161 मसीह के प्रति मनुष्य के विरोध और अवज्ञा का मूल
1 मसीह की दिव्यता सभी मनुष्यों से ऊपर है; इसलिए सभी सृजित प्राणियों में वह सर्वोच्च अधिकारी है। यह अधिकार उसकी दिव्यता है, यानी परमेश्वर का स्वयं का अस्तित्व और स्वभाव उसकी पहचान निर्धारित करता है। इसलिए, चाहे उसकी मानवता कितनी ही साधारण हो, इससे इनकार नहीं हो सकता कि उसके पास स्वयं परमेश्वर की पहचान है; चाहे वह किसी भी दृष्टिकोण से बोले और किसी भी तरह परमेश्वर की इच्छा का आज्ञा पालन करे, यह नहीं कहा जा सकता है कि वह स्वयं परमेश्वर नहीं है।
2 मूर्ख और नासमझ लोग मसीह की सामान्य मानवता को प्रायः एक खोट मानते हैं। चाहे वह किसी भी तरह अपनी दिव्यता के अस्तित्व को अभिव्यक्त और प्रकट करे, मनुष्य यह स्वीकार करने में असमर्थ है कि वह मसीह है। और मसीह जितना अधिक अपनी आज्ञाकारिता और नम्रता प्रदर्शित करता है, मूर्ख मनुष्य मसीह को उतना ही हल्के ढंग से लेते हैं। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो उसके प्रति बहिष्कार तथा तिरस्कार की प्रवृत्ति अपना लेते हैं, फिर भी उन "महान लोगों" की शानदार प्रतिमाओं को आराधना के लिए मेज़ पर रखते हैं। परमेश्वर के प्रति मनुष्य का प्रतिरोध और अवज्ञा इस तथ्य से जन्मता है कि देहधारी परमेश्वर का सार परमेश्वर की इच्छा, साथ ही मसीह की सामान्य मानवता से समर्पण कराता है; यह परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध और उसकी अवज्ञा का स्रोत है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का सार है से रूपांतरित