष्टि से कितने बेकार और अयोग्य हैं, और कि वे परमेश्वर के समक्ष जीने के लायक नहीं है। पतरस तब परमेश्वर के सामने दंडवत हो गया। इतना कुछ अनुभव करने के बाद, अंततः पतरस को लगा, “परमेश्वर को जानना सबसे मूल्यवान है! अगर मैं परमेश्वर को जानने से पहले मर गया, तो यह बहुत दयनीय होगा; परमेश्वर को जानना सबसे महत्त्वपूर्ण, सबसे अर्थपूर्ण बात है। यदि मनुष्य परमेश्वर को नहीं जानता, तो उसे जीने का हक नहीं है, वह पशु के समान ही है और उसके पास कोई जीवन नहीं है।” जब तक पतरस का अनुभव इस बिंदु तक पहुँचा, तब तक वह अपनी प्रकृति को जान गया था और उसने उसकी अपेक्षाकृत अच्छी समझ हासिल कर ली थी। हालाँकि वह शायद इसे उतनी अच्छी तरह नहीं समझा पाता जितनी स्पष्टता के साथ आजकल लोग समझाने में सक्षम होंगे, लेकिन वह निस्संदेह इस स्थिति में पहुँच गया था। इसलिए, सत्य न की खोज के मार्ग पर चलने और परमेश्वर से पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचनों के भीतर से अपने स्वभाव की गहरी समझ प्राप्त करने, और साथ ही अपनी प्रकृति के विभिन्न पहलुओं को समझने और शब्दों में उसका सटीक रूप से वर्णन करने, स्पष्ट और सादे ढंग से बोलने की जरूरत है। सही मायने में खुद को जानना यही है और केवल इसी तरीके से तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित परिणाम प्राप्त कर पाओगे। यदि तुम्हारा ज्ञान इस बिंदु तक नहीं पहुँचा है, फिर भी तुम खुद को समझने का दावा करते हो और कहते हो कि तुमने जीवन प्राप्त कर लिया है, तो क्या तुम केवल डींग नहीं मार रहे हो? तुम खुद को नहीं जानते, और न ही तुम यह जानते हो कि तुम परमेश्वर के सामने क्या हो, तुमने वास्तव में एक इंसान होने के मानक पूरे कर लिए हैं या नहीं, या तुम्हारे भीतर अभी भी कितने शैतानी तत्त्व हैं। तुम अभी भी इस बारे में अस्पष्ट हो कि तुम किससे संबंधित हो, और तुम्हारे पास कोई आत्म-ज्ञान नहीं है—फिर परमेश्वर के सामने तुम्हारे पास विवेक कैसे हो सकता है? जब पतरस जीवन की खोज कर रहा था, तो उसने खुद को समझने और अपने परीक्षणों के दौरान अपने स्वभाव को बदलने पर ध्यान केंद्रित किया, और उसने परमेश्वर को जानने का प्रयास किया। अंत में उसने सोचा, “लोगों को जीवन में परमेश्वर की समझ पाने की कोशिश करनी चाहिए; उसे जानना सबसे महत्त्वपूर्ण बात है। अगर मैं परमेश्वर को नहीं जानता, तो मरने पर मुझे शांति नहीं मिलेगी। परमेश्वर को जान लेने के बाद, अगर वह मुझे मरने देता है, तो मैं सर्वाधिक कृतज्ञ महसूस करूँगा। मैं जरा भी शिकायत नहीं करूँगा, और मेरा पूरा जीवन सफल हो चुका होगा।” पतरस समझ का यह स्तर हासिल करने या इस बिंदु पर पहुँचने में परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू करने के तुरंत बाद ही सक्षम नहीं हो गया था; बल्कि वह बहुत परीक्षणों से गुजरा। परमेश्वर को जानने का मूल्य समझ सकने से पहले उसके अनुभव को एक निश्चित मील-पत्थर तक पहुँचना पड़ा था, और उसे खुद को पूरी तरह से समझना पड़ा था। इसलिए, पतरस ने जो मार्ग अपनाया, वह सत्य का अनुसरण करने और पूर्ण किए जाने का मार्ग था। उसका विशिष्ट अभ्यास मुख्य रूप से इसी पहलू पर केंद्रित था।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें

यदि तुम्हारे आत्मज्ञान में केवल सतही चीजों की सरसरी पहचान शामिल है—अगर तुम केवल कहते हो कि तुम अभिमानी और दंभी हो, कि तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हो और उसका विरोध करते हो—तो यह सच्चा ज्ञान नहीं है, बल्कि सिद्धांत है। तुम्हें इसमें तथ्य एकीकृत करने चाहिए : जिस किसी मामले में तुम्हारे गलत इरादे और विचार हों या बेतुके दृष्टिकोण हों, उन्हें संगति और चीर-फाड़ के लिए प्रकाश में लाना चाहिए। केवल यही वास्तव में खुद को जानना है। तुम्हें केवल अपने कार्यों से अपने बारे में समझ हासिल नहीं करनी चाहिए; तुम्हें समस्या का मर्म समझकर समूल समाधान करना चाहिए। कुछ समय बीतने के बाद तुम्हें आत्मचिंतन कर यह सारांश निकालना चाहिए कि तुम किन समस्याओं का समाधान कर चुके हो और कौन-सी अभी बची हुई हैं। इसी तरह इन समस्याओं का भी समाधान करने के लिए तुम्हें सत्य खोजना होगा। तुम्हें निष्क्रिय नहीं होना चाहिए, ऐसा न हो कि किसी काम को करने या राजी करने के लिए तुम्हें हमेशा दूसरों की जरूरत पड़े, न अपनी लगाम दूसरों को सौंपो; जीवन में प्रवेश के लिए तुम्हारे पास अपना रास्ता होना चाहिए। तुम्हें अक्सर यह परीक्षण करना चाहिए कि तुमने जो बातें कही हैं या जो चीजें की हैं उनमें से कौन-सी सत्य के विरुद्ध हैं, तुम्हारे कौन-से इरादे गलत हैं और तुमने कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है। अगर तुम हमेशा इसी रास्ते अभ्यास और प्रवेश करते हो—अगर खुद से सख्त मांगें करते हो—तो फिर तुम धीरे-धीरे सत्य को समझने में सक्षम हो जाओगे और जीवन-प्रवेश कर लोगे। जब सचमुच सत्य को समझ लोगे तो जान जाओगे कि तुम वास्तव में कुछ भी नहीं हो। इसका एक कारण यह है कि तुम्हारा बहुत ही भ्रष्ट स्वभाव है; दूसरा यह कि, तुममें बहुत ज्यादा कमी है, और तुम कोई भी सत्य नहीं जानते हो। अगर ऐसा कोई दिन आता है जब तुम ऐसा आत्म-ज्ञान पा लो तो तुम्हें अहंकार छू भी नहीं सकेगा, कई मामलों में तुम समझदार बन जाओगे, और आज्ञापालन करने लायक भी बन सकोगे। इस समय सबसे महत्वपूर्ण मामला क्या है? धारणाओं के सार पर संगति और चीर-फाड़ के जरिए लोग यह समझने लगे हैं कि उनकी धारणाएँ किन कारणों से बनती हैं; वे कुछ धारणाओं का समाधान करने में सक्षम होते हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वे हर धारणा का सार स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, इसका अर्थ यह है कि उनमें कुछ आत्म-ज्ञान तो है लेकिन उनके ज्ञान में पर्याप्त गहराई या स्पष्टता नहीं है। दूसरे शब्दों में, वे अभी भी न तो अपनी प्रकृति और स्वभाव को देख पा रहे हैं, न ही यह देख सकते हैं कि उनके दिल में कौन-कौन से भ्रष्ट स्वभावों ने जड़ें जमा ली हैं। इस तरीके से कोई व्यक्ति अपने बारे में कितना ज्ञान हासिल कर सकता है, इसकी भी एक सीमा है। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे पता है कि मेरा स्वभाव बेहद अहंकारी है—क्या इसका यह मतलब नहीं हुआ कि मैं खुद को जानता हूँ?” ऐसा ज्ञान बहुत सतही है; इससे समस्या हल नहीं हो सकती। अगर तुम सचमुच खुद को जानते हो तो फिर अभी भी व्यक्तिगत उन्नति की तलाश क्यों करते हो, अभी तक रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए क्यों लालायित हो? इसका मतलब है कि तुम्हारी अहंकारी प्रकृति मिटी नहीं है। इसलिए बदलाव तुम्हारे सोच-विचार और तुम्हारी कथनी-करनी के पीछे छिपे इरादों से शुरू होना चाहिए। क्या तुम सभी स्वीकारते हो कि लोग जो कहते हैं उसमें से अधिकांश चुभने वाला और विषैला होता है, और यह भी कि उनके लहजे में अहंकार का पुट होता है? उनके शब्द उनके इरादों और व्यक्तिगत राय से लदे होते हैं। अंतर्दृष्टि वाले लोग इसे सुनकर उचित-अनुचित का फर्क समझ सकेंगे। कुछ लोगों के अंदर से जब अहंकार नहीं छलक रहा होता है तो वे अधिकांश समय एक खास तरीके से बात करते हैं और खास भाव-भंगिमाएँ दिखाते हैं, लेकिन अहंकार प्रकट होने पर उनका व्यवहार बहुत अलग होता है। कभी-कभी वे अपने आडंबरपूर्ण विचारों के बारे में उबाऊ बातें करते जाएँगे, कभी-कभी वे अपने नुकीले दाँत और पंजे दिखाकर तन जाते हैं। वे खुद को पहाड़ का राजा मान लेते हैं, जिससे शैतान का बदसूरत चेहरा उजागर हो जाता है। हर व्यक्ति के तमाम तरह के इरादे और भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। जिस तरह चालाक लोग बात करते वक्त आँख मारते हैं और लोगों को कनखियों से देखते हैं—इन हरकतों में भ्रष्ट स्वभाव छिपा होता है। कुछ लोग छलावे वाली बातें करते हैं, और दूसरे लोग उनका मतलब कभी जान ही नहीं पाते। उनके शब्द गूढ़ और कपटपूर्ण होते हैं लेकिन बाहर से वे बहुत शांत और धीरोदात्त होते हैं। ऐसे लोग और भी अधिक फरेबी होते हैं, और उनके लिए सत्य को स्वीकारना और भी कठिन होता है। उन्हें बचाना बहुत मुश्किल है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य नए युग में कैसे प्रवेश करता है

जब कुछ लोग आत्म-ज्ञान के बारे में संगति करते हैं, तो उनके मुँह से पहली बात यह निकलती है, “मैं एक राक्षस, एक जीवित शैतान हूँ, जो परमेश्वर का विरोध करता है। मैं उसकी अवज्ञा करता हूँ और उसके साथ विश्वासघात करता हूँ; मैं एक साँप हूँ, एक दुष्ट व्यक्ति, जिसे शापित होना चाहिए।” क्या यही सच्चा आत्म-ज्ञान है? वे केवल सामान्य बातें बोलते हैं। वे उदाहरण क्यों नहीं देते? वे विश्लेषण के लिए उनके द्वारा की गई शर्मनाक चीजों को सबके सामने क्यों नहीं लाते? कुछ अविवेकी लोग उनकी बात सुनकर सोचते हैं, “हाँ, यह सच्चा आत्म-ज्ञान है! खुद को राक्षस, शैतान के रूप में जानना, यहाँ तक कि खुद को कोसना—ये कितनी ऊँचाई तक पहुँच गए हैं!” बहुत-से लोग, खासकर नए विश्वासी, इस बात से बहकावे में आ जाते हैं। वे सोचते हैं कि वक्ता शुद्ध है और आध्यात्मिक मामलों को समझता है, सत्य से प्रेम करता है, और अगुआई करने योग्य है। लेकिन जब वे उससे थोड़ी देर बातचीत करते हैं तो पाते हैं कि ऐसा नहीं है, यह वैसा इंसान नहीं है जैसी उन्होंने कल्पना की थी, बल्कि असाधारण रूप से झूठा और कपटी है, स्वाँग रचने और ढोंग करने में कुशल है, जिससे उन्हें बड़ी निराशा होती है। किस आधार पर यह माना जा सकता है कि लोग वास्तव में खुद को जानते हैं? तुम केवल इस बात पर विचार नहीं कर सकते कि वे क्या कहते हैं—मुख्य है यह निर्धारित करना कि वे सत्य का अभ्यास करने और उसे स्वीकारने में सक्षम हैं या नहीं। जो लोग वास्तव में सत्य समझते हैं, उन्हें न केवल अपना सच्चा ज्ञान होता है, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं। वे न केवल अपनी सच्ची समझ के बारे में बोलते हैं, बल्कि वे जो कहते हैं उसे सच में करने में भी सक्षम होते हैं। यानी उनकी कथनी और करनी में पूरी तरह तालमेल होता है। अगर वे जो कहते हैं वह सुसंगत और स्वीकार्य लगता है, लेकिन वे वैसा करते नहीं, उसे जीते नहीं, तो इसमें वे फरीसी बन जाते हैं, वे पाखंडी होते हैं और खुद को सच में जानने वाले लोग बिल्कुल नहीं होते। सत्य के बारे में संगति करते हुए कई लोग बहुत तर्कसंगत लगते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि कब उनका भ्रष्ट स्वभाव उफन पड़ता है। क्या ये वे लोग हैं, जो खुद को जानते हैं? अगर लोग खुद को नहीं जानते, तो क्या वे सत्य को समझने वाले लोग होते हैं? वे सभी, जो स्वयं को नहीं जानते, वे सत्य को न समझने वाले लोग हैं, और जो आत्म-ज्ञान के खोखले शब्द बोलते हैं उनमें झूठी आध्यात्मिकता होती है, वे झूठे होते हैं। कुछ लोग वचन और सिद्धांत बोलते समय बहुत सुसंगत लगते हैं, लेकिन उनकी आत्माओं की स्थिति सुन्न और जड़ होती है, वे चीजों को महसूस नहीं कर पाते हैं, और किसी भी मसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। कहा जा सकता है कि वे सुन्न होते हैं, लेकिन कभी-कभी, उन्हें बोलते हुए सुनने पर, लगता है कि उनकी आत्मा काफी प्रखर है। उदाहरण के लिए, किसी घटना के ठीक बाद, वे खुद को तुरंत जानने में सक्षम होते हैं : “अभी-अभी मुझे एक विचार आया। मैंने उसके बारे में सोचा और महसूस किया कि वह कुटिल विचार था, कि मैं परमेश्वर को धोखा दे रहा था।” यह सुनकर कुछ अविवेकी लोग ईर्ष्यालु हो जाते हैं और कहते हैं : “इस इंसान को तुरंत पता चल जाता है कि कब उसकी भ्रष्टता बाहर आ रही है, और यह उसके बारे में खुलकर बात करने और संगति करने में भी सक्षम है। वह प्रतिक्रिया व्यक्त करने में बहुत तेज है, उसकी आत्मा प्रखर है, वह हमसे बहुत बेहतर है। वह वास्तव में ऐसा इंसान है, जो सत्य का अनुसरण करता है।” क्या यह लोगों को मापने का सटीक तरीका है? (नहीं।) तो यह आँकने का आधार क्या होना चाहिए कि लोग वास्तव में खुद को जानते हैं या नहीं? इसका आधार केवल उनके मुँह से निकलने वाली बातें नहीं होनी चाहिए। तुम्हें यह भी देखना चाहिए कि उनमें वास्तव में क्या प्रकट होता है। सबसे सरल तरीका यह देखना है कि क्या वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हैं—यही सबसे महत्वपूर्ण है। सत्य का अभ्यास करने की उनकी क्षमता साबित करती है कि वे वास्तव में खुद को जानते हैं, क्योंकि जो लोग वास्तव में खुद को जानते हैं, वे पश्चात्ताप अभिव्यक्त करते हैं, और जब लोग पश्चात्ताप अभिव्यक्त करते हैं, तभी वे वास्तव में खुद को जानते हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति यह जान सकता है कि वह धोखेबाज है, कि वह तुच्छ षड्यंत्रों और साजिशों से भरा हुआ है, और वह यह भी बता सकता है कि दूसरे कब धोखेबाजी दिखाते हैं। तुम्हें यह देखना चाहिए कि वह धोखेबाज है यह स्वीकार करने के बाद वास्तव में पश्चात्ताप करता है और अपनी धोखेबाजी छोड़ता है या नहीं। और अगर वह फिर से धोखेबाजी करता है, तो देखो कि क्या वह ऐसा करने पर तिरस्कार और शर्मिंदगी महसूस करता है या नहीं, वह ईमानदारी से पश्चात्ताप करता है या नहीं। अगर उसमें शर्मिंदगी का भाव नहीं है, पश्चात्ताप बिलकुल भी नहीं है, तो उसका आत्म-ज्ञान सतही, और लापरवाही से भरा है। वह सिर्फ बेमन से काम कर रहा है; उसका ज्ञान सच्चा नहीं है। वह यह नहीं सोचता कि धोखा देना बुरी या राक्षसी बात है और वह निश्चित रूप से महसूस नहीं करता कि धोखा देना कितना बेशर्मी भरा, घिनौना व्यवहार है। वह सोचता है, “सभी लोग धोखेबाज हैं। जो लोग धोखेबाज नहीं हैं वे मूर्ख हैं। थोड़ी-सी धोखेबाजी तुम्हें बुरा व्यक्ति नहीं बनाती। मैंने कोई बुरा काम नहीं किया है; मैं दुनिया का सबसे धोखेबाज व्यक्ति नहीं हूँ।” क्या ऐसा व्यक्ति वास्तव में खुद को जान सकता है? वह निश्चित रूप से नहीं जान सकता। इसका कारण यह है कि उसे अपने धोखेबाज स्वभाव का कोई ज्ञान नहीं है, वह धोखे से नफरत नहीं करता और आत्मज्ञान के बारे में उसकी सभी बातें ढोंग हैं और खोखली हैं। खुद के भ्रष्ट स्वभाव को न पहचानना सच्चा आत्मज्ञान नहीं है। धोखेबाज लोग अपने आपको वास्तव में इसलिए नहीं जान पाते, क्योंकि उनके लिए सत्य को स्वीकार करना आसान नहीं होता। इसलिए चाहे वे कितने भी शब्द और सिद्धांत बोल लें, वे वास्तव में नहीं बदलेंगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है

अपने भ्रष्ट स्वभाव का सार जानना कोई आसान काम नहीं है। खुद को जानना मोटे तौर पर यह कहना नहीं है, “मैं एक भ्रष्ट व्यक्ति हूँ; मैं दानव हूँ; मैं शैतान की संतान, बड़े लाल अजगर का वंशज हूँ; मैं परमेश्वर के प्रति प्रतिरोधी और शत्रुतापूर्ण हूँ; मैं उसका दुश्मन हूँ।” जरूरी नहीं कि ऐसी बातों का मतलब है कि तुम्हें अपनी भ्रष्टता का सही ज्ञान है। हो सकता है कि तुमने ये शब्द किसी और से सीख लिए हों और अपने बारे में ज्यादा न जानते हो। सच्चा आत्म-ज्ञान मनुष्य के सीखने या आलोचनाओं पर आधारित नहीं होता, यह परमेश्वर के वचनों पर आधारित होता है—यह भ्रष्ट स्वभावों के परिणाम और उनके परिणामस्वरूप अनुभव की गई पीड़ा को देखना है यह महसूस करना है कि भ्रष्ट स्वभाव न केवल तुम्हें, बल्कि दूसरे लोगों को भी नुकसान पहुँचाता है। यह तथ्य समझना है भ्रष्ट स्वभाव शैतान में उत्पन्न होते हैं, वे शैतान के जहर और फलसफे हैं, और वे पूरी तरह से सत्य और परमेश्वर के शत्रु हैं। जब तुम इस समस्या को समझ लोगे, तो तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का पता चल जाएगा। कुछ लोग यह मान लेने के बाद कि वे दुष्ट और शैतान हैं, अपनी काट-छाँट स्वीकार नहीं करते। वे यह स्वीकार नहीं करते कि उन्होंने कुछ गलत किया है या सत्य का उल्लंघन किया है। उनकी समस्या क्या है? वे अभी भी खुद को नहीं जानते। कुछ लोग कहते हैं कि वे दुष्ट और शैतान हैं, फिर भी अगर तुम उनसे पूछो कि “तुम खुद को दुष्ट और शैतान क्यों बताते हो?” तो वे उत्तर नहीं दे पाएँगे। इससे साबित होता है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव या प्रकृति सार को नहीं जानते। अगर वे यह देख पाते कि उनकी प्रकृति शैतान की प्रकृति है, कि उनका भ्रष्ट स्वभाव शैतान का स्वभाव है, और वे यह स्वीकार पाते कि इसीलिए वे दुष्ट और शैतान हैं, तो वे अपने प्रकृति सार को जान चुके होते। सच्चा आत्म-ज्ञान परमेश्वर के वचनों के खुलासे, न्याय, अभ्यास और अनुभव के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। यह सत्य समझने से प्राप्त होता है। अगर कोई सत्य नहीं समझता, तो वह अपने आत्मज्ञान के बारे में चाहे जो कुछ भी कहे, वह खोखला और अव्यावहारिक होता है, क्योंकि वे उन चीजों को खोज या समझ नहीं पाते हैं, जो मूल में हैं और आवश्यक हैं। स्वयं को जानने के लिए व्यक्ति यह स्वीकारना होगा कि उसने किसी विशिष्ट परिस्थिति में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए, उसका इरादा क्या था, उसने कैसे व्यवहार किया, उसमें किस चीज की मिलावट थी, और वह सत्य क्यों नहीं स्वीकार सका। उसे ये चीजें स्पष्ट रूप से बताने में सक्षम होना चाहिए, तभी वह खुद को जान सकता है। जब कुछ लोगों को काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, तो वे स्वीकार करते हैं कि वे सत्य-विमुख हो चुके हैं, कि उन्हें परमेश्वर के बारे में संदेह और गलतफहमियाँ हैं, और वे उससे सतर्क रहते हैं। वे यह भी स्वीकारते हैं कि मनुष्य का न्याय करने और उसे उजागर करने वाले परमेश्वर के सभी वचन तथ्यपरक हैं। यह दर्शाता है कि उन्हें थोड़ा आत्म-ज्ञान है। लेकिन चूँकि उन्हें परमेश्वर या उसके कार्य का ज्ञान नहीं है, चूँकि वे उसकी इच्छा नहीं समझते, इसलिए उनका यह आत्म-ज्ञान काफी उथला होता है। अगर कोई सिर्फ अपनी भ्रष्टता स्वीकारता है लेकिन समस्या की जड़ नहीं खोज पाया, तो क्या परमेश्वर के प्रति उसके संदेहों, गलतफहमियों और सतर्कता का समाधान किया जा सकता है? नहीं, वे नहीं कर सकते। यही कारण है कि आत्म-ज्ञान व्यक्ति द्वारा अपनी भ्रष्टता और समस्याओं की स्वीकृति मात्र से बढ़कर है—उसे सत्य भी समझना चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का जड़ से समाधान करना चाहिए। अपनी भ्रष्टता के सत्य को देखने और सच्चा पश्चात्ताप करने का यही तरीका है। जब सत्य से प्रेम करने वाले स्वयं को जान जाते हैं, तो वे सत्य खोजने और समझने और अपनी समस्याओं का समाधान करने में भी सक्षम हो जाते हैं। केवल इसी तरह का आत्म-ज्ञान परिणाम देता है। जब भी सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति परमेश्वर के वचनों का ऐसा वाक्यांश पढ़ता है जो मनुष्य को उजागर कर उसका न्याय करता है, तो सबसे पहले वह विश्वास करता है कि मनुष्य को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन वास्तविक और तथ्यपरक हैं, कि मनुष्य का न्याय करने वाले परमेश्वर के वचन सत्य हैं और वे परमेश्वर की धार्मिकता दर्शाते हैं। सत्य के प्रेमियों को कम से कम इतना तो पहचान पाना चाहिए। अगर कोई परमेश्वर के वचन पर विश्वास ही नहीं करता, और यह नहीं मानता कि इंसान को उजागर और उसका न्याय करने वाले परमेश्वर के वचन, तथ्य और सत्य हैं, तो क्या वह उसके वचनों के आधार पर स्वयं को जान सकता है? निश्चित रूप से नहीं—वह चाहे तो भी ऐसा नहीं कर सकता। अगर तुम अपने विश्वास में दृढ़ हो सकते हो कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, और उन सभी पर विश्वास कर सकते हो, चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे या उसके बोलने का तरीका कैसा भी हो, अगर तुम परमेश्वर के वचनों को न समझने पर भी, उन पर विश्वास करने और उन्हें स्वीकार करने में सक्षम हो, तो तुम्हारे लिए उनके द्वारा आत्म-चिंतन करना और खुद को जानना आसान होगा। आत्मचिंतन सत्य पर आधारित होना चाहिए। यह संदेह से परे है। केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं—मनुष्य का कोई भी शब्द और शैतान की कोई भी बात सत्य नहीं है। शैतान हजारों वर्षों से मानवजाति को तमाम तरह के ज्ञानार्जन, शिक्षाओं और सिद्धांतों से भ्रष्ट कर रहा है, और लोग इतने सुन्न और मंदबुद्धि हो गए हैं कि उन्हें न केवल जरा-सा भी आत्मज्ञान नहीं है, बल्कि वे पाखंडों और भ्रांतियों को भी मानते हैं और सत्य स्वीकारने से मना करते हैं। इस तरह के मनुष्य बचाए नहीं जा सकते। जो लोग परमेश्वर पर सच्ची आस्था रखते हैं, वे मानते हैं कि केवल उसके वचन ही सत्य हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर खुद को जानने में सक्षम होते हैं और इस तरह वे सच्चा पश्चात्ताप हासिल कर सकते हैं। कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते; वे केवल मनुष्य के सीखने के आधार पर आत्म-चिंतन करते हैं, और वे पापपूर्ण व्यवहार से अधिक कुछ भी स्वीकार नहीं करते, और इस दौरान, वे अपने भ्रष्ट सार की असलियत देखने में असमर्थ रहते हैं। ऐसा आत्म-ज्ञान एक निष्फल प्रयास होता है और यह कोई परिणाम नहीं देता। व्यक्ति को आत्म-चिंतन परमेश्वर के वचनों के आधार पर करना चाहिए, और चिंतन के बाद, धीरे-धीरे वे भ्रष्ट स्वभाव जानने चाहिए जिन्हें वह प्रकट करता है। व्यक्ति को अपनी कमियाँ, अपना मानवता सार, चीजों पर अपने विचार, अपना जीवन-दृष्टिकोण और मूल्य सत्य के आधार पर मापने और जानने में सक्षम होना चाहिए, और फिर इन सभी चीजों के बारे में सटीक मूल्यांकन और फैसले पर पहुँचना चाहिए। इस प्रकार वह धीरे-धीरे आत्म-ज्ञान प्राप्त कर सकता है। लेकिन आत्म-ज्ञान व्यक्ति द्वारा जीवन में अधिक अनुभव प्राप्त करने पर अधिक गहरा हो जाता है, और सत्य प्राप्त करने से पहले, व्यक्ति के लिए अपने प्रकृति सार की असलियत को पूरी तरह से जानना असंभव है। अगर कोई वास्तव में स्वयं को जानता है, तो वह देख सकता है कि भ्रष्ट मनुष्य वास्तव में शैतान की संतान और उसके मूर्त रूप हैं। वह महसूस करेगा कि वह परमेश्वर के सामने जीने लायक नहीं है और वह उसके प्रेम और उद्धार के अयोग्य है, और उसके सामने पूर्णतया दंडवत कर पाएगा। केवल इस स्तर का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम लोग ही वास्तव में खुद को जानते हैं।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1)

तुम लोगों को अब स्वयं द्वारा प्रकट किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभाव की थोड़ी-बहुत पहचान हो गई है। जब तुम्हें यह स्पष्टता से समझ आ जाता है कि तुम अब भी नियमित रूप से कौन-सी भ्रष्ट चीजें प्रकट कर सकते हो और संभावित रूप से ऐसी कौन-सी ऐसी चीजें कर सकते हो जो सत्य के विपरीत हैं, तब अपने भ्रष्ट स्वभाव को साफ करना आसान हो जाएगा। क्यों, कई मामलों में, लोग खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाते? क्योंकि हर समय, और हर तरह से, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में होते हैं, जो उन्हें सभी चीजों में विवश और परेशान करते हैं। जब सब कुछ अच्छा चल रहा होता है, और वे लड़खड़ाते नहीं या नकारात्मक नहीं होते, तो कुछ लोग हमेशा यह महसूस करते हैं कि उनके पास आध्यात्मिक कद है, और जब कोई दुष्ट इंसान, नकली अगुआ या कोई मसीह-विरोधी उजागर कर निकाला जाता है, तो यह देखकर उनके मन में कोई विचार नहीं आता। वे सभी के सामने यह शेखी भी बघारते हैं कि, “कोई भी लड़खड़ा सकता है, लेकिन मैं नहीं। हो सकता है कि कोई और परमेश्वर से प्रेम न करे, लेकिन मैं करता हूँ।” उन्हें लगता है कि वे किसी भी स्थिति या हालात में अपनी गवाही पर अडिग रह सकते हैं। और नतीजा क्या होता है? एक दिन आता है जब उनकी परीक्षा ली जाती है और वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते और कुड़कुड़ाते हैं। क्या यह विफल होना नहीं है, क्या यह लड़खड़ाना नहीं है? जब लोगों की परीक्षा ली जाती है, तो उससे ज्यादा कोई चीज लोगों को उजागर नहीं करती। परमेश्वर इंसान का अंतरतम हृदय देखता है, और लोगों को किसी भी समय डींग नहीं मारनी चाहिए। वे जिस चीज के बारे में डींग मारते हैं, वहीं देर-सबेर, एक दिन वे लड़खड़ाएँगे। दूसरों को लड़खड़ाते और किसी परिस्थिति में असफल होते देखकर वे इसके बारे में कुछ नहीं सोचते, और यहाँ तक सोचते हैं कि वे खुद कुछ गलत नहीं कर सकते, कि वे मजबूती से खड़े हो सकेंगे—लेकिन उस परिस्थिति में वे खुद भी लड़खड़ा जाते और असफल हो जाते हैं। यह कैसे हो सकता है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोग अपने प्रकृति सार को पूरी तरह से नहीं समझते; अपने प्रकृति सार की समस्याओं के बारे में उनके ज्ञान की गहराई अभी भी अपर्याप्त है, इसलिए सत्य को अभ्यास में लाना उनके लिए बहुत कठिन है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग बहुत धोखेबाज होते हैं, और अपनी कथनी-करनी में बेईमान होते हैं, लेकिन अगर तुम उनसे पूछो कि उनका भ्रष्ट स्वभाव किस संबंध में सबसे गंभीर है, तो वे कहेंगे, “मैं थोड़ा धोखेबाज हूँ।” वे केवल इतना कहते हैं कि वे थोड़े धोखेबाज हैं, लेकिन वे यह नहीं कहते कि उनकी प्रकृति ही धोखा देने की है, और वे यह नहीं कहते कि वे धोखेबाज हैं। अपनी भ्रष्ट अवस्था के बारे में उनका ज्ञान उतना गहरा नहीं होता, और वे उसे गंभीरता से नहीं लेते, और न ही उसे उतनी गहराई से देखते हैं जितनी गहराई से दूसरे देखते हैं। दूसरे लोगों के परिप्रेक्ष्य से, यह व्यक्ति बहुत धोखेबाज और बहुत कुटिल है, और उसके हर शब्द में चाल है, उसकी बातें और कार्य कभी ईमानदार नहीं होते—लेकिन वह व्यक्ति खुद को इतनी गहराई से नहीं जान पाता। उसके पास जो भी ज्ञान होता है, वह केवल सतही होता है। जब भी वह बोलता और कार्य करता है, तो वह अपनी प्रकृति का कुछ भाग प्रकट करता है, लेकिन वह इससे अनजान होता है। वह मानता है कि उसका इस तरह से कार्य करना भ्रष्टता उजागर करना नहीं है, उसे लगता है कि वह पहले ही सत्य को अमल में ला चुका है—लेकिन देखने वालों के लिए, यह व्यक्ति बहुत कुटिल और धोखेबाज है, उसकी बातें और काम बेईमानी से भरे हैं। कहने का अर्थ यह है कि लोगों को अपनी प्रकृति की बहुत सतही समझ होती है, और उसके तथा परमेश्वर के उन वचनों के बीच बहुत बड़ा अंतर होता है, जो उनका न्याय कर उन्हें उजागर करते हैं। परमेश्वर जो प्रकट करता है उसमें कोई गलती नहीं है, बल्कि इंसान मअपनी स्वयं की प्रकृति को भलीभाँति गहराई से नहीं समझता। लोगों को स्वयं की मौलिक या जरूरी समझ नहीं है; इसके बजाय, वे अपनी ऊर्जा को अपने कार्यों और बाहरी खुलासों को जानने पर केंद्रित और समर्पित करते हैं। भले ही कुछ लोग कभी कभार अपने आत्मज्ञान के बारे में कुछ कहने में समर्थ हों, यह बहुत अधिक गहरा नहीं होगा। किसी ने कभी भी नहीं सोचा है कि कोई एक काम करने या कोई चीज प्रकट करने के कारण वह एक निश्चित प्रकार का व्यक्ति है या उसकी एक निश्चित प्रकार की प्रकृति है। परमेश्वर ने मनुष्य की प्रकृति और सार को उजागर कर दिया है, लेकिन लोग समझते हैं कि उनके चीजों को करने के तरीके और बोलने का तरीके दोषपूर्ण और खराब हैं; नतीजतन, उनके लिए सत्य को अभ्यास में लाना अपेक्षाकृत अधिक मेहनत का काम होता है। लोग सोचते हैं कि उनकी गलतियाँ बस लापरवाही से प्रकट की गई क्षणिक अभिव्यक्तियाँ हैं, न की उनकी प्रकृति का उद्गार हैं। जब लोग इस तरह से सोचते हैं, तो उनके लिए स्वयं को वास्तव में जानना बहुत कठिन हो जाता है, और उनके लिए सत्य को समझना और उसका अभ्यास करना बहुत कठिन हो जाता है। चूँकि वे सत्य नहीं जानते और उसके प्यासे नहीं होते; इसलिए, सत्य को अभ्यास में लाते समय, वे केवल लापरवाह ढंग से नियमों का पालन करते हैं। लोग अपनी स्वयं की प्रकृति को बहुत बुरा नहीं मानते हैं, और उन्हें नहीं लगता कि वह इतनी बुरी है कि उसे नष्ट या दंडित किया जाना चाहिए। लेकिन परमेश्वर के मानकों के अनुसार, लोग अत्यधिक गहराई तक भ्रष्ट कर दी गए हैं, वे अभी भी उद्धार के मानकों से दूर हैं, क्योंकि लोगों के पास केवल कुछ तरीके हैं जो बाहर से सत्य का उल्लंघन करते नहीं प्रतीत होते, जबकि वस्तुतः वे सत्य को अभ्यास में नहीं लाते और वे परमेश्वर के आज्ञाकारी नहीं हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

यदि लोगों का स्वयं के बारे में ज्ञान बहुत उथला है, तो समस्याओं को हल करना उनके लिए असंभव होगा, और उसका जीवन स्वभाव नहीं बदलेगा। स्वयं को एक गहरे स्तर पर जानना आवश्यक है, जिसका अर्थ है कि अपनी स्वयं की प्रकृति को जानना : उस प्रकृति में कौन से तत्व शामिल हैं, ये कैसे पैदा हुए और वे कहाँ से आये। इसके अलावा, क्या तुम इन चीजों से वास्तव में घृणा कर पाते हो? क्या तुमने अपनी स्वयं की कुरूप आत्मा और अपनी बुरी प्रकृति को देखा है? यदि तुम सच में सही अर्थों में स्वयं के बारे में सत्य को देख पाओगे, तो तुम स्वयं से घृणा करोगे। जब तुम स्वयं से घृणा करते हो और फिर परमेश्वर के वचन का अभ्यास करते हो, तो तुम देह को त्यागने में सक्षम हो जाओगे और इसे श्रमसाध्य समझे बिना तुम्हारे अंदर सत्य को कार्यान्वित करने की शक्ति होगी। क्यों कई लोग अपनी दैहिक प्राथमिकताओं का अनुसरण करते हैं? क्योंकि वे स्वयं को बहुत अच्छा मानते हैं, उन्हें लगता है कि उनके कार्यकलाप सही और न्यायोचित हैं, कि उनमें कोई दोष नहीं है, और यहाँ तक कि वे पूरी तरह से सही हैं, इसलिए वे इस धारणा के साथ कार्य करने में समर्थ हैं कि न्याय उनके पक्ष में है। जब कोई यह जान लेता है कि उसकी असली प्रकृति क्या है—कितना कुरूप, कितना घृणित और कितना दयनीय है—तो फिर वह स्वयं पर बहुत गर्व नहीं करता है, उतना बेतहाशा अहंकारी नहीं होता है, और स्वयं से उतना प्रसन्न नहीं होता है जितना वह पहले होता था। ऐसा व्यक्ति महसूस करता है, कि “मुझे ईमानदार और व्यवहारिक बनकर परमेश्वर के कुछ वचनों का अभ्यास करना चाहिए। यदि नहीं, तो मैं इंसान होने के स्तर के बराबर नहीं होऊँगा, और परमेश्वर की उपस्थिति में रहने में शर्मिंदा होऊँगा।” तब कोई वास्तव में अपने आपको क्षुद्र के रूप में, वास्तव में महत्वहीन के रूप में देखता है। इस समय, उसके लिए सच्चाई का पालन करना आसान होता है, और वह थोड़ा-थोड़ा ऐसा दिखाई देता है जैसा कि किसी इंसान को होना चाहिए। जब लोग वास्तव में स्वयं से घृणा करते हैं केवल तभी वे शरीर को त्याग पाते हैं। यदि वे स्वयं से घृणा नहीं करते हैं, तो वे देह को नहीं त्याग पाएँगे। स्वयं से घृणा करना कोई मामूली बात नहीं है। उसमें बहुत-सी बातें होनी अनिवार्य हैं : सबसे पहले, अपने स्वयं के स्वभाव को जानना; और दूसरा, स्वयं को अभावग्रस्त और दयनीय के रूप में समझना, स्वयं को अति तुच्छ और महत्वहीन समझना, और स्वयं की दयनीय और गंदी आत्मा को समझना। जब कोई पूरी तरह से देखता है कि वह वास्तव में क्या है, और यह परिणाम प्राप्त हो जाता है, तब वह स्वयं के बारे में वास्तव में ज्ञान प्राप्त करता है, और ऐसा कहा जा सकता है कि किसी ने अपने आपको पूरी तरह से जान लिया है। केवल तभी कोई स्वयं से वास्तव में घृणा कर सकता है, इतना कि स्वयं को शाप दे, और वास्तव में महसूस करे कि उसे शैतान के द्वारा अत्यधिक गहराई तक भ्रष्ट किया गया है इस तरह से कि वह अब इंसान के समान नहीं है। तब एक दिन, जब मृत्यु का भय दिखाई देगा, तो ऐसा व्यक्ति महसूस करेगा, “यह परमेश्वर की धार्मिक सजा है; परमेश्वर वास्तव में धार्मिक है; मुझे वास्तव में मर जाना चाहिए!” इस बिन्दु पर, वह कोई शिकायत दर्ज नहीं करेगा, परमेश्वर को दोष देने की तो बात ही दूर है, वह बस यही महसूस करेगा कि वह बहुत ज़रूरतमंद और दयनीय है, वो इतना गंदा है कि उसे परमेश्वर द्वारा त्याग दिया और नष्ट कर दिया जाना चाहिए, और उसके जैसी आत्मा पृथ्वी पर रहने के योग्य नहीं है। इसलिए, यह व्यक्ति परमेश्वर की शिकायत या उसका विरोध नहीं करेगा, परमेश्वर के साथ विश्वासघात तो बिल्कुल नहीं करेगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

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