अगर हम अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के कार्य को स्‍वीकार करते हैं, तो हम कैसे अनन्‍त जीवन का मार्ग पाने की चाहत कर सकते हैं?

12 मार्च, 2021

उत्तर: सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर अंत के दिनों में उस सत्‍य की समग्रता को व्‍यक्‍त करते हैं जो मानव जाति को पूरी तरह शुद्ध कर सकती है और बचा सकती है, ये सत्‍य हमारे भ्रष्‍ट सार और हमारी कमियों के अनुसार व्‍यक्‍त किये जाते हैं, इसका अर्थ यह है कि ये सत्य की वे सच्चाइयां हैं, जो मनुष्यों में होनी चाहिए। परमेश्‍वर चाहते हैं कि हम इन सत्यों को अनन्‍त जीवन के रूप में पाएं। यह सत्‍य अनन्‍त जीवन का वह मार्ग है जो परमेश्‍वर ने हमें दिया है। तो किस प्रकार हम अनन्‍त जीवन की कामना और प्राप्‍ति करें? सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर ने हमारे लिए पहले से ही एक व्‍यावहारिक मार्ग बना रखा है। आइए, सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के वचनों के कुछ और अंशों को पढ़ें:

"अंत के दिनों का कार्य सभी को उनके स्वभाव के आधार पर पृथक करना और परमेश्वर की प्रबंधन योजना का समापन करना है, क्योंकि समय निकट है और परमेश्वर का दिन आ गया है। परमेश्वर उन सभी को, जो उसके राज्य में प्रवेश करते हैं—वे सभी, जो बिलकुल अंत तक उसके वफादार रहे हैं—स्वयं परमेश्वर के युग में ले जाता है। फिर भी, स्वयं परमेश्वर के युग के आगमन से पूर्व, परमेश्वर का कार्य मनुष्य के कर्मों को देखना या मनुष्य के जीवन की जाँच-पड़ताल करना नहीं, बल्कि उसकी अवज्ञा का न्याय करना है, क्योंकि परमेश्वर उन सभी को शुद्ध करेगा, जो उसके सिंहासन के सामने आते हैं। वे सभी, जिन्होंने आज के दिन तक परमेश्वर के पदचिह्नों का अनुसरण किया है, वे लोग हैं, जो परमेश्वर के सिंहासन के सामने आते हैं, और ऐसा होने से, हर वह व्यक्ति, जो परमेश्वर के कार्य को उसके अंतिम चरण में स्वीकार करता है, परमेश्वर द्वारा शुद्ध किए जाने लायक है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के कार्य को उसके अंतिम चरण में स्वीकार करने वाला हर व्यक्ति परमेश्वर के न्याय का पात्र है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)

"आज का विजय कार्य उस सम्पूर्ण साक्ष्य और उस सम्पूर्ण महिमा को पुनः प्राप्त करने और सभी मनुष्यों से परमेश्वर की आराधना करवाने के लिए है, जिससे सृजित जीवों के बीच साक्ष्य हो; कार्य के इस चरण के दौरान यही किए जाने की आवश्यकता है। मनुष्यजाति किस प्रकार जीती जानी है? मनुष्य को सम्पूर्ण रीति से कायल करने के लिए इस चरण के वचनों के कार्य का प्रयोग करके; उसे पूर्णत: अधीन बनाने के लिए, खुलासे, न्याय, ताड़ना और निर्मम श्राप का प्रयोग करके; मनुष्य के विद्रोहीपन के खुलासे और उसके विरोध का न्याय करके, ताकि वह मानवजाति की अधार्मिकता और मलिनता को जान सके और इस तरह वह इनका प्रयोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की विषमता के रूप में कर सके। मुख्यतः, मनुष्य को इन्हीं वचनों से जीता और पूर्णत: कायल किया जाता है। वचन मनुष्यजाति को अन्तिम रूप से जीत लेने के साधन हैं, और वे सभी जो परमेश्वर की जीत को स्वीकार करते हैं, उन्हें उसके वचनों के प्रहार और न्याय को भी स्वीकार करना चाहिए। बोलने की वर्तमान प्रक्रिया, जीतने की ही प्रक्रिया है। और लोगों को किस प्रकार सहयोग देना चाहिए? यह जानकर कि इन वचनों को कैसे खाना-पीना है और उनकी समझ हासिल करके। जहाँ तक लोग कैसे जीते जाते हैं इस की बात है, इसे इंसान खुद नहीं कर सकता। तुम सिर्फ इतना कर सकते हो कि इन वचनों को खाने और पीने के द्वारा, अपनी भ्रष्टता और अशुद्धता, अपने विद्रोहीपन और अपनी अधार्मिकता को जानकर, परमेश्वर के समक्ष दण्डवत हो सकते हो। यदि तुम परमेश्वर की इच्छा को समझकर, इसे अभ्यास में ला सको, और अगर तुम्हारे पास दर्शन हों, और इन वचनों के प्रति पूरी तरह से समर्पित हो सकते हो, और खुद कोई चुनाव नहीं करते हो, तब तुम जीत लिए जाओगे और ये उन वचनों का परिणाम होगा" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'विजय के कार्य की आंतरिक सच्चाई(1)')

"इस युग में परमेश्वर सब मनुष्यों को नियंत्रित करने के लिए मुख्य रूप से वचन का उपयोग करता है। परमेश्वर के वचन के द्वारा मनुष्य का न्याय किया जाता है, उन्हें पूर्ण बनाया जाता है और तब अंत में राज्य में ले जाया जाता है। केवल परमेश्वर का वचन मनुष्य को जीवन दे सकता है, केवल परमेश्वर का वचन ही मनुष्य को ज्योति और अभ्यास का मार्ग दे सकता है, विशेषकर राज्य के युग में। यदि तुम परमेश्वर के वचन को खाते-पीते हो और परमेश्वर के वचन की वास्तविकता को नहीं छोड़ते तो परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाने का कार्य कर पाएगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, राज्य का युग वचन का युग है)

"अब जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है वह है जीवन पर ध्यान केंद्रित करना, मेरे वचनों को और ज्यादा खाना-पीना, मेरे वचनों का अनुभव करना, मेरे वचनों को जानना, मेरे वचनों को सचमुच ही अपना जीवन बना लेना—ये सब मुख्य बातें हैं। जो व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं जी सकता, क्या उसका जीवन परिपक्व हो सकता है? नहीं, यह नहीं हो सकता। तुम्हें हर समय मेरे वचनों के अनुसार जीना चाहिए और मेरे वचनों को जीवन की आचार-संहिता बना लेना चाहिए, इससे तुम लोग महसूस करोगे कि इस आचार-संहिता के साथ व्यवहार करने से परमेश्वर आनंदित होता है, और ऐसा नहीं करने से परमेश्वर घृणा करता है; और धीरे-धीरे तुम सही मार्ग पर चलने लगोगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 22)

"यदि कोई अपना कर्तव्य पूरा करते हुए परमेश्वर को संतुष्ट कर सकता है, और अपने कार्यों और क्रियाकलापों में सैद्धांतिक है और सत्य के समस्त पहलुओं की वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है, तो वह ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर द्वारा पूर्ण किया गया है। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर का कार्य और उसके वचन ऐसे लोगों के लिए पूरी तरह से प्रभावी हो गए हैं, कि परमेश्वर के वचन उनका जीवन बन गए हैं, उन्होंने सच्चाई को प्राप्त कर लिया है, और वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में समर्थ हैं। इसके बाद, उनके देह की प्रकृति—अर्थात, उनके मूल अस्तित्व की नींव—हिलकर अलग हो जाएगी और ढह जाएगी। जब लोग परमेश्वर के वचन को अपने जीवन के रूप में धारण कर लेंगे, तो वे नए लोग बन जाएंगे। अगर परमेश्वर के वचन उनका जीवन बन जाते हैं; परमेश्वर के कार्य का दर्शन, मानवता से उसकी अपेक्षाएँ, मनुष्यों को उसके प्रकाशन, और एक सच्चे जीवन के वे मानक जो परमेश्वर अपेक्षा करता है कि वे प्राप्त करें, उनका जीवन बन जाते हैं, अगर वे इन वचनों और सच्चाइयों के अनुसार जीते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों द्वारा सिद्ध बनाए जाते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों के माध्यम से पुनर्जन्म लेते हैं और नए लोग बन गए हैं" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')

सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के वचनों से हम देख सकते हैं कि अंत के दिनों में परमेश्‍वर का कार्य, वचन का कार्य है। परमेश्‍वर मनुष्‍य का न्याय करने, उसे शुद्ध करने और पूर्ण बनाने के लिए वचन का इस्‍तेमाल करते हैं। अगर हम अनन्‍त जीवन का मार्ग पाने के इच्‍छुक हैं, तो हमें निश्चित रूप से मसीह के आसन के सामने अंत के दिनों के न्याय और ताड़ना को स्‍वीकारना और उसका पालन करना होगा। परमेश्‍वर के वचनों को आत्मसात करते हुए, और उनके वचनों के न्याय और ताड़ना को स्‍वीकार करते हुए, हम सत्‍य को समझते हैं, हमें परमेश्‍वर के धार्मिक स्वभाव को जानने का मौका मिलता है और दिल में परमेश्‍वर के प्रति सच्‍चा भय पैदा होता है, फिर सत्य को समझने के लिए परमेश्‍वर के वचनों का अनुभव करना और उन वचनों की वास्‍तविकता के अनुसार जीना ही अनन्‍त जीवन को पाने का एकमात्र मार्ग है। अब हम सब जानते हैं कि सिर्फ़ अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर द्वारा व्‍यक्‍त वचन ही मनुष्‍य को शुद्ध कर सकते हैं, बचा सकते हैं और उसे पूर्ण बना सकते हैं। अगर हम अनन्‍त जीवन के मार्ग को पाना चाहते हैं, तो हमें सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के वचनों को आत्मसात करने और उन्हें महसूस करने की ज़रूरत है, क्‍योंकि हमारे अंदर शैतान का भ्रष्‍टाचार काफी गहरी पैठ बनाये हुए है। हम पाप में जीते हैं, अपने भविष्‍य और तकदीर को सुरक्षित करने के लिए आँखें मूंदकर काम करते हैं। हम अच्‍छाई और बुराई का अंतर नहीं जानते, हमें अपनी प्रकृति का सार और अपने भ्रष्‍टाचार की सच्चाई भी नहीं मालूम। हम परमेश्‍वर की इच्‍छा को समझ नहीं पाते और हमें परमेश्‍वर का कोई ज्ञान नहीं है, न ही हम यह समझते हैं कि परमेश्‍वर को क्‍या पसंद और क्‍या नासपंद है। हम शैतान के दुष्ट सार को भी नहीं समझ पाते हैं। हम अपनी शैतानी प्रकृति के अनुसार जीते हैं, हम शोहरत और दौलत की कामना करते हैं, साज़िशें रचते हैं, ताकत और दुष्‍टता की तारीफ़ करते हैं, हम स्‍याह को सफ़ेद करते हैं, अपने लालच और लालसा में लिप्‍त रहते हैं, वगैरह वगैरह। हम वास्‍तविक मानवीय गुणों के बगैर, शैतान की राक्षसी छवियों में जीवन यापन करते हैं। सिर्फ़ परमेश्‍वर ही सत्‍य, मार्ग और जीवन हैं। परमेश्‍वर के द्वारा व्‍यक्‍त किये गए सत्य परमेश्‍वर के स्वभाव और उनके अस्तित्‍व का प्रकटीकरण हैं। मानव के लिए न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शुद्धिकरण ही सत्य है। परमेश्‍वर के वचनों से पहले, हम परमेश्‍वर के धार्मिक स्वभाव के आगमन की अनुभूति कर सकते हैं। ठीक उसी तरह जैसे हम जब परमेश्‍वर का प्रकटन देखते हैं तो हमारा हृदय परमेश्‍वर के भय से भर जाता है। हम महसूस करते हैं कि हम निम्‍न, गंदे और छोटे हैं। हम शैतान के द्वारा हमें भ्रष्‍ट किए जाने के सत्य को देखते हैं और यह जानते हैं कि परमेश्‍वर की की अपेक्षाओं पर खरा उतरने से हम कितनी दूर हैं। फिर जब हम व्‍यवहार के ज़रिये और ज्‍़यादा सत्‍य को समझने के नज़दीक आते हैं, तब हम परमेश्‍वर के हृदय के प्रतिकूल अपने कृत्‍यों के लिए शर्म और धिक्कार महसूस करते हैं। सत्‍य एक परीक्षा की तरह कार्य करता है, हम जो काम करते हैं और जिन रास्‍तों पर हम चलते हैं, उनमें सत्‍य एक मार्गदर्शक का काम करता है जो हमारे बोलने और कार्य करने का सिद्धांत बन जाता है। जब ऐसा होता है तो सत्य हमारा जीवन बन जाता है। हम देख सकते हैं कि सत्‍य लोगों को बदल सकता है। यह उनके स्वभाव में परिवर्तन लाकर उन्हें पूर्ण करता है। सत्य मनुष्‍य के अस्तित्‍व के लिए काफ़ी मूल्यवान और महत्वपूर्ण होता है। इसलिए अगर हम अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के द्वारा व्‍यक्‍त किये गए सत्‍य को जीवन की तरह स्‍वीकार करते हैं, तो हम अपने जीवन स्वभाव में परिवर्तन ला सकते हैं, फिर हम मानवता और सत्‍य के साथ रहने वाले लोगों जैसा बन सकते हैं। इस तरह, हम वे लोग हैं जिन्‍हें परमेश्‍वर ने पूर्ण किया और जिन्होंने सत्य को पाया है, हम वे लोग हैं जो शैतान के अंधकारमय असर से बच निकले हैं और परमेश्‍वर की शरण में पहुंच गये हैं, हम वे लोग हैं जो परमेश्‍वर का आज्ञा पालन करते हैं, उनसे प्रेम करते हैं और परमेश्‍वर की इच्‍छा का पालन करते हुए हम उनके अनुरूप हो गए हैं। और हम वे लोग हैं जो अनन्‍त जीवन का मार्ग पा चुके हैं।

"सिंहासन से बहता है जीवन जल" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश

पिछला: प्रभु यीशु ने कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)। बाइबल भी ऐसा ही कहती है: "जो पुत्र पर विश्‍वास करता है, अनन्त जीवन उसका है; परन्तु जो पुत्र की नहीं मानता, वह जीवन को नहीं देखेगा, परन्तु परमेश्‍वर का क्रोध उस पर रहता है" (यूहन्ना 3:36)। हम मानते हैं कि प्रभु यीशु मसीह है, मनुष्य का पुत्र, और यह कि प्रभु यीशु का मार्ग अनंत जीवन का मार्ग है। हम मानते हैं कि जब तक हम प्रभु में विश्वास करते रहें, हम अनन्त जीवन पाने में सक्षम होंगे। परन्तु आप यह गवाही देते हैं कि केवल अंतिम दिनों का मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मनुष्य को अनन्त जीवन का मार्ग प्रदान कर सकता है। क्या आप यह कह रहे हैं कि यदि हम प्रभु यीशु का अनुसरण करते हैं, तो हम अनंत जीवन का मार्ग प्राप्त करने में सक्षम नहीं होंगे? हमें अंतिम दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर, के वचनों और कार्यों को स्वीकार करने की आवश्यकता क्यों है?

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