73. मेरे अतीत का कलंक

ली यी, चीन

अगस्त 2015 में, मैं अपने परिवार के साथ शिनजियांग चली गई। मैंने सुना था कि कम्युनिस्ट पार्टी ने वीगर आबादी की हिंसा और उपद्रव से निपटने के नाम पर वहाँ सख्त निगरानी और नियंत्रण के उपाय किए थे, तो वहाँ काफी खतरा था। शिनजियांग पहुँची तो वहाँ का माहौल मेरी कल्पना से भी ज्यादा तनावपूर्ण लगा। पुलिस हर जगह गश्त लगा रही थी, और जब भी हमें सुपरमार्केट जाना होता, तो हमारे पूरे शरीर की गहन तलाशी ली जाती थी। जब हम बस का इंतजार कर रहे होते, तब पीठ पर बंदूकें लटकाए पुलिस बस स्टॉप पर गश्त लगाती फिरती थी। यह सब देखकर मैं बहुत घबरा गई। कम्युनिस्ट पार्टी पहले से ही विश्वासियों को गिरफ्तार करके उन पर अत्याचार कर रही थी, ऐसे में सख्त निगरानी और नियंत्रण के इन तरीकों का मतलब था कि मुझ पर कभी भी गिरफ्तार होने या मारे जाने का खतरा मंडरा रहा था। अक्टूबर के आस-पास, मुझे सुनने में आया कि दो बहनें जो परमेश्वर के वचनों की किताबें देने जा रही थीं उन्हें रास्ते में ही गिरफ्तार कर लिया गया और 10 साल जेल की सजा सुनाई गई। इससे मैं बहुत हैरान हुई, वे अगुआ या कार्यकर्ता नहीं थीं, फिर भी उन्हें बस परमेश्वर के वचनों की किताबें पहुँचाने के लिए 10 साल की जेल हो गई। मैं कलीसिया के कार्य की प्रभारी थी, अगर मैं गिरफ्तार हुई तो कम-से-कम 10 साल की सजा होगी। मेरे मन में मेरे भाई-बहनों को जेल में सताए जाने की छवियाँ घूमती रहीं। मैं बहुत डरी हुई और बेचैन थी कि मुझे भी गिरफ्तार करके यातना दी जाएगी, जो यकीनन मौत से भी बदतर होगा। मेरा डर बढ़ता ही जा रहा था, तो इस पर आगे कुछ सोचने की हिम्मत नहीं हुई। बाद में, मैंने कुछ भाई-बहनों को इस बारे में संगति करते हुए सुना कि वे इस तरह के माहौल में अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए कैसे परमेश्वर की ओर देखते और उस पर निर्भर रहते थे, कैसे उन्होंने उसकी सर्वशक्तिमान संप्रभुता को देखा, और उसकी देखरेख और सुरक्षा को महसूस किया। इससे मुझे काफी प्रोत्साहन और इन हालात से उबरने के लिए आस्था मिली।

फरवरी 2016 में, मुझे पता चला कि जिन कलीसियाओं का मैं निरीक्षण करती थी उनमें से एक में वांग बिंग नाम का एक दुष्ट व्यक्ति था जो लगातार अगुआओं में गलतियाँ निकालता रहता था और कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था। इस मसले को जल्द-से-जल्द हल करना जरूरी था, वरना इससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश पर असर पड़ता। मैंने कुछ सहकर्मियों के साथ मिलकर इस मामले पर चर्चा की और उन्हें लगा कि मुझे इस मसले को हल करने के लिए कलीसिया जाना चाहिए। मगर मैं थोड़ी डरी हुई थी, मैंने मन-ही-मन सोचा : “जिन बहनों को 10 साल की सजा सुनाई गई थी, उन्हें उसी कलीसिया से गिरफ्तार किया गया था। कम्युनिस्ट पार्टी ने तो इस खबर की घोषणा करने के लिए स्थानीय ग्रामीणों को भी इकट्ठा किया, उन्हें डराया-धमकाया ताकि वे परमेश्वर में विश्वास न करें। वहाँ बहुत खतरा है। वहाँ गई तो क्या मुझे गिरफ्तार कर लिया जाएगा?” मन में यह विचार आने पर, मैंने नहीं जाने के लिए बहाना बना दिया। मगर फिर मैंने देखा कि मेरी एक साथी वहाँ जाने को तैयार थी, तो मुझे थोड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई। उसे विश्वासी बने ज्यादा समय नहीं हुआ था और उसने हाल ही में अगुआ के रूप में अपनी ट्रेनिंग शुरू की थी। उस कलीसिया में बहुत सारी समस्याएँ थीं और वहाँ का माहौल भी अच्छा नहीं था। मुझे उसे वहाँ अकेले जाने देना ठीक नहीं लगा, तो मैंने कहा, “शायद मेरा जाना ही सबसे बेहतर होगा।” जब मैं कलीसिया पहुँची, तो देखा कि वांग बिंग सभाओं में परमेश्वर के वचनों की किसी भी समझ के बारे में संगति करने में असमर्थ था, वह अक्सर अगुआओं में खामियाँ निकालता, और कलीसियाई जीवन में काफी व्यवधान डालता था। मैंने उपदेशक से पहले वांग बिंग को प्रतिबंधित करके उसे दूसरों से संपर्क करने या उन्हें गुमराह करने से रोकने, और फिर भाई-बहनों के साथ सत्य पर संगति करने के बारे में बात की, ताकि वे उसे पहचान सकें। इससे वह उन्हें और परेशान नहीं करेगा, और फिर हम कलीसिया का कार्यभार संभालने के लिए बहन झोंग शिन को जल्द से जल्द प्रशिक्षित कर सकेंगे। मगर मुझे अभी भी कुछ बातों की चिंता थी, और मैं जानती थी कि उस कलीसिया के सभी मसलों को पूरी तरह से हल करने में शायद काफी समय लगेगा। कलीसिया के करीब आधे भाई-बहनों को गिरफ्तार कर लिया गया था, तो मैं वहाँ जितना समय बिता रही थी उतना ही ज्यादा जोखिम उठा रही थी। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर के घर ने संगति की थी कि बहुत खतरनाक माहौल में भारी नुकसान से बचने के लिए कलीसिया के कुछ कार्यों को थोड़ा विलंबित किया जा सकता है। क्योंकि हम समस्या का समाधान निकाल चुके थे, तो मैंने सोचा कि मैं इस पर निगरानी रखने और यहाँ से चीजों को संभालने का काम उपदेशक को सौंप सकती हूँ। तो मैं जल्द-से-जल्द बाकी काम उसे सौंप कर घर वापस लौट आई।

बाद में उपदेशक ने रिपोर्ट की कि वांग बिंग बहुत बेशर्म होता जा रहा है और अगुआओं पर हमला करने के लिए कलीसिया में एक गुट तैयार कर रहा है, जिससे कलीसियाई जीवन काफी अस्त-व्यस्त हो गया है। मैंने कुछ समाधानों के बारे में उपदेशक के साथ संगति की, पर समस्या हल नहीं हुई। मैंने खुद को थोड़ा कसूरवार महसूस किया। कलीसिया की समस्याओं से निपटना मेरी जिम्मेदारी थी, मगर मैं गिरफ्तार होने के डर से इस समस्या को हल नहीं करना चाहती थी। यह सही नहीं था। मगर फिर मैंने सोचा कि कैसे एक बहन को हाल ही में सभा में जाने के लिए ट्रेन पकड़ते समय लगभग गिरफ्तार कर लिया गया था। “अगर मुझे वहाँ ट्रेन से जाते समय रास्ते में गिरफ्तार कर लिया गया तो मेरा क्या होगा? मैं अगुआ हूँ, अगर मेरी सुरक्षा की गारंटी नहीं होगी तो मैं अपना काम नहीं कर सकती।” तो मैं उस कलीसिया की समस्याओं का जिम्मा उपदेशक पर थोपती रही। लेकिन क्योंकि उसकी काबिलियत सीमित थी, तो ये समस्याएँ अनसुलझी ही रहीं।

सितंबर 2016 में, अचानक मुझे एक खत मिला कि उस कलीसिया से चार भाई-बहनों को गिरफ्तार कर लिया गया। उनमें से एक, झोंग शिन को बेरहमी से पीटा गया। कुछ दिनों बाद एक और खत मिला कि पुलिस ने उसे पीट-पीटकर मार डाला। यह खबर सुनकर मैं टूट गई। मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाई। मैं जानती थी कि कम्युनिस्ट पार्टी की यातना के तरीके बहुत निर्दयी थे, पर यह कभी नहीं सोचा था कि वे कुछ ही दिनों में उसे पीट-पीटकर मार डालेंगे। यह भयावह था। मैं हक्का-बक्का रह गई। मैं अपनी भावनाओं को काबू नहीं कर सकी और फूट-फूट कर रोने लगी। इस बारे में जितना सोचती, उतनी ही दुखी होती, और खुद से पूछती रही कि यह सब कैसे हो गया। कुछ समय से मुझे पता था कि एक दुष्ट व्यक्ति उस कलीसिया में बाधाएँ डाल रहा है और वहाँ के सदस्य सामान्य कलीसियाई जीवन नहीं जी पा रहे हैं। मैं कलीसिया अगुआ थी, मगर गिरफ्तार किए जाने के डर से मैं वहाँ जाकर समस्याओं को पूरी तरह से हल करने में असफल रही। अगर मैंने थोड़ी और जिम्मेदारी उठाई होती या कलीसिया के अन्य सदस्यों के साथ सहयोग करने के तरीकों के बारे में सोचा होता, और उन समस्याओं को हल किया होता; अगर मैंने भाई-बहनों को सावधानी बरतने के लिए कहा होता, तो शायद आज झोंग शिन गिरफ्तार नहीं होती और उसे पीट-पीटकर मौत के घाट नहीं उतारा जाता। उसकी मौत की खबर से मैं बहुत कसूरवार महसूस करने लगी। मैं बेहद डरी हुई और दमित थी। ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी बहुत ही भयावह जगह पर हूँ जहाँ मेरे लिए साँस लेना भी मुश्किल है। मगर मैं जानती थी कि ऐसे महत्वपूर्ण मोड़ पर, मैं फिर से भाग नहीं सकती, तो मैंने इस घटना के बाद के हालात से निपटने के लिए उपदेशक की मदद करने में खुद को व्यस्त कर लिया। इससे पहले कि हम चीजों की देखरेख का काम पूरा कर पाते, मुझे पता चला कि मेरे एक साथी को भी गिरफ्तार कर लिया गया है और पुलिस को हमारी कलीसिया के प्रमुख अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बारे में कुछ जानकारी मिल गई है। मैं उन भाई-बहनों के लगातार संपर्क में थी, तो अगर पुलिस निगरानी कैमरों के फुटेज देखेगी, तो काफी संभावना है कि वे मुझे खोज लेंगे। मैं बहुत चिंतित थी कि मुझे किसी भी पल गिरफ्तार किया जा सकता है। अगर मुझे सजा सुनाकर जेल भेज दिया गया, तो न जाने मैं जिंदा वापस आ भी पाऊँगी या नहीं। काफी संभावना थी कि मेरा अंत भी झोंग शिन जैसा ही होगा, इतनी कम उम्र में पुलिस मुझे पीट-पीटकर मार डाला जाएगा। इस बारे में जितना सोचती, उतना ही ज्यादा डर लगता और अपना कर्तव्य निभाने की मेरी इच्छा उतनी ही कम होती जाती। मैं अब उस जगह पर और नहीं रहना चाहती थी। क्योंकि मैंने कभी अपनी इस दशा पर ध्यान नहीं दिया और महीनों तक वांग बिंग की कलीसिया में बाधाएँ डालने की समस्या को हल नहीं कर सकी, तो मुझे बर्खास्त कर दिया गया। बर्खास्त होने के बाद, मैंने कलीसिया में थोड़ा लिखने का काम किया, मगर मुझे अभी भी यही लगता रहा कि वहाँ रहना खतरनाक है। मैं परेशान थी कि मुझे किसी भी दिन गिरफ्तार किया जा सकता है और मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए सचमुच अपने घर वापस जाना चाहती थी। भाई-बहनों ने मेरे साथ संगति की, इस उम्मीद में कि अब तक जो कुछ भी घटा उनके परिणामों से निपटने के लिए मैं वहाँ रहकर उनकी मदद करूँगी। मगर मैं इतनी ज्यादा डरी हुई थी कि मैंने उनकी एक नहीं सुनी और वापस जाने की जिद पर अड़ी रही।

अप्रैल 2017 में, कलीसिया ने मुझे सभाओं में भाग लेने से रोक दिया और मेरे व्यवहार के कारण मुझे अलग कर दिया और कहा कि मैं घर पर रहकर आत्मचिंतन करूँ। यह खबर सुनकर मैं रो पड़ी। मगर क्योंकि मैंने ऐसे अहम मौके पर अपने कर्तव्य और कलीसिया को त्याग दिया था, तो मैं जानती थी कि मैं इसी नतीजे की हकदार हूँ। मैंने इसमें परमेश्वर की धार्मिकता देखी और समर्पण करने को तैयार थी। एक दिन मैंने अपने भक्ति-कार्य में परमेश्वर के वचनों में इसे पढ़ा : “अगर तुम सुसमाचार फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हो और परमेश्वर की अनुमति के बिना अपना पद छोड़ देते हो, तो इससे बड़ा कोई अपराध नहीं। क्या यह परमेश्वर से विश्वासघात नहीं है? (हाँ।) तो, तुम लोगों के विचार में, परमेश्वर को अपना कर्तव्य छोड़ने वालों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? (उन्हें दरकिनार कर दिया जाना चाहिए।) दरकिनार किए जाने का मतलब है अनदेखा किया जाना, उन्हें जैसा वे चाहें वैसा करने के लिए छोड़ दिया जाना। अगर दरकिनार किए गए लोग पश्चात्ताप महसूस हैं, तो संभव है कि परमेश्वर देखे कि उनका रवैया पर्याप्त रूप से पश्चात्ताप करने वाला है, और अभी भी उन्हें वापस पाना चाहे। लेकिन जो लोग अपना कर्तव्य छोड़ देते हैं, उनके प्रति—और केवल उन्हीं लोगों के प्रति—परमेश्वर का ऐसा रवैया नहीं होता। परमेश्वर ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है? (परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता। परमेश्वर उनसे घृणा करता है और उन्हें नकार देता है।) यह बात एकदम सही है। विशेष रूप से, जो लोग कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाते हैं, उन्हें परमेश्वर द्वारा नियुक्त किया जाता है, और अगर वे अपना पद छोड़ देते हैं, तो चाहे उन्होंने पहले कितना भी अच्छा काम किया हो, या बाद में कितना भी अच्छा काम करें, परमेश्वर की नजर में वे ऐसे लोग हैं जिन्होंने उसे धोखा दिया है, उन्हें फिर कभी कोई कर्तव्य निभाने का अवसर नहीं दिया जाएगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। “परमेश्वर को उन लोगों से, जो अपने कर्तव्य छोड़ देते हैं या उन्हें मजाक समझते हैं, और परमेश्वर से विश्वासघात के उनके अलग-अलग व्यवहारों, कार्यों और अभिव्यक्तियों से अत्यधिक घृणा है, क्योंकि परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित विभिन्न संदर्भों, लोगों, मामलों और चीजों के बीच, ये लोग परमेश्वर के कार्य की प्रगति में बाधा डालने, उसे क्षति पहुँचाने, उसमें देरी करने, उसे बिगाड़ने या प्रभावित करने की भूमिका निभाते हैं। और इस कारण से, परमेश्वर अपना कर्तव्य छोड़ने वाले और परमेश्वर को धोखा देने वाले लोगों के प्रति कैसा महसूस करता है और कैसी प्रतिक्रिया करता है? परमेश्वर क्या रवैया अपनाता है? (वह उनसे नफरत करता है।) सिर्फ और सिर्फ घृणा और नफरत। क्या उसे दया आती है? नहीं—उसे दया कभी नहीं आ सकती। कुछ लोग कहते हैं, ‘क्या परमेश्वर प्रेम नहीं है?’ परमेश्वर ऐसे लोगों से प्रेम क्यों नहीं करता? ये लोग प्रेम करने के काबिल नहीं होते। अगर तुम उनसे प्रेम करते हो, तो तुम्हारा प्रेम मूर्खता है, और सिर्फ इसलिए कि तुम उनसे प्रेम करते हो, इसका मतलब यह नहीं कि परमेश्वर भी उनसे प्रेम करता है; तुम उन्हें सँजो सकते हो, लेकिन परमेश्वर नहीं सँजोता, क्योंकि ऐसे लोगों में कुछ भी सँजोने लायक नहीं होता। इसलिए, परमेश्वर ऐसे लोगों को दृढ़ता से त्याग देता है, और उन्हें कोई दूसरा मौका नहीं देता। क्या यह उचित है? यह न केवल उचित है, बल्कि सर्वोपरि यह परमेश्वर के स्वभाव का एक पहलू है, और यह सत्य भी है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। परमेश्वर के वचनों के न्याय और खुलासे से मुझे बेहद शर्मिंदगी महसूस हुई। झोंग शिन को पीट-पीटकर मार डाला गया था और मेरी साथी को गिरफ्तार कर लिया गया था। ऐसे महत्वपूर्ण समय में, मुझे इस घटना के बाद के हालात से निपटने के लिए भाई-बहनों के साथ मिलकर काम करना चाहिए था, मगर मैं भाग खड़ी हुई। जिस व्यक्ति में थोड़ी-सी भी अंतरात्मा होगी वह ऐसा कुछ भी नहीं करेगा। मैं इसके लिए खुद को माफ नहीं कर पाई। मैं यह मानती थी कि चाहे मैंने कुछ भी गलत किया हो, अगर परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करूँगी तो वह मुझ पर दया दिखाकर मुझे माफ कर देगा। मगर फिर मुझे एहसास हुआ कि यह बस एक धारणा और कल्पना ही थी। परमेश्वर कहता है कि वह ऐसे लोगों को त्याग देता है जो अपने कर्तव्यों से हार मान लेते हैं और अहम मौकों पर उसे धोखा देते हैं, परमेश्वर ऐसे लोगों को दूसरा अवसर नहीं देगा। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने जाना कि उसकी दया और माफी के लिए भी सिद्धांत हैं। परमेश्वर यूँ ही किसी को माफ नहीं करेगा या उस पर दया नहीं दिखाएगा, फिर चाहे उसने उसे नाराज करने के लिए कुछ भी किया हो। जिस पल से मैं कलीसिया से भागी, मुझे लगा कि परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया है। मेरा दिल बिल्कुल अशांत था और मैं पछतावे से भरी हुई थी। पता नहीं इसे लेकर मैंने कितनी बार प्रार्थना की या कितने आँसू बहाए। चाहे परमेश्वर ने मेरा साथ छोड़ा हो या नहीं, मैं अपना ऋण चुकाने के लिए उसकी सेवा करना चाहती थी, और मैं जानती थी कि वह मेरे साथ जैसा भी व्यवहार करेगा वह धार्मिक होगा। मैंने जो किया उससे परमेश्वर को इतना दुख हुआ होगा कि अगर वह इसके लिए मुझे नरक में भी भेज दे तो मैं शिकायत नहीं करूँगी। मैंने अपने इतने सालों के विश्वास के दौरान कुछ त्याग किए थे, और मैं उद्धार पाना चाहती थी—मैंने कभी नहीं सोचा था कि जब कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों गिरफ्तारी और उत्पीड़न का सामना करना पड़ेगा, तो मैं मौत से डरकर अपना कर्तव्य त्याग दूँगी, परमेश्वर को धोखा दूँगी, और इस तरह एक जघन्य अपराध कर बैठूँगी। इस बारे में सोचकर मैं बहुत दुखी और निराश हो गई। मैं रोती रहती थी और पछतावे में डूबी रहती थी। काश, मैंने छोड़कर जाने की जिद न की होती, और उस अहम मौके पर दूसरों के साथ मिलकर गिरफ्तारियों के बाद के हालात से निपटते हुए अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा होता। तब शायद मैं इस दुख और पीड़ा में नहीं जी रही होती। मैं नहीं चाहती थी कि ऐसा कुछ हो! मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मैं अपनी कब्र खोद चुकी थी और उसमें लेटने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था। मौत से डरने और इतना स्वार्थी और नीच होने के कारण मुझे खुद से बहुत नफरत हुई। मेरे जैसी इंसान परमेश्वर की माफी और दया के लायक नहीं थी। क्योंकि कलीसिया ने मुझे निष्काषित नहीं किया था, तो मुझे लगा कि अपने अपराध की भरपाई के लिए मुझसे जितना हो सके उतने अच्छे से कर्तव्य निभाना चाहिए। इसके बाद अपने कर्तव्य में, अगुआ मुझे जहाँ भी भेजते मैं वहाँ चली जाती थी, फिर चाहे मुझे खतरनाक माहौल में कलीसियाओं के सहयोग के लिए ही क्यों न भेजा गया हो। कुछ समय तक ऐसा करने के बाद, मैं अपने काम में कुछ परिणाम हासिल कर पाई। मगर मैं कभी भी झोंग शिन की मौत के बारे में बात नहीं करना चाहती थी, न ही इस बारे में कि कैसे ऐसे अहम मौके पर मैं कलीसिया छोड़कर भाग खड़ी हुई थी। मैं खुद को इससे बचाना और इस बारे में भूल जाना चाहती थी, मगर मैं ऐसा नहीं कर पाई। यह घटना मेरे दिल पर गहरी छाप छोड़ गई थी और मैं इसे कभी नहीं भुला पाऊँगी। जब भी इस बारे में सोचती, मुझे बहुत पीड़ा होती और मैं बहुत कसूरवार महसूस करती थी।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों में कुछ पढ़ा जिससे मुझे अपनी दशा की थोड़ी समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “मसीह-विरोधी अपनी सुरक्षा बनाए रखने के लिए हरसंभव प्रयास करते हैं। वे मन ही मन यह सोचते हैं : ‘मुझे अपनी सुरक्षा अवश्य सुनिश्चित करनी चाहिए। चाहे जो भी पकड़ा जाए, मैं न पकड़ा जाऊँ।’ इसे लेकर, वे अक्सर प्रार्थना करने परमेश्वर के सामने आते हैं और गुहार लगाते हैं कि परमेश्वर उन्हें मुसीबत में पड़ने से बचाए। उन्हें लगता है कि चाहे कुछ भी हो, वे वास्तव में एक कलीसिया अगुआ का काम कर रहे हैं और परमेश्वर को उनकी रक्षा करनी चाहिए। अपनी सुरक्षा की खातिर और गिरफ्तार होने से बचने के लिए, तमाम उत्पीड़न से बचने और खुद को एक सुरक्षित वातावरण में रखने के लिए मसीह-विरोधी अक्सर अपनी सुरक्षा के लिए याचना और प्रार्थना करते हैं। जब उनकी अपनी सुरक्षा की बात आती है, तभी वे वास्तव में परमेश्वर पर भरोसा और खुद को परमेश्वर को अर्पित करते हैं। बात जब इस पर आती है, तभी वे वास्तविक आस्था रखते हैं और तभी परमेश्वर पर उनका भरोसा वास्तविक होता है। कलीसिया के काम या अपने कर्तव्य के बारे में जरा-सा भी विचार न करते हुए वे केवल परमेश्वर से यह कहने के लिए प्रार्थना करने की जहमत उठाते हैं कि वह उनकी सुरक्षा करे। अपने काम में व्यक्तिगत सुरक्षा ही वह सिद्धांत होता है, जो उनका मार्गदर्शन करता है। अगर कोई स्थान सुरक्षित होता है, तो मसीह-विरोधी उस स्थान को कार्य करने के लिए चुनेगा, और बेशक, वह बहुत सक्रिय और सकारात्मक दिखाई देगा, अपनी महान ‘जिम्मेदारी की भावना’ और ‘निष्ठा’ दिखाएगा। अगर किसी कार्य में जोखिम होता है और उसके खराब होने या उसे करने वाले के बड़े लाल अजगर द्वारा पकड़ लिए जाने की संभावना होती है, तो वे बहाने बना देते हैं और उसे किसी और को सौंपकर उससे बचकर भागने का मौका ढूँढ़ लेते हैं। जैसे ही कोई खतरा होता है, या जैसे ही खतरे का कोई संकेत होता है, वे भाई-बहनों की परवाह किए बिना, खुद को छुड़ाने और अपना कर्तव्य त्यागने के तरीके सोचते हैं। वे केवल खुद को खतरे से बाहर निकालने की परवाह करते हैं। दिल में वे पहले से ही तैयार रह सकते हैं। जैसे ही खतरा प्रकट होता है, वे उस काम को तुरंत छोड़ देते हैं जिसे वे कर रहे होते हैं, इस बात की परवाह किए बिना कि कलीसिया का काम कैसे होगा, या इससे परमेश्वर के घर के हितों या भाई-बहनों की सुरक्षा को क्या नुकसान पहुँचेगा। उनके लिए जो मायने रखता है, वह है भागना। यहाँ तक कि उनके पास एक ‘तुरुप का इक्का,’ खुद को बचाने की एक योजना भी होती है : जैसे ही उन पर खतरा मँडराता है या उन्हें गिरफ्तार किया जाता है, वे जो कुछ भी जानते हैं, अपनी सुरक्षा बनाए रखने के लिए वह सब कह देते हैं और खुद को पाक-साफ बताकर तमाम जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं। उनके पास यह योजना तैयार रहती है। ये लोग परमेश्वर पर विश्वास करने के कारण उत्पीड़न सहने को तैयार नहीं होते; वे गिरफ्तार होने, प्रताड़ित किए जाने और दोषी ठहराए जाने से डरते हैं। सच तो यह है कि वे बहुत पहले ही शैतान के आगे घुटने टेक चुके हैं। वे शैतानी शासन की शक्ति से भयभीत हैं, और इससे भी ज्यादा खुद पर होने वाली यातना और कठोर पूछताछ जैसी चीजों से डरते हैं। इसलिए, मसीह-विरोधियों के साथ अगर सब-कुछ सुचारु रूप से चल रहा होता है, और उनकी सुरक्षा को कोई खतरा या उसे लेकर कोई समस्या नहीं होती, तो वे अपने उत्साह और ‘वफादारी,’ यहाँ तक कि अपनी संपत्ति की भी पेशकश कर सकते हैं। लेकिन अगर हालात खराब हों और परमेश्वर पर विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने के कारण उन्हें किसी भी समय गिरफ्तार किया जा सकता हो, और अगर परमेश्वर पर उनके विश्वास के कारण उन्हें उनके आधिकारिक पद से हटाया जा सकता हो या उनके करीबी लोगों द्वारा त्यागा जा सकता हो, तो वे असाधारण रूप से सावधान रहेंगे, न तो सुसमाचार का प्रचार करेंगे, न ही परमेश्वर की गवाही देंगे और न ही अपना कर्तव्य निभाएँगे। जब परेशानी का कोई छोटा-सा भी संकेत होता है, तो वे छुईमुई बन जाते हैं; जब परेशानी का कोई छोटा-सा भी संकेत होता है, तो वे परमेश्वर के वचनों की अपनी पुस्तकें और परमेश्वर पर विश्वास से संबंधित कोई भी चीज फौरन कलीसिया को लौटा देना चाहते हैं, ताकि खुद को सुरक्षित और हानि से बचाए रख सकें। क्या ऐसा व्यक्ति खतरनाक नहीं है? गिरफ्तार किए जाने पर क्या वह यहूदा नहीं बन जाएगा? मसीह-विरोधी इतना खतरनाक होता है कि कभी भी यहूदा बन सकता है; इस बात की संभावना हमेशा बनी रहती है कि वह परमेश्वर से मुँह मोड़ लेगा। इतना ही नहीं, वह परम स्वार्थी और नीच होता है। यह मसीह-विरोधी के प्रकृति सार द्वारा निर्धारित होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दो))। “मसीह-विरोधी बेहद स्वार्थी और नीच होते हैं। उनका परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं होता, परमेश्वर के प्रति भक्ति-भाव तो बिलकुल भी नहीं होता; जब उनके सामने कोई समस्या आती है, तो वे केवल अपनी रक्षा और बचाव करते हैं। उनके लिए अपनी सुरक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं होता। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि कलीसिया के कार्य को कितना नुकसान हुआ है—वे अब भी जीवित हैं और गिरफ्तार नहीं किए गए हैं, उनके लिए बस यही मायने रखता है। ये लोग बेहद स्वार्थी होते हैं, वे भाई-बहनों या कलीसिया के बारे में बिलकुल नहीं सोचते, वे केवल अपनी सुरक्षा के बारे में सोचते हैं। वे मसीह-विरोधी हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों का न्याय और प्रकाशन सीधे मेरे दिल में तीर की तरह चुभे। मेरे पास छिपने की जगह नहीं बची थी—मैं भाग नहीं सकती थी। मैं बिल्कुल वैसी ही इंसान थी जिसका वर्णन परमेश्वर ने किया था, जिसे खतरे के समय में बस अपनी सुरक्षा की चिंता होती थी, जो स्वार्थी और नीच थी और जिसे कलीसिया के कार्य या भाई-बहनों के जीवन की कोई परवाह नहीं थी। मैंने उस समय के बारे में सोचा जब मैं पहली बार शिनजियांग आई थी और देखा था कि वहाँ के हालात कितने खराब थे। जब मैंने देखा कि मुझ पर किसी भी समय गिरफ्तार होने या मौत का खतरा है, तो मुझे अपना कर्तव्य निभाने के लिए वहाँ जाने पर पछतावा हुआ। जब मुझे पता चला कि एक दुष्ट व्यक्ति उनमें से एक कलीसिया में बाधाएँ डाल रहा है, तो मैंने गिरफ्तारी और यातना के डर से वहाँ न जाने का बहाना बनाया, भले ही इस मसले को जल्द-से-जल्द हल करने की जरूरत थी। हालाँकि बाद में मैं न चाहते हुए भी वहाँ गई, मगर क्योंकि मुझे बस अपनी सुरक्षा की परवाह थी, तो मैं समस्याओं के हल होने से पहले ही वापस आ गई। मैं अच्छी तरह से जानती थी कि उस कलीसिया में कुछ गंभीर समस्याएँ थीं जिन्हें हल करने के लिए मेरा वहाँ जाना जरूरी था, मगर मुझे मौत का डर था, तो मैंने वास्तविक काम करने के बजाय हुक्म चलाने के लिए अपने पद का इस्तेमाल किया। यहाँ तक कि मैं अन्य भाई-बहनों को इस समस्या से निपटने के लिए आगे धकेलती रही, जबकि मैं खुद छिपी रही, अपने अधम अस्तित्व को घसीटती रही। नतीजतन, उस कलीसिया की समस्याएँ महीनों तक हल नहीं हुईं। मैंने तो एक “तर्कपूर्ण” बहाना भी बनाया कि एक अगुआ होने के नाते, अपना काम करने के लिए मुझे अपनी सुरक्षा देखनी होगी, जबकि असल में, मैं खतरे को देखकर बस भाग निकलने का बहाना ढूँढ रही थी। और जब झोंग शिन को पुलिस ने गिरफ्तार करके पीट-पीटकर मार डाला, तब भी मैंने सिर्फ अपनी सुरक्षा के बारे में ही सोचा, और सोचती रही कि क्या मुझे भी गिरफ्तार करके पीट-पीटकर मार डाला जाएगा। मैं तो अपना कर्तव्य त्यागकर उस खतरनाक जगह को छोड़ने का मौका ढूँढना चाहती थी। बर्खास्त होने के बाद, जो कुछ भी घटा था उसके बाद के हालात से निपटने में मैं कोई मदद नहीं करना चाहती थी, तो मैं भागकर अपने गाँव वापस आ गई। भाई-बहनों ने मुझे डांटा नहीं, पर मैंने अंदर ही अंदर मेरे प्रति परमेश्वर के परित्याग, घृणा और निंदा को महसूस किया। मुझे सबसे अधिक पछतावा इस बात का था कि कलीसिया ने मुझे एक अगुआ बनने का मौका दिया और इतने सारे भाई-बहनों की सुरक्षा की जिम्मेदारी मुझे सौंपी। फिर भी जब आपदा आई, तो मैं भाग खड़ी हुई; मुझे इसकी कोई परवाह नहीं थी कि बाकी लोग जिंदा रहेंगे या मर जाएँगे या कलीसिया के कार्य में कैसी रुकावट आएगी। मैं एक कायर भगोड़ी और गद्दार थी, और शैतान के उपहास का पात्र थी। इससे भी बढ़कर, यह अपराध मेरे दिल की गहराइयों में कभी न भरने वाला नासूर बन गया था। इन अनुभवों से गुजरकर, मैंने देखा कि मैं एक मानवता से रहित एक कायर इंसान थी जो स्वार्थी और नीच तरीके से जीती थी! परमेश्वर के वचनों ने बिल्कुल सटीक जगह पर वार किया, जिससे मेरे दिल की गहराई में छिपे घृणित इरादे और गुप्त मंशाएँ उजागर हो गईं। मैं वास्तविकता से हमेशा भाग नहीं सकती थी। उस वक्त मैं अच्छी तरह जानती थी कि मैंने परमेश्वर को धोखा देकर गंभीर पाप किया है और मैं उसके उद्धार के लायक नहीं हूँ। मैंने यह भी सोचा कि कैसे परमेश्वर ने दो बार देहधारण किया और मानवजाति को बचाने के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया। दो हजार साल पहले, मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए प्रभु यीशु सूली पर चढ़ गया था। अब, अंत के दिनों में, भ्रष्ट मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर ने फिर से देहधारण किया है, उसने बड़े लाल अजगर की मांद में प्रकट होकर कार्य करने के लिए अपने जीवन को खतरे में डाला है, कम्युनिस्ट पार्टी लगातार उसका पीछा करके उस पर अत्याचार कर रही है। मगर परमेश्वर ने मानवजाति को बचाने से कभी हार नहीं मानी। उसने हमारा सिंचन और पोषण करते रहने के लिए सत्य व्यक्त करना जारी रखा है। परमेश्वर ने मनुष्य के लिए सब कुछ दाँव पर लगा दिया है—हमारे लिए उसका प्रेम इतना वास्तविक, इतना निस्वार्थ है! मगर मैं बेहद स्वार्थी और नीच थी। अपने कर्तव्य में मैंने बस अपनी सुरक्षा देखी और कलीसिया के कार्य को पूरी तरह से नजरंदाज किया। मुझ पर परमेश्वर का बड़ा ऋण था और मैं उसके सामने जीने के लायक नहीं थी। तब मैं बस परमेश्वर की सेवा करना चाहती थी। मुझे आशा थी कि इस तरह से, शायद मैं अपने पापों को थोड़ा कम कर सकूँ।

दिसंबर 2021 में, मुझे फिर से कलीसिया अगुआ बनाया गया। मगर यह सोचकर कि कैसे मैंने परमेश्वर को धोखा दिया था और अगुआ बनने के काबिल नहीं थी, मैंने रोते हुए एक अगुआ को बताया कि कैसे मैं पहले कलीसिया छोड़कर भाग गई थी। अगुआ ने कहा, “इस घटना को इतने साल हो गए हैं मगर तुम अभी भी नकारात्मकता और गलतफहमी की इस दशा में अटकी हुई हो। इस तरह पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करना तुम्हारे लिए मुश्किल होगा।” मैंने भी सोचा कि इतने समय बाद मैं अपने अपराध को लेकर इतनी उदास क्यों थी और अपनी दशा कैसे सुधार सकती थी। उसके बाद, मैंने प्रार्थना करके सत्य खोजने की कोशिश की। मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “यहाँ तक कि ऐसे क्षणों में भी, जिनमें तुम्हें लगे कि परमेश्वर ने तुम्हें छोड़ दिया है और तुम अँधेरे में घिर गए हो, तो तुम डरो मत : जब तक तुम जीवित हो और जब तक तुम नरक में नहीं हो, तो तुम्हारे लिए एक मौका है। हालाँकि, अगर तुम पौलुस की तरह हो, जो अड़ियल बनकर मसीह विरोधी रास्ते पर चला, और जिसने अंततः यह गवाही दी कि जीवित रहना उसके लिए मसीह होना है, तो तुम्हारे लिए सब-कुछ समाप्त हो गया है। अगर तुम समझ सको, तो तुम्हारे पास अभी भी एक मौका है। तुम्हारे पास क्या मौका है? यह कि तुम परमेश्वर के सामने आ सकते हो, और तुम अभी भी उससे प्रार्थना कर सकते हो और यह कहते हुए सत्य खोज सकते हो, ‘हे परमेश्वर! कृपया मुझे प्रबुद्ध करो ताकि मैं सत्य के इस पहलू को, और अभ्यास के इस मार्ग को समझ सकूँ।’ अगर तुम परमेश्वर के अनुयायियों में से एक हो, तो तुम्हारे पास उद्धार की आशा है, और तुम अंततः इसमें सफल हो सकते हो। क्या ये शब्द पर्याप्त स्पष्ट हैं? क्या अभी भी तुम लोगों में नकारात्मक होने की संभावना है? (नहीं।) जब लोग परमेश्वर की इच्छा को समझते हैं, तो उनका मार्ग व्यापक हो जाता है। अगर वे उसकी इच्छा को नहीं समझते, तो वह संकीर्ण हो जाता है, उनके हृदयों में अँधेरा छा जाता है, और उनके पास चलने के लिए कोई मार्ग नहीं होता। जो लोग सत्य को नहीं समझते, वे ऐसे होते हैं : वे संकीर्ण मानसिकता के होते हैं, वे हमेशा मीन-मेख निकालते हैं, और वे हमेशा परमेश्वर के बारे में शिकायत करते रहते हैं और उसे गलत समझते हैं। नतीजतन, जितना वे आगे चलते हैं, उतना ही उनका मार्ग लुप्त होता जाता है। वस्तुतः लोग परमेश्वर को नहीं समझते। अगर परमेश्वर लोगों के साथ उनकी कल्पना के अनुसार व्यवहार करता, तो मानवजाति बहुत पहले ही नष्ट हो गई होती(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें)। “मैं किसी को ऐसा महसूस करते हुए नहीं देखना चाहता, मानो परमेश्वर ने उसे बाहर ठंड में छोड़ दिया हो, या परमेश्वर ने उसे त्याग दिया हो या उससे मुँह फेर लिया हो। मैं बस हर एक व्यक्ति को बिना किसी गलतफहमी या बोझ के, केवल सत्य की खोज करने और परमेश्वर को समझने का प्रयास करने के मार्ग पर साहसपूर्वक दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ते देखना चाहता हूँ। चाहे तुमने जो भी गलतियाँ की हों, चाहे तुम कितनी भी दूर तक भटक गए हो या तुमने कितने भी गंभीर अपराध किए हों, इन्हें वह बोझ या फालतू सामान मत बनने दो, जिसे तुम्हें परमेश्वर को समझने की अपनी खोज में ढोना पड़े। आगे बढ़ते रहो। हर वक्त, परमेश्वर मनुष्य के उद्धार को अपने हृदय में रखता है; यह कभी नहीं बदलता। यह परमेश्वर के सार का सबसे कीमती हिस्सा है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। “परमेश्वर नीनवे के नागरिकों से इसलिए क्रोधित हुआ, क्योंकि उनकी दुष्टता के कार्य उसकी नज़रों में आ गए थे; उस समय उसका क्रोध उसके सार से निकला था। किंतु जब परमेश्वर का कोप जाता रहा और उसने नीनवे के लोगों पर एक बार फिर से सहनशीलता दिखाई, तो वह सब जो उसने प्रकट किया, वह भी उसका अपना सार ही था। यह संपूर्ण परिवर्तन परमेश्वर के प्रति मनुष्य के रवैये में हुए बदलाव के कारण था। इस पूरी अवधि के दौरान परमेश्वर का अनुल्लंघनीय स्वभाव नहीं बदला, परमेश्वर का सहनशील सार नहीं बदला, परमेश्वर का प्रेममय और दयालु सार नहीं बदला। जब लोग दुष्टता के काम करते हैं और परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हैं, तो वह उन पर क्रोध करता है। जब लोग सच में पश्चात्ताप करते हैं, तो परमेश्वर का हृदय बदलता है, और उसका क्रोध थम जाता है। जब लोग हठपूर्वक परमेश्वर का विरोध करते हैं, तो उसका कोप निरंतर बना रहता है और धीरे-धीरे उन्हें तब तक दबाता रहता है, जब तक वे नष्ट नहीं हो जाते। यह परमेश्वर के स्वभाव का सार है। परमेश्वर चाहे कोप प्रकट कर रहा हो या दया और प्रेममय करुणा, यह मनुष्य के हृदय की गहराइयों में परमेश्वर के प्रति उसका आचरण, व्यवहार और रवैया ही होता है, जो यह तय करता है कि परमेश्वर के स्वभाव के प्रकाशन के माध्यम से क्या व्यक्त होगा(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। परमेश्वर के इन वचनों को पढ़कर मैं बहुत प्रभावित हुई और मैंने खुद को उसका ऋणी महसूस किया। मुझे एहसास हुआ कि मैं इतने सालों से परमेश्वर को गलत समझती आ रही थी। परमेश्वर की इच्छा है कि जहाँ तक मुमकिन हो, वह मानवजाति को बचाए। वह बस एक क्षणिक अपराध के कारण किसी को त्याग नहीं देगा—वह उसे पश्चात्ताप करने के कई मौके देगा। बिल्कुल नीनवे के लोगों की तरह : परमेश्वर ने ही कहा था कि वह उन्हें नष्ट कर देगा क्योंकि वे कुकर्म कर रहे थे, उसका विरोध करके उसे नाराज कर रहे थे। मगर नीनवे को नष्ट करने से पहले, उसने योना को उनके बीच परमेश्वर का वचन फैलाने के लिए भेजा, और इस तरह उन्हें पश्चात्ताप का आखिरी मौका दिया। जब उन्होंने वास्तव में पश्चात्ताप किया, तो परमेश्वर का क्रोध माफी और दया में बदल गया, और उसने उनके कुकर्मों को माफ कर दिया। इससे, मैं मनुष्य के लिए परमेश्वर के महान प्रेम और दया को देख सकी। परमेश्वर का प्रचंड क्रोध और उदार दया सिद्धांत पर आधारित है, और यह पूरी तरह से लोगों के उसके प्रति दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। भले ही परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन के वचन कठोर हैं, और यहाँ तक कि वे निंदा करने और धिक्कारने वाले भी हैं, मगर यह वास्तव में सामना करना नहीं है, यह सिर्फ वचनों का सामना करना है। परमेश्वर चाहता था कि मैं उसके धार्मिक और अपमान न किए जा सकने वाले स्वभाव को समझूँ, मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल हो, मैं उसके सामने सच्चा पश्चात्ताप करूँ, उसके प्रति वफादार रहूँ और किसी भी समय और किसी भी परिस्थिति में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाऊँ। उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि मैं बहुत अड़ियल और विद्रोही थी। मैंने सालों से परमेश्वर के लिए गलतफहमी पाल रखी थी, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर अपने लिए फैसले लेकर मैं अँधेरे रास्ते पर चलने लगी थी। वास्तव में परमेश्वर ने मुझे बचाने से हार नहीं मानी थी। मैं उसके उद्धार के पीछे के नेक इरादों को गलत समझ रही थी। इससे मुझे परमेश्वर की यह बात याद आई : “परमेश्वर की करुणा और सहनशीलता दुर्लभ नहीं है—बल्कि मनुष्य का सच्चा पश्चात्ताप दुर्लभ है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। भले ही परमेश्वर में प्रताप और क्रोध है, भले ही वह हमारा न्याय करके हमें उजागर करता है, और यहाँ तक कि हमारी निंदा करते हुए हमें शाप भी देता है, मगर वह प्रेम और दया से भरपूर है। मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद मुझे वास्तव में बहुत पछतावा हुआ और मैंने खुद को कसूरवार माना। मैं अपने पिछले अपराध या गलतफहमी से भागती रहना नहीं चाहती थी और परमेश्वर से सावधानी नहीं बरतना चाहती थी। मैं पश्चात्ताप करने के लिए तैयार थी। मैं इस नाकामी के सबक का उपयोग खुद को सावधान करने के लिए करना चाहती थी। मैं स्वार्थी और नीच थी, मौत से डरती थी। खतरे से सामना करते हुए, मैं कलीसिया के कार्य को नजरंदाज करके भाग खड़ी हुई थी। मुझे एहसास हुआ कि मौत का डर मेरी सबसे बड़ी कमजोरी थी, इसे दूर करने और त्यागने के लिए मुझे सत्य खोजना होगा।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “मानव धारणाओं के परिप्रेक्ष्य से, उन्होंने परमेश्वर के कार्य का प्रसार करने की इतनी बड़ी कीमत चुकाई, लेकिन अंत में इन लोगों को शैतान द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया। यह मानव धारणाओं से मेल नहीं खाता, लेकिन उनके साथ ठीक यही हुआ। परमेश्वर ने ऐसा होने दिया। इसमें कौन-सा सत्य खोजा जा सकता है? क्या परमेश्वर द्वारा उन्हें इस प्रकार मरने देना उसका श्राप और भर्त्सना थी, या यह उसकी योजना और आशीष था? यह दोनों ही नहीं था। यह क्या था? अब लोग अत्यधिक मानसिक व्यथा के साथ उनकी मृत्यु पर विचार करते हैं, किन्तु चीजें इसी प्रकार थीं। परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग इसी तरीके से मारे गए, इसे कैसे समझाया जाए? जब हम इस विषय का जिक्र करें, तो तुम लोग स्वयं को उनकी स्थिति में रखो, क्या तब तुम लोगों के हृदय उदास होते हैं, और क्या तुम भीतर ही भीतर पीड़ा का अनुभव करते हो? तुम सोचते हो, ‘इन लोगों ने परमेश्वर का सुसमाचार फैलाने का अपना कर्तव्य निभाया, इन्हें अच्छा इंसान माना जाना चाहिए, तो फिर उनका अंत, और उनका परिणाम ऐसा कैसे हो सकता है?’ वास्तव में, उनके शरीर इसी तरह मृत्यु को प्राप्त हुए और चल बसे; यह मानव संसार से प्रस्थान का उनका अपना माध्यम था, तो भी इसका यह अर्थ नहीं था कि उनका परिणाम भी वैसा ही था। उनकी मृत्यु और प्रस्थान का साधन चाहे जो रहा हो, या यह चाहे जैसे भी हुआ हो, यह वैसा नहीं था जैसे परमेश्वर ने उनके जीवन को, उन सृजित प्राणियों के अंतिम परिणाम को परिभाषित किया था। तुम्हें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए। इसके विपरीत, उन्होंने इस संसार की भर्त्सना करने और परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए ठीक उन्हीं साधनों का उपयोग किया। इन सृजित प्राणियों ने अपने सर्वाधिक बहुमूल्य जीवन का उपयोग किया—उन्होंने परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए अपने जीवन के अंतिम क्षण का उपयोग किया, परमेश्वर के महान सामर्थ्य की गवाही देने के लिए उपयोग किया, और शैतान तथा इस संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए किया कि परमेश्वर के कर्म सही हैं, प्रभु यीशु परमेश्वर है, वह प्रभु है, और परमेश्वर का देहधारी शरीर है। यहां तक कि अपने जीवन के बिल्कुल अंतिम क्षण तक उन्होंने प्रभु यीशु का नाम कभी नहीं छोड़ा। क्या यह इस संसार के ऊपर न्याय का एक रूप नहीं था? उन्होंने अपने जीवन का उपयोग किया, संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए, मानव प्राणियों के समक्ष यह पुष्टि करने के लिए कि प्रभु यीशु प्रभु है, प्रभु यीशु मसीह है, वह परमेश्वर का देहधारी शरीर है, कि समस्त मानवजाति के लिए उसने जो छुटकारे का कार्य किया, उसी के कारण मानवता जीवित है—यह सच्चाई कभी बदलने वाली नहीं है। जो लोग प्रभु यीशु के सुसमाचार को फैलाने के लिए शहीद हुए, उन्होंने किस सीमा तक अपने कर्तव्य का पालन किया? क्या यह अंतिम सीमा तक किया गया था? यह अंतिम सीमा कैसे परिलक्षित होती थी? (उन्होंने अपना जीवन अर्पित किया।) यह सही है, उन्होंने अपने जीवन से कीमत चुकाई। परिवार, सम्पदा, और इस जीवन की भौतिक वस्तुएँ, सभी बाहरी उपादान हैं; स्वयं से संबंधित एकमात्र चीज जीवन है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति के लिए, जीवन सर्वाधिक सहेजने योग्य है, सर्वाधिक बहुमूल्य है, और असल में कहा जाए तो ये लोग मानव-जाति के प्रति परमेश्वर के प्रेम की पुष्टि और गवाही के रूप में, अपनी सर्वाधिक बहुमूल्य चीज अर्पित कर पाए, और वह चीज है—जीवन। अपनी मृत्यु के दिन तक उन्होंने परमेश्वर का नाम नहीं छोड़ा, न ही परमेश्वर के कार्य को नकारा, और उन्होंने जीवन के अपने अंतिम क्षणों का उपयोग इस तथ्य के अस्तित्व की गवाही देने के लिए किया—क्या यह गवाही का सर्वोच्च रूप नहीं है? यह अपना कर्तव्य निभाने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा है; अपना उत्तरदायित्व इसी तरह पूरा किया जाता है। जब शैतान ने उन्हें धमकाया और आतंकित किया, और अंत में, यहां तक कि जब उसने उनसे अपने जीवन की कीमत अदा करवाई, तब भी उन्होंने अपनी जिम्मेदारी नहीं छोड़ी। यह उनके कर्तव्य-निर्वहन की पराकाष्ठा है। इससे मेरा क्या आशय है? क्या मेरा आशय यह है कि तुम लोग भी परमेश्वर की गवाही देने और उसका सुसमाचार फैलाने के लिए इसी तरीके का उपयोग करो? तुम्हें हूबहू ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु तुम्हें समझना होगा कि यह तुम्हारा दायित्व है, यदि परमेश्वर ऐसा चाहे, तो तुम्हें इसे अपने बाध्यकारी कर्तव्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई। युगों-युगों से संतों ने प्रभु यीशु के सुसमाचार को फैलाने के लिए अपने जीवन त्यागे हैं और अपना खून बहाया है। अनेक संत परमेश्वर की खातिर शहीद हुए। उन्हें पत्थरों से मार-मारकर मार डाला गया, घोड़ों से घसीटकर मारा गया, जिंदा भून दिया गया या उल्टा सूली पर लटका दिया गया। कई मिशनरी जानते थे कि चीन में आने से उनकी जान को खतरा होगा, मगर फिर भी वे अपने जीवन को दाँव पर लगाकर यहाँ उपदेश देने आए। और अब, राज्य का सुसमाचार फैलाने के कारण कम्युनिस्ट पार्टी ने बहुत-से विश्वासियों को यातनाएँ दीं और उन पर अत्याचार कर-करके मार डाला, और इस तरह उन्होंने अपना जीवन बलिदान कर परमेश्वर के लिए एक शानदार गवाही दी। उन्हें धार्मिकता की खातिर सताया गया, और उन सभी की मौत सार्थक और परमेश्वर द्वारा स्वीकृत थी। इससे पहले, मैं कभी भी उन चीजों को स्पष्ट नहीं देख पाती थी, और मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमान संप्रभुता की कोई समझ भी नहीं थी। मुझे बस मौत का डर था और सोचती थी कि मेरी मौत के साथ सब कुछ खत्म हो जाएगा। कम्युनिस्ट पार्टी के पागलपन भरे उत्पीड़न के सामने मैंने अपना कर्तव्य त्याग दिया, एक तुच्छ जीवन जीया और परमेश्वर को धोखा दिया। यह एक गंभीर अपराध और मेरी आस्था पर एक स्थायी धब्बा बन गया। तब मुझे समझ आया कि हम जीवन में जिन चीजों का भी सामना करते हैं और जो भी कष्ट सहते हैं वह परमेश्वर द्वारा निर्धारित होता है। हम इससे नहीं भाग सकते। अगर परमेश्वर ने मेरी मौत निर्धारित की है, तो मुझे इसके प्रति समर्पित होना चाहिए, और उन संतों के नक्शेकदम पर चलना चाहिए जिन्होंने पूरे इतिहास में परमेश्वर की गवाही देने के लिए अपने जीवन बलिदान कर दिए। इस सोच के साथ मैं मौत का सही तरीके से सामना कर सकी और मुझे परमेश्वर से अधिक आस्था मिली। भविष्य में चाहे मुझे किसी भी हालात का सामना करना पड़े, मैं परमेश्वर पर निर्भर रहकर अपनी गवाही पर डटे रहने को तैयार थी, और मैं फिर कभी अपना कर्तव्य नहीं त्यागूँगी या परमेश्वर को धोखा नहीं दूँगी।

6 जुलाई, 2022 को मेरी साथी मेरे पास आई और घबराते हुए कहा, “एक बात हो गई है। तीन अगुआओं को गिरफ्तार कर लिया गया है।” उसकी बात सुनकर मुझे बहुत बेचैनी हुई। वे तीन अगुआ कई लोगों और मेजबानी करने वाले परिवारों के संपर्क में थे, और उनमें से एक तो कुछ दिनों पहले ही हमारे संपर्क में था। हमें और अधिक नुकसान से बचने के लिए उनकी गिरफ्तारी के बाद के हालात से तुरंत निपटना था। मगर मैं अभी भी थोड़ी डरी हुई थी। अगर उन भाई-बहनों पर नजर रखी जा रही होगी, तो मैं उनके संपर्क में आकर सीधे पुलिस के जाल में फँस सकती थी। लेकिन फिर मैंने उस दर्दनाक सबक के बारे में सोचा जो मैंने पिछली बार कलीसिया छोड़कर भागने पर सीखा था, और कैसे मैंने परमेश्वर को धोखा दिया और उसके स्वभाव को ठेस पहुँचाई थी। वह दर्द मैं कभी नहीं भुला सकती और वही गलती दोहराना नहीं चाहती थी। तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, “हे परमेश्वर, मैं इन हालात का सामना करते हुए अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार रहने और छोड़कर नहीं भागने का वादा करती हूँ। मुझे आस्था और शक्ति दो।”

उसके बाद, मैं भाई-बहनों को तुरंत सूचित करने के लिए भागी कि वे पूरी तरह से सचेत रहें, और परमेश्वर के वचनों की किताबों को सुरक्षित जगहों पर पहुँचाया। फिर मुझे ख्याल आया कि मेरा घर भी सुरक्षित नहीं है, तो मैंने घर जाकर अपनी सास को यह बताने का फैसला किया कि वे कहीं और जाकर एक कमरा किराये पर ले लें। जैसे ही मैं दरवाजे के पास पहुँची, मैंने वहाँ काले कपड़े पहने दो युवकों को देखा, और अंदर जाने की हिम्मत नहीं की। बाद में, मुझे पता चला कि मेरी सास को पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया था, और वो काले कपड़े पहने युवक पुलिस अधिकारी थे। मुझे यह भी पता चला कि जो बहन मेरे साथ ही दूसरों को अपना स्थान बदलने की सूचना देने निकली थी, वह वापस नहीं आई है और शायद उसे गिरफ्तार कर लिया गया है। इन हालात में मैं ज्यादा कुछ नहीं सोच पाई, और मैं अपनी साथी बहन के साथ इस घटना के बाद के हालत से निपटने के लिए भागी। बाद में मुझे पता चला कि यह कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा चलाया गया एक समन्वित गिरफ्तारी अभियान था, और 5 तारीख की रात और 6 तारीख के दिन के बीच 27 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया था। इस भयानक हालात का सामना करते हुए, मैं जानती थी कि परमेश्वर मुझे एक अलग विकल्प चुनने का मौका दे रहा था। इससे पहले, मैं भगोड़ी बन गई थी, परमेश्वर को धोखा दिया था। इस बार मैं फिर से परमेश्वर को निराश नहीं कर सकती थी, मुझे इन गिरफ्तारियों के बाद के हालात से निपटने के लिए परमेश्वर पर निर्भर होकर अपना कर्तव्य निभाना होगा और दूसरों के साथ मिलकर काम करना होगा। उसके बाद, मैंने अपने भाई-बहनों के साथ मिलकर हालात से निपटना जारी रखा। इस तरह अभ्यास करने से मुझे काफी सुकून महसूस हुआ।

अब जब भी मैं अपने उस अपराध के बारे में बात करती हूँ, तो इसका सामना करके यह स्वीकार पाती हूँ कि मैं स्वार्थी और नीच इंसान हूँ जो मौत से डरती है। मैं अब वैसी इंसान नहीं बनना चाहती। मै चाहती हूँ कि वह अपराध मेरे लिए एक खतरे की घंटी की तरह हो, जो मुझे याद दिलाए कि मैं वही गलती न दोहराऊँ। अब जब मैं भाई-बहनों को ऐसी ही दशा में देखती हूँ, तो उनके साथ संगति करती हूँ ताकि वे परमेश्वर के धार्मिक और अपमान न किए जा सकने वाले स्वभाव को समझ सकें, और इसे एक चेतावनी की तरह देखें। वह अपराध अभी भी मेरे दिल पर अंकित है और अब भी मुझे पीड़ा देता है, मगर यह उन अनुभवों में से एक है जिन्हें मैं अपने जीवन में सबसे अधिक संजोकर रखती हूँ।

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