अय्यूब परमेश्वर के नाम को धन्य करता है और आशीषों या आपदा के बारे में नहीं सोचता है

29 मई, 2018

एक तथ्य है जिसका पवित्र शास्त्र की अय्यूब की कहानियों में कभी उल्लेख नहीं किया गया है, और यही तथ्य आज हमारे ध्यान का केंद्रबिंदु होगा। यद्यपि अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था या स्वयं अपने कानों से परमेश्वर के वचन कभी नहीं सुने थे, फिर भी अय्यूब के हृदय में परमेश्वर का स्थान था। परमेश्वर के प्रति अय्यूब की प्रवृत्ति क्या थी? जैसा पहले उल्लेख किया गया है, यह थी, "यहोवा का नाम धन्य है।" उसके द्वारा परमेश्वर के नाम को धन्य कहना बेशर्त, संदर्भ से निरपेक्ष था, और किसी तर्क से बंधा नहीं था। हम देखते हैं कि अय्यूब ने अपना हृदय परमेश्वर को दे दिया था, उसे परमेश्वर द्वारा नियंत्रित होने दिया था; अपने हृदय में वह जो सोचता था, वह जो निर्णय लेता था, और वह जिसकी योजना बनाता था वह सब परमेश्वर के लिए खुला छोड़ दिया गया था और परमेश्वर से बंद नहीं रखा गया था। उसका हृदय परमेश्वर के विरोध में खड़ा नहीं हुआ था, और उसने परमेश्वर से कभी नहीं कहा कि वह उसके लिए कुछ करे या उसे कुछ दे, और उसने अंधाधुँध इच्छाएँ नहीं पालीं कि परमेश्वर की उसकी आराधना से उसे कुछ न कुछ प्राप्त जाए। उसने परमेश्वर से किन्हीं लेन-देनों की बात नहीं की, और परमेश्वर से कोई याचनाएँ या माँगें नहीं कीं। उसका परमेश्वर के नाम की स्तुति करना भी सभी चीज़ों पर शासन करने की परमेश्वर की महान सामर्थ्य और अधिकार के कारण था, और वह इस पर निर्भर नहीं था कि उसे आशीषें प्राप्त हुईं या उस पर आपदा टूटी। वह मानता था कि परमेश्वर लोगों को चाहे आशीष दे या उन पर आपदा लाए, परमेश्वर की सामर्थ्य और उसका अधिकार नहीं बदलेगा, और इस प्रकार, व्यक्ति की परिस्थितियाँ चाहे जो हों, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। मनुष्य को धन्य किया जाता है तो परमेश्वर की संप्रभुता के कारण किया जाता है, और इसलिए जब मनुष्य पर आपदा टूटती है, तो वह भी परमेश्वर की संप्रभुता के कारण ही टूटती है। परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार मनुष्य से संबंधित सब कुछ पर शासन करते हैं और उसे व्यवस्थित करते हैं; मनुष्य के सौभाग्य के उतार-चढ़ाव परमेश्वर की सामर्थ्य और उसके अधिकार की अभिव्यंजना हैं, और जिसका चाहे जो दृष्टिकोण हो, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। यही वह है जो अय्यूब ने अपने जीवन के वर्षों के दौरान अनुभव किया था और जानने लगा था। अय्यूब के सभी विचार और कार्यकलाप परमेश्वर के कानों तक पहुँचे थे, और परमेश्वर के सामने आए थे, और परमेश्वर द्वारा महत्वपूर्ण माने गए थे। परमेश्वर ने अय्यूब के बारे में इस ज्ञान को दुलारा, और ऐसा हृदय होने के लिए अय्यूब को सँजोया। यह हृदय सदैव, और सर्वत्र, परमेश्वर के आदेश की प्रतीक्षा करता था, और समय या स्थान चाहे जो हो, उस पर जो कुछ भी टूटता उसका स्वागत करता था। अय्यूब ने परमेश्वर से कोई माँगें नहीं कीं। उसने स्वयं अपने से जो माँगा वह यह था कि परमेश्वर से आई सभी व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करे, स्वीकार करे, सामना करे, और आज्ञापालन करे; अय्यूब इसे अपना कर्तव्य मानता था, और यह ठीक वही था जो परमेश्वर चाहता था। अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था, न ही उसे कोई वचन बोलते, कोई आज्ञा देते, कोई शिक्षा देते, या उसे किसी चीज़ का निर्देश देते सुना था। आज के वचनों में, जब परमेश्वर ने उसे सत्य के संबंध में कोई प्रबुद्धता, मार्गदर्शन या पोषण नहीं दिया था, उसके लिए परमेश्वर के प्रति ऐसा ज्ञान और प्रवृत्ति रख पाना—यह बहुमूल्य था, और उसका ऐसी चीज़ें प्रदर्शित करना परमेश्वर के लिए पर्याप्त था, और उसकी गवाही परमेश्वर द्वारा सराही और सँजोई गई थी। अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा या व्यक्तिगत रूप से उसे कोई शिक्षा देते नहीं सुना था, परंतु परमेश्वर के लिए उसका हृदय और वह स्वयं उन लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक अनमोल थे जो परमेश्वर के सामने केवल गहन सिद्धांतों की शब्दावली में बोल सकते थे, जो केवल शेखी बघार सकते थे, और बलिदान चढ़ाने की बात कर सकते थे, परंतु जिनके पास परमेश्वर का सच्चा ज्ञान कभी नहीं था, और जिन्होंने कभी सच में परमेश्वर का भय नहीं माना था। क्योंकि अय्यूब का हृदय शुद्ध था, और परमेश्वर से छिपा हुआ नहीं था, और उसकी मानवता ईमानदार और दयालु हृदय थी, और वह न्याय से और जो सकारात्मक था उससे प्रेम करता था। केवल इस प्रकार का व्यक्ति ही जो ऐसे हृदय और मानवता से युक्त था, परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर पाने में समर्थ था, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम था। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता देख सकता था, उसका अधिकार और सामर्थ्य देख सकता था, और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारिता प्राप्त करने में समर्थ था। केवल इस जैसा व्यक्ति ही परमेश्वर के नाम की सच्ची स्तुति कर सकता था। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह यह नहीं देखता था कि परमेश्वर उसे आशीष देगा या उसके ऊपर आपदा लाएगा, क्योंकि वह जानता था कि सब कुछ परमेश्वर के हाथ से नियंत्रित होता है, और यह कि मनुष्य का चिंता करना मूर्खता, अज्ञानता, या तर्कहीनता का, और सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य के प्रति संदेह का, और परमेश्वर का भय न मानने का संकेत है। अय्यूब का ज्ञान ठीक वही था जो परमेश्वर चाहता था। तो, क्या परमेश्वर के बारे में अय्यूब का सैद्धांतिक ज्ञान तुम लोगों से अधिक था? चूँकि उस समय परमेश्वर का कार्य और उसके कथन बहुत ही कम थे, इसलिए परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करना कोई आसान बात नहीं थी। अय्यूब के द्वारा ऐसी उपलब्धि बहुत कठिनाई से प्राप्त बड़ी उपलब्धि थी। उसने परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं किया था, न ही कभी परमेश्वर को बोलते सुना था, न ही परमेश्वर का चेहरा देखा था। वह परमेश्वर के प्रति ऐसी प्रवृत्ति रख पाया था तो यह पूरी तरह उसकी मानवता और उसके व्यक्तिगत अनुसरण का परिणाम था, ऐसी मानवता और अनुसरण जो आज के लोगों में नहीं हैं। इस प्रकार, उस युग में, परमेश्वर ने कहा, "क्योंकि उसके तुल्य खरा और सीधा मनुष्य और कोई नहीं है।" उस युग में, परमेश्वर ने पहले ही उसके बारे में ऐसा आँकलन कर लिया था, और ऐसे निष्कर्ष पर पहुँच चुका था। आज तो यह और भी कितना अधिक सत्य होता?

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

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