6. यह क्यों कहा जाता है कि परमेश्वर का दो बार देहधारी होना देहधारण की महत्ता को पूरा करता है?

संदर्भ के लिए बाइबल के पद :

"वैसे ही मसीह भी बहुतों के पापों को उठा लेने के लिये एक बार बलिदान हुआ; और जो लोग उसकी बाट जोहते हैं उनके उद्धार के लिये दूसरी बार बिना पाप उठाए हुए दिखाई देगा" (इब्रानियों 9:28)

"आदि में वचन था, और वचन परमेश्‍वर के साथ था, और वचन परमेश्‍वर था" (यूहन्ना 1:1)

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :

प्रथम देहधारण मनुष्य को पाप से छुटकारा देने के लिए था, उसे यीशु की देह के माध्यम से छुटकारा देने के लिए था, अर्थात् यीशु ने मनुष्य को सलीब से बचाया, किंतु भ्रष्ट शैतानी स्वभाव फिर भी मनुष्य के भीतर रह गया। दूसरा देहधारण अब पापबलि के रूप में कार्य करने के लिए नहीं है, अपितु उन लोगों को पूरी तरह से बचाने के लिए है, जिन्हें पाप से छुटकारा दिया गया था। इसे इसलिए किया जा रहा है, ताकि जिन्हें क्षमा किया गया था, उन्हें उनके पापों से मुक्त किया जा सके और पूरी तरह से शुद्ध बनाया जा सके, और वे एक परिवर्तित स्वभाव प्राप्त करके शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो जाएँ और परमेश्वर के सिंहासन के सामने लौट आएँ। केवल इसी तरीके से मनुष्य को पूरी तरह से पवित्र किया जा सकता है। व्यवस्था के युग का अंत होने के बाद और अनुग्रह के युग के आरंभ से परमेश्वर ने उद्धार का कार्य शुरू किया, जो अंत के दिनों तक जारी है, जब वह मनुष्य की विद्रोहशीलता के लिए उसके न्याय और ताड़ना का कार्य करते हुए मानवजाति को पूरी तरह से शुद्ध कर देगा। केवल तभी परमेश्वर उद्धार के अपने कार्य का समापन करेगा और विश्राम में प्रवेश करेगा। इसलिए, कार्य के तीन चरणों में परमेश्वर स्वयं मनुष्य के बीच अपना कार्य करने के लिए केवल दो बार देह बना। वह इसलिए, क्योंकि कार्य के तीन चरणों में से केवल एक चरण ही मनुष्यों के जीवन में उनकी अगुआई करने के लिए है, जबकि अन्य दो चरणों में उद्धार का कार्य शामिल है। केवल देह बनकर ही परमेश्वर मनुष्य के साथ रह सकता है, संसार के दुःख का अनुभव कर सकता है, और एक सामान्य देह में रह सकता है। केवल इसी तरह से वह मनुष्यों को उस व्यावहारिक मार्ग की आपूर्ति कर सकता है, जिसकी उन्हें एक सृजित प्राणी होने के नाते आवश्यकता है। परमेश्वर के देहधारण के माध्यम से ही मनुष्य परमेश्वर से पूर्ण उद्धार प्राप्त करता है, न कि अपनी प्रार्थनाओं के उत्तर में सीधे स्वर्ग से। मनुष्य के शरीर और रक्त का होने के कारण, उसके पास परमेश्वर के आत्मा को देखने का कोई उपाय नहीं है, और उस तक पहुँचने का उपाय तो बिलकुल भी नहीं है। मनुष्य केवल परमेश्वर के देहधारी स्वरूप के संपर्क में ही आ सकता है, और केवल इस माध्यम से ही सभी मार्गों और सभी सत्यों को समझने में सक्षम हो सकता है, और पूर्ण उद्धार प्राप्त कर सकता है। दूसरा देहधारण मनुष्य का पापों से पीछा छुड़ाने और उसे पूरी तरह से पवित्र करने के लिए पर्याप्त है। इसलिए, दूसरे देहधारण के साथ देह में परमेश्वर का संपूर्ण कार्य समाप्त कर दिया जाएगा और परमेश्वर के देहधारण का महत्व पूरा कर दिया जाएगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4)

जिस समय यीशु अपना कार्य कर रहा था, उसके बारे में मनुष्य का ज्ञान तब भी अनिश्चित और अस्पष्ट था। मनुष्य ने हमेशा उसे दाऊद का पुत्र माना, और उसके एक महान नबी और उदार प्रभु होने की घोषणा की, जिसने मनुष्य को पापों से छुटकारा दिलाया। कुछ लोग अपने विश्वास के बल पर केवल उसके वस्त्र के किनारे को छूकर ही चंगे हो गए; अंधे देख सकते थे, यहाँ तक कि मृतक भी जिलाए जा सकते थे। कितु मनुष्य अपने भीतर गहराई से जड़ जमाए हुए भ्रष्ट शैतानी स्वभाव का पता लगाने में असमर्थ रहा, न ही वह यह जानता था कि उसे कैसे दूर किया जाए। मनुष्य ने बहुत अनुग्रह प्राप्त किया, जैसे देह की शांति और खुशी, एक व्यक्ति के विश्वास करने पर पूरे परिवार को आशीष, बीमारी से चंगाई, इत्यादि। शेष मनुष्य के भले कर्म और उसकी ईश्वर के अनुरूप दिखावट थी; यदि कोई इनके आधार पर जी सकता था, तो उसे एक स्वीकार्य विश्वासी माना जाता था। केवल ऐसे विश्वासी ही मृत्यु के बाद स्वर्ग में प्रवेश कर सकते थे, जिसका अर्थ था कि उन्हें बचा लिया गया है। परंतु अपने जीवन-काल में इन लोगों ने जीवन के मार्ग को बिलकुल नहीं समझा था। उन्होंने सिर्फ इतना किया कि अपना स्वभाव बदलने के किसी मार्ग को अपनाए बिना बस एक निरंतर चक्र में पाप किए और उन्हें स्वीकार कर लिया : अनुग्रह के युग में मनुष्य की स्थिति ऐसी थी। क्या मनुष्य ने पूर्ण उद्धार पा लिया है? नहीं! इसलिए, उस चरण का कार्य पूरा हो जाने के बाद भी न्याय और ताड़ना का कार्य बाकी रह गया था। यह चरण वचन के माध्यम से मनुष्य को शुद्ध बनाने और उसके परिणामस्वरूप उसे अनुसरण हेतु एक मार्ग प्रदान करने के लिए है। यह चरण फलदायक या अर्थपूर्ण न होता, यदि यह दुष्टात्माओं को निकालने के साथ जारी रहता, क्योंकि यह मनुष्य की पापपूर्ण प्रकृति को दूर करने में असफल रहता और मनुष्य केवल अपने पापों की क्षमा पर आकर रुक जाता। पापबलि के माध्यम से मनुष्य के पाप क्षमा किए गए हैं, क्योंकि सलीब पर चढ़ने का कार्य पहले ही पूरा हो चुका है और परमेश्वर ने शैतान को जीत लिया है। किंतु मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव अभी भी उसके भीतर बना रहने के कारण वह अभी भी पाप कर सकता है और परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है, और परमेश्वर ने मानवजाति को प्राप्त नहीं किया है। इसीलिए कार्य के इस चरण में परमेश्वर मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करने के लिए वचन का उपयोग करता है और उससे सही मार्ग के अनुसार अभ्यास करवाता है। यह चरण पिछले चरण से अधिक अर्थपूर्ण और साथ ही अधिक लाभदायक भी है, क्योंकि अब वचन ही है जो सीधे तौर पर मनुष्य के जीवन की आपूर्ति करता है और मनुष्य के स्वभाव को पूरी तरह से नया होने में सक्षम बनाता है; कार्य का यह चरण कहीं अधिक विस्तृत है। इसलिए, अंत के दिनों में देहधारण ने परमेश्वर के देहधारण के महत्व को पूरा किया है और मनुष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन-योजना का पूर्णतः समापन किया है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4)

अपने पहले देहधारण में परमेश्वर ने देहधारण के कार्य को पूरा नहीं किया; उसने उस कार्य के पहले चरण को ही पूरा किया जिसे परमेश्वर के लिए देह में रहकर करना आवश्यक था। इसलिए, देहधारण के कार्य को समाप्त करने के लिए, परमेश्वर एक बार फिर देह में वापस आया है, और देह की समस्त सामान्यता और वास्तविकता को जी रहा है, अर्थात्, एकदम सामान्य और साधारण देह में परमेश्वर के वचन को प्रकट कर रहा है, इस प्रकार उस कार्य का समापन कर रहा है जिसे उसने देह में अधूरा छोड़ दिया था। दूसरा देहधारण सार रूप में पहले के ही समान है, लेकिन यह अधिक वास्तविक और पहले से भी अधिक सामान्य है। परिणामस्वरूप, दूसरा देहधारी देह पहले देहधारण से भी अधिक पीड़ा सहता है, किन्तु यह पीड़ा देह में उसकी सेवकाई का परिणाम है, जो कि एक भ्रष्ट मानव की पीड़ा से भिन्न है। यह भी उसके देह की सामान्यता और वास्तविकता से उत्पन्न होती है। क्योंकि वह अपनी सेवकाई का कार्य सर्वथा सामान्य और वास्तविक देह में करता है, इसलिए उसके देह को अत्यधिक कठिनाई सहनी होगी। उसका देह जितना अधिक सामान्य और वास्तविक होगा, उतना ही अधिक वह अपनी सेवकाई में कष्ट उठाएगा। परमेश्वर का कार्य एक बहुत ही आम देह में अभिव्यक्त होता है, ऐसा देह जो कि बिल्कुल भी अलौकिक नहीं है। चूँकि उसका देह सामान्य है और उसे मनुष्य को बचाने के कार्य का दायित्व भी लेना है, इसलिए वह अलौकिक देह की अपेक्षा और भी अधिक पीड़ा भुगतता है—और ये सारी पीड़ा उसके देह की वास्तविकता और सामान्यता से उत्पन्न होती है। सेवकाई का कार्य करते समय जिस पीड़ा से दोनों देहधारी देह गुज़रे हैं, उससे देहधारी देह के सार को देखा जा सकता है। देह जितना अधिक सामान्य होगा, उसे कार्य करते समय उतनी ही अधिक कठिनाई सहनी होगी; कार्य करने वाला देह जितना अधिक वास्तविक होता है, लोगों की धारणाएँ भी उतनी ही अधिक कठोर होती हैं, और उस पर आने वाले ख़तरों की आशंका उतनी ही अधिक होती है। फिर भी, देह जितना अधिक वास्तविक होता है, और उसमें सामान्य मानव की जितनी अधिक आवश्यकताएँ और पूर्ण बोध होता है, वह उतना ही अधिक वह परमेश्वर के कार्य को देह में कर पाने में सक्षम होता है। यीशु के देह को सलीब पर चढ़ाया गया था, उसी ने पापबलि के रूप में अपने देह का को दिया था; उसने सामान्य मानवता वाले देह से ही शैतान को हराकर सलीब से मनुष्य को पूरी तरह से बचाया था। और पूरी तरह से देह के रूप में ही परमेश्वर अपने दूसरे देहधारण में विजय का कार्य करता है और शैतान को हराता है। केवल ऐसा देह जो पूरी तरह से सामान्य और वास्तविक है, अपनी समग्रता में विजय का कार्य करके एक सशक्त गवाही दे सकता है। अर्थात्, देह में परमेश्वर की वास्तविकता और सामान्यता के माध्यम से ही मानव पर विजय को प्रभावी बनाया जाता है, न कि अलौकिक चमत्कारों और प्रकटनों के माध्यम से। इस देहधारी परमेश्वर की सेवकाई बोलना, मनुष्य को जीतना और उसे पूर्ण बनाना है; दूसरे शब्दों में, देह में साकार हुए पवित्रात्मा का कार्य, देह का कर्तव्य, बोलकर मनुष्य को पूरी तरह से जीतना, उजागर करना, पूर्ण बनाना और हटाना है। इसलिए, विजय के कार्य में ही देह में परमेश्वर का कार्य पूरी तरह से सम्पन्न होगा। आरंभिक छुटकारे का कार्य देहधारण के कार्य का आरंभ मात्र था; विजय का कार्य करने वाला देह देहधारण के समस्त कार्य को पूरा करेगा। ... कार्य के इस चरण में, परमेश्वर संकेत और चमत्कार नहीं दिखाता, ताकि कार्य वचनों के माध्यम से अपने परिणाम प्राप्त करे। क्योंकि देहधारी परमेश्वर का इस बार का कार्य बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना नहीं है, बल्कि बोलकर मनुष्य को जीतना है, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर के इस देहधारण का सहज गुण वचन बोलना और मनुष्य को जीतना है, न कि बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना। सामान्य मानवता में उसका कार्य चमत्कार करना नहीं है, बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना नहीं है, बल्कि बोलना है, और इसलिए दूसरा देहधारी देह लोगों को पहले वाले की तुलना में अधिक सामान्य लगता है। लोग देखते हैं कि परमेश्वर का देहधारण मिथ्या नहीं है; बल्कि यह देहधारी परमेश्वर यीशु के देहधारण से भिन्न है, हालाँकि दोनों ही परमेश्वर के देहधारण हैं, फिर भी वे पूरी तरह से एक नहीं हैं। यीशु में सामान्य और साधारण मानवता थी, लेकिन उसमें अनेक संकेत और चमत्कार दिखाने की शक्ति थी। जबकि इस देहधारी परमेश्वर में, मानवीय आँखों को न तो कोई संकेत दिखाई देगा, और न कोई चमत्कार, न तो बीमार चंगे होते हुए दिखाई देंगे, न ही दुष्टात्माएँ बाहर निकाली जाती हुई दिखाई देंगी, न तो समुद्र पर चलना दिखाई देगा, न ही चालीस दिन तक उपवास रखना दिखाई देगा...। वह उसी कार्य को नहीं करता जो यीशु ने किया, इसलिए नहीं कि उसका देह सार रूप में यीशु से भिन्न है, बल्कि इसलिए कि बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना उसकी सेवकाई नहीं है। वह अपने ही कार्य को ध्वस्त नहीं करता, अपने ही कार्य में विघ्न नहीं डालता। चूँकि वह मनुष्य को अपने वास्तविक वचनों से जीतता है, इसलिए उसे चमत्कारों से वश में करने की आवश्यकता नहीं है, और इसलिए यह चरण देहधारण के कार्य को पूरा करने के लिए है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार

मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि देहधारण का अर्थ यीशु के कार्य में पूर्ण नहीं हुआ था? क्योंकि वचन पूरी तरह से देह नहीं बना था। यीशु ने जो किया वह देह में परमेश्वर के कार्य का केवल एक अंश ही था; उसने केवल छुटकारे का कार्य किया और मनुष्य को पूरी तरह से प्राप्त करने का कार्य नहीं किया। इसी कारण से परमेश्वर एक बार पुनः अंत के दिनों में देह बना है। कार्य का यह चरण भी एक सामान्य देह में किया जाता है; यह एक सर्वथा सामान्य मानव द्वारा किया जाता है, जिसकी मानवता अंश मात्र भी सर्वोत्कृष्ट नहीं होती। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर पूरी तरह से इंसान बन गया है; और वह ऐसा व्यक्ति है जिसकी पहचान परमेश्वर की है, एक पूर्ण मानव, एक पूर्ण देह की, जो कार्य को कर रहा है। मानवीय आँखों के लिए, वह केवल एक देह है जो बिल्कुल भी सर्वोत्कृष्ट नहीं है, एक अति सामान्य व्यक्ति जो स्वर्ग की भाषा बोल सकता है, जो कोई भी अद्भुत संकेत और चमत्कार नहीं दिखाता है, वृहद सभाकक्षों में धर्म के बारे में आंतरिक सत्य को तो उजागर बिल्कुल नहीं करता। लोगों को दूसरे देहधारी देह का कार्य पहले वाले से एकदम अलग प्रतीत होता है, इतना अलग कि दोनों में कुछ भी समान नहीं दिखता, और इस बार पहले वाले के कार्य का थोड़ा-भी अंश नहीं देखा जा सकता। यद्यपि दूसरे देहधारण के देह का कार्य पहले वाले से भिन्न है, लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उनका स्रोत एक ही नहीं है। उनका स्रोत एक ही है या नहीं, यह दोनों देह के द्वारा किए गए कार्य की प्रकृति पर निर्भर करता है, न कि उनके बाहरी आवरण पर। अपने कार्य के तीन चरणों के दौरान, परमेश्वर ने दो बार देहधारण किया है, और दोनों बार देहधारी परमेश्वर के कार्य ने एक नए युग का शुभारंभ किया है, एक नए कार्य का सूत्रपात किया है; दोनों देहधारण एक-दूसरे के पूरक हैं। मानवीय आँखों के लिए यह बताना असंभव है कि दोनों देह वास्तव में एक ही स्रोत से आते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह मानवीय आँखों या मानवीय मन की क्षमता से बाहर है। किन्तु अपने सार में वे एक ही हैं, क्योंकि उनका कार्य एक ही पवित्रात्मा से उत्पन्न होता है। दोनों देहधारी देह एक ही स्रोत से उत्पन्न होते हैं या नहीं, इस बात को उस युग और उस स्थान से जिसमें वे पैदा हुए थे, या ऐसे ही अन्य कारकों से नहीं, बल्कि उनके द्वारा किए गए दिव्य कार्य से तय किया जा सकता है। दूसरा देहधारी देह ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता जिसे यीशु कर चुका है, क्योंकि परमेश्वर का कार्य किसी परंपरा का पालन नहीं करता, बल्कि हर बार वह एक नया मार्ग खोलता है। दूसरे देहधारी देह का लक्ष्य, लोगों के मन पर पहले देह के प्रभाव को गहरा या दृढ़ करना नहीं है, बल्कि इसे पूरक करना और पूर्ण बनाना है, परमेश्वर के बारे में मनुष्य के ज्ञान को गहरा करना है, उन सभी नियमों को तोड़ना है जो लोगों के हृदय में विद्यमान हैं, और उनके हृदय से परमेश्वर की भ्रामक छवि को मिटाना है। ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर के अपने कार्य का कोई भी अकेला चरण मनुष्य को उसके बारे में पूरा ज्ञान नहीं दे सकता; प्रत्येक चरण केवल एक भाग का ज्ञान देता है, न कि संपूर्ण का। यद्यपि परमेश्वर ने अपने स्वभाव को पूरी तरह से व्यक्त कर दिया है, किन्तु मनुष्य की समझ के सीमित गुणों की वजह से, परमेश्वर के बारे में उसका ज्ञान अभी भी अपूर्ण है। मानव भाषा का उपयोग करके, परमेश्वर के स्वभाव की समग्रता को संप्रेषित करना असंभव है; इसके अलावा, परमेश्वर के कार्य का एक चरण परमेश्वर को पूरी तरह से कैसे व्यक्त कर सकता है? वह देह में अपनी सामान्य मानवता की आड़ में कार्य करता है, उसे केवल उसकी दिव्यता की अभिव्यक्तियों से ही जाना जा सकता है, न कि उसके दैहिक आवरण से। परमेश्वर मनुष्य को अपने विभिन्न कार्यों के माध्यम से स्वयं को जानने देने के लिए देह में आता है। उसके कार्य के कोई भी दो चरण एक जैसे नहीं होते। केवल इसी प्रकार से मनुष्य, एक अकेले पहलू तक सीमित न होकर, देह में परमेश्वर के कार्य का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार

कार्य का जो चरण यीशु ने संपन्न किया, उसने केवल "वचन परमेश्वर के साथ था" का सार ही पूरा किया : परमेश्वर का सत्य परमेश्वर के साथ था, और परमेश्वर का आत्मा देह के साथ था और उस देह से अभिन्न था। अर्थात, देहधारी परमेश्वर का देह परमेश्वर के आत्मा के साथ था, जो इस बात अधिक बड़ा प्रमाण है कि देहधारी यीशु परमेश्वर का प्रथम देहधारण था। कार्य का यह चरण ठीक-ठीक "वचन देह बनता है" के आंतरिक अर्थ को पूरा करता है, "वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था", को और गहन अर्थ देता है और तुम्हें इन वचनों पर दृढ़ता से विश्वास कराता है कि "आरंभ में वचन था"। कहने का अर्थ है कि सृष्टि के निर्माण के समय परमेश्वर वचनों से संपन्न था, उसके वचन उसके साथ थे और उससे अभिन्न थे, और अंतिम युग में वह अपने वचनों के सामर्थ्य और उसके अधिकार को और भी अधिक स्पष्ट करता है, और मनुष्य को परमेश्वर के सभी तरीके देखने—उसके सभी वचनों को सुनने का अवसर देता है। ऐसा है अंतिम युग का कार्य। तुम्हें इन चीजों को हर पहलू से जान लेना चाहिए। यह देह को जानने का प्रश्न नहीं है, बल्कि इस बात का है कि तुम देह और वचन को कैसे जानते हो। यही वह गवाही है, जो तुम्हें देनी चाहिए, जिसे हर किसी को जानना चाहिए। चूँकि यह दूसरे देहधारण का कार्य है—और यह आख़िरी बार है जब परमेश्वर देह बना है—यह देहधारण के अर्थ को सर्वथा पूरा कर देता है, देह में परमेश्वर के समस्त कार्य को पूरी तरह से कार्यान्वित और प्रकट करता है, और परमेश्वर के देह में होने के युग का अंत करता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (4)

पिछला: 5. यह क्यों कहा जाता है कि भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वाराउद्धार की सबसे अधिक आवश्यकता है?

अगला: 7. यह कैसे समझें कि मसीह सत्य, मार्ग और जीवन है?

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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5. पुराने और नए दोनों नियमों के युगों में, परमेश्वर ने इस्राएल में काम किया। प्रभु यीशु ने भविष्यवाणी की कि वह अंतिम दिनों के दौरान लौटेगा, इसलिए जब भी वह लौटता है, तो उसे इस्राएल में आना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु पहले ही लौट चुका है, कि वह देह में प्रकट हुआ है और चीन में अपना कार्य कर रहा है। चीन एक नास्तिक राजनीतिक दल द्वारा शासित राष्ट्र है। किसी भी (अन्य) देश में परमेश्वर के प्रति इससे अधिक विरोध और ईसाइयों का इससे अधिक उत्पीड़न नहीं है। परमेश्वर की वापसी चीन में कैसे हो सकती है?

संदर्भ के लिए बाइबल के पद :"क्योंकि उदयाचल से लेकर अस्ताचल तक जाति-जाति में मेरा नाम महान् है, और हर कहीं मेरे नाम पर धूप और शुद्ध भेंट...

प्रश्न 1: सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है," तो मुझे वह याद आया जो प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)। हम पहले से ही जानते हैं कि प्रभु यीशु जीवन के सजीव जल का स्रोत हैं, और अनन्‍त जीवन का मार्ग हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और प्रभु यीशु समान स्रोत हों? क्या उनके कार्य और वचन दोनों पवित्र आत्मा के कार्य और वचन हैं? क्या उनका कार्य एक ही परमेश्‍वर करते हैं?

उत्तर: दोनों बार जब परमेश्‍वर ने देह धारण की तो अपने कार्य में, उन्होंने यह गवाही दी कि वे सत्‍य, मार्ग, जीवन और अनन्‍त जीवन के मार्ग हैं।...

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