296 भ्रष्ट मानवता की त्रासदी
1
युगों युगों से इंसान, परमेश्वर के संग चला है,
युगों युगों से इंसान, परमेश्वर के संग चला है,
मगर इंसान जानता नहीं, तकदीर जीवों की, है अधिकार में परमेश्वर के,
कैसे सदियों से सबकुछ परमेश्वर ही, आयोजित, निर्देशित करता आ रहा है।
2
वजह ये नहीं कि प्रभु के रास्ते ढूंढने मुश्किल हैं,
या उसकी योजना पूरी होनी अभी बाकी है,
बस वजह इतनी-सी है, आत्मा और दिल, बहुत दूर हैं इंसान के परमेश्वर से।
अनुसरण तो करता है वो परमेश्वर का,
मगर शैतान का सेवक बना हुआ है। ये कभी वो सोचता नहीं है।
3
पहल करता नहीं कोई कि ढूंढें कदमों-निशां उसके या उसके प्रकट होने को।
ना चाहत है किसी को, उसके आसरे जीएं।
सभी ने हाथ थामा है शैतान का, और बुराई का,
इस दुनिया और जीवन के नियमों के अनुरूप,
जिसका अनुसरण कर रही है पापी इंसानियत सारी।
4
शैतान के कब्ज़े में हैं आत्मा और दिल इंसान के पूरी तरह।
इंसान बन गया शैतान का आहार,
शैतान के रहने का ठिकाना और खेल का मैदान।
खो चुका पूरी तरह इंसान, अब इंसान बनने के उसूल।
भूल बैठा है कि उसके वजूद का मोल और लक्ष्य क्या है।
भूल बैठा है नियम परमेश्वर के, भूल बैठा दोनों में अनुबंध क्या है।
इंसान अब परमेश्वर की चिंता नहीं करता है।
5
क्यों बनाया है उसे परमेश्वर ने, इंसान अब भूलता ये जा रहा है,
परमेश्वर के वचनों की ना उसको समझ है,
ना उसे अहसास है, जो कुछ परमेश्वर का है।
परमेश्वर के नियम और आदेश अब वो नकारता है।
उसके दिल और आत्मा में, अब कोई अहसास बाकी नहीं है।
खो दिया परमेश्वर ने इंसान जो उसने बनाया,
खो दिया इंसां ने अपनी जड़ों को।
है यही त्रासदी इंसान की। है यही त्रासदी इंसान की।
है यही त्रासदी इंसान की। है यही त्रासदी इंसान की।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है से रूपांतरित