6. आप कहते हैं कि परमेश्वर अंतिम दिनों में मनुष्य का न्याय और शुद्धिकरण करने के लिए सत्य को व्यक्त करता है। पुराने और नए नियम, दोनों में, परमेश्वर मानव जाति का न्याय करने के वचन कहता है—परमेश्वर के न्याय ने मनुष्य को कभी नहीं छोड़ा है। क्या आप कह रहे हैं कि ये वचन मनुष्य का न्याय और शुद्धिकरण करने में असमर्थ हैं? अंतिम दिनों में परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए न्याय के वचनों, और बाइबल में दर्ज हुए इंसान का न्याय करने वाले परमेश्वर के वचनों, के बीच क्या अंतर है?

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

"न्याय" शब्द का जिक्र होने पर संभवत: तुम उन वचनों के बारे में सोचोगे, जो यहोवा ने प्रत्येक क्षेत्र के लोगों को निर्देश देते हुए कहे थे और जो वचन यीशु ने फरीसियों को फटकार लगाते हुए कहे थे। अपनी समस्त कठोरता के बावजूद, ये वचन परमेश्वर द्वारा मनुष्य का न्याय नहीं थे; बल्कि वे विभिन्न परिस्थितियों, अर्थात् विभिन्न संदर्भों में परमेश्वर द्वारा कहे गए वचन हैं। ये वचन अंत के दिनों के मसीह द्वारा मनुष्यों का न्याय करते हुए कहे जाने वाले शब्दों से भिन्न हैं। अंत के दिनों का मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन तमाम विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है

प्रथम चरण यहोवा का कार्य था : उसका कार्य पृथ्वी पर मनुष्य के लिए परमेश्वर की आराधना करने हेतु एक मार्ग तैयार करना था। यह पृथ्वी पर कार्य के लिए एक मूल स्थान खोजने हेतु आरंभ करने का कार्य था। उस समय यहोवा ने इस्राएलियों को सब्त का पालन करना, अपने माता-पिता का आदर करना और एक-दूसरे के साथ शांतिपूर्वक रहना सिखाया। इसका कारण यह था कि उस समय के लोग नहीं समझते थे कि मनुष्य किस चीज से बना है, न ही वे यह समझते थे कि पृथ्वी पर किस प्रकार रहना है। कार्य के प्रथम चरण में उसके लिए मनुष्य के जीवन में उनकी अगुआई करना आवश्यक था। यहोवा ने जो कुछ उनसे कहा, वह सब मनुष्यों को पहले ज्ञात नहीं करवाया गया था या उनके पास नहीं था। उस समय परमेश्वर ने भविष्यवाणियाँ करने के लिए अनेक नबियों को खड़ा किया, और उन सबने यहोवा की अगुआई में ऐसा किया। यह परमेश्वर के कार्य का मात्र एक भाग था। प्रथम चरण में परमेश्वर देह नहीं बना, इसलिए उसने नबियों के माध्यम से सभी जन-जातियों और राष्ट्रों को निर्देश दिए। जब यीशु ने अपने समय में कार्य किया, तब वह उतना नहीं बोला, जितना कि वर्तमान समय में। अंत के दिनों में वचन के कार्य का यह चरण पिछले युगों और पीढ़ियों में कभी कार्यान्वित नहीं किया गया। यद्यपि यशायाह, दानिय्येल और यूहन्ना ने कई भविष्यवाणियाँ कीं, किंतु उनकी भविष्यवाणियाँ अब बोले जाने वाले वचनों से बिलकुल अलग हैं। उन्होंने जो कहा, वे केवल भविष्यवाणियाँ थीं, किंतु अब बोले जा रहे वचन ऐसे नहीं हैं। यदि मैं आज जो कुछ कह रहा हूँ, उसे भविष्यवाणियों में बदल दूँ, तो क्या तुम लोग समझ पाने में सक्षम होगे? मान लो, जो कुछ मैं कहता हूँ, वह उन मामलों के बारे में हो, जो मेरे जाने के बाद होंगे, तो तुम समझ कैसे प्राप्त कर सकोगे? वचन का कार्य यीशु के समय में या व्यवस्था के युग में कभी नहीं किया गया था। शायद कुछ लोग कहेंगे, "क्या यहोवा ने भी अपने कार्य के समय में वचन नहीं बोले थे? क्या यीशु ने भी उस समय, जब वह कार्य कर रहा था, बीमारियों की चंगाई करने, दुष्टात्माओं को निकालने और चिह्न एवं चमत्कार दिखाने के अतिरिक्त वचन नहीं बोले थे?" बोली गई बातों में अंतर होता है। यहोवा द्वारा बोले गए वचनों का सार क्या था? वह केवल पृथ्वी पर मनुष्यों के जीवन में अगुआई कर रहा था, जिसने जीवन के आध्यात्मिक मामलों को नहीं छुआ था। ऐसा क्यों कहा जाता है कि जब यहोवा बोला, तो वह सभी स्थानों के लोगों को निर्देश देने के लिए था? "निर्देश" शब्द का अर्थ है स्पष्ट रूप से बताना और सीधे आदेश देना। उसने मनुष्य को जीवन की आपूर्ति नहीं की, बल्कि उसने बस मनुष्य का हाथ पकड़ा और बिना ज़्यादा दृष्टांतों का तरीका अपनाए उसे अपना आदर करना सिखाया। इस्राएल में यहोवा ने जो कार्य किया, वह मनुष्य से निपटना या उसे अनुशासित करना या उसे न्याय और ताड़ना प्रदान करना नहीं था, बल्कि उसकी अगुआई करना था। यहोवा ने मूसा को आदेश दिया कि वह उसके लोगों से कहे कि वे जंगल में मन्ना इकट्ठा करें। प्रतिदिन सूर्योदय से पहले उन्हें केवल इतना मन्ना इकट्ठा करना था, जो उनके उस दिन के खाने के लिए पर्याप्त हो। मन्ना को अगले दिन तक नहीं रखा जा सकता था, क्योंकि तब उसमें फफूँद लग जाती। उसने लोगों को भाषण नहीं दिया या उनकी प्रकृति उजागर नहीं की, न ही उसने उनके मत और विचार उजागर किए। उसने लोगों को बदला नहीं, बल्कि उनके जीवन में उनकी अगुआई की। उस समय के लोग बच्चों के समान थे, जो कुछ नहीं समझते थे और केवल कुछ मूलभूत यांत्रिक गतिविधियाँ करने में ही सक्षम थे, और इसलिए यहोवा ने केवल जनसाधारण का मार्गदर्शन करने के लिए व्यवस्थाएँ लागू की थीं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4)

संदर्भ के लिए धर्मोपदेश और संगति के उद्धरण:

अंतिम दिनों में परमेश्वर द्वारा मनुष्य का न्याय मुख्य रूप से लोगों को फटकारने के लिए सत्य के कई पहलुओं को नियोजित करता है। सच्चाई के इन कई पहलुओं के बिना, वे न्याय के वचन नहीं होंगे। क्या यहोवा ने सभी स्थानों पर जो शब्द कहे उनमें, और प्रभु यीशु के फरीसियों के प्रति तिरस्कार के शब्दों में, सत्य के कई पहलू निहित थे? क्या उन्होंने मनुष्य को अभ्यास करने का एक मार्ग दिया? क्या उन्होंने मनुष्य के स्वभाव और सार को प्रकट किया? उन्होंने ऐसा नहीं किया, और इसलिए वे (शब्द) मनुष्य के प्रति न्याय नहीं थे; वे केवल तिरस्कार और फटकार थे। तिरस्कार और फटकार प्रत्यक्ष निंदा और उन्मूलन है, जिसके बाद कोसना होता है। राज्य के युग के दौरान परमेश्वर द्वारा मनुष्य का न्याय और उद्धार मुख्य रूप से कई सच्चाइयों की अभिव्यक्ति है। यह लोगों को फटकारने, उनके सार को प्रकट करने और उनके शब्दों और कार्यों को विश्लेषित करने के लिए सत्य का उपयोग है। इन शब्दों में सच्चाई के कई पहलू होते हैं। जहाँ सत्य होता है, वहीं न्याय होता है; सत्य के बिना, कोई न्याय नहीं होता। इस प्रकार, अंतिम दिनों के मसीह के वचनों, और जिन शब्दों को यहोवा ने व्यवस्था के युग में सभी स्थानों पर कहा था और प्रभु यीशु द्वारा अनुग्रह के युग के दौरान फरीसियों को दी गई फटकार, के बीच एक स्पष्ट अंतर है। यह अंतर मुख्य रूप से अंतिम दिनों के मसीह द्वारा लोगों को फटकारने के लिए सत्य के कई पहलुओं के उपयोग में निहित है; परमेश्वर ने व्यवस्था के युग या अनुग्रह के युग के दौरान सच्चाई के एकाधिक पहलुओं को व्यक्त नहीं किया। इसके अलावा, परमेश्वर के कार्य की प्रकृति में भी अंतर है। व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग के दौरान, परमेश्वर की उन लोगों के प्रति फटकार और उसका उन लोगों के प्रति तिरस्कार, जिन्होंने उसका विरोध किया था, प्रत्यक्ष निंदा और अभिशाप थे। परमेश्वर ने उन्हें नहीं बचाया, और न ही उसने उन पर कोई दया की। अंतिम दिनों के दौरान परमेश्वर का न्याय का कार्य मनुष्य को बचाने, शुद्ध करने और परिपूर्ण करने के लिए होता है। अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने छुटकारे का कार्य किया। उन्होंने पश्चाताप के तरीके का प्रचार किया और कुछ चमत्कार, संकेत और आश्चर्यजनक कार्य किए, और फरीसियों ने उसकी आलोचना की, निंदा की और उसका विरोध किया। इस पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में, प्रभु यीशु ने फरीसियों के प्रति फटकार और अभिशाप के कुछ शब्द बोले थे, जो केवल फरीसियों के कामों और व्यवहार का सार उजागर करते थे। ये शब्द परमेश्वर के प्रति उनके विरोध की जड़ को उजागर नहीं करते थे, न ही उनके स्वभाव और सार को। उसने कोई प्रासंगिक सत्य व्यक्त नहीं किया। मनुष्य को परमेश्वर के प्रति आज्ञा-पालन कैसे करना चाहिए, मनुष्य का कर्तव्य क्या है, या मनुष्य को परमेश्वर के प्रति वफ़ादार कैसे होना चाहिए, इस बारे में उसने कुछ नहीं कहा था, और इसलिए उन शब्दों को न्याय नहीं कहा जा सकता है। फरीसी वास्तव में परमेश्वर में विश्वास नहीं करते थे। वे सत्य से घृणा करते थे, उन्होंने इसे बिल्कुल स्वीकार नहीं किया, और वे परमेश्वर के न्याय को प्राप्त करने के लिए पूरी तरह से अयोग्य थे। परमेश्वर ने उनका न्याय करने का काम नहीं किया, और इसलिए प्रभु यीशु ने केवल उन्हें शाप दिया—उसने उन्हें बचाया नहीं। कुछ लोग कहते हैं, "क्या वे शब्द जिन्होंने फरीसियों के कामों और व्यवहार को उजागर किया, सत्य थे?" ये शब्द भी सत्य थे, और उन्होंने भी परमेश्वर के उस स्वभाव को प्रकट किया, जो कि मनुष्य के किसी भी अपराध को सहन नहीं करता है। लेकिन न्याय, साधारण फटकार और निंदा नहीं है। अंतिम दिनों में, परमेश्वर मनुष्य को फटकारने के लिए सत्य के कई पहलुओं का उपयोग करता है। हर बार जब वह सच्चाई के किसी पहलू को व्यक्त करता है, तो मनुष्य की कुछ भ्रष्ट प्रकृतियाँ और अभिव्यक्तियाँ उजागर की जाती हैं। परमेश्वर सत्य को व्यक्त करने के लिए, मनुष्य की भ्रष्टता के वास्तविक चेहरे का पर्दाफ़ाश करने का, और मनुष्य की बातों और हरकतों का विश्लेषण करने का, उपयोग करता है। केवल जब मनुष्य के उद्धार के लिए आवश्यक सभी सत्य प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त कर दिए जाते हैं, जिससे लोग समझ सकते, अनुभव कर सकते, जान सकते और शुद्ध हो सकते हैं—केवल ऐसे शब्द जो इस तरह के प्रभाव को प्राप्त करते हैं, वे ही वास्तविक न्याय हैं, और केवल वे ही न्याय के वचन हैं। अन्यथा, वे न्याय के वचन नहीं हैं, वे उस समय कुछ व्यक्तियों के प्रति परमेश्वर के कार्य के संदर्भ में बोले गए शब्द मात्र हैं।

—जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति

पिछला: 5. आप गवाही देते हैं कि प्रभु अंतिम दिनों के न्याय का कार्य करने के लिए लौटा है, लेकिन प्रभु यीशु ने कहा था, "क्योंकि यदि मैं न जाऊँ तो वह सहायक तुम्हारे पास न आएगा; परन्तु यदि मैं जाऊँगा, तो उसे तुम्हारे पास भेजूँगा। वह आकर संसार को पाप और धार्मिकता और न्याय के विषय में निरुत्तर करेगा" (यूहन्ना 16:7-8)। हम मानते हैं कि प्रभु यीशु के पुनरुत्थान और आरोहण के बाद, पवित्र आत्मा पिन्तेकुस्त के दौरान मनुष्य पर कार्य करने के लिए, पाप की दुनिया को फटकारने के लिए, और धार्मिकता तथा न्याय के लिए, नीचे आया। जब तक हम अपने पापों को स्वीकार करते हैं और प्रभु के प्रति पश्चाताप करते हैं, तब तक हमें पवित्र आत्मा द्वारा तिरस्कृत और अनुशासित किया जाएगा, और यही प्रभु के द्वारा हमारे प्रति किया गया न्याय है। तो आखिर, अंतिम दिनों के न्याय के कार्य जिसकी आप बात कर रहे हैं, और प्रभु यीशु के कार्य के बीच क्या अंतर है?

अगला: 7. आप गवाही देते हैं कि परमेश्वर मनुष्य को पूरी तरह से शुद्ध करने और उसे बचाने के लिए अंतिम दिनों के दौरान न्याय का कार्य करता है, लेकिन मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए वचनों को पढ़ा है, और उनमें से कुछ काफ़ी कठोर हैं—वे मनुष्य की निंदा करते हैं और उसे शाप देते हैं। क्या यह मनुष्य की सजा नहीं है? इसे मनुष्य का न्याय और शुद्धिकरण कैसे कहा जा सकता है?

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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5. पुराने और नए दोनों नियमों के युगों में, परमेश्वर ने इस्राएल में काम किया। प्रभु यीशु ने भविष्यवाणी की कि वह अंतिम दिनों के दौरान लौटेगा, इसलिए जब भी वह लौटता है, तो उसे इस्राएल में आना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु पहले ही लौट चुका है, कि वह देह में प्रकट हुआ है और चीन में अपना कार्य कर रहा है। चीन एक नास्तिक राजनीतिक दल द्वारा शासित राष्ट्र है। किसी भी (अन्य) देश में परमेश्वर के प्रति इससे अधिक विरोध और ईसाइयों का इससे अधिक उत्पीड़न नहीं है। परमेश्वर की वापसी चीन में कैसे हो सकती है?

संदर्भ के लिए बाइबल के पद :"क्योंकि उदयाचल से लेकर अस्ताचल तक जाति-जाति में मेरा नाम महान् है, और हर कहीं मेरे नाम पर धूप और शुद्ध भेंट...

प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

उत्तर: हम परमेश्वर की वाणी कैसे सुनते हैं? हममें कितने भी गुण हों, हमें कितना भी अनुभव हो, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। प्रभु यीशु में विश्वास...

प्रश्न 1: सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है," तो मुझे वह याद आया जो प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)। हम पहले से ही जानते हैं कि प्रभु यीशु जीवन के सजीव जल का स्रोत हैं, और अनन्‍त जीवन का मार्ग हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और प्रभु यीशु समान स्रोत हों? क्या उनके कार्य और वचन दोनों पवित्र आत्मा के कार्य और वचन हैं? क्या उनका कार्य एक ही परमेश्‍वर करते हैं?

उत्तर: दोनों बार जब परमेश्‍वर ने देह धारण की तो अपने कार्य में, उन्होंने यह गवाही दी कि वे सत्‍य, मार्ग, जीवन और अनन्‍त जीवन के मार्ग हैं।...

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