22. एक मूल्यांकन जिसने मुझे उजागर किया

क्षिदन, अमेरिका

साल 2021 के मई महीने में, एक अगुआ, बहन चेन ने आकर मुझसे पूछा, क्या मैं बहन लू के बारे में जानती हूँ, क्या दूसरों के प्रति उसका बर्ताव सही है, कहीं वह सबकी आलोचना तो नहीं करती? उनका सख्त अंदाज़ देखकर मैंने फौरन पूछा कि बहन लू का क्या मामला है। उन्होंने कहा कि बहन लू बहुत अहंकारी है, उसने कई अगुआओं की आलोचना की है और उन्हें झूठे अगुआ बताया है। उन्होंने यह भी कहा कि बहन लू एक अच्छी वक्ता है, वह सभाओं में अपने आत्मज्ञान के बारे में बातें कर सकती है, मगर असल में वह खुद को बिल्कुल भी नहीं समझती। उन्होंने कहा कि ज़्यादातर भाई-बहन उसे ठीक से नहीं समझते, उसकी सहभागिता पसंद करते हैं। मेरे मन में फौरन विचार आया कि कलीसिया से निकाले गये कुछ मसीह-विरोधियों ने ऐसा ही किया था। क्या यह मसीह-विरोधियों वाला काम नहीं है? कहीं किसी अगुआ को झूठा कहना एक बात है, लेकिन कई अगुआओं को झूठा कहना अहंकार है। मुझे पिछले साल हुए अगुआओं के चुनाव की याद आई, जब बहन लू किसी से एक उम्मीदवार के बारे में गुप-चुप चर्चा करते हुए कह रही थी कि उसे अपने नाम और रुतबे की परवाह है, वो असल काम नहीं करती। मेरे मन में भी बहन लू के ख़िलाफ़ पक्षपात भरे विचार आने लगे, मुझे लगा कि वो सचमुच सबकी आलोचना करती होगी।

फिर अगुआ ने मुझे बहन लू के बारे में एक मूल्यांकन लिखने को कहा। मुझे हाल ही में उसके साथ हुई एक बातचीत की याद आई, जब कुछ लोगों ने किसी बात पर उसकी गलती बताई, तो पहले वह खुद का बचाव करती रही, फिर सच में चिंतन किया और खुद में बदलाव लाकर जीवन प्रवेश किया। उसने सत्य को स्वीकार किया। उसके साथ बातचीत में, मैंने देखा कि वह आत्मचिंतन और आत्मज्ञान पर ध्यान देती है, प्रार्थना करके सत्य के सिद्धांत खोजती है, जीवन प्रवेश के लिए परमेश्वर के वचन भी ढूंढती है। उसने कुछ गवाहियां भी लिखी थीं, मुझे लगा वह सत्य की खोज करने वाली इंसान है। मगर जब मैंने सोचा कि अगुआ ने कहा कि वह अहंकारी है, चिकनी-चुपड़ी बातें करके लोगों को गुमराह करती है, और यूं ही अगुआओं की आलोचना करती है, ऐसे में अगर मैंने कहा कि वह सत्य स्वीकारती और उसे खोजती है, तो कहीं अगुआ यह न कहें कि मुझमें विवेक नहीं है, मैं मूर्ख हूँ। अगर मैंने उनके मन में खराब छाप छोड़ी, तो मैं काम करने के मौके भी गँवा सकती हूँ। इन बातों को ध्यान में रखकर, अपने मूल्यांकन में मैंने कहा कि बहन लू सत्य को स्वीकार नहीं करती, समस्याओं से सामना होने पर वह खुद को सही ठहराती है। मैंने रोजमर्रा के जीवन में दिख रही उसकी भ्रष्टता के बारे में भी लिखा। कुछ ऐसे वाकयों के बारे में लिखा जब उसने सत्य खोजा था, पर यह भी जोड़ दिया कि मैं यकीन से नहीं कह सकती कि वह असल में सत्य खोजती है या नहीं। मूल्यांकन लिखने के बाद मुझे थोड़ी बेचैनी महसूस हुई। बहन लू के साथ मेरा अनुभव कभी वैसा नहीं रहा जैसा अगुआ ने बताया था। उसका स्वभाव थोड़ा अहंकारी ज़रूर था, कभी-कभी उसकी बेबाकी से कही बातें स्वीकारना मुश्किल होता, मगर वह दिल की बुरी नहीं थी, उसने परमेश्वर के घर के हितों को कायम रखा था। दूसरों को सत्य के सिद्धांतों का उल्लंघन करते देख उसके ख़िलाफ़ बोलने की हिम्मत थी। उदाहरण के तौर पर, जब उसने एक बहन को अपने काम में लापरवाही करते देखा जिससे काम की प्रगति पर बुरा असर पड़ा, तो उसने अपने संबंधों की परवाह न कर फौरन समस्या के बारे में बताया, उसने अगुआ को भी इस बारे में सब बता दिया। बहन लू के सामान्य व्यवहार को देखा जाए तो उसने परमेश्वर के घर के हितों को कायम रखा और वो एक सही इंसान थी, मगर अगुआ ने कुछ और ही कहा। लगने लगा कहीं अगुआ तो पक्षपाती नहीं है। बहन लू के बारे में मूल्यांकन इकट्ठा करने का मतलब, कहीं उसे काम से बर्खास्त करना या कलीसिया से हटा देना तो नहीं है। इस बारे में जितना सोचती उतनी ही बेचैनी होती, फिर मैंने अगुआ से पूछा कि क्या उन्होंने बहन लू से उसकी समस्याओं पर सहभागिता की थी, क्या उसे सब समझ आ गया। मगर अगुआ ने सवाल को यह कहकर टाल दिया कि बहन लू पहले भी अगुआओं की आलोचना करती रही है और वह फिर से ऐसा करने लगी है। उन्होंने कहा कि उसकी वजह से एक अगुआ इस्तीफा देने की सोच रही थी, तो वह पहले ही रुकावट बन चुकी है। अगुआ से यह सुनकर, मुझे लगा कि उनको समस्या की बेहतर समझ होगी, शायद मुझमें विवेक नहीं है, मैं बहन लू के बाहरी बर्ताव के झांसे में थी। मैंने और कुछ भी नहीं कहा।

कुछ दिनों बाद, एक बड़ी अगुआ ने हालात की जांच कर कहा कि बहन लू ने बेवजह ही अगुआओं की आलोचना नहीं की, बल्कि सही तरीके से झूठे अगुआओं को बेनकाब कर रही थी। बहन लू ने बहन चेन की रिपोर्ट की थी, इसलिए वह अपनी खुन्नस निकाल रही थी, उसे अगुआओं की आलोचना करने वाली कहकर उसकी निंदा कर रही थी, उसने एकतरफा फैसला लेकर बहन लू को काम करने से रोक दिया। जिन झूठे अगुआओं की बहन लू ने रिपोर्ट की थी, उन्हें बर्खास्त कर उसे काम वापस दे दिया गया। यह सुनकर मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा—मैं हैरान रह गई। मुझे थोड़ी बेचैनी भी महसूस होने लगी। मैंने बहन लू के अहंकारी होने, अगुआओं की आलोचना करने, सत्य को अच्छी तरह न स्वीकारने की बात कहकर उसकी निंदा करने में अगुआ का साथ दिया था। मैं भी बहन लू की निंदा कर रही थी। यह एक गंभीर समस्या थी। मुझे लगा ये कोई मामूली बात नहीं, मुझे आत्मचिंतन करना चाहिए। परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए मैंने कहा कि वो मेरी मदद करे कि मैं खुद को समझ पाऊँ। फिर, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "मानव-जीवन के सही मार्ग पर चलने के लिए तुम्हें कम से कम, गरिमा और इंसानी सदृशता के साथ जीना चाहिए; तुम्हें दूसरों का भरोसा प्राप्त करना चाहिए, अपने प्रति उनका उच्च सम्मान हासिल करना चाहिए, और तुम्हें उन्हें यह महसूस कराना चाहिए कि तुम्हारा चरित्र और निष्ठा प्रभावशाली हैं और तुम अपनी बात के पक्के हो। ... गरिमामय लोगों के व्यक्तित्व हमेशा अन्य लोगों के साथ पूरी तरह से संगत नहीं होते, लेकिन वे ईमानदार होते हैं, और अंततः अन्य लोग फिर भी उनका उच्च मूल्यांकन करते हैं, क्योंकि वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं, ईमानदार और गरिमामय होते हैं, निष्ठावान और चरित्रवान होते हैं, कभी भी दूसरों का फायदा नहीं उठाते, जब लोगों की कुछ समस्याएँ होती हैं तो उनकी मदद करते हैं, वे जमीर और विवेक के साथ दूसरों से निभाते हैं, और वे कभी भी दूसरों की खुशी से आलोचना नहीं करते; दूसरों का मूल्यांकन या चर्चा करते समय वे सटीक बात करते हैं, वे वही कहते हैं जो वे जानते हैं, और जब वे कोई चीज नहीं जानते तो वे लापरवाही से नहीं बोलते और तथ्यों में गलत चीजें नहीं जोड़ते। उनके द्वारा कही गई बातों को विश्वसनीय माना जा सकता है और उन पर विचार किया जा सकता है। चरित्रवान लोगों के शब्दों और कर्मों का मूल्य होता है और वे लोगों के भरोसे के योग्य होते हैं—इसे गरिमा कहा जाता है। चरित्रहीन लोगों के बारे में कोई अच्छी राय नहीं रखता, उनकी बातों और कर्मों पर कोई ध्यान नहीं देता, कोई उन्हें गंभीरता से नहीं लेता और कोई उन पर भरोसा नहीं करता, क्योंकि वे झूठ बहुत ज्यादा और सच बहुत कम बोलते हैं; जब वे लोगों के साथ बातचीत करते हैं और जब वे दूसरों के लिए काम करते हैं, तो वे निष्ठाहीन होते हैं और उनमें ईमानदारी की कमी होती है, उनमें कोई निष्ठा नहीं होती और उन्हें कोई पसंद नहीं करता। क्या तुम लोगों को कोई ऐसा मिला है, जो तुम लोगों के विचार से, तुम्हारे भरोसे के लायक हो? क्या तुम लोग खुद को दूसरे लोगों के भरोसे के लायक समझते हो? क्या तुम दूसरों का भरोसा पाने में सक्षम हो? उदाहरण के लिए मान लो, कोई तुमसे पूछता है कि तुम किसी और के बारे में क्या सोचते हो, और तुम अपने मन में सोचते हो : 'अच्छा है, उसने मुझसे पूछा। मैं किसी का मूल्यांकन या उसके बारे में निर्णय मनमाने ढंग से बिल्कुल नहीं करूँगा। मैं उन्हें, जो मैं जानता हूँ, वह जरूर बताऊँगा, लेकिन मैं उन चीजों के बारे में निश्चित रूप से बात नहीं करूँगा, जिनके बारे में मैं कुछ नहीं जानता। मैं उन्हें उन बातों के बारे में बताऊँगा जिनके बारे में मैं निश्चित हूँ, लेकिन जहाँ तक मेरे अनुमान या कल्पना की बात है, मैं तथ्यात्मक रूप से गलत चीजें नहीं जोडूँगा और उस तरह की बातें बिल्कुल नहीं कहूँगा। अगर वह मेरा अपना आकलन है या मैंने कुछ ऐसा देखा है जो एक निश्चित तरीके से दिखाई दिया है, तो मैं उसे निश्चित रूप से "मेरे आकलन के आधार पर" या "जो मैंने देखा और पाया है, उसके आधार पर" शब्दों के साथ कहूँगा, ताकि वे मेरी ईमानदारी और रवैये को समझ सकें और मुझ पर भरोसा कर सकें।' क्या तुम लोग इसमें सक्षम हो? (नहीं।) तो यह साबित होता है कि तुम लोग दूसरों के प्रति पर्याप्त ईमानदार नहीं हो, और तुम लोगों के आचरण में ईमानदार दिल या ईमानदार रवैया नहीं होता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'ईमानदार होकर ही कोई सच्ची मानव सदृशता जी सकता है')। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि सच्चे, ईमानदार लोग दूसरों के मामले में बेपरवाही से नहीं बोलते, उनका सही और निष्पक्ष ढंग से मूल्यांकन करते हैं। वे वही कहते हैं जो उन्हें पता होता है, कुछ और नहीं। उन पर भरोसा किया जा सकता है। मगर जो सच्चे नहीं होते, उनके मूल्यांकनों में निजी मंशाएं होती हैं, वे अपनी कल्पना के हिसाब से बोलते हैं, अपना मकसद हासिल करने के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं, चीज़ों को पलट देते हैं। ऐसे लोग बहुत झूठ बोलते हैं, सच कम ही बोलते हैं, वो भरोसे के लायक नहीं होते। उनमें आत्मसम्मान और निष्ठा नहीं होती। मैंने बहन लू के बारे में अपने मूल्यांकन पर फिर से सोचा। जब मैंने सुना कि अगुआ उसे अहंकारी और पक्षपाती बताकर उसकी निंदा कर रही है, तो मैं नहीं पहचान सकी कि वह सही है या गलत, यह भी नहीं जानती थी कि बहन लू ने जिनकी रिपोर्ट की, वे झूठे अगुआ थे या नहीं। बिना सोचे-समझे अगुआ की बात मान ली। हालांकि मुझे एहसास हुआ कि बहन लू के बारे में अगुआ की राय मेरे अनुभव के हिसाब से सही नहीं थी, इससे मुझे बेचैनी भी हुई, मुझे डर था उसे ये न लगे कि मुझमें विवेक नहीं है और मेरी बुरी छाप पड़े, फिर शायद मुझे अधिक महत्वपूर्ण काम न मिलें। इसलिए मैंने बहन लू के बारे में नकारात्मक मूल्यांकन लिखा। मैं तथ्यों के ख़िलाफ़ जा रही थी, उसे फंसा रही थी। यह उसे अलग करना और दबाना था, जो वाकई दुर्भावना भरे स्वभाव को दर्शाता है। बहन लू का झूठे अगुआओं के रुतबे के दबाव में आये बिना रिपोर्ट करना और उन्हें उजागर करना एक उचित बात है। मैं उसका समर्थन करने में विफल रही, निंदा करने में अगुआ का साथ भी दिया, एक अच्छी बात को गलत बताया। इससे बहन लू को बहुत दुख हुआ। यह बुरे काम करना, शैतान के सहयोगी की तरह काम करना है। मुझे बहुत पछतावा और आत्मग्लानि हुई। लगा मैंने वाकई बहन लू के साथ ठीक नहीं किया, उसका सामना नहीं कर पा रही थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मुझमें इंसानियत नहीं है। मैंने एक झूठे अगुआ की बात मानकर, बहन लू को दबाया, उसकी निंदा की। मैंने आपके सामने अपराध किया है। परमेश्वर, मैं गलत थी, अब मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ...।"

मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश पढ़े, जिनसे खुद को समझने में काफी मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मसीह-विरोधी मसीह के साथ उसी तरह से जुड़ते हैं जैसे वे लोगों के साथ व्यवहार करते हैं, कुछ भी कहते और करते हुए उससे संकेत लेते हुए, उसका सुर सुनते हुए और उसके वचनों का अर्थ समझने की भावना जताते हुए। जब वे बोलते हैं तो उनका एक भी शब्द सच्चा या संजीदा नहीं होता; उन्हें सिर्फ खोखले शब्द और सिद्धांत बोलने आते हैं। वे उस व्यक्ति को धोखा देने और ठगने की कोशिश करते हैं, जो उनकी नजर में सिर्फ एक आम व्यक्ति है। वे ऐसे बात करते हैं जैसे एक साँप रेंगता है, लहरदार और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता चुनते हुए। उनके शब्दों का अंदाज और दिशा किसी खंभे पर चढ़ती खरबूजे की बेल की तरह होते हैं। जब तुम लोग कहते हो कि किसी में भरपूर योग्यता है और उसे आगे बढ़ाया जा सकता है, तो वे फौरन बताने लगते हैं कि वे कितने अच्छे हैं, और उनमें क्या अभिव्यक्त और उजागर होता है; और अगर तुम लोग कहते हो कि कोई बुरा है, तो वे यह कहने में देर नहीं लगाते कि वे कितने बुरे और दुष्ट हैं, और वे किस तरह कलीसिया में उत्पात मचाते और व्यवधान पैदा करते रहते हैं। जब तुम लोग किसी चीज के बारे में सच्चाई जानना चाहते हो, तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता; वे टालमटोल करते रहते हैं और इंतजार करते हैं कि तुम खुद ही किसी फैसले पर पहुँच जाओ, वे तुम्हारे शब्दों का अर्थ टटोलने और तुम्हारे इरादों को भाँपने की कोशिश करते हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं वह सिर्फ चापलूसी, चमचागीरी और निचले दर्जे की चाटुकारिता होती है; उनके मुंह से सत्य का एक शब्द भी नहीं निकलता" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो)')। "मसीह-विरोधियों की मानवता बेईमान होती है, जिसका अर्थ है कि वे जरा भी सच्चे नहीं होते। वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, उसमें उनके इरादों और लक्ष्यों की मिलावट होती है, और इस सबमें छिपी होती हैं उनकी अनकही और अकथनीय चालें, तरीके, प्रयोजन और साजिशें। उनके बोलने का तरीका इतना मिलावटी होता है कि यह पता चलना असंभव होता है कि उनकी कौन-सी बात सच्ची है और कौन-सी झूठी, कौन-सी सही है और कौन-सी गलत। चूँकि वे बेईमान होते हैं, इसलिए उनके दिमाग बेहद जटिल होते हैं, बहुत ही घुमावदार और चालों से भरे होते हैं। वे एक भी सीधी बात नहीं कहते। वे एक को एक, दो को दो, हाँ को हाँ और ना को ना नहीं कहते। इसके बजाय, सभी मामलों में वे गोलमोल बातें करते हैं और चीजों पर अपने दिमाग में कई बार सोच-विचार करते हैं, कारणों और परिणामों के बारे में सोचते हैं, हर कोण से गुण और कमियाँ तोलते हैं। फिर, वे अपनी भाषा से चीजों में इस तरह हेरफेर करते हैं कि वे जो कुछ भी कहते हैं, वह काफी बोझिल लगता है। ईमानदार लोग उनकी बातें कभी समझ नहीं पाते और वे उनसे आसानी से धोखा खा जाते हैं और ठगे जाते हैं, और जो भी ऐसे लोगों से बात करता है, उसका यह अनुभव थका देने वाला और दुष्कर होता है। वे कभी एक को एक और दो को दो नहीं कहते, वे कभी नहीं बताते कि वे क्या सोच रहे हैं, और वे चीजों का वैसा वर्णन नहीं करते जैसी वे होती हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह अथाह होता है, और उनके कार्यों के लक्ष्य और इरादे बहुत जटिल होते हैं। और अगर बोल चुकने के बाद वे उजागर हो जाते हैं या पकड़े जाते हैं, तो वे जल्दी से लीपापोती करने के लिए एक और कहानी गढ़ लेते हैं। ... जिस सिद्धांत और तरीके से ये लोग दूसरों से बातचीत करते हैं, वह लोगों को झूठ बोलकर बरगलाना है। वे दोमुँहे होते हैं और अपने श्रोताओं के अनुरूप बोलते हैं; स्थिति जिस भी भूमिका की माँग करती है, वे उसे निभाते हैं। वे मधुरभाषी और चालाक होते हैं, उनके मुँह झूठ से भरे होते हैं, और भरोसे के लायक नहीं होते हैं। जो भी कुछ समय के लिए उनके संपर्क में आता है, वह धोखा खा जाता है या परेशान हो जाता है और उसे पोषण, सहायता या सीख नहीं मिल पाती" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव के सार का सारांश (भाग एक)')। परमेश्वर के वचन बताते हैं कि मसीह-विरोधियों की कथनी और करनी में हमेशा मक्कारी होती है, वे घुमा-फिराकर बातें करते हैं, दूसरों को धोखा देते हैं, उनमें कोई विश्वसनीयता नहीं होती। मसीह के संपर्क में आने पर भी, वे सुराग ढूंढते हैं, देखते हैं कि हवा का रुख किधर है, वे खुशामदी होते हैं। उनमें कुछ भी सच्चा नहीं है। वे बहुत कपटी और दुष्ट होते हैं। मैं कभी मसीह के सीधे संपर्क में नहीं आई, पर मैं चिह्नों पर कान लगाए बैठी थी, लोगों की आम राय जानकर अंदाज़ा लगाती थी कि वे क्या चाहते हैं। मैं एक मसीह विरोधी का स्वभाव दिखा रही थी। कुछ महीने पहले, अगुआ ने बहन लू के बारे में मेरा मूल्यांकन माँगा था, उस समय मैंने नहीं सोचा कि वे उसके बारे में नकारात्मक राय रखती हैं, मुझे लगा था शायद वे उसे तरक्की देना चाहती हैं। इसलिए, मैंने कहा कि समस्याओं से सामना होने पर बहन लू सत्य की खोज करके उसे स्वीकार कर सकती है, उसमें धार्मिकता का भाव है, वो कलीसिया के हितों को कायम रख सकती है। मैंने उसकी खूबियों के बारे में लिखा था, कमजोरियों का ज़िक्र नहीं किया। मगर जब अगुआ ने बहन लू की आलोचना की, उसके व्यवहार के बारे में जानकारी जुटाने लगी, तो मुझे पता था कि बहन लू के साथ मेरा अनुभव अलग है, मगर मुझे डर था वो कहेंगी ये मुझमें विवेक नहीं है, इसलिए मैंने उनका साथ देते हुए बहन लू को अहंकारी और आलोचना करने वाली कहा, और सत्य को स्वीकार नहीं कर पाई। मैं उसी इंसान का मूल्यांकन कर रही थी, पर मैंने उसके बारे में बिल्कुल अलग बातें कही। मैं जरा भी निष्पक्ष नहीं थी। फिर मैंने प्रभु यीशु के निर्देश के बारे में सोचा, "तुम्हारी बात 'हाँ' की 'हाँ,' या 'नहीं' की 'नहीं' हो" (मत्ती 5:37)। जब मैं उसके बारे में लिख रही थी, तो अंदाज़ा लगाने लगी कि अगुआ क्या चाहती हैं, ताकि अपनी अच्छी छवि बना सकूँ। इसलिए अपनी राय देते हुए, मैंने चीज़ों को सरल ढंग से नहीं देखा, घुमा-फिराकर बातें की। मेरे कथनी और करनी में निजी मंशाएं छिपी हुई थीं, एक भी सही और सच्ची बात नहीं थी। मैं वाकई धूर्त और बुरी थी। मैंने देखा कि मेरी कथनी और करनी सिद्धांतों के अनुरूप नहीं थी, मैं विश्वास या भरोसे के लायक नहीं थी। मैं अपनी गरिमा पूरी तरह खो चुकी थी। मुझे खुद से बहुत अधिक नफ़रत होने लगी। पहले जब मैं झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को अपने नाम और रुतबे के लिए दूसरों पर रौब जमाते देखती थी, तो मुझे गुस्सा आता था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं भी ऐसा बुरा कर्म करूंगी। मैंने सिर्फ अपने मकसद और हितों की रक्षा के लिए अपनी बातों को तोड़-मरोड़कर पेश किया। मैंने एक अच्छी इंसान को बुरी बता दिया। मैंने परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने वाली एक सच्ची इंसान को आलोचना करने वाली बताया। एक अच्छी इंसान को फंसाया और उससे गलत बर्ताव किया। मैंने एक झूठे अगुआ का पक्ष लेकर, बहन लू की निंदा की और उसे दबाया। मुझे एहसास हुआ कि मेरे दिल में दुर्भावना थी।

एक बार सभा के दौरान एक बहन ने कहा कि अगुआ बहन लू के बारे में मूल्यांकन जुटाना चाहती है, उसे लगा कि बहन लू वैसी नहीं है जैसा अगुआ बता रही है। उसने आँखें मूंदकर अगुआ की बात नहीं सुनी, बल्कि उसने अगुआ की कथनी और करनी को पहचाना। उसने बड़े अगुआओं को भी इस बारे में बताया और बहन लू के साथ ऐसे बर्ताव को रोका। परमेश्वर ने हमारे लिए एक-सा माहौल तैयार किया था। वो बहन सत्य खोज सकी, उसके दिल में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा थी, वह बेबाक थी। उसने बहन लू के पक्ष में खड़ी होकर परमेश्वर के घर के हितों को कायम रखा, मगर मैं झूठे अगुआ की चालों और झूठी बातों में फंस गई, उनकी बेलगाम दुष्टता को बढ़ावा देकर शैतान की सेविका की तरह काम किया। सब समझ आने पर मुझे खुद से नफ़रत हो गई। फिर मैंने सोचा, जब अगुआ बहन लू के बारे में वैसी बातें कह रही थीं, तब मैं इतनी आसानी से क्यों मान गई। क्योंकि मैं आलोचनात्मक होने के सत्य को अच्छे से नहीं समझती थी। कोई इंसान आलोचनात्मक है या नहीं, इसे समझने के लिए जानना होगा कि उसकी मंशाएं क्या हैं, उनके द्वारा रिपोर्ट की गई समस्याएँ असली हैं या नहीं। सिद्धांतों के ख़िलाफ़ जाने और वास्तविक काम न करने वाले झूठे अगुआओं का पता लगने पर, अगर व्यक्ति सत्य समझने वाले लोगों के साथ सहभागिता करके ऐसे लोगों की पहचान करता है, और उसकी मंशा कलीसिया के कार्य को कायम रखने की होती है, तो यह आलोचना करना नहीं बल्कि ईमानदार होना है। जो वास्तव में आलोचना करने वाले होते हैं उनकी अपनी मंशाएं होती हैं, वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ देते हैं, वे लोगों को बदनाम और उन पर हमले करते हैं। वे दूसरों को काबू करने के तरीके ढूंढते हैं, राई का पहाड़ बनाते हैं, लोगों में थोड़ी भ्रष्टता दिखते ही अंधाधुंध आलोचना करते हैं। ये लोगों को दबाना और उनकी निंदा करना है। यह आलोचना करना है। मुझे इसकी सही समझ नहीं थी कि आलोचनात्मक होना क्या होता है, मैं गलत ढंग से ये मानती थी कि अगर हमें किसी अगुआ में समस्या का पता चलता है, तो सीधे उनसे बात करनी चाहिए या बड़े अगुआ को रिपोर्ट करनी चाहिए, अगर हम भाई-बहनों से इस बारे में बात करते हैं, तो यह आलोचना करना है। बात क्या है, इसके पीछे क्या है ये नहीं जानती थी। जब मैंने बहन लू को दूसरी बहनों से ये कहते सुना कि कुछ अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करते, झूठे हैं, तो मैंने सोचा कि वह आलोचना करती है, मैंने समझे बिना उसकी निंदा की। मैंने बिल्कुल नहीं सोचा कि उसकी बात में सच्चाई है या नहीं। मगर तथ्यों से पता चला कि वह सत्य के आधार पर रिपोर्ट कर रही थी। उसने सच बोलकर परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने की हिम्मत की। यह आलोचना करना नहीं, बल्कि धार्मिकता को कायम रखना है। बाहर से तो यह सब एक जैसा ही दिखता है, मगर मंशाओं को देखो तो ज़मीन-आसमान का फर्क है। सत्य के सिद्धांतों, परमेश्वर के वचनों और हालात पर गौर करने के बाद, लोगों को बदनाम करने की संभावना कम हो जाती है।

अपनी इस विफलता से मैंने कुछ सबक सीखे। आगे मूल्यांकन करते समय, मुझे आँखें मूंदकर दूसरों की बातें नहीं सुननी, बल्कि दिल में श्रद्धा रखनी है। तथ्यों के हिसाब से चलते हुए परमेश्वर के वचनों के अनुसार चीज़ों का सार पहचानना है। मैं सत्य की रोशनी में तुरंत चीज़ों को न भी समझ पाऊँ, तो भी चापलूसी करने और चीज़ों को विकृत करने के बजाय, कम से कम ईमानदार तो रहना ही होगा। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करो : 'परमेश्वर के मार्ग' का क्या अर्थ है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। और परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना क्या है? उदाहरण के लिए, जब तुम किसी का मूल्यांकन करते हो—यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से संबंधित है। जब तुम ठीक वही कहते हो जो तुम सोचते हो, और ठीक वही कहते हो जो तुमने देखा है, तो तुम ईमानदार होते हो। और सबसे बढ़कर, ईमानदार होने के अभ्यास का अर्थ है परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना। परमेश्वर लोगों को यही सिखाता है; यह परमेश्वर का मार्ग है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। क्या ईमानदार होना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का हिस्सा है? (हाँ।) और क्या यह परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना है? (हाँ।) अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुमने जो देखा है और जो तुम सोचते हो, वह वो नहीं होता जो तुम्हारे मुँह से निकलता है। कोई तुमसे पूछता है, 'उस व्यक्ति के बारे में तुम्हारी क्या राय है? क्या वह परमेश्वर के घर के कार्य की जिम्मेदारी लेता है?' और तुम उत्तर देते हो, 'वह बहुत अच्छा है, वह मुझसे भी अधिक जिम्मेदारी लेता है, उसकी क्षमता मुझसे भी बेहतर है, और उसकी मानवता भी अच्छी है, परिपक्व है।' लेकिन तुम अपने दिल में क्या सोच रहे होते हो? तुम वास्तव में यह सोच रहे होते हो कि उस व्यक्ति में क्षमता तो है, लेकिन वह भरोसे के लायक नहीं है, और कुछ हद तक चालाक और बहुत हिसाब-किताब करने वाला है। अपने मन में तुम वास्तव में यही सोच रहे होते हो, लेकिन जब बोलने का समय आता है, तो तुम्हारे मन में आता है कि, 'मैं सच नहीं बोल सकता, मुझे किसी को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए,' इसलिए तुम जल्दी से कुछ और कह देते हो, तुम उसके बारे में कहने के लिए अच्छी बातें चुनते हो, और तुम जो कुछ भी कहते हो, वह वास्तव में वह नहीं होता जो तुम सोचते हो, वह सब झूठ और पाखंड होता है। क्या यह दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो? (नहीं।) तुमने शैतान का मार्ग अपनाया है, राक्षसों का मार्ग अपनाया है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? (ईमानदार होना।) हालाँकि तुम किसी अन्य व्यक्ति से ये शब्द कहते हो, लेकिन परमेश्वर भी सुनता है, देखता है, और तुम्हारे अंतर्मन की जाँच करता है। क्या लोग इस तरह की जाँच करने में सक्षम हैं? ज्यादा से ज्यादा, लोग यह देख सकते हैं कि तुम सच नहीं बोल रहे। वे वही देख सकते हैं, जो सतह पर होता है। केवल परमेश्वर ही तुम्हारे दिल की गहराई में देख सकता है, केवल परमेश्वर ही देख सकता है कि तुम क्या सोच रहे हो, क्या योजना बना रहे हो, तुम्हारे दिल में कौन-सी छोटी योजनाएँ, कौन-से कपटी तरीके, कौन-से कुटिल विचार हैं। और यह देखकर कि तुम सच नहीं बोल रहे, परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या राय बनाता है, वह तुम्हारा क्या मूल्यांकन करता है? यही कि ऐसा करके तुमने परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं किया, क्योंकि तुमने सच नहीं बोला" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण भाग सत्य को व्यवहार में लाना है')। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि जो भी होता है उसका संबंध इससे है कि क्या हम परमेश्वर का भय मानकर शैतान से दूर रह सकते हैं। परमेश्वर हमारे दिलो-दिमाग में देखता है। हम जो भी सोचते और करते हैं, वह सब देख सकता है। मूल्यांकनों में हमें श्रद्धा का भाव रखना चाहिए, भावनाओं में बहने या अपनी मंशाओं के काबू में आने के बजाय, तथ्यों से सच की खोज करनी चाहिए, जो हम जानते हैं वही कहना चाहिए, और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार ईमानदार होना चाहिए। अगर हम किसी के व्यवहार की प्रकृति को साफ तौर पर देख या सिद्धांतों को समझ नहीं पाते, तो खोज और प्रार्थना करनी चाहिए, ताकि हम बिना सोचे-समझे किसी की आलोचना न करें, उन पर ठप्पा न लगाएँ। फिर मैंने कलीसिया की सफाई के काम के बारे में सोचा। निजी मंशाएं होना, तथ्यों के अनुसार काम या निष्पक्ष तरीके से मूल्यांकन न कर पाना लोगों को गुमराह कर सकता है। गंभीर मामलों में, किसी को गलती से निकाला जा सकता है, उसके साथ गलत हो सकता है। भावनाओं के आधार पर बोलने, किसी गैर-विश्वासी, और कुकर्मी को बचाने से हो सकता है कि जिसे निकाला जाना चाहिए वो कलीसिया में बना रहे, और भी नुकसान कर दे। जिम्मेदारियों में बदलाव के लिए भी यही सिद्धांत है। अगर कोई मूल्यांकन गलत होता है, तो यह अच्छे लोगों को तरक्की देने और उनका सिंचन करने से रोक सकता है, जबकि बुरे लोग पद पर बने रहते हैं। इससे दूसरों के जीवन प्रवेश में ही रुकावट नहीं आती, बल्कि परमेश्वर के घर के कार्य को भी नुकसान होता है। मैं ये भी समझ गई कि मूल्यांकन सतत व्यवहार के आधार पर होना चाहिए। किसी का सही मूल्यांकन करने के लिए, हम सिर्फ उसकी कमज़ोरी या कुछ पलों के लिए दिखी भ्रष्टता को ही देखते हुए, उस पर कोई लेबल नहीं लगा सकते। इसे समझने के बाद, मैं मन-ही-मन यह दोहराने लगी कि मूल्यांकनों में मुझे परमेश्वर के प्रति श्रद्धा भाव रखना होगा, तथ्यों के आधार पर, सही तरीके से निष्पक्षता से काम करना होगा।

उसके बाद, काम की ज़रूरतों के कारण मुझे बहन लू के बारे में एक और मूल्यांकन लिखना था। मैं जानती थी कि परमेश्वर ने मेरी परीक्षा लेने और यह देखने के लिए ऐसी व्यवस्था की है कि मैं सत्य पर अमल करके सिद्धांतों में प्रवेश कर सही मूल्यांकन कर पाती हूँ या नहीं। इसलिए, मैंने परमेश्वर के सामने अपने मन को शांत करके प्रार्थना की, उससे मेरे दिल में झाँकने और मुझे ईमानदार बनाने की विनती की। मुझे भावनाओं में न बहकर या अपनी मंशाओं के अनुसार न चलकर, सच को सच कहना होगा। मुझे वही कहना होगा जो मैं जानती हूँ, और जो नहीं जानती उसे स्वीकार करना होगा। जब मैंने इस पर अमल किया, तो मुझे काफी बेहतर महसूस हुआ। बहन लू के इस मूल्यांकन से मुझे अपने धूर्त, मक्कार भ्रष्ट स्वभाव को जानने में मदद मिली, मैंने जाना कि अंतर्निहित मंशा रखकर बोलने और काम करने से, मैं बुरे कर्म करूंगी, अनजाने में लोगों की आलोचना कर उन्हें चोट पहुंचाऊँगी। मैंने यह भी जाना कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार चलना, परमेश्वर के सिखाये तरीके से काम करना और ईमानदार इंसान बनना ही एक सच्चे इंसान की तरह जीवन जीने और परमेश्वर की मंज़ूरी पाने का एकमात्र रास्ता है।

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