210 पश्चाताप की हार्दिक इच्छा
1
यह देखकर कि परमेश्वर की महिमा का दिन क्रमशः पास आते जा रहा है,
मेरा दिल दुःख और चिंता महसूस किए बिना नहीं रह सकता।
परमेश्वर के प्रति किये गए अपने विद्रोह और अवज्ञा को मैं याद करता हूँ,
(और) मेरे दिल में पश्चाताप, विकलता, और ऋण में डूबे होने की भावना उमड़ आते हैं।
परमेश्वर ने मुझे चुना, इसलिए मैं उसके पास लौट गया और राज्य के भोज में शामिल हुआ।
वह गंभीरता से मुझे वो मार्ग सिखाता है जो मुझे अपनाना होगा, और वह तरीक़ा जो मुझे निभाना चाहिए।
वह बार-बार मुझे प्रेरित करता है पर मैं इसे गंभीरता से नहीं लेता।
मैंने अब तक सत्य को हासिल नहीं किया है, मैं परमेश्वर का सामना करने के योग्य नहीं हूँ।
2
अपने विश्वास में कई वर्षों तक मैंने सिद्धांतों को वास्तविकता की तरह देखा,
यह माना कि कड़ी मेहनत करना ही सत्य का अभ्यास करना है।
मेरे कर्तव्य में श्रद्धा की कमी थी, यह सब लापरवाही और धोखाधड़ी थी।
जब मेरे साथ काट-छांट होती थी, मुझसे निपटा जाता था, मैंने बहाने किये और मैं खुद को सही साबित करता रहा।
मुझे पूर्ण करने और सत्य को हासिल करने में सहायता के लिए, परमेश्वर ने लोगों और चीज़ों का प्रबंधन किया,
पर मैंने समर्पण नहीं किया, और सत्य की तलाश तो और भी नही की।
मैं हठपूर्वक फरीसियों के रास्ते पर चलता रहा और मैंने वापस लौटना कभी न जाना।
परमेश्वर द्वारा घृणित, मैं अन्धकार में एक ऐसा जीवन जीता रहा, जो मृत्यु से भी बदतर था।
3
परमेश्वर के न्याय का हर वचन मेरे हृदय को झकझोर देता है।
लम्बे समय से सुन्न रहा मेरा हृदय अब जागना शुरू कर रहा है।
इतना कठोर होने और सत्य की तलाश नहीं करने के कारण मैं खुद से नफ़रत करता हूँ।
आज तक मैं जो जीता रहा हूँ वह केवल शैतानी स्वभाव है।
परमेश्वर का कार्य अब पूरा होने को है, वह शीघ्र ही वापस सिय्योन चला जाएगा।
परमेश्वर में विश्वास रखना पर उसे संतुष्ट न कर पाना, सचमुच एक शर्म की बात है।
मैं उसके वचनों का आनंद लेने के लिए अयोग्य हूँ, मैं सचमुच परमेश्वर का क़र्ज़दार हूँ।
परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के लिए इस अंतिम समय को पाना एक दुर्लभ उपहार है।
मैं यह निश्चय करता हूँ कि सत्य की तलाश करूँगा और परमेश्वर के अनुग्रह का ऋण चुकाने में अपना जीवन लगा दूँगा।