281 समय
1
अकेली रूह चली आई है इतनी दूर से,
भविष्य को जाँचती, अतीत को खोजती,
कड़ी मेहनत करती, सपनों का पीछा करती।
इस बात से अनजान, कहाँ से आती-जाती है वो,
आँसुओं में पैदा होती, मायूसी में गुम होती।
कदमों तले कुचली जाती ख़ुद को संभालती फिर भी।
तुम्हारा आना कर देता है भटके व्यथित जीवन का अंत।
मुझको दिखती उम्मीद की किरण,
स्वागत करती हूँ सुबह की रोशनी का।
दूर कोहरे में पाती हूँ झलक तुम्हारे रूप की।
वो चमक है, वो चमक है तुम्हारे चेहरे की।
2
भटक गई थी मैं कल अनजान देश में,
मगर आज पा ली है राह मैंने अपने घर की।
ज़ख़्मों से छलनी, इंसान से अलग,
जीवन सपना है, मैं विलाप करती हूँ।
तुम्हारा आना कर देता है भटके व्यथित जीवन का अंत।
अब खोई हुई नहीं हूँ, भटकी हुई नहीं हूँ मैं।
अब अपने घर में हूँ मैं। तुम्हारा सफ़ेद लिबास दिखता है मुझे।
वो चमक है, वो चमक है तुम्हारे चेहरे की।
कितने जनम लिये, जनम लिये कितने साल इंतज़ार किया,
सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अब आगमन हुआ।
अकेली रूह को मिल गई राह, अब दुखी नहीं है ये।
हज़ारों साल का ये सपना।