इन चार बातों को समझने से, परमेश्वर के साथ हमारा रिश्ता और भी क़रीबी हो जाएगा

13 मार्च, 2019

लेखिका: ज़ियोमो, चीन

बाइबल कहती है, "परमेश्‍वर के निकट आओ तो वह भी तुम्हारे निकट आएगा" (याकूब 4:8)। ईसाई होने के नाते, केवल परमेश्वर के क़रीब आने और परमेश्वर के साथ वास्तविक बातचीत करने से ही हम परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता बनाए रख सकते हैं और पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त कर सकते हैं। यह दो लोगों के परस्पर जुड़ने की तरह है जो केवल एक-दूसरे के साथ अधिक खुलकर रहने, मामलों का सामना करते ही अधिक संवाद करने, और एक-दूसरे को समझने और परस्पर सम्मान करने से ही अपने क़रीबी रिश्ते को लंबे समय तक बनाए रख सकते हैं। बहरहाल, तेजी से भागते जीवन के इस युग में, व्यस्त नौकरियाँ, जटिल रिश्ते और बुरी सामाजिक प्रवृत्तियाँ हमें अपने अंदर घसीट लेती हैं और हमें अधिक से अधिक घेर लेती हैं। हमारे दिल बाहरी दुनिया के लोगों, घटनाओं और चीज़ों से आसानी से परेशान हो जाते हैं, और वे हमें परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बनाए रखने से रोकते हैं। इस वजह से हम परमेश्वर से अधिकाधिक दूर होते जाते हैं, और, जब भी हम मामलों का सामना करते हैं, तो परमेश्वर के सामने खुद को शांत करना, परमेश्वर के क़रीब आना और पवित्र आत्मा के प्रबोधन और मार्गदर्शन की तलाश करना हमारे लिए बहुत कठिन हो जाता है। जब हम चीज़ों को करते हैं, तो हम अक्सर उन्हें बिना किसी सही दिशा या उद्देश्य के करते हैं, और हमारी आत्माएँ लगातार शून्यता और व्यग्रता की स्थिति में रहती हैं। तो हम परमेश्वर के साथ एक क़रीबी रिश्ता कैसे बनाए रख सकते हैं? हमें केवल नीचे दी गईं चार बातों को समझने की आवश्यकता है, और परमेश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध निश्चित रूप से निकटतर हो जाएगा।

इन चार बातों को समझने से, परमेश्वर के साथ हमारा रिश्ता और भी क़रीबी हो जाएगा

1. एक ईमानदार दिल के साथ परमेश्वर से प्रार्थना करो और पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित हो जाओ

प्रार्थना वह जरिया है जिसके माध्यम से हम परमेश्वर के साथ संवाद करते हैं। प्रार्थना के माध्यम से, हमारे दिल बेहतर रूप से परमेश्वर के समक्ष शांत होने में, परमेश्वर के वचन पर चिंतन करने में, परमेश्वर की इच्छा को खोजने, और परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध स्थापित करने में सक्षम हो पाते हैं। लेकिन जीवन में, चूँकि हम काम-धंधे या घरेलु कार्यों में व्यस्त होते हैं, हम अक्सर केवल ऊपरी तौर पर प्रार्थना करते हैं, और हम कुछ अन्यमनस्क वचनों को कहकर परमेश्वर से रूखा व्यवहार करते हैं। जब हम सुबह-सुबह के पहले कामों में व्यस्त होते हैं, उदाहरण के लिए, काम पर जाना या खुद का किसी और बात के साथ व्यस्त होना, तो हम जल्दी में प्रार्थना करते हैं: "हे परमेश्वर! मैं अपने आज के कार्य को तुम्हारे हाथों में सौंपता हूँ, और मैं अपने बच्चों एवं माता-पिता को भी तुम्हें सौंपता हूँ। मैं सब कुछ तुम्हारे हाथों में सौंपता हूँ और मैं निवेदन करता हूँ कि तुम मुझे आशीर्वाद दो और मेरी रक्षा करो। आमीन!" हम कुछ बेतरतीब शब्द कहकर परमेश्‍वर के साथ बेमन से पेश आते हैं। हमारे दिल शांत नहीं होते हैं, परमेश्वर के साथ हमारी वास्तविक बातचीत तो और भी कम होती है। कभी-कभी हम प्रार्थना में कुछ मीठी लगने वाली बातें करते हैं, और कुछ खोखले, अभिमान से भरे शब्द परमेश्वर से कहते हैं, और हम परमेश्वर को यह नहीं बताते कि हमारे दिल में क्या है। या कभी-कभी जब हम प्रार्थना करते हैं, तो हम कुछ रटे हुए वचनों का उच्चारण करते हैं, और हम हर बार वही, पुरानी घिसी-पिटी बातें दुहराते हैं, और यह पूरी तरह से एक धार्मिक रिवाज़ की प्रार्थना बनकर रह जाती है। इस तरह की कई प्रार्थनाएँ हमारे जीवन में बोली जाती हैं—वो प्रार्थनाएँ जो नियमों से जुड़ी होती हैं, और जिनमें हम अपने दिलों को परमेश्वर के सामने खोलते नहीं हैं, और न ही परमेश्वर की इच्छा की तलाश करते हैं। जब भी हम अर्थहीन प्रार्थना करते हैं, तो परमेश्वर इससे घृणा करता है क्योंकि इस तरह की प्रार्थना केवल बाहरी दिखावे और धार्मिक अनुष्ठान से संबंधित है, और हमारी आत्मा में परमेश्वर के साथ कोई वास्तविक बातचीत नहीं होती है। जो लोग इस तरह से प्रार्थना करते हैं वे परमेश्वर से बेमन से व्यवहार करते हैं और परमेश्वर को धोखा देते हैं। इसलिए, इस तरह की प्रार्थनाओं को परमेश्वर द्वारा नहीं सुना जाता है और उन लोगों के लिए जो इस तरह से प्रार्थना करते हैं यह बहुत कठिन हो जाता है कि वे पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित हो सकें। जब वे इस तरह प्रार्थना करते हैं, तो वे परमेश्वर की उपस्थिति को महसूस करने में असमर्थ होते हैं, उनकी आत्माएँ अंधकारमय और कमज़ोर हो जाती हैं, और परमेश्वर के साथ उनके संबंध में अधिक से अधिक दूरी होती जाती है।

प्रभु यीशु ने कहा: "परमेश्‍वर आत्मा है, और अवश्य है कि उसकी आराधना करनेवाले आत्मा और सच्‍चाई से आराधना करें" (यूहन्ना 4:24)। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है जो स्वर्ग और पृथ्वी पर हर जगह है। वह हर समय हमारे साथ है, हमारे हर शब्द और कार्य को, हमारे हर विचार और सोच को वह देख रहा है। परमेश्वर सर्वोच्च है, पूरी तरह से गौरवशाली है, और जब हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, तो हम परमेश्वर की आराधना करते हैं, और हमें परमेश्वर के सामने एक सच्चे दिल के साथ आना चाहिए। इसलिए, जब हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, तो हमारे पास एक परमेश्वर से डरने वाला दिल होना चाहिए, हमें परमेश्वर से ईमानदारी और सच्चाई से बात करनी चाहिए, अपनी वास्तविक स्थिति, हमारी कठिनाइयों और हमारे कष्टों को परमेश्वर के सामने लाना और उनके बारे में उसे बताना चाहिए, और हमें परमेश्वर की इच्छा और अभ्यास के मार्ग की तलाश करनी चाहिए, केवल इसी तरह से हमारी प्रार्थनाएँ परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होंगी। उदाहरण के लिए, हम जीवन में कुछ कठिनाइयों का सामना करते हैं, या हम खुद को ऐसी स्थिति में जीते हुए पाते हैं जिसमें हम लगातार पाप करते और उसे कबूल करते रहते हों, एवं इससे हम उत्पीड़ित महसूस करते हैं। और इसलिए, हम परमेश्वर के सामने अपना दिल खोलते हैं, परमेश्वर को इन समस्याओं के बारे में बताते हैं और परमेश्वर की इच्छा की तलाश करते हैं, और तब परमेश्वर हमारी ईमानदारी को देखेगा और हमें प्रेरित करेगा। वह हमें विश्वास देगा, या वह हमें उसकी इच्छा को समझने के लिए प्रबुद्ध करेगा। इस तरह, हम सच्चाई को समझते हैं और आगे बढ़ने का एक तरीक़ा पाते हैं। उदाहरण के लिए, जब हम वास्तव में यह जान लेते हैं कि हमारी प्रार्थना सिर्फ नियमों से चिपकी हुई है और केवल औपचारिकता के रूप में बोली जा रही है, या हम घमंड या शून्यता से बोल रहे हैं, और हम परमेश्वर के साथ कोई वास्तविक संवाद नहीं कर रहे हैं, तो अब हम इस तरह से प्रार्थना कर सकते हैं: "हे परमेश्वर! जब मैंने पहले प्रार्थना की थी, तो मैं तुम्हारे साथ बेमन से व्यवहार कर रहा था। मैंने जो कुछ भी कहा वह तुम्हें धोखा देने के लिए कहा गया था और मैं ईमानदारी से नहीं बोल रहा था; मैं तुम्हारा बहुत ऋणी हूँ। आज के बाद, मैं अपने दिल से प्रार्थना करना चाहता हूँ। मैं जो कुछ भी अपने दिल में सोचता हूँ, वही तुमसे कहूँगा एवं मैं सच्चे दिल से तुम्हारी आराधना करूँगा, और तुम्हारा मार्गदर्शन चाहूँगा"। जब हम परमेश्वर के समक्ष खुद को इस तरह तहेदिल तक खोलते हैं, तो हमारे दिल प्रेरित हो जाते हैं। फिर हम देखते हैं कि हमने परमेश्वर के खिलाफ़ कितना विद्रोह किया था, और तब हम वास्तव में परमेश्वर के प्रति और भी अधिक पश्चाताप करना चाहते हैं और उसके साथ ईमानदारी से बात करना चाहते हैं। इस समय, हम महसूस करेंगे कि परमेश्वर के साथ हमारा रिश्ता बेहद क़रीबी है, मानो कि हम उसके आमने-सामने हों। परमेश्वर के सामने हमारे दिलों को खोल देने का यह परिणाम होता है। परमेश्वर के सामने हमारे दिलों को खोल देने का इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता कि हम उससे कितना बोलते हैं, या हम अलंकृत वचनों या आडम्बरपूर्ण भाषा का प्रयोग करते हैं या नहीं। जब तक हम परमेश्वर के सामने अपने दिल को खोलते हैं, उसे हमारी वास्तविक स्थिति के बारे में बताते हैं, और उसके मार्गदर्शन और ज्ञान की तलाश करते हैं, तब तक परमेश्वर हमें सुनेगा, भले ही हम केवल कुछ सरल शब्द ही कहें। जब हम इस तरह से अक्सर परमेश्वर के क़रीब आते हैं, चाहे वह सभाओं में हो या आध्यात्मिक भक्ति के दौरान, या तब हो जब हम सड़क पर चल रहे हों या बस में बैठे हों या काम पर हों, तो हमारे दिल हमेशा प्रार्थना में परमेश्वर के प्रति चुपचाप खुलते रहेंगे। इसे जाने बिना ही, हमारे दिल परमेश्वर के सामने और भी अधिक शांत हो सकते हैं, हम परमेश्वर की इच्छा को अधिक समझेंगे और, जब हम मामलों का सामना करेंगे, तो हम जानेंगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सच्चाई का अभ्यास कैसे करें। इस तरह, परमेश्‍वर के साथ हमारा रिश्ता और भी अधिक सामान्य हो जाएगा।

2. परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय, उन पर अपने दिल से चिंतन करो और तुम उनके सही अर्थ को समझोगे

ईसाई लोग हर दिन आध्यात्मिक भक्ति का अभ्यास करते हैं और परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं। हम परमेश्वर के वचनों को कैसे पढ़ सकते हैं कि हम अच्छे परिणाम भी प्राप्त करें और साथ ही, इससे परमेश्वर के साथ हमारा रिश्ता और क़रीबी हो सके? परमेश्वर का वचन कहता है: "लोग अपने हृदय से परमेश्वर की आत्मा को स्पर्श करके परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, उससे प्रेम करते हैं और उसे संतुष्ट करते हैं, और इस प्रकार वे परमेश्वर की संतुष्टि प्राप्त करते हैं; परमेश्वर के वचनों से जुड़ने के लिए वे अपने हृदय का उपयोग करते हैं और इस प्रकार वे परमेश्वर के आत्मा द्वारा प्रेरित किए जाते हैं" ('परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है')। परमेश्वर के वचन हमें बताते हैं कि जब हम उनके वचनों को पढ़ते हैं, तो हमें उन पर चिंतन करना चाहिए और अपने दिलों से खोज करनी चाहिए, हमें पवित्र आत्मा का प्रबोधन और प्रकाश प्राप्त करना चाहिए, और हमें परमेश्वर की इच्छा को और उसकी हमसे क्या अपेक्षा है, इसको समझना चाहिए। केवल इस तरह से परमेश्वर के वचनों को पढ़ने से हमारे प्रयास फलदायी होंगे और हम परमेश्वर के क़रीब हो सकेंगे। परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय, यदि हम वास्तव में ध्यान दिए बिना केवल एक सरसरी निगाह से उन्हें देखते हैं, यदि हम केवल स्वयं का दिखावा करने के लिए कुछ वचनों और सिद्धांतों को समझने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और हम परमेश्वर के वचनों के सही अर्थ को समझने पर ध्यान नहीं देते हैं, तो चाहे हम उसके वचनों को कितना भी पढ़ लें, हम उसकी इच्छा के अनुरूप नहीं होंगे, और परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध स्थापित करने में हम और भी कम सक्षम होंगे।

इसलिए, जब हम परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, तो हमें अपने दिलों को शांत करना चाहिए, और अपने दिलों का उपयोग इस बात पर चिंतन करने के लिए करना चाहिए कि परमेश्वर ऐसी बातें क्यों कहता है, परमेश्वर की इच्छा क्या है और इस तरह की बातें कहकर परमेश्वर हमारे माध्यम से क्या परिणाम प्राप्त करना चाहता है। केवल इस तरह से उसके वचनों पर गहराई से विचार करके ही हम परमेश्वर की इच्छा को समझ सकते हैं और उसके दिल के अनुरूप हो सकते हैं, और इससे परमेश्वर के साथ हमारा संबंध अधिकाधिक सामान्य होता जाएगा। उदाहरण के लिए, हम देखते हैं कि प्रभु यीशु कहता है: "मैं तुम से सच कहता हूँ कि जब तक तुम न फिरो और बालकों के समान न बनो, तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे" (मत्ती 18:3)। हम सभी इस कथन के सतही अर्थ को समझ सकते हैं, कि परमेश्वर चाहता है कि हम ईमानदार लोग बनें। लेकिन ये बातें कि एक ईमानदार व्यक्ति होने का क्या महत्व है, क्यों परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्यार करता है और कैसे एक ईमानदार व्यक्ति बना जाए, वास्तव में ऐसे मुद्दे हैं जिन पर हमें अधिक गहराई से चिंतन करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों के प्रार्थनापूर्ण पठन और चिंतन के माध्यम से, हम समझते हैं कि परमेश्वर का तत्व विश्वसनीय है, और यह कि परमेश्वर जो कहता है या करता है उसमें किसी भी तरह का कोई झूठ या धोखा नहीं है, और इसीलिए परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है और धोखेबाज़ लोगों से घृणा करता है। परमेश्वर की अपेक्षा है कि हमें ईमानदार लोग बनना ही होगा, क्योंकि केवल परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप ईमानदार लोग बनकर ही हम परमेश्वर की अगुआई में उसके राज्य में आ सकते हैं। तो हम वास्तव में ईमानदार लोग कैसे बनें? सबसे पहले, हमें झूठ नहीं बोलना है, बल्कि हमें साफ़ और खुला होना चाहिए और उसे ही कहना चाहिए जो हमारे दिल में हो; दूसरी बात, हमें धोखेबाज़ी नहीं करनी चाहिए, हमें अपने हितों का त्याग करने में सक्षम होना चाहिए, और न तो परमेश्वर और न ही मनुष्य को धोखा देना चाहिए; तीसरा, हमारे दिलों में कोई धोखा नहीं होना चाहिए, हमारे कार्यों में कोई व्यक्तिगत इरादा या उद्देश्य नहीं होना चाहिए, बल्कि इसके बजाय हमें केवल सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कार्य करना चाहिए। जब चिंतन के माध्यम से इस प्रकाश को प्राप्त कर लिया जाता है, और हम अपने कार्यों और व्यवहार पर चिंतन करते हैं, तो तब हम देखते हैं कि हमारे पास अभी भी छल-कपट की कई अभिव्यक्तियाँ हैं: जब हम अन्य लोगों के साथ व्यवहार करते हैं, तो हम अक्सर अपने हित, अपनी प्रतिष्ठा और अपने क़द की रक्षा के लिए खुद को झूठ बोलने या धोखा देने से रोक नहीं सकते हैं। जब हम परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं, तो हम प्रार्थना में यह कह सकते हैं कि हम परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हैं और परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहते हैं, लेकिन जब परीक्षाएँ हम पर आ पड़ती हैं, जैसे कि हमारे बच्चे का बीमार हो जाना, या खुद हमारी या परिवार के किसी सदस्य की नौकरी का चले जाना, तो हम तुरंत परमेश्वर से शिकायत करना शुरू कर देते हैं, यहाँ तक कि हम कलीसिया में अपना काम छोड़ देना चाहते हैं; इसमें हम देख सकते हैं कि अपने आप को परमेश्वर के लिए खपाने का हमारा तरीक़ा दोषपूर्ण है, और यह एक ऐसा तरीक़ा है जिसमें हम परमेश्वर के साथ सौदेबाज़ी करते हैं। हम अपने व्यक्तिगत लाभ की खातिर परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं, न कि शुद्ध रूप से परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए। ये हमारे छलपूर्ण भावों के कुछ उदाहरण हैं। इन अभिव्यक्तियों से हम देख सकते हैं कि हम वास्तव में ईमानदार लोग नहीं हैं। एक बार जब हम स्वयं अपनी खामियों और कमियों को स्पष्ट रूप से देखते हैं, तो हमारे भीतर सत्य की प्यास का संकल्प पैदा होता है और हम अपने जीवन में परमेश्वर के वचनों का अधिक अभ्यास करना चाहते हैं। यह परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करके प्राप्त किया गया परिणाम है।

बेशक, यह परिणाम परमेश्वर के वचनों पर एक बार चिंतन करने से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, बल्कि कई बार उनके वचनों पर विचार करने के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही, जब भी हम समस्याओं का सामना करें, तो हमें सचेत रूप से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहिए। संक्षेप में, जब तक हम इस तरह परमेश्वर के वचनों पर अपने दिलों में लगातार चिंतन करते हैं, तब तक हम पवित्र आत्मा के प्रबोधन और प्रकाश को प्राप्त करने में सक्षम रहेंगे। एक दिन, हम कुछ नई रोशनी पाएँगे, और अगले दिन हम थोड़ी और नई रोशनी हासिल करेंगे और, समय के साथ, हम परमेश्वर के वचनों में रही सच्चाई के बारे में अधिक समझ प्राप्त करेंगे, अभ्यास का रास्ता साफ़ होता जाएगा, हमारे जीवन क्रमशः विकास करेंगे, और परमेश्वर के साथ हमारा संबंध अधिकाधिक घनिष्ठतर होता जाएगा। जैसा कि बाइबल में कहा गया है: "जो मुझ से प्रेम रखते हैं, उनसे मैं भी प्रेम रखती हूँ, और जो मुझ को यत्न से तड़के उठकर खोजते हैं, वे मुझे पाते हैं" (नीतिवचन 8:17)

3. सभी बातों में सत्य की खोज और परमेश्वर के वचन का अभ्यास करें

परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बनाए रखने के लिए ईसाइयों के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण चीज़ें मुद्दों का सामना करते समय सच्चाई की तलाश करना और परमेश्वर के वचन के अनुसार अभ्यास करना है। लेकिन, जीवन में, जब हम मुद्दों का सामना करते हैं, तो हम अक्सर अपने स्वयं के अनुभवों पर भरोसा करते हैं या हम उन्हें संभालने के लिए मानवीय साधनों का उपयोग करते हैं, या हम अपनी पसंद के अनुसार उनके साथ निपटते हैं। हम कभी-कभार ही परमेश्वर के सामने खुद को शांत करते और सच्चाई की तलाश करते हैं, या परमेश्वर की इच्छा के अनुसार उस मुद्दे से निपटते हैं। इससे हमें सच्चाई के अभ्यास के कई अवसरों को खोना पड़ता है, और हम परमेश्वर से लगातार दूर होते जाते हैं। परमेश्वर का वचन कहता है, "चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, चाहे मामला कितना भी बड़ा या छोटा हो, और चाहे तुम इसे परमेश्वर के परिवार में अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए या अपने निजी कारणों के लिए यह कर रहे हो, तुम्हें इस बात पर विचार करना ही चाहिए कि जो तुम कर रहे हो वह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है या नहीं, साथ ही क्या यह ऐसा कुछ है जो किसी मानवता युक्त व्यक्ति को करना चाहिए। अगर तुम जो भी करते हो उसमें उस तरह सत्य की तलाश करते हो तो तुम ऐसे इंसान हो जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है" ('परमेश्वर की इच्छा को खोजना सत्य के अभ्यास के लिए है')। "यदि तुम मेरे वचन में बने रहोगे, तो सचमुच मेरे चेले ठहरोगे" (यूहन्ना 8:31)। परमेश्वर के वचन हमें एक स्पष्ट मार्ग दिखाते हैं। चाहे हम कलीसिया में काम कर रहे हों या उन मुद्दों को संभाल रहे हों जिनका सामना हम अपने जीवन में करते हैं, हमें हमेशा सच्चाई की तलाश करनी होगी और परमेश्वर की इच्छा को समझना होगा, हमें देखना होगा कि हम किस तरह से मामले को संभालें ताकि परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा किया जा सके, जिन समस्याओं का हमें सामना करना पड़े उन सभी का हल करने के लिए सच्चाई का उपयोग करना होगा, और परमेश्वर के साथ अपने सामान्य संबंध को बनाए रखना होगा।

उदाहरण के लिए, इस प्रश्न को लो कि जब हम अपना जीवनसाथी चुनते हैं, तो हमें सच्चाई की तलाश कैसे करनी चाहिए। जब हम एक साथी की तलाश में होते हैं, तो हम हमेशा अपनी पसंद से चलते हैं और व्यक्ति के बाहरी रूप और स्वभाव पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और हम एक लंबा, अमीर, सुंदर आदमी, या एक निष्पक्ष, अमीर, सुंदर महिला की तलाश करते हैं, ऐसा विश्वास करते हुए हमारे पास केवल एक खुशहाल शादी होगी यदि हम उस तरह से किसी से शादी करते हैं, और यह कि हम शारीरिक आराम, आराम और आनंद के जीवन जीएंगे, और दूसरों को हमसे ईर्ष्या होगी। हालाँकि, क्या हम कभी आश्चर्य करते हैं कि क्या ऐसा साथी मिलना जो परमेश्वर के प्रति हमारी आस्था और हमारी जीवन प्रगति के लिए फायदेमंद हो? यदि हमारा साथी परमेश्वर में विश्वास नहीं करता है और वे हमें परमेश्वर पर विश्वास करने से रोकने की कोशिश करते हैं, तो इसका परिणाम क्या होगा? बाइबल कहती है, "अविश्‍वासियों के साथ असमान जूए में न जुतो" (2 कुरिन्थियों 6:14)। इससे, हम देख सकते हैं कि विश्वासियों और अविश्वासियों की आकांक्षाएँ मेल नहीं खातीं और एक दूसरे के अनुकूल नहीं होती हैं। विश्वास और सामाजिक रुझानों के प्रति उनके दृष्टिकोण में, उनके अपने-अपने विचार होंगे और वे अलग-अलग चीज़ों का अनुसरण करेंगे: एक ईसाई परमेश्वर से डरने और बुराई से दूर रहने के तरीक़े का पालन करना चाहेगा, जबकि एक अविश्वासी दुनिया की बुरी प्रवृत्तियों के पीछे जाना चाहेगा। जब हम एक अविश्वासी के साथ जुड़ते हैं, तो हम अवश्य ही उससे प्रभावित होंगे, और हमारे जीवन की प्रगति थम जाएगी। इसलिए, एक साथी का चयन करते समय, हमें व्यक्ति की मानवता और उसके चरित्र को ध्यान में रखना चाहिए और इस पर विचार करना चाहिए कि क्या उसके साथ जुड़ने से परमेश्वर में हमारी आस्था को लाभ होगा या नहीं, क्या हम दोनों एक ही विचारधारा के हैं या नहीं, और हमारी आकांक्षाएँ मेल खाती हैं या नहीं। यदि हम इन बातों पर विचार नहीं करते हैं, और केवल व्यक्ति के बाहरी दिखावे और उसकी पारिवारिक स्थिति पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो विवाह के बाद तकलीफ़ होगी क्योंकि हम एक विचारधारा के नहीं हैं। अगर हमारा साथी हम पर दबाव डालने की भी कोशिश करता है और हमें परमेश्वर पर विश्वास करने से रोकता है, तो यह हमारे आध्यात्मिक जीवन को और भी अधिक बर्बाद कर देगा। इसलिए यह देखा जा सकता है कि, चाहे हम अपने जीवन में किसी भी मुद्दे का सामना कर रहे हों, केवल सच्चाई की तलाश करके, परमेश्वर की इच्छा को समझने और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करने से ही हम परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा के अधीन जी सकते हैं, और केवल उसी तरीक़े से हम परमेश्वर के साथ हमारे संबंध को सामान्य बना कर रख सकते हैं।

4. परमेश्वर के सामने आओ, हर दिन अपना आत्मावलोकन करो, और परमेश्वर के साथ अपना घनिष्ठ संबंध बनाए रखो

यहोवा परमेश्वर ने कहा: "अपने अपने चालचलन पर सोचो" (हाग्गै 1:7)। परमेश्वर के वचनों से हम देख सकते हैं कि हमारे जीवन-प्रवेश के लिए आत्मावलोकन करना कितना आवश्यक है! आत्मावलोकन के माध्यम से, हम देख सकते हैं कि हमारे पास बहुत-सी कमियाँ हैं और हम परमेश्वर के अपेक्षित मानदंडों से बहुत नीचे हैं। इसलिए सत्य की खोज करने की प्रेरणा हमारे भीतर पैदा होती है, हम अपनी देहासक्ति को त्यागने का संकल्प करते हैं और हम परमेश्वर के वचन के अनुसार अभ्यास करने का भरसक प्रयास करते हैं। इस तरह, हम अपने व्यावहारिक अनुभवों में परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने पर ध्यान देते हैं, हम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करते हैं, और परमेश्वर के साथ हमारा संबंध लगातार अधिक सामान्य होता जाता है। उदाहरण के लिए, हम में से जो लोग कलीसिया में अगुवाओं के रूप में सेवा करते हैं, वे देखते हैं कि बाइबल में यह कहा गया है: "कि परमेश्‍वर के उस झुंड की, जो तुम्हारे बीच में है रखवाली करो; और यह दबाव से नहीं परन्तु परमेश्‍वर की इच्छा के अनुसार आनन्द से, और नीच-कमाई के लिये नहीं पर मन लगा कर। जो लोग तुम्हें सौंपे गए हैं, उन पर अधिकार न जताओ, वरन् झुंड के लिये आदर्श बनो" (1 पतरस 5:2-3)। इसलिए, जब हम अपने भाइयों और बहनों की चरवाही कर रहे हों, तो हमें आत्मावलोकन करना चाहिए, और खुद से पूछना चाहिए: क्या हम प्रभु के वचनों की और उसकी इच्छा की गवाही देने पर ध्यान दे रहे हैं, और परमेश्वर के सामने अपने भाइयों और बहनों की अगुआई कर रहे हैं, या जब हम प्रवचन देते हैं, तो दिखावा करने के लिए बड़ी-बड़ी, निरर्थक बातें किया करते हैं, और अपने भाइयों और बहनों से सम्मान और समादर पाने के लिए शब्दों और सिद्धांतों का उपदेश देते हैं? जब भाई-बहन हमें उचित सुझाव देते हैं, तो क्या हम अपनी ही समस्याओं पर विचार करते हैं, या हम उनके सुझावों को मानने से इंकार कर देते हैं, इस हद तक कि हम बहाने तक बना लेते हैं और खुद को साबित करने की कोशिश करते हैं? आत्मावलोकन के माध्यम से, हम देख सकते हैं कि परमेश्वर के प्रति हमारी सेवा में अभी भी कई क्षेत्र हैं जहाँ हम विद्रोही हैं, और यह कि हमारे पास अभी भी कई भ्रष्ट प्रकृतियाँ हैं, जिनका हल करने के लिए हमें सच्चाई की तलाश करने की आवश्यकता है। इस तरह, हम अपने आप को विनम्रतापूर्वक संचालित कर सकते हैं, अपने काम में हम परमेश्वर की इच्छा की अधिक खोज सकते हैं, और हम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने भाइयों और बहनों की अगुआई कर सकते हैं। यदि हम अक्सर परमेश्वर के सामने आकर आत्मावलोकन करने में असमर्थ हैं, तो हम अपने स्वयं की भ्रष्टताओं और कमियों को पहचानने में असफल रहेंगे और फिर भी हम स्वयं को सत्य के अनुगामी मान लेंगे। इसलिए, हम अटके रहने के साथ संतुष्ट रहेंगे, आगे कोई प्रगति करने से इंकार करेंगे, अधिक से अधिक दम्भी और आत्म-तुष्ट बन जाएँगे, और हम यह मान लेंगे कि हम परमेश्वर के दिल के अनुरूप हैं। हालांकि, वास्तव में, हमारे कार्य और व्यवहार परमेश्वर के लिए अस्वीकार्य होंगे, और परमेश्वर हमसे घृणा करेगा। इसलिए यह देखा जा सकता है कि अक्सर आत्मावलोकन करना बहुत महत्वपूर्ण है और यह कि सत्य का अभ्यास स्वयं को जानने की नींव पर गठित होता है। केवल अपने स्वयं की भ्रष्टताओं और कमियों का सही ज्ञान होने पर ही पश्चाताप हो सकता है, और तभी कोई सत्य की खोज करने और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने के लिए तैयार होगा। आत्मावलोकन हमारे जीवन की प्रगति के लिए बहुत लाभदायक है, और यह परमेश्वर के प्रति हमारे निकटतर होने के लिए अनिवार्य कुंजी है।

आत्मावलोकन करने के कई तरीक़े हैं: हम परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में आत्मावलोकन कर सकते हैं; हम उन गलतियों पर आत्मावलोकन कर सकते हैं जो हम अपने दैनिक जीवन में करते हैं; दूसरों के द्वारा हमारी कमियों और भ्रष्टताओं की ओर इशारा करना हमारे लिए आत्मावलोकन का और भी अधिक एक बेहतरीन मौका होता है; इसके अलावा, जब हम अपने आसपास रहे लोगों की गलतियों को देखते हैं, तो हम खुद पर भी चिंतन कर सकते हैं, उनकी गलतियों को चेतावनी के रूप में ले सकते हैं, हम उन बातों से सबक सीख सकते हैं और उनके द्वारा लाभान्वित हो सकते हैं, इत्यादि। आत्मावलोकन के लिए दिन या रात का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता है। हम किसी भी समय और कहीं भी, अपने दिलों में परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं, अपने स्वयं की भ्रष्टताओं का अवलोकन कर सकते हैं और उन्हें जान सकते हैं, और हम परमेश्वर की इच्छा और अपेक्षाओं की उसके वचनों में तलाश कर सकते हैं, और समय पर पश्चाताप कर सकते हैं। बहरहाल, हर रात सोने से पहले, हमने उस दिन जो कुछ भी किया हो उसका अवलोकन कर उसे सारांशित करना चाहिए, और तब हम अपनी स्थितियों की एक स्पष्ट समझ रख पाएँगे और यह जान सकेंगे कि हमारी कौन-सी बातें अभी भी सही नहीं हैं। एक बार जब हम ऐसा करना शुरू कर देते हैं, तो हमारी खोज अधिक दिशात्मक होगी और परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध स्थापित करने के लिए अधिक लाभदायक होगी।

भाइयों और बहनों, उपरोक्त चार बातें हमारे लिए परमेश्वर के निकटतर आने के अभ्यास का मार्ग हैं। जब तक हम इन बातों को अमल में लाते हैं, तब तक परमेश्वर के साथ हमारा रिश्ता और क़रीबी होता जाएगा, हमारे सामने आने वाले मुद्दों के लिए अभ्यास का हमारे पास एक मार्ग होगा, परमेश्वर हमें शांति और आनंद प्रदान करेगा और हमें उसकी आशीषों में रहने में सक्षम बनाएगा। तो, क्यों हम अभी ही शुरू नहीं करते हैं?

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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