प्रश्न 2: पौलुस ने तीमुथियुस 2 में साफ़तौर पर कहा था कि "पूरी बाइबल परमेश्वर से प्रेरित है" और बाइबल के सारे वचन परमेश्वर के वचन हैं। हम पौलुस के वचनों के अनुसार चल रहे हैं। यह गलत कैसे हो सकता है?

उत्तर: धार्मिक क्षेत्र में बहुत से लोग मानते हैं कि बाइबल परमेश्वर द्वारा प्रेरित है। पौलुस ने इस बारे में जो कहा था वे उस पर विश्वास करते हैं। लेकिन कोई जांच नहीं करता कि पौलुस के इस कथन का क्या कोई आधार था। यह उनका एक तरह का दृष्टिकोण है क्योंकि वे पौलुस की बहुत पूजा करते हैं और उसमें उनका अंधविश्वास है। क्या किसी ने सोचा है कि पौलुस का कथन परमेश्वर के वचन के अनुरूप है या नहीं? क्या इसे प्रभु यीशु के वचनों का समर्थन मिला है? क्या वहाँ पर पवित्र आत्मा के वचन साक्ष्य के रूप में हैं? लोगों ने पौलुस के वचनों का प्रयोग करके आँख मूंद कर यह निष्कर्ष निकाला कि बाइबल पूरी तरह से परमेश्वर द्वारा प्रेरित है। क्या यह प्रभु के वचन और सच्चाई के अनुरूप है? अगर प्रभु यीशु या पवित्र आत्मा के वचनों से पौलुस के इस कथन की पुष्टि होती है, तो हमें इसे स्वीकार करना चाहिये और इसका पालन करना चाहिये, जो पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। लेकिन हम सब साफतौर पर जानते हैं कि पौलुस परमेश्वर के विरुद्ध था और प्रभु यीशु का विरोध किया करता था। यह एक सच्चाई है कि वह प्रभु यीशु के कार्य के खिलाफ विपक्ष का मुखिया था। हालांकि प्रभु यीशु ने पौलुस को सुसमाचार फैलाने के लिए एक प्रचारक के रूप में चुना, फिर भी पौलुस एक रचयित प्राणी है। इसलिये, उसके वचन निःसंदेह पूरी तरह से मनुष्य के ही वचन हैं। प्रभु यीशु परमेश्वर हैं, जबकि प्रभु यीशु के सभी प्रेरित और अनुयायी मनुष्य हैं। प्रभु यीशु के प्रचारकों और अनुयायियों की तुलना स्वयं प्रभु यीशु से नहीं की जा सकती। अगर उन्हें प्रभु यीशु या पवित्र आत्मा के वचनों का समर्थन नहीं मिला है, तो भले ही मनुष्‍य कुछ भी कहता रहे, हम उन वचनों को आँख मूंद कर स्वीकार नहीं कर सकते। वरना नतीजे कल्पना के परे होंगे। उस समय के बारे में जब सोचते हैं, जब फरीसियों ने प्रभु यीशु का विरोध किया और प्रभु यीशु की निंदा की, तो बहुत से लोगों ने प्रभु यीशु को अस्वीकार कर दिया था, क्योंकि वे फरीसियों को मानते थे। उन्हें हटा दिया गया और स्पष्ट रूप से उनकी निंदा की गयी क्योंकि उन्होंने प्रभु यीशु का विरोध किया था। क्या हमने इन उदाहरणों से कुछ नहीं सीखा है? वास्तव में, बाइबल में, केवल यहोवा परमेश्वर यहोवा के वचन, प्रभु यीशु द्वारा कहे गए वचन, पवित्र आत्मा के वचन, पैगंबरों द्वारा बताए गए परमेश्वर के वचन, और प्रकाशितवाक्‍य की पुस्‍तक की भविष्यवाणियाँ, परमेश्वर के वचन हैं। इसके अलावा, यह सभी अभिलेख और पत्र मानव के हैं। इन सबकी गिनती परमेश्वर के कार्य के साक्ष्यों के तौर पर होती है और इन्हें बाइबल में दर्ज किये जाने की जरूरत है, लेकिन हमें परमेश्वर के वचन को मनुष्य के वचनों की तरह नहीं मानना चाहिये। मनुष्य के वचन मनुष्य के वचन हैं, और सिर्फ परमेश्वर के वचन असल में परमेश्वर के वचन हैं। अगर हम इस बात पर जोर देते हैं कि बाइबल में मानव और शैतान के वचन परमेश्वर के वचन हैं, तो यह परमेश्वर की निंदा और तिरस्कार करना है! इसलिए, कहा गया है कि सभी धर्म शास्त्र परमेश्वर से प्रेरित हैं और सभी परमेश्वर के वचन हैं, यह तथ्यों के अनुरूप नहीं है।

आइये, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ते हैं। "वास्तव में, भविष्यवाणियों की पुस्तकों को छोड़कर, पुराने नियम का अधिकांश भाग ऐतिहासिक अभिलेख है। नए नियम के कुछ धर्मपत्र लोगों के व्यक्तिगत अनुभवों से आए हैं, और कुछ पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता से आए हैं; उदाहरण के लिए, पौलुस के धर्मपत्र एक मनुष्य के कार्य से उत्पन्न हुए थे, वे सभी पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता के परिणाम थे, और वे कलीसियाओं के लिए लिखे गए थे, और वे कलीसियाओं के भाइयों एवं बहनों के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन के वचन थे। वे पवित्र आत्मा द्वारा बोले गए वचन नहीं थे—पौलुस पवित्र आत्मा की ओर से नहीं बोल सकता था, और न ही वह कोई नबी था, और उसने उन दर्शनों को तो बिलकुल नहीं देखा था जिन्हें यूहन्ना ने देखा था। उसके धर्मपत्र इफिसुस, फिलेदिलफिया और गलातिया की कलीसियाओं, और अन्य कलीसियाओं के लिए लिखे गए थे। और इस प्रकार, नए नियम में पौलुस के धर्मपत्र वे धर्मपत्र हैं, जिन्हें पौलुस ने कलीसियाओं के लिए लिखा था, और वे पवित्र आत्मा की अभिप्रेरणाएँ नहीं हैं, न ही वे पवित्र आत्मा के प्रत्यक्ष कथन हैं...। उसने उस समय की कलीसियाओं के प्रेरित का कार्य किया था, वह एक कार्यकर्ता था जिसे प्रभु यीशु द्वारा इस्तेमाल किया गया था, और इस प्रकार कलीसियाओं की ज़िम्मेदारी लेने और कलीसियाओं का कार्य करने के लिए उसे भाइयों एवं बहनों की स्थितियों के बारे में जानना था—और इसी कारण उसने प्रभु में विश्वास करने वाले सभी भाइयों एवं बहनों के लिए धर्मपत्र लिखे थे। यह सही है कि जो कुछ भी उसने कहा, वह लोगों के लिए शिक्षाप्रद और सकारात्मक था, किंतु वह पवित्र आत्मा के कथनों का प्रतिनिधित्व नहीं करता था, और वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था। यह एक बेहद गलत समझ और एक ज़बरदस्त ईश-निंदा है कि लोग एक मनुष्य के अनुभवों के अभिलेखों और धर्मपत्रों को पवित्र आत्मा द्वारा कलीसियाओं को बोले गए वचनों के रूप में लें! ... यदि लोग पौलुस जैसों के धर्मपत्रों या शब्दों को पवित्र आत्मा के कथनों के रूप में देखते हैं, और उनकी परमेश्वर के रूप में आराधना करते हैं, तो सिर्फ यह कहा जा सकता है कि वे बहुत ही अधिक अविवेकी हैं। और अधिक कड़े शब्दों में कहा जाए तो, क्या यह स्पष्ट रूप से ईश-निंदा नहीं है? कोई मनुष्य परमेश्वर की ओर से कैसे बात कर सकता है? और लोग उसके धर्मपत्रों के अभिलेखों और उसके द्वारा बोले गए वचनों के सामने इस तरह कैसे झुक सकते हैं, मानो वे कोई पवित्र पुस्तक या स्वर्गिक पुस्तक हों। क्या परमेश्वर के वचन किसी मनुष्य के द्वारा बस यों ही बोले जा सकते हैं? कोई मनुष्य परमेश्वर की ओर से कैसे बोल सकता है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बाइबल के विषय में (3))

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन इसे पूरी तरह से स्पष्ट करते हैं। बाइबल में सिर्फ परमेश्वर के ही वचन नहीं हैं, बल्कि और भी बहुत से लोगों के वचन हैं। यह एक सत्य है और हमें इसका आदर और विशेष सम्मान करना चाहिए, और बाइबल को सही तरीके से व्यवहार में लाना चाहिए। लेकिन फिर भी बहुत से विश्वासी बाइबल पर आँख मूंद कर विश्वास करते हैं और बाइबल की आराधना करते हैं। वे सभी पौलुस के इस कथन पर विश्वास करते हैं कि सभी धार्मिक शास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से दिए गये हैं। उन्हें लगता है कि अगर ये बाइबल में दर्ज किये गये हैं, तो ये परमेश्वर के वचन होने चाहिए, और मनुष्‍य और शैतान के वचनों को भी परमेश्वर के वचन मान लेते हैं। यह किस तरह की समस्या है? क्या यह परमेश्वर का विरोध और ईश-निंदा नहीं है? मनुष्‍य ने जो वचन बोले हैं, बाइबल में उनकी निशानदेही साफतौर पर की गई है। तो फिर लोगों को जोर क्यों देना पड़ता है कि वे परमेश्वर के वचन हैं? तो क्या मनुष्य के वचन परमेश्वर के वचन बन जायेंगे यदि उन्हें बाइबल में संकलित किया गया है? यह किस तरह का तर्क है? बाइबल में तो प्राचीन धूर्त, शैतान के वचन भी शामिल हैं। क्या लोगों में यह कहने की हिम्मत है कि ये भी परमेश्वर के वचन हैं? इससे ज़ाहिर होता है कि वो तमाम लोग बेहूदा हैं, जो ये सोचते हैं कि बाइबल में दी हुई हर चीज़ परमेश्वर का वचन है। अगर लोग सच्चाई को नहीं भी समझते हैं तो उन्हें कम से कम तथ्यों का सम्मान तो करना चाहिए। उन्हें चीज़ों को अस्त-व्यस्त नहीं करना चाहिए।

हम सभी जानते हैं कि सिर्फ परमेश्वर के वचन सत्य, मार्ग, और जीवन हैं। मनुष्‍य सत्य के अनुरूप जो वचन बोलता है, वो सब उसके अपने अनुभव और परमेश्वर के वचन के ज्ञान से आते हैं। लेकिन पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी के साथ भी, वे सिर्फ मनुष्य के वचन हैं, और परमेश्वर के वचन से इनकी तुलना नहीं की जा सकती। परमेश्वर का वचन परमेश्वर के अंतर्निहित स्वभाव की अभिव्यक्ति है और वह जो है और वह सब कुछ है। यह सकारात्मक चीज़ों की वास्तविकता है और मानव का जीवन हो सकती है। मनुष्‍य सच्चाई के अनुसार जो वचन बोलता है, वो सब मनुष्‍य के अनुभव, परमेश्वर के वचन और सत्य की समझ से आते हैं; और तमाम चीज़ें उस समय मनुष्‍य के कद को दिखाती हैं। लेकिन हमें साफ होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों की सच्चाई को मनुष्‍य कभी भी अनुभव नहीं कर सकता। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर के वचन और सत्य के बारे में उनका ज्ञान कितना गहरा है, वो सत्य के मूल सार तक नहीं पहुँच सकते। इसका अर्थ यह है कि, मनुष्य द्वारा बोले जाने वाले वचन जो सत्य के अनुरूप हैं, सच्चाई के बराबर नहीं हो सकते। मनुष्य उन वचनों को बोलने में समर्थ है जो सत्य के अनुरूप हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य ने सत्य को प्राप्त कर लिया है। इसके अलावा, इससे ये भी ज़ाहिर नहीं होता कि इंसान ही सच है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पवित्र आत्मा मनुष्य के वास्तविक कद के आधार पर ही अपना कार्य करता है, और सहजता से सत्य को समझने और वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए मनुष्य को प्रबुद्ध बनाता है और मार्गदर्शन करता है। इसलिए जो वचन सत्य के अनुरूप हैं और उन लोगों ने बोले हैं जिनका उपयोग परमेश्वर ने किया है, वे सभी सीमित अनुभव और सत्य की समझ हैं और सत्य के सार से बिल्कुल भिन्न हैं। ऐसे वचन जो कि सत्य के अनुरूप हैं वे लोगों की सिर्फ थोड़ी सी मदद और फायदा कर सकते हैं। ये मानव का जीवन नहीं हो सकते और परमेश्वर के वचनों से इनकी तुलना नहीं की जा सकती। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता वाले वचन परमेश्वर के वचनों को निरूपित नहीं करते, वे सत्य को निरूपित नहीं करते, उनका सत्य से संबंध नहीं होता; वे केवल सत्य का थोड़ा-सा ज्ञान, पवित्र आत्मा की थोड़ी-सी प्रबुद्धता होते हैं। ... सत्य स्वयं परमेश्वर का जीवन है; यह उसके स्वभाव, सार और उसमें निहित हर चीज़ का प्रतिनिधित्व करता है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'क्या तुम जानते हो कि सत्य वास्तव में क्या है?')। इसलिए, बाइबल में परमेश्वर के वचन और मनुष्य के वचन हमें गुमराह नहीं कर सकते। बहुत से धार्मिक पादरियों का प्रचार परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं है बल्कि बाइबल में मनुष्य द्वारा बोले गये वचनों पर आधारित हैं। वे बाइबल में दिए गये मनुष्य के वचनों को सत्य मानकर लोगों को उनका अभ्यास और पालन करने के लिए कहते हैं। इससे आसानी से भ्रम पैदा किया जा सकता है, क्योंकि मनुष्य के वचन मनुष्य का जीवन नहीं हो सकते और केवल परमेश्वर के वचन ही मनुष्य का जीवन हो सकते हैं। पादरी हमेशा बाइबल में मनुष्य के वचनों को ही सत्य मानते हैं और लोगों को इसका अभ्यास करने और इसमें शामिल होने के लिए कहते हैं। क्या यह बग्गी को घोड़े के आगे लगाने जैसा नहीं है? क्या यह परमेश्वर की स्तुति करना और परमेश्वर की गवाही देना है? आगे, वचन सभी धार्मिक शास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से दिए गये हैं पौलुस के द्वारा कहे गये। परमेश्वर ने कभी भी इस तरह से बाइबल की गवाही नहीं दी और पवित्र आत्मा ने कभी भी ऐसे वचन नहीं कहे। यहाँ तक कि, किसी भी पैगम्बर या प्रेरित ने ऐसे वचन नहीं कहे। पौलुस के द्वारा कहे गये वचन सभी धार्मिक शास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से दिए गये हैं सिर्फ उसका अपना नज़रिया दिखाते हैं, उन्हें परमेश्वर के वचनों का समर्थन हासिल नहीं है। इसलिए जो लोग ये सोचते हैं कि बाइबल पूरी तरह परमेश्वर से प्रेरित है, इसमें सारे परमेश्वर के वचन हैं, और ये परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करती है, ये सारी बातें पूरी तरह से गलत हैं। हमें इस तथ्य को साफतौर पर देखना चाहिए और बाइबल के साथ सही बर्ताव करना चाहिए। इस तरह, परमेश्वर सन्तुष्ट होंगे।

"बेड़ियों को तोड़ो और भागो" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश

पिछला: प्रश्न 1: बाइबल में, पौलुस ने कहा था "सम्पूर्ण पवित्रशास्त्र परमेश्‍वर की प्रेरणा से रचा गया है" (2 तीमुथियुस 3:16), पौलुस के वचन बाइबल में हैं। इसीलिए, वे परमेश्‍वर द्वारा प्रेरित थे; वे परमेश्‍वर के वचन हैं। प्रभु में विश्वास करना बाइबल में विश्वास करना है। चाहे कोई भी विचारधारा क्‍यों न हो, यदि वह बाइबल से भटकती है, तो वह विधर्म है! हम प्रभु में विश्वास करते हैं, इसीलिए हमें सदा बाइबल के अनुसार कार्य करना चाहिए, अर्थात्, हमें बाइबल के वचनों का पालन करना चाहिए। बाइबल ईसाई धर्म का मूलभूत सिद्धांत है, हमारे विश्वास की नींव है। बाइबल को त्‍यागना प्रभु में अविश्‍वास करने के समान है; यदि हम बाइबल को त्‍याग देते हैं, तो हम प्रभु में कैसे विश्वास कर सकते हैं? बाइबल में प्रभु के वचन लिखे हैं। क्या कहीं और भी ऐसी जगह है जहां हम उनके वचनों को पा सकते हैं? यदि प्रभु में हमारा विश्वास बाइबल पर आधारित नहीं है, तो इसका आधार क्या है?

अगला: प्रश्न 3: हम सोचते हैं परमेश्वर के सभी वचन और कार्य बाइबल में दर्ज हैं। बाइबल से अलग परमेश्वर के कोई वचन और कार्य नहीं हैं। इसलिए, परमेश्वर पर हमारा विश्वास बाइबल पर आधारित होना चाहिए। क्या ये गलत है?

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

उत्तर: हम परमेश्वर की वाणी कैसे सुनते हैं? हममें कितने भी गुण हों, हमें कितना भी अनुभव हो, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। प्रभु यीशु में विश्वास...

प्रश्न 1: सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है," तो मुझे वह याद आया जो प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)। हम पहले से ही जानते हैं कि प्रभु यीशु जीवन के सजीव जल का स्रोत हैं, और अनन्‍त जीवन का मार्ग हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और प्रभु यीशु समान स्रोत हों? क्या उनके कार्य और वचन दोनों पवित्र आत्मा के कार्य और वचन हैं? क्या उनका कार्य एक ही परमेश्‍वर करते हैं?

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