25. सत्य का अभ्यास करना क्या है

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

इंसान के लिए आवश्यक सत्य परमेश्वर के वचनों में निहित है, और सत्य ही इंसान के लिए अत्यंत लाभदायक और सहायक होता है। तुम लोगों के शरीर को इस टॉनिक और पोषण की आवश्यकता है, इससे इंसान को अपनी सामान्य मानवीयता को फिर से प्राप्त करने में सहायता मिलती है। यह ऐसा सत्य है जो इंसान के अंदर होना चाहिए। तुम लोग परमेश्वर के वचनों का जितना अधिक अभ्यास करोगे, उतनी ही तेज़ी से तुम लोगों का जीवन विकसित होगा, और सत्य उतना ही अधिक स्पष्ट होता जाएगा। जैसे-जैसे तुम लोगों का आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, तुम आध्यात्मिक क्षेत्र की चीज़ों को उतनी ही स्पष्टता से देखोगे, और शैतान पर विजय पाने के लिए तुम्हारे अंदर उतनी ही ज़्यादा शक्ति होगी। जब तुम लोग परमेश्वर के वचनों पर अमल करोगे, तो तुम लोग ऐसा बहुत-सा सत्य समझ जाओगे जो तुम लोग समझते नहीं हो। अधिकतर लोग अमल में अपने अनुभव को गहरा करने के बजाय महज़ परमेश्वर के वचनों के पाठ को समझकर और सिद्धांतों से लैस होकर ध्यान केंद्रित करके ही संतुष्ट हो जाते हैं, लेकिन क्या यह फरीसियों का तरीका नहीं है? क्या वे ऐसा करके “परमेश्वर का वचन जीवन है” वाली कहावत की वास्तविकता हासिल कर सकते हैं? किसी इंसान का जीवन मात्र परमेश्वर के वचनों को पढ़कर विकसित नहीं हो सकता, बल्कि परमेश्वर के वचनों को अमल में लाने से ही होता है। अगर तुम्हारी सोच यह है कि जीवन और आध्यात्मिक कद पाने के लिए परमेश्वर के वचनों को समझना ही पर्याप्त है, तो तुम्हारी समझ दोषपूर्ण है। परमेश्वर के वचनों की सच्ची समझ तब पैदा होती है जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो, और तुम्हें यह समझ लेना चाहिए कि “इसे हमेशा सत्य पर अमल करके ही समझा जा सकता है।” आज, परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, तुम केवल यह कह सकते हो कि तुम परमेश्वर के वचनों को जानते हो, लेकिन यह नहीं कह सकते कि तुम इन्हें समझते हो। कुछ लोगों का कहना है कि सत्य पर अमल करने का एकमात्र तरीका यह है कि पहले इसे समझा जाए, लेकिन यह बात आंशिक रूप से ही सही है, निश्चय ही यह पूरे तौर पर सही तो नहीं है। सत्य का ज्ञान प्राप्त करने से पहले, तुमने उस सत्य का अनुभव नहीं किया है। किसी उपदेश में कोई बात सुनकर यह मान लेना कि तुम समझ गए हो, सच्ची समझ नहीं होती—इसे महज़ सत्य को शाब्दिक रूप में समझना कहते हैं, यह उसमें छिपे सच्चे अर्थ को समझने के समान नहीं है। सत्य का सतही ज्ञान होने का अर्थ यह नहीं है कि तुम वास्तव में इसे समझते हो या तुम्हें इसका ज्ञान है; सत्य का सच्चा अर्थ इसका अनुभव करके आता है। इसलिए, जब तुम सत्य का अनुभव कर लेते हो, तो तुम इसे समझ सकते हो, और तभी तुम इसके छिपे हुए हिस्सों को समझ सकते हो। संकेतार्थों को और सत्य के सार को समझने के लिए तुम्हारा अपने अनुभव को गहरा करना की एकमात्र तरीका है। इसलिए, तुम सत्य के साथ हर जगह जा सकते हो, लेकिन अगर तुम्हारे अंदर कोई सत्य नहीं है, तो फिर धार्मिक लोगों की तो छोड़ो, तुम अपने परिवारजनों तक को आश्वस्त करने का भी प्रयास करने की मत सोचना। सत्य के बिना तुम हवा में तैरते हिमकणों की तरह हो, लेकिन सत्य के साथ तुम प्रसन्न और मुक्त रह सकते हो, और कोई तुम पर आक्रमण नहीं कर सकता। कोई सिद्धांत कितना ही सशक्त क्यों न हो, लेकिन वह सत्य को परास्त नहीं कर सकता। सत्य के साथ, दुनिया को झुकाया जा सकता है और पर्वतों-समुद्रों को हिलाया जा सकता है, जबकि सत्य के अभाव में कीड़े-मकौड़े भी शहर की मज़बूत दीवारों को मिट्टी में मिला सकते हैं। यह एक स्पष्ट तथ्य है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सत्य को समझने के बाद, तुम्हें उस पर अमल करना चाहिए

परमेश्वर का कार्य और वचन तुम्हारे स्वभाव में बदलाव लाने के लिए हैं; उसका लक्ष्य मात्र अपने कार्य और वचन को तुम लोगों को समझाना या ज्ञात कराना नहीं है। इतना पर्याप्त नहीं है। जिस व्यक्ति के अंदर सोचने-समझने की क्षमता है, उसे परमेश्वर के वचनों को समझने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर के अधिकतर वचन इंसानी भाषा में व्यक्त किए गए हैं, और वह बड़ी स्पष्टता से बोलता है। मिसाल के तौर पर, वह इस बात को पूरी तरह से जानने में सक्षम है कि परमेश्वर उसे क्या समझाना और किस बात पर अमल करवाना चाहता है; यह ऐसी बात है समझने की क्षमता रखने वाला एक सामान्य व्यक्ति कर सकता है। विशेषकर, वर्तमान चरण में परमेश्वर जो वचन कह रहा है, वे खासतौर पर स्पष्ट और पारदर्शी हैं, और परमेश्वर ऐसी अनेक बातों की ओर इशारा कर रहा है जिन पर लोगों ने विचार नहीं किया है इसके साथ-साथ हर तरह की इंसानी स्थितियों की ओर इशारा कर रहा है। उसके वचन व्यापक हैं और पूरी तरह से स्पष्ट हैं। इसलिए अब, लोग बहुत-से मुद्दों को समझते हैं, लेकिन एक चीज अभी भी छूट रही है—लोगों का उसके वचनों को अमल में लाना। लोगों को सत्य के हर पहलू का विस्तार से अनुभव करना चाहिए, उसकी छान-बीन और खोज ज्यादा विस्तार से करनी चाहिए, बजाय इसके कि जो कुछ भी उन्हें उपलब्ध कराया जाए, महज उसे आत्मसात करने का इंतज़ार करें; वरना वे परजीवी से ज्यादा कुछ नहीं हैं। वे परमेश्वर के वचनों को जानते तो हैं, फिर भी उस पर अमल नहीं करते। इस तरह का व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता और अंततः उसे हटा दिया जाएगा। 1990 के पतरस जैसा बनने के लिए तुम लोगों में से हर एक को परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहिए, अपने अनुभव में सच्चा प्रवेश करना चाहिए और परमेश्वर के साथ अपने सहयोग में ज्यादा और कहीं अधिक विशाल प्रबोधन प्राप्त करना चाहिए, जो तुम्हारे अपने जीवन के लिए सदा अधिक सहायक होगा। अगर तुम लोगों ने परमेश्वर के बहुत सारे वचन पढ़े हैं, लेकिन केवल शब्दों के अर्थ को समझा है और तुममें अपने व्यावहारिक अनुभव से परमेश्वर के वचनों का प्रत्यक्ष ज्ञान का अभाव है, तो तुम परमेश्वर के वचनों को नहीं समझोगे। तुम्हारे विचार से, परमेश्वर के वचन जीवन नहीं हैं, बल्कि महज बेजान शब्द हैं। और अगर तुम केवल बेजान शब्दों का पालन करते रहोगे, तब न तो तुम परमेश्वर के वचनों के सार को ग्रहण कर पाओगे, न ही उसकी इच्छा को समझ पाओगे। जब तुम अपने वास्तविक अनुभव में उसके वचनों का अनुभव कर लोगे, तभी परमेश्वर के वचनों का आध्यात्मिक अर्थ तुम्हारे सामने स्वयं को प्रकट करेगा, और अनुभव से ही तुम बहुत-से सत्यों के आध्यात्मिक अर्थ को ग्रहण कर पाओगे और परमेश्वर के वचनों के रहस्यों को खोल पाओगे। अगर तुम इन्हें अमल में न लाओ, तो उसके वचन कितने भी स्पष्ट क्यों न हों, तुमने बस उन खोखले शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को ही ग्रहण किया है, जो तुम्हारे लिए धर्म संबंधी नियम बन चुके हैं। क्या यही फरीसियों ने नहीं किया था? अगर तुम लोग परमेश्वर के वचनों को अमल में लाओ और उनका अनुभव करो, तो ये तुम लोगों के लिए व्यवहारिक बन जाएंगे; अगर तुम इनका अभ्यास करने का प्रयास न करो, तो तुम्हारे लिए परमेश्वर के वचन तीसरे स्वर्ग की किंवदंती से ज्यादा कुछ नहीं है। दरअसल, तुम लोगों द्वारा परमेश्वर में विश्वास रखने की प्रक्रिया ही उसके वचनों का अनुभव करने और उसके द्वारा प्राप्त किए जाने की प्रक्रिया है, या इसे और अधिक साफ तौर कहें तो, परमेश्वर में विश्वास रखना उसके वचनों को जानना, समझना, उनका अनुभव करना और उन्हें जीना है; परमेश्वर में तुम लोगों की आस्था की सच्चाई ऐसी ही है। अगर तुम लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हो और अनंत जीवन पाने की आशा करते हो लेकिन परमेश्वर के वचनों को अमल में लाने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का प्रयास नहीं करते, तो तुम मूर्ख हो। यह बिल्कुल ऐसा ही होगा जैसे किसी दावत में जा कर केवल भोज्य-पदार्थों को देखा और उनमें से किसी भी चीज का स्वाद चखे बिना स्वादिष्ट चीजों को रट लिया, यह ऐसा होगा जैसे वहाँ कुछ भी न खाया-पिया हो। क्या ऐसा व्यक्ति मूर्ख नहीं होगा?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सत्य को समझने के बाद, तुम्हें उस पर अमल करना चाहिए

अपने कार्य के हर युग में परमेश्वर लोगों को कुछ वचन प्रदान करता है और उन्हें कुछ सत्य बताता है। ये सत्य ऐसे मार्ग के रूप में कार्य करते हैं जिसके मुताबिक मनुष्य को चलना चाहिए, जिस पर मनुष्य को चलना चाहिए, ऐसा मार्ग जो मनुष्य को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम बनाता है, ऐसा मार्ग जिसे मनुष्य को अभ्यास में लाना चाहिए और अपने जीवन में और अपनी जीवन यात्राओं के दौरान उसके मुताबिक चलना चाहिए। इन्हीं कारणों से परमेश्वर इन वचनों को मनुष्य को प्रदान करता है। ये वचन जो परमेश्वर से आते हैं उनके मुताबिक ही मनुष्य को चलना चाहिए, और उनके मुताबिक चलना ही जीवन पाना है। यदि कोई व्यक्ति उनके मुताबिक नहीं चलता, उन्हें अभ्यास में नहीं लाता, और अपने जीवन में परमेश्वर के वचनों को नहीं जीता, तो वह व्यक्ति सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहा है। यदि लोग सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहे हैं, तो वे परमेश्वर का भय नहीं मान रहे हैं और बुराई से दूर नहीं रह रहे हैं, और न ही वे परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं। यदि कोई परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर पाता, तो वह परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त नहीं कर सकता, ऐसे लोगों का कोई परिणाम नहीं होता।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, उनके लिए सबसे अहम वास्तविकता क्या है? सत्य का अभ्यास करना। सत्य का अभ्यास करने का सबसे अहम हिस्सा क्या है? क्या यही नहीं है कि किसी व्यक्ति को सबसे पहले सिद्धांतों पर पकड़ बनानी चाहिए? तो फिर सिद्धांत क्या हैं? वे सत्य का व्यावहारिक पहलू हैं, वे ऐसे मानक हैं जो नतीजों की गारंटी दे सकते हैं। सिद्धांत बस इतने ही सरल होते हैं। शाब्दिक रूप में लें, तो तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचनों का प्रत्येक वाक्य सत्य है, लेकिन सत्य के सिद्धांतों की समझ न होने के कारण तुम यह नहीं जान पाते कि सत्य का अभ्यास कैसे करना है। तुम सोचते हो कि परमेश्वर के वचन पूरी तरह सही हैं, कि वे ही सत्य हैं, लेकिन तुम यह नहीं जानते कि सत्य का व्यावहारिक पहलू क्या है, या वह किन दशाओं पर लक्ष्य केंद्रित करता है, यहाँ कौन-से सिद्धांत होते हैं, और अभ्यास का मार्ग क्या होता है—तुम इसे समझ-बूझ नहीं सकते हो। इससे सिद्ध होता है कि तुम सत्य को नहीं समझते, सिर्फ सिद्धांत समझते हो। अगर तुम वास्तव में यह समझ पाते कि तुम्हें सिर्फ सिद्धांत की समझ है, तो यह जान जाते कि तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें अवश्य ही सत्य खोजना चाहिए। सबसे पहले, सत्य के व्यावहारिक पक्ष का सटीक अनुभव प्राप्त करो, देखो कि वास्तविकता के कौन से पहलू सबसे अधिक उभरते हैं, और इस वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए। इस तरह खोजने और जाँच-परख करने से तुम्हें रास्ता मिल जाएगा। एक बार जब तुम सिद्धांतों पर पकड़ बना लोगे और इस वास्तविकता को जीने लगोगे, तो तुम्हें सत्य प्राप्त हो जाएगा, यह ऐसी उपलब्धि है जो सत्य का अनुसरण करने से मिलती है। अगर तुम कई सत्यों के सिद्धांत समझ सकते हो और उनमें से कुछ को अभ्यास में ला सकते हो, तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, और तुम जीवन प्राप्त कर चुके हो। चाहे तुम सत्य के किसी भी पहलू की खोज कर रहे हो, एक बार जब तुमने यह समझ लिया कि परमेश्वर के वचनों में सत्य की वास्तविकता कहाँ निहित होती है और उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं, एक बार जब तुम लोग वास्तव में यह समझ लेते हो, कीमत चुका सकते हो और इसे अभ्यास में ला सकते हो तो फिर तुम यह सत्य प्राप्त कर चुके हो। जब तुम इस सत्य को प्राप्त कर रहे होगे, तो तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे दूर होता जाएगा, और यह सत्य तुम्हारे भीतर अपना रास्ता बनाता जाएगा। अगर तुम सत्य की वास्तविकता को अभ्यास में ला सकते हो, और इस सत्य के अभ्यास के सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य और हर कार्यकलाप और आचरण कर सकते हो तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम बदल चुके हो? तुम किस तरह के इंसान बन गए हो? तुम ऐसे इंसान बन चुके हो जिसके पास सत्य की वास्तविकता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

सत्य के अभ्यास के कुछ सिद्धांत अवश्य होंगे। अगर कोई व्यक्ति अभ्यास के सिद्धांत नहीं ढूँढ़ पाता, तो वह सिर्फ नियमों का पालन कर रहा है, और इस अभ्यास में सिद्धांतों के अनुसार काम करने के लिए आवश्यक बारीकियों का अभाव होता है। बहुत-से लोग सिर्फ एक मत के वचनों और छंदों के नियमों का मान रखते हैं, और उनके अभ्यास के कोई सिद्धांत नहीं होते। यह सत्य का अभ्यास करने के मानकों पर खरा नहीं उतरता। धर्म में सभी लोग अपनी ही धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार काम करते हैं, और सोचते हैं कि यही सत्य का अभ्यास करना है। उदाहरण के लिए, वे प्रेम के बारे में या विनम्रता के बारे में प्रचार कर सकते हैं, मगर वे सिर्फ कर्णप्रिय शब्द दोहराने के सिवाय कुछ नहीं करते हैं। उनके अभ्यास के कोई सिद्धांत नहीं होते, और वे बेहद बुनियादी चीजें भी नहीं समझ पाते। ऐसा अभ्यास करके वे सत्य की वास्तविकता में कैसे प्रवेश कर सकते हैं? परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं; इनकी वास्तविकता को मनुष्य जीता है। जब तक कोई व्यक्ति सत्य का अभ्यास कर परमेश्वर के वचनों का जीवन नहीं जीता, तब तक उसके पास सत्य की वास्तविकता नहीं हो सकती। परमेश्वर के वचनों के अभ्यास और अनुभव के जरिए लोग पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और परमेश्वर के वचनों का सच्चा ज्ञान हासिल कर पाते हैं। तभी वे सत्य को समझते हैं। सत्य को सच में समझनेवाले लोग अभ्यास के सिद्धांत तय कर पाते हैं। जब तुम अभ्यास के सिद्धांतों को पूरी तरह समझ जाते हो, तब तुम्हारी कथनी और करनी में सिद्धांत होंगे, और तुम्हारा कर्तव्य-निर्वाह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप होगा। यही सत्य का अभ्यास करना है; यही सत्य की वास्तविकता प्राप्त करना है। तुम सत्य की वास्तविकता का जीवन जीने के बाद ही तुम सत्य का अभ्यास कर रहे होगे। सत्य का अभ्यास करना, लोगों की सोच के जैसे सिर्फ नियमों के पालन का मामला नहीं है, और किसी को चाहे जैसे अभ्यास नहीं करना चाहिए। अभ्यास करने और उसके वचनों का अनुभव करने के दौरान परमेश्वर देखता है कि क्या तुम सच में सत्य को समझते हो, और क्या तुम्हारी कथनी और करनी में सत्य के सिद्धांत हैं। अगर तुम सत्य को समझकर उसे अमल में ला सकते हो, तो जीवन-प्रवेश पा सकोगे। परमेश्वर के वचनों का तुम्हें जो भी अनुभव और ज्ञान है, तुम जितना भी समझते हो, इन सब चीजों का तुम्हारे जीवन-प्रवेश से सीधा संबध है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्‍य का अभ्‍यास करना क्‍या है?

सत्य का पालन करना खोखले शब्द बोलना या नारे लगाना नहीं होता। बल्कि इसका मतलब यह होता है कि, जीवन में व्यक्ति का सामना चाहे किसी भी व्यक्ति से हो, अगर यह इंसानी आचरण के सिद्धांत, घटनाओं पर दृष्टिकोण या कर्तव्य निर्वहन के मामले से जुड़ा हो, तो उन्हें विकल्प चुनना होता है, और उन्हें सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में आधार और सिद्धांत तलाशने चाहिए और फिर पालन का मार्ग खोजना चाहिए। इस तरह अभ्यास कर सकने वाले ही सत्य के मार्ग पर चलते हैं। कितनी भी बड़ी मुसीबतें आने पर, इस तरह सत्य के मार्ग पर चल पाना, पतरस के मार्ग पर चलना, सत्य का अनुसरण करना है। उदाहरण के तौर पर : लोगों से संवाद करते समय किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? शायद तुम्हारा मूल दृष्टिकोण यह है कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,” और यह कि तुम्हें हर किसी के साथ बनाए रखनी चाहिए, दूसरों को अपमानित नहीं करना चाहिए, और किसी को नाराज नहीं करना चाहिए, जिससे दूसरों के साथ अच्छे संबंध बनाए जा सकें। इस दृष्टिकोण से बंधे हुए जब तुम देखते हो कि दूसरे कोई गलत काम कर रहे हैं या सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं, तो तुम चुप रहते हो। तुम किसी को नाराज करने के बजाय कलीसिया के काम का नुकसान होने दोगे। तुम हर किसी के साथ बनाए रखना चाहते हो, चाहे वे कोई भी हो। जब तुम बात करते हो तो तुम केवल मानवीय भावनाओं और अपमान से बचने के बारे में सोचते हो और तुम दूसरों को खुश करने के लिए हमेशा मीठी-मीठी बातें करते हो। अगर तुम्हें पता भी चले कि किसी में कोई समस्याएँ हैं, तो तुम उन्हें सहन करने का चुनाव करते हो और बस उनकी पीठ पीछे उनके बारे में बातें करते हो, लेकिन उनके सामने तुम शांति बनाए रखते हो और अपने संबंध बनाए रखते हो। तुम इस तरह के आचरण के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह चापलूस व्यक्ति का आचरण नहीं है? क्या यह धूर्तता भरा आचरण नहीं है? यह मानवीय आचरण के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। क्या ऐसे आचरण करना नीचता नहीं है? जो इस तरह से कार्य करते हैं वे अच्छे लोग नहीं होते, यह नेक लोगों का आचरण नहीं है। चाहे तुमने कितना भी दुःख सहा हो, और चाहे तुमने कितनी भी कीमतें चुकाई हों, अगर तुम सिद्धांतहीन आचरण करते हो, तो तुम इस मामले में असफल हो गए हो और परमेश्वर के समक्ष तुम्हारे आचरण को मान्यता नहीं मिलेगा, उसे याद नहीं रखा जाएगा और स्वीकार नहीं किया जाएगा। इस समस्या का एहसास होने पर क्या तुम परेशान होते हो? (हाँ।) इस परेशानी से क्या साबित होता है? इससे यह साबित होता है कि तुम्हें अभी भी सत्य से प्रेम है, और तुम्हारे पास ऐसा दिल है जो सत्य से प्रेम करता है और तुम में सत्य से प्रेम करने की इच्छा है। इससे साबित होता है कि तुम्हारी अंतरात्मा अभी भी जागरूक है, और तुम्हारी अंतरात्मा पूरी तरह से मरी नहीं है। चाहे तुम कितने भी गहराई से भ्रष्ट हो, या तुम्हारे कितने भी भ्रष्ट स्वभाव हों, तुम्हारी मानवता में अभी भी एक ऐसा सार है जो सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है। जब तक तुम्हारे अंदर जागरूकता है और तुम्हें पता है कि तुम्हारी मानवता, स्वभाव, कर्तव्य का पालन करने और परमेश्वर के साथ व्यवहार करने में क्या समस्याएँ हैं, और तुम इस बात से भी जागरूक हो कि तुम्हारे शब्द और कार्य कब विचारों, रुख और रवैये को प्रभावित करते हैं, और तुम यह महसूस कर सकते हो कि तुम्हारे विचार गलत हैं, कि वे सत्य या परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं हैं लेकिन उन्हें छोड़ना भी आसान नहीं है, और तुम सत्य का अभ्यास करना चाहते हो लेकिन नहीं कर पाते, और तुम्हारा दिल पीड़ा से जूझ रहा है और उत्पीड़ित है और तुम खुद को कर्जदार महसूस करते हो—तो यह ऐसी मानवता को दर्शाता है जिसे सकारात्मक चीजों से प्यार है। यह अंतरात्मा की जागरूकता है। अगर तुम्हारी मानवता में अंतरात्मा की जागरूकता है और उसका एक हिस्सा सत्य और सकारात्मक चीजों को पसंद करता है, तो तुम्हारे अंदर ऐसी भावनाएँ होंगी। इन भावनाओं का होना यह साबित करता है कि तुम्हारे पास सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच अंतर करने की क्षमता है, और यह कि तुम इन चीजों के प्रति उपेक्षा या उदासीनता की भावना नहीं रखते; तुम सुस्त नहीं हो या तुम में जागरूकता की कमी नहीं है, बल्कि तुम्हारे अंदर जागरूकता है। और चूँकि तुम्हारे अंदर जागरूकता है, इसलिए तुम्हारे पास सही और गलत, और सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच अंतर करने की क्षमता है। अगर तुम्हारे अंदर जागरूकता और यह क्षमता है, तो क्या तुम्हारे लिए इन नकारात्मक चीजों, इन गलत विचारों, और भ्रष्ट स्वभावों से घृणा करना आसान नहीं होगा? तुलनात्मक रूप से यह आसान होगा। अगर तुम सत्य को समझते हो, तो तुम निश्चित रूप से नकारात्मक चीजों और दैहिक वस्तुओं से घृणा कर सकोगे, क्योंकि तुम्हारे पास सबसे न्यूनतम और मूलभूत चीज होगी : अंतरात्मा की जागरूकता। अंतरात्मा की जागरूकता होना उतना ही मूल्यवान है, जितना सच और झूठ के बीच भेद करने की क्षमता का होना मूल्यवान है और जब सकारात्मक चीजों से प्यार करने की बात आए तो न्याय की भावना होना मूल्यवान है। ये तीन चीजें सामान्य मानवता में सबसे अधिक वांछनीय और मूल्यवान हैं। अगर तुम्हारे पास ये तीन चीजें हैं, तो तुम निश्चित रूप से सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो पाओगे। यहाँ तक कि अगर तुम्हारे पास इनमें से केवल एक या दो चीजें ही हैं, फिर भी तुम कई सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो जाओगे। चलो हम अंतरात्मा की जागरूकता पर नजर डालते हैं। उदाहरण के लिए अगर तुम्हारा सामना किसी ऐसे बुरे व्यक्ति से होता है जो कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा डालता है, तो क्या तुम इसे पहचान पाओगे? क्या तुम प्रत्यक्ष बुरे कर्मों को चुन सकते हो? बिल्कुल चुन सकते हो। बुरे लोग खराब चीजें करते हैं, और अच्छे लोग अच्छी चीजें करते हैं; औसत व्यक्ति एक नजर में अंतर बता सकता है। अगर तुम्हारे अंदर अंतरात्मा की जागरूकता है तो क्या तुम्हारे अंदर भावनाएँ और विचार नहीं होंगे? अगर तुम्हारे अंदर विचार और भावनाएँ हैं, तो तुम्हारे पास सत्य का अभ्यास करने के लिए सबसे बुनियादी बातों में से एक है। अगर तुम बता सकते हो और महसूस कर सकते हो कि यह व्यक्ति बुराई कर रहा है, और इसकी पहचान करने के बाद उस व्यक्ति को उजागर कर सकते हो, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इस मामले को समझने में मदद कर सकते हो, तो क्या यह समस्या हल नहीं हो जाएगी? क्या यही सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों पर चलना नहीं है? यहाँ सत्य का अभ्यास करने के लिए कौन से तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं? (बुराई को उजागर करना, इसकी रिपोर्ट करना और रोकना।) सही। इस तरह से काम करना सत्य का अभ्यास करना होता है, और ऐसा करके ही तुम अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करोगे। अगर तुम इस तरह की स्थितियों का सामना करने पर अपनी समझ के अनुसार सत्य सिद्धांतों के अनुरूप काम करते हो, तो यह सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों के साथ काम करना है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए

सही मायनों में सत्य को अमल में लाने के क्या मानदंड हैं? तुम सत्य को अमल में ला रहे हो या नहीं, इसे कैसे मापा और परिभाषित किया जाता है? परमेश्वर कैसे तय करता है कि तुम उसके वचनों को सुनकर उन्हें स्वीकार करने वाले इंसान हो? वह यह देखता है कि उसमें आस्था रखने और उसके उपदेशों को सुनने के दौरान तुम्हारी आंतरिक अवस्था में, उसके प्रति तुम्हारी अवज्ञा में और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के विभिन्न आयामों के सार में कोई परिवर्तन आया है या नहीं। वह देखता है कि तुम्हारे अंदर उनका स्थान सत्य ने लिया है या नहीं और क्या तुम्हारे बाहरी बर्ताव और कार्यकलापों में या तुम्हारे दिल की गहराई में छिपे भ्रष्ट स्वभाव के सार में कोई बदलाव आया है या नहीं। परमेश्वर तुम्हें इन मानदंडों पर कसता है। इन तमाम वर्षों में उपदेश सुनकर और परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने से तुम में आया बदलाव मात्र सतही है या आधारभूत? क्या तुम्हारे स्वभाव में बदलाव आए हैं? परमेश्वर के बारे में तुम्हारी गलतफहमियों में, परमेश्वर के प्रति तुम्हारी अवज्ञा में और परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे गए आदेशों और कर्तव्यों के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण में बदलाव आए हैं या नहीं? परमेश्वर के विरुद्ध तुम्हारी अवज्ञा में कोई कमी आई है या नहीं? किसी घटना के घट जाने पर, जब तुम्हारी अवज्ञा उजागर हो जाती है, तो क्या तुम आत्म-चिंतन करते हो? क्या तुम अवज्ञाकारी हो? क्या परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे जाने वाले आदेशों और कर्तव्यों के प्रति तुम और अधिक निष्ठावान हो गए हो और क्या यह निष्ठा शुद्ध है? उपदेश सुनने के दौरान, क्या तुम्हारी अभिप्रेरणाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और इरादे शुद्ध हुए हैं? क्या ये मापने के पैमाने नहीं हैं? फिर, परमेश्वर के बारे में तुम्हारी गलतफहमियाँ भी हैं: क्या तुम अभी भी अपनी पुरानी धारणाओं, अज्ञात और अमूर्त कल्पनाओं और निष्कर्षों से चिपके रहते हो? क्या अब भी तुम्हारे अंदर शिकायतें और नकारात्मक भावनाएँ हैं? क्या इन चीज़ों को लेकर तुम में बदलाव आए हैं? यदि इन पहलुओं में कोई बदलाव नहीं आया है, तो फिर तुम किस प्रकार के इंसान हो? इससे एक बात तो सिद्ध होती है: तुम सत्य पर अमल करने वाले इंसान नहीं हो।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अभ्यास करके और परमेश्वर की आज्ञा मानकर ही व्यक्ति अपने स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकता है

परमेश्वर का अनुसरण करने में कई लोग अपने परिवार और काम-धंधे त्याग करके अपने कर्तव्य निभाने में सक्षम होते हैं, इसलिए वे मानते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। लेकिन वे कभी सच्ची अनुभवात्मक गवाही देने में सक्षम नहीं होते। यहाँ असल में क्या चल रहा है? मनुष्य की धारणाओं से उन्हें मापने पर वे सत्य का अभ्यास करते प्रतीत होते हैं, फिर भी परमेश्वर नहीं मानता कि वे जो कर रहे हैं, वह सत्य का अभ्यास करना है। अगर तुम्हारे कामों के पीछे व्यक्तिगत इरादे हों और वे दूषित हों, तो तुम सिद्धांतों से भटक सकते हो और यह नहीं कहा जा सकता कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो; यह सिर्फ एक तरह का आचरण है। वास्तव में, परमेश्वर तुम्हारे इस तरह के आचरण की शायद निंदा करेगा; वह इसे स्वीकृति नहीं देगा या इसका स्मरणोत्सव नहीं मनाएगा। इसका सार और जड़ तक विश्लेषण करें तो, तुम ऐसे व्यक्ति हो जो बुराई करता है, और तुम्हारे ये बाहरी व्यवहार परमेश्वर के विरोध के तुल्य हैं। बाहर से तुम कुछ भी गड़बड़ी नहीं कर रहे हो या बाधा नहीं डाल रहे हो और तुमने वास्तविक क्षति नहीं पहुंचाई है। यह न्यायसंगत और उचित लगता है, लेकिन अंदर से इसमें मानवीय संदूषण और इरादे हैं, और इसका सार बुराई करने और परमेश्वर का विरोध करने का है। इसलिए परमेश्वर के वचनों के प्रयोग से और अपने कृत्यों के पीछे के अभिप्रायों को देखकर तुम्हें निश्चित करना चाहिए कि क्या तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन हुआ है और क्या तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो। यह इस पर निर्भर नहीं करता कि तुम्हारे कृत्य इंसानी कल्पनाओं और विचारों के अनुरूप हैं या नहीं या वो तुम्हारी रुचि के उपयुक्त हैं या नहीं; ऐसी चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं। बल्कि, यह इस बात पर आधारित है कि परमेश्वर की नजरों में तुम उसकी इच्छा के अनुरूप चल रहे हो या नहीं, तुम्हारे कृत्यों में सत्य वास्तविकता है या नहीं, और वे उसकी अपेक्षाओं और मानकों को पूरा करते हैं या नहीं। केवल परमेश्वर की अपेक्षाओं से तुलना करके अपने आप को मापना ही सही है। स्वभाव में रूपांतरण और सत्य को अभ्यास में लाना उतना सहज और आसान नहीं है जैसा लोग सोचते हैं। क्या तुम लोग अब इस बात को समझ गए? क्या इसका तुम सबको कोई अनुभव है? जब समस्या के सार की बात आती है, तो शायद तुम लोग इसे नहीं समझ सकोगे; तुम्हारा प्रवेश बहुत ही उथला रहा है। तुम लोग सुबह से शाम तक भागते-दौड़ते हो, तुम लोग जल्दी उठते हो और देर से सोते हो, फिर भी तुम्हारा स्वभाव रूपांतरित नहीं हुआ है, और तुम इस बात को समझ नहीं सकते कि स्वभावगत रूपांतरण क्या है। इसका अर्थ है कि तुम्हारा प्रवेश बहुत ही उथला है, है न? भले ही तुम अधिक समय से परमेश्वर में आस्था रखते आ रहे हो, लेकिन हो सकता है कि तुम लोग स्वभाव में रूपांतरण के सार और उससे जुड़ी गहरी चीजों को महसूस न कर सको। क्या यह कहा जा सकता है कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है? तुम कैसे जानते हो कि परमेश्वर तुम्हें स्वीकृति देता है या नहीं? कम से कम, तुम अपने हर काम में जबरदस्त दृढ़ता महसूस करोगे और तुम महसूस करोगे कि जब तुम अपने कर्तव्य निभा रहे हो, परमेश्वर के घर में या आम तौर पर कोई भी काम कर रहे हो तो पवित्र आत्मा तुम्हारा मार्गदर्शन और प्रबोधन कर रहा है और तुममें कार्य कर रहा है। तुम्हारा आचरण परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होगा, और जब तुम्हारे पास कुछ हद तक अनुभव हो जाएगा, तो तुम महसूस करोगे कि अतीत में तुमने जो कुछ किया वह अपेक्षाकृत उपयुक्त था। लेकिन अगर कुछ समय तक अनुभव प्राप्त करने के बाद, तुम महसूस करो कि अतीत में तुम्हारे द्वारा किए गए कुछ काम उपयुक्त नहीं थे, तुम उनसे असंतुष्ट हो, और तुम्हें लगे कि वे सत्य के अनुरूप नहीं थे, तो इससे यह साबित होता है कि तुमने जो कुछ भी किया, वह परमेश्वर के विरोध में था। यह साबित करता है कि तुम्हारी सेवा विद्रोह, प्रतिरोध और मानवीय व्यवहार से भरी हुई थी और तुम अपने अंदर बदलाव लाने में पूरी तरह से नाकाम रहे हो।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए

ज्यादातर लोग परमेश्वर में अपनी आस्था में सत्य पर अपना मन नहीं लगाते। उनका मन कहाँ होता है? उनका मन हमेशा बाहरी विषयों में, दंभ और गर्व के मामलों में, और सही क्या और गलत क्या में बुरी तरह उलझा होता है। वे नहीं जानते कि कौन-सी चीजें सत्य से संबंधित हैं और कौन-सी नहीं, वे सोचते हैं, “अगर मैं परमेश्वर के घर में कुछ कर रहा हूँ, अपना कर्तव्य निभाने के लिए भाग-दौड़ कर कष्ट सह रहा हूँ, तो सत्य का अभ्यास कर रहा हूँ।” यह गलत है। परमेश्वर के घर के लिए काम करके, भागदौड़ कर और कष्ट सहकर क्या कोई सत्य का अभ्यास कर रहा है? क्या ऐसा कहने का कोई आधार है? काम करते हुए कष्ट सहना और सत्य का अभ्यास करना दो अलग-अलग चीजें हैं। अगर तुम नहीं जानते कि सत्य क्या है, तो उसका अभ्यास कैसे करोगे? क्या यह बेतुका नहीं है? तुम इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार कर्म कर रहे हो, तुम उलझन और पशोपेश की स्थिति में हो, अपने ही विचारों के अनुसार काम कर रहे हो। तुम्हारा दिल पशोपेश में है, तुम्हारे सामने कोई लक्ष्य, दिशा या सिद्धांत नहीं हैं। तुम बस काम किए जा रहे हो, और ऐसा करते हुए कष्ट सह रहे हो—इसका सत्य के अभ्यास से क्या संबंध है? अगर लोग सत्य को नहीं समझते, तो चाहे जो करें, जो भी कष्ट सहें, वे सत्य का अभ्यास करने से बहुत दूर हैं। लोग हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार और सिर्फ काम पूरे करवाने के लिए कुछ करते हैं; वे बिल्कुल नहीं सोचते कि उनके कर्म सत्य के सिद्धांतों के अनुसार हैं या नहीं। अगर तुम नहीं जानते कि तुम जो कर रहे हो वह सत्य के अनुरूप है या नहीं, तो यकीनन तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हो। कुछ लोग कह सकते हैं, “मैं कलीसिया के लिए काम कर रहा हूँ। क्या यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है?” यह सरासर गलत है। क्या कलीसिया के लिए काम करने का अर्थ सत्य का अभ्यास करना है? जरूरी नहीं—इसे सिर्फ यह देख कर ही तय किया जा सकता है कि उस व्यक्ति के कर्मों के पीछे सिद्धांत हैं या नहीं? अगर किसी के काम के पीछे सिद्धांत नहीं हैं, तो वे किसी के लिए भी करें, सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हैं। वे कुछ अच्छा भी करें, तो भी सत्य के अभ्यास के रूप में माने जाने के लिए जरूरी है कि वे सत्य के सिद्धांतों के अनुसार किए जाएँ। अगर वे सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, तो उनका किया कोई भी नेक काम सिर्फ अच्छा व्यवहार है, सत्य का अभ्यास नहीं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्‍य का अभ्‍यास करना क्‍या है?

कुछ भ्रमित लोगों को सत्य की थोड़ी-सी भी समझ नहीं है। वे केवल अपना कर्तव्य पूरा करने को ही सत्य का अभ्यास करना मानते हैं। वे सोचते हैं कि केवल अपना कर्तव्य निभाकर, वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। यदि तुम ऐसे व्यक्ति से पूछो, “क्या तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो?” तो वह जवाब देगा, “क्या मैं अपना कर्तव्य निभाकर सत्य का अभ्यास नहीं कर रहा हूँ?” क्या वे सही हैं? ये एक भ्रमित व्यक्ति के शब्द हैं। अपना कर्तव्य निभाने के लिए, कम-से-कम, तुम्हें अपना पूरा दिल, दिमाग और शक्ति इसमें लगा देनी चाहिए, ताकि तुम सत्य का प्रभावी ढंग से अभ्यास कर सको। सत्य का प्रभावी ढंग से अभ्यास करने के लिए, तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। यदि तुम अपना कर्तव्य लापरवाही से करते हो, तो इसका कोई वास्तविक प्रभाव नहीं पड़ेगा। तुम इसे सत्य का अभ्यास करना नहीं कह सकते, यह सेवा करने के अलावा और कुछ नहीं है। तुम साफ तौर पर केवल सेवा कर रहे हो, यह सत्य का अभ्यास करने से अलग है। सेवा करना अपनी इच्छा के अनुसार केवल उन चीजों को करना है जो तुम्हें खुश करती हैं, जबकि उन सभी चीजों की अवहेलना है जिन्हें करना तुम्हें पसंद नहीं। तुम चाहे कितनी भी कठिनाइयों का सामना करो, तुम कभी सत्य के सिद्धांतों की खोज नहीं करते। बाहर से, ऐसा लग सकता है कि तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, पर यह सब सिर्फ सेवा करना है। जो कोई भी सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करके अपना कर्तव्य नहीं निभाता, वह सेवा करने के अलावा और कुछ नहीं कर रहा है। परमेश्वर के परिवार में, बहुत से लोग मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करके अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास करते हैं। वे बिना किसी परिणाम के वर्षों तक कड़ी मेहनत करते हैं, वे अपना कर्तव्य निभाने में सत्य का अभ्यास या सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार नहीं कर पाते। इसलिए, यदि लोग अक्सर अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं और अपनी मर्जी के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, भले ही वे बुराई नहीं कर रहे हों, मगर इसे सत्य का अभ्यास करना भी नहीं माना जाता है। अंत में, इतने सालों की मेहनत के बाद भी उन्हें सत्य की कोई समझ प्राप्त नहीं होती है, और उनके पास साझा करने के लिए कोई अनुभव या गवाही नहीं होती। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि अपना कर्तव्य निभाने के पीछे के इनके इरादे सही नहीं हैं। वे अपना कर्तव्य सिर्फ आशीष पाने के लिए निभाते हैं, वे परमेश्वर के साथ लेनदेन करना चाहते हैं। वे अपना कर्तव्य केवल सत्य प्राप्त करने की खातिर नहीं निभाते। वे अपना कर्तव्य इसलिए निभाते हैं क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं होता। इसी कारण, वे हमेशा भ्रमित रहते हैं और बेपरवाह और बेतरतीब तरीके से जैसे-तैसे अपना काम करते हैं। वे सत्य की खोज नहीं करते, और इसलिए यह सब केवल सेवा प्रदान करना है। चाहे वे कितने भी कर्तव्य निभा लें, उनके कार्यों का कोई वास्तविक प्रभाव नहीं होता है। यह उन लोगों के लिए अलग है जिनके दिलों में परमेश्वर का भय है। वे लगातार विचार करते हैं कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य कैसे करें और परमेश्वर के परिवार और उसके चुने हुए लोगों के लाभ के लिए कार्य कैसे करें। वे हमेशा सिद्धांतों और परिणामों के बारे में गहराई से सोचते रहते हैं। वे हमेशा सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता दिखाने का प्रयास करते हैं। यह हृदय का सही रवैया है। ये वे लोग हैं जो सत्य खोजते हैं और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। इस तरह का व्यक्ति, अपने कर्तव्य निभाते समय, परमेश्वर द्वारा स्वीकार किया जाता है और उसकी प्रशंसा प्राप्त करता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है

यदि लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते, और सत्य के अभ्यास पर ध्यान नहीं देते, तो दस साल-बीस साल में भी उन्हें किसी बदलाव का अनुभव नहीं होगा। अंत में, वे सोचेंगे कि यही परमेश्वर में विश्वास रखना है; वे सोचेंगे कि यह बहुत हद तक वैसा ही है जैसे वे पहले धर्मनिरपेक्ष दुनिया में रहते थे, और जीवित रहना अर्थहीन है। यह वास्तव में दिखाता है कि सत्य के बिना जीवन खोखला है। वे कुछ वचन और सिद्धांत सुनाने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन वे अभी भी असहज और बेचैन रहेंगे। यदि लोगों को परमेश्वर के बारे में कुछ जानकारी है, वे जानते हैं कि एक सार्थक जीवन कैसे जीना है, और वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कुछ चीजें कर सकते हैं, तो वे महसूस करेंगे कि यही वास्तविक जीवन है, केवल इसी तरह से रहने से उनके जीवन का अर्थ होगा, और परमेश्वर को संतुष्टि प्रदान करने, उसे प्रतिफल देने और सहजता महसूस करने के लिए उन्हें इसी तरह से रहना होगा। यदि वे सजगतापूर्वक परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं, सत्य को व्यवहार में ला सकते हैं, अपने खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं, अपने विचारों को छोड़ सकते हैं, और परमेश्वर की इच्छा के प्रति समर्पित और विचारशील हो सकते हैं—यदि वे इन सभी चीजों को सजगतापूर्वक करने में सक्षम हैं—तो सत्य को सटीक रूप से व्यवहार में लाने, और सत्य को वास्तव में व्यवहार में लाने का यही अर्थ है। यह पहले की तरह नहीं है, केवल कल्पनाओं पर निर्भर रहना, नियमों का पालन करना और सोचना कि यह सत्य का अभ्यास करना है। वास्तव में, कल्पनाओं पर निर्भर रहना और नियमों का पालन करना बहुत थकाऊ है, सत्य न समझना और सिद्धांतों के बिना काम करना भी बहुत थकाने वाला है, बिना लक्ष्य के आँख मूँदकर काम करना तो और भी थका देने वाला है। जब तुम सत्य समझ जाते हो, तो कोई भी व्यक्ति, घटना या चीज तुम्हें विवश नहीं कर सकती, तुम स्वतंत्र और मुक्त होते हो। तुम सैद्धांतिक तरीके से कार्य करोगे, निश्चिंत और खुश रहोगे, और तुम्हें यह महसूस नहीं होगा कि इसमें बहुत मेहनत लगती है या यह बहुत पीड़ादायक है। यदि तुम्हारी स्थिति इस प्रकार की है, तो तुममें सत्य और मानवता है और तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसका स्वभाव बदल गया है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है

वर्तमान चरण में, पहले सत्य को जानना बेहद महत्वपूर्ण है, फिर उसे अमल में लाना और उसके बाद सत्य के सच्चे अर्थ से स्वयं को समर्थ बनाना। तुम लोगों को इसे प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। दूसरों से मात्र अपनी बातों का अनुसरण करवाने का प्रयास करने के बजाय, तुम्हें उनसे अपने अभ्यास का अनुसरण करवाना चाहिए। केवल इसी प्रकार से तुम कुछ सार्थक हासिल कर सकते हो। तुम पर चाहे कोई भी मुसीबत आए, चाहे तुम्हें किसी का भी सामना करना पड़े, अगर तुम्हारे अंदर सत्य है, तो तुम डटे रह पाओगे। परमेश्वर के वचन इंसान को जीवन देते हैं, मृत्यु नहीं। अगर परमेश्वर के वचन पढ़कर भी तुम जीवित नहीं होते बल्कि मुर्दे ही रहते हो, तो तुम्हारे साथ कुछ गड़गबड़ है। अगर कुछ समय के बाद तुम परमेश्वर के काफी वचनों को पढ़ लेते हो और व्यवहारिक उपदेशों को सुन लेते हो, लेकिन तब भी तुम मृत्यु की स्थिति में रहते हो, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम सत्य की कद्र करने वाले इंसान नहीं हो, न ही तुम सत्य के लिए प्रयास करने वाले इंसान हो। अगर तुम लोग सचमुच परमेश्वर को पाने का प्रयास करते, तो तुम लोग सिद्धांतों से लैस होने और लोगों को सिखाने के लिए ऊँचे-ऊँचे सिद्धांतों का इस्तेमाल करने में अपना ध्यान केंद्रित न करते, बल्कि परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने और सत्य को अमल में लाने पर ध्यान केंद्रित करते। क्या अब तुम लोगों को इसमें प्रवेश करने का प्रयास नहीं करना चाहिए?

परमेश्वर के पास इंसान में कार्य करने का सीमित समय है, इसलिए अगर तुम उसके साथ सहयोग न करो तो उसका परिणाम क्या हो सकता है? परमेश्वर हमेशा क्यों चाहता है कि एक बार समझ लेने पर तुम लोग उसके वचनों पर अमल करो? वो ऐसा इसलिए चाहता है क्योंकि परमेश्वर ने तुम लोगों के सामने अपने वचनों को प्रकट कर दिया है और तुम लोगों का अगला कदम है उन पर वास्तव में अमल करना। जब तुम उन वचनों पर अमल करोगे, तो परमेश्वर प्रबोधन और मार्गदर्शन का कार्य पूरा करेगा। यह कार्य इसी तरह से किया जाना है। ... मूलतः, तुम लोगों का लक्ष्य परमेश्वर के वचनों को अपने अंदर प्रभाव ग्रहण करने देना है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के वचनों के अपने अभ्यास में वचनों की सच्ची समझ हासिल करना है। शायद परमेश्वर के वचनों को समझने की तुम्हारी क्षमता थोड़ी कच्ची है, लेकिन जब तुम लोग परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करते हो, तो वह इस दोष को दूर कर सकता है, तो तुम लोगों को न केवल बहुत-से सत्यों को जानना चाहिए, बल्कि तुम्हें उनका अभ्यास भी करना चाहिए। यह सबसे महत्वपूर्ण केंद्र-बिंदु है जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यीशु भी ने अपने साढ़े तैंतीस वर्षों में बहुत से अपमान सहे और बहुत कष्ट उठाए। उसने इतने अधिक कष्ट केवल इसलिए उठाए क्योंकि उसने, सत्य पर अमल किया, सभी चीज़ों में वह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चला, और केवल परमेश्वर की इच्छा की ही परवाह की। अगर उसने सत्य पर अमल किए बिना उसे जान लिया होता तो वह ये कष्ट न उठाता। अगर यीशु ने यहूदियों की शिक्षाओं का पालन किया होता और फरीसियों का अनुसरण किया होता, तो उसने कष्ट न उठाए होते। तुम यीशु के कर्मों से सीख सकते हो कि इंसान पर परमेश्वर के कार्य की प्रभावशीलता इंसान के सहयोग से ही आती है, यह बात तुम लोगों को समझ लेनी चाहिए। अगर यीशु ने सत्य पर अमल न किया होता, तो क्या उसने वो दुख उठाए होते जो सूली पर उठाए? अगर उसने परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कार्य न किया होता तो क्या वह ऐसी दर्दभरी प्रार्थना कर पाता? इसलिए, तुम लोगों को सत्य के अभ्यास की खातिर कष्ट उठाने चाहिए; इंसान को इस तरह के कष्ट उठाने चाहिए।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सत्य को समझने के बाद, तुम्हें उस पर अमल करना चाहिए

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