14. लापरवाह और कामचोर होने की समस्या का समाधान कैसे करें?

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

असावधान और लापरवाह होने की प्रवृत्ति कहाँ से पैदा होती है? क्या यह तुम्हारा शैतानी और भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? असावधान और लापरवाह रहना भ्रष्ट स्वभाव की अभिव्यक्ति है; यह तब उत्पन्न होती है जब लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव के सामने विवश होते हैं। यह सीधे तौर पर उनके कार्य के नतीजों को प्रभावित करती है, यहाँ तक कि उन्हें अपना कार्य बिगाड़ने को बाध्य कर देती है, और कलीसिया के कार्य को भी प्रभावित करती है। यह बहुत ही गंभीर दुष्परिणाम है। अगर तुम अपने कार्य में लगातार असावधान और लापरवाह रहते हो तो यह किस प्रकार की समस्या है? यह ऐसी समस्या है जिसका संबंध तुम्हारी मानवता से है। जिनमें अंतरात्मा या मानवता नहीं होती है, सिर्फ वही लोग निरंतर असावधान और लापरवाह होते हैं। क्या तुम लोगों को लगता है कि हमेशा असावधान और लापरवाह रहने वाले लोग विश्वसनीय होते हैं? (नहीं।) वे बहुत ही अविश्वसनीय होते हैं! जो अपना कर्तव्य असावधानी और लापरवाही से निभाता है वह गैर-जिम्मेदार व्यक्ति होता है, और जो अपने कार्यकलापों में गैर-जिम्मेदार है वह ईमानदार इंसान नहीं है—वह गैर-भरोसेमंद इंसान है। गैर-भरोसेमंद इंसान चाहे कोई कार्य करे, वह असावधान और लापरवाह रहेगा, क्योंकि उसका चरित्र स्वीकार्य मानक के अनुसार नहीं है, वह सत्य से प्रेम नहीं करता, और वह बिल्कुल भी ईमानदार व्यक्ति नहीं है। क्या परमेश्वर गैर-भरोसेमंद लोगों को कोई काम सौंप सकता है? बिल्कुल नहीं। चूँकि परमेश्वर लोगों के दिल की गहराइयाँ छान मारता है, इसलिए वह कपटी लोगों को बिल्कुल भी कार्य नहीं सौंपता है; परमेश्वर सिर्फ ईमानदार लोगों को आशीष देता है, और वह सिर्फ उन्हीं लोगों पर कार्य करता है जो ईमानदार हैं और सत्य से प्रेम करते हैं। जब भी कोई कार्य कोई कपटी व्यक्ति कर रहा है तो यह व्यवस्था मनुष्य की बनाई हुई है, और यह मनुष्य की गलती है। जो लोग असावधान और लापरवाह रहना पसंद करते हैं, उनमें अंतरात्मा या विवेक नहीं होता है, उनकी मानवता कमजोर होती है, वे भरोसे के लायक नहीं होते, और वे बहुत ही अविश्वसनीय होते हैं। क्या पवित्र आत्मा ऐसे लोगों पर कार्य करेगा? कतई नहीं। इसलिए, जो लोग अपने कार्यों में असावधान और लापरवाह रहते हैं, उन्हें परमेश्वर न तो कभी पूर्ण बनाएगा और न कभी उनका उपयोग करेगा। वे असावधान और लापरवाह रहना पसंद करते हैं, वे सभी कपटी होते हैं, बुरी मंशाओं से भरे होते हैं, और उनमें बिल्कुल भी अंतरात्मा और विवेक नहीं होता है। वे सिद्धांतों या न्यूनतम सीमाओं के बिना कार्य करते हैं; वे अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर कार्य करते हैं, और तमाम तरह की बुरी चीजें करने में सक्षम होते हैं। उनके सारे कार्यकलाप उनके मिजाज पर निर्भर करते हैं : अगर उनका मिजाज अच्छा है, वे खुश हैं तो फिर वे थोड़ा-सा अच्छा करेंगे। अगर उनका मिजाज खराब है और वे खिन्न हैं तो फिर वे असावधान और लापरवाह हो जाएँगे। अगर वे गुस्से में हैं, तो फिर वे निरंकुश और लापरवाह हो सकते हैं, और महत्वपूर्ण मामले लटका सकते हैं। उनके दिल में बिल्कुल भी परमेश्वर नहीं होता है। वे बस दिन गुजारते रहते हैं, और बैठे-ठाले मौत का इंतजार कर रहते हैं। इसलिए, असावधानी और लापरवाही से कार्य करने वाले लोगों का हौसला चाहे जैसे बढ़ाया जाए, इसका कोई फायदा नहीं है, और उनके साथ सत्य के बारे में संगति करना बेकार है। बार-बार समझाने पर भी वे अपने तौर-तरीके नहीं सुधारते, वे हृदयहीन हैं; उन्हें सिर्फ निकाल बाहर किया जा सकता है, यही सबसे उचित कार्रवाई है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्‍वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्‍य है

बेमन से अपना कर्तव्य निभाना भारी वर्जना है। अगर अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हारा मन कभी नहीं लगता तो मान्य मापदंडों के अनुरूप काम करने का कोई तरीका तुम्हारे पास नहीं है। अगर तुम निष्ठा से काम करना चाहते हो तो पहले तुम्हें बेमन से काम करने की अपनी समस्या दूर करनी होगी। यह समस्या देखते ही इसके निराकरण के कदम उठाने होंगे। अगर हमेशा भ्रमित रहते हो, समस्याएं कभी नहीं देख पाते और लापरवाही से कार्य करते हो तो अपना कर्तव्य ठीक से करने का तरीका तुम्हें कभी नहीं आएगा। इसलिए, तुम्हें हमेशा पूरे मन से अपना कर्तव्य निभाना होगा। लोगों को यह अवसर मिलना बहुत कठिन था! जब परमेश्वर उन्हें अवसर देता है लेकिन वे उसे पकड़ नहीं पाते, तो वह अवसर खो जाता है—और अगर बाद में वे ऐसा अवसर खोजना चाहें, तो शायद वह दोबारा न मिले। परमेश्वर का कार्य किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, और न ही अपना कर्तव्य निभाने के अवसर किसी की प्रतीक्षा करते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने पहले अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया था, लेकिन अभी भी मैं उसे पूरा करना चाहता हूँ। मैं दुबारा डटना चाहता हूँ।” इस तरह का संकल्प लेना तो अच्छी बात है लेकिन अपना कर्तव्य निभाना कैसे है, इसकी स्पष्ट समझ होनी चाहिए, और तुम्हें सत्य हासिल करने का प्रयास करना चाहिए। जो सत्य समझते हैं, केवल वही अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकते हैं। जो सत्य नहीं समझते, वे तो सेवा करने योग्य भी नहीं हैं। सत्य के बारे में जितनी अधिक स्पष्टता होगी, तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में उतने ही प्रभावी होगे। अगर तुम यह सच्चाई समझ लोगे तो सत्य को जानने का प्रयास करने लगोगे, और तब तुम अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने की उम्मीद रख सकते हो। वर्तमान में कर्तव्य निभाने के बहुत ज्यादा अवसर नहीं हैं, इसलिए जब भी संभव हो, तुम्हें उन्हें लपक लेना चाहिए। जब कोई कर्तव्य सामने होता है, तो यही समय होता है जब तुम्हें परिश्रम करना चाहिए; यही समय होता है जब तुम्हें खुद को अर्पित करना चाहिए और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहिए, और यही समय होता है जब तुमसे कीमत चुकाने की अपेक्षा की जाती है। कोई कमी मत छोड़ो, कोई षड्यंत्र मत करो, कोई कसर बाकी मत रखो, या अपने लिए बचने का कोई रास्ता मत छोड़ो। यदि तुमने कोई कसर छोड़ी, या तुम मतलबी, मक्कार या विश्वासघाती बनते हो, तो तुम निश्चित ही एक खराब काम करोगे। मान लो, तुम कहते हो, “किसी ने मुझे चालाकी से काम करते हुए नहीं देखा। क्या बात है!” यह किस तरह की सोच है? क्या तुम्हें लगता है कि तुमने लोगों की आँखों में धूल झोंक दी, और परमेश्वर की आँखों में भी? हालांकि, वास्तविकता में, तुमने जो किया वो परमेश्वर जानता है या नहीं? वह जानता है। वास्तव में, जो कोई भी तुमसे कुछ समय तक बातचीत करेगा, वह तुम्हारी भ्रष्टता और नीचता के बारे में जान जाएगा, और भले ही वह ऐसा सीधे तौर पर न कहे, लेकिन वह अपने दिल में तुम्हारा आकलन करेगा। ऐसे कई लोग रहे हैं, जिन्हें इसलिए उजागर करके बाहर निकाल दिया गया, क्योंकि बहुत सारे दूसरे लोग उन्हें समझ गए थे। जब उन सबने उनका सार देख लिया, तो उन्होंने उनकी असलियत उजागर कर दी और उन्हें बाहर निकाल दिया गया। इसलिए, लोग चाहे सत्य का अनुसरण करें या न करें, उन्हें अपनी क्षमता के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए; उन्हें व्यावहारिक काम करने में अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। तुममें दोष हो सकते हैं, लेकिन अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में प्रभावी हो पाते हो, तो वे तुम्हारे निकाले जाने के स्तर तक नहीं बढ़ेंगे। अगर तुम हमेशा सोचते हो कि तुम ठीक हो, अपने बाहर न निकाले जाने के बारे में निश्चित रहते हो, और अभी भी आत्मचिंतन या खुद को जानने की कोशिश नहीं करते, और तुम अपने उचित कार्यों को अनदेखा करते हो, हमेशा लापरवाह और असावधान रहते हो, तो जब तुम्हें लेकर परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सहनशीलता खत्म हो जाएगी, तो वे तुम्हारी असलियत उजागर कर देंगे, और इस बात की पूरी संभावना है कि तुम्हें निकाल दिया जाएगा। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सभी ने तुम्हारी असलियत देख ली है और तुमने अपनी गरिमा और निष्ठा खो दी है। अगर कोई व्यक्ति तुम पर भरोसा नहीं करता, तो क्या परमेश्वर तुम पर भरोसा कर सकता है? परमेश्वर मनुष्य का अंतस्तल देखता है : वह ऐसे व्यक्ति पर बिलकुल भी भरोसा नहीं कर सकता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है

कुछ लोग अपने कर्तव्यों को निभाते समय बिल्कुल भी जिम्मेदारी से काम नहीं करते हैं, और हमेशा लापरवाही और बेपरवाही करते हैं। हालाँकि वे जानते हैं कि समस्या क्या है, लेकिन फिर भी वे उसका समाधान तलाश नहीं करना चाहते, और वे लोगों को नाराज करने से डरते हैं, इसलिए वे अपने कामों में जल्दबाजी करते हैं, जिसका नतीजा यह निकलता है कि उन्हें वह काम दोबारा करना पड़ता है। चूँकि तुम इस कर्तव्य को निभा रहे हो, इसलिए तुम्हें ही इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। तुम इस बात को गंभीरता से क्यों नहीं लेते हो? तुम इतने असावधान और लापरवाह क्यों हो? और जब तुम इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हो तो क्या तुम अपनी जिम्मेदारियों में लापरवाही करते हो? चाहे प्राथमिक जिम्मेदारी कोई भी अपने सिर ले, लेकिन अपने आसपास बाकी चीजों पर नजर रखने के लिए सब जिम्मेदार हैं, हर किसी को यह कार्य करना चाहिए और हर किसी में जिम्मेदारी की यह भावना होनी चाहिए—लेकिन तुम लोगों में से कोई भी ध्यान नहीं देता, तुम सचमुच बेपरवाह हो, तुम में बिल्कुल भी वफादारी नहीं है, तुम लोग अपने कर्तव्यों में लापरवाही करते हो! ऐसा नहीं है कि तुम लोग समस्या से अनजान हो बल्कि बात यह है कि तुम जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं होते, और जब तुम कोई समस्या देखते हो, तो तुम इस मामले पर कोई ध्यान नहीं देना चाहते, तुम “काफी है” पर समझौता कर लेते हो। क्या इस तरह से लापरवाही और बेपरवाही करना परमेश्वर को धोखा देने का प्रयास नहीं है? यदि जब मैं तुम लोगों के साथ सत्य के बारे में काम करूँ और संगति करूँ, और मुझे लगे कि “काफी है” को स्वीकार किया जा सकता है, तो फिर तुम लोगों में से हर एक की काबिलियत और लक्ष्य के अनुरूप, तुम लोग आखिर उससे क्या हासिल कर सकते हो? यदि मेरा रवैया भी तुम लोगों जैसा होता, तो तुम लोग कुछ भी हासिल नहीं कर सकते थे। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? इसका एक पहलू यह है कि तुम लोग ईमानदारी से कुछ भी नहीं करते, और दूसरा पहलू यह है कि तुम लोगों में काबिलियत की बहुत कमी है, काफी सुस्त हो। इसका कारण यह है कि मेरी नजर में अपनी खराब काबिलियत के साथ तुम लोग बहुत सुस्त हो, और सत्य के प्रति प्रेम नहीं रखते, और सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, जिसके बारे में मुझे विस्तार से बताना चाहिए। मुझे हर बात स्पष्ट करके बतानी चाहिए, और अपने भाषण में उन्हें टुकड़े-टुकड़े करके बताना चाहिए, और हर पहलू से और हर तरह से इन चीजों के बारे में बात करनी चाहिए। केवल तभी तुम लोगों को कुछ समझ आएगा। यदि मैं तुम लोगों के साथ बेपरवाह होता, और अपनी मर्जी के मुताबिक किसी भी विषय पर बात करता, न उस पर विचार करता और न कष्ट उठाता, दिल से बात न करता, जब मेरा मन न होता तो न बोलता, तो तुम लोग क्या हासिल कर सकते थे? तुम लोगों की जितनी काबिलियत है, तुम लोग कभी भी सत्य को नहीं समझ पाते। तुम कुछ भी हासिल नहीं कर पाते, उद्धार पाना तो बहुत दूर की बात है। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता, बल्कि मैं विस्तार से बताऊँगा। मुझे विस्तार में बात करनी होगी और हर तरह के व्यक्ति की स्थिति, सत्य के प्रति लोगों के रवैये और हर प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव के बारे में उदाहरण देना होगा; तभी तुम लोग जान पाओगे कि मैं क्या कह रहा हूँ, और जो सुन रहे हो उसे समझ पाओगे। मैं चाहे सत्य के किसी भी पहलू पर संगति करूँ, मैं विभिन्न साधनों के माध्यम से बोलता हूँ, वयस्कों और बच्चों से उन्हीं की शैली में संगति करता हूँ, तर्क और कहानियों के रूप में बताता हूँ, सिद्धांत और अभ्यास का उपयोग करता हूँऔर अनुभवों की बात करता हूँ, ताकि लोग सत्य समझकर वास्तविकता में प्रवेश करें। इस तरह, जिनमें क्षमता है और जिनके पास दिल है, उनके पास सत्य समझने, स्वीकारने और बचाए जाने का मौका होगा। लेकिन अपने कर्तव्य के प्रति तुम लोगों का रवैया हमेशा लापरवाही का, अनमने बने रहने का और धीरे-धीरे काम करने का रहता है, तुम्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता कि तुम काम में कितनी रुकावट डाल रहे हो। तुम समस्याएँ हल करने के वास्ते सत्य की खोज के लिए आत्म-चिंतन नहीं करते, तुम इस पर जरा भी विचार नहीं करते कि परमेश्वर की गवाही देने के लिए अपने कर्तव्य को ठीक से कैसे निभाना है। इसे कर्तव्य विमुख होना कहते हैं। इस तरह तुम लोगों के जीवन का विकास बहुत धीमी गति से होता है लेकिन तुम्हें इस बात से परेशानी नहीं होती कि तुमने कितना समय बर्बाद कर दिया। वास्तव में, यदि तुम लोग अपना कर्तव्य ईमानदारी और जिम्मेदारी से निभाओ, तो तुम लोग पांच-छह साल में ही अपने अनुभवों की बात करने लगोगे और परमेश्वर की गवाही दोगे, और विभिन्न कार्य प्रभावशाली ढंग से किया जाएगा। लेकिन तुम लोग परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होने को तैयार नहीं हो और न ही तुम सत्य पर चलने का प्रयास करते हो। कुछ चीजें हैं जिन्हें कैसे करना है यह तुम लोग नहीं जानते, इसलिए मैं तुम्हें सटीक निर्देश देता हूँ। तुम लोगों को सोचना नहीं है, तुम्हें बस सुनना है और काम शुरू कर देना है। बस तुम्हें इतनी-सी जिम्मेदारी उठानी है—पर तुम लोगों से यह भी नहीं होता है। तुम लोगों की वफादारी कहाँ है? यह कहीं दिखाई नहीं देती! तुम लोग सिर्फ कर्णप्रिय बातें करते हो। मन ही मन में तो तुम लोग जानते हो कि तुम्हें क्या करना चाहिए, लेकिन तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते। यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है, इसके मूल में सत्य से प्रेम का अभाव है। दिल ही दिल में तुम लोग अच्छी तरह जानते हो कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है—लेकिन तुम इसे अभ्यास में नहीं लाते। यह एक गंभीर समस्या है; तुम सत्य का अभ्यास करने के बजाय उसे घूरते रहते हो। तुम परमेश्वर का आज्ञापालन करने वाले इंसान नहीं हो। परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने के लिए, तुम्हें कम से कम सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना चाहिए और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। यदि तुम कर्तव्य पालन में सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, तो फिर इसका अभ्यास कहाँ करोगे? और यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते हो, तो तुम गैर-विश्वासी हो। यदि तुम लोग सत्य नहीं स्वीकारते—सत्य का अभ्यास तो बिल्कुल नहीं करते—और परमेश्वर के घर में बस जैसे-तैसे काम करते हो, तो असल में तुम्हारा मकसद क्या है? क्या तुम परमेश्वर के घर को अपना सेवानिवृत्ति का ठिकाना या खैराती घर बनाना चाहते हो? यदि ऐसा सोच रहे हो, तो यह तुम्हारी भूल है—परमेश्वर का घर मुफ्तखोरों और उड़ाने-खाने वाले लोगों के लिए नहीं है। जिन लोगों की इंसानियत अच्छी नहीं है, जो खुशी-खुशी अपना कर्तव्य नहीं निभाते, जो कर्तव्य निभाने योग्य नहीं हैं, उन सबको साफ किया जाना चाहिए; जो गैर-विश्वासी सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते, उन्हें निकाल दिया जाना चाहिए। कुछ लोग सत्य समझते तो हैं लेकिन कर्तव्य निभाते हुए उसे अमल में नहीं ला पाते। समस्या देखकर भी वे उसका समाधान नहीं करते और भले ही वे जानते हों कि यह उनकी जिम्मेदारी है, तो वे उसे अपना सर्वस्व नहीं देते। जिन जिम्मेदारियों को तुम निभाने के काबिल होते हो, जब तुम उन्हें नहीं निभाते हो, तो तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का क्या मूल्य या प्रभाव रह जाता है? क्या इस तरह से परमेश्वर में विश्वास रखना सार्थक है? अगर कोई व्यक्ति सत्य समझकर भी उस पर अमल नहीं करता, उन कठिनाइयों को सह नहीं पाता जो उसे सहनी चाहिए, तो ऐसा व्यक्ति कर्तव्य निभाने योग्य नहीं होता। कुछ लोग सिर्फ पेट भरने के लिए काम करते हैं। वे भिखारी होते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे परमेश्वर के घर में कुछ काम करेंगे, तो उनके रहने और जीविका का ठिकाना हो जाएगा, बिना नौकरी के ही उनके लिए हर चीज की व्यवस्था हो जाएगी। क्या ऐसी सौदेबाजी जैसी कोई चीज होती है? परमेश्वर का घर आवारा लोगों की व्यवस्था नहीं करता। यदि कोई व्यक्ति सत्य का थोड़ा भी अभ्यास नहीं करता, वह लगातार लापरवाह और बेमन से काम करता हैऔर खुद को परमेश्वर का विश्वासी कहता है, तो क्या परमेश्वर उसे स्वीकारेगा? ऐसे तमाम लोग गैर-विश्वासी होते हैं और जैसा कि परमेश्वर उन्हें समझता है, वे दुष्टता करने वाले होते हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए

यदि तुम अपने कर्तव्य में अपना दिल नहीं लगाते हो, न ही सत्य के सिद्धांतों की खोज करते हो, यदि तुम भ्रमित या उलझन में रहते हो, चीजों को सबसे आसान तरीके से करते हो, तो यह किस प्रकार की मानसिकता है? यह काम को बेपरवाह तरीके से करना है। यदि तुम अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हो, यदि तुममें इसके प्रति जिम्मेदारी की भावना नहीं है या लक्ष्य की कोई समझ नहीं है, तो क्या तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा पाओगे? क्या तुम स्वीकार्य स्तर पर अपना कर्तव्य निभा पाओगे? और यदि तुम स्वीकार्य स्तर पर अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ होते हो, तो क्या तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे? बिल्कुल नहीं। यदि हर बार अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम उदासीन रहते हो, कोई प्रयास नहीं करते, और बिना जैसे-तैसे काम करते हो, मानो यह कोई खेल है, तो क्या यह समस्या नहीं है? इस तरह अपना कर्तव्य निभाकर तुम क्या प्राप्त कर लोगे? अंत में, लोगों को पता चल जाएगा कि अपना कर्तव्य निभाते हुए तुममें जिम्मेदारी की कोई समझ नहीं होती है, तुम लापरवाह और असावधान होते हो, और जैसे-तैसे काम करते हो—जिस स्थिति में, तुम पर बाहर किए जाने का खतरा होगा। परमेश्वर इस दौरान तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते हुए देख रहा है, तुम्हें क्या लगता है वह क्या कहेगा? (यह व्यक्ति उसके आदेश या उसके विश्वास के लायक नहीं है।) परमेश्वर कहेगा कि तुम भरोसे के लायक नहीं हो, और तुम्हें निकाल दिया जाना चाहिए। इसलिए, चाहे तुम कोई भी कर्तव्य निभाते हो, चाहे वह महत्वपूर्ण कर्तव्य हो या सामान्य, यदि तुम्हें जो कर्तव्य सौंपा गया है उसमें तुम दिल लगाकर काम नहीं करते या अपनी जिम्मेदारी नहीं उठाते, और यदि तुम इसे परमेश्वर के आदेश के रूप में नहीं देखते, या इसे अपने कर्तव्य और दायित्व के रूप में लेते हो, हमेशा चीजों को लापरवाही से करते हो, तो यह एक समस्या होगी। “भरोसेमंद नहीं”—ये दो शब्द परिभाषित करेंगे कि तुम अपना कर्तव्य कैसे निभाते हो। यानी कर्तव्य निभाने का तुम्हारा प्रदर्शन मानक के स्तर का नहीं है, और तुम्हें निकाल दिया गया है, और परमेश्वर कहता है कि तुम्हारा चरित्र अपेक्षा के अनुरूप नहीं है। अगर तुम्हें कोई काम सौंपा गया है, फिर भी तुम उसके प्रति यही रवैया अपनाते हो और तुम इसे इसी तरह से संभालते हो, तो क्या तुम्हें भविष्य में कोई और कर्तव्य सौंपा जाएगा? क्या तुम्हें कोई महत्वपूर्ण काम सौंपा जा सकता है? बिल्कुल नहीं, जब तक तुम सच्चा पश्चात्ताप नहीं करते। हालाँकि, अंदर-ही-अंदर परमेश्वर के मन में तुम्हारे प्रति थोड़ा अविश्वास और असंतोष बना रहेगा। यह एक समस्या होगी, है न? तुम अपना कर्तव्य निभाने का कोई अवसर खो सकते हो, और हो सकता है कि तुम्हें बचाया ही न जाए।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है

सच तो यह है कि अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना बहुत कठिन नहीं है। यह सिर्फ जमीर और विवेक होने, ईमानदार और मेहनती होने की बात है। ऐसे कई अविश्वासी हैं, जो ईमानदारी से काम करते हैं और नतीजतन सफल हो जाते हैं। वे सत्य के सिद्धांतों के बारे में कुछ नहीं जानते, तो वे इतना अच्छा कैसे कर लेते हैं? वह इसलिए, क्योंकि वे विवेकशील और मेहनती होते हैं, इसलिए वे ईमानदारी से काम कर सकते हैं, सावधान रह सकते हैं और चीजें आसानी से करवा सकते हैं। परमेश्वर के घर का कोई भी कर्तव्य बहुत कठिन नहीं है। अगर तुम अपना पूरा दिल उसमें लगाओ और भरसक प्रयास करो, तो तुम अच्छा काम कर सकते हो। अगर तुम ईमानदार नहीं हो, और जो कुछ भी तुम करते हो उसमें मेहनती नहीं हो, अगर तुम हमेशा खुद को परेशानी से बचाने की कोशिश करते हो, अगर तुम हमेशा अनमने रहते हो और हर चीज में खानापूरी करते हो, अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाते, चीजें गड़बड़ कर देते हो और नतीजतन परमेश्वर के घर को हानि पहुँचाते हो, तो इसका अर्थ यह है कि तुम बुराई कर रहे हो, और यह एक ऐसा अपराध बन जाएगा जिससे परमेश्वर घृणा करता है। सुसमाचार फैलाने के महत्वपूर्ण क्षणों के दौरान, अगर तुम अपने कर्तव्य में अच्छे परिणाम प्राप्त नहीं करते और सकारात्मक भूमिका नहीं निभाते, या अगर तुम व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते हो, तो स्वाभाविक रूप से परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा और तुम बाहर निकाल दिए जाओगे और उद्धार का अपना मौका खो दोगे। इसे लेकर तुम सदा पछताओगे! परमेश्वर द्वारा तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने के लिए उन्नत करना उद्धार का तुम्हारा एकमात्र अवसर है। अगर तुम गैर-जिम्मेदार रहते हो, उसे हल्के में लेते हो और जैसे-तैसे निपटाते हो, तो यही वह रवैया है जिसके साथ तुम सत्य और परमेश्वर के साथ पेश आते हो। अगर तुम जरा भी ईमानदार या आज्ञाकारी नहीं हो, तो तुम परमेश्वर का उद्धार कैसे प्राप्त कर सकते हो? अभी समय बहुत कीमती है; हर दिन और हर सेकंड महत्वपूर्ण है। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, अगर तुम जीवन-प्रवेश पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, और अगर तुम अपने कर्तव्य में खानापूरी कर परमेश्वर को धोखा देते हो, तो यह वास्तव में मूर्खतापूर्ण और खतरनाक है! जब परमेश्वर तुमसे घृणा करने लगता है और तुम बाहर निकाल दिए जाते हो, तो पवित्र आत्मा तुममें कार्य नहीं करता, और इसका कोई इलाज नहीं है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

अगर तुम अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में बेमन से काम करते हो और परिणाम प्राप्त करने की बिलकुल भी प्रयास नहीं करते, तो तुम पाखंडी हो, भेड़ के वेश में एक भेड़िया हो। तुम लोगों को छल सकते हो, पर तुम परमेश्वर को बेवकूफ़ नहीं बना सकते। यदि कर्तव्य को करते समय, कोई सच्चा मूल्य न हो, तुम्हारी कोई निष्ठा न हो, तो यह मानक के अनुसार नहीं है। यदि तुम परमेश्वर में अपनी आस्था में और अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए सच्चा प्रयास नहीं करते; यदि तुम हमेशा बिना मन लगाए काम करना चाहते हो और अपने कामों में लापरवाह रहते हो, उस अविश्वासी की तरह जो अपने मालिक के लिए काम करता है; यदि तुम केवल नाम-मात्रके लिए प्रयास करते हो, अपना दिमाग इस्तेमाल नहीं करते, किसी तरह हर दिन यूँ ही गुजार देतेहो, उन समस्याओंको देखकर उनसे आँखें फेरते हो, कुछ गड़बड़ी हो जाए तो उसकी ओर ध्यान नहीं देते हो, और विवेक शून्य तरीके से हर उस बात को ख़ारिज करते हो जो तुम्हारे व्यक्तिगत लाभ की नहीं—तो क्या यह समस्या नहीं है? ऐसा कोई व्यक्ति परमेश्वर के घर का सदस्य कैसे हो सकता है? ऐसे लोग अविश्वासी होते हैं; वे परमेश्वर के घर के नहीं हो सकते। परमेश्वर उनमें से किसी को भी स्वीकार नहीं करता। तुम सच्चे हो या नहीं, तुमने प्रयास किया हो या नहीं, परमेश्वर इन बातों का हिसाब रखता है और इस बात को तुम भी अच्छी तरह जानते हो। तो क्या तुमने कभी सचमुच अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास किया है? क्या तुमने इसे दिल लगाकर किया है? क्या तुमने इसे अपना दायित्व, अपनी बाध्यता माना है? क्या तुमने इसके स्वामित्व को अपनाया है? तुम्हें इन मामलों पर ठीक से विचार कर इन्हें जानना चाहिए, जिससे तुम्हारे काम में जो समस्याएँ आ रही हैं, उन्हें दूर करना आसान हो जाएगा, यह तुम्हारे जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद होगा। यदि तुम काम में हमेशा गैर-जिम्मेदार बने रहोगे, और समस्याओं के पता लगने पर उनके बारे में अगुआओं और कर्मियों को नहीं बताओगे, नही उन्हें अपने दम पर हल करने के लिए सत्य खोजोगे और यही सोचते रहोगे कि “परेशानी जितनी कम होउ तना अच्छा है,” हमेशा दुनिया से निपटने के फलसफों के सहारे जियोगे, अपने काम में लापरवाह और अनमने बने रहोगे, कोई भक्ति भाव नहीं रखोगे, काट-छाँट और निपटारे के समय सत्य नहीं स्वीकारोगे—यदि तुम इस तरह से अपना कर्तव्य निभाओगे, तो तुम खतरे में हो; तुम सेवाकर्मियों में से एक हो। सेवा कर्मी परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं होते, बल्कि कर्मचारी, भाड़े के मजदूर होते हैं, जिन्हें काम समाप्त होते ही बहिष्कृत कर दिया जाएगा और वे स्वाभाविक रूप से तबाही में जा गिरेंगे। परमेश्वर के घर के लोग अलग हैं; जब वे अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो यह धन या परिश्रम या आशीषों के लिए नहीं होता। वे सोचते हैं, “मैं परमेश्वर के घर का सदस्य हूँ। जो मामले परमेश्वर के घर से सरोकार रखते हैं, वे मुझसे सरोकार रखते हैं। परमेश्वर के घर के मामले मेरे मामले हैं। मुझे अपना दिल परमेश्वर के घर में लगाना चाहिए।” इस वजह सेवे हर उस मामले में अपना दिल लगाते हैं, जो परमेश्वर के घर से सरोकार रखता है, और उसकी जिम्मेदारी लेते हैं। वे हर उस चीज की जिम्मेदारी लेते हैं, जिसे वे सोच और देख सकते हैं। वे उन चीज़ों पर नज़र रखते हैं जिन्हें संभालने की ज़रूरत होती है। ये परमेश्वर के घर के लोग हैं। क्या तुम लोग भी ऐसे ही हो? (नहीं।) अगर तुम केवल दैहिक सुख-सुविधाओं के पीछे लालायित रहते हो, परमेश्वर के घर में ऐसी चीजें हैं जिन्हें संभालने की जरूरत है, तेल की बोतल गिरने पर उसे उठाते नहीं, और तुम्हारा दिल जानता है कि समस्या है लेकिन तुम उसेहल नहीं करना चाहते, तो तुम परमेश्वर के घर को अपना नहीं मानते। क्या तुम लोग ऐसे ही हो? अगर ऐसा है, तो तुम लोग इतने नीचे गिर गए हो कि तुममें और अविश्वासियों में कोई भेद नहीं है। अगर तुम पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम लोगों को परमेश्वर के घर के बाहर माना जाना चाहिए; तुम्हें किनारे कर बाहर कर दिया जाना चाहिए। तथ्य यह है कि परमेश्वर अपने दिल में तुम लोगों को अपने परिवार के सदस्यमानना चाहता है, लेकिन तुम लोग सत्य नहीं स्वीकारते, और अपने कर्तव्य निभाने में हमेशा लापरवाह, अनमने और गैर-जिम्मेदार रहते हो। तुम लोगपश्चात्ताप नहीं करते, चाहे सत्य के बारे में तुम्हारे साथ कैसे भी संगति की जाए। यह तुम लोग हो, जिन्होंने खुद को परमेश्वर के घर के बाहर रखा है। परमेश्वर तुम लोगों कोबचाना और अपने परिवार के सदस्यों में बदलना चाहता है, लेकिन तुम लोगइसे स्वीकार नहीं करते। तो तुम लोग उसके घर के बाहर हो; तुम अविश्वासी हो। जो कोई सत्य का लेशमात्र भी नहीं स्वीकारता, उसे केवल वैसे ही सँभाला जा सकता है, जैसे किसी अविश्वासी को सँभाला जाता है। तुम ही हो, जिन्होंने अपना परिणाम और स्थिति स्थापित की है। तुमने उसे परमेश्वर के घर के बाहर स्थापित किया है। इसके लिए तुम्हारे अलावा और कौन दोषी है? ... इसलिए केवल अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने से ही तुम परमेश्वर के घर में बने रह सकते हो, और आपदा से बचाए जा सकते हो। अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाना बहुत महत्वपूर्ण है। कम से कम परमेश्वर के घर के लोग ईमानदार लोग हैं। वे ऐसे लोग हैं जो अपने कर्तव्य के मामले में भरोसेमंद हैं, जो परमेश्वर के आदेश को स्वीकार कर सकते हैं, और वफादारी से अपना कर्तव्य निभा सकते हैं। यदि लोगों में सच्ची आस्था, जमीर और विवेक नहीं है, और यदि उनके दिल में परमेश्वर के प्रति डर और आज्ञाकारिता की भावना नहीं है, तो वे कर्तव्यों को निभाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। भले ही वे अपना कर्तव्य निभाते हैं, लेकिन ऐसा करते समय वे लापरवाही से काम लेते हैं। वे लोग सेवाकर्मी हैं-अर्थात ऐसे लोग जिन्होंने सच्चे दिल से पश्चात्ताप नहीं किया है। इस तरह के सेवाकर्मियों को आज नहीं तो कल बहिष्कृत कर दिया जाएगा। केवल वफादार सेवाकर्मियों को ही बख्शा जाएगा। यद्यपि वफादार सेवाकर्मियों के पास सत्य वास्तविकताएँ नहीं होतीं, उनके पास जमीर और विवेक होता है, वे ईमानदारी से अपने कर्तव्यों को निभाने में सक्षम होते हैं और परमेश्वर उन्हें बख्श देता है। जिनके पास सत्य वास्तविकताएँ होतीं हैं और जो परमेश्वर की शानदार गवाही दे सकते हैं, वे उसके लोग हैं, और उन्हें भी बख्श दिया जाएगा और उसके राज्य में लाया जाएगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए

इस समय ज्यादातर लोग अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन में कोई बुराई किए बिना अपने कर्तव्य सँभाल ले रहे हैं, लेकिन क्या वे समर्पित हैं? क्या वे स्वीकार्य मानक के अनुसार अपने कर्तव्य पूरे कर पा रहे हैं? वे अब भी मानक से बहुत पीछे हैं। लोग अपने कर्तव्य ठीक से पूरे कर सकते हैं या नहीं, इसका वास्ता मानवता के मसले से है। तो वे अपने कर्तव्य ठीक से कैसे निभा सकते हैं? ठीक से कर्तव्य निभाने के लिए उनके पास क्या होना जरूरी है? लोग चाहे जो भी कर्तव्य निभाएँ या जो भी करें, उन्हें बहुत ही सावधानी और ईमानदारी बरतनी चाहिए और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए; केवल तभी उनके दिल स्थिर और शांत रहेंगे। अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है मेहनती होना, अपनी जिम्मेदारियों के प्रति पूरे मन से समर्पित होना और वे सारी चीजें करना जो तुम्हें करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, माना किसी कलीसिया के अगुआ ने तुम्हें कोई कार्य सौंपा और इसके साधारण सिद्धांतों के बारे में तुम्हारे साथ संगति की, लेकिन ज्यादा विस्तार से कुछ नहीं बताया—इस कर्तव्य को ठीक से निभाने के लिए तुम्हें किस प्रकार कार्य करना चाहिए? (अपने विवेक पर निर्भर रहकर।) इसे करने के लिए कम से कम तुम्हें अपने विवेक पर निर्भर रहना होना। “अपने विवेक पर निर्भर रहना”—तुम इन वचनों को कैसे अमल में ला सकते हो? तुम इन वचनों को कैसे लागू करते हो? (परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचकर, और कुछ भी ऐसा न करके जो परमेश्वर को शर्मिंदा करे।) एक पहलू यह है। इसके अलावा, जब तुम कुछ करो तो तुम्हें इसके बारे में बार-बार विचार-विमर्श करना होगा और इसे सत्य सिद्धांतों की कसौटी पर कसना होगा। अगर इसे पूरा करने के बाद तुम्हारे मन में चैन न आए और तुम्हें लगे कि इसमें अभी भी कोई समस्या है, और इसे जाँचने के बाद वाकई कोई समस्या नजर आए तो इस बिंदु पर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इसे फौरन सुधारकर समस्या दूर करनी चाहिए। यह किस प्रकार का रवैया है? (यह सावधानी और सूक्ष्म दृष्टि है।) यह सावधानी और सूक्ष्म दृष्टि ही ईमानदार और परिश्रमी रवैया है। तुम्हारे कर्तव्य पालन का आधार ईमानदार और जिम्मेदार रवैया होना चाहिए और तुम्हें कहना चाहिए : “यह कार्य मुझे सौंपा गया है, इसलिए इसे करने के लिए मुझसे जो भी बन पड़े मुझे करना चाहिए ताकि मैं जो भी जान और हासिल कर सकता हूँ, उसके दायरे में इसे अच्छे से कर सकूँ। मुझसे कोई चूक न हो।” तुम यह मानसिकता नहीं ओढ़ सकते कि “तकरीबन ठीकठाक होना ही बहुत बढ़िया है।” अगर तुम हमेशा असावधान और लापरवाही होकर सोचते रहे तो क्या अपना कार्य ठीक से कर सकते हो? (नहीं।)

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्‍वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्‍य है

चूँकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, तो वे अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर अनमने रहते हैं। यह सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है। अगर लोगों को अपने कर्तव्य ठीक से निभाने हैं, तो उन्हें सबसे पहले अनमनेपन की यह समस्या सुलझानी चाहिए। अगर उनका रवैया अनमना होगा, तो वे अपने कर्तव्य उचित ढंग से नहीं निभा पाएँगे, जिसका अर्थ है कि अनमनेपन की समस्या हल करना बेहद जरूरी है। तो उन्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? पहले, उन्हें अपनी मनःस्थिति की समस्या का समाधान करना चाहिए; उन्हें अपने कर्तव्यों को सही तरह से लेना चाहिए, और चीजों को गंभीरता और जिम्मेदारी की भावना के साथ करना चाहिए। उन्हें धोखेबाजी या अनमनेपन का इरादा नहीं रखना चाहिए। कर्तव्य परमेश्वर के लिए निभाया जाता है, किसी व्यक्ति के लिए नहीं; यदि लोग परमेश्वर की जाँच स्वीकारने में सक्षम होते हैं, तो उनकी मनःस्थिति सही होगी। इसके अलावा, कोई कार्य करने के बाद, लोगों को उसे जाँचना चाहिए, और उस पर चिंतन करना चाहिए, और अगर उन्हें दिल में थोड़ी बेचैनी महसूस हो, और विस्तृत निरीक्षण के बाद उन्हें पता चले कि वास्तव में कोई समस्या है, तो उन्हें बदलाव करने चाहिए; ये बदलाव होने के बाद उन्हें अपने दिल में चैन का एहसास होगा। जब लोगों को बेचैनी महसूस होती है, तो यह साबित करता है कि कोई समस्या है, और उन्हें, विशेष रूप से महत्वपूर्ण चरणों पर, जो कुछ भी उन्होंने किया है, उसकी पूरी लगन से जाँच करनी चाहिए। यह अपने कर्तव्य निभाने के प्रति एक जिम्मेदार रवैया है। जब व्यक्ति गंभीर हो सकता है, जिम्मेदारी ले सकता है, और अपना पूरा तन-मन दे सकता है, तो काम सही तरीके से पूरा किया जाएगा। कभी-कभी तुम्हारी मनःस्थिति सही नहीं होती, और साफ-साफ नजर आने वाली गलती भी ढूँढ़ या पकड़ नहीं पाते। अगर तुम्हारी मनःस्थिति ठीक होती, तो पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन से तुम वह समस्या पहचानने में सक्षम होते। अगर पवित्र आत्मा तुम्हारा मार्गदर्शन करे और तुम्हें जागरूकता दे, दिल में स्पष्टता महसूस करने दे और जानने दे कि गलती कहाँ है, तो तब तुम भटकाव दूर करने और सत्य सिद्धांतों के लिए प्रयास करने में सक्षम होगे। अगर तुम्हारी मनःस्थिति सही न हो पाए, और तुम लोग अन्यमनस्क और लापरवाह रहो, तो क्या तुम गलती देख पाओगे? तुम नहीं देख पाओगे। इससे क्या पता चलता है? यह दिखाता है कि अपने कर्तव्य सही तरह से निभाने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि लोग सहयोग करें; उनकी मानसिक स्थिति बहुत महत्वपूर्ण है, और वे अपनी सोच और विचारों को कहाँ लगाते हैं, वह भी बहुत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर इसकी जाँच करता है और यह देख सकता है कि अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय, लोग किस मनोदशा में होते हैं। यह महत्वपूर्ण है कि अपने कार्य करते समय लोग उसमें अपने पूरे दिल और पूरी शक्ति का प्रयोग करें। उनका सहयोग काफी महत्वपूर्ण घटक होता है। यदि लोग प्रयास करें कि अपने जिन कर्तव्यों का निर्वहन कर चुके हैं और जो चीजें कर चुके हैं, उन्हें लेकर कोई अफसोस न रहे परमेश्वर के कर्जदार न रहें, केवल तभी वे अपने पूरे दिल और पूरी शक्ति से कार्य कर रहे होंगे। यदि तुम अपना कर्तव्य निभाने में अपना पूरा मन और शक्ति लगाने में लगातार असफल होते हो, यदि तुम हमेशा ही अनमने रहते हो, काम को जबरदस्त नुकसान पहुंचाते हो और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित प्रभावों से बहुत पीछे रहते हो, तो तुम्हारे साथ केवल एक ही चीज हो सकती है : तुम्हें निकाल दिया जाएगा। तो क्या तब भी पछतावे का समय होगा? नहीं होगा। ऐसे कार्यकलाप शाश्वत विलाप, एक दाग बन जाएँगे! सदा अनमना रहना एक दाग है, यह एक गंभीर अपराध है—हाँ या न? (हाँ।) तुम्हें अपने दायित्वों को और तुम्हें जो कुछ भी करना है, उसे पूरे मनोयोग से करने का प्रयास करना चाहिए, तुम्हें अनमना नहीं होना चाहिए, या कोई पछतावा नहीं रहना चाहिए। यदि तुम ऐसा कर सको, तो तुम जो कर्तव्य निभाओगे, परमेश्वर उसे याद रखेगा। जिन कार्यों को परमेश्वर द्वारा याद रखा जाता है वे अच्छे कर्म होते हैं। फिर ऐसे कौन-से कार्य हैं जिन्हें याद नहीं रखा जाता? (वे अपराध और कुकर्म होते हैं।) ऐसा हो सकता है कि इस समय उन कार्यों का जिक्र करने पर तुम यह स्वीकार न करो कि वे बुरे कर्म हैं, लेकिन अगर ऐसा दिन आता है जब इन चीजों के गंभीर परिणाम सामने आते हैं, और वे चीजें नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करती हैं, तब तुम्हें समझ आ जाएगा कि ये चीजें मात्र व्यवहार संबंधी अपराध नहीं हैं, बल्कि बुरा कर्म हैं। जब तुम्हें इसका एहसास होगा, तुम पछताओगे और सोचोगे : “मुझे थोड़ी-बहुत रोकथाम करनी चाहिए थी! अगर मैंने शुरू में इस पर थोड़ा और विचार और प्रयास कर लिया होता, तो इस समस्या से बचा जा सकता था।” कोई भी चीज तुम्हारे हृदय पर हमेशा के लिए लगे इस धब्बे को मिटा नहीं सकेगी और अगर यह तुम पर एक स्थायी ऋण बन गई, तो तुम परेशानी में पड़ जाओगे। इसलिए आज तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेश का पालन पूरे मनोयोग से करने का प्रयास करना चाहिए, हर कर्तव्य को स्पष्ट विवेक के साथ, बिना किसी पछतावे के इस तरह से करना चाहिए जिसे परमेश्वर याद रखे। तुम जो भी करो, अनमने मत बनो। अगर तुम आवेश में आकर कोई गलती करते हो और यह गंभीर अपराध है, तो यह कभी नहीं मिटने वाला दाग बन जाएगा। जब तुम्हें पछतावा होगा, तुम उनकी भरपाई नहीं कर पाओगे, और तुम्हें हमेशा के लिए उनका पछतावा रहेगा। इन दोनों मार्गों को स्पष्टता के साथ देखना चाहिए। परमेश्वर की स्वीकृति पाने के लिए तुम्हें कौन-सा मार्ग चुनना चाहिए? बिना किसी पछतावे के, अपने पूरे मन और ताकत के साथ अपना कर्तव्य निभाना, और अच्छे कर्मों की तैयारी करना और उन्हें जमा करना। तुम जो भी करो, ऐसा बुरा काम मत करो जो दूसरों को उनका कर्तव्य निभाने में परेशान करे, ऐसा कुछ मत करो जो सत्य के खिलाफ जाता हो, और परमेश्वर के विरोध में हो, और जिससे जीवन भर पछताना पड़े। क्या होता है जब कोई व्यक्ति बहुत सारे अपराध कर देता है? वह परमेश्वर की उपस्थिति में ही अपने प्रति उसके क्रोध को और भड़का रहा है! अगर तुम और ज्यादा अपराध करते हो, और तुम्हारे प्रति परमेश्वर का क्रोध और ज्यादा बढ़ जाता है, तो अंततः, तुम्हें दंड मिलेगा।

सतही तौर पर कुछ लोगों में अपने कर्तव्यों के निष्पादन की पूरी अवधि के दौरान कोई गंभीर समस्या प्रतीत नहीं होती। वे खुले आम कोई बुराई नहीं करते; वे विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं करते, या मसीह-विरोधियों के मार्ग पर नहीं चलते। अपने कर्तव्यों के निर्वहन में उनके सामने कोई बड़ी त्रुटि या सिद्धांत की समस्याएँ भी नहीं आतीं, फिर भी, उन्हें एहसास भी नहीं होता और कुछ ही वर्षों में वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार न करने वाले के रूप में, एक गैर-विश्वासी के रूप में बेनकाब हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? दूसरों को कोई समस्या नहीं दिखती, लेकिन परमेश्वर इन लोगों के अंतरतम हृदय की जाँच करके समस्या देख लेता है। वे अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन में हमेशा लापरवाह रहते हैं और प्रायश्चित नहीं करते। जैसे-जैसे समय बीतता है, वे स्वाभाविक रूप से बेनकाब हो जाते हैं। प्रायश्चित न करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि हालाँकि उन्होंने पूरी अवधि में अपने कर्तव्य निभाए हैं, लेकिन उनके प्रति उनका रवैया हमेशा गलत होता है, अनमना होता है, चीजों को हल्के में लेने वाला रवैया होता है, वे कर्तव्यनिष्ठ भी नहीं होते, पूरे दिल से अपने कर्तव्य निभाने की तो बात ही छोड़ दो। वे शायद थोड़ा-बहुत प्रयास करते हों, लेकिन वे बेमन से काम करते हैं। वे पूरे दिल से अपने कर्तव्य नहीं करते और उनके अपराधों का कोई अंत नहीं होता। परमेश्वर की दृष्टि में, उन्होंने कभी प्रायश्चित नहीं किया; वे हमेशा अनमने रहे हैं, और उनमें कभी कोई बदलाव नहीं आया है—अर्थात, वे अपने हाथों की बुराई को छोड़कर परमेश्वर के आगे पश्चाताप नहीं करते। परमेश्वर उनमें पश्‍चाताप की मनोवृत्ति नहीं देखता और वह उनकी मनोवृत्ति में कोई बदलाव भी नहीं देखता। वे इसी मनोवृत्ति और पद्धति से अपने कर्तव्यों और परमेश्वर के आदेशों के संबंध में अड़ियल बने रहते हैं। उनके इस जिद्दी और दुराग्रही स्वभाव में कभी कोई बदलाव नहीं आता। इससे भी बढ़कर, वे कभी भी परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ महसूस नहीं करते, उन्हें कभी नहीं लगता कि उनका अनमनापन एक अपराध और दुष्टता है। उनके मन में न तो कोई कृतज्ञता का भाव होता है, न वे खुद को दोषी महसूस करते हैं, न उनमें कोई खेद का भाव आता है, अपराध-बोध आने की तो बात ही छोड़ दो। जैसे-जैसे समय बीतता है, परमेश्वर देखता है कि इस तरह का व्यक्ति लाइलाज है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की बात की परवाह नहीं करता, वह चाहे जितने भी उपदेश सुन ले या उसे सत्य की कितनी भी समझ हो, उसका दिल प्रेरित नहीं होता और उसके रवैये में न कोई बदलाव आता है, न ही यह पूरी तरह परिवर्तित होता है। परमेश्वर इसे देखता है और कहता है : “इस व्यक्ति से अब कोई आशा नहीं है। मेरी कोई भी बात उसके दिल को छूती नहीं है, मेरी किसी भी बात से उसके अंदर बदलाव नहीं आता है। उसे बदलने का कोई उपाय नहीं है। यह व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाने के लिए अयोग्य है और मेरे घर में सेवा करने योग्य नहीं है।” और परमेश्वर ऐसा क्यों कहता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि जब वे अपना कर्तव्य निभाते हैं और काम करते हैं, तो वे लगातार अनमने रहते हैं। चाहे उनकी कितनी भी काट-छाँट की जाए, और चाहे उनके प्रति कितनी भी सहनशीलता और धैर्य दिखाया जाए, इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता और यह उन्हें वास्तव में पश्चात्ताप करने या बदलने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता। यह उन्हें अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने में सक्षम नहीं बना सकता, और न ही उन्हें सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने की शुरुआत करने दे सकता है। ऐसा व्यक्ति लाइलाज होता है। जब परमेश्वर यह निर्धारित कर लेता है कि कोई व्यक्ति लाइलाज है, तो क्या वह तब भी उस व्यक्ति को मजबूती से पकड़े रहेगा? नहीं, वह ऐसा नहीं करता। परमेश्वर उसे जाने देगा। कुछ लोग हमेशा याचना करते हैं, “परमेश्वर, मुझ पर दया करो, मुझे पीड़ा मत पहुँचाओ, मुझे अनुशासित मत करो। मुझे थोड़ी आजादी दो! मुझे चीजों को थोड़े अनमने ढंग से करने दो! मुझे थोड़ा स्वच्छंद होने दो! मुझे स्वयं का मालिक बनने दो!” वे नियंत्रित नहीं होना चाहते। परमेश्वर कहता है, “चूँकि तुम सही रास्ते पर नहीं चलना चाहते, तो मैं तुम्हें जाने दूँगा। मैं तुम्हें पूरी आजादी दूँगा। जाओ और वही करो जो करना चाहते हो। मैं तुम्हें नहीं बचाऊँगा, क्योंकि तुम लाइलाज हो।” जो लोग लाइलाज होते हैं, क्या उनमें कोई विवेकपूर्ण भावना होती है? क्या उनमें कृतज्ञता की कोई भावना होती है? क्या उनमें अपने आपको दोषी महसूस करने का कोई भाव होता है? क्या वे परमेश्वर की भर्त्सना, अनुशासन, प्रहार और न्याय को समझ पाते हैं? नहीं, वे इसे महसूस नहीं कर पाते। वे इन तमाम चीजों से अनभिज्ञ होते हैं; ये बातें उनके दिलों में या तो बहुत धुँधली होती हैं या मौजूद ही नहीं होतीं। जब कोई व्यक्ति इस अवस्था में आ जाता है कि उसके हृदय में परमेश्वर का वास ही नहीं होता, तो क्या वह उद्धार प्राप्त कर सकता है? कहना कठिन है। जब किसी की आस्था ऐसी स्थिति में आ जाती है, तो वह खतरे में पड़ जाता है। क्या तुम लोग जानते हो कि तुम्हें कैसे अनुसरण करना चाहिए, कैसे अभ्यास करना चाहिए और कौन-सा मार्ग चुनना चाहिए ताकि इस परिणाम से बचते हुए यह सुनिश्चित किया जा सके कि ऐसी स्थिति उत्पन्न न हो? पहले, सबसे महत्वपूर्ण है सही रास्ता चुनना, और फिर उस कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने पर ध्यान देना जो तुम्हें वर्तमान में करना चाहिए। यह न्यूनतम मानक है, सबसे बुनियादी मानक। यही वह आधार है, जिस पर तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए और अपने कर्तव्य ठीक से करने के लिए मानकों पर खरे उतरने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि जो चीज परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध को सबसे स्पष्ट रूप से दिखाती है, वह यह है कि तुम उन मामलों और कर्तव्यों से कैसे बर्ताव करते हो, जिन्हें परमेश्वर तुम्हें सौंपता और निभाने को देता है, और तुम्हारा रवैया कैसा है। यही मुद्दा है जो सबसे ज्यादा गौर करने लायक और सबसे ज्यादा व्यावहारिक है। परमेश्वर इंतजार कर रहा है; वह तुम्हारा रवैया देखना चाहता है। इस अहम पड़ाव पर, तुम्हें जल्दी करनी चाहिए और परमेश्वर को अपनी स्थिति से अवगत कराना चाहिए, उसका आदेश स्वीकारना और अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए। इस महत्वपूर्ण बिंदु को समझने और परमेश्वर द्वारा सौंपे आदेश को पूरा कर लेने के बाद, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाएगा। जब परमेश्वर तुम्हें कोई कार्य सौंपता है, या तुमसे कोई कर्तव्य निभाने को कहता है, तब अगर तुम्हारा रवैया सतही और उदासीन होता है, और तुम इसे गंभीरता से नहीं लेते, तो क्या यह अपना पूरा मन और ताकत लगाने के बिल्कुल विपरीत नहीं है? क्या तुम इस तरह से अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकते हो? निश्चित रूप से नहीं। तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाओगे। इसलिए, अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारा रवैया उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना तुम्हारे द्वारा चुना गया तरीका और मार्ग। इससे फर्क नहीं पड़ता कि लोगों ने कितने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है, जो लोग अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाएँगे, उन्हें निकाल दिया जाएगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

जब लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं तो वे दरअसल वही करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। अगर तुम उसे परमेश्वर के सामने करते हो, अगर तुम अपना कर्तव्य दिल से और ईमानदारी की भावना से निभाते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हो, तो क्या यह रवैया कहीं ज्यादा सही नहीं होगा? तो तुम इस रवैये को अपने दैनिक जीवन में कैसे व्यवहार में ला सकते हो? तुम्हें “दिल से और ईमानदारी से परमेश्वर की आराधना” को अपनी वास्तविकता बनाना होगा। जब कभी भी तुम शिथिल पड़ना चाहते हो औरबिना रुचि के काम करना चाहते हो, जब कभी भी तुम धूर्तता से काम करना और आलसी बनना चाहते हो, और जब कभी तुम्हारा ध्यान बँट जाता है या तुम आनंद लेना चाहते हो, तो तुम्हें विचार करना चाहिए : इस तरह व्यवहार करके, क्या मैं विश्वास के नाकाबिल बन रहा हूँ? क्या यह कर्तव्य के निर्वहन में अपना मन लगाना है? क्या मैं ऐसा करके विश्वासघाती बन रहा हूँ? ऐसा करने में, क्या मैं उस आदेश के अनुरूप रहने में विफल हो रहा हूँ, जो परमेश्वर ने मुझे सौंपा है? तुम्हें इसी तरह आत्म-मंथन करना चाहिए। अगर तुम्हें पता चलता है कि तुम अपने कर्तव्य में हमेशा लापरवाह और असावधान रहते हो, तुम विश्वासघाती हो, और तुमने परमेश्वर को चोट पहुँचाई है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, “जिस क्षण मुझे लगा कि यहाँ कुछ गड़बड़ है, लेकिन मैंने इसे समस्या नहीं माना; मैंने इसे बस लापरवाही से नजरअंदाज कर दिया। मुझे अब तक इस बात का एहसास नहीं हुआ था कि मैं वास्तव में लापरवाह और असावधान था, कि मैं अपनी जिम्मेदारी पर खरा नहीं उतरा था। मुझमें सचमुच जमीर और विवेक की कमी है!” तुमने समस्या का पता लगा लिया है और अपने बारे में थोड़ा जान लिया है—तो अब तुम्हें खुद को बदलना होगा! अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया गलत था। तुम उसके प्रति लापरवाह थे, मानो यह कोई अतिरिक्त नौकरी हो, और तुमने उसमें अपना दिल नहीं लगाया। अगर तुम फिर इस तरह लापरवाह और असावधान होते हो, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे तुम्हें अनुशासित करने और ताड़ना देने देना चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारी ऐसी ही इच्छा होनी चाहिए। तभी तुम सच्चा पश्चात्ताप कर सकते हो। जब तुम्हारी अंतरात्मा साफ होगी और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया बदल गया होगा, तभी तुम खुद को बदल पाओगे। और पश्चात्ताप करते हुए, तुम्हें अक्सर इस बात पर भी चिंतन करना चाहिए कि क्या तुमने वास्तव में अपना पूरा दिल, पूरा दिमाग और पूरी शक्ति अपना कर्तव्य निभाने में लगाई है या नहीं; फिर, परमेश्वर के वचनों का पैमाने के रूप में उपयोग करते हुए उन्हें खुद पर लागू करने से तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारे कर्तव्य के प्रदर्शन में अभी भी क्या समस्याएँ मौजूद हैं। परमेश्वर के वचनों के अनुसार, इस तरह लगातार समस्याएँ हल करके, क्या तुम अपने कर्तव्य के प्रदर्शन को अपने पूरे दिल, पूरे दिमाग और पूरी शक्ति से वास्तविकता से नहीं जोड़ते हो? अपना कर्तव्य इस तरह निभाने के लिए : क्या तुमने पहले ही अपने पूरे दिल, पूरे दिमाग और पूरी शक्ति से ऐसा नहीं किया है? यदि अब तुम्हारी अंतरात्मा पर कोई दोषारोपण नहीं है, यदि तुम योग्यताओं को पूरा करने में सक्षम हो और अपना कर्तव्य निभाने में ईमानदारी दिखाते हो, तभी तुम्हारे दिल में सच्ची शांति और खुशी होगी। अपना कर्तव्य निभाना तुम्हें एक अतिरिक्त बोझ नहीं, बल्कि स्वर्ग द्वारा निर्धारित और पृथ्वी द्वारा स्वीकार की गई जिम्मेदारी की तरह महसूस होगा, और यह किसी और के लिए किया गया कार्य बिल्कुल नहीं लगेगा। इस तरह से कर्तव्य निभाकर, तुम परिपूर्ण महसूस करोगे, और तुम्हें लगेगा कि तुम परमेश्वर की उपस्थिति में जी रहे हो। इस तरह व्यवहार करने से मन को शांति मिलती है। क्या यह तुम्हें जिंदा लाश कम और थोड़ा मनुष्य जैसा नहीं बना देगा? क्या इस तरह से व्यवहार करना आसान है? दरअसल, यह आसान है, मगर उन लोगों के लिए नहीं जो सत्य को नहीं स्वीकारते।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है

अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम लापरवाह और आलसी होना चाहते हो। तुम ढिलाई बरतने और परमेश्वर की जाँच से बचने की कोशिश करते हो। ऐसे समय में, प्रार्थना करने के लिए जल्दी से परमेश्वर के सामने जाओ, और विचार करो कि क्या यह कार्य करने का सही तरीका था। फिर इस बारे में सोचो : “मैं परमेश्वर में विश्वास क्यों करता हूँ? इस तरह की ढिलाई भले ही लोगों की नजर से बच जाए, लेकिन क्या परमेश्वर की नजर से बचेगी? इसके अलावा, परमेश्वर में मेरा विश्वास ढीला होने के लिए नहीं है—यह बचाए जाने के लिए है। मेरा इस तरह काम करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति नहीं है, न ही यह परमेश्वर को प्रिय है। नहीं, मैं बाहरी दुनिया में सुस्त हो सकता हूँ और जैसा चाहूँ वैसा कर सकता हूँ, लेकिन अब मैं परमेश्वर के घर में हूँ, मैं परमेश्वर की संप्रभुता में हूँ, परमेश्वर की आँखों की जाँच के अधीन हूँ। मैं एक इंसान हूँ, मुझे अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना चाहिए, मैं जैसा चाहूँ वैसा नहीं कर सकता। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करना चाहिए, मुझे लापरवाह या अनमना नहीं होना चाहिए, मैं सुस्त नहीं हो सकता। तो सुस्त, लापरवाह और अनमना न होने के लिए मुझे कैसे काम करना चाहिए? मुझे कुछ प्रयास करना चाहिए। अभी मुझे लगा कि इसे इस तरह करना बहुत अधिक कष्टप्रद था, मैं कठिनाई से बचना चाहता था, लेकिन अब मैं समझता हूँ : ऐसा करने में बहुत परेशानी हो सकती है, लेकिन यह कारगर है, और इसलिए इसे ऐसे ही किया जाना चाहिए।” जब तुम काम कर रहे होते हो और फिर भी कठिनाई से डरते हो, तो ऐसे समय तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर! मैं आलसी और धोखेबाज हूँ, मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे अनुशासित करो, मुझे फटकारो, ताकि मेरा अंतःकरण कुछ महसूस करे और मुझे शर्म आए। मैं लापरवाह और अनमना नहीं होना चाहता। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरी विद्रोहशीलता और कुरूपता दिखाने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे प्रबुद्ध करो।” जब तुम इस प्रकार प्रार्थना करते हो, चिंतन और खुद को जानने का प्रयास करते हो, तो यह खेद की भावना उत्पन्न करेगा, और तुम अपनी कुरूपता से घृणा करने में सक्षम होगे, और तुम्हारी गलत दशा बदलने लगेगी, और तुम इस पर विचार करने और अपने आप से यह कहने में सक्षम होगे, “मैं लापरवाह और अनमना क्यों हूँ? मैं हमेशा ढीला होने की कोशिश क्यों करता हूँ? ऐसा कार्य करना अंतरात्मा या समझदारी से रहित होना है—क्या मैं अब भी ऐसा इंसान हूँ जो परमेश्वर में विश्वास करता है? मैं चीजों को गंभीरता से क्यों नहीं लेता? क्या मुझे थोड़ा और समय और प्रयास लगाने की जरूरत नहीं? यह कोई बड़ा बोझ नहीं है। मुझे यही करना चाहिए; अगर मैं यह भी नहीं कर सकता, तो क्या मैं इंसान कहलाने के लायक हूँ?” नतीजतन, तुम एक संकल्प करोगे और शपथ लोगे : “हे परमेश्वर! मैंने तुम्हें नीचा दिखाया है, मैं वास्तव में बहुत गहराई तक भ्रष्ट हूँ, मैं अंतरात्मा या समझदारी से रहित हूँ, मुझमें मानवता नहीं है, मैं पश्चात्ताप करना चाहता हूँ। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे माफ कर दो, मैं निश्चित रूप से बदल जाऊँगा। अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करता, तो मैं चाहूँगा कि तुम मुझे दंड दो।” बाद में तुम्हारी मानसिकता बदल जाएगी और तुम बदलने लगोगे। तुम कम लापरवाही से और कम अनमने होकर कार्य करोगे, कर्तव्यनिष्ठा से अपने कर्तव्य निभाओगे और कष्ट उठाने और कीमत चुकाने में सक्षम होगे। तुम महसूस करोगे कि इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना अद्भुत है, और तुम्हारे हृदय में शांति और आनंद होगा। जब लोग परमेश्वर की जाँच स्वीकार पाते हैं, जब वे उससे प्रार्थना कर पाते हैं और उस पर भरोसा कर पाते हैं, तो उनकी अवस्थाएँ जल्दी ही बदल जाएँगी। जब तुम्हारे दिल की नकारात्मक अवस्था बदल गई होती है, और तुमने अपने इरादे त्याग दिए होते हैं और देह की स्वार्थपरक इच्छाएँ छोड़ दी होती हैं, जब तुम दैहिक सुख और आनंद छोड़ने में सक्षम रहते हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करते हो, और अब मनमाने या लापरवाह नहीं रहते, तो तुम्हारे दिल में शांति होगी और तुम्हारा जमीर तुम्हें धिक्कारेगा नहीं। क्या इस तरह से देह-सुख त्यागना और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना आसान है? अगर लोगों में परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं हैं, तो वे देह-सुख त्यागकर सत्य का अभ्यास कर सकते हैं। और अगर तुम इस तरह से अभ्यास करने में सक्षम रहते हो, तो अनजाने ही तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर रहे होगे। यह बिल्कुल भी मुश्किल नहीं होगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है

इसे पूरे हृदय और मस्तिष्क से पूरा करने में सक्षम होने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें सत्य को स्वीकार करना चाहिए और उसे अभ्यास में लाना चाहिए; अर्थात्, परमेश्वर जो भी माँग करे, उसे स्वीकार कर तुम्हें उसके प्रति समर्पित होना चाहिए; तुम्हें अपना कर्तव्य वैसे ही संभालना चाहिए जैसे तुम अपने निजी मामलों को संभालते हो, किसी और को तुम पर निगाह रखने, तुम्हारी निगरानी करने, जाँच करने की जरूरत नहीं है, और यह सुनिश्चित करने के लिए कि तुम इसे सही कर रहे हो, तुम पर नजर रखने, तुम जो कर रहे हो उसका पर्यवेक्षण करने, या यहाँ तक कि काट-छाँट करने की भी जरूरत नहीं है। तुम्हें मन ही मन सोचना चाहिए, “यह कर्तव्य निभाना मेरी जिम्मेदारी है। यह मेरा हिस्सा है, और चूँकि यह मुझे करने के लिए दिया गया है, और मुझे इसके सिद्धांत बताए गए हैं और मैंने उन्हें समझ लिया है, मैं इसे एकाग्रचित्त होकर करता रहूँगा। मैं इसे अच्छी तरह संपन्न होते देखने के लिए हर संभव प्रयास करूँगा।” तुम्हें इस कर्तव्य को निभाने में दृढ़ रहना चाहिए, और किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज के कारण बाध्य नहीं होना चाहिए। अपने पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपने कर्तव्य को पूरा करने का यही मतलब है, और यही वह समानता है जो लोगों में होनी चाहिए। तो, लोगों को पूरे हदय और मस्तिष्क से अपना कर्तव्य दृढ़ता से निभाने के लिए किस चीज से लैस होना चाहिए? सबसे पहले उनके पास वह अंतःकरण होना चाहिए, जो सृजित प्राणियों के पास होना जरूरी है। यह न्यूनतम शर्त है। इसके अलावा उन्हें निष्ठावान भी होना चाहिए। एक मनुष्य के तौर पर परमेश्वर का आदेश स्वीकारने के लिए व्यक्ति को निष्ठावान होना चाहिए। उसे पूरी तरह सिर्फ परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए और वह अनमना या जिम्मेदारी लेने में विफल नहीं हो सकता; अपनी रुचि या मनोदशा के आधार पर काम करना गलत है, यह निष्ठावान होना नहीं है। निष्ठावान होने से क्या आशय है? इसका आशय यह है कि अपने कर्तव्य निभाते समय, तुम अपनी मनोदशा, वातावरण, लोगों, घटनाओं और चीजों से प्रभावित और विवश नहीं होते हो। तुम्हें मन में सोचना चाहिए, “मैंने यह आदेश परमेश्वर से स्वीकारा है; उसने यह मुझे सौंपा है। मुझसे यही अपेक्षित है। अतः मैं इसे अपना ही मामला मानकर जिस भी तरीके से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं उस तरह इस काम को करूँगा, परमेश्वर को संतुष्ट करने पर जोर दूँगा।” जब तुम इस मनोदशा में होते हो, तो तुम न केवल अपने अंतःकरण से नियंत्रित होते हो, बल्कि इसमें निष्ठा भी शामिल होती है। यदि तुम काम में दक्षता या परिणाम पाने की आशा किए बिना इसे बस यों ही पूरा कर देने में संतुष्ट हो और ऐसा महसूस करते हो कि कुछ प्रयास कर लेना ही पर्याप्त है, तो यह केवल लोगों के अंतःकरण का मानक पूरा करना है और इसे निष्ठा नहीं माना जा सकता है। परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना अंतःकरण के मानक से ऊँची अपेक्षा और मानक है। यह केवल अपने सारे प्रयास झोंकना नहीं होता; तुम्हें इसमें अपना सम्पूर्ण हृदय भी लगाना चाहिए। तुम्हें दिल से अपने कर्तव्य को हमेशा अपना काम मानना चाहिए, इस काम के लिए भार उठाना चाहिए, कोई छोटी-सी ग़लती करने पर या असावधान होने की दशा में फटकार सहनी चाहिए, ऐसा महसूस करना चाहिए कि तुम ऐसा आचरण नहीं कर सकते क्योंकि इससे तुम परमेश्वर के बहुत बड़े ऋणी बन जाते हो। जिन लोगों के पास सच्चे अर्थों में अंतःकरण और विवेक होता है, वे अपने कर्तव्य इस तरह निभाते हैं मानो वे उनके अपने ही काम हों, और इस बात की परवाह नहीं करते कि कोई उनकी चौकसी या निगरानी कर रहा है या नहीं। परमेश्वर उनसे प्रसन्न हो या नहीं या वो उनके साथ चाहे जैसा भी व्यवहार करे, वे अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के सौंपे हुए आदेश पूरा करने की खुद से कठोर अपेक्षा करते हैं। इसे निष्ठा कहते हैं। क्या यह अंतःकरण के मानक स्तर से अधिक ऊँचा मानक नहीं है? अंतःकरण के मानक के अनुसार कार्य करते समय लोग अक्सर बाहरी चीजों से प्रभावित होते हैं, या सोचते हैं कि अपने कर्तव्य के लिए सारे प्रयास लगा देना ही पर्याप्त है; शुद्धता का स्तर उतना ऊँचा नहीं है। लेकिन, अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक निभाने में सक्षम होने और निष्ठावान होने की बात की जाए, तो पवित्रता का स्तर इससे ऊँचा होता है। यह मतलब केवल प्रयास करना भर नहीं है; इसके लिए तुम्हें अपना पूरा हृदय, मस्तिष्क और शरीर अपने कर्तव्य के लिए लगाना होगा। अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए, तुम्हें कभी-कभी थोड़ी शारीरिक कठिनाई भी सहनी पड़ेगी। तुम्हें कीमत चुकानी ही होगी, और अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने सारे विचार समर्पित करने होंगे। चाहे तुम किसी भी परिस्थिति का सामना करो, उनके कारण तुम्हारे कर्तव्य पर असर नहीं पड़ेगा या तुम्हारा कर्तव्य निभाने में देर नहीं होगी, और तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम रहोगे। ऐसा करने के लिए, तुम्हें कीमत चुकाने में सक्षम होना चाहिए। तुम्हें अपना दैहिक परिवार, व्यक्तिगत मामले और स्वार्थ त्याग देना चाहिए। तुम्हें घमंड, अभिमान, भावनाओं, भौतिक सुखों, और यहाँ तक कि अपने यौवन के सर्वोत्तम वर्षों, अपनी शादी, अपने भविष्य और भाग्य जैसी चीजों से भी मुक्त होकर इन्हें त्याग देना चाहिए, और तुम्हें स्वेच्छा से अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए। तब, तुम्हें निष्ठा प्राप्त हो जाएगी, और इस तरह जीवन जीने से तुम्हें मानवीय समानता प्राप्त होगी। इस तरह के लोगों के पास न केवल अंतःकरण होता है, बल्कि वे अंतःकरण के मानक का उपयोग एक नींव के रूप में करते हैं जिससे वे अपने आप से उस निष्ठा की अपेक्षा कर सकें जिसकी अपेक्षा परमेश्वर मनुष्य से करता है, और इस निष्ठा का उपयोग अपने मूल्यांकन के साधन के रूप में करते हैं। वे इस लक्ष्य के लिए लगन से प्रयास करते हैं। ऐसे लोग पृथ्वी पर दुर्लभ हैं। परमेश्वर के चुने हुए हजारों लोगों में ऐसा केवल एक ही होता है। क्या ऐसे लोग मूल्यवान जीवन जीते हैं? क्या ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर संजोता है? निःसंदेह वे मूल्यवान जीवन जीते हैं और ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर संजोता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

आज तुम लोगों से जो कुछ हासिल करने की अपेक्षा की जाती है, वे अतिरिक्त माँगें नहीं, बल्कि मनुष्य का कर्तव्य है, जिसे सभी लोगों द्वारा किया जाना चाहिए। यदि तुम लोग अपना कर्तव्य तक निभाने में या उसे भली-भाँति करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम लोग अपने ऊपर मुसीबतें नहीं ला रहे हो? क्या तुम लोग मृत्यु को आमंत्रित नहीं कर रहे हो? कैसे तुम लोग अभी भी भविष्य और संभावनाओं की आशा कर सकते हो? परमेश्वर का कार्य मानवजाति के लिए किया जाता है, और मनुष्य का सहयोग परमेश्वर के प्रबंधन के लिए दिया जाता है। जब परमेश्वर वह सब कर लेता है जो उसे करना चाहिए, तो मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने अभ्यास में उदार हो और परमेश्वर के साथ सहयोग करे। परमेश्वर के कार्य में मनुष्य को कोई कसर बाकी नहीं रखनी चाहिए, उसे अपनी वफादारी प्रदान करनी चाहिए, और अनगिनत धारणाओं में सलंग्न नहीं होना चाहिए, या निष्क्रिय बैठकर मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर मनुष्य के लिए स्वयं को बलिदान कर सकता है, तो क्यों मनुष्य परमेश्वर को अपनी वफादारी प्रदान नहीं कर सकता? परमेश्वर मनुष्य के प्रति एक हृदय और मन वाला है, तो क्यों मनुष्य थोड़ा-सा सहयोग प्रदान नहीं कर सकता? परमेश्वर मानवजाति के लिए कार्य करता है, तो क्यों मनुष्य परमेश्वर के प्रबंधन के लिए अपना कुछ कर्तव्य पूरा नहीं कर सकता? परमेश्वर का कार्य इतनी दूर तक आ गया है, पर तुम लोग अभी भी देखते ही हो किंतु करते नहीं, सुनते ही हो किंतु हिलते नहीं। क्या ऐसे लोग तबाही के लक्ष्य नहीं हैं? परमेश्वर पहले ही अपना सर्वस्व मनुष्य को अर्पित कर चुका है, तो क्यों आज मनुष्य ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ है? परमेश्वर के लिए उसका कार्य उसकी पहली प्राथमिकता है, और उसके प्रबंधन का कार्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मनुष्य के लिए परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाना और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करना उसकी पहली प्राथमिकता है। इसे तुम सभी लोगों को समझ लेना चाहिए।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास

मनुष्य द्वारा अपना कर्तव्य निभाना वास्तव में उस सबकी सिद्धि है, जो मनुष्य के भीतर अंतर्निहित है, अर्थात् जो मनुष्य के लिए संभव है। इसके बाद उसका कर्तव्य पूरा हो जाता है। मनुष्य की सेवा के दौरान उसके दोष उसके क्रमिक अनुभव और न्याय से गुज़रने की प्रक्रिया के माध्यम से धीरे-धीरे कम होते जाते हैं; वे मनुष्य के कर्तव्य में बाधा या विपरीत प्रभाव नहीं डालते। वे लोग, जो इस डर से सेवा करना बंद कर देते हैं या हार मानकर पीछे हट जाते हैं कि उनकी सेवा में कमियाँ हो सकती हैं, वे सबसे ज्यादा कायर होते हैं। यदि लोग वह व्यक्त नहीं कर सकते, जो उन्हें सेवा के दौरान व्यक्त करना चाहिए या वह हासिल नहीं कर सकते, जो उनके लिए सहज रूप से संभव है, और इसके बजाय वे बेमन से काम करते हैं, तो उन्होंने अपना वह प्रयोजन खो दिया है, जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए। ऐसे लोग “औसत दर्जे के” माने जाते हैं; वे बेकार का कचरा हैं। इस तरह के लोग उपयुक्त रूप से सृजित प्राणी कैसे कहे जा सकते हैं? क्या वे भ्रष्ट प्राणी नहीं हैं, जो बाहर से तो चमकते हैं, परंतु भीतर से सड़े हुए हैं? ... यदि मनुष्य वह खो देता है, जो उसके द्वारा सहज रूप से प्राप्य है, तो वह अब और मनुष्य नहीं समझा जा सकता, और वह सृजित प्राणी के रूप में खड़े होने या परमेश्वर के सामने आकर उसकी सेवा करने के योग्य नहीं है। इतना ही नहीं, वह परमेश्वर का अनुग्रह प्राप्त करने या परमेश्वर द्वारा ध्यान रखे जाने, बचाए जाने और पूर्ण बनाए जाने के योग्य भी नहीं है। कई लोग जो परमेश्वर का भरोसा खो चुके हैं, परमेश्वर का अनुग्रह भी खोते चले जाते हैं। वे न केवल अपने बुरे कर्मों से घृणा नहीं करते, बल्कि ढिठाई से इस बात का प्रचार भी करते हैं कि परमेश्वर का मार्ग गलत है, और वे विद्रोही परमेश्वर के अस्तित्व तक से इनकार कर देते हैं। इस प्रकार की विद्रोहशीलता रखने वाले लोग परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने के पात्र कैसे हो सकते हैं? जो लोग अपना कर्तव्य नहीं निभाते, वे परमेश्वर के विरुद्ध अत्यधिक विद्रोही और उसके अत्यधिक ऋणी होते हैं, फिर भी वे पलट जाते हैं और हमलावर होकर कहते हैं कि परमेश्वर गलत है। इस तरह के मनुष्य पूर्ण बनाए जाने लायक कैसे हो सकते हैं? क्या यह त्याग दिए जाने और दंडित किए जाने की ओर नहीं ले जाता? जो लोग परमेश्वर के सामने अपना कर्तव्य नहीं निभाते, वे पहले से ही सर्वाधिक जघन्य अपराधों के दोषी हैं, जिसके लिए मृत्यु भी अपर्याप्त सज़ा है, फिर भी वे परमेश्वर के साथ बहस करने और उसके साथ अपनी बराबरी करने की धृष्टता करते हैं। ऐसे लोगों को पूर्ण बनाने का क्या महत्व है? जब लोग अपना कर्तव्य पूरा करने में विफल होते हैं, तो उन्हें अपराध और कृतज्ञता महसूस करनी चाहिए; उन्हें अपनी कमजोरी और अनुपयोगिता, अपनी विद्रोहशीलता और भ्रष्टता से घृणा करनी चाहिए, और इससे भी अधिक, उन्हें परमेश्वर को अपना जीवन अर्पित कर देना चाहिए। केवल तभी वे सृजित प्राणी होते हैं, जो परमेश्वर से सच्चा प्रेम करते हैं, और केवल ऐसे लोग ही परमेश्वर के आशीषों और प्रतिज्ञाओं का आनंद लेने और उसके द्वारा पूर्ण किए जाने के योग्य हैं। और तुम लोगों में से अधिकतर क्या हैं? तुम लोग उस परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करते हो, जो तुम लोगों के मध्य रहता है? तुम लोगों ने उसके सामने अपना कर्तव्य किस तरह निभाया है? क्या तुमने, अपने जीवन की कीमत पर भी, वह सब कर लिया है, जिसे करने के लिए तुम लोगों से कहा गया था? तुम लोगों ने क्या बलिदान किया है? क्या तुम लोगों को मुझसे कुछ ज्यादा नहीं मिला है? क्या तुम लोग विचार कर सकते हो? तुम लोग मेरे प्रति कितने वफादार हो? तुम लोगों ने मेरी किस प्रकार से सेवा की है? और उस सबका क्या हुआ, जो मैंने तुम लोगों को दिया है और तुम लोगों के लिए किया है? क्या तुम लोगों ने यह सब माप लिया है? क्या तुम सभी लोगों ने इसका आकलन और तुलना उस जरा-से विवेक के साथ कर ली है, जो तुम लोगों के भीतर है? तुम्हारे शब्द और कार्य किसके योग्य हो सकते हैं? क्या तुम लोगों का इतना छोटा-सा बलिदान उस सबके बराबर है, जो मैने तुम लोगों को दिया है? मेरे पास और कोई विकल्प नहीं है और मैं पूरे हृदय से तुम लोगों के प्रति समर्पित रहा हूँ, फिर भी तुम लोग मेरे बारे में दुष्ट इरादे रखते हो और मेरे प्रति अनमने रहते हो। यही तुम लोगों के कर्तव्य की सीमा, तुम लोगों का एकमात्र कार्य है। क्या ऐसा ही नहीं है? क्या तुम लोग नहीं जानते कि तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने में बिल्कुल असफल हो गए हो? तुम लोगों को सृजित प्राणी कैसे माना जा सकता है? क्या तुम लोगों को यह स्पष्ट नहीं है कि तुम क्या व्यक्त कर रहे हो और क्या जी रहे हो? तुम लोग अपना कर्तव्य पूरा करने में असफल रहे हो, पर तुम परमेश्वर की सहनशीलता और भरपूर अनुग्रह प्राप्त करना चाहते हो। इस प्रकार का अनुग्रह तुम जैसे बेकार और अधम लोगों के लिए नहीं, बल्कि उन लोगों के लिए तैयार किया गया है, जो कुछ नहीं माँगते और खुशी से बलिदान करते हैं। तुम जैसे मामूली लोग स्वर्ग के अनुग्रह का आनंद लेने के बिल्कुल भी योग्य नहीं हैं। केवल कठिनाई और अनंत सज़ा ही तुम लोगों को अपने जीवन में मिलेगी! यदि तुम लोग मेरे प्रति विश्वसनीय नहीं हो सकते, तो तुम लोगों के भाग्य में दुःख ही होगा। यदि तुम लोग मेरे वचनों और कार्यों के प्रति जवाबदेह नहीं हो सकते, तो तुम्हारा परिणाम दंड होगा। राज्य के समस्त अनुग्रह, आशीषों और अद्भुत जीवन का तुम लोगों के साथ कोई लेना-देना नहीं होगा। यही वह अंत है, जिसके तुम काबिल हो और जो तुम लोगों की अपनी करतूतों का परिणाम है!

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर

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लापरवाही के पीछे का सत्य

बेमन से काम करने के कारण हुआ नुकसान

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अपने कर्तव्य में सत्य का अभ्यास करना ही कुंजी है

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परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

उत्तर: हम परमेश्वर की वाणी कैसे सुनते हैं? हममें कितने भी गुण हों, हमें कितना भी अनुभव हो, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। प्रभु यीशु में विश्वास...

प्रश्न 1: सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है," तो मुझे वह याद आया जो प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)। हम पहले से ही जानते हैं कि प्रभु यीशु जीवन के सजीव जल का स्रोत हैं, और अनन्‍त जीवन का मार्ग हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और प्रभु यीशु समान स्रोत हों? क्या उनके कार्य और वचन दोनों पवित्र आत्मा के कार्य और वचन हैं? क्या उनका कार्य एक ही परमेश्‍वर करते हैं?

उत्तर: दोनों बार जब परमेश्‍वर ने देह धारण की तो अपने कार्य में, उन्होंने यह गवाही दी कि वे सत्‍य, मार्ग, जीवन और अनन्‍त जीवन के मार्ग हैं।...

5. पुराने और नए दोनों नियमों के युगों में, परमेश्वर ने इस्राएल में काम किया। प्रभु यीशु ने भविष्यवाणी की कि वह अंतिम दिनों के दौरान लौटेगा, इसलिए जब भी वह लौटता है, तो उसे इस्राएल में आना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु पहले ही लौट चुका है, कि वह देह में प्रकट हुआ है और चीन में अपना कार्य कर रहा है। चीन एक नास्तिक राजनीतिक दल द्वारा शासित राष्ट्र है। किसी भी (अन्य) देश में परमेश्वर के प्रति इससे अधिक विरोध और ईसाइयों का इससे अधिक उत्पीड़न नहीं है। परमेश्वर की वापसी चीन में कैसे हो सकती है?

संदर्भ के लिए बाइबल के पद :"क्योंकि उदयाचल से लेकर अस्ताचल तक जाति-जाति में मेरा नाम महान् है, और हर कहीं मेरे नाम पर धूप और शुद्ध भेंट...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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