20. अपने भाग्य को फिर कभी नहीं कोसूँगी

चेन शाओ, चीन

मैं बहुत गरीबी में पली-बढ़ी थी। हमारे पास आम जरूरत की चीजें भी नहीं होती थीं। मेरी माँ को अक्सर पड़ोसियों से आटा-चावल माँगना पड़ता था ताकि हमारा पेट भर सके, और मेरे कई कपड़े फटे-चिटे होते थे। अक्सर मुझे चिढ़ाया जाता था और मुझसे भेदभाव होता था, दूसरे बच्चे मुझे गरीब कहते थे। मुझे लगा मेरे साथ गलत हुआ है, शायद मेरी किस्मत ही खराब है जो मैं अमीर परिवार में नहीं पैदा हुई। स्कूल में मैंने मेहनत से पढ़ाई की, सोचा : “अगर आज मेहनत करूँगी, तो यूनिवर्सिटी में दाखिला हो जाएगा और अच्छी नौकरी मिल जाएगी, फिर, मेरी किस्मत जरूर बदलेगी और मैं एक कुलीन जैसा जीवन जियूँगी।” मैं देर रात तक पढ़ती थी, तो क्लास में मेरी ऊँची रैंक आई। मुझे लगा अब मेरा जीवन बेहतर होगा। लेकिन मिडिल स्कूल के दौरान, मेरी दूर की नजर काफी कमजोर हो गई, मोतियाबिंद हो गया, एक आँख से कम और सब धुंधला दिखने लगा। मैं अपना ख्याल नहीं रख पाई तो स्कूल छोड़ना पड़ गया। तब, मैं पूरी तरह से हताश थी, लगा कि मेरा जीवन बर्बाद हो गया, अब यही मेरी किस्मत है। मन में, स्वर्ग के अन्याय के बारे में शिकायत की और सोचा कि मेरा भाग्य ही खराब है। और इसी तरह, मैं अवसाद में चली गई।

परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार करके और यह देखकर कि हमारा अगुआ कैसे सभाओं में समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति करता है, मुझे ईर्ष्या हुई। मन-ही-मन सोचा : “कितना बढ़िया हो अगर मुझे भी कभी उपयाजक या अगुआ बनकर, भाई-बहनों की समस्याएँ हल करने और उनसे सम्मान और सहयोग पाने का मौका मिले।” इसलिए मैंने और मेहनत से परमेश्वर के वचन पढ़े, कलीसिया से मिला हर कार्य स्वीकारा और कष्ट सहकर मुश्किल काम किए, इस उम्मीद में कि एक दिन मैं भी उपयाजक या अगुआ बन सकूँगी। मगर कई सालों बाद भी मुझे किसी पद के लिए नहीं चुना गया। एक बहन जिसने मेरे साथ ही परमेश्वर का इस चरण का कार्य स्वीकारा था, वह आस्था में आने के कुछ समय बाद ही अगुआ बन गई। इस बहन को समस्याएँ हल करने के लिए सभाओं में परमेश्वर के वचनों पर संगति करते देख, मैंने मन-ही-मन सोचा : “हमने साथ में इस चरण का कार्य स्वीकारा था, और परमेश्वर के घर में आते ही, अब वह अगुआ बन चुकी है और उसे सबका सम्मान और सहयोग मिल रहा है। मेरी बात करें, तो मैं कितनी भी मेहनत कर लूँ, अभी तक अगुआ नहीं बन पाई। तो, शायद मेरी किस्मत ही खराब है।” कभी-कभी, जब मेरे सुझावों को लागू नहीं किया जाता, तो मैं मन-ही-मन सोचती : “मैं वैसे भी कभी अगुआ नहीं बनूँगी, बेहतर है कि इस छोटे से समूह में सबके साथ चलूँ। चाहे मेरा करियर हो या परमेश्वर का घर, मेरे भाग्य में कष्ट ही लिखा है, इस जीवन में अपनी पहचान नहीं बना पाऊँगी।” इस नतीजे पर आने के बाद, परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य का अनुसरण करने में मेरी रुचि धीरे-धीरे कम हो गई।

बाद में मुझमें कुछ लेखन कौशल देखकर अगुआ ने मुझे लिखने का कर्तव्य सौंप दिया, मैं बहुत खुश थी कि आखिरकार मुझे चमकने का मौका मिल ही गया। मैंने अपने निर्धारित समय से भी ज्यादा समय तक काम किया और अपने कर्तव्य में कुछ अच्छे परिणाम पाए। कुछ समय बाद ही मुझे तरक्की मिल गई। मैं बेहद खुश और अपने कर्तव्य को लेकर और ज्यादा प्रेरित थी। मगर फिर मुझे सर्वाइकल की समस्या हो गई, धीरे-धीरे यह बदतर हो गई और इसलिए मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पा रही थी। मुझे अपनी मूल कलीसिया में लौटना पड़ा और जो कर्तव्य कर पाती थी वही करती थी। मैं बहुत निराश थी : “इस सर्वाइकल की समस्या का समाधान मुश्किल है और अगर मैंने ज्यादा काम किया तो फिर से शुरू हो सकती है। इस समस्या के साथ, मेरा आगे बढ़ना काफी मुश्किल हो जाएगा। मेरे भाग्य में महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाना नहीं लिखा है। मेरी किस्मत ही खराब है, कुछ भी आसानी से नहीं मिलता। मैं जरूर किसी बुरे वक्त में पैदा हुई होऊँगी, क्योंकि मैं बहुत बदकिस्मत हूँ!” इस सोच के साथ, मैं नकारात्मक हो गई और अपने कर्तव्य में धीमी पड़ गई, यहाँ तक कि खुद को सीमित कर लिया, यह सोच बैठी कि मेरा भविष्य अँधेरे में है। फिर, मैं आत्म-चिंतन के लिए परमेश्वर के समक्ष आई : मुझे हमेशा अपनी किस्मत खराब क्यों लगती है, मैं इतनी दुखी क्यों रहती हूँ? अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे अपनी दशा की थोड़ी समझ मिली।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “किसी एक प्रकार के व्यक्ति में इस बात से अवसाद की भावना आ सकती है कि वह अपनी भयावह नियति के ख्याल से निरंतर घिरा रहता है। क्या यह एक कारण नहीं है? (अवश्य है।) ऐसे लोगों का बचपन गाँव-कस्बे या किसी गरीब इलाके में गुजरा था, उनका परिवार समृद्ध नहीं था, कुछ जरूरी चीजों के अलावा उसके परिवार के पास कीमती चीजें नहीं थीं। शायद उनके पास पहनने के लिए एक-दो जोड़ी फटे-पुराने कपड़े थे, आमतौर पर वे कभी भी अच्छा भोजन नहीं खा पाते थे, और उन्हें माँस-मच्छी खाने के लिए नए साल या छुट्टियों की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। कभी-कभी वे भूखे रह जाते थे, उनके पास शरीर को गर्म रखने के लिए पर्याप्त कपड़े भी नहीं थे, कटोरा भर माँस-मच्छी खाना उनके लिए बस एक सपना था और खाने को एक टुकड़ा फल पाना भी मुश्किल था। ऐसे माहौल में रहते हुए वे बड़े शहरों में रहनेवाले उन दूसरे लोगों से अलग महसूस करते, जिनके माता-पिता समृद्ध थे, जो अपने मन का खा और पहन सकते थे, जिनकी पसंद की हर चीज उन्हें फौरन मिल जाती थी और जिन्हें चीजों का अच्छा ज्ञान था। वे सोचते, ‘ये लोग बहुत भाग्यशाली हैं। मेरा भाग्य इतना खराब क्यों है?’ वे हमेशा भीड़ में अलग दिखना चाहते हैं, अपनी नियति बदलना चाहते हैं। मगर किसी के लिए अपनी नियति बदलना इतना आसान नहीं होता। जब कोई ऐसी स्थिति में पैदा होता है, तो कोशिश करके भी वह अपने भाग्य को कितना बदल सकता है, उसे कितना बेहतर बना सकता है? वयस्क होने के बाद ऐसे लोग समाज में जहाँ भी जाते हैं, बाधाएँ उन्हें रोक देती हैं, हर कहीं उन्हें डराया-धमकाया जाता है, ऐसे में वे हमेशा बड़ा अभागा महसूस करते हैं। उन्हें लगता है, ‘मैं इतना अभागा क्यों हूँ? मेरी मुलाकात हमेशा कमीनों से क्यों होती है? बचपन में मेरा जीवन मुश्किलों में गुजरा, बस ऐसा ही था। अब मेरे बड़े हो जाने पर भी इतना ही बुरा हाल है। मैं हमेशा दिखाना चाहता हूँ कि मैं क्या कर सकता हूँ, मगर मुझे कभी मौका नहीं मिलता। मुझे मौका न मिले, तो न मिले। मैं बस कड़ी मेहनत कर अच्छी जिंदगी जीने के लिए काफी पैसा कमाना चाहता हूँ। मैं इतना भी क्यों नहीं कर सकता? अच्छी जिंदगी जीना इतना मुश्किल कैसे हो सकता है? मुझे बाकी सबसे बेहतर जिंदगी जीने की जरूरत नहीं। मैं कम-से-कम एक शहरी की जिंदगी जीना चाहता हूँ, ऐसी कि लोग मुझे हेय दृष्टि से न देखें, मैं दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक न रहूँ। कम-से-कम जब लोग मुझे पुकारें, तो यूँ न चिल्लाएँ, “ए सुन, इधर आ!” कम-से-कम वे मुझे मेरे नाम से पुकारें, आदर से संबोधित करें। लेकिन मुझे आदर से संबोधित किए जाने का आनंद भी नहीं मिलता। मेरा भाग्य इतना क्रूर क्यों है? यह कब खत्म होगा?’ जब ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर में विश्वास नहीं था, तो वह भाग्य को क्रूर मानता था। मगर परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद और यह देखकर कि यही सच्चा मार्ग है, उसने सोचा, ‘पहले का वह सारा कष्ट इस लायक था। यह परमेश्वर द्वारा आयोजित और किया गया था, और उसने यह अच्छे से किया। यदि मैंने उस तरह कष्ट नहीं सहा होता, तो परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा होता। अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, तो यदि मैं सत्य को स्वीकार कर सकूँ, तो मेरी नियति बदल कर बेहतर होनी चाहिए। मैं अब कलीसिया में भाई-बहनों के साथ बराबरी का जीवन जी सकता हूँ, लोग मुझे “भाई” या “बहन” कहकर पुकारते हैं, और मुझसे आदरपूर्वक बात करते हैं। मैं अब दूसरों से सम्मान पाने की भावना का आनंद लेता हूँ।’ ऐसा लगता है मानो उसकी नियति बदल गई है, वह कष्ट नहीं सह रहा है, और अब वह अभागा नहीं रहा। एक बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद, ऐसे लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने की ठान लेते हैं, वे कठिनाइयाँ झेलने और कड़ी मेहनत करने लायक हो जाते हैं, हर मामले में किसी भी दूसरे से ज्यादा सहने में समर्थ हो जाते हैं, और वे ज्यादातर लोगों की स्वीकृति और आदर पाने का प्रयत्न करते हैं। उन्हें लगता है कि शायद उन्हें कलीसिया अगुआ, कोई प्रभारी या टीम अगुआ भी चुना जा सकता है, और तब क्या वे अपने पूर्वजों और अपने परिवार का सम्मान नहीं बढ़ाएंगे? तब क्या उन्होंने अपनी नियति नहीं बदल ली होगी? मगर वास्तविकता उनकी कामनाओं पर खरी नहीं उतरती और वे मायूस होकर सोचते हैं, ‘मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, और अपने भाई-बहनों से मेरे अच्छे संबंध हैं, लेकिन ऐसा क्यों है कि जब कभी अगुआ, प्रभारी या टीम अगुआ चुनने का समय आता है, मेरी बारी कभी नहीं आती? क्या इसलिए कि मैं दिखने में बहुत साधारण हूँ, या मेरा कामकाज बढ़िया नहीं रहा, और मुझ पर किसी का ध्यान नहीं गया? हर बार चुनाव होने पर मुझे थोड़ी-सी आशा होती है, और मैं एक टीम अगुआ भी चुन लिया जाऊँ तो मुझे खुशी होगी। मुझमें परमेश्वर का प्रतिदान करने का बड़ा जोश है, मगर हर बार चुनाव के समय चुने न जाने के कारण मैं निराश हो जाता हूँ। इसका कारण क्या है? क्या इसलिए कि मैं जीवन भर सच में सिर्फ एक औसत, साधारण और मामूली व्यक्ति ही बना रहूँगा? जब मैं पीछे मुड़कर अपने बचपन, अपने यौवन और अपनी अधेड़ उम्र को देखता हूँ, तो जिस मार्ग पर मैं चला हूँ, वह हमेशा बेहद मामूली रहा है और मैंने कुछ भी उल्लेखनीय नहीं किया है। ऐसी बात नहीं है कि मेरी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है या मेरी क्षमता बहुत कम है, ऐसा भी नहीं है कि मैं पर्याप्त प्रयास नहीं करता या कठिनाइयाँ नहीं झेल सकता। मेरी आकांक्षाएँ हैं, मेरे लक्ष्य हैं, और कह सकते हैं कि मैं महत्वाकांक्षी भी हूँ। तो फिर ऐसा क्यों है कि मैं कभी भी भीड़ में सबसे अलग नहीं दिख सकता? अंतिम विश्लेषण यही है कि मेरा ही भाग्य खराब है, दुख सहना मेरी नियति है, और परमेश्वर ने मेरे लिए ऐसी ही व्यवस्था की है।’ वे इस बारे में जितना सोचते हैं, उन्हें लगता है कि उनका भाग्य उतना ही खराब है। अपने कर्तव्यों के दौरान, यदि वे कुछ सुझाव देते हैं, कुछ विचार व्यक्त करते हैं, और हमेशा उन्हें उसका खंडन मिलता है, कोई उनकी बात नहीं सुनता या उन्हें गंभीरता से नहीं लेता, तो वे और अधिक अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं और सोचते हैं, ‘हाय, मेरा भाग्य बहुत खराब है! मैं जिस भी समूह में होता हूँ, वहाँ हमेशा मुझे आगे बढ़ने से रोकनेवाला, मुझे दबानेवाला कोई अधम व्यक्ति होता है। कोई भी मुझे गंभीरता से नहीं लेता, मैं कभी भी सबसे अलग नहीं दिख सकता। कुल मिलाकर बात बस यही है : मेरी तो किस्मत ही खराब है!’ उनके साथ जो भी होता है, उसे वे हमेशा अपनी खराब किस्मत से जोड़ देते हैं; अपनी खराब किस्मत के विचार पर वे निरंतर प्रयास करते हैं, इसकी और गहरी समझ और गुण-दोष विवेचना पाने की कोशिश करते हैं, और जब वे इस बारे में और चिंतन करते हैं, तो अधिक अवसाद में डूब जाते हैं। अपने कर्तव्य में कोई मामूली-सी गलती करने पर वे सोचते हैं, ‘ओह, मेरी किस्मत इतनी बुरी है, तो मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से कैसे निभा सकता हूँ?’ सभाओं में भाई-बहन संगति करते हैं, तो वे बार-बार सोचकर भी उनकी बातें नहीं समझ पाते और सोचते हैं, ‘ओह, ऐसी फूटी किस्मत हो, तो मैं भला ये बातें कैसे समझ सकता हूँ?’ जब कभी वे ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो उनसे बेहतर बोलता है, जो अपनी समझ के बारे में उनसे अधिक स्पष्ट और प्रकाशमान ढंग से चर्चा करता है, तो वे और अधिक अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं। जब वे किसे ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो कठिनाइयाँ सह सकता है, कीमत चुका सकता है, जिसे अपने कर्तव्य-निर्वहन में परिणाम मिलता है, जिसे भाई-बहनों की स्वीकृति मिलती है, और जो पदोन्नत होता है, तो वे दिल से दुखी हो जाते हैं। जब वे किसी को अगुआ या कार्यकर्ता बनते देखते हैं, तो अवसाद में और अधिक डूब जाते हैं, और जब वे किसी व्यक्ति को खुद से बेहतर नाचते-गाते देखते हैं, तो उसकी अपेक्षा स्वयं को हीन महसूस करते हैं और अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं। किसी भी तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों से उनका सामना हो, या उनके सामने कैसी भी स्थितियाँ आएँ, वे हमेशा अवसाद की इस भावना के साथ प्रतिक्रिया देते हैं। वे जब किसी को अपने से अच्छे कपड़े पहने या बेहतर बाल बनाए देखते हैं, तो हमेशा उदास हो जाते हैं, और उनके दिलों में ईर्ष्या और जलन पैदा हो जाती है, जब तक कि वे अवसाद की उस भावना में लौट नहीं जाते। वे इनके क्या कारण बताते हैं? वे सोचते हैं, ‘हाय, क्या यह इसलिए नहीं कि मेरी किस्मत खराब है? यदि मेरा रंग-रूप थोड़ा अच्छा होता, यदि मैं उन जैसा प्रतिष्ठित होता, यदि मैं लंबा और अच्छी कद-काठी का होता, मेरे पास सुंदर कपड़े, खूब पैसे, और अच्छे माँ-बाप होते, तो क्या चीजें अब जैसी हैं उससे अलग नहीं होतीं? क्या तब लोग मेरा सम्मान नहीं करते, मुझसे ईर्ष्या नहीं करते? कुल मिलाकर देखें तो मेरी किस्मत खराब है, और मैं इसके लिए किसी दूसरे को दोष नहीं दे सकता। ऐसी फूटी किस्मत होने के कारण मेरे साथ कुछ भी ठीक नहीं होता, और मैं कहीं भी लड़खड़ाए बिना नहीं चल सकता। यह बस मेरी खराब किस्मत है और इस बारे में मैं कुछ नहीं कर सकता।’ इसी तरह, जब उनकी काट-छाँट हो, या जब भाई-बहन उन्हें फटकारें, उनकी आलोचना करें, या उन्हें कुछ सुझाव दें, तो वे अवसाद की भावना के साथ इस पर प्रतिक्रिया देते हैं। बहरहाल, उनके साथ या उनके आसपास की हर चीज के साथ कुछ भी हो रहा हो, वे हमेशा अपने अवसाद की भावना से पैदा हुए विविध नकारात्मक विचारों, नजरियों, रवैयों और दृष्टिकोणों के साथ प्रतिक्रिया जताते हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचन मेरी स्थिति का सटीक खुलासा करते हैं। पहले मैं सोचती थी कि कुलीनों वाला जीवन जीने और दूसरों का सम्मान और सहयोग पाने का मतलब है अच्छा भाग्य होना, जबकि गरीब परिवार से होना, घटिया, साधारण जीवन जीना और दूसरों से अपमानित होना खराब किस्मत की निशानी है। मैं गरीबी में पली-बढ़ी थी, हमारे पास जरूरत की चीजें भी नहीं होती थीं; दूसरे मेरे बारे में अच्छा नहीं सोचते थे, मेरे साथ भेदभाव कर मुझे नीचा दिखाया जाता था। इसलिए मुझे अक्सर अपनी किस्मत ही खराब लगती थी। ऐसी पृष्ठभूमि से होने के नाते, मैंने पढ़ाई करके अपना भाग्य बदलने का संकल्प लिया ताकि कुलीनों वाला जीवन जी सकूँ। मगर फिर, मिडिल स्कूल में, मेरी दूर की नजर बहुत कमजोर हो गई और मुझे स्कूल छोड़ना पड़ गया। मैंने सोचा मेरे पास अपने सपने साकार करने की कोई उम्मीद नहीं है तो बहुत निराश हो गई। आस्था में आने के बाद, मैं सामान्य विश्वासी बनकर संतुष्ट नहीं थी, मैं अगुआ या कार्यकर्ता बनना चाहती थी। मैंने सोचा कि रुतबा पाकर, मुझे सबका सम्मान और साथ मिल जाएगा, फिर रुतबा और इज्जत होने का मतलब अच्छा भाग्य होना है। मैंने कड़ी मेहनत करके अपना लक्ष्य पाना चाहा, पर कई सालों बाद भी अगुआ या कार्यकर्ता नहीं बन पाई। जब वह बहन जिसने मेरे साथ ही इस चरण का कार्य स्वीकारा था, जल्दी अगुआ बन गई, तब मुझे यकीन हो गया कि मेरा भाग्य ही खराब है। कभी-कभी जब मेरे सुझाव लागू नहीं किए जाते थे और मैं लोगों का सम्मान हासिल नहीं कर पाती थी तो अपनी राय व्यक्त करने की हिम्मत नहीं करती थी, और पीछे हट जाती थी, मन-ही-मन अपनी बदकिस्मती को कोसती थी। बाद में, जब लिखने के काम में मुझे तरक्की दी गई, तो मैं बहुत खुश थी। मगर फिर सर्वाइकल की समस्या हुई जिससे मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पा रही थी, मुझे अपनी मूल कलीसिया में लौटकर छोटे-मोटे कर्तव्य निभाने पड़े, तो मैंने भाग्य को खूब कोसा, और फिर मान लिया कि मेरी किस्मत ही खराब है। मुझे लगा कि अब कभी अपनी पहचान बनाने का मौका नहीं मिलेगा, कभी तरक्की नहीं मिलेगी या कोई बड़ा काम नहीं दिया जाएगा, और लोग कभी मेरा साथ नहीं देंगे, सम्मान नहीं करेंगे। तो, मैं अवसाद में चली गई और अपने कर्तव्य में मेहनत न करके बस लापरवाही से दिन काटती थी। मैंने देखा कि मुझे बस रुतबा चाहिए, हर लिहाज से दूसरों का साथ और सम्मान चाहिए। जब चीजें मेरे हिसाब से नहीं हुईं, तो मैं अपनी बदकिस्मती की शिकायत करने लगी, कर्तव्य में उत्साह खत्म हो गया, और सभाओं में अपनी राय देना बंद कर दिया, परमेश्वर के बनाए हालात का सामना करके आत्म-चिंतन करने में असमर्थ थी। इस वजह से मेरा जीवन प्रवेश रुक गया। क्या मेरी नकारात्मक स्थिति परमेश्वर के खिलाफ मौन प्रतिरोध नहीं था? इतने सालों की आस्था में, मैंने हमेशा यही कहा कि जो भी होता है सब परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं से होता है, मगर जब चीजें मेरे हिसाब से नहीं हुईं तो मैंने न तो समर्पण किया और न ही परमेश्वर की संप्रभुता पर भरोसा किया। क्या यह एक गैर-विश्वासी के विचार नहीं थे?

बाद में, मैंने खोज जारी रखी : मुझे लगातार यह क्यों लगता है कि मेरी किस्मत खराब है? मेरे नजरिये में क्या गलत था? फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “मनुष्य का भाग्य कैसा होगा, वह अच्छा होगा या बुरा, इसे लेकर परमेश्वर की व्यवस्था को मनुष्य या किसी भविष्यवक्ता की दृष्टि से देखा या मापा नहीं जाना चाहिए, न ही उसे इस अनुसार मापना चाहिए कि वह व्यक्ति अपने जीवनकाल में कितने धन और महिमा का आनंद लेता है, वह कितने कष्ट सहता है, या अपनी संभावनाओं, शोहरत और संपत्ति की तलाश में वह कितना सफल है। फिर भी ठीक यही गंभीर गलती वे लोग करते हैं जो कहते हैं कि उनका भाग्य खराब है, और साथ ही ज्यादातर लोग अपना भाग्य मापने में इसी तरीके का प्रयोग करते हैं। अधिकतर लोग अपना भाग्य कैसे मापते हैं? सांसारिक लोग कैसे मापते हैं कि किसी व्यक्ति का भाग्य अच्छा है या बुरा? सबसे पहले तो वे उसे इस आधार पर देखते हैं कि उस व्यक्ति का जीवन आराम से गुजर रहा है या नहीं, वह धन और मह‍िमा का आनंद ले पाता है या नहीं, क्या वह दूसरों से बेहतर जीवनशैली के साथ जी पाता है, अपने जीवनकाल में वह कितने कष्ट सहता है और कितना आनंद ले पाता है, वह कितना लंबा जीवन जीता है, उसका करियर क्या है, उसका जीवन श्रमसाध्य है या आरामदेह और आसान है—वे किसी व्यक्ति का भाग्य अच्छा है या बुरा, यह मापने के लिए इनका और ऐसी ही दूसरी चीजों का प्रयोग करते हैं। क्या तुम भी इसे इसी तरह से नहीं मापते? (हाँ।) तो, जब तुममें से ज्यादातर लोगों का सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो तुम्हें पसंद नहीं, जब मुश्किल वक्‍त आता है, या तुम बेहतर जीवनशैली का आनंद नहीं ले पाते, तो तुम सब सोचोगे कि तुम्हारा भाग्य भी खराब है, और अवसाद में डूब जाओगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। “परमेश्वर ने बहुत पहले ही लोगों के भाग्य तय कर दिए थे, और उन्‍हें बदला नहीं जा सकता। यह ‘सौभाग्‍य’ और ‘दुर्भाग्‍य’ हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होता है, और लोगों के परिवेश और इस बात पर निर्भर करता है कि वे कैसा महसूस करते हैं और किसका अनुसरण करते हैं। इसलिए किसी का भाग्य न तो अच्छा होता है न ही बुरा। हो सकता है कि तुम्‍हारा जीवन बहुत कष्‍टमय हो, पर शायद तुम सोचो, ‘मैं कोई आलीशान जिंदगी नहीं जीना चाहता। बस भरपेट खाना और पहनने के लिए पर्याप्त कपड़े हों, तो मैं खुश हूँ। अपने जीवनकाल में सभी कष्ट सहते हैं। सांसारिक लोग कहते हैं, “अगर बारिश न हो, तो तुम इंद्रधनुष नहीं देख सकते,” तो कष्ट का अपना महत्‍व है। यह बहुत बुरा नहीं है, और मेरा भाग्य भी बुरा नहीं है। स्वर्ग ने मुझे कुछ पीड़ा, कुछ परीक्षण और तकलीफें दी हैं। ऐसा इसलिए कि वह मेरे बारे में अच्‍छी राय रखता है। यह सौभाग्य है!’ कुछ लोग सोचते हैं कि कष्ट सहना बुरा है, इसका अर्थ है कि उनका भाग्य खराब है, और सिर्फ ऐसे ही जीवन का अर्थ, जिसमें कष्ट न हों, आराम और आसानी हो, अच्छा भाग्य होना है। अविश्वासी इसे ‘मत भिन्‍नता’ कहते हैं। परमेश्वर में विश्वास रखनेवाले ‘भाग्य’ के इस मामले को किस तरह देखते हैं? क्या हम ‘सौभाग्‍य’ या ‘दुर्भाग्‍य’ होने की बात करते हैं? (नहीं।) हम ऐसी बातें नहीं कहते। मान लो कि परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण तुम्हारा भाग्य अच्छा है, फिर यदि तुम अपने विश्‍वास में सही मार्ग पर नहीं चलते, तुम्हें दंडित किया जाता है, उजागर कर त्याग दिया जाता है, तब इसका क्या अर्थ है, तुम्हारा भाग्य अच्छा है या खराब? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो संभवतः तुम्हें उजागर किया या त्यागा नहीं जा सकता। अविश्वासी और धार्मिक लोग, लोगों को उजागर करने या समझने की बात नहीं करते, और वे निकाले या त्‍यागे जा रहे लोगों की बात भी नहीं करते। इसका अर्थ होना चाहिए कि परमेश्वर में विश्वास रखने में समर्थ होने पर लोगों का भाग्य अच्छा है, मगर यदि अंत में वे दंडित होते हैं, तो क्या इसका अर्थ है कि उनका भाग्य खराब है? एक पल उनका भाग्य अच्छा है और दूसरे ही पल बुरा—तो फिर वह कैसा है? किसी का भाग्य अच्छा है या नहीं, यह एक ऐसी बात नहीं है जिसका फैसला हो सकता हो, लोग इसका फैसला नहीं कर सकते। यह सब परमेश्वर द्वारा होता है, और परमेश्वर की हर व्यवस्था अच्छी होती है। बस इतना ही है कि प्रत्येक व्यक्ति का भाग्य-पथ या उसका परिवेश, वे लोग, घटनाएँ और चीजें जिनसे उसका वास्‍ता पड़ता है, और अपने जीवन में वह जिस जीवन मार्ग का अनुभव करता है, वे सब भिन्न होते हैं; ये चीजें हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति का जीवन और विकास परिवेश, जिन दोनों को ही परमेश्वर द्वारा व्‍यवस्‍थ‍ित किया जाता है, अलग होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवनकाल में जिन चीजों का अनुभव करता है, वे अलग-अलग होती हैं। कोई तथाकथित सौभाग्‍य या दुर्भाग्‍य नहीं होता—परमेश्वर इन सबकी व्यवस्था करता है, और परमेश्वर ही ये सब करता है। यदि हम इस मामले को इस नजरिए से देखें कि यह सब परमेश्वर करता है, परमेश्वर का हर कार्य अच्छा और सही होता है; तो बस इतना ही है कि लोगों के झुकाव, भावनाओं और चुनावों के नजरिए से देखें, तो कुछ लोग आरामदेह जीवन जीना चुनते हैं, शोहरत, संपत्ति, प्रतिष्‍ठा, संसार में समृद्धि और अपनी सफलता चुनते हैं। वे मानते हैं कि इसका अर्थ अच्छे भाग्य का होना है, और जीवन भर औसत दर्जे का और असफल रहना, हमेशा समाज के बिल्कुल निचले तबके में जीना भाग्‍य का खराब होना है। अविश्वासियों और सांसारिक चीजों के पीछे भागनेवाले और संसार में जीने की इच्छा रखनेवाले सांसारिक लोगों के नजरिए से चीजें यूँ ही नजर आती हैं, और इस तरह से सौभाग्‍य और दुर्भाग्‍य का विचार पैदा होता है। सौभाग्‍य और दुर्भाग्‍य का विचार भाग्य के बारे में मनुष्य की संकीर्ण समझ और सतही नजरिए से, और लोग कितना शारीरिक कष्ट सहते हैं, कितना आनंद, शोहरत और संपत्ति प्राप्त करते हैं, इत्यादि पर लोगों की सोच से पैदा होता है। दरअसल, यदि हम इसे मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की व्यवस्था और संप्रभुता के नजरिए से देखें, तो अच्छे भाग्य और बुरे भाग्य की ऐसी कोई व्याख्याएँ नहीं हैं। क्या यह सही नहीं है? (सही है।) यदि तुम परमेश्वर की संप्रभुता के नजरिए से मनुष्य के भाग्य को देखो, तो परमेश्वर जो भी करता है, वह अच्छा ही होता है, और हर व्यक्ति को इसी की जरूरत होती है। ऐसा इसलिए है कि पिछले और वर्तमान जीवन में कारण और प्रभाव अपनी भूमिका अदा करते हैं, ये परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित होते हैं, इन पर परमेश्वर की संप्रभुता होती है, और परमेश्वर इनकी योजना बनाता और इनकी व्यवस्था करता है—मानवजाति के पास कोई विकल्प नहीं है। यदि हम इसे इस नजरिए से देखें, तो लोगों को यह फैसला नहीं करना चाहिए कि उनका भाग्य अच्छा है या बुरा, ठीक है न?(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों ने सटीकता से “अच्छे” और “बुरे” भाग्य को लेकर लोगों के बेतुके दृष्टिकोण के बारे में बताया। लोग अपने भाग्य को इस आधार पर आँकते हैं कि उनका जीवन सहजता से चल रहा है या नहीं, उनके पास रुतबा-पैसा है या नहीं, और शोहरत-दौलत है या नहीं। निजी प्राथमिकताओं के आधार पर फैसले लेना एक अविश्वासी का दृष्टिकोण है और यह सत्य के अनुरूप नहीं है। परमेश्वर के साथ अच्छे या बुरे भाग्य जैसा कुछ भी नहीं है। परमेश्वर लोगों का भाग्य उनके पिछले और इस जीवन के आधार पर तय करता है। परमेश्वर उनका भाग्य पहले से तय और व्यवस्थित करता है। मैंने देखा कि मेरा दृष्टिकोण किसी अविश्वासी के दृष्टिकोण से अलग नहीं था। मैं जीवन भर दौलत और रुतबे के पीछे भागी, ताकि शोहरत और दौलत पाकर अपनी पहचान बनाऊँ। मुझे लगा कि लोगों का सम्मान और साथ पाना अच्छे भाग्य की निशानी है, जबकि मेरा औसत, सामान्य जीवन, गरीबी में जीना और लोगों से सम्मान न पाना और गंभीरता से नहीं लिया जाना, खराब भाग्य की निशानी है। फिर मैंने देखा कि मेरा दृष्टिकोण गलत था और यह शैतान से मिला था। यह अविश्वासियों के हिसाब से भाग्य की सीमित समझ थी। मैंने जाना कि जिनके पास शोहरत और ढेर सारी दौलत होती है उनके पास सम्मान, गौरव, दूसरों का आदर और सहयोग, और काफी अच्छा भाग्य हो सकता है, मगर वे आध्यात्मिक तौर पर खोखले होते हैं, पीड़ा सहते हैं, उन्हें जीवन उबाऊ लगता है, और कुछ तो नशे के आदी हो जाते हैं और आत्महत्या कर लेते हैं। अपने अधिकार के मद में चूर होकर कुछ लोग परेशानियाँ खड़ी करते, बुरे काम करते और कानून तोड़ते हैं, और अंत में जेल जाने से उनकी प्रतिष्ठा बर्बाद हो जाती है। क्या इन लोगों का भाग्य वाकई अच्छा है? मैंने देखा कि व्यक्ति का भाग्य इस पर निर्भर नहीं है कि उसके पास दौलत और शानो-शौकत थी या नहीं, या उसने कितने कष्ट सहे। कौन कितना धनी या गरीब होगा, यह परमेश्वर तय और व्यवस्थित करता है। परमेश्वर हमारी जरूरतों के अनुसार हमारा जीवन पहले से तय करता है और उसकी सभी व्यवस्थाएँ अच्छी होती हैं। परमेश्वर के साथ, अच्छे या बुरे भाग्य जैसा कुछ नहीं है। जहाँ तक मेरी बात है, गरीबी में पली-बढ़ी होने, कठिनाइयाँ और नाकामियाँ झेलने, और काफी कष्ट सहने के बाद भी, मेरे अनुभवों ने इस पीड़ा में मेरे संकल्प को दृढ़ बनाया; यह मेरे जीवन में मेरा बेशकीमती खजाना है। फिर, इज्जत और रुतबा पाने की मेरी इच्छा बहुत प्रबल है। अगर यूनिवर्सिटी में मेरा दाखिला हो जाता और मुझे शोहरत-दौलत मिल जाती, तो मैं यकीनन इस बुरी प्रवृत्ति में फँस जाती। क्या तब मैं सृष्टिकर्ता के सामने आ पाती और मुझे परमेश्वर का उद्धार मिलता? परमेश्वर ने यह भी तय किया था कि मुझे अगुआ नहीं चुना जाएगा। मेरे पास परमेश्वर के वचन समझने की थोड़ी योग्यता थी, मैं अपने भाई-बहनों में कुछ समस्याएँ देख पाई, मगर मैं बहुत सक्षम नहीं थी, तो बहुत सारा काम नहीं संभाल पाती थी। अगुआओं को बहुत सारा काम संभालना पड़ता है, और समस्याओं को अच्छी तरह निपटाया नहीं गया, तो यह कलीसिया के कार्य के लिए नुकसानदेह होगा। अब मैं जो कर्तव्य निभा सकती हूँ वही करती हूँ, यह मेरे और कलीसिया के कार्य दोनों के लिए अच्छा है। परमेश्वर ने मेरे लिए जैसे हालात आयोजित किए, उसके पीछे मैंने उसके सच्चे इरादों को देख लिया है। मैं इन बेतुके दृष्टिकोणों के अनुसार जीती थी, कुलीनों वाला जीवन जीना चाहती थी। जब चीजें मेरे हिसाब से और मेरी उम्मीदों के मुताबिक नहीं होती थीं, तो मैं अपनी बदकिस्मती को कोसती थी, अवसाद में जाकर परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करती थी। विश्वासी होकर भी मैं परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं चली, बल्कि अविश्वासियों के गलत मतों से चिपकी रही। मैं परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और विरोध कर रही थी! इसका एहसास होने पर, मैं बहुत डर गई कि ये मैंने क्या कर दिया, तो परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना की : “हे परमेश्वर! मैं सत्य नहीं समझती, मैंने तुम्हारी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं किया है। मैं बहुत अहंकारी और विवेकहीन हूँ। मैं अपने बेतुके दृष्टिकोणों को ठीक करना चाहती हूँ, तुम्हारा विरोध बंद करके तुम्हारी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहती हूँ।”

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े जिनसे मुझे नकारात्मक भावनाओं के हानिकारक परिणामों की थोड़ी समझ मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “हालाँकि अपने भाग्य को खराब समझनेवाले ये लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, चीजों को छोड़ने में समर्थ होते हैं, और खुद को खपाकर परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हैं, फिर भी वे उसी तरह परमेश्वर के घर में एक स्वतंत्र, मुक्त और आरामदेह तरीके से अपना कर्तव्य नहीं निभा पाते। वे ऐसा क्यों नहीं कर पाते? इसलिए कि वे अपने भीतर बहुत-से चरम और असामान्य विचार और नजरिये छुपाए होते हैं, जिनसे उनमें अतिवादी भावनाएँ पैदा होती हैं। इन अतिवादी भावनाओं के कारण चीजों की उनकी परख, उनकी सोच, और चीजों के बारे में उनका नजरिया एक अतिवादी, गलत और भ्रांतिपूर्ण दृष्टिकोण से उपजता है। वे समस्याओं और लोगों को इस अतिवादी और गलत दृष्टिकोण से देखते हैं, जिससे वे बार-बार इस नकारात्मक भावना के असर और प्रभाव में जीते, लोगों और चीजों को देखते एवं आचरण और कार्य करते हैं। अंत में, वे जैसे भी जियें, वे इतने थके हुए लगते हैं कि परमेश्वर में आस्था और सत्य के अनुसरण के लिए कोई जोश नहीं जुटा पाते। वे अपना जीवन किसी भी तरह से जीना पसंद करें, वे सकारात्मक या सक्रिय ढंग से अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते, और अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बावजूद वे हृदय और प्राण से अपना कर्तव्य निभाने या अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से नहीं निभाने पर कभी ध्यान नहीं देते, जाहिर है, सत्य का अनुसरण करना या सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना तो दूर की बात है। ऐसा क्यों है? अंतिम विश्लेषण में, ऐसा इसलिए है क्योंकि वे हमेशा सोचते हैं कि उनका भाग्य खराब है, और इससे उनमें गहन अवसाद की भावना पैदा हो जाती है। वे पूरी तरह से मायूस, विवश, जिंदा लाश की तरह, शक्तिहीन हो जाते हैं, कोई सकारात्मक या आशावादी व्यवहार नहीं दर्शाते, अपने कर्तव्य, अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों के प्रति अपनी निष्ठा अर्पित करने का संकल्प या सहनशीलता दिखाना तो दूर की बात है। इसके बजाय वे अनमने ढंग से हर दिन एक ढुलमुल रवैये के साथ, निरुद्देश्य और भ्रमित होकर संघर्ष करते रहते हैं, यहाँ तक कि अनजाने ही दिन गुजारते जाते हैं। उन्हें कोई अंदाजा नहीं होता कि वे कब तक यूँ ही जैसे तैसे काम चलाते रहेंगे। अंत में, उनके पास यह कहकर खुद को फटकारने के सिवाय कोई रास्ता नहीं होता, ‘ओह, जब तक जैसे तैसे काम चल जाए, तब तक मैं जीता रहूँगा! अगर किसी दिन मैं आगे इसी तरह जीता न रह सकूँ, और कलीसिया मुझे निष्कासित कर त्याग देना चाहे, तो उसे बस मुझे त्याग देना चाहिए। ऐसा इसलिए कि मेरा भाग्य खराब है!’ देखा, उनकी बातें भी बेहद हारी हुई होती हैं। अवसाद की यह भावना सिर्फ एक सरल-सी मनःस्थिति नहीं है, बल्कि अधिक महत्वपूर्ण तौर पर लोगों के विचारों, दिलों और उनके अनुसरण पर इसका विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। यदि तुम समय रहते तेजी से अपनी अवसादपूर्ण भावना को नहीं पलट सकते, तो यह न सिर्फ तुम्हारे पूरे जीवन को प्रभावित करेगी, बल्कि तुम्हारे जीवन को नष्ट कर तुम्हें मृत्यु के कगार पर भी पहुँचा देगी। भले ही तुम परमेश्वर में विश्वास रखो, फिर भी सत्य हासिल कर उद्धार प्राप्त नहीं कर पाओगे, और अंत में, तुम नष्ट हो जाओगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। “इस किस्म का अवसाद कोई साधारण या क्षणिक विद्रोहीपन नहीं है, न ही यह भ्रष्ट स्‍वभाव का क्षणिक प्रकटन है, भ्रष्‍ट अवस्‍था का प्रकटन तो बिल्‍कुल भी नहीं। इसके बजाय, यह परमेश्वर का मौन विरोध है, और परमेश्वर ने उनके लिए जिस भाग्य की व्यवस्था की है उसके प्रति नाराजी भरा मौन विरोध भी है। भले ही यह एक साधारण नकारात्मक भाव हो, लेकिन लोगों के लिए इसके दुष्परिणाम भ्रष्ट स्वभाव के नतीजों से भी ज्यादा गंभीर होते हैं। यह तुम्‍हें अपने कर्तव्य, अपने दैनिक जीवन और जीवन यात्रा के प्रति सकारात्मक और सही रवैया अपनाने से तो रोकता ही है, लेकिन उससे भी गंभीर बात यह है कि यह तुम्हें अवसाद के जरिए नष्ट भी कर सकता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों से, मैंने देखा कि अगर कोई सोचता है कि उसका भाग्य खराब है, और जब वह इस गलत और कट्टर दृष्टिकोण के साथ परमेश्वर में विश्वास करता है, अपना कर्तव्य निभाता है और लोगों या चीजों से इसी तरह पेश आता है, तो वह नकारात्मकता और निराशा में डूब जाएगा, अपने कर्तव्यों में लापरवाह रहेगा, जैसे-तैसे काम करेगा, पीछे हटेगा और आगे बढ़ने की इच्छाशक्ति खो बैठेगा। निराशा में डूबने से व्यक्ति पतन की ओर बढ़ सकता है, जिससे वह उद्धार पाने के सभी मौके चूक सकता है। मैंने देखा कि अगर यह विचार नहीं त्यागा, तो इसके परिणाम बेहद गंभीर होंगे! मैंने विचार किया कि कैसे मैं खराब भाग्य होने के विचार के साथ जी रही थी। जब मुझे मेरी आँख की समस्याओं के कारण अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी, तो शोहरत और दौलत पाने के मेरे सपनों पर पानी फिर गया था, मुझे लगा कि मैं एक इज्जतदार और धनी व्यक्ति जैसा जीवन नहीं जी पाऊँगी, इसलिए मैंने बहुत पीड़ा झेली, और जीने की उम्मीद खो बैठी। विश्वासी बनकर अपना कर्तव्य निभाने के बाद भी मैं ऊँचा रुतबा पाना चाहती थी, और जब मुझे तरक्की नहीं दी गई और अगुआ नहीं चुना गया, तो मैंने अपनी कमियों पर विचार नहीं किया, खुद को नहीं जाना, बल्कि लगातार अपनी बदकिस्मती को कोसती रही और नकारात्मक दशा में जीती रही, सत्य का अनुसरण नहीं करना चाहा। बाद में, जब मुझे सर्वाइकल की समस्या हुई, तो लगा कि अब मैं फिर कभी अपनी पहचान नहीं बना पाऊँगी, और इसी वजह से कर्तव्यों में लापरवाही करने लगी, हार मान ली, और धीरे-धीरे परमेश्वर से दूर हो गई। मैंने देखा कि अच्छा या खराब भाग्य होने के इस दृष्टिकोण ने मुझे इस तरह कसकर जकड़ रखा था कि मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं कर पाई और बहुत प्रतिरोधी बन गई। मैंने उन अविश्वासियों के बारे में सोचा जो अपने भाग्य को खराब कहते रहते थे। क्योंकि वे गरीब थे, उनके पास कोई ताकत नहीं थी, वे समाज में निचले तबके के थे, उन्हें दूसरों से सम्मान नहीं मिलता था और अक्सर उनका मजाक बनाया जाता था, उन्होंने अपना भाग्य बदलने के लिए सब कुछ किया, मगर जब चीजें उनकी उम्मीदों के मुतबिक नहीं हुईं, तो वे आत्महत्या के बारे में सोचने लगे। दूसरे अविश्वासियों ने सालों तक मेहनत से पढ़ाई की मगर रुतबा या दौलत पाने में नाकाम रहे और सोचने लगे कि उनका भाग्य ही खराब है, कुछ तो बहुत ही निराश और हताश हो गए थे। मैंने देखा कि जब लोग सत्य नहीं समझते और बेतुके दृष्टिकोणों के साथ जीते हैं, तब वे अपने साथ उचित व्यवहार नहीं करते और लोगों, घटनाओं और चीजों से सही ढंग से नहीं निपटते, जिससे वे आखिरकार अवसाद में चले जाते हैं। ये शैतान से आए दृष्टिकोण हैं। शैतान इनका इस्तेमाल लोगों को बहकाने और नुकसान पहुँचाने के लिए करता है, ताकि वे निराश होकर टूट जाएँ, सत्य का अनुसरण न करें, और आखिर में, उन्हें निकाल दिया जाए। यह सब समझने के बाद मुझे एहसास हुआ कि अब मैं अच्छा और खराब भाग्य होने के विचार के साथ नहीं जी सकती। अगर इसी तरह चलती रही, तो मैं खुद को खत्म कर लूँगी। फिर मैं प्रार्थना के लिए परमेश्वर के पास आई : “हे परमेश्वर! तुम जो भी हालात बनाते हो उसके पीछे तुम्हारे सच्चे इरादे होते हैं, मैं उनके प्रति समर्पण करूँगी। मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए अपनी भ्रष्टता दूर करूँगी, अपना कर्तव्य बेहतर ढंग से पूरा करूँगी।”

अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “भाग्य के प्रति लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? तुम्हें सृजनकर्ता की व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए, सक्रियता और मेहनत से इन सब चीजों की व्यवस्था में सृजनकर्ता का प्रयोजन और अर्थ खोजना चाहिए, और सत्य की समझ हासिल करनी चाहिए, परमेश्वर द्वारा इस जीवन में तुम्हारे लिए व्यवस्थित बड़े-से-बड़े कार्यकलाप पूरे करने चाहिए, सृजित प्राणी के कर्तव्य, जिम्मेदारियाँ और उत्तरदायित्व निभानी चाहिए, और अपने जीवन को और अधिक सार्थक और मूल्यवान बनाना चाहिए जब तक अंततः सृजनकर्ता तुमसे खुश हो जाए और तुम्हें याद रखे। बेशक, इससे भी अच्छा यह होगा कि तुम अपनी खोज और मेहनतकश प्रयासों से उद्धार प्राप्त करो—यह परिणाम सर्वोत्तम होगा। किसी भी हाल में, भाग्य के मामले में, सृजित मानवजाति को जो सबसे उपयुक्त रवैया अपनाना चाहिए, वह मनमाने फैसले और परिभाषा का नहीं है, या इससे निपटने के लिए अतिवादी विधियों के प्रयोग करने का नहीं है। बेशक लोगों को अपने भाग्य का प्रतिरोध करने, उसे चुनने या बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, बल्कि इसके बजाय उन्हें सकारात्मक ढंग से इसका सामना करने से पहले, अपने दिल से इसकी सराहना कर, खोजना, अधिक जानना और इसका पालन करना चाहिए। अंततः जीने के माहौल और जीवन में परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए तय यात्रा में, तुम्हें वह आचरण विधि खोजनी चाहिए जो परमेश्वर तुम्हें सिखाता है, वह मार्ग खोजना चाहिए जिसे अपनाने की परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है, और इस प्रकार परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित भाग्य का अनुभव करना चाहिए, और अंत में, तुम आशीष पाओगे। जब तुम सृजनकर्ता द्वारा इस तरह तुम्हारे लिए व्यवस्थित भाग्य का अनुभव करोगे, तब तुम जिसे समझ पाओगे वह सिर्फ दुख, विषाद, आँसू, पीड़ा, निराशा और विफलता ही नहीं, बल्कि अधिक अहम तौर पर तुम उल्लास, शांति और सुकून का अनुभव करोगे, और साथ ही प्रबुद्धता और सत्य की रोशनी का भी अनुभव करोगे, जो परमेश्वर तुम्हें प्रदान करता है। इसके अलावा, जब तुम जीवन के अपने मार्ग में खो जाओगे, जब निराशा और विफलता से तुम्हारा सामना होगा, और तुम्हें एक विकल्प चुनना होगा, तब तुम सृजनकर्ता के मार्गदर्शन का अनुभव करोगे, और अंत में, तुम अत्यंत सार्थक जीवन जीने के तरीके की समझ और अनुभव हासिल कर उसे सराह सकोगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों से, मैंने उसकी इच्छा को समझा और देखा कि उसका दिल कितना उदार है। भले ही हम अपने जीवन में कठिनाइयाँ सहेंगे और हमारी उम्मीदें टूटेंगी, इसका मतलब यह नहीं कि हम भाग्य बदलने या उसका विरोध करने की कोशिश करें। बल्कि परमेश्वर ने जो तय किया है उसके प्रति हमें समर्पण करना चाहिए, परमेश्वर ने हमारे लिए जो लोग, घटनाएँ और चीजें आयोजित की हैं उनसे सीख लेकर सत्य हासिल करना चाहिए। तभी हमें सच्ची शांति और सुकून मिलेगा। मैंने विचार किया कि कैसे परमेश्वर की मर्जी से ही मुझे अगुआ नहीं चुना गया था। मेरे पास काम करने का कौशल नहीं था और मैं एक ही कर्तव्य निभाने, एक सामान्य विश्वासी होने के लिए ज्यादा उपयुक्त थी, यही मेरे लिए सबसे अच्छा पद था। अब कलीसिया ने मुझे सिंचन का कर्तव्य सौंपा है। इस कर्तव्य में, मैंने परमेश्वर के कार्य को समझने के लिए उसके बहुत सारे वचन पढ़े, सुसमाचार फैलाने और लोगों को पहचानने के संबंध में कुछ सिद्धांत समझे, मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में थोड़ी समझ हुई और अब मैं अपने लिए परमेश्वर द्वारा आयोजित हालात के प्रति समर्पण कर सकती हूँ। ये सभी असली फायदे हैं जो धन-दौलत से ज्यादा मूल्यवान हैं। अब मुझे एहसास है कि हमारा पूरा जीवन परमेश्वर ने पहले से व्यवस्थित और तय किया है। सिर्फ समर्पण करके, हर तरह के हालात में सत्य का अनुसरण और सत्य हासिल करके, स्वभाव में बदलाव लाकर और परमेश्वर का उद्धार पाकर ही, हमारा भाग्य अच्छा हो सकता है। इसके बाद, मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार काम करने लगी, ईमानदारी और निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाने लगी, आत्म-चिंतन करके अपनी नाकामियों और विफलताओं से सीखने लगी। इस तरह अभ्यास करने से मुझे शांति और खुशी मिली।

हाल ही में, हमारे अगुआ ने हमसे कुछ प्रतिभाशाली भाई-बहनों का नाम देने को कहा, तो मैंने मन-ही-मन सोचा : “अभी तरक्की मिलना कितने गौरव की बात होगी। मैं राज्य का सुसमाचार फैलाने में अपना योगदान दे सकती हूँ, और जब दूसरों को पता लगेगा कि मुझे तरक्की मिली है तो वे यकीनन मुझसे जलेंगे और मुझे ऊँची नजरों से देखेंगे।” लेकिन, अगुआ ने कहा कि मेरी बीमारी के कारण, मैं बाहर जाकर कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। मैं थोड़ी-सी निराश होकर खुद से शिकायत करने लगी : “मेरे सभी भाई-बहन स्वस्थ लगते हैं, उन्हें तरक्की मिल सकती है और उनके पास अभ्यास के ज्यादा अवसर होंगे, जबकि मुझे घर पर बैठे रहना होगा और मेरे पास अपनी पहचान बनाने या चमकने का कोई मौका नहीं होगा। मेरा भाग्य ही खराब है।” मेरे मन में ऐसे विचार आने लगे, मैंने देखा कि मैं फिर से बुरी दशा में जी रही थी, तो अपनी खोज और प्रार्थना में परमेश्वर के समक्ष आई। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “लोगों के लिए रुतबे को परमेश्वर ने नियत नहीं किया है; परमेश्वर लोगों को सत्य, मार्ग और जीवन प्रदान करता है, और अंततः उन्हें परमेश्वर का एक स्वीकार्य प्राणी, परमेश्वर का एक छोटा और नगण्य प्राणी बनाता है—वह इंसान को ऐसा व्यक्ति नहीं बनाता जिसके पास रुतबा और प्रतिष्ठा हो और जिसकी हजारों लोगों द्वारा आराधना की जाती हो। और इसलिए, इसे चाहे किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए, रुतबे के पीछे भागने का मतलब एक अंधी गली में पहुँचना है। रुतबे के पीछे भागने का तुम्हारा बहाना चाहे जितना भी उचित हो, यह मार्ग फिर भी गलत है, और परमेश्वर इसकी प्रशंसा नहीं करता। तुम चाहे कितना भी प्रयास करो या कितनी बड़ी कीमत चुकाओ, अगर तुम रुतबा चाहते हो, तो परमेश्वर तुम्हें वह नहीं देगा; अगर परमेश्वर तुम्हें रुतबा नहीं देता, तो तुम उसे पाने के संघर्ष में नाकाम रहोगे, और अगर तुम संघर्ष करते ही रहोगे, तो उसका केवल एक ही परिणाम होगा : तुम्हें उजागर करके निकाल दिया जाएगा, जिसके आगे कोई मार्ग नहीं है। तुम इसे समझते हो, है न?(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। “परमेश्वर के घर को बहुत से मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों का त्याग करते देखकर, सत्य का अनुसरण करने वाले कुछ लोग मसीह-विरोधियों की विफलता को देखकर मसीह-विरोधियों द्वारा अपनाए गए मार्ग पर चिंतन करते हैं, और वे आत्मचिंतन कर खुद को जानते भी हैं। इससे उन्हें परमेश्वर की इच्छा की समझ प्राप्त होती है, वे सामान्य अनुयायी बनने का संकल्प लेते हैं, सत्य का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने पर ध्यान देते हैं। परमेश्वर उन्हें सेवाकर्ता या तुच्छ नाचीज भी कह दे, तो भी वे परमेश्वर की नजर में नीच बनकर, एक तुच्छ और महत्वहीन अनुयायी बनकर संतुष्ट रहते हैं, अंततः ऐसा व्यक्ति परमेश्वर द्वारा स्वीकार्य प्राणी कहलाता है। केवल ऐसा व्यक्ति ही नेक होता है, परमेश्वर ऐसे ही व्यक्ति की प्रशंसा करेगा(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से, मुझे एहसास हुआ कि मनुष्य परमेश्वर का बस एक छोटा सा तुच्छ प्राणी है जिसके पास कोई वास्तविक रुतबा नहीं है। एक समझदार व्यक्ति होने के नाते, मुझे व्यावहारिक होकर अपनी जगह पर बने रहना चाहिए, सत्य हासिल कर अपना जीवन स्वभाव बदलने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर यही चाहता है। अगर मैं लगातार इज्जत और रुतबे के पीछे भागती रही, तो आखिरकार परमेश्वर मुझे निकाल देगा। मैंने अच्छी किस्मत वाले उन लोगों के बारे में सोचा जिनकी मैं सराहना और इज्जत करती थी, जैसे झाओ शू, जो मेरी एक पुरानी साथी थी। वह गुणी थी, बहुत अच्छी वक्ता थी, उसे तरक्की देकर एक महत्वपूर्ण पद पर बिठाया गया था। मगर अपना कर्तव्य निभाते हुए वह हमेशा इज्जत और रुतबा पाना चाहती थी, जिससे कलीसिया के कार्य में बहुत रुकावट आई। जब उसे बदला गया तो उसने पश्चात्ताप नहीं किया, और सभी तरह के कुकर्मों के कारण उसे निकाल दिया गया। उसकी नाकामी मेरे लिए एक चेतावनी थी। मैंने देखा कि जब लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और हमेशा इज्जत और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो उन्हें उजागर करके निकाल दिया जाएगा। क्योंकि मैं अपनी बीमारी के कारण बाहर जाकर कर्तव्य नहीं निभा सकती थी, तो खुद से शिकायत करने लगी; इज्जत और रुतबा पाने की मेरी इच्छा फिर से सिर उठा रही थी। मैंने सोचा कि बाहर जाकर कर्तव्य निभाने से मैं अपनी पहचान बना सकूँगी और इसका मतलब होगा कि मेरा भाग्य अच्छा है। मैं अभी भी इज्जत और रुतबे के पीछे भाग रही थी और परमेश्वर विरोधी मार्ग पर चल रही थी। परमेश्वर की इच्छा से ही उसकी रचना के रूप में मेरा वजूद है, चाहे मैं बाहर जाऊँ या घर पर रहूँ, मैं हमेशा अपना कर्तव्य निभा सकती हूँ और सत्य का अनुसरण करते हुए अपना स्वभाव बदल सकती हूँ। मैं जानती थी मुझे परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण कर ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, केवल इसी से मुझे शांति मिलेगी।

इस अनुभव से मुझे अपने गलत दृष्टिकोण का थोड़ा ज्ञान हुआ और मैंने देखा कि अपने बुरे भाग्य की शिकायत करना किस प्रकार परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसकी संप्रभुता और आयोजनों के प्रति समर्पण से इनकार करना है। अगर मैं इसी तरह चलती रही, तो उद्धार पाने का मौका गँवा दूँगी। आगे से, मैं अपने गलत दृष्टिकोणों को भूलकर, समर्पण करके अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाने का संकल्प लेती हूँ।

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