2. देहधारण क्या है? देहधारण का तत्व क्या है?
संदर्भ के लिए बाइबल के पद :
"आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था" (यूहन्ना 1:1)।
"और वचन देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण होकर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उसकी ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते की महिमा" (यूहन्ना 1:14)।
"मार्ग और सत्य और जीवन मैं ही हूँ" (यूहन्ना 14:6)।
"यीशु ने उससे कहा, 'हे फिलिप्पुस, मैं इतने दिन से तुम्हारे साथ हूँ, और क्या तू मुझे नहीं जानता? जिसने मुझे देखा है उसने पिता को देखा है। तू क्यों कहता है कि पिता को हमें दिखा? क्या तू विश्वास नहीं करता कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में है? ये बातें जो मैं तुम से कहता हूँ, अपनी ओर से नहीं कहता, परन्तु पिता मुझ में रहकर अपने काम करता है। मेरा विश्वास करो कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में है; नहीं तो कामों ही के कारण मेरा विश्वास करो'" (यूहन्ना 14:9-11)।
"मैं और पिता एक हैं" (यूहन्ना 10:30)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :
"देहधारण" परमेश्वर का देह में प्रकट होना है; परमेश्वर सृष्टि के मनुष्यों के मध्य देह की छवि में कार्य करता है। इसलिए, परमेश्वर को देहधारी होने के लिए, सबसे पहले देह बनना होता है, सामान्य मानवता वाला देह; यह सबसे मौलिक आवश्यकता है। वास्तव में, परमेश्वर के देहधारण का निहितार्थ यह है कि परमेश्वर देह में रह कर कार्य करता है, परमेश्वर अपने वास्तविक सार में देहधारी बन जाता है, वह मनुष्य बन जाता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार
सामान्य मानवता वाला मसीह ऐसा देह है जिसमें आत्मा साकार हुआ है, जिसमें सामान्य मानवता है, सामान्य बोध है और मानवीय विचार हैं। "साकार होने" का अर्थ है परमेश्वर का मानव बनना, आत्मा का देह बनना; इसे और स्पष्ट रूप से कहें, तो यह तब होता है जब स्वयं परमेश्वर सामान्य मानवता वाले देह में वास करके उसके माध्यम से अपने दिव्य कार्य को व्यक्त करता है—यही साकार होने या देहधारी होने का अर्थ है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार
देहधारण की महत्ता यह है कि एक साधारण, सामान्य मनुष्य स्वयं परमेश्वर का कार्य करता है; अर्थात्, परमेश्वर मानव देह में अपना दिव्य कार्य करके शैतान को परास्त करता है। देहधारण का अर्थ है कि परमेश्वर का आत्मा देह बन जाता है, अर्थात्, परमेश्वर देह बन जाता है; देह के द्वारा किया जाने वाला कार्य पवित्रात्मा का कार्य है, जो देह में साकार होता है, देह द्वारा अभिव्यक्त होता है। परमेश्वर के देह को छोड़कर अन्य कोई भी देहधारी परमेश्वर की सेवकाई को पूरा नहीं कर सकता; अर्थात्, केवल परमेश्वर का देहधारी देह, यह सामान्य मानवता—अन्य कोई नहीं—दिव्य कार्य को व्यक्त कर सकता है। यदि, परमेश्वर के पहले आगमन के दौरान, उनतीस वर्ष की उम्र से पहले उसमें सामान्य मानवता नहीं होती—यदि जन्म लेते ही वह चमत्कार करने लगता, बोलना आरंभ करते ही वह स्वर्ग की भाषा बोलने लगता, यदि पृथ्वी पर कदम रखते ही सभी सांसारिक मामलों को समझने लगता, हर व्यक्ति के विचारों और इरादों को समझने लगता—तो ऐसे इंसान को सामान्य मनुष्य नहीं कहा जा सकता था, और ऐसे देह को मानवीय देह नहीं कहा जा सकता था। यदि मसीह के साथ ऐसा ही होता, तो परमेश्वर के देहधारण का कोई अर्थ और सार ही नहीं रह जाता। उसका सामान्य मानवता से युक्त होना इस बात को सिद्ध करता है कि वह शरीर में देहधारी हुआ परमेश्वर है; उसका सामान्य मानव विकास प्रक्रिया से गुज़रना दिखाता है कि वह एक सामान्य देह है; इसके अलावा, उसका कार्य इस बात का पर्याप्त सबूत है कि वह परमेश्वर का वचन है, परमेश्वर का आत्मा है जिसने देहधारण किया है। अपने कार्य की आवश्यकताओं की वजह से परमेश्वर देहधारी बनता है; दूसरे शब्दों में, कार्य का यह चरण देह में पूरा किया जाना चाहिए, सामान्य मानवता में पूरा किया जाना चाहिए। यही "वचन के देह बनने" के लिए, "वचन के देह में प्रकट होने" के लिए पहली शर्त है, और यही परमेश्वर के दो देहधारणों के पीछे की सच्ची कहानी है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार
वास्तव में, परमेश्वर के देहधारण का निहितार्थ यह है कि परमेश्वर देह में रह कर कार्य करता है, परमेश्वर अपने वास्तविक सार में देहधारी बन जाता है, वह मनुष्य बन जाता है। उसके देहधारी जीवन और कार्य को दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है। पहला वह जीवन है जो वह सेवकाई प्रारम्भ करने से पहले जीता है। वह एकदम सामान्य मानवता में रहता है, सामान्य मानवीय परिवार में रहकर, जीवन की सामान्य नैतिकताओं और व्यवस्थाओं का पालन करता है, उसकी सामान्य मानवीय आवश्यकताएँ होती हैं, (भोजन, कपड़ा, आवास, निद्रा), उसमें सामान्य मानवीय कमज़ोरियाँ और सामान्य मानवीय भावनाएँ होती हैं। दूसरे शब्दों में, इस पहले चरण में वह सभी मानवीय क्रियाकलापों में शामिल होते हुए, बिना दिव्यता के, पूरी तरह से सामान्य मानवता में रहता है। दूसरा चरण वह जीवन है जो वह अपनी सेवकाई को आरंभ करने के बाद जीता है। वह इस अवधि में भी, सामान्य मानव-आवरण के साथ, सामान्य मानवता में रहता है, और किसी तरह की अलौकिकता का कोई संकेत नहीं देता। फिर भी वह पूरी तरह से अपनी सेवकाई के लिए ही जीता है, और इस दौरान उसकी सामान्य मानवता पूरी तरह से उसकी दिव्यता के सामान्य कार्य को करने में लगी रहती है, क्योंकि तब तक उसकी सामान्य मानवता उसकी सेवकाई के कार्य को करने में सक्षम होने की स्थिति तक परिपक्व हो चुकी होती है। तो उसके जीवन का दूसरा चरण सामान्य मानवता में अपनी सेवकाई को करना है, जब यह सामान्य मानवता और पूर्ण दिव्यता दोनों का जीवन होता है। अपने जीवन के प्रथम चरण में वह पूरी तरह से साधारण मानवता का जीवन क्यों जीता है, उसका कारण यह है कि उसकी मानवता अभी तक दिव्य कार्य की समग्रता को संभालने लायक नहीं हो पायी है, अभी तक वह परिपक्व नहीं हुई है; जब उसकी मानवता परिपक्व हो जाती है, उसकी सेवकाई को सहारा प्रदान करने के योग्य बन जाती है, तभी वह जो सेवकाई उसे करनी चाहिए, उसकी शुरूआत कर सकता है। चूँकि उसे देह के रूप में विकसित होकर परिपक्व होने की आवश्यकता होती है, इसलिए उसके जीवन का पहला चरण सामान्य मानवता का जीवन होता है, जबकि दूसरे चरण में, क्योंकि उसकी मानवता उसके कार्य का दायित्व लेने और उसकी सेवकाई को करने में सक्षम होती है, अपनी सेवकाई के दौरान देहधारी परमेश्वर जिस जीवन को जीता है वह मानवता और पूर्ण दिव्यता दोनों का जीवन होता है। यदि अपने जन्म के समय से ही देहधारी परमेश्वर, अलौकिक संकेतों और चमत्कारों को दिखाते हुए, गंभीरता से अपनी सेवकाई आरंभ कर देता, तो उसमें कोई भी दैहिक सार नहीं होता। इसलिए, उसकी मानवता उसके दैहिक सार के लिए अस्तित्व में है; मानवता के बिना कोई देह नहीं हो सकता, और मानवता के बिना कोई व्यक्ति मानव नहीं होता। इस तरह, परमेश्वर के देह की मानवता, परमेश्वर के देहधारण की अंतर्भूत सम्पत्ति है। ऐसा कहना कि "जब परमेश्वर देहधारण करता है तो वह पूरी तरह से दिव्य होता है, मानव बिल्कुल नहीं होता," ईशनिंदा है, क्योंकि इस वक्तव्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है, और यह देहधारण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। अपनी सेवकाई आरंभ करने के बाद भी, अपना कार्य करते हुए वह बाह्य मानवीय आवरण के साथ ही अपनी दिव्यता में रहता है; बात सिर्फ़ इतनी ही है कि उस समय, उसकी मानवता उसकी दिव्यता को सामान्य देह में कार्य करने देने के एकमात्र प्रयोजन को पूरा करती है। इसलिए कार्य की अभिकर्ता उसकी मानवता में रहने वाली दिव्यता है। कार्य उसकी दिव्यता करती है, न कि उसकी मानवता, मगर यह दिव्यता उसकी मानवता में छिपी रहती है; सार रूप में, उसका कार्य उसकी संपूर्ण दिव्यता द्वारा ही किया जाता है, न कि उसकी मानवता द्वारा। परन्तु कार्य को करने वाला उसका देह है। कह सकते हैं कि वह मनुष्य भी है और परमेश्वर भी, क्योंकि परमेश्वर, मानवीय आवरण और मानवीय सार के साथ, देह में रहने वाला परमेश्वर बन जाता है, लेकिन उसमें परमेश्वर का सार भी होता है। चूँकि वह परमेश्वर के सार वाला मनुष्य है इसलिए वह सभी सृजित मानवों से ऊपर है, ऐसे किसी भी मनुष्य से ऊपर है जो परमेश्वर का कार्य कर सकता है। तो, उसके समान मानवीय आवरण वाले सभी लोगों में, सभी मानवता धारियों में, एकमात्र वही देहधारी स्वयं परमेश्वर है—अन्य सभी सृजित मानव हैं। यद्यपि उन सभी में मानवता है, किन्तु सृजित मानव में केवल मानवता ही है, जबकि देहधारी परमेश्वर भिन्न है : उसके देह में न केवल मानवता है, बल्कि अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उसमें दिव्यता भी है। उसकी मानवता उसके देह के बाहरी रूप-रंग में और उसके दिन-प्रतिदिन के जीवन में देखी जा सकती है, किन्तु उसकी दिव्यता को देख पाना मुश्किल है। क्योंकि उसकी दिव्यता केवल तभी व्यक्त होती है जब उसमें मानवता होती है, और यह वैसी अलौकिक नहीं होती जैसी लोग कल्पना करते हैं, इसलिए लोगों के लिए इसे देख पाना बहुत कठिन होता है। आज भी, लोगों के लिए देहधारी परमेश्वर के सच्चे सार की थाह पाना बहुत कठिन है। इसके बारे में इतने विस्तार से बताने के बाद भी, मुझे लगता है कि तुम लोगों में से अधिकांश के लिए यह एक रहस्य ही है। वास्तव में, यह मामला बहुत सरल है : चूँकि परमेश्वर देहधारी बन जाता है, इसलिए उसका सार मानवता और दिव्यता का संयोजन है। यह संयोजन स्वयं परमेश्वर, पृथ्वी पर स्वयं परमेश्वर कहलाता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार
जिस समयावधि में प्रभु यीशु काम कर रहा था, उसमें लोग देख सकते थे कि परमेश्वर की अनेक मानवीय अभिव्यक्तियाँ हैं। उदाहरण के लिए, वह नृत्य कर सकता था, वह विवाहों में शामिल हो सकता था, वह लोगों के साथ संगति कर सकता था, उनसे बात कर सकता था और उनके साथ विभिन्न मामलों में चर्चा कर सकता था। इसके अतिरिक्त, प्रभु यीशु ने बहुत-सा ऐसा कार्य भी पूरा किया, जो उसकी दिव्यता दर्शाता था, और निस्संदेह यह समस्त कार्य परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति और प्रकाशन था। इस दौरान, चूँकि परमेश्वर की दिव्यता एक साधारण देह में उस रूप में साकार हुई थी, जिसे लोग देख और छू सकते थे, इसलिए अब उन्होंने यह महसूस नहीं किया कि वह अनुभूति के भीतर और बाहर झिलमिलाता है, या वे उसके करीब नहीं जा सकते। इसके विपरीत, वे मनुष्य के पुत्र की हर गतिविधि, उसके वचनों और कार्य के माध्यम से परमेश्वर की इच्छा या उसकी दिव्यता को समझने की कोशिश कर सकते थे। मनुष्य के देहधारी पुत्र ने अपनी मानवता के माध्यम से परमेश्वर की दिव्यता व्यक्त की और परमेश्वर की इच्छा को मानवजाति तक पहुँचाया। और परमेश्वर की इच्छा और स्वभाव की अभिव्यक्ति के माध्यम से उसने लोगों के सामने उस परमेश्वर को भी प्रकट किया, जिसे देखा और छुआ नहीं जा सकता और जो आध्यात्मिक क्षेत्र में रहता है। लोगों ने स्वयं परमेश्वर को मूर्त रूप में, माँस और रक्त से निर्मित देखा। तो मनुष्य के देहधारी पुत्र ने स्वयं परमेश्वर की पहचान, हैसियत, छवि, स्वभाव और उसके स्वरूप जैसी चीज़ों को ठोस और मानवीय बना दिया। भले ही परमेश्वर की छवि के संबंध में मनुष्य के पुत्र के बाहरी रूप-रंग की कुछ सीमाएँ थीं, किंतु उसका सार और स्वरूप स्वयं परमेश्वर की पहचान और हैसियत दर्शाने में पूर्णतः समर्थ थे—केवल अभिव्यक्ति के रूप में कुछ भिन्नताएँ थीं। हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि मनुष्य के पुत्र ने अपनी मानवता और दिव्यता, दोनों रूपों में स्वयं परमेश्वर की पहचान और हैसियत दर्शाई। हालाँकि इस दौरान परमेश्वर ने देह के माध्यम से कार्य किया, देह के परिप्रेक्ष्य से बात की और मानवजाति के सामने मनुष्य के पुत्र की पहचान और हैसियत के साथ खड़ा हुआ, और इसने लोगों को मानवजाति के बीच परमेश्वर के सच्चे वचनों और कार्य को देखने-सुनने और अनुभव करने का अवसर दिया। इसने लोगों को विनम्रता के बीच उसकी दिव्यता और महानता के संबंध में अंतर्दृष्टि और साथ ही परमेश्वर की प्रामाणिकता और वास्तविकता की एक प्रारंभिक समझ और परिभाषा भी प्रदान की। भले ही प्रभु यीशु द्वारा पूर्ण किया गया कार्य, कार्य करने के उसके तरीके और उसके बोलने का परिप्रेक्ष्य आध्यात्मिक क्षेत्र में परमेश्वर के वास्तविक व्यक्तित्व से भिन्न थे, फिर भी उसकी हर चीज़ वास्तव में स्वयं परमेश्वर को दर्शाती थी, जिसे मानवजाति ने पहले कभी नहीं देखा था—इससे इनकार नहीं किया जा सकता! अर्थात्, परमेश्वर चाहे किसी भी रूप में प्रकट हो, वह चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्य में बात करे, या किसी भी छवि में वह मानवजाति के सामने आए, वह अपने सिवाय किसी को नहीं दर्शाता। वह न तो किसी मनुष्य को दर्शा सकता है, न ही भ्रष्ट मानवजाति को दर्शा सकता है। परमेश्वर स्वयं परमेश्वर है, और इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III
यद्यपि देहधारी परमेश्वर का बाहरी रूप-रंग ठीक मनुष्य के समान है, और यद्यपि वह मानवीय ज्ञान सीखता है और मानवीय भाषा बोलता है, और कभी-कभी अपने विचार मनुष्य की पद्धतियों या बोलने के तरीकों से भी व्यक्त करता है, फिर भी, जिस तरीके से वह मनुष्यों को और चीज़ों के सार को देखता है, वह भ्रष्ट लोगों द्वारा मनुष्यों को और चीज़ों के सार को देखने के तरीके के समान बिलकुल नहीं है। उसका परिप्रेक्ष्य और वह ऊँचाई, जिस पर वह खड़ा है, किसी भ्रष्ट व्यक्ति के द्वारा अप्राप्य है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर सत्य है, क्योंकि उसके द्वारा धारित देह में भी परमेश्वर का सार है, और उसके विचार तथा जो कुछ उसकी मानवता के द्वारा प्रकट किया जाता है, वे भी सत्य हैं। भ्रष्ट लोगों के लिए, जो कुछ वह देह में व्यक्त करता है, वह सत्य और जीवन के प्रावधान हैं। ये प्रावधान केवल एक व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवजाति के लिए हैं। किसी भ्रष्ट व्यक्ति के हृदय में केवल वे थोड़े-से लोग ही होते हैं, जो उससे संबद्ध होते हैं। वह केवल उन मुट्ठीभर लोगों की ही परवाह करता है और उन्हीं के बारे में चिंता करता है। जब आपदा क्षितिज पर होती है, तो वह पहले अपने बच्चों, जीवनसाथी, या माता-पिता के बारे में सोचता है। अधिक से अधिक, कोई ज्यादा दयालु व्यक्ति किसी रिश्तेदार या अच्छे मित्र के बारे में कुछ सोच लेगा; पर क्या ऐसे दयालु व्यक्ति के विचार भी इससे आगे जाते हैं? नहीं, कभी नहीं! क्योंकि मनुष्य अंततः मनुष्य हैं, और वे सब-कुछ एक मनुष्य की ऊँचाई और परिप्रेक्ष्य से ही देख सकते हैं। किंतु देहधारी परमेश्वर भ्रष्ट व्यक्ति से पूर्णत: अलग है। देहधारी परमेश्वर का देह कितना ही साधारण, कितना ही सामान्य, कितना ही निम्न क्यों न हो, या लोग उसे कितनी ही नीची निगाह से क्यों न देखते हों, मानवजाति के प्रति उसके विचार और उसका रवैया ऐसी चीज़ें है, जो किसी भी मनुष्य में नहीं हैं, जिनका कोई मनुष्य अनुकरण नहीं कर सकता। वह मानवजाति का अवलोकन हमेशा दिव्यता के परिप्रेक्ष्य से, सृजनकर्ता के रूप में अपनी स्थिति की ऊँचाई से करेगा। वह मानवजाति को हमेशा परमेश्वर के सार और मानसिकता से देखेगा। वह मानवजाति को एक औसत व्यक्ति की निम्न ऊँचाई से, या एक भ्रष्ट व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से बिलकुल नहीं देख सकता। जब लोग मानवजाति को देखते हैं, तो मनुष्य की दृष्टि से देखते हैं, और अपने पैमाने के रूप में वे मनुष्य के ज्ञान और मनुष्य के नियमों और सिद्धांतों जैसी चीज़ों का उपयोग करते हैं। यह उस दायरे के भीतर है, जिसे लोग अपनी आँखों से देख सकते हैं; उस दायरे के भीतर है, जो भ्रष्ट लोगों द्वारा प्राप्य है। जब परमेश्वर मानवजाति को देखता है, तो वह दिव्य दृष्टि से देखता है, और पैमाने के रूप में अपने सार और स्वरूप का उपयोग करता है। इस दायरे में वे चीज़ें शामिल हैं जिन्हें लोग नहीं देख सकते, और यहीं पर देहधारी परमेश्वर और भ्रष्ट मनुष्य पूरी तरह से भिन्न हैं। यह भिन्नता मनुष्यों और परमेश्वर के भिन्न-भिन्न सार से निर्धारित होती है—ये भिन्न-भिन्न सार ही उनकी पहचान और स्थिति को और साथ ही उस परिप्रेक्ष्य और ऊँचाई को निर्धारित करते हैं, जिससे वे चीज़ों को देखते हैं।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III
देहधारी परमेश्वर मसीह कहलाता है और मसीह परमेश्वर के आत्मा द्वारा धारण की गई देह है। यह देह किसी भी मनुष्य की देह से भिन्न है। यह भिन्नता इसलिए है क्योंकि मसीह मांस तथा खून से बना हुआ नहीं है; वह आत्मा का देहधारण है। उसके पास सामान्य मानवता तथा पूर्ण दिव्यता दोनों हैं। उसकी दिव्यता किसी भी मनुष्य द्वारा धारण नहीं की जाती। उसकी सामान्य मानवता देह में उसकी समस्त सामान्य गतिविधियां बनाए रखती है, जबकि उसकी दिव्यता स्वयं परमेश्वर के कार्य अभ्यास में लाती है। चाहे यह उसकी मानवता हो या दिव्यता, दोनों स्वर्गिक परमपिता की इच्छा को समर्पित हैं। मसीह का सार पवित्र आत्मा, यानी दिव्यता है। इसलिए, उसका सार स्वयं परमेश्वर का है; यह सार उसके स्वयं के कार्य में बाधा उत्पन्न नहीं करेगा और वह संभवतः कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकता, जो उसके स्वयं के कार्य को नष्ट करता हो, न ही वह ऐसे वचन कहेगा, जो उसकी स्वयं की इच्छा के विरुद्ध जाते हों। इसलिए, देहधारी परमेश्वर कभी भी कोई ऐसा कार्य बिल्कुल नहीं करेगा, जो उसके अपने प्रबंधन में बाधा उत्पन्न करता हो। यह वह बात है, जिसे सभी मनुष्यों को समझना चाहिए। पवित्र आत्मा के कार्य का सार मनुष्य को बचाना और परमेश्वर के अपने प्रबंधन के वास्ते है। इसी प्रकार, मसीह का कार्य भी मनुष्य को बचाना है तथा परमेश्वर की इच्छा के वास्ते है। यह देखते हुए कि परमेश्वर देह बन जाता है, वह अपने देह में अपने सार का, इस प्रकार अहसास करता है कि उसकी देह उसके कार्य का भार उठाने के लिए पर्याप्त है। इसलिए देहधारण के समय परमेश्वर के आत्मा का संपूर्ण कार्य मसीह के कार्य द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है और देहधारण के पूरे समय के दौरान संपूर्ण कार्य के केंद्र में मसीह का कार्य होता है। इसे किसी भी अन्य युग के कार्य के साथ मिलाया नहीं जा सकता। और चूँकि परमेश्वर देहधारी हो जाता है, वह अपनी देह की पहचान में कार्य करता है; चूँकि वह देह में आता है, वह अपनी देह में वह कार्य पूरा करता है, जो उसे करना चाहिए। चाहे वह परमेश्वर का आत्मा हो या चाहे वह मसीह हो, दोनों स्वयं परमेश्वर हैं और वह उस कार्य को करता है, जो उसे करना चाहिए और उस सेवकाई को करता है, जो उसे करनी चाहिए।
परमेश्वर का सार ही अधिकार को काम में लाता है, लेकिन वह पूर्ण रूप से उस अधिकार के प्रति समर्पित हो पाता है, जो उसकी ओर से आता है। चाहे वह पवित्र आत्मा का कार्य हो या देह का, दोनों का एक दूसरे से टकराव नहीं होता। परमेश्वर का आत्मा संपूर्ण सृष्टि पर अधिकार रखता है। परमेश्वर के सार वाली देह भी अधिकार संपन्न है, पर देह में परमेश्वर वह सब कार्य कर सकता है, जिससे स्वर्गिक पिता की इच्छा का आज्ञा पालन होता है। इसे किसी मनुष्य द्वारा प्राप्त किया या समझा नहीं जा सकता। परमेश्वर स्वयं अधिकार है, पर उसकी देह उसके अधिकार के प्रति समर्पित हो सकती है। जब यह कहा जाता है तो इसमें निहित होता हैः "मसीह परमपिता परमेश्वर की इच्छा का आज्ञापालन करता है।" परमेश्वर आत्मा है और उद्धार का कार्य कर सकता है, जैसे परमेश्वर मनुष्य बन सकता है। किसी भी क़ीमत पर, परमेश्वर स्वयं अपना कार्य करता है; वह न तो बाधा उत्पन्न करता है न दखल देता है, ऐसे कार्य का अभ्यास तो नहीं ही करता, जो परस्पर विपरीत हो क्योंकि आत्मा और देह द्वारा किए गए कार्य का सार एक समान है। चाहे आत्मा हो या देह, दोनों एक इच्छा को पूरा करने और उसी कार्य को प्रबंधित करने के लिए कार्य करते हैं। यद्यपि आत्मा और देह की दो भिन्न विशेषताएं हैं, किंतु उनके सार एक ही हैं; दोनों में स्वयं परमेश्वर का सार है और स्वयं परमेश्वर की पहचान है। स्वयं परमेश्वर में अवज्ञा के तत्व नहीं होते; उसका सार अच्छा है। वह समस्त सुंदरता और अच्छाई की और साथ ही समस्त प्रेम की अभिव्यक्ति है। यहाँ तक कि देह में भी परमेश्वर ऐसा कुछ नहीं करता, जिससे परमपिता परमेश्वर की अवज्ञा होती हो। यहाँ तक कि अपने जीवन का बलिदान करने की क़ीमत पर भी वह ऐसा करने को पूरे मन से तैयार रहेगा और कोई विकल्प नहीं बनाएगा। परमेश्वर में आत्मतुष्टि और ख़ुदगर्ज़ी के या दंभ या घमंड के तत्व नहीं हैं; उसमें कुटिलता के कोई तत्व नहीं हैं। जो कोई भी परमेश्वर की अवज्ञा करता है, वह शैतान से आता है; शैतान समस्त कुरूपता तथा दुष्टता का स्रोत है। मनुष्य में शैतान के सदृश विशेषताएं होने का कारण यह है कि मनुष्य को शैतान द्वारा भ्रष्ट और संसाधित किया गया है। मसीह को शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किया गया है, अतः उसके पास केवल परमेश्वर की विशेषताएं हैं तथा शैतान की एक भी विशेषता नहीं है। इस बात की परवाह किए बिना कि कार्य कितना कठिन है या देह कितनी निर्बल, परमेश्वर जब वह देह में रहता है, कभी भी ऐसा कुछ नहीं करेगा, जिससे स्वयं परमेश्वर का कार्य बाधित होता हो, अवज्ञा में परमपिता परमेश्वर की इच्छा का त्याग तो बिल्कुल नहीं करेगा। वह देह में पीड़ा सह लेगा, मगर परमपिता परमेश्वर की इच्छा के विपरीत नहीं जाएगा; यह वैसा है, जैसा यीशु ने प्रार्थना में कहा, "पिता, यदि हो सके तो यह कटोरा मुझ से टल जाए, तौभी जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो।" लोग अपने चुनाव करते हैं, किंतु मसीह नहीं करता। यद्यपि उसके पास स्वयं परमेश्वर की पहचान है, फिर भी वह परमपिता परमेश्वर की इच्छा की तलाश करता है और देह के दृष्टिकोण से वह पूरा करता है, जो उसे परमपिता परमेश्वर द्वारा सौंपा गया है। यह कुछ ऐसा है, जो मनुष्य हासिल नहीं कर सकता। जो कुछ शैतान से आता है, उसमें परमेश्वर का सार नहीं हो सकता; उसमें केवल परमेश्वर की अवज्ञा और उसका विरोध हो सकता है। वह पूर्ण रूप से परमेश्वर का आज्ञापालन नहीं कर सकता, स्वेच्छा से परमेश्वर की इच्छा का पालन तो दूर की बात है। मसीह के अलावा सभी पुरुष ऐसा कर सकते हैं, जिससे परमेश्वर का विरोध होता हो, और एक भी व्यक्ति परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कार्य को सीधे नहीं कर सकता; एक भी परमेश्वर के प्रबंधन को अपने कर्तव्य के रूप में मानने में सक्षम नहीं है। मसीह का सार परमपिता परमेश्वर की इच्छा के प्रति समर्पण करना है; परमेश्वर की अवज्ञा शैतान की विशेषता है। ये दोनों विशेषताएं असंगत हैं और कोई भी जिसमें शैतान के गुण हैं, मसीह नहीं कहलाया जा सकता। मनुष्य परमेश्वर के बदले उसका कार्य नहीं कर सकता, इसका कारण है कि मनुष्य में परमेश्वर का कोई भी सार नहीं है। मनुष्य परमेश्वर का कार्य मनुष्य के व्यक्तिगत हितों और भविष्य की संभावनाओं के वास्ते करता है, किंतु मसीह परमपिता परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए कार्य करता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का सार है
परमेश्वर के आत्मा द्वारा धारण की हुई देह परमेश्वर की अपनी देह है। परमेश्वर का आत्मा सर्वोच्च है; वह सर्वशक्तिमान, पवित्र और धार्मिक है। इसी तरह, उसकी देह भी सर्वोच्च, सर्वशक्तिमान, पवित्र और धार्मिक है। इस तरह की देह केवल वह करने में सक्षम है जो मानवजाति के लिए धार्मिक और लाभकारी है, वह जो पवित्र, महिमामयी और प्रतापी है; वह ऐसी किसी भी चीज को करने में असमर्थ है जो सत्य, नैतिकता और न्याय का उल्लंघन करती हो, वह ऐसी किसी चीज को करने में तो बिल्कुल भी समर्थ नहीं है जो परमेश्वर के आत्मा के साथ विश्वासघात करती हो। परमेश्वर का आत्मा पवित्र है, और इसलिए उसका शरीर शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किया जा सकता; उसका शरीर मनुष्य के शरीर की तुलना में भिन्न सार का है। क्योंकि यह परमेश्वर नहीं बल्कि मनुष्य है, जो शैतान द्वारा भ्रष्ट किया गया है; यह संभव नहीं कि शैतान परमेश्वर के शरीर को भ्रष्ट कर सके। इस प्रकार, इस तथ्य के बावजूद कि मनुष्य और मसीह एक ही स्थान के भीतर रहते हैं, यह केवल मनुष्य है, जो शैतान द्वारा काबू और उपयोग किया जाता है और जाल में फँसाया जाता है। इसके विपरीत, मसीह शैतान की भ्रष्टता के लिए शाश्वत रूप से अभेद्य है, क्योंकि शैतान कभी भी उच्चतम स्थान तक आरोहण करने में सक्षम नहीं होगा, और कभी भी परमेश्वर के निकट नहीं पहुँच पाएगा।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2)
परमेश्वर भ्रष्ट मनुष्य को शैतान के प्रभाव से बचा सकता है, परन्तु इस कार्य को सीधे तौर पर परमेश्वर के आत्मा के द्वारा सम्पन्न नहीं किया जा सकता; इसे केवल उस देह के द्वारा सम्पन्न किया जा सकता है जिसे परमेश्वर का आत्मा पहनता है, अर्थात् देहधारी परमेश्वर के देह द्वारा सम्पन्न किया जा सकता है। यह देह मनुष्य भी है और परमेश्वर भी, यह एक सामान्य मानवता धारण किए हुए मनुष्य है और दिव्यता धारण किए हुए परमेश्वर भी है। और इसलिए, हालाँकि यह देह परमेश्वर का आत्मा नहीं है, और पवित्रात्मा से बिल्कुल भिन्न है, फिर भी वह देहधारी स्वयं परमेश्वर है जो मनुष्य को बचाता है, जो पवित्रात्मा है और देह भी है। उसे किसी भी नाम से पुकारो, आखिर वह है स्वयं परमेश्वर ही जो मनुष्यजाति को बचाता है। क्योंकि परमेश्वर का आत्मा देह से अविभाज्य है, और देह का कार्य भी परमेश्वर के आत्मा का कार्य है; अंतर बस इतना ही है कि इस कार्य को पवित्रात्मा की पहचान का उपयोग करके नहीं किया जाता, बल्कि देह की पहचान का उपयोग करके किया जाता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है