10. परमेश्वर से सावधान रहने और परमेश्वर को गलत समझने की समस्या का समाधान कैसे करें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

आज परमेश्वर तुम लोगों का न्याय करता है, तुम लोगों को ताड़ना देता है, और तुम्हारी निंदा करता है, लेकिन तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हारी निंदा इसलिए की जाती है, ताकि तुम स्वयं को जान सको। वह इसलिए निंदा करता है, शाप देता है, न्याय करता और ताड़ना देता है, ताकि तुम स्वयं को जान सको, ताकि तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन हो सके, और, इसके अलावा, तुम अपनी कीमत जान सको, और यह देख सको कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक और उसके स्वभाव और उसके कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार हैं, और वह मनुष्य के उद्धार के लिए अपनी योजना के अनुसार कार्य करता है, और कि वह धार्मिक परमेश्वर है, जो मनुष्य को प्यार करता है, उसे बचाता है, उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है। यदि तुम केवल यह जानते हो कि तुम निम्न हैसियत के हो, कि तुम भ्रष्ट और विद्रोही हो, परंतु यह नहीं जानते कि परमेश्वर आज तुममें जो न्याय और ताड़ना का कार्य कर रहा है, उसके माध्यम से वह अपने उद्धार के कार्य को स्पष्ट करना चाहता है, तो तुम्हारे पास अनुभव प्राप्त करने का कोई मार्ग नहीं है, और तुम आगे जारी रखने में सक्षम तो बिल्कुल भी नहीं हो। परमेश्वर मारने या नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि न्याय करने, शाप देने, ताड़ना देने और बचाने के लिए आया है। उसकी 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना के समापन से पहले—इससे पहले कि वह मनुष्य की प्रत्येक श्रेणी का परिणाम स्पष्ट करे—पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य उद्धार के लिए होगा; इसका विशुद्ध प्रयोजन उससे प्रेम करने वाले लोगों को पूरी तरह पूर्ण बनानाऔर उन्हें अपने प्रभुत्व के प्रति समर्पण कराना है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर लोगों को कैसे बचाता है, यह सब उन्हें उनके पुराने शैतानी स्वभाव से अलग करके किया जाता है; अर्थात्, वह उनसे जीवन की तलाश करवाकर उन्हें बचाता है। यदि वे ऐसा नहीं करते, तो उनके पास परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने का कोई रास्ता नहीं होगा। उद्धार स्वयं परमेश्वर का कार्य है, और जीवन की तलाश करना ऐसी चीज है, जिसे उद्धार स्वीकार करने के लिए मनुष्य को करना ही चाहिए। मनुष्य की निगाह में, उद्धार परमेश्वर का प्रेम है, और परमेश्वर का प्रेम ताड़ना, न्याय और शाप नहीं हो सकता; उद्धार में प्रेम, करुणा और, इनके अलावा, सांत्वना के वचनों के साथ-साथ परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए असीम आशीष समाविष्ट होने चाहिए। लोगों का मानना है कि जब परमेश्वर मनुष्य को बचाता है, तो ऐसा वह उन्हें अपने आशीषों और अनुग्रह से प्रेरित करके करता है, ताकि वे अपने हृदय परमेश्वर को दे सकें। दूसरे शब्दों में, उसका मनुष्य को स्पर्श करना उसे बचाना है। इस तरह का उद्धार एक सौदा करके किया जाता है। केवल जब परमेश्वर मनुष्य को सौ गुना प्रदान करता है, तभी मनुष्य परमेश्वर के नाम के प्रति समर्पण करता है और उसके लिए अच्छा करने और उसे महिमामंडित करने का प्रयत्न करता है। यह मानवजाति के लिए परमेश्वर की अभिलाषा नहीं है। परमेश्वर पृथ्वी पर भ्रष्ट मानवता को बचाने के लिए कार्य करने आया है—इसमें कोई झूठ नहीं है। यदि होता, तो वह अपना कार्य करने के लिए व्यक्तिगत रूप से निश्चित ही नहीं आता। अतीत में, उद्धार के उसके साधन में परम प्रेम और करुणा दिखाना शामिल था, यहाँ तक कि उसने संपूर्ण मानवजाति के बदले में अपना सर्वस्व शैतान को दे दिया। वर्तमान अतीत जैसा नहीं है : आज तुम लोगों को दिया गया उद्धार अंतिम दिनों के समय में प्रत्येक व्यक्ति का उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकरण किए जाने के दौरान घटित होता है; तुम लोगों के उद्धार का साधन प्रेम या करुणा नहीं है, बल्कि ताड़ना और न्याय है, ताकि मनुष्य को अधिक अच्छी तरह से बचाया जा सके। इस प्रकार, तुम लोगों को जो भी प्राप्त होता है, वह ताड़ना, न्याय और निर्दय मार है, लेकिन यह जान लो : इस निर्मम मार में थोड़ा-सा भी दंड नहीं है। मेरे वचन कितने भी कठोर हों, तुम लोगों पर जो पड़ता है, वे कुछ वचन ही हैं, जो तुम लोगों को अत्यंत निर्दय प्रतीत हो सकते हैं, और मैं कितना भी क्रोधित क्यों न हूँ, तुम लोगों पर जो पड़ता है, वे फिर भी कुछ शिक्षाप्रद वचन ही हैं, और मेरा आशय तुम लोगों को नुकसान पहुँचाना या तुम लोगों को मार डालना नहीं है। क्या यह सब तथ्य नहीं है? जान लो कि आजकल हर चीज उद्धार के लिए है, चाहे वह धार्मिक न्याय हो या निर्मम शुद्धिकरण और ताड़ना। भले ही आज प्रत्येक व्यक्ति का उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकरण किया जा रहा हो या मनुष्य की श्रेणियाँ प्रकट की जा रही हों, परमेश्वर के समस्त वचनों और कार्य का प्रयोजन उन लोगों को बचाना है, जो परमेश्वर से सचमुच प्यार करते हैं। धार्मिक न्याय मनुष्य को शुद्ध करने के उद्देश्य से लाया जाता है, और निर्मम शुद्धिकरण उन्हें निर्मल बनाने के लिए किया जाता है; कठोर वचन या ताड़ना, दोनों शुद्ध करने के लिए किए जाते हैं और वे उद्धार के लिए हैं। इस प्रकार, उद्धार का आज का तरीका अतीत के तरीके जैसा नहीं है। आज तुम्हारे लिए उद्धार धार्मिक न्याय के जरिए लाया जाता है, और यह तुम लोगों में से प्रत्येक को उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत करने का एक अच्छा उपकरण है। इसके अतिरिक्त, निर्मम ताड़ना तुम लोगों के सर्वोच्च उद्धार का काम करती है—और ऐसी ताड़ना और न्याय का सामना होने पर तुम लोगों को क्या कहना है? क्या तुम लोगों ने शुरू से अंत तक उद्धार का आनंद नहीं लिया है? तुम लोगों ने देहधारी परमेश्वर को देखा है और उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि का एहसास किया है; इसके अलावा, तुमने बार-बार मार और अनुशासन का अनुभव किया है। लेकिन क्या तुम लोगों को सर्वोच्च अनुग्रह भी प्राप्त नहीं हुआ है? क्या तुम लोगों को प्राप्त हुए आशीष किसी भी अन्य की तुलना में अधिक नहीं हैं? तुम लोगों को प्राप्त हुए अनुग्रह सुलेमान को प्राप्त महिमा और संपत्ति से भी अधिक विपुल हैं! इसके बारे में सोचो : यदि आगमन के पीछे मेरा इरादा तुम लोगों को बचाने के बजाय तुम्हारी निंदा करना और सज़ा देना होता, तो क्या तुम लोगों का जीवन इतने लंबे समय तक चल सकता था? क्या तुम, मांस और रक्त के पापी प्राणी आज तक जीवित रहते? यदि मेरा उद्देश्य केवल तुम लोगों को दंड देना होता, तो मैं देह क्यों बनता और इतने महान उद्यम की शुरुआत क्यों करता? क्या तुम पूर्णतः नश्वर प्राणियों को दंडित करने का काम एक वचन भर कहने से ही न हो जाता? क्या तुम लोगों की जानबूझकर निंदा करने के बाद अभी भी मुझे तुम लोगों को नष्ट करने की आवश्यकता होगी? क्या तुम लोगों को अभी भी मेरे इन वचनों पर विश्वास नहीं है? क्या मैं केवल प्यार और करुणा के माध्यम से मनुष्य को बचा सकता हूँ? या क्या मैं मनुष्यों को बचाने के लिए केवल सूली पर चढ़ने के तरीके का ही उपयोग कर सकता हूँ? क्या मेरा धार्मिक स्वभाव मनुष्य को पूरी तरह से आज्ञाकारी बनाने में अधिक सहायक नहीं है? क्या यह मनुष्य को पूरी तरह से बचाने में अधिक सक्षम नहीं है?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए

तुम सब पाप और व्यभिचार की धरती पर रहते हो; और तुम सब व्यभिचारी और पापी हो। आज तुम न केवल परमेश्वर को देख सकते हो, बल्कि उससे भी महत्वपूर्ण रूप से, तुम लोगों ने ताड़ना और न्याय प्राप्त किया है, तुमने वास्तव में गहन उद्धार प्राप्त किया है, दूसरे शब्दों में, तुमने परमेश्वर का महानतम प्रेम प्राप्त किया है। वह जो कुछ करता है, उस सबमें वह तुम्हारे प्रति वास्तव में प्रेमपूर्ण है। वह कोई बुरी मंशा नहीं रखता। यह तुम लोगों के पापों के कारण है कि वह तुम लोगों का न्याय करता है, ताकि तुम आत्म-परीक्षण करो और यह ज़बरदस्त उद्धार प्राप्त करो। यह सब मनुष्य को संपूर्ण बनाने के लिए किया जाता है। प्रारंभ से लेकर अंत तक, परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए पूरी कोशिश कर रहा है, और वह अपने ही हाथों से बनाए हुए मनुष्य को पूर्णतया नष्ट करने का इच्छुक नहीं है। आज वह कार्य करने के लिए तुम लोगों के मध्य आया है; क्या यह और भी उद्धार नहीं है? अगर वह तुम लोगों से नफ़रत करता, तो क्या फिर भी वह व्यक्तिगत रूप से तुम लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए इतने बड़े परिमाण का कार्य करता? वह इस प्रकार कष्ट क्यों उठाए? परमेश्वर तुम लोगों से घृणा नहीं करता, न ही तुम्हारे प्रति कोई बुरी मंशा रखता है। तुम लोगों को जानना चाहिए कि परमेश्वर का प्रेम सबसे सच्चा प्रेम है। केवल लोगों के विद्रोही होने के कारण ही उसे न्याय के माध्यम से उन्हें बचाना पड़ता है; यदि वह ऐसा न करे, तो उन्हें बचाया जाना असंभव होगा। चूँकि तुम लोग नहीं जानते कि कैसे जिया जाए, यहाँ तक कि तुम इससे बिल्कुल भी अवगत नहीं हो, और चूँकि तुम इस दुराचारी और पापमय भूमि पर जीते हो और स्वयं दुराचारी और गंदे दानव हो, इसलिए वह तुम्हें और अधिक भ्रष्ट होते नहीं देख सकता; वह तुम्हें इस मलिन भूमि पर रहते हुए नहीं देख सकता जहाँ तुम अभी रह रहे हो और शैतान द्वारा उसकी इच्छानुसार कुचले जा रहे हो, और वह तुम्हें रसातल में गिरने नहीं दे सकता। वह केवल लोगों के इस समूह को प्राप्त करना और तुम लोगों को पूर्णतः बचाना चाहता है। तुम लोगों पर विजय का कार्य करने का यह मुख्य उद्देश्य है—यह केवल उद्धार के लिए है। यदि तुम नहीं देख सकते कि जो कुछ तुम पर किया जा रहा है, वह प्रेम और उद्धार है, यदि तुम सोचते हो कि यह मनुष्य को यातना देने की एक पद्धति, एक तरीका भर है और विश्वास के लायक नहीं है, तो तुम पीड़ा और कठिनाई सहने के लिए वापस अपने संसार में लौट सकते हो! यदि तुम इस धारा में रहने और इस न्याय और अमित उद्धार का आनंद लेने, और मनुष्य के संसार में कहीं न पाए जाने वाले इन सब आशीषों का और इस प्रेम का आनंद उठाने के इच्छुक हो, तो अच्छा है : विजय के कार्य को स्वीकार करने के लिए इस धारा में बने रहो, ताकि तुम्हें पूर्ण बनाया जा सके। परमेश्वर के न्याय के कारण आज तुम्हें कुछ कष्ट और शुद्धिकरण सहना पड़ सकता है, लेकिन यह कष्ट मूल्यवान और अर्थपूर्ण है। यद्यपि परमेश्वर की ताड़ना और न्याय के द्वारा लोग शुद्ध, और निर्ममतापूर्वक उजागर किए जाते हैं—जिसका उद्देश्य उन्हें उनके पापों का दंड देना, उनके देह को दंड देना है—फिर भी इस कार्य का कुछ भी उनके देह को नष्ट करने की सीमा तक नकारने के इरादे से नहीं है। वचन के समस्त गंभीर प्रकटीकरण तुम्हें सही मार्ग पर ले जाने के उद्देश्य से हैं। तुम लोगों ने इस कार्य का बहुत-कुछ व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया है, और स्पष्टतः, यह तुम्हें बुरे मार्ग पर नहीं ले गया है! यह सब तुम्हें सामान्य मानवता को जीने योग्य बनाने के लिए है; और यह सब तुम्हारी सामान्य मानवता द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक कदम तुम्हारी आवश्यकताओं पर आधारित है, तुम्हारी दुर्बलताओं के अनुसार है, और तुम्हारे वास्तविक आध्यामिक कद के अनुसार है, और तुम लोगों पर कोई असहनीय बोझ नहीं डाला गया है। यह आज तुम्हें स्पष्ट नहीं है, और तुम्हें लगता है कि मैं तुम पर कठोर हो रहा हूँ, और निस्संदेह तुम सदैव यह विश्वास करते हो कि मैं तुम्हें प्रतिदिन इसलिए ताड़ना देता हूँ, इसलिए तुम्हारा न्याय करता हूँ और इसलिए तुम्हारी भर्त्सना करता हूँ, क्योंकि मैं तुमसे घृणा करता हूँ। किंतु यद्यपि जो तुम सहते हो, वह ताड़ना और न्याय है, किंतु वास्तव में यह तुम्हारे लिए प्रेम है, और यह सबसे बड़ी सुरक्षा है। यदि तुम इस कार्य के गहन अर्थ को नहीं समझ सकते, तो तुम्हारे लिए अनुभव जारी रखना असंभव होगा। इस उद्धार से तुम्हें सुख प्राप्त होना चाहिए। होश में आने से इनकार मत करो। इतनी दूर आकर तुम्हें विजय के कार्य का अर्थ स्पष्ट दिखाई देना चाहिए, और तुम्हें अब और इसके बारे में ऐसी-वैसी राय नहीं रखनी चाहिए!

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विजय के कार्य की आंतरिक सच्चाई (4)

परमेश्वर में विश्वास करने वाले बहुत-से लोग परमेश्वर की इच्छा को समझने पर ध्यान नहीं देते; वे सोचते हैं कि परमेश्वर ने जिसको बचाना पूर्वनिर्धारित कर दिया है, परमेश्वर उसे अवश्य ही बचाएगा; और वे सोचते हैं कि जिनको बचाना परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित नहीं किया है, परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा, भले ही वे कुछ भी करें। उन्हें लगता है कि परमेश्वर लोगों के कृत्यों और व्यवहार के आधार पर उनकी नियति तय नहीं करेगा। अगर तुम इस तरह सोचते हो तो तुमने परमेश्वर को बिल्कुल गलत समझा है। अगर परमेश्वर सचमुच ऐसा करता तो क्या वह धार्मिक और न्यायसंगत हो सकता है? परमेश्वर लोगों की नियति एक सिद्धांत के आधार पर तय करते हैं। अंतत: लोगों की नियति उनके कामों और व्यवहार के अनुसार निर्धारित होगी। तुम्हें परमेश्वर का धर्मी स्वभाव नजर नहीं आता है, और तुम हमेशा ही परमेश्वर को गलत समझ लेते हैं और उसके इरादों को तोड़-मरोड़कर देखते हो। यही कारण है कि तुम निराशावादी बनकर उम्मीद छोड़ देते हैं। क्या यह खुद पर थोपी हुई चीज नहीं होती? क्या तुम सचमुच परमेश्वर को समझते हो, और क्या तुम परमेश्वर के इरादों को लेकर आश्वस्त हो? तुमने “परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण” को हमेशा एक सीमा-रेखा खींचने के लिए इस्तेमाल किया है, और परमेश्वर के वचनों को नकारा है। यह परमेश्वर के विषय में एक गंभीर भ्रम है! तुम परमेश्वर के कार्य को नहीं समझते, और तुम परमेश्वर की इच्छा को भी बिल्कुल नहीं समझते; और इससे भी बढ़कर, तुम उन श्रमसाध्य प्रयासों को नहीं समझते, जो उसने अपने छह हजार वर्षीय प्रबंधन-कार्य में लगाए हैं! तुम खुद को निराशा के हवाले कर देते हो, अनुमान लगाते हो और परमेश्वर पर संदेह करते हो; तुम यह सोचते हुए सेवाकर्ता होने से डरते हो, “मुझमें कुछ भी खास नहीं है; मुझे इस काम को करने के लिए क्यों उन्नत किया जा रहा है? क्या परमेश्वर मेरा इस्तेमाल कर रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह अभी तो मुझसे सेवा करवा रहा हो और जब मैं किसी काम का नहीं रहूँगा, तो मुझसे छुटकारा पाने की योजना बना रहा हो।” क्या यह दृष्टिकोण परमेश्वर को उन्हीं लोगों की श्रेणी में नहीं रख देता, जो सत्ता में हैं? तुमने परमेश्वर को हमेशा गलत समझा है; तुमने परमेश्वर के बारे में बुरा सोचा है और उसकी अवमानना की है। तुमने कभी परमेश्वर के वचनों और उसकी ईमानदारी पर विश्वास नहीं किया, तुमने सक्रिय रूप से सेवाकर्ता बनने की कोशिश की है, तुमने सेवाकर्ताओं के मार्ग पर चलने की पहल की है, लेकिन तुमने अपना स्वभाव बदलने का प्रयास नहीं किया, और न ही तुमने सत्य को अभ्यास में लाने के लिए कठिनाइयाँ झेली हैं। अतत: तुमने अपनी सारी जिमेदारियाँ यह कहते हुए परमेश्वर पर डाल दी हैं कि उसने तुम्हें पूर्वनियत नहीं किया है, और वह तुम्हारे साथ ईमानदार नहीं रहा है। समस्या क्या है? तुम परमेश्वर के इरादों को गलत समझते हो, तुम परमेश्वर के वचनों पर विश्वास नहीं करते, तुम सत्य को अभ्यास में नहीं लाते, न ही तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए पूरी तरह से समर्पित होते हो। तुम परमेश्वर की इच्छा कैसे पूरी कर सकते हो? ऐसे लोग सेवाकर्ता बनने के जरा भी योग्य नहीं हैं, तो फिर वे उसके साथ सौदेबाजी करने के योग्य कैसे हैं? अगर तुम सोचते हो कि परमेश्वर धार्मिक नहीं हैं, तो तुम उस पर विश्वास क्यों करते हो? तुमने हमेशा चाहा है कि तुम परमेश्वर के परिवार के लिए परिश्रम करो, इससे पहले ही परमेश्वर तुमसे व्यक्तिगत रूप से कहे, “तुम राज्य के लोगों में से हो, और यह स्थिति कभी नहीं बदलेगी,” और अगर परमेश्वर ऐसा न कहे, तो तुम उसे अपना सच्चा हृदय कभी नहीं दोगे। ऐसे लोग कितने विद्रोही होते हैं! मैंने ऐसे बहुत सारे लोग देखे हैं, जिन्होंने अपने स्वभाव बदलने पर कभी ध्यान केंद्रित नहीं किया, और सत्य को अभ्यास में लाने पर भी कम ध्यान केंद्रित किया। वे केवल यह पूछने पर ध्यान देते हैं कि वे अच्छी मंजिल प्राप्त कर पाएँगे या नहीं, परमेश्वर उनके साथ कैसा बरताव करेगा, क्या उसने उन्हें अपने लोगों में शामिल करने के लिए पूर्वनियत किया है, और अन्य अफवाहजन्य मामले। ऐसे लोग, जो नेक काम में नहीं लगे हैं, शाश्वत जीवन कैसे पा सकते हैं? वे परमेश्वर के परिवार में कैसे बने रह सकते हैं? अब मैं तुमसे सत्यनिष्ठा से कहता हूँ : अगर कोई पूर्वनियत व्यक्ति सत्य को अभ्यास में नहीं लाता, तो अंतत: उसे हटा दिया जाएगा; और जो व्यक्ति ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाता है और सत्य को अभ्यास में लाने की भरसक कोशिश करता है—भले ही लोग उसे वहाँ रहने के लिये पूर्वनियत न मानें—तो भले ही लोग उसे ऐसा व्यक्ति समझें, जिसे बने रहने के लिए पूर्वनियत नहीं किया गया है—परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के कारण उसकी अंतिम मंजिल उन तथाकथित पूर्वनियत लोगों से बेहतर होगी, जिनमें कोई निष्ठा नहीं है। क्या तुम्हें इन वचनों पर विश्वास है? अगर तुम्हें इन वचनों पर विश्वास नहीं है और तुम चीजों को गलत रूप में लेना जारी रखते हो, तो मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम निश्चित रूप से बच नहीं पाओगे, क्योंकि तुम सच में परमेश्वर को नहीं चाहते और तुम्हें सत्य प्रिय नहीं है। चूँकि ऐसा है, इसलिए परमेश्वर का लोगों को पूर्वनियत करना महत्वपूर्ण नहीं है। मेरा ऐसा कहने का कारण यह है कि अंत में परमेश्वर लोगों का परिणाम उनके निष्पादन और बरताव से तय करेगा; निष्पक्ष रूप से कहूँ तो, परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत किया जाना एक छोटी भूमिका निभाता है, मुख्य भूमिका नहीं। क्या तुम इन वचनों को समझते हो?

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

जब कुछ लोग परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और देखते हैं कि वह अपने वचनों में लोगों की निंदा कर रहा है, तो वे धारणाएँ बना कर पसोपेश में पड़ जाते हैं। मिसाल के तौर पर, परमेश्वर के वचन कहते हैं कि चूँकि तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते, इसलिए परमेश्वर तुम्हें पसंद नहीं करता या स्वीकार नहीं करता, तुम दुराचारी हो, मसीह-विरोधी हो, वह बस तुम्हें देखने भर से नाराज हो जाता है, और वह तुम्हें नहीं चाहता। लोग ये वचन पढ़ कर सोचते हैं, “इन वचनों का निशाना मैं हूँ। परमेश्वर ने तय कर लिया है कि वह मुझे नहीं चाहता, और चूँकि परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया है, इसलिए मैं भी अब उसमें विश्वास नहीं रखूँगा।” कुछ ऐसे लोग भी हैं जो परमेश्वर के वचन पढ़ कर अक्सर धारणाएँ और गलतफहमियाँ बना लेते हैं, क्योंकि परमेश्वर लोगों की भ्रष्ट दशाओं का खुलासा करता है और उनकी निंदा करते हुए कुछ बातें कहता है। वे यह सोच कर निराश और कमजोर हो जाते हैं कि वे ही परमेश्वर के वचनों का निशाना थे, परमेश्वर उन्हें छोड़ रहा है, और वह उन्हें नहीं बचाएगा। वे इतने निराश हो जाते हैं कि उन्हें आँसू आ जाते हैं और अब परमेश्वर का अनुसरण नहीं करना चाहते। यह वास्तव में परमेश्वर को लेकर गलतफहमी है। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अर्थ नहीं समझते, तो तुम्हें परमेश्वर को रेखांकित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। तुम नहीं जानते कि परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति को त्यागता है, और वह लोगों को किन हालात में छोड़ता है, या वह लोगों को किन हालात में किनारे कर देता है; इन सभी के लिए सिद्धांत और संदर्भ हैं। अगर तुम्हें इन विस्तृत मामलों में पूरी अंतर्दृष्टि नहीं है, तो तुम्हारे अतिसंवेदनशील होने की बड़ी संभावना होगी और तुम परमेश्वर के केवल एक वचन के आधार पर खुद को परिसीमित कर लोगे। क्या यह समस्या नहीं है? लोगों का न्याय करते समय परमेश्वर उनके किस मुख्य पहलू की निंदा करता है? परमेश्वर जिसका न्याय कर खुलासा करता है, वह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार होते हैं, वह उनके शैतानी स्वभावों और शैतानी प्रकृति की निंदा करता है, वह परमेश्वर के प्रति उनके विद्रोह और विरोध की विभिन्न अभिव्यक्तियों और व्यवहारों की निंदा करता है, वह परमेश्वर की आज्ञा न मान पाने, हमेशा परमेश्वर का विरोध करने, हमेशा अपनी अभिप्रेरणाएँ और लक्ष्य रखने के लिए उनकी निंदा करता है—लेकिन ऐसी निंदा का यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर ने शैतानी स्वभाव वाले लोगों को त्याग दिया है। अगर यह तुम्हें स्पष्ट नहीं है, तो तुममें समझने की क्षमता नहीं है, जो तुम्हें कुछ हद तक मानसिक रोग वाले लोगों जैसा बना देता है, हमेशा हर चीज के प्रति शक्की और परमेश्वर की गलत व्याख्या करने वाला। ऐसे लोगों में सच्ची आस्था नहीं है, फिर वे बिल्कुल अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कैसे कर सकते हैं? परमेश्वर से निंदा का सिर्फ एक वक्तव्य सुन कर तुम सोचते हो कि परमेश्वर द्वारा निंदित होने के कारण लोग उसके द्वारा त्याग दिए गए हैं और अब वे बचाए नहीं जाएँगे, और इस वजह से तुम निराश हो जाते हो, और खुद को मायूसी में डुबो लेते हो। यह परमेश्वर की गलत व्याख्या करना है। असल में परमेश्वर ने लोगों को नहीं त्यागा है। उन्होंने परमेश्वर की गलत व्याख्या कर खुद को त्याग दिया है। लोग खुद को त्याग दें इससे ज्यादा गंभीर कुछ नहीं होता, जैसा कि पुराने नियम के वचनों में साकार हुआ है : “मूढ़ लोग निर्बुद्धि होने के कारण मर जाते हैं” (नीतिवचन 10:21)। लोग खुद को मायूसी में डुबो लें उससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण व्यवहार कुछ भी नहीं है। कभी-कभी तुम परमेश्वर के ऐसे वचन पढ़ते हो जो लोगों को रेखांकित करते हुए-से लगते हैं; असल में ये लोगों को रेखांकित नहीं करते, बल्कि ये परमेश्वर की इच्छा और राय की अभिव्यक्ति हैं। ये सत्य और सिद्धांत के वचन हैं, वे किसी का रेखांकन नहीं कर रहे हैं। क्रोध या रोष के समय में बोले गए परमेश्वर के वचन उसका स्वभाव भी दर्शाते हैं, ये वचन सत्य हैं और इसके अलावा सिद्धांत से संबंधित हैं। लोगों को यह बात समझनी चाहिए। यह कहने के पीछे परमेश्वर का उद्देश्य लोगों को सत्य और सिद्धांतों को समझने देना है; यह किसी को भी परिसीमित करने के लिए बिल्कुल नहीं है। इसका लोगों की अंतिम मंजिल और पुरस्कार से कोई लेना-देना नहीं है, यह लोगों का अंतिम दंड तो है ही नहीं। ये महज लोगों का न्याय करने और उनकी काट-छाँट करने के लिए बोले गए वचन हैं, ये लोगों के परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे न उतरने पर उसके क्रोध का परिणाम हैं, ये लोगों को जगाने, उन्हें प्रेरित करने के लिए बोले गए हैं, और ये वचन परमेश्वर के दिल से निकले हैं। फिर भी कुछ लोग परमेश्वर द्वारा न्याय के सिर्फ एक वक्तव्य से गिर पड़ते हैं और उसका त्याग कर देते हैं। ऐसे लोग नहीं जानते कि उनके लिए अच्छा क्या है, उन पर तर्क का प्रभाव नहीं होता, और वे सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते। ... ऐसा समय भी होता है जब परमेश्वर लोगों को दूर रखता है, ऐसा समय भी होता है जब वह उन्हें कुछ समय के लिए किनारे कर देता है ताकि वे आत्मचिंतन कर सकें, लेकिन परमेश्वर उनका त्याग नहीं करता; वह उन्हें प्रायश्चित्त करने का अवसर देता है। परमेश्वर सिर्फ उन लोगों को त्याग देता है जो अनेक बुरे कर्म करते हैं, जो गैर-विश्वासी और मसीह-विरोधी हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे लगता है कि मुझमें पवित्र आत्मा ने कार्य नहीं किया है, बहुत समय से मुझे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता नहीं मिली है। क्या परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया है?” यह एक गलतफहमी है। इसमें स्वभाव की समस्या भी है : लोग अत्यधिक भावुक होते हैं, वे हमेशा अपने तर्क के पीछे चलते हैं, हमेशा हठी और तर्कहीन होते हैं—क्या यह स्वभाव की समस्या नहीं है? तुम कहते हो कि परमेश्वर ने तुम्हें त्याग दिया है, वह तुम्हें नहीं बचाएगा, तो क्या उसने तुम्हारा अंत तय कर दिया है? परमेश्वर ने तुमसे गुस्से में सिर्फ कुछ वचन बोले हैं। तुम कैसे कह सकते हो कि उसने तुम्हें छोड़ दिया है, वह तुम्हें अब नहीं चाहता? ऐसे मौके आते हैं जब तुम पवित्र आत्मा का कार्य महसूस नहीं कर सकते, लेकिन परमेश्वर ने तुम्हें अपने वचन पढ़ने से वंचित नहीं किया है, न ही उसने तुम्हारा अंत नियत किया है या उद्धार का तुम्हारा रास्ता बंद किया है—तो फिर तुम किस बात को ले कर इतने नाराज हो? तुम एक बुरी दशा में हो, तुम्हारी मंशाओं के साथ समस्या है, तुम्हारे विचार और नजरिये के साथ समस्याएँ हैं, तुम्हारी मानसिक दशा विकृत है—फिर भी तुम सत्य खोज कर इन चीजों को दुरुस्त करने की कोशिश नहीं करते, बल्कि इसके बजाय निरंतर परमेश्वर की गलत व्याख्या कर उसे दोष देते हो, परमेश्वर पर जिम्मेदारी डालते हो, और यह भी कहते हो, “परमेश्वर मुझे नहीं चाहता, इसलिए मैं अब उसमें विश्वास नहीं रखता।” क्या तुम तर्कहीन नहीं हो? क्या तुम अनुचित नहीं हो? ऐसा व्यक्ति अत्यधिक भावुक होता है, बिल्कुल नासमझ होता है, हर तर्क के लिए अभेद्य होता है। वे सत्य को बहुत कम स्वीकार कर पाते हैं और उनके लिए उद्धार प्राप्त करना बहुत मुश्किल होगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1)

जब चीजें तुम पर आती हैं, तो तुम हमेशा कायरों की तरह कार्य करते हो, तुम हमेशा लोगों को खुश करने वालों की तरह काम करते हो, हमेशा समझौता करते हो, हमेशा बीच का रास्ता अपनाते हो, कभी किसी का अपमान नहीं करते या चीजों में अपनी टाँग नहीं अड़ाते, कभी हद पार नहीं करते—यह ऐसा है मानो तुम अपनी जगह खड़े हो, अपने कर्तव्य से चिपके हो, जो कुछ कहा जाता है वही करते हो, न तो आगे खड़े होते हो न पीछे, और प्रवाह के साथ बहते हो—मुझे बताओ, अगर तुम अंत तक इसी तरह से अपना कर्तव्य निभाने में लगे रहते हो, तो क्या तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने में सक्षम हो जाओगे? क्या तुम लोग जानते हो कि इस तरह की अवस्था काफी खतरनाक है, कि न केवल तुम परमेश्वर की पूर्णता प्राप्त करने में असमर्थ होगे, बल्कि तुम्हारे द्वारा परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाए जाने की भी संभावना है? क्या इस प्रकार का उत्साहहीन व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है? क्या वह उस तरह का व्यक्ति होता है, जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता है? इस तरह की अवस्था में रहने वाला व्यक्ति अक्सर लोगों को खुश करने वाले के विचार प्रकट करता है और उसके भीतर परमेश्वर का कोई डर नहीं होता। अगर व्यक्ति बिना किसी वाजिब कारण के आतंक और डर महसूस करता है, तो क्या यह परमेश्वर से डरने वाला हृदय है? (नहीं।) भले ही वह अपना पूरा अस्तित्व अपने कर्तव्य में झोंक दें, अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दे और अपना परिवार त्याग दे, अगर वह परमेश्वर को अपना हृदय नहीं देता और परमेश्वर से सावधान रहता है, तो क्या यह एक अच्छी अवस्था है? क्या यह सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने की सामान्य अवस्था है? क्या इस अवस्था का भावी विकास भयानक नहीं है? अगर व्यक्ति इस अवस्था में बना रहता है, तो क्या वह सत्य प्राप्त कर सकता है? क्या वह जीवन प्राप्त कर सकता है? क्या वह सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है? (नहीं।) क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी भी यही अवस्था है? जब तुम इसे जान जाते हो, तो क्या तुम अपने मन में सोचते हो : “मैं हमेशा परमेश्वर से सावधान क्यों रहता हूँ? मैं हमेशा इसी तरह क्यों सोचता हूँ? इस तरह सोचना कितना भयावह है! यह परमेश्वर का विरोध करना और सत्य को नकारना है। परमेश्वर से सावधान रहना उसका विरोध करने के समान है”? परमेश्वर से सावधान रहने की अवस्था एक चोर होने के समान है—तुम प्रकाश में जीने की हिम्मत नहीं करते, तुम अपने शैतानी चेहरा उजागर होने से डरते हो, और साथ ही, तुम इस बात से डरते हो : “परमेश्वर के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। वह कभी भी और कहीं भी लोगों का न्याय और ताड़ना कर सकता है। अगर तुम परमेश्वर को क्रोधित करते हो, तो हलके मामलों में वह तुम्हारी काट-छाँट करेगा और तुमसे निपटेगा, और गंभीर मामलों में वह तुम्हें दंड देगा, तुम्हें बीमार करेगा या तुम्हें पीड़ित करेगा। लोग ये चीजें सहन नहीं कर सकते!” क्या लोगों को ये गलतफहमियाँ नहीं हैं? क्या यह परमेश्वर से डरने वाला हृदय है? (नहीं।) क्या इस प्रकार की अवस्था भयानक नहीं है? जब व्यक्ति इस अवस्था में होता है, जब वह परमेश्वर से सावधान रहता है और हमेशा ऐसे विचार रखता है, जब वह हमेशा परमेश्वर के प्रति इसी तरह का रवैया रखता है, तो क्या वह परमेश्वर को परमेश्वर मान रहा है? क्या यह परमेश्वर में विश्वास है? जब व्यक्ति परमेश्वर में इस तरह से विश्वास करता है, जब वह परमेश्वर को परमेश्वर नहीं मानता, तो क्या यह कोई समस्या नहीं है? कम से कम, लोग परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव नहीं स्वीकारते, न ही वे उसके कार्य का तथ्य स्वीकारते हैं। वे सोचते हैं : “यह सच है कि परमेश्वर दयालु और प्रेममय है, लेकिन वह क्रोधी भी है। जब परमेश्वर का क्रोध किसी पर पड़ता है, तो वह विनाशकारी होता है। वह लोगों को किसी भी समय मौत के घाट उतार सकता है, जिसे चाहे नष्ट कर सकता है। परमेश्वर का क्रोध मत भड़काओ। यह सच है कि उसका प्रताप और क्रोध किसी अपराध की अनुमति नहीं देता। उससे दूरी बनाए रखो!” अगर व्यक्ति का इस तरह का रवैया और ये विचार हैं, तो क्या वह पूरी तरह से और ईमानदारी से परमेश्वर के सामने आ सकता है? वह नहीं आ सकता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है

अगर तुम्हें लगता है कि तुम किसी कार्य-विशेष को कर सकते हो, लेकिन साथ ही तुम गलती करने और निकाल दिए जाने से डरते भी हो, इसलिए तुम दब्बू और काहिल हो और प्रगति नहीं कर सकते, तो क्या यह आज्ञाकारी रवैया है? उदाहरण के लिए, यदि भाई-बहन तुम्हें अपना अगुआ चुन लेते हैं, तो तुम अपने चुने जाने के कारण उस काम को करने के लिए अनुगृहीत तो महसूस करते हो, लेकिन तुम उस काम को सक्रिय रवैये से स्वीकार नहीं करते। तुम सक्रिय क्यों नहीं होते? क्योंकि उसके बारे में तुम्हारे कुछ विचार होते हैं, तुम्हें लगता है, “अगुआ होना बिल्कुल अच्छी बात नहीं है। यह तलवार की धार पर जीने या बर्फ की पतली तह पर चलने जैसा है। अच्छा काम करने पर मुझे कोई विशेष इनाम तो मिलने से रहा, लेकिन खराब काम करने पर मुझसे निपटा जाएगा और मेरी काट-छाँट की जाएगी। निपटा जाना फिर भी इतना बुरा नहीं है। लेकिन अगर मुझे हटा ही दिया गया या निकाल दिया गया, तो क्या होगा? अगर ऐसा हुआ, तो क्या मेरा खेल खत्म नहीं हो जाएगा?” ऐसी स्थिति में तुम दुविधाग्रस्त हो जाते हो। यह कैसा रवैया है? यह सतर्कता और गलतफहमी है। अपने कर्तव्य के प्रति लोगों का रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए। यह एक हताशा से भरा और नकारात्मक रवैया है। तो सकारात्मक रवैया कैसा होना चाहिए? (हमें खुले विचारों वाला और उदार होना चाहिए, और दायित्व उठाने का साहस रखना चाहिए।) लेकिन क्या ये सिर्फ खोखले शब्द नहीं हैं? यदि तुम इतने डरे हुए हो, तो खुले विचारों वाले और उदार कैसे हो सकते हो? दायित्व उठाने का साहस रखने का क्या अर्थ है? किस तरह की स्थिति में तुम में दायित्व उठाने का साहस होगा? तुम डरते हो कि तुम बहुत-से परिणाम सहन नहीं कर पाओगे। तुम दायित्व नहीं उठा सकते, और कई चीजें तुम्हें दायित्व उठाने से रोकती हैं। जब तुम लोग इस तरह की बातें कहते हो, “दायित्व उठाने का साहस रखो” या “मृत्यु के सामने भी कभी हार मत मानो,” तो ये नाराज युवाओं द्वारा लगाए जा रहे नारे जैसे लगते हैं। लेकिन नारे लगाने से कभी व्यावहारिक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। आज तुम्हें सही रवैया अपनाना चाहिए, जिसका अर्थ है कि तुम्हारे अंदर सत्य का यह पहलू होना चाहिए, और फिर जब समस्याएँ आएँगी, तो सत्य का यह पहलू और यह रवैया तुम्हारी आंतरिक कठिनाइयाँ हल करने में तुम्हारी मदद करेगा, और तुम इस आदेश, इस कर्तव्य को सुचारु और सक्रिय रूप से स्वीकार कर पाओगे। यह अभ्यास का मार्ग है, और केवल यही सत्य है। यदि तुम अपना डर भगाने के लिए “खुले दिमाग वाला और उदार होना” और “दायित्व उठाने का साहस रखना” जैसे शब्दों का उपयोग करोगे, तो क्या यह प्रभावी होगा? (नहीं।) इससे जाहिर होता है कि ये बातें सत्य नहीं हैं, न ही ये अभ्यास का मार्ग हैं। तुम कह सकते हो, “मैं खुले विचारों का, उदार और अदम्य आध्यात्मिक कद वाला व्यक्ति हूँ, मेरे मन में कोई बाहरी विचार या दूषित तत्त्व नहीं हैं और मुझमें दायित्व उठाने का साहस है।” बाहरी तौर पर तो तुम अपने कर्तव्य का भार उठा लेते हो, लेकिन बाद में, कुछ देर विचार करने पर तुम्हें अभी भी लगता है कि तुम इस दायित्व को नहीं उठा सकते। तुम्हें अभी भी डर लग सकता है। इसके अलावा, तुम दूसरों से निपटे जाते देखकर और भी डर जाते हो, जैसे कोड़े खाया हुआ कुत्ता पट्टे से भी डरता है। तुम्हें लगातार लगता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और यह काम एक विशाल, अगाध खाई की तरह है, और अंततः तुम अभी भी इस दायित्व को नहीं उठा पाओगे। इसलिए नारे व्यावहारिक समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। तो तुम वास्तव में इस समस्या को कैसे हल कर सकते हो? तुम्हें सक्रियता से सत्य खोजना चाहिए और आज्ञाकारिता और सहयोग का रवैया अपनाना चाहिए। इससे समस्या पूरी तरह हल हो सकती है। दब्बूपन, डर और चिंता फिजूल हैं। तुम्हें उजागर कर बाहर किया जाएगा या नहीं, क्या इसका तुम्हारे अगुआ होने से कोई संबंध है? अगर तुम एक अगुआ नहीं हो तो क्या तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव लुप्त हो जाएगा? देर-सवेर, तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को हल करना होगा। साथ ही, अगर तुम एक अगुआ नहीं हो, तो तुम्हें अभ्यास के लिए ज्यादा अवसर नहीं मिलेंगे और तुम जीवन में धीमी प्रगति करोगे, और तुम्हारे पास पूर्ण बनाए जाने की संभावनाएं कम होंगी। हालांकि एक अगुआ या कार्यकर्ता होने पर थोड़ा ज्यादा कष्ट उठाना पड़ता है, पर बहुत-से फल भी मिलते हैं, और अगर तुम सत्य के अनुसरण के रास्ते पर चल सकते हो, तो तुम पूर्ण बनाए जा सकते हो। यह कितना बड़ा आशीष है! इसलिए तुम्हें समर्पित होना चाहिए और सक्रिय रूप से सहयोग करना चाहिए। यह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है। आगे का मार्ग कैसा भी हो, तुम्हारा दिल आज्ञापालन करने वाला होना चाहिए। अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हें यह रवैया अपनाना चाहिए।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?

कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ उचित व्यवहार कर सकता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में परमेश्वर का और सत्य का शासन चलता है। उनका मानना है कि व्यक्ति कोई भी कार्य करे, अगर उसमें कोई समस्या आती है, तो परमेश्वर का घर तुरंत उस व्यक्ति से निपटेगा, उससे उस कार्य को करने का दर्जा छीनकर उसे दूर भेज देगा या फिर उसे कलीसिया से ही निकाल देगा। क्या वाकई इस ढंग से काम होता है? निश्चित रूप से नहीं। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति के साथ सत्य के सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर सभी के साथ धार्मिकता से व्यवहार करता है। वह केवल यह नहीं देखता कि व्यक्ति ने किसी परिस्थिति-विशेष में कैसा व्यवहार किया है; वह उस व्यक्ति की प्रकृति और सार, उसके इरादे, उसका रवैया देखता है, खास तौर से वह यह देखता है कि क्या वह व्यक्ति गलती करने पर आत्मचिंतन कर सकता है, क्या वह पश्चात्ताप करता है और क्या वह उसके वचनों के अनुसार समस्या के मूल तक पहुँच सकता है ताकि वह सत्य समझ ले और अपने आपसे घृणा करने लगे और सच में पश्चात्ताप करे। ... अच्छा बताओ, अगर कोई गलती करने वाला व्यक्ति सच्ची समझ हासिल कर पश्चात्ताप करने को तैयार हो, तो क्या परमेश्वर का घर उसे अवसर नहीं देगा? जैसे-जैसे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना समापन की ओर बढ़ रही है, ऐसे बहुत-से कार्य हैं जिन्हें पूरा करना है। लेकिन अगर लोगों में अंतरात्मा और विवेक न हो तथा वे अपने काम में लापरवाही बरतते हैं, अगर उन्हें कार्य करने का अवसर मिलता है, लेकिन वे उसे संजोकर रखना नहीं जानते, सत्य का जरा भी अनुसरण नहीं करते और सबसे अनुकूल समय हाथ से निकल जाने देते हैं, तो वे उजागर किए जाएँगे। अगर तुम अपने काम में लगातार लापरवाही बरतोगे, बेमन से काम करोगे, काट-छांट और निपटारे के समय जरा भी समर्पण-भाव नहीं रखोगे, तो क्या परमेश्वर का घर तब भी किसी कार्य के लिए तुम्हारा उपयोग करेगा? परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, शैतान का नहीं। हर चीज में परमेश्वर की बात ही अंतिम होती है। वही इंसानों को बचाने का कार्य कर रहा है, वही सभी चीजों पर शासन करता है। क्या सही है और क्या गलत, इसमें तुम्हारे विश्लेषण की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हारा काम सिर्फ सुनना और पालन करना भर है। जब तुम्हारी काट-छांट और निपटारा किया जाए, तो तुम्हें सत्य स्वीकार कर अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो परमेश्वर का घर तुमसे तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का दर्जा नहीं छीनेगा। अगर तुम हमेशा त्याग दिए जाने से डरते रहोगे, बहानेबाजी करते रहोगे, खुद को सही ठहराते रहोगे, तो फिर समस्या पैदा होगी। अगर तुम लोगों को यह दिखाओगे कि तुम जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते, और यह कि तर्क का तुम पर कोई असर नहीं होता, तो तुम मुसीबत में हो। कलीसिया तुम्हारे खिलाफ कार्रवाई करने को बाध्य हो जाएगी। अगर तुम अपने कर्तव्य पालन में थोड़ा भी सत्य नहीं स्वीकारते, तुम्हें उजागर होने और त्याग दिए जाने का भय बना रहता है, तो तुम्हारा यह भय मानवीय इरादे, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, संदेह, सतर्कता और गलतफहमी से दूषित है। इंसान में इनमें से कोई भी रवैया नहीं होना चाहिए। तुम्हें अपने डर के साथ-साथ परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियाँ दूर करने से शुरुआत करनी चाहिए। परमेश्वर के बारे में किसी व्यक्ति में गलतफहमियाँ कैसे उत्पन्न होती हैं? जब किसी व्यक्ति के साथ सब-कुछ ठीक चल रहा हो, तब तो वह परमेश्वर को बिल्कुल गलत नहीं समझता। उसे लगता है कि परमेश्वर नेक है, परमेश्वर श्रद्धायोग्य है, परमेश्वर धार्मिक है, परमेश्वर दयालु और प्रेममय है, परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसमें सही होता है। लेकिन अगर कुछ ऐसा हो जाए जो उस व्यक्ति की धारणाओं के अनुरूप न हो, तो वह सोचता है, “लगता है परमेश्वर बहुत धार्मिक नहीं है, कम से कम इस मामले में तो नहीं है।” क्या यह गलतफहमी है? ऐसा कैसे हुआ कि परमेश्वर अब धार्मिक नहीं रहा? वह क्या चीज है जिसने तुम्हारे अंदर इस गलतफहमी को जन्म दिया? वह क्या चीज है जिसकी वजह से तुम्हारी राय और समझ यह बन गई कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? क्या तुम यकीनी तौर पर कह सकते हो कि वह क्या है? वह कौन सा वाक्य था? कौन-सा मामला? कौन-सी परिस्थिति? कहो, ताकि सभी लोग समझ और जान सकें कि तुम अपनी बात साबित कर पाते हो या नहीं। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर को गलत समझता है या किसी ऐसी स्थिति का सामना करता है जो उसकी धारणाओं के अनुरूप न हो, तो उसका रवैया कैसा होना चाहिए? (सत्य और आज्ञाकारिता की खोज करने का।) उसे पहले आज्ञाकारी होकर विचार करना चाहिए : “मुझे समझ नहीं है, लेकिन मैं आज्ञा मानूंगा क्योंकि यह परमेश्वर ने किया है, इसका विश्लेषण इंसान को नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, मैं परमेश्वर के वचनों या उसके कार्य पर संदेह नहीं कर सकता क्योंकि परमेश्वर के वचन सत्य हैं।” क्या किसी इंसान का रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए? अगर ऐसा रवैया हो, तो क्या तुम्हारी गलतफहमी फिर भी कोई समस्या पैदा करेगी? (नहीं करेगी।) यह तुम्हारे काम को न तो नुकसान पहुँचाएगी और न ही कोई परेशानी पैदा करेगी। क्या तुम लोगों को लगता है कि जो व्यक्ति अपने कर्तव्य पालन के दौरान गलतफहमियाँ पालता है, वह वफादार हो सकता है? या वह व्यक्ति वफादार हो सकता है जो गलतफहमियाँ नहीं पालता? (जो व्यक्ति अपने कर्तव्य पालन में गलतफहमियाँ नहीं पालता, वह वफादार हो सकता है।) इसका अर्थ है कि सबसे पहले, तुम्हारा रवैया आज्ञाकारी होना चाहिए। इसके अलावा, तुम्हें कम से कम यह विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सत्य है, धार्मिक है और वह जो कुछ भी करता है सही होता है। यह वह पूर्वशर्त है जो यह निर्धारित करती है कि तुम अपना कर्तव्य निभाने में वफादार हो सकते हो या नहीं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

लोग परमेश्वर के परीक्षणों को लेकर प्रायः चिंतित और भयभीत रहते हैं, तो भी वे हर समय शैतान के फंदे में रह रहे होते हैं, और ख़तरों से भरे क्षेत्र में रह रहे होते हैं जिसमें उन पर शैतान द्वारा आक्रमण और दुर्व्यवहार किया जाता है—मगर वे नहीं जानते भय क्या है, और अविचलित रहते हैं। चल क्या रहा है? परमेश्वर में मनुष्य का विश्वास केवल उन चीज़ों तक ही सीमित है जिन्हें वह देख सकता है। उसमें मनुष्य के लिए परमेश्वर के प्रेम और सरोकार की, या मनुष्य के प्रति उसकी सहृदयता और सोच-विचार की रत्ती भर भी सराहना नहीं है। यदि परमेश्वर की परीक्षाओं, न्याय और ताड़ना, तथा प्रताप और कोप के प्रति थोड़ी-सी घबराहट और डर को छोड़ दें, तो मनुष्य को परमेश्वर के अच्छे अभिप्रायों की रत्ती भर भी समझ नहीं है। परीक्षाओं का उल्लेख होने पर, लोगों को लगता है मानो परमेश्वर के छिपे हुए इरादे हैं, और कुछ तो यह तक मानते हैं कि परमेश्वर बुरे षडयंत्रों को प्रश्रय देता है, इस बात से अनभिज्ञ कि परमेश्वर वास्तव में उनके साथ क्या करेगा; इस प्रकार, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण के बारे में चीखने-चिल्लाने के साथ-साथ, वे मनुष्य के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता और मनुष्य के लिए उसकी व्यवस्थाओं को रोकने और उनका विरोध करने के लिए जो कुछ कर सकते हैं सब करते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि यदि वे सावधान नहीं रहे तो उन्हें परमेश्वर द्वारा गुमराह कर दिया जाएगा, कि यदि वे अपने भाग्य पर पकड़ नहीं बनाए रखते हैं तो जो कुछ उनके पास है वह सब परमेश्वर द्वारा ले लिया जा सकता है, और यहाँ तक कि उनका जीवन भी समाप्त किया जा सकता है। मनुष्य शैतान के खेमे में है, परंतु वह शैतान द्वारा दुर्व्यवहार किए जाने की कभी चिंता नहीं करता है, और उसके साथ शैतान द्वारा दुर्व्यवहार किया जाता है परंतु वह शैतान द्वारा बंधक बनाए जाने से भी कभी नहीं डरता है। वह कहता रहता है कि वह परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करता है, मगर उसने परमेश्वर में कभी भरोसा नहीं किया है या विश्वास नहीं किया है कि परमेश्वर सचमुच मनुष्य को शैतान के पंजों से बचाएगा। यदि, अय्यूब के समान, मनुष्य परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर पाता है, और अपना संपूर्ण अस्तित्व परमेश्वर के हाथों में सौंप सकता है, तो क्या मनुष्य का अंत अय्यूब के समान ही नहीं होगा—परमेश्वर के आशीषों की प्राप्ति? यदि मनुष्य परमेश्वर का शासन स्वीकार और उसके प्रति समर्पण कर पाता है, तो इसमें खोने के लिए क्या है? इस प्रकार, मैं सुझाव देता हूँ कि तुम लोग अपने कार्यकलापों में सावधान रहो, और उस सब के प्रति चौकन्ने रहो जो तुम लोगों पर आने ही वाला है। तुम लोग उतावले या आवेगी न बनो, और परमेश्वर तथा लोगों, विषयों, और वस्तुओं के साथ, जिनकी उसने तुम लोगों के लिए व्यवस्था की है, अपने गर्म खून या अपनी स्वाभाविकता पर निर्भर करते हुए, या अपनी कल्पनाओं और अवधारणाओं के अनुसार व्यवहार मत करो; परमेश्वर के कोप को भड़काने से बचने के लिए, तुम लोगों को अपने कार्यकलापों में सचेत होना ही चाहिए, और अधिक प्रार्थना तथा खोज करनी चाहिए।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

कभी-कभी, परमेश्वर तुम्हें उजागर करने या तुम्हें अनुशासित करने के लिए किसी निश्चित मामले का उपयोग करता है। क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें निकाल दिया गया है? क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हारा अंत आ गया है? नहीं। इसका मतलब यह है कि जैसे किसी बच्चे ने अवज्ञा की है और उसने गलती की है; उसके माता-पिता उसे डांट और दंडित कर सकते हैं, लेकिन अगर वह अपने माता-पिता के इरादे न भाँप पाए या यह न समझ पाए कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं, तो वह उनके इरादे को गलत समझ लेगा। उदाहरण के लिए, माता-पिता बच्चे से कह सकते हैं, “घर से अकेले मत निकलना और अकेले बाहर मत जाना,” लेकिन वह ध्यान नहीं देता और अकेले ही बाहर निकल जाता है। जब माता-पिता को पता चलता है, तो वे अपने बच्चे को डांटते हैं और सजा के तौर पर उसे अपने व्यवहार पर विचार करने के लिए एक कोने में खड़ा कर देते हैं। बच्चा अपने माता-पिता के इरादों को न समझकर संदेह करना शुरू कर देता है : “क्या मेरे माता-पिता अब मुझे नहीं चाहते? क्या मैं सच में उनकी संतान हूँ? कहीं उन्होंने मुझे गोद तो नहीं लिया है?” वह इन सब बातों पर विचार करता है। जबकि माता-पिता के वास्तविक इरादे क्या हैं? माता-पिता ने कहा कि ऐसा करना बहुत खतरनाक है और उन्होंने अपने बच्चे से ऐसा नहीं करने को कहा। लेकिन बच्चे ने बात नहीं मानी और उनकी बात को अनसुना कर दिया। इसलिए माता-पिता को अपने बच्चे को सही शिक्षा देने और उसे इससे सीखने के लिए सजा देनी पड़ी। ऐसा करके माता-पिता क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या सिर्फ इतना कि बच्चे को सीख मिले? नहीं, उनका मकसद उसे केवल सीख देना नहीं है। माता-पिता का उद्देश्य है कि बच्चा वैसा ही करे जैसा उससे करने को कहा जाए, उनकी सलाह के अनुसार व्यवहार करे, वह ऐसा कुछ न करे जिससे उनकी अवज्ञा हो या उन्हें चिंता हो, इसके जरिए वे यह परिणाम हासिल करना चाहते हैं। यदि बच्चा अपने माता-पिता की बात सुनता है, तो इससे यह जाहिर होता है कि बच्चा बातों को समझता है जिससे उसके माता-पिता चिंतामुक्त हो सकते हैं। क्या तब वे उससे संतुष्ट नहीं होंगे? क्या उन्हें अब भी उसे इस तरह से दंडित करने की आवश्यकता होगी? नहीं, आवश्यकता नहीं होगी। परमेश्वर में विश्वास करना ऐसा ही होता है। लोगों को परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देना और उसके हृदय को समझना सीखना चाहिए। उन्हें परमेश्वर को गलत नहीं समझना चाहिए। दरअसल, कई मामलों में लोगों की चिंता अपने हितों से ही उपजती है। आम तौर पर, यह भय होता है कि उनका कोई परिणाम नहीं होगा। वह मन ही मन सोचता है, “अगर परमेश्वर मुझे उजागर कर देता है, निकाल देता है और नकार देता है, तो क्या फर्क पड़ता है?” यह तुम्हारे द्वारा परमेश्वर को गलत समझना है; ये केवल तुम्हारे अपने विचार हैं। तुम्हें पता लगाना होगा कि परमेश्वर का इरादा क्या है। परमेश्वर लोगों को निकालने के लिए उजागर नहीं करता। लोगों को इसलिए उजागर किया जाता है ताकि उन्हें अपनी कमियों का, गलतियों का और अपनी प्रकृति के सार का पता चले, ताकि वे खुद को जानकर सच्चा पश्चात्ताप करने में समर्थ हो सकें; इस तरह, लोगों को उजागर इसलिए किया जाता है ताकि उनका जीवन विकसित हो सके। अच्छी समझ के बिना, लोग परमेश्वर की गलत व्याख्या करके नकारात्मक और कमजोर हो सकते हैं। वे बुरी तरह निराश भी हो सकते हैं। वास्तव में, परमेश्वर द्वारा उजागर किए जाने का अर्थ यह नहीं है कि लोगों को निकाल ही दिया जाएगा। यह इसलिए है ताकि तुम अपनी भ्रष्टता को जान सको और यह तुमसे पश्चात्ताप करवाने के लिए है। अक्सर ऐसा होता है कि लोग विद्रोही हो जाते हैं, और जब वे भ्रष्टता दिखाते हैं तो समाधान ढूँढ़ने के लिए सत्य की खोज नहीं करते, ऐसे में परमेश्वर को उन्हें अनुशासित करना पड़ता है। और इसलिए कभी-कभी, वह लोगों को उजागर कर उनकी कुरूपता और दयनीयता को प्रकट कर देता है, ताकि वे खुद जानें, इससे उनके जीवन में विकास होता है। लोगों को उजागर करने के दो अलग-अलग निहितार्थ हैं : दुष्ट लोगों के लिए, उजागर किए जाने का अर्थ है उन्हें निकाला जाना। जो लोग सत्य स्वीकार लेते हैं, उनके लिए यह एक अनुस्मारक और एक चेतावनी है; उन्हें आत्मचिंतन करने और अपनी वास्तविक स्थिति को देखने के लिए मजबूर किया जाता है ताकि वे पथभ्रष्ट और लापरवाह न रहें, क्योंकि अगर उनका रवैया वैसा ही रहा, तो यह खतरनाक होगा। इस तरह से लोगों को उजागर करना उन्हें चेताना है, ताकि वे अपने कर्तव्य निर्वहन में भ्रमित और लापरवाह न हों, अपने कार्य को हल्के में न लें, थोड़े-बहुत प्रभावी होकर ही संतुष्ट न हो जाएँ, यह न सोचने लगें कि उन्होंने अपना काम एक स्वीकार्य मानक तक पूरा कर लिया है—जबकि सच्चाई यह है कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार मापने पर वे मानक से बहुत दूर होते हैं, फिर भी उनमें आत्मसंतुष्टि का भाव होता है और सोचते हैं कि वे ठीक-ठाक कर रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में, परमेश्वर लोगों को अनुशासित करता है, उन्हें सावधान कर चेतावनी देता है। कभी-कभी, परमेश्वर उनकी कुरूपता उजागर करता है—जो कि स्पष्ट रूप से उनके लिए एक चेतावनी होती है। ऐसे में तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए : इस तरह से अपने कर्तव्य का पालन करना ठीक नहीं है, इसमें विद्रोह शामिल होता है, बहुत अधिक नकारात्मकता होती है, बिल्कुल अनमना होता है। यदि तुम पश्चात्ताप नहीं करते हो, तो तुम्हें दंडित किया जाएगा। परमेश्वर जब तुम्हें अनुशासित कर उजागर करता है, तो इसका मतलब यह नहीं होता कि तुम्हें निकाल दिया जाएगा। इस बात को सही ढंग से समझा जाना चाहिए। यहाँ तक कि अगर तुम्हें निकाल भी दिया जाए, तो तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए और इसके प्रति समर्पित होना चाहिए, और जल्दी से आत्मचिंतन करके पश्चात्ताप करना चाहिए। इसे देखने का सही तरीका क्या है? उन मामलों में, जहां तुम सत्य नहीं समझते, तुम्हें उसकी खोज करनी चाहिये। खोज में क्या शामिल है? यह मात्र किसी अभिमत की समझ की खोज करने का मामला नहीं है। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिये, और साथ ही परमेश्वर के घर के द्वारा किए जाने वाले इस काम के सिद्धांत को समझना चाहिए। सिद्धांत क्या है? सिद्धांत कोई अभिमत नहीं है। इसके कई मानदंड हैं : ऐसे मामलों के लिए कार्य की व्यवस्थाएँ क्या तय करती हैं, ऐसे काम को करने के संबंध में ऊपर से क्या आदेश दिया गया है, इस तरह के कर्तव्य को पूरा करने के बारे में परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने की क्या अनिवार्यता है। परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने के क्या मानदंड हैं? उनमें सत्य-सिद्धांत के अनुसार कार्य करना शामिल होता है। मोटे तौर पर, वे परमेश्वर के घर के हितों को और उसके कार्य को सबसे पहले रखते हैं। इससे भी स्पष्ट बात यह है कि हर तरह से, कोई बड़ी समस्या खड़ी नहीं होनी चाहिये, और परमेश्वर पर कोई शर्मिंदगी की बात नहीं पड़ने देनी चाहिये। अगर लोग इन सिद्धांतों में महारत हासिल कर लेते हैं, तो क्या उनकी चिंताएं धीरे-धीरे कम नहीं हो जाएंगी? और क्या उनकी गलत धारणाएँ भी दूर नहीं हो जाएंगी? एक बार जब तुम अपनी गलत धारणाओं को दूर कर लेते हो और परमेश्वर के बारे में कोई अनुचित विचार नहीं रखते हो, तो तुम्हारे अंदर नकारात्मक चीजों का प्रभाव धीरे-धीरे कम होता जाएगा और तुम ऐसे मामलों को सही ढंग से देखोगे। इस प्रकार, सत्य की खोज करना और परमेश्वर की इच्छा को समझने की कोशिश करना महत्वपूर्ण है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अभ्यास करके और परमेश्वर की आज्ञा मानकर ही व्यक्ति अपने स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकता है

परमेश्वर उन लोगों को बचाता है जिन्हें शैतान ने भ्रष्ट कर दिया और जिनका स्वभाव भ्रष्ट है, उन लोगों को नहीं जो परिपूर्ण हैं, जिनमें कोई कमियाँ नहीं है या जो शून्य में रहते हैं। कुछ लोग, थोड़ी सी भ्रष्टता दिखाने पर सोचते हैं, “मैंने फिर से परमेश्वर का विरोध किया। इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मैं नहीं बदला। जाहिर है कि परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता!” फिर वे निराश हो जाते हैं और सत्य का अनुसरण करना नहीं चाहते। इस रवैये के बारे में तुम क्या सोचते हो? उन्होंने खुद ही सत्य को त्याग दिया है, और मानते हैं कि परमेश्वर अब उन्हें नहीं चाहता। क्या यह परमेश्वर के बारे में गलतफहमी नहीं है? ऐसी नकारात्मकता का शैतान आसानी से फायदा उठा सकता है। शैतान ऐसे लोगों का उपहास करते हुए कहता है, “बेवकूफ कहीं के! परमेश्वर तुम्हें बचाना चाहता है, लेकिन तुम अभी भी इस तरह पीड़ा झेल रहे हो! हार ही मान लो, न! यदि तुम हार मान लोगे, तो परमेश्वर तुम्हें त्याग देगा, जो उसका तुम्हें मेरे हवाले कर देने जैसा ही है। मैं तुम्हें तड़पाकर मार डालूँगा!” शैतान कामयाब हुआ, तो परिणाम अकल्पनीय होंगे। नतीजतन, चाहे व्यक्ति को कितनी भी कठिनाइयों या नकारात्मकता का सामना करना पड़े, उसे हार नहीं माननी चाहिए। उसे समाधान के लिए सत्य खोजना चाहिए, और निष्क्रिय होकर प्रतीक्षा तो बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। जीवन के विकास की प्रक्रिया और मानव उद्धार के दौरान, लोग कभी-कभी गलत मार्ग अपना सकते हैं, भटक सकते हैं, या कभी-कभी वे जीवन में अपरिपक्वता की स्थिति और व्यवहार दिखा सकते हैं। कभी-कभी वे कमजोर और नकारात्मक हो सकते हैं, गलत बातें कह सकते हैं, लड़खड़ा सकते हैं या नाकामयाब हो सकते हैं। यह सब परमेश्वर की दृष्टि में सामान्य बातें हैं। वह इसे उनके खिलाफ नहीं मानता। कुछ लोग सोचते हैं कि उनकी भ्रष्टता बहुत गहरी है, और वे कभी भी परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकेंगे, इसलिए वे दुखी महसूस करते हैं और खुद से घृणा करते हैं। जिन लोगों के पास इस प्रकार पश्चात्ताप करने वाला दिल है, परमेश्वर उन्हें ही बचाता है। दूसरी ओर, जो लोग मानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता नहीं है, जो सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं और उनके साथ कुछ भी गलत नहीं है, आम तौर पर परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता है। जो मैं तुम लोगों को बता रहा हूँ उसके पीछे का अर्थ क्या है? जिसे भी समझ आया हो, बोलो। (भ्रष्टता के अपने प्रदर्शनों को ठीक से संभालना, सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान देना, और तुम्हें परमेश्वर का उद्धार प्राप्त होगा। यदि तुम लगातार परमेश्वर को गलत समझोगे, तो आसानी से निराशा में डूब जाओगे।) तुम्हें आस्था रखनी चाहिए और कहना चाहिए, “भले ही मैं अभी कमजोर हूँ, और मैंने ठोकर खाई और नाकामयाब हुआ हूँ। मैं आगे बढ़ूंगा, और एक दिन सत्य समझूंगा और परमेश्वर को संतुष्ट करके उद्धार प्राप्त करूँगा।” तुम्हारे पास यह संकल्प होना चाहिए। चाहे तुम्हें कैसी भी रुकावटों, कठिनाइयों, नाकामियों या उलझनों का सामना करना पड़े, तुम्हें नकारात्मक नहीं होना चाहिए। तुम्हें यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को बचाता है। इसके अलावा, यदि तुम्हें लगता है कि तुम अभी तक परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के योग्य नहीं हो, या जब कभी तुम ऐसी स्थिति में होते हो जिससे परमेश्वर घृणा करता है और नाखुश होता है, या जब कभी तुम बुरा व्यवहार करते हो, और परमेश्वर तुम्हें नहीं स्वीकारता, तुमसे घृणा करता है और तुम्हें ठुकरा देता है, तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। अब तुम जान गए हो, और अभी भी देर नहीं हुई है। यदि तुम पश्चात्ताप करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें एक अवसर जरूर देगा।

... परमेश्वर सभी के लिए धार्मिक और निष्पक्ष है। परमेश्वर यह नहीं देखता कि तुम पहले कैसे थे या अभी तुम्हारा आध्यात्मिक कद कैसा है, वह देखता है कि तुम सत्य का अनुसरण करते हो या नहीं और तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो या नहीं। तुम्हें कभी भी परमेश्वर को गलत समझकर यह नहीं कहना चाहिए, “जिन लोगों को परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है वे अब भी झूठ क्यों बोलते और भ्रष्टता क्यों दिखाते हैं? परमेश्वर को उन्हें बचाना चाहिए जो झूठ नहीं बोलते।” क्या यह भ्रांति नहीं है? क्या भ्रष्ट मानवजाति में कोई ऐसा है जो झूठ नहीं बोलता? क्या जो लोग झूठ नहीं बोलते उन्हें अब भी परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता है? शैतान ने जिस मानवजाति को भ्रष्ट कर दिया है, परमेश्वर उसे ही बचाता है। यदि तुम इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते, तो तुम अज्ञानी और मूर्ख हो। जैसा कि परमेश्वर ने कहा, “इस पृथ्वी पर कोई भी धर्मी नहीं है, जो धर्मी हैं वे इस संसार में नहीं हैं।” इसका मूल कारण यह है कि मानवजाति को शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है, इसलिए परमेश्वर देहधारण करके पृथ्वी पर आया, ताकि हम भ्रष्ट मनुष्यों को बचा सके। परमेश्वर स्वर्गदूतों को बचाने के बारे में कुछ क्यों नहीं कहता? ऐसा इसलिए क्योंकि स्वर्गदूत स्वर्ग में हैं, और शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किए गए हैं। परमेश्वर ने शुरू से ही हमेशा यही कहा है, “जिस मानवजाति को मैं बचाता हूँ वह शैतान द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी है, वह मानवजाति जो शैतान के हाथों से वापस ली जा चुकी है, वह मानवजाति जिसमें शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है, वह मानवजाति जो मेरा विरोध करती है, मुझे ठुकराती है और मेरे खिलाफ विद्रोह करती है।” तो फिर लोग इस सच्चाई का सामना क्यों नहीं करते? क्या वे परमेश्वर को गलत नहीं समझते? परमेश्वर को गलत समझना उसके खिलाफ प्रतिरोध का सबसे आसान रास्ता है और इसे तुरंत हल किया जाना चाहिए। इस समस्या को हल नहीं कर पाना बहुत खतरनाक है, क्योंकि इसके परिणामस्वरूप परमेश्वर तुम्हें आसानी से किनारे कर सकता है। लोगों की गलतफहमियाँ उनकी धारणाओं और कल्पनाओं में निहित हैं। यदि वे हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से चिपके रहे, तो उनके सत्य को न स्वीकारने की संभावना सबसे अधिक होगी। जब तुम परमेश्वर को गलत समझते हो, यदि तुमने समाधान के लिए सत्य नहीं खोजा, तो इसके परिणाम तुम लोग बेहतर जानते हो। परमेश्वर तुम्हें ठोकर खाने, असफल होने और गलतियाँ करने देता है। परमेश्वर तुम्हें सत्य समझने, सत्य का अभ्यास करने, धीरे-धीरे उसकी इच्छा को समझने, उसकी इच्छा के अनुसार सब कुछ करने, वास्तव में परमेश्वर की आज्ञा मानने, और सत्य की वास्तविकता को प्राप्त करने के लिए अवसर और समय देगा जो परमेश्वर चाहता है कि लोगों के पास हो। लेकिन, परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति से सबसे अधिक घृणा करता है? जो अपने दिल में सत्य जानते हुए भी, उसे स्वीकारने से इनकार करते हैं, उसे अभ्यास में लाना तो दूर की बात है। बल्कि, वे अभी भी शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं, फिर भी खुद को परमेश्वर के प्रति बहुत अच्छा और आज्ञाकारी मानते हैं और साथ ही दूसरों को धोखा देकर परमेश्वर के घर में जगह पाने की कोशिश करते हैं। परमेश्वर इस प्रकार के लोगों से सबसे अधिक घृणा करता है, वे मसीह-विरोधी हैं। हालाँकि हर किसी में भ्रष्ट स्वभाव है, पर ये कर्म अलग-अलग प्रकृति के होते हैं। यह कोई सामान्य भ्रष्ट स्वभाव नहीं है और न ही भ्रष्टता का कोई सामान्य प्रकाशन है; बल्कि, इसमें तुम सोच-समझकर और अड़ियल बनकर अंत तक परमेश्वर का विरोध करते हो। तुम जानते हो कि परमेश्वर का अस्तित्व है, तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, फिर भी जानबूझकर उसका विरोध करना चुनते हो। यह परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखने और गलतफहमी होने की समस्या नहीं है; बल्कि तुम जानबूझकर अंत तक परमेश्वर का विरोध करते हो। क्या परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को बचा सकता है? परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को नहीं बचाता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर का दुश्मन है, इसलिए वह राक्षस शैतान है। क्या परमेश्वर अब भी राक्षस शैतान को बचा सकता है?

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है

शुरुआत से ही, मैंने अक्सर तुम लोगों को समझाया है कि तुम में से प्रत्येक को सत्य की तलाश करनी चाहिए। जब तक ऐसा करने का मौका हो, तब तक हार मत मानो; सत्य की तलाश करना प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व, जिम्मेदारी और कर्तव्य है, और यह वह मार्ग है जिस पर प्रत्येक व्यक्ति को चलना चाहिए, साथ ही साथ यह वह मार्ग है जिस पर उन सभी को जिन्हें बचाया जाएगा, चलना चाहिए। फिर भी कोई इस पर ध्यान नहीं देता है—कोई भी इसे अर्थपूर्ण मुद्दा नहीं मानता है, इसे एक कुभाषा के रूप में माना जाता है, प्रत्येक व्यक्ति अपने ही ढंग से सोचता है। यही कारण है कि शुरू से लेकर आज तक, हालाँकि कई ऐसे लोग रहे हैं जो अपने हाथों में परमेश्वर के वचनों की किताबें थामे रहते हैं और उन्हें पढ़ते हैं, जो उपदेश सुनते हैं, जिन सभी ने अपने कर्तव्यों को पूरा करने के दौरान न्याय और ताड़ना को स्वीकार किया है, और जो परमेश्वर के मार्गदर्शन को स्वीकार करते हैं, फिर भी इंसान और परमेश्वर के बीच कोई भी संबंध वास्तव में स्थापित नहीं हो पाया है, और सभी लोग अपनी ही कल्पनाओं, धारणाओं, गलतफ़हमियों और अटकलों द्वारा निर्देशित होते हैं, जिसके कारण वे प्रत्येक दिन इस संदेह और नकारात्मकता में रहते हैं कि वे परमेश्वर के वचनों और कार्य, साथ ही उसके मार्गदर्शन, के प्रति कैसा व्यवहार करें। यदि तुम ऐसी अवस्थाओं में रहते हो, तो तुम नकारात्मकता को कैसे दूर कर सकते हो? तुम विद्रोहीपन को कैसे दूर कर सकते हो? तुम छल और बुराई की मानसिकता और रवैये को, या उन अटकलों और गलतफ़हमियों को जिनके साथ तुम परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेश और कर्तव्य के प्रति व्यवहार करते हो, कैसे दूर करोगे? निश्चित रूप से, उन्हें दूर नहीं किया जा सकता है। इसलिए, यदि तुम सत्य की तलाश और अभ्यास करने और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने के मार्ग पर चलना चाहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के सामने तुरंत आना चाहिए, उससे प्रार्थना करनी चाहिए, और उसकी इच्छा को समझने का—और यह निर्धारित कर लेने का कि उसकी इच्छा ही सबसे ज़्यादा मायने रखती है, प्रयास करना चाहिए। तुम्हें ऐसा करना चाहिए, बजाय इसके कि तुम अपने दिनों को अपने दिमाग के विचारों और ख्यालों में ही जीने में बिता दो, लगातार यह सोचते हुए: मैं क्या सोच रहा हूँ? मैं क्या चाहता हूँ? मुझमें परमेश्वर के बारे में किस तरह की गलतफ़हमियाँ और धारणाएँ हैं? मैं किन चीजों में परमेश्वर से सवाल करता हूँ? परमेश्वर ने ऐसा क्या किया है जिसने मुझे कष्ट पहुँचाया है, या मुझे दुखी किया है, या जो मुझमें उठती अटकलों और संदेहों का कारण बना है? यदि तुम इन चीजों पर विचार करने में पूरे दिन व्यस्त रहते हो, तो क्या तुम सत्य को समझ पाओगे? जितना आगे तुम इस रास्ते पर चलोगे, परमेश्वर के बारे में तुम्हारी गलतफ़हमियाँ उतनी ही गहरी होती जाएँगी और उससे तुम्हारा रिश्ता उतना ही दूर का होता जाएगा; यह कहा जा सकता है कि तुम जितना अधिक आगे बढ़ोगे, उतने ही बुरे कर्म और अपराध तुम्हारे पास जमा होते जाएँगे। हो सकता है कि तुम अपने कर्तव्यों का पालन तो करते हो, लेकिन ऐसा करते समय, अपने कर्तव्य और ज़िम्मेदारियों के प्रति तुम्हारा रवैया लापरवाह, ढीला, प्रतिरोधी और विद्रोही होता है, या सिर्फ खानापूर्ति करने वाला और असम्मानपूर्ण भी। अंततः इसका परिणाम क्या होगा? इसका परिणाम यह होगा कि, ऐसे समय में जब तुम कष्ट उठाते हो और अपना कर्तव्य निभाते हो, तुम्हें सत्य हासिल नहीं हुआ होगा, न ही तुम इसे हासिल कर सकोगे और न ही सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे। इस परिणाम को उत्पन्न करने वाला कारण क्या है? इसका कारण यह है कि लोगों के दिलों में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ होती हैं—इन व्यावहारिक समस्याओं का कोई समाधान नहीं किया गया है। इस प्रकार, इंसान और परमेश्वर के बीच हमेशा एक खाई बनी रहती है। इसलिए, यदि इंसान परमेश्वर के सामने आना चाहता है, तो उसे पहले उन गलतफ़हमियों को दूर करना होगा, साथ ही उन धारणाओं, सवालों, अटकलों और कल्पनाओं को भी, जो परमेश्वर के बारे में अभी भी उसमें मौजूद हैं। उसे अपने भीतर इन चीज़ों की जाँच करनी चाहिए। यदि किसी में वास्तव में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ या गलतफ़हमियाँ हैं, तो यह एक साधारण समस्या नहीं है। यदि उस व्यक्ति ने सत्य को हासिल नहीं किया है और वह सत्य की तलाश करके अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को हल नहीं करता है, तो ये चीजें स्वयं ही गायब नहीं हो जाएँगी। हो सकता है कि वे तुम्हारे कर्तव्य के पालन या सत्य के अनुसरण को प्रभावित न करें, पर जब तुम कुछ खास मामलों या विशिष्ट परिस्थितियों का सामना करते हो, तो वे पुनः प्रकट हो जाएँगी, और तब तक ऐसा करती रहेंगी जब तक कि तुम उन्हें हल नहीं कर लेते। आत्म-चिंतन में रहते हुए परमेश्वर के सामने आना मुख्यतः परमेश्वर के प्रति इंसान की गलतफ़हमियों और धारणाओं को हल करने का एक जरिया होता है, और जैसे-जैसे प्रत्येक मुद्दे को हल किया जाता है, परमेश्वर के साथ इंसान का संबंध थोड़ा अधिक सामान्य होने लगता है, और इंसान का जीवन परिपक्वता की ओर एक और कदम बढ़ाता है। एक बार जब कोई अपनी अनेक धारणाओं और गलतफ़हमियों को हल कर लेता है, तो उसके और परमेश्वर के बीच की खाई काफी छोटी हो जाती है, और परमेश्वर में उसकी आस्था बढ़ जाती है—और गहरी आस्था होने के कारण बहुत कम चीज़ें किसी के सत्य के अभ्यास में मिलावट करती हैं, और इसी तरह उसकी सत्य की तलाश में भी बहुत कम मिलावटें और अड़चनें सामने आती हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है

यदि तुम्हारा रवैया ईमानदारी बरतने और सत्य को स्वीकार करने का है; यदि तुम इन मामलों में एक ऐसे नज़रिए के साथ व्यवहार करते हो जो सत्य के प्रति समर्पित है और उससे प्रेम करता है, चाहे वह सहन करने में कितना भी कठिन और तुम्हारी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाने वाला ही क्यों न हो; यदि तुम इन मामलों में सत्यों की तलाश करने और उन्हें स्वीकार करने के लिए परमेश्वर के सामने आते हो, और उन्हें स्वीकार करते समय तुम निरंतर विश्लेषण करते हो और तुम जो भी करते हो और जो भी प्रकट करते हो, उस पर और अपने इरादों पर चिंतन करते हो, तो तुम प्रगति करोगे और सत्य को तुम्हारे भीतर कार्यरत किया जाएगा। और जब इन समस्याओं का समाधान हो जाता है, और किसी मुद्दे का सामना करते समय तुम्हारा रवैया, नज़रिया, और तुम्हारी स्थिति सकारात्मकता की ओर बढ़ते हैं, तो क्या तब भी तुम्हारे और परमेश्वर के बीच कोई खाई होगी? अगर हो भी तो, वह छोटी होती जाएगी, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारे प्रश्न, साथ ही साथ तुम्हारी अटकलें, गलतफ़हमियाँ, शिकायतें, विद्रोह, और प्रतिरोध, कम होने लगेंगे। जब ये चीजें कम होने लगती हैं, तब यदि तुम पर कोई विपत्ति आती है तो तुम अधिक शांत रहोगे; तुम स्थिरचित्त होने लगोगे और अभ्यास के सही मार्ग की तलाश करोगे। यदि, जब भी कोई घटना तुम्हारे साथ होती है, तुम चिंतित हो जाते हो, और तुम सत्य की ज़रा भी तलाश किए बिना, हमेशा इंसान के तरीकों का उपयोग करना चाहते हो, तो यह परेशानी वाली बात होगी। तुम अवश्य ही इसे हल करने के लिए इंसान के तरीकों पर भरोसा करोगे—यह पहली प्रतिक्रिया है जो किसी व्यक्ति के दिमाग में आती है, और इसके साथ ही ढीले-ढाले तरीके, "होशियारी भरी" तकनीकें और जीने के दर्शन भी आने लगते हैं। कई ऐसे लोग हैं जो इन चीज़ों से लंबे समय से त्रस्त हैं, जो खुद को सत्य की ओर कभी नहीं ले जाते, बजाय इसके वे लगातार यह सोचते रहते हैं कि इंसान की तकनीकों को कैसे लागू किया जाए; वे इतने लंबे समय तक संघर्ष करते हैं कि वे थकान से पस्त हो जाते हैं। इंसान जब सत्य का अभ्यास या उसकी तलाश नहीं करता तो वह इतना ही दयनीय हो जाता है। हो सकता है कि अब तुम अपना कर्तव्य स्वेच्छा से निभा रहे हो, और तुम स्वेच्छा से त्याग कर रहे हो और खुद को स्वेच्छा से खपा रहे हो, लेकिन यदि तुममें अभी भी गलतफ़हमियाँ, अटकलें, संदेह या परमेश्वर के बारे में शिकायतें हैं, यहाँ तक कि उसके प्रति विद्रोह और प्रतिरोध भी है, या तुम उसे और खुद पर उसकी संप्रभुता नकारने के लिए विभिन्न तरीके और तकनीकें इस्तेमाल करते हो, अगर तुम इन चीजों का समाधान नहीं करते—तो सत्य का तुम्हारे व्यक्तित्व का स्वामी होना लगभग असंभव होगा, और तुम्हारा जीवन पस्त करने वाला बन जाएगा। लोग अक्सर इन नकारात्मक अवस्थाओं में संघर्ष करते रहते हैं और त्रस्त होते रहते हैं मानो वे किसी दलदल में फंस गए हों, हमेशा सच और झूठ, सही और गलत के बीच जीते हुए। वे सत्य को कैसे पा और समझ सकते हैं? सत्य की तलाश करने के लिए, सबसे पहले व्यक्ति को समर्पण करना पड़ता है। फिर, अनुभव की एक अवधि के बाद, वे कुछ प्रबुद्धता प्राप्त कर पाएँगे, जिस बिंदु पर सत्य को समझना आसान होता है। अगर कोई हमेशा सही और गलत का निर्णय करने की कोशिश करता रहता है और सच और झूठ का भेद करने में उलझा रहता है, तो उसके पास सत्य की तलाश करने या उसे समझने का कोई तरीका नहीं होता है। और अगर कोई सत्य को कभी न पाए, तो इसका क्या परिणाम होगा? सत्य को न समझना परमेश्वर के बारे में धारणाओं और गलतफ़हमियों को जन्म देता है; गलतफ़हमियों के कारण व्यथित महसूस करना आसान होता है; जब शिकायतें फूटकर सामने आती हैं, तो वे विरोध बन जाती हैं; परमेश्वर का विरोध उसका प्रतिरोध और एक गंभीर अपराध है; और कई अपराध विविध बुराइयों में बदल जाते हैं, और तब उस व्यक्ति को दंड भोगना पड़ता है। यह एक ऐसी चीज है, जो सत्य को समझने में हमेशा असमर्थ रहने के परिणामस्वरूप आती है। तो, सत्य की तलाश का अर्थ केवल यह नहीं है कि तुम अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह से पालन करो, आज्ञाकारी बनो, नियमानुसार व्यवहार करो, भक्तिपूर्ण दिखो, या संत की तरह सुशोभित रहो। यह केवल ऐसे मुद्दों को हल करने के लिए नहीं, बल्कि सभी तरह के उन गलत विचारों को हल करने के लिए होता है जिनके अनुसार तुम परमेश्वर के साथ व्यवहार करते हो। सत्य को समझने का उद्देश्य इंसान के भ्रष्ट स्वभावों को हल करना होता है; जब उन भ्रष्ट स्वभावों को सुलझा लिया जाता है, तो इंसान में परमेश्वर के बारे में गलतफ़हमियाँ नहीं रहेंगी, और इंसान और परमेश्वर के बीच का संबंध धीरे-धीरे सुधरेगा और सामान्य होता जाएगा। इसलिए, जब एक बार किसी भ्रष्ट स्वभाव का समाधान हो जाता है, तो परमेश्वर के बारे में इंसान की आशंकाएँ, संदेह, गलतफ़हमियाँ, प्रश्न, और शिकायतें, साथ ही साथ उसका प्रतिरोध और उसके द्वारा परमेश्वर की परीक्षा भी धीरे-धीरे हल हो जाएंगे। जब किसी भ्रष्ट स्वभाव का समाधान होता है तो इसकी त्वरित अभिव्यक्ति क्या होती है? (परमेश्वर के प्रति इंसान का दृष्टिकोण बदल जाता है।) परमेश्वर के बारे में इंसान का प्रत्येक नज़रिया किन तरीकों से प्रकट होता है? ये नज़रिए तुम्हारे साथ घटती हर घटना में, उस घटना के प्रति तुम्हारे व्यवहार में, उसके प्रति तुम्हारे रवैये में, तुम्हारी पहली प्रतिक्रिया में, और तुम्हारी अवस्था में, प्रकट होते हैं। तुम्हारे रवैये को क्या निर्धारित करता है? यह इस बात से तय होता है कि क्या इस मामले में तुम्हारे पास सत्य है, क्या तुमने सत्य की तलाश की है, क्या तुम सत्य को हासिल करना चाहते हो, और क्या तुम सत्य को समझते हो। इंसान और परमेश्वर के बीच एक सुधरा हुआ संबंध किस तरह से प्रकट होता है? यह इस बात से प्रकट होता है कि तुम दैनिक जीवन में लोगों, घटनाओं, और तुम्हारे सामने आने वाली चीज़ों के साथ कैसा व्यवहार करते हो। क्या इसमें कर्तव्य का पालन शामिल है? (यह शामिल है।) यही वह रिश्ता होता है। यही कारण है कि सत्य का अभ्यास और अनुसरण परम महत्व रखता है! यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो, फिर भी तुम परमेश्वर के संबंध में अपनी धारणाओं, शिकायतों और गलतफ़हमियों की समस्या को हल करना चाहते हो, तो क्या तुम कर पाओगे? कुछ ऐसे लोग होते हैं जो कहते हैं कि वे सरल विचारों के हैं और इसलिए उनमें ये विचार उत्पन्न नहीं होते हैं। क्या वे इसे हासिल करने में सक्षम हैं? क्या एक भ्रष्ट स्वभाव सोचने से आता है? यह सोचने से नहीं आता है—यह इंसान का जीवन होता है, और इंसान जीने के लिए इस पर निर्भर करता है। इसकी जड़ें इंसान के भीतर होती हैं और यह इंसान का सार होता है। इंसान के पास इसे मिटाने या हटाने के लिए कोई साधन नहीं होता है। केवल सत्य का उपयोग करके ही इन चीज़ों को हल किया जा सकता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है

मैं उन लोगों में प्रसन्नता अनुभव करता हूँ जो दूसरों पर शक नहीं करते, और मैं उन लोगों को पसंद करता हूँ जो सच को तत्परता से स्वीकार कर लेते हैं; इन दो प्रकार के लोगों की मैं बहुत परवाह करता हूँ, क्योंकि मेरी नज़र में ये ईमानदार लोग हैं। यदि तुम धोखेबाज हो, तो तुम सभी लोगों और मामलों के प्रति सतर्क और शंकित रहोगे, और इस प्रकार मुझमें तुम्हारा विश्वास संदेह की नींव पर निर्मित होगा। मैं इस तरह के विश्वास को कभी स्वीकार नहीं कर सकता। सच्चे विश्वास के अभाव में तुम सच्चे प्यार से और भी अधिक वंचित हो। और यदि तुम परमेश्वर पर इच्छानुसार संदेह करने और उसके बारे में अनुमान लगाने के आदी हो, तो तुम यकीनन सभी लोगों में सबसे अधिक धोखेबाज हो। तुम अनुमान लगाते हो कि क्या परमेश्वर मनुष्य जैसा हो सकता है : अक्षम्य रूप से पापी, क्षुद्र चरित्र का, निष्पक्षता और विवेक से विहीन, न्याय की भावना से रहित, शातिर चालबाज़ियों में प्रवृत्त, विश्वासघाती और चालाक, बुराई और अँधेरे से प्रसन्न रहने वाला, आदि-आदि। क्या लोगों के ऐसे विचारों का कारण यह नहीं है कि उन्हें परमेश्वर का थोड़ा-सा भी ज्ञान नहीं है? ऐसा विश्वास पाप से कम नहीं है! कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो मानते हैं कि जो लोग मुझे खुश करते हैं, वे बिल्कुल ऐसे लोग हैं जो चापलूसी और खुशामद करते हैं, और जिनमें ऐसे हुनर नहीं होंगे, वे परमेश्वर के घर में अवांछनीय होंगे और वे वहाँ अपना स्थान खो देंगे। क्या तुम लोगों ने इतने बरसों में बस यही ज्ञान हासिल किया है? क्या तुम लोगों ने यही प्राप्त किया है? और मेरे बारे में तुम लोगों का ज्ञान इन गलतफहमियों पर ही नहीं रुकता; परमेश्वर के आत्मा के खिलाफ तुम्हारी निंदा और स्वर्ग की बदनामी इससे भी बुरी बात है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि ऐसा विश्वास तुम लोगों को केवल मुझसे दूर भटकाएगा और मेरे खिलाफ बड़े विरोध में खड़ा कर देगा। कार्य के कई वर्षों के दौरान तुम लोगों ने कई सत्य देखे हैं, किंतु क्या तुम लोग जानते हो कि मेरे कानों ने क्या सुना है? तुम में से कितने लोग सत्य को स्वीकारने के लिए तैयार हैं? तुम सब लोग विश्वास करते हो कि तुम सत्य के लिए कीमत चुकाने को तैयार हो, किंतु तुम लोगों में से कितनों ने वास्तव में सत्य के लिए दुःख झेला है? तुम लोगों के हृदय में अधार्मिकता के सिवाय कुछ नहीं है, जिससे तुम लोगों को लगता है कि हर कोई, चाहे वह कोई भी हो, धोखेबाज और कुटिल है—यहाँ तक कि तुम यह भी विश्वास करते हो कि देहधारी परमेश्वर, किसी सामान्य मनुष्य की तरह, दयालु हृदय या कृपालु प्रेम से रहित हो सकता है। इससे भी अधिक, तुम लोग विश्वास करते हो कि कुलीन चरित्र और दयालु, कृपालु प्रकृति केवल स्वर्ग के परमेश्वर में ही होती है। तुम लोग विश्वास करते हो कि ऐसा कोई संत नहीं होता, कि केवल अंधकार एवं दुष्टता ही पृथ्वी पर राज करते हैं, जबकि परमेश्वर एक ऐसी चीज़ है, जिसे लोग अच्छाई और सुंदरता के लिए अपने मनोरथ सौंपते हैं, वह उनके द्वारा गढ़ी गई एक किंवदंती है। तुम लोगों के विचार से, स्वर्ग का परमेश्वर बहुत ही ईमानदार, धार्मिक और महान है, आराधना और श्रद्धा के योग्य है, जबकि पृथ्वी का यह परमेश्वर स्वर्ग के परमेश्वर का एक स्थानापन्न और साधन है। तुम विश्वास करते हो कि यह परमेश्वर स्वर्ग के परमेश्वर के समकक्ष नहीं हो सकता, उनका एक-साथ उल्लेख तो बिल्कुल नहीं किया जा सकता। जब परमेश्वर की महानता और सम्मान की बात आती है, तो वे स्वर्ग के परमेश्वर की महिमा से संबंधित होते हैं, किंतु जब मनुष्य की प्रकृति और भ्रष्टता की बात आती है, तो ये ऐसे लक्षण हैं जिनमें पृथ्वी के परमेश्वर का एक अंश है। स्वर्ग का परमेश्वर हमेशा उत्कृष्ट है, जबकि पृथ्वी का परमेश्वर हमेशा ही नगण्य, कमज़ोर और अक्षम है। स्वर्ग के परमेश्वर में दैहिक अनुभूतियाँ नहीं, केवल धार्मिकता है, जबकि धरती के परमेश्वर के केवल स्वार्थपूर्ण उद्देश्य हैं और वह निष्पक्षता और विवेक से रहित है। स्वर्ग के परमेश्वर में थोड़ी-सी भी कुटिलता नहीं है और वह हमेशा विश्वसनीय है, जबकि पृथ्वी के परमेश्वर में हमेशा बेईमानी का एक पक्ष होता है। स्वर्ग का परमेश्वर मनुष्यों से बहुत प्रेम करता है, जबकि पृथ्वी का परमेश्वर मनुष्य की पर्याप्त परवाह नहीं करता, यहाँ तक कि उसकी पूरी तरह से उपेक्षा करता है। यह भ्रामक ज्ञान तुम लोगों के हृदय में काफी समय से रखा गया है और भविष्य में भी बनाए रखा जा सकता है। तुम लोग मसीह के सभी कर्मों पर अधार्मिकता के दृष्टिकोण से विचार करते हो और उसके सभी कार्यों और साथ ही उसकी पहचान और सार का मूल्यांकन दुष्ट के परिप्रेक्ष्य से करते हो। तुम लोगों ने बहुत गंभीर गलती की है और ऐसा काम किया है, जो तुमसे पहले के लोगों ने कभी नहीं किया। अर्थात्, तुम लोग केवल अपने सिर पर मुकुट धारण करने वाले स्वर्ग के उत्कृष्ट परमेश्वर की सेवा करते हो और उस परमेश्वर की सेवा कभी नहीं करते, जिसे तुम इतना महत्वहीन समझते हो, मानो वह तुम लोगों को दिखाई तक न देता हो। क्या यह तुम लोगों का पाप नहीं है? क्या यह परमेश्वर के स्वभाव के विरुद्ध तुम लोगों के अपराध का विशिष्ट उदाहरण नहीं है? तुम लोग स्वर्ग के परमेश्वर की आराधना करते हो। तुम बुलंद छवियों से प्रेम करते हो और उन लोगों का सम्मान करते हो, जो अपनी वाक्पटुता के लिए प्रतिष्ठित हैं। तुम सहर्ष उस परमेश्वर द्वारा नियंत्रित हो जाते हो, जो तुम लोगों के हाथ धन-दौलत से भर देता है, और उस परमेश्वर के लिए बहुत अधिक लालायित रहते हो जो तुम्हारी हर इच्छा पूरी कर सकता है। तुम केवल इस परमेश्वर की आराधना नहीं करते, जो अभिमानी नहीं है; तुम केवल इस परमेश्वर के साथ जुड़ने से घृणा करते हो, जिसे कोई मनुष्य ऊँची नज़र से नहीं देखता। तुम केवल इस परमेश्वर की सेवा करने के अनिच्छुक हो, जिसने तुम्हें कभी एक पैसा नहीं दिया है, और जो तुम्हें अपने लिए लालायित करवाने में असमर्थ है, वह केवल यह अनाकर्षक परमेश्वर ही है। यह परमेश्वर तुम्हें अपना समझ का दायरा बढ़ाने में, तुम्हें खज़ाना मिल जाने का एहसास कराने में सक्षम नहीं बना सकता, तुम्हारी इच्छा पूरी तो बिल्कुल नहीं कर सकता। तो फिर तुम उसका अनुसरण क्यों करते हो? क्या तुमने कभी इस तरह के प्रश्न पर विचार किया है? तुम जो करते हो, वह केवल इस मसीह का ही अपमान नहीं करता, बल्कि, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण रूप से, वह स्वर्ग के परमेश्वर का अपमान करता है। मेरे विचार से परमेश्वर पर तुम लोगों के विश्वास का यह उद्देश्य नहीं है!

... मैं चाहता हूँ कि तुम लोग शीघ्र ही किसी दिन इस सत्य को समझो : परमेश्वर को जानने के लिए तुम्हें न केवल स्वर्ग के परमेश्वर को जानना चाहिए, बल्कि, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण रूप से, पृथ्वी के परमेश्वर को भी जानना चाहिए। अपनी प्राथमिकताओं को गड्डमड्ड मत करो या गौण को मुख्य की जगह मत लेने दो। केवल इसी तरह से तुम परमेश्वर के साथ वास्तव में एक अच्छा संबंध बना सकते हो, परमेश्वर के नज़दीक हो सकते हो, और अपने हृदय को उसके और अधिक निकट ले जा सकते हो। यदि तुम काफी वर्षों से विश्वासी रहे हो और लंबे समय से मुझसे जुड़े हुए हो, किंतु फिर भी मुझसे दूर हो, तो मैं कहता हूँ कि अवश्य ही तुम प्रायः परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करते हो, और तुम्हारे अंत का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल होगा। यदि मेरे साथ कई वर्षों का संबंध न केवल तुम्हें ऐसा मनुष्य बनाने में असफल रहा है जिसमें मानवता और सत्य हो, बल्कि, इससे भी अधिक, उसने तुम्हारे दुष्ट तौर-तरीकों को तुम्हारी प्रकृति में बद्धमूल कर दिया है, और न केवल तुम्हारा अहंकार पहले से दोगुना हो गया है, बल्कि मेरे बारे में तुम्हारी गलतफहमियाँ भी कई गुना बढ़ गई हैं, यहाँ तक कि तुम मुझे अपना छोटा सह-अपराधी मान लेते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हारा रोग अब त्वचा में ही नहीं रहा, बल्कि तुम्हारी हड्डियों तक में घुस गया है। तुम्हारे लिए बस यही शेष बचा है कि तुम अपने अंतिम संस्कार की व्यवस्था किए जाने की प्रतीक्षा करो। तब तुम्हें मुझसे प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है कि मैं तुम्हारा परमेश्वर बनूँ, क्योंकि तुमने मृत्यु के योग्य पाप किया है, एक अक्षम्य पाप किया है। मैं तुम पर दया कर भी दूँ, तो भी स्वर्ग का परमेश्वर तुम्हारा जीवन लेने पर जोर देगा, क्योंकि परमेश्वर के स्वभाव के प्रति तुम्हारा अपराध कोई साधारण समस्या नहीं है, बल्कि बहुत ही गंभीर प्रकृति का है। जब समय आएगा, तो मुझे दोष मत देना कि मैंने तुम्हें पहले नहीं बताया था। मैं फिर से कहता हूँ : जब तुम मसीह—पृथ्वी के परमेश्वर—से एक साधारण मनुष्य के रूप में जुड़ते हो, अर्थात् जब तुम यह मानते हो कि यह परमेश्वर एक व्यक्ति के अलावा कुछ नहीं है, तो तुम नष्ट हो जाओगे। तुम सबके लिए मेरी यही एकमात्र चेतावनी है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें

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प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

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