क्या तुमने देखा? पूरी दुनिया आपदाओं से घिर गई है।
30 जुलाई, 2025 की सुबह, रूस के कामचटका प्रायद्वीप में अचानक 8.8 तीव्रता का एक जबरदस्त भूकंप आया जिससे सुनामी आ गई और कई देशों में आपातकालीन सुनामी की चेतावनी जारी कर दी गई। इस भूकंप के कारण 600 वर्षों में पहली बार क्रशेनिनिकोव ज्वालामुखी फटा जिससे राख का एक स्तंभ 6 किमी की ऊँचाई तक पहुँच गया। कई ज्वालामुखी सक्रिय हो गए हैं जिससे क्षेत्रीय ज्वालामुखी गतिविधि में नाटकीय वृद्धि हुई है।
23 से 29 जुलाई, 2025 के बीच चीन के बीजिंग में कई दिनों तक भारी बारिश हुई जिसके परिणामस्वरूप कम से कम 44 लोगों की मौत हो गई।
4 जुलाई, 2025 को अमेरिका के टेक्सस में सदी में एक बार आने वाली अचानक बाढ़ आई जिससे रातोंरात गाँव जलमग्न हो गए और पुल बह गए। इस बाढ़ में 100 से ज्यादा लोगों की मौत हुई।
जून 2025 के अंत और जुलाई की आरंभ के बीच पूरे यूरोप में भीषण गर्मी छाई रही जिसके कारण फ्रांस, स्पेन और पुर्तगाल में तापमान 40डिग्री से ऊपर चला गया। कई इलाकों में तापमान 42 डिग्री से भी अधिक हो गया और इस भीषण गर्मी के कारण 2,000 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और कई पर्यटक स्थल बंद हो गए।
28 मार्च, 2025 को म्यांमार में 7.7 तीव्रता का एक शक्तिशाली भूकंप आया जिसमें 3,000 से अधिक लोग मारे गए।
7 जनवरी, 2025 को अमेरिका के दक्षिणी कैलिफोर्निया के लॉस एंजेलिस में बड़े पैमाने पर जंगल में आग लग गई जिससे 18,000 से अधिक इमारतें नष्ट या क्षतिग्रस्त हो गईं और 29 लोगों की मौत हो गई।
युद्ध, भूकंप, बाढ़, कीट महामारी, अकाल, महामारी और मौसम की अति जैसी आपदाएँ लगातार गंभीर और निरंतर होती जा रही हैं और विभिन्न खगोलीय घटनाएँ भी लगातार घट रही हैं। क्या ये संयोग हैं? बिल्कुल नहीं। दो हजार साल पहले प्रभु यीशु ने एक चेतावनी जारी की थी : “क्योंकि जाति पर जाति, और राज्य पर राज्य चढ़ाई करेगा, और जगह जगह अकाल पड़ेंगे, और भूकम्प होंगे। ये सब बातें पीड़ाओं का आरम्भ होंगी। … क्योंकि उस समय ऐसा भारी क्लेश होगा, जैसा जगत के आरम्भ से न अब तक हुआ और न कभी होगा। … इसी रीति से जब तुम इन सब बातों को देखो, तो जान लो कि वह निकट है, वरन् द्वार ही पर है” (मत्ती 24:7-8, 21, 33)।
ये सारे संकेत हमारी आँखों के सामने पूरे हो रहे हैं। अंत के दिनों की खतरे की घंटी बज चुकी है—प्रभु यीशु हमारे द्वार पर खड़े होकर दस्तक दे रहा है! इस अंतिम क्षण में हम कैसे बुद्धिमान कुंवारियाँ बनकर परमेश्वर का उद्धार पाने के लिए प्रभु की वापसी का स्वागत कर सकते हैं? यह उन सभी के लिए चिंता का विषय है जो प्रभु की वापसी के लिए तरस रहे हैं। प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, “तब स्वर्ग का राज्य उन दस कुँवारियों के समान होगा जो अपनी मशालें लेकर दूल्हे से भेंट करने को निकलीं। उनमें पाँच मूर्ख और पाँच समझदार थीं। मूर्खों ने अपनी मशालें तो लीं, परन्तु अपने साथ तेल नहीं लिया; परन्तु समझदारों ने अपनी मशालों के साथ अपनी कुप्पियों में तेल भी भर लिया” (मत्ती 25:1-4)। धर्मग्रंथों में हम देख सकते हैं कि बुद्धिमान कुंवारियों ने चिरागों के लिए तेल तैयार किया और सावधानी से प्रभु के आगमन का इंतजार किया। आख़िरकार, उन्होंने उसका स्वागत किया और स्वर्ग के राज्य की दावत में शामिल हुईं। इसलिए बहुत से भाई-बहन यह मानते हैं कि अगर हम निरंतर रूप से धर्मग्रंथ पढ़ते हैं, संगतियाँ करते हैं, पूरी लगन से प्रभु का कार्य करते हैं और सावधानी से इंतजार करते हैं तो इसका मतलब है कि हमने चिरागों के लिए तेल तैयार कर लिया है और हम बुद्धिमान कुंवारियाँ हैं और जब प्रभु आएगा तो हमें स्वर्ग के राज्य में उठा लिया जाएगा। इस तरह से हम कई वर्षों से अभ्यास कर रहे हैं और अब सभी तरह के महा विनाश आ चुके हैं, लेकिन हमने अब तक प्रभु का स्वागत नहीं किया। इस कारण हमारे पास सिर्फ यह विकल्प बचता है कि हम चिंतन करें और खुद से यह पूछें : क्या इस तरीके से पूरी लगन से प्रभु का कार्य करना वास्तव में बुद्धिमान कुंवारी होना है? क्या हम इस तरीके से प्रभु का स्वागत कर पाएँगे और महा विनाशों से पहले उठा लिए जाएँगे?
क्या धर्मग्रंथ पढ़ना, प्रार्थना करना और पूरी लगन से प्रभु का कार्य करना व्यक्ति को बुद्धिमान कुंवारी बनाता है?
आइये, ज़रा पीछे मुड़कर शास्त्रियों, मुख्य याजकों और फरीसियों के बारे में सोचें। वे सभी धर्मग्रंथों के काफ़ी जानकार थे और उनके परिवारों ने पीढ़ियों से परमेश्वर की सेवा की थी। उन्होंने सख्ती से व्यवस्था का पालन किया, आज्ञाओं का पालन किया, पूरी लगन से काम किया और यहाँ तक कि परमेश्वर का सुसमाचार फैलाने के लिए दुनिया भर में यात्रा भी की। यह कहा जा सकता है कि उन्होंने काफ़ी काम किया, दुख भी कम नहीं सहा, और सावधानी से मसीहा के आने का इंतजार किया। हमारी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार, उन्हें ऐसी बुद्धिमान कुंवारियाँ होना चाहिए था जिन्होंने चिरागों के लिए तेल तैयार किया था और उन्हें प्रभु का स्वागत करने और उसका उद्धार प्राप्त करने के लिए किसी भी दूसरे व्यक्ति से अधिक पात्र होना चाहिए था। लेकिन तथ्य क्या हैं? जब प्रभु यीशु देहधारी बना और कार्य करने आया तो ये लोग न सिर्फ प्रभु यीशु को पहचानने में विफल रहे, बल्कि वे अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर यह भी मानते थे कि “ऐसा कोई भी जिसे ‘मसीहा’ नहीं कहा जाता, वह परमेश्वर नहीं है।” वे स्पष्ट रूप से सुन सकते थे कि प्रभु के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है, फिर भी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर उन्होंने प्रभु यीशु के कार्य और उसके वचनों को धर्मग्रंथों से दूर जाने वाला ठहराकर निंदा की। उन्होंने इस बहाने का इस्तेमाल इस बात को नकारने के रूप में किया कि प्रभु यीशु स्वयं परमेश्वर था, उन्होंने प्रभु यीशु की आलोचना और उसके विरुद्ध ईशनिंदा करने के लिए भी इसे लपक लिया। उनके के पास जरा भी परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं था। उनमें कोई समझ नहीं थी और वे खोज या जाँच नहीं करते थे। उन्होंने तो प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ाने के लिए रोमन सरकार के साथ काम किया और आखिरकार वे परमेश्वर द्वारा दंडित किए गए। ऐसे में, क्या यह कहा जा सकता है कि फरीसी बुद्धिमान कुंवारियाँ थे? वे सिर्फ मेहनत करने और पुराने नियम की व्यवस्थाओं को मानने पर ध्यान देते थे, लेकिन उन्हें परमेश्वर का लेश-मात्र भी ज्ञान नहीं था। वे परमेश्वर की वाणी सुनने में असमर्थ थे। उन्हें सबसे मूर्ख कुंवारियां कहा जा सकता है। फिर, वास्तव में एक बुद्धिमान कुंवारी होना क्या है? इसके बारे में ज़्यादा जानने के लिए आगे पढ़ें।
एक बुद्धिमान कुंवारी क्या है?
प्रभु यीशु ने एक बार कहा था : “मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं; मैं उन्हें जानता हूँ, और वे मेरे पीछे पीछे चलती हैं” (यूहन्ना 10:27)। “आधी रात को धूम मची: ‘देखो, दूल्हा आ रहा है! उससे भेंट करने के लिये चलो’” (मत्ती 25:6)। धर्मग्रंथों से, हम देख सकते हैं कि बुद्धिमान कुंवारियाँ मुख्य रूप से इसलिए दूल्हे का स्वागत करने में सक्षम हैं क्योंकि वे परमेश्वर की वाणी सुनने पर बहुत ज्यादा ध्यान देती हैं। जब बुद्धिमान कुंवारियाँ किसी को यह चिल्लाते हुए सुनती हैं कि दूल्हा आ रहा है तो वे बाहर जाकर उसका स्वागत करने की पहल करती हैं और वे खोज और जाँच करती हैं। आखिरकार, वे परमेश्वर के वचनों में परमेश्वर की वाणी सुनती हैं, और इसलिए वे प्रभु का स्वागत करती हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि धर्मशास्त्रों में दर्ज है, सामरी महिला ने प्रभु यीशु को यह कहते सुना : “तू पाँच पति कर चुकी है, और जिसके पास तू अब है वह भी तेरा पति नहीं। यह तू ने सच ही कहा है” (यूहन्ना 4:18)। तब उसे एहसास हुआ कि परमेश्वर ही उसके दिल में छिपी बातों को जान और कह सकता है। अचंभित होकर वह दूसरे लोगों से चीखते हुए बोली : “आओ, एक मनुष्य को देखो, जिसने सब कुछ जो मैं ने किया मुझे बता दिया। कहीं यही तो मसीह नहीं है?” (यूहन्ना 4:29)। प्रभु यीशु के वचनों से उसने पहचान लिया कि वह आने वाला मसीहा है। और फिर पतरस—प्रभु के साथ अपने समय के दौरान, उसने देखा कि प्रभु यीशु के वचन और उसके द्वारा किये गए कार्य ऐसी चीजें नहीं हैं जो कि कोई आम मनुष्य बोल या कर सके। प्रभु के वचनों और कार्य से, उसे पता चला कि प्रभु यीशु ही मसीह यानी परमेश्वर का पुत्र था। फिर नतनएल, यूहन्ना, अंद्रियास और अन्य लोग भी थे जिन सभी ने प्रभु यीशु के वचनों से परमेश्वर की वाणी पहचानी। उन्हें यकीन हो गया कि प्रभु यीशु स्वयं परमेश्वर है और उसका अनुसरण करने के लिए उन्होंने सब कुछ त्याग दिया। यही लोग बुद्धिमान कुंवारियाँ थे।
उपरोक्त तथ्य यह स्पष्ट करते हैं कि धर्मग्रंथ पढ़ने, संगति करने, पूरी लगन से प्रभु का कार्य करने और सावधानीपूर्वक इंतजार करने वाले सारे ही बुद्धिमान कुंवारियाँ नहीं होते हैं। इन सबसे बढ़कर, बुद्धिमान कुंवारियाँ वे हैं जो परमेश्वर की वाणी पर ध्यान देती हैं, और जब वे दूसरों को परमेश्वर के सुसमाचार का प्रसार करते हुए सुनती हैं, तो अपनी धारणाओं और कल्पनाओं का त्याग करने में सक्षम होती हैं और विनम्र, खोजी हृदय से परमेश्वर के कार्य की जाँच करती हैं। आखिरकार, वे परमेश्वर की प्रबुद्धता प्राप्त करती हैं, परमेश्वर की वाणी को पहचानती हैं, और प्रभु का स्वागत करती हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो परमेश्वर की वाणी को सुनने पर ध्यान नहीं देते, जो सत्य व्यक्त होते सुनकर भी खोजते नहीं हैं, जिनके पास विवेकशीलता की कमी होती है, जो सिर्फ धर्मग्रंथों के शाब्दिक अर्थों से अड़ियल होकर चिपके रहते हैं और जो यह मानते हैं कि वे कड़ी मेहनत करके, खुद को खपाकर और भेंटें देकर परमेश्वर के प्रकटन का स्वागत कर लेंगे—ये सारे लोग मूर्ख कुंवारियाँ हैं और आखिरकार वे परमेश्वर के उद्धार का अवसर गँवा देंगे।
मूर्ख कुंवारियाँ बनने से बचने के लिए और महा विनाशों के बीच परमेश्वर द्वारा त्यागे जाने और हटाये जाने से बचने के लिए, प्रभु के आगमन का स्वागत करने के इस महत्वपूर्ण क्षण में, हमें बुद्धिमान कुंवारियाँ होना चाहिए और परमेश्वर की वाणी सुनने पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में लिखा है : “जिसके कान हों वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है” (प्रकाशितवाक्य 2:7)। “देख, मैं द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूँ; यदि कोई मेरा शब्द सुनकर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके पास भीतर आकर उसके साथ भोजन करूँगा और वह मेरे साथ” (प्रकाशितवाक्य 3:20)। इन भविष्यवाणियाँ दिखाती हैं कि जब अंत के दिनों में प्रभु लौटेगा तो वह वचन व्यक्त करेगा। तो हम परमेश्वर की वाणी का भेद कैसे पहचान सकते हैं? आओ हम कुछ सिद्धांतों पर संगति करके आगे बढ़ते हैं।
1. परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचनों में अधिकार और सामर्थ्य होता है और वे परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं
जैसा कि हम सभी जानते हैं, परमेश्वर ने दुनिया बनाने के लिए अपने वचनों का इस्तेमाल किया था। परमेश्वर के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है; जैसे ही परमेश्वर का कोई वचन बोला जाता है, वह हकीकत बन जाता है। यह वैसा ही है जैसा कि परमेश्वर ने उत्पत्ति की पुस्तक में कहा था : “‘उजियाला हो,’ तो उजियाला हो गया” (उत्पत्ति 1:3)। “‘आकाश के नीचे का जल एक स्थान में इकट्ठा हो जाए और सूखी भूमि दिखाई दे,’ और वैसा ही हो गया” (उत्पत्ति 1:9)। यहोवा ने मूसा से कहा “इस्राएलियों की सारी मण्डली से कह कि तुम पवित्र बने रहो; क्योंकि मैं तुम्हारा परमेश्वर यहोवा पवित्र हूँ” (लैव्यव्यवस्था 19:2)। इसके अलावा प्रभु यीशु ने निम्न बातें भी कहीं जिन्होंने फरीसियों को उजागर किया : “हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करते हो, न तो स्वयं ही उसमें प्रवेश करते हो और न उस में प्रवेश करनेवालों को प्रवेश करने देते हो” (मत्ती 23:13)।
एक बार जब हम परमेश्वर के वचनों को सुन लेते हैं, तो हम यह जान जाते हैं कि कोई साधारण मनुष्य इन्हें नहीं बोल सकता। परमेश्वर के वचन सभी चीजों को आज्ञा दे सकते हैं, उन्हें अडिग और साकार कर सकते हैं। उसके वचन उन सभी को शाप भी दे सकते हैं जो उसका प्रतिरोध और उसके खिलाफ विद्रोह करते हैं। उन्हें सुनना विस्मयकारी है और हम यह महसूस कर सकते हैं कि परमेश्वर का स्वभाव किसी भी मनुष्य से अपमान सहन नहीं करता है। परमेश्वर के वचन पूरी तरह से उसकी पहचान और उसके अधिकार के परिचायक होते हैं। अंत के दिनों में अगर हम यह पहचानना चाहते हैं कि हम जो सुनते हैं वह लौटकर आए प्रभु की वाणी है कि नहीं तो इसका भेद पहचानने का यही तरीका है।
2. परमेश्वर के वचन रहस्यों को बेपरदा करते हैं और मानवजाति की भ्रष्टता और राज़ों को उजागर करते हैं
जैसा कि हम सभी जानते हैं, देहधारी प्रभु यीशु ने अपने कार्य के दौरान कई रहस्यों को बेपरदा किया। उसने कहा, “मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है” (मत्ती 4:17) और “जो मुझ से, ‘हे प्रभु! हे प्रभु!’ कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है” (मत्ती 7:21)। प्रभु ने स्वर्ग के राज्य में प्रवेश से जुड़े रहस्यों को सिर्फ इसलिए बेपरदा किया, ताकि हम यह जान सकें कि जो लोग सचमुच पश्चाताप करेंगे और स्वर्गिक पिता की इच्छा का पालन करने वाले लोग बनेंगे, सिर्फ वही स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने में सक्षम हैं। यह ऐसी बात है जिसे हम कभी नहीं जान पाते, बशर्ते प्रभु यीशु ने हमारे लिए इस रहस्य को बेपरदा न किया होता।
यही नहीं, परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराई की पड़ताल करता है। परमेश्वर हमारी पूरी समझ रखता है; सिर्फ परमेश्वर ही हमारी भ्रष्टता और हमारे दिलों में रहने वाली चीजों को उजागर कर सकता है। उदाहरण के लिये, प्रभु यीशु ने अंजीर के पेड़ के नीचे नतनएल की बात की थी, जिससे नतनएल यह पहचान पाया कि प्रभु यीशु ही आने वाला मसीहा है। कर संग्राहक, मत्ती ने भी पहचान लिया कि प्रभु यीशु ही परमेश्वर था क्योंकि प्रभु यीशु ने उसकी प्रार्थनाओं की बातें बोली थी। इन मामलों में हम देख सकते हैं कि परमेश्वर के वचन रहस्यों को ही बेपरदा नहीं करते हैं, बल्कि वे मानवजाति की भ्रष्टता और राज भी उजागर करते हैं। यह भी एक ऐसा तरीका है जिससे हम यह भेद पहचान सकते हैं कि कोई परमेश्वर की वाणी है कि नहीं है।
3. परमेश्वर के वचन जीवन दे सकते हैं और लोगों को आगे का मार्ग प्रदान कर सकते हैं
प्रभु यीशु ने कहा था : “मार्ग और सत्य और जीवन मैं ही हूँ; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता” (यूहन्ना 14:6)। परमेश्वर स्वयं ही सत्य है; परमेश्वर लोगों की ज़रूरतों के अनुसार, किसी भी समय और किसी भी जगह पर मानवजाति के पोषण के लिए सत्य को व्यक्त करने में सक्षम है। व्यवस्था के युग के दौरान मानवजाति यह नहीं जानती थी कि जीना कैसे है और परमेश्वर की आराधना कैसे करनी है, इसलिए परमेश्वर ने लोगों के जीवन में उनकी अगुआई करने के लिए मूसा के जरिए व्यवस्था दी। बिलकुल वैसे ही जैसे कि दस आज्ञाओं में बताया गया है: “तेरा परमेश्वर यहोवा, जो तुझे दासत्व के घर अर्थात् मिस्र देश में से निकाल लाया है, वह मैं हूँ। मुझे छोड़ दूसरों को परमेश्वर करके न मानना” (व्यवस्थाविवरण 5:6-7)। “तू हत्या न करना। तू व्यभिचार न करना। ... तू किसी के विरुद्ध झूठी साक्षी न देना। तू न किसी की पत्नी का लालच करना” (व्यवस्थाविवरण 5:17-21)। परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद, उस समय लोगों को पता चला कि उन्हें कैसे जीवन जीना चाहिए और कैसे परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए। फिर जब प्रभु यीशु कार्य करने और स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार का उपदेश देने आया तो वह लोगों को यह सिखाने लगा कि उन्हें अवश्य ही अपने पाप कबूल करने चाहिए और पश्चाताप करना चाहिए, उन्हें सहिष्णु और धैर्यवान होना चाहिए, उन्हें अपने पड़ोसियों से उसी प्रकार प्रेम करना चाहिए जैसा कि वे खुद से करते हैं, उन्हें पृथ्वी का नमक और रोशनी होना चाहिए, इत्यादि। बिलकुल वैसे ही जैसे कि पतरस ने प्रभु यीशु से पूछा, “हे प्रभु, यदि मेरा भाई अपराध करता रहे, तो मैं कितनी बार उसे क्षमा करूँ? क्या सात बार तक?” (मत्ती 18:21), यीशु ने पतरस को स्पष्ट रूप से बताया : “मैं तुझ से यह नहीं कहता कि सात बार तक वरन् सात बार के सत्तर गुने तक” (मत्ती 18:22)। प्रभु के ये वचन सुनने के बाद पतरस समझ गया कि क्षमा वह चीज है जिसका हमें पालन करना चाहिए और यह सशर्त या कुछ निश्चित बार तक सीमित नहीं है। इस तरह पतरस को अभ्यास का एक मार्ग मिल गया।
इस प्रकार अगर कोई हमें प्रभु के लौटने का सुसमाचार सुनाता है और कलीसियाओं को पवित्र आत्मा के वचनों की गवाही देता है तो हम सुन सकते हैं और यह भेद पहचान सकते हैं कि वे जो उपदेश दे रहे हैं क्या वह हमारी वर्तमान जरूरतों को पूरा कर सकता है। हम पाप करने और कबूल करने की दशा में जी रहे हैं, एक ऐसी दशा जिससे हम खुद को निकाल नहीं सकते हैं। जिस तरीके से वे उपदेश देते हैं, अगर वे हमें पाप से मुक्त करते हैं और शुद्धकरते हैं, तो इसका मतलब है कि प्रभु यीशु लौट आया है। हम इस एक सिद्धांत के आधार पर परमेश्वर की वाणी को पहचान सकते हैं।
क्या इस सहभागिता से तुम्हें एक बुद्धिमान कुंवारी बनने और प्रभु का स्वागत करने का मार्ग मिला है? मुझे उम्मीद है कि अगर यह तुम्हारे लिए मददगार रही हो, तो तुम इसे अन्य लोगों के साथ साझा करोगे। मेरी इच्छा यह है कि हम सभी बुद्धिमान कुंवारियाँ बन सकें, और हम सभी अपने दिलों को प्रभु की वाणी तलाशने और उसे ध्यान से सुनने में लगा सकें। इस तरह, हम जल्द ही प्रभु के आगमन का स्वागत कर सकेंगे और उसके साथ दावत में हिस्सा ले सकेंगे!