कौन मानवजाति को बचाकर हमारी तकदीर बदल सकता है?
तकदीर की बात होते ही ज्यादातर लोग इसे पैसे, रुतबे और सफलता से जोड़कर देखने लगते हैं, और सोचते हैं कि दुख और विपदाएँ झेल रहे गरीब और गुमनाम लोग, जिन्हें नीची नजर से देखा जाता है, खराब तकदीर वाले हैं। इसलिए अपनी तकदीर बदलने के लिए वे ज्ञान के पीछे भागते हैं, इस उम्मीद से कि इससे उनके पास पैसा और रुतबा आएगा और उनकी किस्मत बदलेगी। क्या पैसे, रुतबे और सफलता का होना सचमुच अच्छी तकदीर होना है? क्या विपत्तियाँ और असफलताएँ झेलना सचमुच बुरी तकदीर होना है? ज्यादातर लोगों को इसकी सही समझ नहीं है और अपनी किस्मत बदलने के लिए जोर-शोर से ज्ञान बटोरने में जुटे हुए हैं। पर क्या ज्ञान किसी इंसान की तकदीर बदल सकता है? कौन मानवजाति को सचमुच बचाकर हमारी तकदीर बदल सकता है? आज इस सवाल पर सोच-विचार करते हैं।
रोज़मर्रा की जिंदगी में हम देखते हैं कि ज्ञान प्राप्त करने वाले बहुत-से लोग पैसा और रुतबा भी कमा सकते हैं। वे अमीर होने के साथ-साथ मशहूर या तारीफ के काबिल भी हो सकते हैं। ऐसा लगता है कि कामयाब और जाने-माने लोगों की तकदीर बहुत शानदार होती है। पर क्या यह सच है? क्या वे सचमुच खुश होते हैं? उनके पास ताकत, दबदबा और चमक-दमक हो सकती है, पर फिर भी वे एक खालीपन और उदासी के शिकार हो सकते हैं और जीने की उमंग खो सकते हैं। कुछ तो ड्रग्स लेने लगते हैं या खुदकुशी कर लेते हैं। और कुछ अपनी ताकत और दबदबे का गलत इस्तेमाल करके मनमानी करने लगते हैं, बुराइयाँ और अपराध करने लगते हैं, और आखिर में सारी इज्जत गँवाकर जेल में सड़ते हैं। इनमें से क्या ज्यादातर पढ़े-लिखे नहीं होते? इतने समझदार दिखने वाले लोग, जो कानून को अच्छी तरह से समझते हैं, ऐसे खतरनाक काम क्यों करते हैं? वे ऐसे वाहियात काम क्यों करते हैं? ऐसा कैसे हो जाता है? आजकल हर कोई शिक्षा पाना चाहता है, ज्ञान बटोरना चाहता है, और हर देश के शासक वर्ग पढ़े-लिखे बौद्धिक वर्ग हैं। उन लोगों के पास सत्ता है, और वे दुनिया के सबसे होनहार लोग हैं। अब सवाल उठता है कि जब बागडोर बौद्धिक वर्ग के हाथ में हो, तो दुनिया को और ज्यादा सभ्य और मिलनसार होना चाहिए, पर दुनिया में दरअसल हो क्या रहा है? यह दिनोदिन बेकाबू होकर नरक बनती जा रही है, लोग एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं, झगड़ा और मारकाट कर रहे हैं। वे सब परमेश्वर को नकारते हैं, उसका प्रतिरोध करते हैं, सत्य से नफरत और बुराई की तारीफ करते हैं, पछतावा तो दूर की बात है, जो परमेश्वर के क्रोध और इंसान की नाराज़गी को बढ़ाता है। एक के बाद एक तबाहियाँ आ रही हैं और दुनिया एक महायुद्ध के कगार पर खड़ी है। यह साफ जाहिर है कि बौद्धिक वर्ग के राज से भी दुनिया में शांति और खुशहाली नहीं आई है, बल्कि और ज्यादा तबाहियाँ और मुसीबतें आ रही हैं। महामारियाँ फैल रही हैं, लड़ाइयाँ छिड़ रही हैं, भूचाल और अकाल भी पीछा नहीं छोड़ रहे। लोग डरे हुए हैं, मानो दुनिया का अंत आने वाला हो। इन सबका असली कारण क्या है? ज्ञान, ताकत और रुतबा आ जाने के बाद भी लोग इतने भयानक काम क्यों करते हैं? क्या कारण है कि बौद्धिक वर्ग के हाथ में बागडोर होने से देश और लोग इतनी तबाही झेल रहे हैं? यह सचमुच काबिले-गौर है! क्या ज्ञान प्राप्त करने से कोई बेहतर और पाप से मुक्त हो सकता है? क्या ज्ञान प्राप्त करने से लोग भले बन सकते हैं और बुराई से दूर रह सकते हैं? क्या ज्ञान लोगों को पाप से और शैतान की ताकतों से बचा सकता है? लोगों की तकदीर बदलने की ज्ञान की क्षमता पर मेरा संदेह बढ़ता जा रहा है। ऐसा क्यों है कि ज्ञान और रुतबा हासिल करने के बाद ज्यादातर लोग अहंकारी और आत्म-तुष्ट हो जाते हैं? ऐसा क्यों है कि ज्ञान बढ़ने के साथ उनकी आत्म-मुग्धता भी बढ़ती जाती है? सत्ता मिलने के बाद वे पथभ्रष्ट और मनमानी करने वाले हो जाते हैं, सब तहस-नहस और बर्बाद करते चले जाते हैं। होना तो यह चाहिए कि बेहतर शिक्षा और अधिक विकसित विज्ञान के साथ, देश का प्रशासन और बेहतर होना चाहिए, लोग ज्यादा सभ्य, खुशहाल और स्वस्थ होने चाहिए। पर क्या ऐसा कोई देश सचमुच अस्तित्व में है। बिल्कुल नहीं। यह सोचकर लोग सिर खुजाते रह जाते हैं। मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा था : “मानवजाति द्वारा सामाजिक विज्ञानों के आविष्कार के बाद से मनुष्य का मन विज्ञान और ज्ञान से भर गया है। तब से विज्ञान और ज्ञान मानवजाति के शासन के लिए उपकरण बन गए हैं, और अब मनुष्य के पास परमेश्वर की आराधना करने के लिए पर्याप्त गुंजाइश और अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं रही हैं। मनुष्य के हृदय में परमेश्वर की स्थिति सबसे नीचे हो गई है। हृदय में परमेश्वर के बिना मनुष्य की आंतरिक दुनिया अंधकारमय, आशारहित और खोखली है। बाद में मनुष्य के हृदय और मन को भरने के लिए कई समाज-वैज्ञानिकों, इतिहासकारों और राजनीतिज्ञों ने सामने आकर सामाजिक विज्ञान के सिद्धांत, मानव-विकास के सिद्धांत और अन्य कई सिद्धांत व्यक्त किए, जो इस सच्चाई का खंडन करते हैं कि परमेश्वर ने मनुष्य की रचना की है, और इस तरह, यह विश्वास करने वाले बहुत कम रह गए हैं कि परमेश्वर ने सब-कुछ बनाया है, और विकास के सिद्धांत पर विश्वास करने वालों की संख्या और अधिक बढ़ गई है। अधिकाधिक लोग पुराने विधान के युग के दौरान परमेश्वर के कार्य के अभिलेखों और उसके वचनों को मिथक और किंवदंतियाँ समझते हैं। अपने हृदयों में लोग परमेश्वर की गरिमा और महानता के प्रति, और इस सिद्धांत के प्रति भी कि परमेश्वर का अस्तित्व है और वह सभी चीज़ों पर प्रभुत्व रखता है, उदासीन हो जाते हैं। मानवजाति का अस्तित्व और देशों एवं राष्ट्रों का भाग्य उनके लिए अब और महत्वपूर्ण नहीं रहे, और मनुष्य केवल खाने-पीने और भोग-विलासिता की खोज में चिंतित, एक खोखले संसार में रहता है। ... कुछ लोग स्वयं इस बात की खोज करने का उत्तरदायित्व लेते हैं कि आज परमेश्वर अपना कार्य कहाँ करता है, या यह तलाशने का उत्तरदायित्व कि वह किस प्रकार मनुष्य के गंतव्य पर नियंत्रण और उसकी व्यवस्था करता है। और इस तरह, मनुष्य के बिना जाने ही मानव-सभ्यता मनुष्य की इच्छाओं के अनुसार चलने में और भी अधिक अक्षम हो गई है, और कई ऐसे लोग भी हैं, जो यह महसूस करते हैं कि इस प्रकार के संसार में रहकर वे, उन लोगों के बजाय जो चले गए हैं, कम खुश हैं। यहाँ तक कि उन देशों के लोग भी, जो अत्यधिक सभ्य हुआ करते थे, इस तरह की शिकायतें व्यक्त करते हैं। क्योंकि परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना शासक और समाजशास्त्री मानवजाति की सभ्यता को सुरक्षित रखने के लिए अपना कितना भी दिमाग क्यों न ख़पा लें, कोई फायदा नहीं होगा। मनुष्य के हृदय का खालीपन कोई नहीं भर सकता, क्योंकि कोई मनुष्य का जीवन नहीं बन सकता, और कोई सामाजिक सिद्धांत मनुष्य को उस खालीपन से मुक्ति नहीं दिला सकता, जिससे वह व्यथित है। विज्ञान, ज्ञान, स्वतंत्रता, लोकतंत्र, फुरसत, आराम : ये मनुष्य को केवल अस्थायी सांत्वना देते हैं। यहाँ तक कि इन बातों के साथ भी मनुष्य पाप करता और समाज के अन्याय का रोना रोता है। ये चीज़ें मनुष्य की अन्वेषण की लालसा और इच्छा को दबा नहीं सकतीं। ... मनुष्य आखिरकार मनुष्य है, और परमेश्वर का स्थान और जीवन किसी मनुष्य द्वारा प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता। मानवजाति को केवल एक निष्पक्ष समाज की ही आवश्यकता नहीं है, जिसमें हर व्यक्ति को नियमित रूप से अच्छा भोजन मिलता हो और जिसमें सभी समान और स्वतंत्र हों, बल्कि मानवजाति को आवश्यकता है परमेश्वर के उद्धार और अपने लिए जीवन की आपूर्ति की। केवल जब मनुष्य परमेश्वर का उद्धार और जीवन की आपूर्ति प्राप्त करता है, तभी उसकी आवश्यकताओं, अन्वेषण की लालसा और आध्यात्मिक रिक्तता का समाधान हो सकता है। यदि किसी देश या राष्ट्र के लोग परमेश्वर के उद्धार और उसकी देखभाल प्राप्त करने में अक्षम हैं, तो वह देश या राष्ट्र पतन के मार्ग पर, अंधकार की ओर चला जाएगा, और परमेश्वर द्वारा जड़ से मिटा दिया जाएगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है)।
परमेश्वर के वचन कितने सही हैं, वे मामले की सच्चाई को प्रकट करते हैं। ज्ञान कैसे पैदा होता है? इसमें कोई शक नहीं है कि यह उन मशहूर और महान लोगों से आया है जिनकी पूरे इतिहास में झूठी तारीफ की जाती रही है। कन्फ्यूशीवाद, डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत, मार्क्स का कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो और साम्यवाद का सिद्धांत। नास्तिकता, भौतिकवाद और विकासवाद का सिद्धांत, सभी इन मशहूर लोगों द्वारा किताबों में लिखे गए विचारों और सिद्धांतों से उपजे हैं, और यही हमारे आधुनिक समाज में विज्ञान और सिद्धांत के आधार हैं। इन सभी मतों और सिद्धांतों को ही तमाम सदियों में शासक वर्गों द्वारा बढ़ावा दिया गया है। इन्हें पाठ्य-पुस्तकों और कक्षाओं में पढ़ाया जाता है, और ये मानवता के सिद्धांत-वाक्य बन गए हैं। ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी मानवजाति को शिक्षित, कमज़ोर और संज्ञाशून्य करते रहे हैं, इंसान को गुमराह और भ्रष्ट करने के लिए शासक वर्गों के औजार बन गए हैं। पूरी मानवजाति इस ज्ञान और विज्ञान के शिक्षण और प्रभाव से दिनोदिन ज्यादा से ज्यादा भ्रष्ट होती रही है, समाज अंधकार और अराजकता में घिरता चला गया है, इसे देखते हुए परमेश्वर और इंसान, दोनों ही परेशान हैं। अब दिनोदिन और ज्यादा तबाहियाँ आ रही हैं और आपदाएँ भी थम नहीं रही हैं। किसी भी समय कोई महायुद्ध छिड़ सकता है। लोग डरे हुए हैं, मानो दुनिया का अंत आ पहुंचा हो। हम यह सोचने को मजबूर हो गए हैं कि विज्ञान और ज्ञान सचमुच सत्य हैं या नहीं। लोग इन्हीं के पीछे पड़े हुए हैं, पर वे न तो पाप से बच पा रहे हैं और न खुश हैं, उल्टे और ज्यादा भ्रष्ट और बुरे होते जा रहे हैं, पाप और दुखों के चुंगल से निकलना मुश्किल हो गया है। चलो हम उन मशहूर और महान लोगों का सार जानने की कोशिश करते हैं जिन्हें हर कोई पूज रहा है। वे सभी नास्तिक और विकासवादी रहे हैं, जो परमेश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं। वे नहीं मानते कि परमेश्वर का अस्तित्व है और हर चीज पर उसका राज है। वे अपनी सभी चर्चाओं में परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों को स्वीकार नहीं करते, समाज पर छाए अंधकार के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलते; शैतान द्वारा इंसान को भ्रष्ट बनाए जाने के सार और वास्तविकता पर कुछ नहीं कहते; शासक वर्गों की दुष्ट प्रकृति और सार के बारे में कुछ नहीं कहते, न ही परमेश्वर के अस्तित्व और उसके कार्य की गवाही देते हैं, वे परमेश्वर के कर्मों या उसके प्रेम की गवाही भी नहीं देते, न ही परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुसार चलते हैं। उनके सभी शब्द सिर्फ पाखंड और भ्रांतियाँ हैं, वे परमेश्वर को नकारते और उसका विरोध करते हैं। कुल मिलाकर, उनकी सारी चर्चाएँ शासक वर्गों के हितों को बनाए रखने के लिए होती हैं, मानवजाति को गुमराह और भ्रष्ट करने, नुकसान पहुंचाने के लिए होती हैं, परिणाम स्वरूप वे मानवजाति को अंधेरे और बुराई के रास्ते पर ले आए हैं, और मानवजाति शैतान के रंग में रंग गई है, जो परमेश्वर का विरोध करना, उसे धोखा देना सिखाता है। शासक वर्गों में किस तरह के लोग हैं? क्या वे सदाचारी और बुद्धिमान हैं? बिल्कुल नहीं। उनमें एक भी सदाचारी और बुद्धिमान नहीं है। उनके तथाकथित गुणों और बुद्धिमानी का पर्दाफाश हो चुका है, और पर्दे के पीछे किए गए उनके सभी अपराध सामने आ चुके हैं। जाहिर है कि शैतान द्वारा इंसान को भ्रष्ट किए जाने के पूरे इतिहास में कोई भी सदाचारी और बुद्धिमान शासक नहीं हुआ, सत्ता पर काबिज सभी लोग शैतान और दानवों के प्रतिरूप रहे हैं। उनके किन विचारों और सिद्धांतों ने इंसान को सबसे अधिक गहराई से भ्रष्ट किया है? नास्तिकता, भौतिकवाद, विकासवाद और साम्यवाद ने। उन्होंने तरह-तरह की विधर्मी बातें और भ्रांतियाँ फैला दी हैं, जैसे कि “कोई परमेश्वर नहीं है” और “कभी भी कोई उद्धारकर्ता नहीं हुआ है,” “किसी व्यक्ति की नियति उसी के हाथ में होती है” और “ज्ञान आपके भाग्य को बदल सकता है।” ये बातें छोटी उम्र से ही लोगों के दिलों में बस जाती हैं और जड़ें फैलाती जाती हैं। नतीजा क्या होता है? लोग परमेश्वर को और उससे आने वाली हर चीज को नकारने लगते हैं, यह भी कि परमेश्वर ने स्वर्ग, धरती और सभी कुछ बनाया है और वह सब पर राज करता है। इंसान को परमेश्वर ने बनाया, पर वे इस सच से इनकार करते हैं, और सत्य को तोड़-मरोड़कर कहते हैं कि इंसान बंदर से विकसित हुआ, जैसे कि इंसान भी कोई पशु हो। ये भ्रांतियाँ, ऊलजलूल बौद्धिक परिकल्पनाएं लोगों के मन में बस जाती हैं, और उनके दिलोदिमाग पर छाकर उनकी प्रकृति का हिस्सा बन जाती हैं, इसलिए वे परमेश्वर को नकारकर उससे दूर होने लगते हैं, उनके लिए सत्य को स्वीकारना दिनोदिन मुश्किल होता जाता है। वे ज्यादा अहंकारी, दुष्ट और भ्रष्ट भी होते जाते हैं। वे अपनी अंतरात्मा और अपना विवेक खो बैठते हैं, अपनी मानवता से वंचित होकर उद्धार की संभावना से दूर होते जाते हैं। शैतान ने इस हद तक इंसान को भ्रष्ट कर दिया है कि वह दानव बनकर रह गया है। अपनी तकदीर बदलने के लिए ज्ञान के पीछे भागने का यह भयानक नतीजा हुआ है। तथ्यों से पता चलता है कि विज्ञान और ज्ञान सत्य नहीं हैं और वे हमारा जीवन नहीं बन सकते, बल्कि वे सत्य से उलट हैं और सत्य के अनुरूप नहीं हैं। वे सिर्फ मानवजाति को भ्रष्ट करते हैं, नुकसान पहुंचाते हैं, बर्बाद करते हैं।
पर ये चीजें सत्य क्यों नहीं हैं? इसलिए कि यह ज्ञान परमेश्वर से नहीं आता, यह शैतान द्वारा मनुष्य की भ्रष्टता से आता है। यह उन मशहूर और महान लोगों से आता है जिनकी भ्रष्ट मानवजाति पूजा करती है। इसलिए हम पक्के तौर पर कह सकते हैं कि ज्ञान सत्य नहीं है। पर ऐसा क्यों है? पहली बात, ज्ञान से लोग अपने भ्रष्ट सार को नहीं जान सकते और आत्म-ज्ञान नहीं पा सकते। दूसरे, ज्ञान लोगों के भ्रष्ट स्वभाव को स्वच्छ नहीं कर सकता, उल्टे उन्हें ज्यादा अहंकारी बनाता जाता है। तीसरे, ज्ञान इंसान को पाप से बचाकर उसे शुद्ध नहीं कर सकता। चौथे, ज्ञान लोगों को सत्य की समझ देकर उन्हें परमेश्वर को जानने और उसके आगे समर्पण करने में मदद नहीं कर सकता। पांचवें, ज्ञान लोगों को सच्ची खुशी नहीं दे सकता और उनके जीवन में प्रकाश नहीं ला सकता, खासकर उन्हें एक सुंदर मंजिल नहीं दे सकता। और इसलिए, ज्ञान सत्य नहीं है, यह इंसान को पाप या शैतान की ताकतों से नहीं बचा सकता। इसलिए हम पक्के तौर पर कह सकते हैं कि ज्ञान इंसान का भाग्य नहीं बदल सकता। सिर्फ परमेश्वर से आने वाली चीज ही सत्य है, सिर्फ परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। सिर्फ सत्य ही लोगों का जीवन हो सकता है और उनकी भ्रष्टता को शुद्ध कर सकता है, उन्हें पाप से बचाकर पवित्र बना सकता है। सिर्फ सत्य से ही लोग अपनी अंतरात्मा और अपने विवेक को वापस पा सकते हैं और एक सच्चे इंसान की तरह जीवनयापन कर सकते हैं। सिर्फ सत्य ही लोगों को जीवन में सही दिशा और लक्ष्य दे सकता है, सिर्फ सत्य ही उन्हें परमेश्वर को जानने में मदद कर सकता है, उन्हें उसकी आशीष और एक सुंदर मंजिल दिलवा सकता है। इसलिए देहधारी परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया सत्य ही मानवजाति को शैतान की ताकतों से बचाकर उसे पूरी तरह परमेश्वर की तरफ मोड़ सकता है। सिर्फ उद्धारकर्ता ही मानवजाति को बचाकर उसकी तकदीर बदल सकता है, हमें एक शानदार मंजिल दे सकता है। तो ज्ञान इंसान को क्यों नहीं बचा सकता? क्योंकि शैतान ने इंसान को बहुत गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है, वह शैतानी प्रकृति और शैतानी स्वभाव के साथ जी रहा है, पाप और बुराई करता जा रहा है। वह अनुकूल माहौल में कोई भी बुराई करने में सक्षम है, और सत्ता मिलते ही अपना असली रंग दिखाते हुए मनमानी करने लगता है। और ज्ञान भ्रष्ट मानवजाति से, शैतान से आता है, इसलिए ज्ञान सत्य नहीं है। भ्रष्ट इंसान कितना भी क्यों न सीख ले, वह अपनी भ्रष्टता के सार और सत्य को नहीं जान सकता, और वह सचमुच प्रायश्चित करके परमेश्वर की तरफ नहीं मुड़ सकता। ज्ञान की कितनी भी मात्रा मनुष्य की पापी प्रकृति को नहीं बदल सकती, उसके भ्रष्ट स्वभाव को बदलना तो दूर की बात है। भ्रष्ट मानवजाति कितना भी क्यों न जानती हो, वह पाप या शैतान की ताकतों से नहीं बच सकती, और पवित्रता प्राप्त नहीं कर सकती। सत्य को स्वीकारे बिना वह परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं हो सकती, और अपनी पापी प्रकृति से मुक्त नहीं हो सकती। भ्रष्ट इंसान का ज्ञान जितना ऊंचा होता है, उसके लिए सत्य को स्वीकारना उतना ही मुश्किल होता है। परमेश्वर को नकारने और उसका विरोध करने की उतनी ही ज्यादा संभावना होती है। जब लोग और ज्यादा ज्ञान के पीछे भागते हैं तो वे अहंकारी और आत्म-तुष्ट होते जाते हैं, और उतने ही महत्वाकांक्षी भी। वे पाप के रास्ते पर भटकने से बच नहीं पाते। यह कारण है कि ज्ञान लोगों को सिर्फ भ्रष्ट और बर्बाद करता है, नुकसान पहुंचाता है। बहुत-से लोग ज्ञान के असली सार को नहीं देख पाते, इसकी सच्चाई नहीं जान पाते। वे इस ज्ञान के स्रोत को नहीं देख पाते, और सत्य के बजाय अंधाधुंध ज्ञान के पीछे भागते हैं और इसकी पूजा करते हैं। वे सब नामी लोग शक्तिशाली हो जाने के बाद इतनी बुराइयाँ क्यों करते हैं, लोगों को कष्ट क्यों देते हैं और देश को नुकसान क्यों पहुंचाते हैं? उनके कारण आपदाएँ आती हैं, उनके गलत कामों का कोई अंत नहीं होता। ये सब ज्ञान के पीछे भागने और उसकी पूजा करने के परिणाम हैं। इससे हमें पता चलता है कि ज्ञान किसी व्यक्ति का भाग्य नहीं बदल सकता, और किसी का ज्ञान कितना ही ऊंचा क्यों न हो, अगर उनमें आस्था नहीं है और वे सत्य को नहीं स्वीकारते, तो परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा। उनका ज्ञान कितना ही ऊंचा क्यों न हो, उन्हें परमेश्वर से आशीष नहीं मिलेगी, न ही उनकी तकदीर अच्छी होगी, और वे मरने के बाद नरक में जाएंगे। परमेश्वर धार्मिक है और मनुष्य के भाग्य का विधाता है, इसलिए जिसे उसकी स्वीकृति और आशीष प्राप्त नहीं है उसकी तकदीर अच्छी नहीं हो सकती। उसकी तबाही और बर्बादी और नरक में जाना निश्चित है।
अब समझदार लोगों ने ज्ञान की उपासना करना छोड़ दिया है और पवित्र मसीह के, उद्धारकर्ता के आने और मानवजाति को बचाने की कामना कर रहे हैं। किसी को भी उम्मीद नहीं है कि मशहूर और महान लोग मानवजाति को बचाएंगे। वे खुद को ही नहीं बचा सकते, तो पूरी मानवजाति को कैसे बचाएंगे? तथ्य हमें बताते हैं कि ज्ञान एक अच्छी तकदीर का भरोसा नहीं दिला सकता, और विज्ञान और शिक्षा के ज़रिये विकास की बात फिजूल है। सिर्फ उद्धारकर्ता ही मानवजाति को पाप और शैतान की ताकतों से बचा सकता है; सिर्फ उद्धारकर्ता ही सत्य व्यक्त करके हमें प्रकाश के मार्ग पर ले जा सकता है; उद्धारकर्ता द्वारा व्यक्त सभी सत्यों को स्वीकार करके ही हम शैतान की भ्रष्टता से मुक्त हो सकते हैं और परमेश्वर द्वारा पूरी तरह बचाए जा सकते हैं, उसकी स्वीकृति और आशीष पा सकते हैं। सिर्फ इसी तरीके से हमारी तकदीर पूरी तरह बदल सकती है। यह साफ है कि उद्धारकर्ता के प्रकटन और कार्य को स्वीकार करके, अंत के दिनों में उसके द्वारा व्यक्त सभी सत्यों को स्वीकार करके, और अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय को स्वीकार करके और शोधन से गुजरकर ही तकदीर में बदलाव आता है। आसान शब्दों में कहें तो, किसी की तकदीर को सचमुच बदलने का एकमात्र तरीका सत्य को स्वीकार करना है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “परमेश्वर ने इस संसार की सृष्टि की, उसने इस मानवजाति को बनाया, और इतना ही नहीं, वह प्राचीन यूनानी संस्कृति और मानव-सभ्यता का वास्तुकार भी था। केवल परमेश्वर ही इस मानवजाति को सांत्वना देता है, और केवल परमेश्वर ही रात-दिन इस मानवजाति का ध्यान रखता है। मानव का विकास और प्रगति परमेश्वर की संप्रभुता से जुड़ी है, मानव का इतिहास और भविष्य परमेश्वर की योजनाओं में निहित है। यदि तुम एक सच्चे ईसाई हो, तो तुम निश्चित ही इस बात पर विश्वास करोगे कि किसी भी देश या राष्ट्र का उत्थान या पतन परमेश्वर की योजनाओं के अनुसार होता है। केवल परमेश्वर ही किसी देश या राष्ट्र के भाग्य को जानता है और केवल परमेश्वर ही इस मानवजाति की दिशा नियंत्रित करता है। यदि मानवजाति अच्छा भाग्य पाना चाहती है, यदि कोई देश अच्छा भाग्य पाना चाहता है, तो मनुष्य को परमेश्वर की आराधना में झुकना होगा, पश्चात्ताप करना होगा और परमेश्वर के सामने अपने पाप स्वीकार करने होंगे, अन्यथा मनुष्य का भाग्य और गंतव्य एक अपरिहार्य विभीषिका बन जाएँगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है)।
अब हम साफ-साफ देख सकते हैं कि बुद्धिजीवी खुद को भी नहीं बचा सकते, तो वे मानवजाति को क्या बचाएंगे? सिर्फ उद्धारकर्ता ही मनुष्य को पाप से बचा सकता है, उसे प्रकाश, खुशी और एक सुंदर मंजिल दे सकता है। तो फिर उद्धारकर्ता कौन है? इसमें कोई संदेह नहीं कि वह मनुष्य के रूप में देहधारी परमेश्वर है, जो उद्धार के कार्य के लिए मनुष्यों के बीच आया है। वह हमारा उद्धारकर्ता है। हम कह सकते हैं कि उद्धारकर्ता परमेश्वर का मूर्त रूप है, वह मनुष्य की देह धारण किए परमेश्वर है। देहधारण का यही अर्थ है। इसलिए देहधारी परमेश्वर हमारे बीच आया उद्धारकर्ता है। मानवजाति को रचने के बाद से परमेश्वर उसे बचाने के लिए दो बार देहधारण कर चुका है। 2,000 साल पहले उसने प्रभु यीशु के रूप में देहधारण किया और एक उपदेश में कहा, “मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है” (मत्ती 4:17)। उसने बहुत-से सत्य व्यक्त किये और आखिर में मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए पापबलि के रूप में सलीब पर चढ़ गया। यह मनुष्य के लिए परमेश्वर के प्रेम का स्पष्ट प्रमाण था। दुनिया भर के लोगों ने प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता माना, और अपने पाप स्वीकार करके प्रायश्चित किया तो उनके पापों को माफ कर दिया गया। उन्हें परमेश्वर की भरपूर कृपा के साथ-साथ शांति और आनंद प्राप्त हुआ। जब प्रभु यीशु ने छुटकारे का अपना काम पूरा किया तो उसने कई बार भविष्यवाणी की, “शीघ्र आनेवाला हूँ” और “मनुष्य के पुत्र का भी आना।” “क्योंकि जिस घड़ी के विषय में तुम सोचते भी नहीं हो, उसी घड़ी मनुष्य का पुत्र आ जाएगा” (मत्ती 24:44)। यही कारण है कि प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता मानने वाला हर व्यक्ति अंत के दिनों में उसके आने की प्रतीक्षा कर रहा है, ताकि वह उन्हें बचाकर स्वर्ग के राज्य में ले जा सके। प्रभु यीशु ने भविष्यवाणी की थी, “मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा” (यूहन्ना 16:12-13)। “सत्य के द्वारा उन्हें पवित्र कर : तेरा वचन सत्य है” (यूहन्ना 17:17)। अपनी इन भविष्यवाणियों के आधार पर, परमेश्वर अंत के दिनों में मनुष्य के पुत्र के रूप में देहधारण करेगा और मानवजाति का शोधन करके उसे बचाने के लिए सत्य व्यक्त करेगा, ताकि मानवजाति को एक सुंदर मंजिल पर ले जाया जा सके। इसलिए अंत के दिनों का देहधारी परमेश्वर मनुष्य के सामने प्रकट हुआ उद्धारकर्ता है। तो हमें उद्धारकर्ता का स्वागत कैसे करना चाहिए? प्रभु यीशु ने कहा था, “मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं” (यूहन्ना 10:27)। “जिसके कान हों वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है” (प्रकाशितवाक्य 2:7)। प्रभु यीशु ने हमें बार-बार याद दिलाया कि प्रभु का स्वागत करने के लिए अहम बात परमेश्वर की वाणी को सुनना है, और अंत के दिनों में उसके वापस आने पर परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों को स्वीकार करना है। अब तबाहियाँ हमारी आँखों के सामने हैं। हम देख सकते हैं कि पूरी दुनिया में सिर्फ सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने ही मानवजाति को बचाने वाले सभी सत्य व्यक्त किए हैं, और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अलावा किसी ने भी सत्य व्यक्त नहीं किए हैं। इससे साबित होता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही लौटकर आया प्रभु यीशु है, वह अंत के दिनों में मानवजाति को बचाने के लिए आया उद्धारकर्ता है। यह एक बेहद शुभ समाचार है। अपनी तकदीर बदलने का इकलौता तरीका यह है कि हम उद्धारकर्ता के उद्धार को स्वीकार कर लें, और परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों को स्वीकार कर लें।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “अंत के दिनों का मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन तमाम विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने बहुत सारे सत्य व्यक्त किए हैं, जो वचन देह में प्रकट होता है जैसी परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों में संकलित हैं, ऐसे लाखों वचन हैं। ये सभी सत्य अंत के दिनों के अपने न्याय कार्य में परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए हैं, ये व्यवस्था के युग में और अनुग्रह के युग में परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों से बहुत ज़्यादा हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मानवजाति को बचाने के लिए अपनी प्रबंधन योजना के सभी रहस्यों को उजागर कर दिया है, उसने बाइबल के उन सभी रहस्यों को भी उजागर कर दिया है जिन्हें लोग कभी नहीं समझ पाए थे, उसने शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने के सत्य और हमारी शैतानी, परमेश्वर-विरोधी प्रकृति को भी उजागर कर दिया है। इससे हमें अपने पापों की जड़ को और हमारी भ्रष्टता की सच्चाई को समझने में मदद मिलती है। तथ्यों के सामने लोग पूरी तरह आश्वस्त हो जाते हैं और खुद से नफरत करने, पछताने और सच्चा प्रायश्चित करने लगते हैं। परमेश्वर वे सभी सत्य भी व्यक्त करता है जिनका अभ्यास करके हमें उनमें प्रवेश करने की जरूरत है, ताकि हम उसके वचनों के अनुसार जी सकें और एक सच्चे इंसान की तरह और सत्य के अनुरूप जीवनयापन कर सकें। परमेश्वर का भरोसा और आशीषें पाने का यही एकमात्र तरीका है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने इतने सारे सत्य व्यक्त किए हैं, जो सब मनुष्य की भ्रष्टता के शुद्धिकरण और हमें शैतान की ताकतों से बचाने के लिए हैं, ताकि हम परमेश्वर की तरफ मुड़ सकें और उसे जान सकें। ये सत्य उद्धार पाने के लिए एकमात्र जीवन-मंत्र और सीख हैं, ये मनुष्य की तकदीर में क्रांतिकारी बदलाव के लिए काफी हैं, ताकि वे एक सुंदर मंजिल यानी परमेश्वर के राज्य में प्रवेश पा सकें। बड़ी तबाहियाँ पहले ही आनी शुरू हो चुकी हैं, अपनी नेक आशाओं को साकार करने का यही तरीका है कि हम उद्धारकर्ता के प्रकटन और कार्य को स्वीकार कर लें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी सत्यों को स्वीकार करके ही हम उसकी स्वीकृति पा सकते हैं, तबाहियों के दौरान उसकी सुरक्षा और आशीषें पा सकते हैं, और परमेश्वर द्वारा बचाकर उसके राज्य में ले जाए जा सकते हैं। अगर लोग उद्धारकर्ता द्वारा व्यक्त सभी सत्यों को स्वीकार नहीं करते, और तबाहियों से बचने के लिए सिर्फ अपनी कल्पनाओं के झूठे परमेश्वर या किसी दुष्ट आत्मा की प्रतीक्षा करते रहते हैं, तो यह सिर्फ एक छलावा है। उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा और वे खाली हाथ रह जाएंगे। झूठे परमेश्वर और दुष्ट आत्माएँ लोगों को नहीं बचा सकतीं। सिर्फ देहधारी परमेश्वर, उद्धारकर्ता ही मानवजाति को बचा सकता है, एक अच्छी तकदीर और अच्छी मंजिल पाने का यही एक तरीका है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “अंत के दिनों का मसीह जीवन लाता है, और सत्य का स्थायी और शाश्वत मार्ग लाता है। यह सत्य वह मार्ग है, जिसके द्वारा मनुष्य जीवन प्राप्त करता है, और यही एकमात्र मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्य परमेश्वर को जानेगा और परमेश्वर द्वारा स्वीकृत किया जाएगा। यदि तुम अंत के दिनों के मसीह द्वारा प्रदान किया गया जीवन का मार्ग नहीं खोजते, तो तुम यीशु की स्वीकृति कभी प्राप्त नहीं करोगे, और स्वर्ग के राज्य के द्वार में प्रवेश करने के योग्य कभी नहीं हो पाओगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है)। “जो लोग मसीह द्वारा बोले गए सत्य पर भरोसा किए बिना जीवन प्राप्त करना चाहते हैं, वे पृथ्वी पर सबसे बेतुके लोग हैं, और जो मसीह द्वारा लाए गए जीवन के मार्ग को स्वीकार नहीं करते, वे कोरी कल्पना में खोए हैं। और इसलिए मैं कहता हूँ कि जो लोग अंत के दिनों के मसीह को स्वीकार नहीं करते, उनसे परमेश्वर हमेशा घृणा करेगा। मसीह अंत के दिनों के दौरान राज्य में जाने के लिए मनुष्य का प्रवेशद्वार है, और ऐसा कोई नहीं जो उससे कन्नी काटकर जा सके। मसीह के माध्यम के अलावा किसी को भी परमेश्वर द्वारा पूर्ण नहीं बनाया जा सकता। तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, इसलिए तुम्हें उसके वचनों को स्वीकार करना और उसके मार्ग का पालन करना चाहिए। सत्य को प्राप्त करने या जीवन का पोषण स्वीकार करने में असमर्थ रहते हुए तुम केवल आशीष प्राप्त करने के बारे में नहीं सोच सकते। मसीह अंत के दिनों में इसलिए आया है, ताकि उन सबको जीवन प्रदान कर सके, जो उसमें सच्चा विश्वास रखते हैं। उसका कार्य पुराने युग को समाप्त करने और नए युग में प्रवेश करने के लिए है, और उसका कार्य वह मार्ग है, जिसे नए युग में प्रवेश करने वाले सभी लोगों को अपनाना चाहिए। यदि तुम उसे स्वीकारने में असमर्थ हो, और इसके बजाय उसकी भर्त्सना, निंदा, यहाँ तक कि उसका उत्पीड़न करते हो, तो तुम्हें अनंतकाल तक जलाया जाना तय है और तुम परमेश्वर के राज्य में कभी प्रवेश नहीं करोगे। क्योंकि यह मसीह स्वयं पवित्र आत्मा की अभिव्यक्ति है, परमेश्वर की अभिव्यक्ति है, वह जिसे परमेश्वर ने पृथ्वी पर करने के लिए अपना कार्य सौंपा है। और इसलिए मैं कहता हूँ कि यदि तुम वह सब स्वीकार नहीं करते, जो अंत के दिनों के मसीह द्वारा किया जाता है, तो तुम पवित्र आत्मा की निंदा करते हो। पवित्र आत्मा की निंदा करने वालों को जो प्रतिफल भोगना होगा, वह सभी के लिए स्वतः स्पष्ट है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है)।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?