1. देहधारण क्या है? देहधारण का सार क्या है?

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :

"देहधारण" परमेश्वर का देह में प्रकट होना है; परमेश्वर सृष्टि के मनुष्यों के मध्य देह की छवि में कार्य करता है। इसलिए, परमेश्वर को देहधारी होने के लिए, सबसे पहले देह बनना होता है, सामान्य मानवता वाला देह; यह सबसे मौलिक आवश्यकता है। वास्तव में, परमेश्वर के देहधारण का निहितार्थ यह है कि परमेश्वर देह में रह कर कार्य करता है, परमेश्वर अपने वास्तविक सार में देहधारी बन जाता है, वह मनुष्य बन जाता है। उसके देहधारी जीवन और कार्य को दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है। पहला वह जीवन है जो वह सेवकाई प्रारम्भ करने से पहले जीता है। वह एकदम सामान्य मानवता में रहता है, सामान्य मानवीय परिवार में रहकर, जीवन की सामान्य नैतिकताओं और व्यवस्थाओं का पालन करता है, उसकी सामान्य मानवीय आवश्यकताएँ होती हैं, (भोजन, कपड़ा, आवास, निद्रा), उसमें सामान्य मानवीय कमज़ोरियाँ और सामान्य मानवीय भावनाएँ होती हैं। दूसरे शब्दों में, इस पहले चरण में वह सभी मानवीय क्रियाकलापों में शामिल होते हुए, बिना दिव्यता के, पूरी तरह से सामान्य मानवता में रहता है। दूसरा चरण वह जीवन है जो वह अपनी सेवकाई को आरंभ करने के बाद जीता है। वह इस अवधि में भी, सामान्य मानव-आवरण के साथ, सामान्य मानवता में रहता है, और किसी तरह की अलौकिकता का कोई संकेत नहीं देता। फिर भी वह पूरी तरह से अपनी सेवकाई के लिए ही जीता है, और इस दौरान उसकी सामान्य मानवता पूरी तरह से उसकी दिव्यता के सामान्य कार्य को करने में लगी रहती है, क्योंकि तब तक उसकी सामान्य मानवता उसकी सेवकाई के कार्य को करने में सक्षम होने की स्थिति तक परिपक्व हो चुकी होती है। तो उसके जीवन का दूसरा चरण सामान्य मानवता में अपनी सेवकाई को करना है, जब यह सामान्य मानवता और पूर्ण दिव्यता दोनों का जीवन होता है। अपने जीवन के प्रथम चरण में वह पूरी तरह से साधारण मानवता का जीवन क्यों जीता है, उसका कारण यह है कि उसकी मानवता अभी तक दिव्य कार्य की समग्रता को संभालने लायक नहीं हो पायी है, अभी तक वह परिपक्व नहीं हुई है; जब उसकी मानवता परिपक्व हो जाती है, उसकी सेवकाई को सहारा प्रदान करने के योग्य बन जाती है, तभी वह जो सेवकाई उसे करनी चाहिए, उसकी शुरूआत कर सकता है। चूँकि उसे देह के रूप में विकसित होकर परिपक्व होने की आवश्यकता होती है, इसलिए उसके जीवन का पहला चरण सामान्य मानवता का जीवन होता है, जबकि दूसरे चरण में, क्योंकि उसकी मानवता उसके कार्य का दायित्व लेने और उसकी सेवकाई को करने में सक्षम होती है, अपनी सेवकाई के दौरान देहधारी परमेश्वर जिस जीवन को जीता है वह मानवता और पूर्ण दिव्यता दोनों का जीवन होता है। यदि अपने जन्म के समय से ही देहधारी परमेश्वर, अलौकिक संकेतों और चमत्कारों को दिखाते हुए, गंभीरता से अपनी सेवकाई आरंभ कर देता, तो उसमें कोई भी दैहिक सार नहीं होता। इसलिए, उसकी मानवता उसके दैहिक सार के लिए अस्तित्व में है; मानवता के बिना कोई देह नहीं हो सकता, और मानवता के बिना कोई व्यक्ति मानव नहीं होता। इस तरह, परमेश्वर के देह की मानवता, परमेश्वर के देहधारण की अंतर्भूत सम्पत्ति है। ऐसा कहना कि "जब परमेश्वर देहधारण करता है तो वह पूरी तरह से दिव्य होता है, मानव बिल्कुल नहीं होता," ईशनिंदा है, क्योंकि इस वक्तव्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है, और यह देहधारण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। अपनी सेवकाई आरंभ करने के बाद भी, अपना कार्य करते हुए वह बाह्य मानवीय आवरण के साथ ही अपनी दिव्यता में रहता है; बात सिर्फ़ इतनी ही है कि उस समय, उसकी मानवता उसकी दिव्यता को सामान्य देह में कार्य करने देने के एकमात्र प्रयोजन को पूरा करती है। इसलिए कार्य की अभिकर्ता उसकी मानवता में रहने वाली दिव्यता है। कार्य उसकी दिव्यता करती है, न कि उसकी मानवता, मगर यह दिव्यता उसकी मानवता में छिपी रहती है; सार रूप में, उसका कार्य उसकी संपूर्ण दिव्यता द्वारा ही किया जाता है, न कि उसकी मानवता द्वारा। परन्तु कार्य को करने वाला उसका देह है। कह सकते हैं कि वह मनुष्य भी है और परमेश्वर भी, क्योंकि परमेश्वर, मानवीय आवरण और मानवीय सार के साथ, देह में रहने वाला परमेश्वर बन जाता है, लेकिन उसमें परमेश्वर का सार भी होता है। चूँकि वह परमेश्वर के सार वाला मनुष्य है इसलिए वह सभी सृजित मानवों से ऊपर है, ऐसे किसी भी मनुष्य से ऊपर है जो परमेश्वर का कार्य कर सकता है। तो, उसके समान मानवीय आवरण वाले सभी लोगों में, सभी मानवता धारियों में, एकमात्र वही देहधारी स्वयं परमेश्वर है—अन्य सभी सृजित मानव हैं। यद्यपि उन सभी में मानवता है, किन्तु सृजित मानव में केवल मानवता ही है, जबकि देहधारी परमेश्वर भिन्न है : उसके देह में न केवल मानवता है, बल्कि अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उसमें दिव्यता भी है। उसकी मानवता उसके देह के बाहरी रूप-रंग में और उसके दिन-प्रतिदिन के जीवन में देखी जा सकती है, किन्तु उसकी दिव्यता को देख पाना मुश्किल है। क्योंकि उसकी दिव्यता केवल तभी व्यक्त होती है जब उसमें मानवता होती है, और यह वैसी अलौकिक नहीं होती जैसी लोग कल्पना करते हैं, इसलिए लोगों के लिए इसे देख पाना बहुत कठिन होता है। आज भी, लोगों के लिए देहधारी परमेश्वर के सच्चे सार की थाह पाना बहुत कठिन है। इसके बारे में इतने विस्तार से बताने के बाद भी, मुझे लगता है कि तुम लोगों में से अधिकांश के लिए यह एक रहस्य ही है। वास्तव में, यह मामला बहुत सरल है : चूँकि परमेश्वर देहधारी बन जाता है, इसलिए उसका सार मानवता और दिव्यता का संयोजन है। यह संयोजन स्वयं परमेश्वर, पृथ्वी पर स्वयं परमेश्वर कहलाता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार

पृथ्वी पर यीशु ने जो जीवन जिया वह देह में एक सामान्य जीवन था। उसने अपने देह का सामान्य जीवन जिया। अपना कार्य करना, वचन बोलना, या बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना, ऐसे असाधारण कार्य करने के उसके अधिकार ने स्वयं को तब तक प्रकट नहीं किया जब तक कि उसने अपनी सेवकाई आरंभ नहीं की। उनतीस वर्ष की उम्र से पहले, अपनी सेवकाई आरंभ करने से पहले उसका जीवन, इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि वह बस एक सामान्य देह था। इस कारण से और क्योंकि उसने अभी तक अपनी सेवकाई आरंभ नहीं की थी, लोगों को उसमें कुछ भी दिव्य नहीं दिखाई दिया, एक सामान्य मानव, एक सामान्य मनुष्य से अधिक कुछ नहीं दिखाई दिया—ठीक जैसे कि उस समय कुछ लोग उसे यूसुफ का पुत्र ही मानते थे। लोगों को लगता था कि वह एक सामान्य मनुष्य का पुत्र है, उनके पास यह बताने का कोई तरीका नहीं था कि वह देहधारी परमेश्वर का देह है; यहाँ तक कि जब, अपनी सेवकाई करने के दौरान, उसने कई चमत्कार किए, तब भी अधिकांश लोगों ने यही कहा कि वह यूसुफ का पुत्र है, क्योंकि वह सामान्य मानवता के बाह्य आवरण वाला मसीह था। उसकी सामान्य मानवता और कार्य दोनों पहले देहधारण की महत्ता को पूर्ण करने के लिए थे, यह सिद्ध करने के लिए थे कि परमेश्वर पूरी तरह से देह में आकर एक अत्यंत साधारण मनुष्य बन गया है। अपना कार्य शुरु करने के पहले की उसकी सामान्य मानवता इस बात का प्रमाण थी कि वह एक साधारण देह था; और बाद में उसके कार्य करने ने भी यह प्रमाणित कर दिया कि वह एक साधारण देह था, क्योंकि उसने सामान्य मानवता द्वारा संकेत और चमत्कार किए, बीमार को चंगा किया और दुष्टात्माओं को देह से बाहर निकाला। वह इसलिए चमत्कार कर सका क्योंकि उसका देह परमेश्वर के अधिकार के युक्त था, परमेश्वर के आत्मा ने उसके देह को धारण किया था। उसके पास यह अधिकार परमेश्वर के आत्मा के कारण था, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि वह देह नहीं था। उसे अपनी सेवकाई में बीमार को चंगा करने और दुष्टात्माओं को निकालने का कार्य करना था, यह उसकी मानवता में छिपी दिव्यता की अभिव्यक्ति थी, भले ही उसने कोई भी संकेत दिखाए हों या अपने अधिकार को कैसे भी प्रदर्शित किया हो, लेकिन तब भी वह सामान्य मानवता में रहने वाला सामान्य देह ही था। सलीब पर जान देने से लेकर पुनर्जीवित होने तक, वह सामान्य देह में ही रहा। अनुग्रह प्रदान करना, बीमार को चंगा करना, और दुष्टात्माओं को निकालना, ये सब उसकी सेवकाई का हिस्सा थे, ये सारे कार्य उसके सामान्य देह में किए गए थे। चाहे वह कोई भी कार्य कर रहा हो, लेकिन क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले, वह कभी भी अपने सामान्य मानव देह से अलग नहीं हुआ। वह स्वयं परमेश्वर था, परमेश्वर का अपना कार्य कर रहा था, लेकिन चूँकि वह देहधारी परमेश्वर था, इसलिए वह खाना भी खाता था, कपड़े भी पहनता था, उसकी आवश्यकताएँ सामान्य इंसानों जैसी थीं, उसमें सामान्य मानवीय तर्क-शक्ति और सामान्य मानवीय मन था। यह सब इस बात का प्रमाण है कि वह एक सामान्य मनुष्य था, इससे सिद्ध होता है कि देहधारी परमेश्वर का देह सामान्य मानवता से युक्त देह था, न कि कोई अलौकिक देह। उसका कार्य परमेश्वर के पहले देहधारण के कार्य को पूरा करना था, उस सेवकाई को पूरा करना था जो पहले देहधारण को पूरी करनी चाहिए। देहधारण की महत्ता यह है कि एक साधारण, सामान्य मनुष्य स्वयं परमेश्वर का कार्य करता है; अर्थात्, परमेश्वर मानव देह में अपना दिव्य कार्य करके शैतान को परास्त करता है। देहधारण का अर्थ है कि परमेश्वर का आत्मा देह बन जाता है, अर्थात्, परमेश्वर देह बन जाता है; देह के द्वारा किया जाने वाला कार्य पवित्रात्मा का कार्य है, जो देह में साकार होता है, देह द्वारा अभिव्यक्त होता है। परमेश्वर के देह को छोड़कर अन्य कोई भी देहधारी परमेश्वर की सेवकाई को पूरा नहीं कर सकता; अर्थात्, केवल परमेश्वर का देहधारी देह, यह सामान्य मानवता—अन्य कोई नहीं—दिव्य कार्य को व्यक्त कर सकता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार

देहधारी परमेश्वर की मानवता देह में सामान्य दिव्य कार्य को बनाए रखने के लिए मौजूद रहती है; उसकी सामान्य मानवीय सोच उसकी सामान्य मानवता को और उसकी समस्त सामान्य दैहिक गतिविधियों को बनाए रखती है। ऐसा कहा जा सकता है कि उसकी सामान्य मानवीय सोच देह में परमेश्वर के समस्त कार्य को बनाए रखने के उद्देश्य से विद्यमान रहती है। यदि इस देह में सामान्य मानवीय मन न होता, तो परमेश्वर देह में कार्य न कर पाता और जो उसे देह में करना था, वह कभी न कर पाता। यद्यपि देहधारी परमेश्वर में एक सामान्य मानवीय मन होता है, किन्तु उसके कार्य में मानवीय विचारों की मिलावट नहीं होती; वह सामान्य मन के साथ मानवता में कार्य करता है जिसमें मन-युक्त मानवता के होने की पूर्वशर्त रहती है, न कि सामान्य मानवीय विचारों को प्रयोग में लाने की। उसके देह के विचार कितने भी उत्कृष्ट क्यों न हों, लेकिन उसका कार्य तर्क या सोच से कलंकित नहीं होता। दूसरे शब्दों में, उसके कार्य की कल्पना उसके देह के मन के द्वारा नहीं की जाती, बल्कि वह उसकी मानवता में दिव्य कार्य की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। उसका समस्त कार्य उसकी वह सेवकाई है जिसे उसे पूरा करना है, उसमें से कुछ भी उसके मस्तिष्क की कल्पना नहीं होता। उदाहरण के लिए, बीमार को चंगा करना, दुष्टात्माओं को निकालना, और क्रूसीकरण उसके मानवीय मन की उपज नहीं थे, उन्हें किसी भी मानवीय मन वाले मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता था। उसी तरह, आज का विजय-कार्य ऐसी सेवकाई है जिसे देहधारी परमेश्वर द्वारा किया जाना चाहिए, किन्तु यह किसी मानवीय इच्छा का कार्य नहीं है, यह ऐसा कार्य है जो उसकी दिव्यता को करना चाहिए, ऐसा कार्य जिसे करने में कोई भी दैहिक मानव सक्षम नहीं है। इसलिए देहधारी परमेश्वर में सामान्य मानव मन होना चाहिए, सामान्य मानवता से संपन्न होना चाहिए, क्योंकि उसे एक सामान्य मन के साथ मानवता में कार्य करना चाहिए। यही देहधारी परमेश्वर के कार्य का सार है, देहधारी परमेश्वर का वास्तविक सार है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार

कार्य आरंभ करने से पहले, यीशु सामान्य मानवता में रहता था। कोई नहीं कह सकता था कि वह परमेश्वर है, किसी को भी पता नहीं चला कि वह देहधारी परमेश्वर है; लोग उसे पूरी तरह से एक साधारण व्यक्ति ही समझते थे। उसकी सर्वथा सामान्य, साधारण मानवता इस बात का प्रमाण थी कि परमेश्वर ने देहधारण किया है, और अनुग्रह का युग देहधारी परमेश्वर के कार्य का युग है, न कि पवित्रात्मा के कार्य का युग। यह इस बात का प्रमाण था कि परमेश्वर का आत्मा पूरी तरह से देह में साकार हुआ है और परमेश्वर के देहधारण के युग में उसका देह पवित्रात्मा का समस्त कार्य करेगा। सामान्य मानवता वाला मसीह ऐसा देह है जिसमें आत्मा साकार हुआ है, जिसमें सामान्य मानवता है, सामान्य बोध है और मानवीय विचार हैं। "साकार होने" का अर्थ है परमेश्वर का मानव बनना, आत्मा का देह बनना; इसे और स्पष्ट रूप से कहें, तो यह तब होता है जब स्वयं परमेश्वर सामान्य मानवता वाले देह में वास करके उसके माध्यम से अपने दिव्य कार्य को व्यक्त करता है—यही साकार होने या देहधारी होने का अर्थ है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार

जिस समयावधि में प्रभु यीशु काम कर रहा था, उसमें लोग देख सकते थे कि परमेश्वर की अनेक मानवीय अभिव्यक्तियाँ हैं। उदाहरण के लिए, वह नृत्य कर सकता था, वह विवाहों में शामिल हो सकता था, वह लोगों के साथ संगति कर सकता था, उनसे बात कर सकता था और उनके साथ विभिन्न मामलों में चर्चा कर सकता था। इसके अतिरिक्त, प्रभु यीशु ने बहुत-सा ऐसा कार्य भी पूरा किया, जो उसकी दिव्यता दर्शाता था, और निस्संदेह यह समस्त कार्य परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति और प्रकाशन था। इस दौरान, चूँकि परमेश्वर की दिव्यता एक साधारण देह में उस रूप में साकार हुई थी, जिसे लोग देख और छू सकते थे, इसलिए अब उन्होंने यह महसूस नहीं किया कि वह अनुभूति के भीतर और बाहर झिलमिलाता है, या वे उसके करीब नहीं जा सकते। इसके विपरीत, वे मनुष्य के पुत्र की हर गतिविधि, उसके वचनों और कार्य के माध्यम से परमेश्वर की इच्छा या उसकी दिव्यता को समझने की कोशिश कर सकते थे। मनुष्य के देहधारी पुत्र ने अपनी मानवता के माध्यम से परमेश्वर की दिव्यता व्यक्त की और परमेश्वर की इच्छा को मानवजाति तक पहुँचाया। और परमेश्वर की इच्छा और स्वभाव की अभिव्यक्ति के माध्यम से उसने लोगों के सामने उस परमेश्वर को भी प्रकट किया, जिसे देखा और छुआ नहीं जा सकता और जो आध्यात्मिक क्षेत्र में रहता है। लोगों ने स्वयं परमेश्वर को मूर्त रूप में, माँस और रक्त से निर्मित देखा। तो मनुष्य के देहधारी पुत्र ने स्वयं परमेश्वर की पहचान, हैसियत, छवि, स्वभाव और उसके स्वरूप जैसी चीज़ों को ठोस और मानवीय बना दिया। भले ही परमेश्वर की छवि के संबंध में मनुष्य के पुत्र के बाहरी रूप-रंग की कुछ सीमाएँ थीं, किंतु उसका सार और स्वरूप स्वयं परमेश्वर की पहचान और हैसियत दर्शाने में पूर्णतः समर्थ थे—केवल अभिव्यक्ति के रूप में कुछ भिन्नताएँ थीं। हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि मनुष्य के पुत्र ने अपनी मानवता और दिव्यता, दोनों रूपों में स्वयं परमेश्वर की पहचान और हैसियत दर्शाई। हालाँकि इस दौरान परमेश्वर ने देह के माध्यम से कार्य किया, देह के परिप्रेक्ष्य से बात की और मानवजाति के सामने मनुष्य के पुत्र की पहचान और हैसियत के साथ खड़ा हुआ, और इसने लोगों को मानवजाति के बीच परमेश्वर के सच्चे वचनों और कार्य को देखने-सुनने और अनुभव करने का अवसर दिया। इसने लोगों को विनम्रता के बीच उसकी दिव्यता और महानता के संबंध में अंतर्दृष्टि और साथ ही परमेश्वर की प्रामाणिकता और वास्तविकता की एक प्रारंभिक समझ और परिभाषा भी प्रदान की। भले ही प्रभु यीशु द्वारा पूर्ण किया गया कार्य, कार्य करने के उसके तरीके और उसके बोलने का परिप्रेक्ष्य आध्यात्मिक क्षेत्र में परमेश्वर के वास्तविक व्यक्तित्व से भिन्न थे, फिर भी उसकी हर चीज़ वास्तव में स्वयं परमेश्वर को दर्शाती थी, जिसे मानवजाति ने पहले कभी नहीं देखा था—इससे इनकार नहीं किया जा सकता! अर्थात्, परमेश्वर चाहे किसी भी रूप में प्रकट हो, वह चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्य में बात करे, या किसी भी छवि में वह मानवजाति के सामने आए, वह अपने सिवाय किसी को नहीं दर्शाता। वह न तो किसी मनुष्य को दर्शा सकता है, न ही भ्रष्ट मानवजाति को दर्शा सकता है। परमेश्वर स्वयं परमेश्वर है, और इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

यद्यपि देहधारी परमेश्वर का बाहरी रूप-रंग ठीक मनुष्य के समान है, और यद्यपि वह मानवीय ज्ञान सीखता है और मानवीय भाषा बोलता है, और कभी-कभी अपने विचार मनुष्य की पद्धतियों या बोलने के तरीकों से भी व्यक्त करता है, फिर भी, जिस तरीके से वह मनुष्यों को और चीज़ों के सार को देखता है, वह भ्रष्ट लोगों द्वारा मनुष्यों को और चीज़ों के सार को देखने के तरीके के समान बिलकुल नहीं है। उसका परिप्रेक्ष्य और वह ऊँचाई, जिस पर वह खड़ा है, किसी भ्रष्ट व्यक्ति के द्वारा अप्राप्य है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर सत्य है, क्योंकि उसके द्वारा धारित देह में भी परमेश्वर का सार है, और उसके विचार तथा जो कुछ उसकी मानवता के द्वारा प्रकट किया जाता है, वे भी सत्य हैं। भ्रष्ट लोगों के लिए, जो कुछ वह देह में व्यक्त करता है, वह सत्य और जीवन के प्रावधान हैं। ये प्रावधान केवल एक व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवजाति के लिए हैं। किसी भ्रष्ट व्यक्ति के हृदय में केवल वे थोड़े-से लोग ही होते हैं, जो उससे संबद्ध होते हैं। वह केवल उन मुट्ठीभर लोगों की ही परवाह करता है और उन्हीं के बारे में चिंता करता है। जब आपदा क्षितिज पर होती है, तो वह पहले अपने बच्चों, जीवनसाथी, या माता-पिता के बारे में सोचता है। अधिक से अधिक, कोई ज्यादा दयालु व्यक्ति किसी रिश्तेदार या अच्छे मित्र के बारे में कुछ सोच लेगा; पर क्या ऐसे दयालु व्यक्ति के विचार भी इससे आगे जाते हैं? नहीं, कभी नहीं! क्योंकि मनुष्य अंततः मनुष्य हैं, और वे सब-कुछ एक मनुष्य की ऊँचाई और परिप्रेक्ष्य से ही देख सकते हैं। किंतु देहधारी परमेश्वर भ्रष्ट व्यक्ति से पूर्णत: अलग है। देहधारी परमेश्वर का देह कितना ही साधारण, कितना ही सामान्य, कितना ही निम्न क्यों न हो, या लोग उसे कितनी ही नीची निगाह से क्यों न देखते हों, मानवजाति के प्रति उसके विचार और उसका रवैया ऐसी चीज़ें है, जो किसी भी मनुष्य में नहीं हैं, जिनका कोई मनुष्य अनुकरण नहीं कर सकता। वह मानवजाति का अवलोकन हमेशा दिव्यता के परिप्रेक्ष्य से, सृजनकर्ता के रूप में अपनी स्थिति की ऊँचाई से करेगा। वह मानवजाति को हमेशा परमेश्वर के सार और मानसिकता से देखेगा। वह मानवजाति को एक औसत व्यक्ति की निम्न ऊँचाई से, या एक भ्रष्ट व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से बिलकुल नहीं देख सकता। जब लोग मानवजाति को देखते हैं, तो मनुष्य की दृष्टि से देखते हैं, और अपने पैमाने के रूप में वे मनुष्य के ज्ञान और मनुष्य के नियमों और सिद्धांतों जैसी चीज़ों का उपयोग करते हैं। यह उस दायरे के भीतर है, जिसे लोग अपनी आँखों से देख सकते हैं; उस दायरे के भीतर है, जो भ्रष्ट लोगों द्वारा प्राप्य है। जब परमेश्वर मानवजाति को देखता है, तो वह दिव्य दृष्टि से देखता है, और पैमाने के रूप में अपने सार और स्वरूप का उपयोग करता है। इस दायरे में वे चीज़ें शामिल हैं जिन्हें लोग नहीं देख सकते, और यहीं पर देहधारी परमेश्वर और भ्रष्ट मनुष्य पूरी तरह से भिन्न हैं। यह भिन्नता मनुष्यों और परमेश्वर के भिन्न-भिन्न सार से निर्धारित होती है—ये भिन्न-भिन्न सार ही उनकी पहचान और स्थिति को और साथ ही उस परिप्रेक्ष्य और ऊँचाई को निर्धारित करते हैं, जिससे वे चीज़ों को देखते हैं।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

परमेश्वर के आत्मा द्वारा धारण की हुई देह परमेश्वर की अपनी देह है। परमेश्वर का आत्मा सर्वोच्च है; वह सर्वशक्तिमान, पवित्र और धार्मिक है। इसी तरह, उसकी देह भी सर्वोच्च, सर्वशक्तिमान, पवित्र और धार्मिक है। इस तरह की देह केवल वह करने में सक्षम है जो मानवजाति के लिए धार्मिक और लाभकारी है, वह जो पवित्र, महिमामयी और प्रतापी है; वह ऐसी किसी भी चीज को करने में असमर्थ है जो सत्य, नैतिकता और न्याय का उल्लंघन करती हो, वह ऐसी किसी चीज को करने में तो बिल्कुल भी समर्थ नहीं है जो परमेश्वर के आत्मा के साथ विश्वासघात करती हो। परमेश्वर का आत्मा पवित्र है, और इसलिए उसका शरीर शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किया जा सकता; उसका शरीर मनुष्य के शरीर की तुलना में भिन्न सार का है। क्योंकि यह परमेश्‍वर नहीं बल्कि मनुष्य है, जो शैतान द्वारा भ्रष्ट किया गया है; यह संभव नहीं कि शैतान परमेश्वर के शरीर को भ्रष्ट कर सके।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2)

देहधारी हुए परमेश्वर को मसीह कहा जाता है, और इसलिए वह मसीह जो लोगों को सत्य दे सकता है, परमेश्वर कहलाता है। इसमें कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है, क्योंकि उसमें परमेश्वर का सार होता है, और उसके कार्य में परमेश्वर का स्वभाव और बुद्धि होती है, जो मनुष्य के लिए अप्राप्य हैं। जो अपने आप को मसीह कहते हैं, परंतु परमेश्वर का कार्य नहीं कर सकते, वे धोखेबाज हैं। मसीह पृथ्वी पर परमेश्वर की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, बल्कि वह विशेष देह भी है, जिसे धारण करके परमेश्वर मनुष्यों के बीच रहकर अपना कार्य पूरा करता है। कोई मनुष्य इस देह की जगह नहीं ले सकता, बल्कि यह वह देह है जो पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य पर्याप्त रूप से सँभाल सकती है और परमेश्वर का स्वभाव व्यक्त कर सकती है, और परमेश्वर का अच्छी तरह प्रतिनिधित्व कर सकती है, और मनुष्य को जीवन प्रदान कर सकती है। मसीह का भेस धारण करने वाले लोगों का देर-सबेर पतन हो जाएगा, क्योंकि हालाँकि वे मसीह होने का दावा करते हैं, किंतु उनमें मसीह के सार का लेशमात्र भी नहीं है। और इसलिए मैं कहता हूँ कि मसीह की प्रामाणिकता मनुष्य द्वारा परिभाषित नहीं की जा सकती, बल्कि इसका उत्तर और निर्णय स्वयं परमेश्वर द्वारा ही दिया-लिया जाता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है

स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का सार है

(परमेश्वर के वचनों का चुनिंदा अध्याय)

देहधारी परमेश्वर मसीह कहलाता है और मसीह परमेश्वर के आत्मा द्वारा धारण की गई देह है। यह देह किसी भी मनुष्य की देह से भिन्न है। यह भिन्नता इसलिए है क्योंकि मसीह मांस तथा खून से बना हुआ नहीं है; वह आत्मा का देहधारण है। उसके पास सामान्य मानवता तथा पूर्ण दिव्यता दोनों हैं। उसकी दिव्यता किसी भी मनुष्य द्वारा धारण नहीं की जाती। उसकी सामान्य मानवता देह में उसकी समस्त सामान्य गतिविधियां बनाए रखती है, जबकि उसकी दिव्यता स्वयं परमेश्वर के कार्य अभ्यास में लाती है। चाहे यह उसकी मानवता हो या दिव्यता, दोनों स्वर्गिक परमपिता की इच्छा को समर्पित हैं। मसीह का सार पवित्र आत्मा, यानी दिव्यता है। इसलिए, उसका सार स्वयं परमेश्वर का है; यह सार उसके स्वयं के कार्य में बाधा उत्पन्न नहीं करेगा और वह संभवतः कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकता, जो उसके स्वयं के कार्य को नष्ट करता हो, न ही वह ऐसे वचन कहेगा, जो उसकी स्वयं की इच्छा के विरुद्ध जाते हों। इसलिए, देहधारी परमेश्वर कभी भी कोई ऐसा कार्य बिल्कुल नहीं करेगा, जो उसके अपने प्रबंधन में बाधा उत्पन्न करता हो। यह वह बात है, जिसे सभी मनुष्यों को समझना चाहिए। पवित्र आत्मा के कार्य का सार मनुष्य को बचाना और परमेश्वर के अपने प्रबंधन के वास्ते है। इसी प्रकार, मसीह का कार्य भी मनुष्य को बचाना है तथा परमेश्वर की इच्छा के वास्ते है। यह देखते हुए कि परमेश्वर देह बन जाता है, वह अपने देह में अपने सार का, इस प्रकार अहसास करता है कि उसकी देह उसके कार्य का भार उठाने के लिए पर्याप्त है। इसलिए देहधारण के समय परमेश्वर के आत्मा का संपूर्ण कार्य मसीह के कार्य द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है और देहधारण के पूरे समय के दौरान संपूर्ण कार्य के केंद्र में मसीह का कार्य होता है। इसे किसी भी अन्य युग के कार्य के साथ मिलाया नहीं जा सकता। और चूँकि परमेश्वर देहधारी हो जाता है, वह अपनी देह की पहचान में कार्य करता है; चूँकि वह देह में आता है, वह अपनी देह में वह कार्य पूरा करता है, जो उसे करना चाहिए। चाहे वह परमेश्वर का आत्मा हो या चाहे वह मसीह हो, दोनों स्वयं परमेश्वर हैं और वह उस कार्य को करता है, जो उसे करना चाहिए और उस सेवकाई को करता है, जो उसे करनी चाहिए।

परमेश्वर का सार ही अधिकार को काम में लाता है, लेकिन वह पूर्ण रूप से उस अधिकार के प्रति समर्पित हो पाता है, जो उसकी ओर से आता है। चाहे वह पवित्र आत्मा का कार्य हो या देह का, दोनों का एक दूसरे से टकराव नहीं होता। परमेश्वर का आत्मा संपूर्ण सृष्टि पर अधिकार रखता है। परमेश्वर के सार वाली देह भी अधिकार संपन्न है, पर देह में परमेश्वर वह सब कार्य कर सकता है, जिससे स्वर्गिक पिता की इच्छा का आज्ञा पालन होता है। इसे किसी मनुष्य द्वारा प्राप्त किया या समझा नहीं जा सकता। परमेश्वर स्वयं अधिकार है, पर उसकी देह उसके अधिकार के प्रति समर्पित हो सकती है। जब यह कहा जाता है कि “मसीह परमपिता परमेश्वर की इच्छा का आज्ञापालन करता है,” तो इसका यही अर्थ होता है। परमेश्वर आत्मा है और उद्धार का कार्य कर सकता है, जैसे परमेश्वर मनुष्य बन सकता है। किसी भी क़ीमत पर, परमेश्वर स्वयं अपना कार्य करता है; वह न तो बाधा उत्पन्न करता है न दखल देता है, ऐसे कार्य का अभ्यास तो नहीं ही करता, जो परस्पर विपरीत हो क्योंकि आत्मा और देह द्वारा किए गए कार्य का सार एक समान है। चाहे आत्मा हो या देह, दोनों एक इच्छा को पूरा करने और उसी कार्य को प्रबंधित करने के लिए कार्य करते हैं। यद्यपि आत्मा और देह की दो भिन्न विशेषताएं हैं, किंतु उनके सार एक ही हैं; दोनों में स्वयं परमेश्वर का सार है और स्वयं परमेश्वर की पहचान है। स्वयं परमेश्वर में अवज्ञा के तत्व नहीं होते; उसका सार अच्छा है। वह समस्त सुंदरता और अच्छाई की और साथ ही समस्त प्रेम की अभिव्यक्ति है। यहाँ तक कि देह में भी परमेश्वर ऐसा कुछ नहीं करता, जिससे परमपिता परमेश्वर की अवज्ञा होती हो। यहाँ तक कि अपने जीवन का बलिदान करने की क़ीमत पर भी वह ऐसा करने को पूरे मन से तैयार रहेगा और कोई विकल्प नहीं बनाएगा। परमेश्वर में आत्मतुष्टि और ख़ुदगर्ज़ी के या दंभ या घमंड के तत्व नहीं हैं; उसमें कुटिलता के कोई तत्व नहीं हैं। जो कोई भी परमेश्वर की अवज्ञा करता है, वह शैतान से आता है; शैतान समस्त कुरूपता तथा दुष्टता का स्रोत है। मनुष्य में शैतान के सदृश विशेषताएं होने का कारण यह है कि मनुष्य को शैतान द्वारा भ्रष्ट और संसाधित किया गया है। मसीह को शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किया गया है, अतः उसके पास केवल परमेश्वर की विशेषताएं हैं तथा शैतान की एक भी विशेषता नहीं है। इस बात की परवाह किए बिना कि कार्य कितना कठिन है या देह कितनी निर्बल, परमेश्वर जब वह देह में रहता है, कभी भी ऐसा कुछ नहीं करेगा, जिससे स्वयं परमेश्वर का कार्य बाधित होता हो, अवज्ञा में परमपिता परमेश्वर की इच्छा का त्याग तो बिल्कुल नहीं करेगा। वह देह की पीड़ा सह लेगा, मगर परमपिता परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध नहीं जाएगा; यह वैसा है, जैसा यीशु ने प्रार्थना में कहा, “पिता, यदि हो सके तो यह कटोरा मुझ से टल जाए, तौभी जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो।” लोग अपने चुनाव करते हैं, किंतु मसीह नहीं करता। यद्यपि उसके पास स्वयं परमेश्वर की पहचान है, फिर भी वह परमपिता परमेश्वर की इच्छा की तलाश करता है और देह के दृष्टिकोण से वह पूरा करता है, जो उसे परमपिता परमेश्वर द्वारा सौंपा गया है। यह कुछ ऐसा है, जो मनुष्य हासिल नहीं कर सकता। जो कुछ शैतान से आता है, उसमें परमेश्वर का सार नहीं हो सकता; उसमें केवल परमेश्वर की अवज्ञा और उसका विरोध हो सकता है। वह पूर्ण रूप से परमेश्वर का आज्ञापालन नहीं कर सकता, स्वेच्छा से परमेश्वर की इच्छा का पालन तो दूर की बात है। मसीह के अलावा सभी पुरुष ऐसा कर सकते हैं, जिससे परमेश्वर का विरोध होता हो, और एक भी व्यक्ति परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कार्य को सीधे नहीं कर सकता; एक भी परमेश्वर के प्रबंधन को अपने कर्तव्य के रूप में मानने में सक्षम नहीं है। मसीह का सार परमपिता परमेश्वर की इच्छा के प्रति समर्पण करना है; परमेश्वर की अवज्ञा शैतान की विशेषता है। ये दोनों विशेषताएं असंगत हैं और कोई भी जिसमें शैतान के गुण हैं, मसीह नहीं कहलाया जा सकता। मनुष्य परमेश्वर के बदले उसका कार्य नहीं कर सकता, इसका कारण है कि मनुष्य में परमेश्वर का कोई भी सार नहीं है। मनुष्य परमेश्वर का कार्य मनुष्य के व्यक्तिगत हितों और भविष्य की संभावनाओं के वास्ते करता है, किंतु मसीह परमपिता परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए कार्य करता है।

मसीह की मानवता उसकी दिव्यता द्वारा संचालित होती है। यद्यपि वह देह में है, किंतु उसकी मानवता पूर्ण रूप से देह वाले एक मनुष्य के समान नहीं है। उसका अपना अनूठा चरित्र है और यह भी उसकी दिव्यता द्वारा संचालित होता है। उसकी दिव्यता में कोई निर्बलता नहीं है; मसीह की निर्बलता उसकी मानवता से संबंधित है। एक निश्चित सीमा तक, यह निर्बलता उसकी दिव्यता को विवश करती है, पर इस प्रकार की सीमाएं एक निश्चित दायरे और समय के भीतर होती हैं और असीम नहीं हैं। जब उसकी दिव्यता का कार्य क्रियान्वित करने का समय आता है, तो वह उसकी मानवता की परवाह किए बिना किया जाता है। मसीह की मानवता पूर्णतः उसकी दिव्यता द्वारा निर्देशित होती है। उसके मानवता के साधारण जीवन से अलग, उसकी मानवता के अन्य सभी काम उसकी दिव्यता द्वारा प्रेरित, प्रभावित और निर्देशित होते हैं। यद्यपि मसीह में मानवता है, पर इससे उसकी दिव्यता का कार्य बाधित नहीं होता और ऐसा ठीक इसलिए है क्योंकि मसीह की मानवता उसकी दिव्यता द्वारा निर्देशित है; हालांकि उसकी मानवता दूसरों के साथ आचरण में परिपक्व नहीं है, इससे उसकी दिव्यता का सामान्य कार्य प्रभावित नहीं होता। जब मैं यह कहता हूँ कि उसकी मानवता भ्रष्ट नहीं हुई है, तब मेरा मतलब है कि मसीह की मानवता उसकी दिव्यता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्देशित की जा सकती है और यह कि वह साधारण मनुष्य की तुलना में उच्चतर समझ से संपन्न है। उसकी मानवता उसके कार्य में दिव्यता द्वारा निर्देशित होने के लिए सबसे अनुकूल है; उसकी मानवता दिव्यता के कार्य को अभिव्यक्त करने के लिए सबसे अनुकूल है और साथ ही ऐसे कार्य के प्रति समर्पण करने के सबसे योग्य है। जब परमेश्वर देह में कार्य करता है, वह कभी उस कर्तव्य से नज़र नहीं हटाता, जिसे मनुष्य को देह में होते हुए पूरा करना चाहिए; वह सच्चे हृदय से स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम है। उसमें परमेश्वर का सार है और उसकी पहचान स्वयं परमेश्वर की पहचान है। केवल इतना है कि वह पृथ्वी पर आया है और एक सृजित किया प्राणी बन गया है, जिसका बाहरी आवरण सृजन किए प्राणी का है और अब ऐसी मानवता से संपन्न है, जो पहले उसके पास नहीं थी; वह स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम है; यह स्वयं परमेश्वर का अस्तित्व है तथा मनुष्य उसका अनुकरण नहीं कर सकता। उसकी पहचान स्वयं परमेश्वर है। देह के परिप्रेक्ष्य से वह परमेश्वर की आराधना करता है; इसलिए, ये वचन “मसीह स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करता है” त्रुटिपूर्ण नहीं हैं। वह मनुष्य से जो माँगता है, वह ठीक-ठीक उसका स्वयं का अस्तित्व है; मनुष्य से कुछ भी माँगने से पहले वह उसे पहले ही प्राप्त कर चुका होता है। वह कभी भी दूसरों से माँग नहीं करता जबकि वह स्वयं उनसे मुक्त है, क्योंकि इन सबसे उसका अस्तित्व गठित होता है। इस बात की परवाह किए बिना कि वह कैसे अपना कार्य क्रियान्वित करता है, वह इस प्रकार कार्य नहीं करेगा, जिससे परमेश्वर की अवज्ञा हो। चाहे वह मनुष्य से कुछ भी माँगे, कोई भी माँग मनुष्य द्वारा प्राप्य से बढ़कर नहीं होती। वह जो कुछ करता है, वह परमेश्वर की इच्छा पर चलता है और उसके प्रबंधन के वास्ते है। मसीह की दिव्यता सभी मनुष्यों से ऊपर है; इसलिए सभी सृजित प्राणियों में वह सर्वोच्च अधिकारी है। यह अधिकार उसकी दिव्यता है, यानी परमेश्वर का स्वयं का अस्तित्व और स्वभाव उसकी पहचान निर्धारित करता है। इसलिए, चाहे उसकी मानवता कितनी ही साधारण हो, इससे इनकार नहीं हो सकता कि उसके पास स्वयं परमेश्वर की पहचान है; चाहे वह किसी भी दृष्टिकोण से बोले और किसी भी तरह परमेश्वर की इच्छा का आज्ञा पालन करे, यह नहीं कहा जा सकता है कि वह स्वयं परमेश्वर नहीं है। मूर्ख और नासमझ लोग मसीह की सामान्य मानवता को प्रायः एक खोट मानते हैं। चाहे वह किसी भी तरह अपनी दिव्यता के अस्तित्व को अभिव्यक्त और प्रकट करे, मनुष्य यह स्वीकार करने में असमर्थ है कि वह मसीह है। और मसीह जितना अधिक अपनी आज्ञाकारिता और नम्रता प्रदर्शित करता है, मूर्ख मनुष्य मसीह को उतना ही हल्के ढंग से लेते हैं। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो उसके प्रति बहिष्कार तथा तिरस्कार की प्रवृत्ति अपना लेते हैं, फिर भी उन “महान लोगों” की शानदार प्रतिमाओं को आराधना के लिए मेज़ पर रखते हैं। परमेश्वर के प्रति मनुष्य का प्रतिरोध और अवज्ञा इस तथ्य से जन्मता है कि देहधारी परमेश्वर का सार परमेश्वर की इच्छा, साथ ही मसीह की सामान्य मानवता से समर्पण कराता है; यह परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध और उसकी अवज्ञा का स्रोत है। यदि मसीह न तो अपनी मानवता का भेष रखता, न ही सृजित प्राणी के दृष्टिकोण से परमपिता परमेश्वर की इच्छा की खोज करता, बल्कि इसके बजाय अति मानवता से संपन्न होता, तो किसी मनुष्य में अवज्ञा करने की संभावना न होती। मनुष्य की सदैव स्वर्ग में एक अदृश्य परमेश्वर में विश्वास करने की इच्छा का कारण है कि स्वर्ग में परमेश्वर के पास कोई मानवता नहीं है, न ही उसमें सृजित प्राणी की एक भी विशेषता है। अतः मनुष्य उसका सदैव सर्वोच्च सम्मान के साथ आदर करता है, किंतु मसीह के प्रति तिरस्कार का रवैया रखता है।

यद्यपि पृथ्वी पर मसीह, स्वयं परमेश्वर के स्थान पर कार्य करने में समर्थ है, पर वह सभी मनुष्यों को देह में अपनी छवि दिखाने के आशय से नहीं आता। वह सब लोगों को अपना दर्शन कराने नहीं आता; वह मनुष्य को अपने हाथ की अगुआई में चलने की अनुमति देने आता है, और इस प्रकार मनुष्य नए युग में प्रवेश करता है। मसीह की देह का काम स्वयं परमेश्वर के कार्य के लिए है, यानी देह में परमेश्वर के कार्य के लिए है, और अपनी देह के सार को पूर्णतः मनुष्य को समझाने में समर्थ करने के लिए नहीं है। चाहे वह जैसे भी कार्य करे, वह कुछ ऐसा नहीं करता, जो देह के लिए प्राप्य से परे हो। चाहे वह जैसे कार्य करे, वह ऐसा देह में होकर सामान्य मानवता के साथ करता है और वह मनुष्य के सामने परमेश्वर की वास्तविक मुखाकृति प्रकट नहीं करता। इसके अतिरिक्त, देह में उसका कार्य इतना अलौकिक या अपरिमेय नहीं है, जैसा मनुष्य समझता है। यद्यपि मसीह देह में स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है और व्यक्तिगत रूप से वह कार्य करता है, जिसे स्वयं परमेश्वर को करना चाहिए, वह स्वर्ग में परमेश्वर के अस्तित्व को नहीं नकारता, न ही वह उत्तेजनापूर्वक अपने स्वयं के कर्मों की घोषणा करता है। इसके बजाय, वह विनम्रतापूर्वक अपनी देह के भीतर छिपा रहता है। मसीह के अलावा, जो मसीह होने का झूठा दावा करते हैं, उनमें उसकी विशेषताएं नहीं हैं। अभिमानी और ख़ुद की बढ़ाई के स्वभाव वाले उन झूठे मसीहों से तुलना में यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में किस प्रकार की देह में मसीह है। जितने वे झूठे होते हैं, उतना ही अधिक इस प्रकार के झूठे मसीह स्वयं का दिखावा करते हैं और उतना ही लोगों को धोखा देने के लिये वे ऐसे संकेत और चमत्कार करने में समर्थ होते हैं। झूठे मसीहों में परमेश्वर के गुण नहीं होते; मसीह पर झूठे मसीहों से संबंधित किसी भी तत्व का दाग़ नहीं लगता। परमेश्वर केवल देह का कार्य पूर्ण करने के लिए देहधारी बनता है, न कि महज़ मनुष्यों को उसे देखने की अनुमति देने के लिए। इसके बजाय, वह अपने कार्य से अपनी पहचान की पुष्टि होने देता है और जो वह प्रकट करता है, उसे अपना सार प्रमाणित करने देता है। उसका सार निराधार नहीं है; उसकी पहचान उसके हाथ से ज़ब्त नहीं की गई थी; यह उसके कार्य और उसके सार से निर्धारित होती है। यद्यपि उसमें स्वयं परमेश्वर का सार है और स्वयं परमेश्वर का कार्य करने में समर्थ है, किंतु वह अभी भी अंततः आत्मा से भिन्न देह है। वह आत्मा की विशेषताओं वाला परमेश्वर नहीं है; वह देह के आवरण वाला परमेश्वर है। इसलिए, चाहे वह जितना सामान्य और जितना निर्बल हो और जैसे भी वह परमपिता परमेश्वर की इच्छा को खोजे, उसकी दिव्यता से इनकार नहीं किया जा सकता। देहधारी परमेश्वर में न केवल सामान्य मानवता और उसकी कमज़ोरियां विद्यमान रहती हैं; उसमें उसकी दिव्यता की अद्भुतता और अथाहपन के साथ ही देह में उसके सभी कर्म विद्यमान रहते हैं। इसलिए, वास्तव में तथा व्यावहारिक रूप से मानवता तथा दिव्यता दोनों मसीह में मौजूद हैं। यह ज़रा भी निस्सार या अलौकिक नहीं है। वह पृथ्वी पर कार्य करने के मुख्य उद्देश्य से आता है; पृथ्वी पर कार्य करने के लिए सामान्य मानवता से संपन्न होना अनिवार्य है; अन्यथा, उसकी दिव्यता की शक्ति चाहे जितनी महान हो, उसके मूल कार्य का सदुपयोग नहीं हो सकता। यद्यपि उसकी मानवता अत्यंत महत्वपूर्ण है, किंतु यह उसका सार नहीं है। उसका सार दिव्यता है; इसलिए जिस क्षण वह पृथ्वी पर अपनी सेवकाई आरंभ करता है, उसी क्षण वह अपनी दिव्यता के अस्तित्व को अभिव्यक्त करना आरंभ कर देता है। उसकी मानवता केवल अपनी देह के सामान्य जीवन को बनाए रखने के लिए होती है ताकि उसकी दिव्यता देह में सामान्य रूप से कार्य क्रियान्वित कर सके; यह दिव्यता ही है, जो पूरी तरह उसके कार्य को निर्देशित करती है। जब वह अपना कार्य समाप्त करेगा, तो वह अपनी सेवकाई को पूर्ण कर चुका होगा। जो मनुष्य को जानना चाहिए, वह है परमेश्वर के कार्य की संपूर्णता और अपने कार्य के ज़रिए वह मनुष्य को उसे जानने में सक्षम बनाता है। अपने कार्य के दौरान वह पूर्णतः अपनी दिव्यता के होने को अभिव्यक्त करता है, जो ऐसा स्वभाव नहीं है, जिसे मानवता दूषित कर पाए, या ऐसा होना नहीं है, जो विचार एवं मानव व्यवहार द्वारा दूषित किया गया हो। जब समय आता है कि उसकी संपूर्ण सेवकाई का अंत आ गया है, वह पहले ही उस स्वभाव को उत्तमता से और पूर्णतः अभिव्यक्त कर चुका होगा, जो उसे अभिव्यक्त करना चाहिए। उसका कार्य किसी मनुष्य के निर्देशों पर नहीं होता; उसके स्वभाव की अभिव्यक्ति भी काफ़ी स्वतंत्र है और मन द्वारा नियंत्रित या विचार द्वारा संसाधित नहीं की जाती, बल्कि प्राकृतिक रूप से प्रकट होती है। यह ऐसा है, जिसे कोई मनुष्य हासिल नहीं कर सकता। यहाँ तक कि यदि परिस्थितियाँ कठोर हों या स्थितियाँ आज्ञा न देतीं हों, तब भी वह उचित समय पर अपने स्वभाव को व्यक्त करने में सक्षम है। जो मसीह है, मसीह के होने को अभिव्यक्त करता है, जबकि जो नहीं हैं, उनमें मसीह का स्वभाव नहीं है। इसलिए, भले ही सभी उसका विरोध करें या उसके प्रति धारणाएं रखें, मनुष्य की धारणाओं के आधार पर कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकता कि मसीह का अभिव्यक्त किया हुआ स्वभाव परमेश्वर का है। वे सब जो सच्चे हृदय से मसीह का अनुसरण करते हैं, या इस आशय से परमेश्वर को खोजते हैं, यह मानेंगे कि अपनी दिव्यता की अभिव्यक्ति के आधार पर वह मसीह है। वे कभी भी ऐसे किसी पहलू के आधार पर मसीह को इनकार नहीं करेंगे, जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं है। यद्यपि मनुष्य अत्यंत मूर्ख है, किंतु सभी जानते हैं कि मनुष्य की इच्छा क्या है और परमेश्वर से क्या उत्पन्न होता है। मात्र इतना है कि बहुत से लोग अपनी स्वयं की इच्छाओं के कारण जानबूझकर मसीह का विरोध करते हैं। यदि ऐसा न हो, तो एक भी मनुष्य के पास मसीह के अस्तित्व से इनकार करने का कारण नहीं होगा, क्योंकि मसीह द्वारा अभिव्यक्त दिव्यता वास्तव में अस्तित्व में है और उसके कार्य को सबकी नंगी आँखों द्वारा देखा जा सकता है।

मसीह का कार्य तथा अभिव्यक्ति उसके सार को निर्धारित करते हैं। वह अपने सच्चे हृदय से उस कार्य को पूर्ण करने में सक्षम है, जो उसे सौंपा गया है। वह सच्चे हृदय से स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम है और सच्चे हृदय से परमपिता परमेश्वर की इच्छा खोजने में सक्षम है। यह सब उसके सार द्वारा निर्धारित होता है। और इसी प्रकार उसका प्राकृतिक प्रकाशन भी उसके सार द्वारा निर्धारित किया जाता है; इसे मैं उसका “प्राकृतिक प्रकाशन” कहता हूँ क्योंकि उसकी अभिव्यक्ति कोई नकल नहीं है, या मनुष्य द्वारा शिक्षा का परिणाम, या मनुष्य द्वारा कई वर्षों का संवर्धन का परिणाम नहीं है। उसने इसे सीखा या इससे स्वयं को सँवारा नहीं; बल्कि, यह उसमें अंतर्निहित है। मनुष्य उसके कार्य, उसकी अभिव्यक्ति, उसकी मानवता, और सामान्य मानवता के उसके संपूर्ण जीवन से इनकार कर सकता है, किंतु कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकता कि वह सच्चे हृदय से स्वर्ग के परमेश्वर की आराधना करता है; कोई इनकार नहीं कर सकता है कि वह स्वर्गिक परमपिता की इच्छा पूरी करने के लिए आया है, और कोई उस निष्कपटता से इनकार नहीं कर सकता, जिससे वह परमपिता परमेश्वर की खोज करता है। यद्यपि उसकी छवि इंद्रियों के लिए सुखद नहीं, उसके प्रवचन असाधारण हाव-भाव से संपन्न नहीं हैं और उसका कार्य धरती या आकाश को थर्रा देने वाला नहीं है जैसा मनुष्य कल्पना करता है, वास्तव में वह मसीह है, जो सच्चे हृदय से स्वर्गिक परमपिता की इच्छा पूरी करता है, पूर्णतः स्वर्गिक परमपिता के प्रति समर्पण करता है और मृत्यु तक आज्ञाकारी बना रहता है। यह इसलिए क्योंकि उसका सार मसीह का सार है। मनुष्य के लिए इस सत्य पर विश्वास करना कठिन है किंतु यह एक तथ्य है। जब मसीह की सेवकाई पूर्णतः संपन्न हो गई है, तो मनुष्य उसके कार्य से देखने में सक्षम होगा कि उसका स्वभाव और उसका अस्तित्व स्वर्ग के परमेश्वर के स्वभाव और अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है। उस समय, उसके संपूर्ण कार्य का कुल योग इसकी पुष्टि कर सकता है कि वह वास्तव में वही देह है, जिसे वचन धारण करता है, और एक हाड़-मांस के मनुष्य के सदृश नहीं है। पृथ्वी पर मसीह के कार्य के प्रत्येक चरण का प्रतिनिधिक महत्व है, किंतु मनुष्य जो प्रत्येक चरण के वास्तविक कार्य का अनुभव करता है, उसके कार्य के महत्व को ग्रहण करने में अक्षम है। ऐसा विशेष रूप से परमेश्वर द्वारा अपने दूसरे देहधारण में किए गए कार्य के अनेक चरणों के लिए है। अधिकांशतः वे जिन्होंने मसीह के वचनों को केवल सुना या देखा है, मगर जिन्होंने उसे कभी देखा नहीं है, उनके पास उसके कार्य की कोई धारणाएं नहीं होतीं; जो मसीह को देख चुके हैं और उसके वचनों को सुना है और साथ ही उसके कार्य का अनुभव किया है, वे उसके कार्य को स्वीकार करने में कठिनाई अनुभव करते हैं। क्या यह इस वजह से नहीं है कि मसीह का प्रकटन और सामान्य मानवता मनुष्य की अभिरुचि के अनुसार नहीं है? जो मसीह के चले जाने के बाद उसके कार्य को स्वीकार करते हैं, उन्हें ऐसी कठिनाइयां नहीं आएँगी, क्योंकि वे मात्र उसका कार्य स्वीकार करते हैं और मसीह की सामान्य मानवता के संपर्क में नहीं आते। मनुष्य परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाएं छोड़ने में असमर्थ है तथा इसके बजाय कठोरता से उसकी पड़ताल करता है; ऐसा इस तथ्य के कारण है कि मनुष्य केवल उसके प्रकटन पर अपना ध्यान केंद्रित करता है तथा उसके कार्य तथा वचनों के आधार पर उसके सार को पहचानने में असमर्थ रहता है। यदि मनुष्य उसके प्रकटन के प्रति अपनी आँखें बंद कर ले या मसीह की मानवता पर चर्चा से बचे और केवल उसकी दिव्यता की बात करे, जिसके कार्य तथा वचन किसी भी मनुष्य द्वारा अप्राप्य हैं, तो मनुष्य की धारणाएं घटकर आधी रह जाएँगी, इस हद तक कि मनुष्य की समस्त कठिनाइयों का समाधान हो जाएगा। देहधारी परमेश्वर के कार्य के दौरान, मनुष्य उसे सहन नहीं कर सकता और उसके बारे में असंख्य धारणाओं से भरा रहता है और प्रतिरोध एवं अवज्ञा के दृष्टांत आम बात हैं। मनुष्य परमेश्वर के अस्तित्व को सहन नहीं कर सकता, मसीह की विनम्रता तथा अदृश्यता के प्रति उदारता नहीं दिखा सकता, या मसीह के उस सार को क्षमा नहीं कर सकता, जो स्वर्गिक परमपिता का आज्ञापालन करता है। इसलिए अपना कार्य समाप्त करने के पश्चात वह मनुष्य के साथ अनंतकाल तक नहीं रह सकता, क्योंकि मनुष्य अपने साथ परमेश्वर को रहने की अनुमति देने में अनिच्छुक है। यदि मनुष्य उसके कार्य के समय के दौरान उसके प्रति उदारता नहीं दिखा सकता, तो उसके द्वारा सेवकाई पूर्ण करने के बाद वे अपने को धीरे-धीरे उसके वचनों का अनुभव लेते देखते हुए, संभवतः कैसे उसे अपने साथ रखना सहन कर सकते हैं? क्या कई उसके कारण पतित नहीं हो जाएँगे? मनुष्य केवल पृथ्वी पर उसे कार्य करने की अनुमति देता है; यह मनुष्य की उदारता की अधिकतम सीमा है। यदि उसके कार्य के लिए न होता, तो मनुष्य ने बहुत पहले ही उसे धरती से निष्कासित कर दिया होता, इसलिए एक बार उसका कार्य समाप्त हो जाने के पश्चात् वे कितनी कम उदारता दिखाएँगे? तब क्या मनुष्य उसे मार नहीं देगा और यंत्रणा देकर मार नहीं डालेगा? यदि उसे मसीह नहीं कहा जाता, तब संभवतः वह मानव जाति के बीच कार्य नहीं कर सकता था; यदि वह स्वयं परमेश्वर की पहचान लेकर कार्य न करता और इसके बजाय केवल एक सामान्य व्यक्ति के रूप में कार्य करता, तो मनुष्य उसके द्वारा एक भी वाक्य कहा जाना सहन न करता, उसके कार्य को तो लेशमात्र भी सहन नहीं करता। अतः वह अपनी पहचान को केवल अपने कार्य में अपने साथ रख सकता है। इस तरीके से, उसका कार्य तब की तुलना में अधिक शक्तिशाली होता है जब वह ऐसा नहीं करता, क्योंकि सभी मनुष्य प्रतिष्ठा तथा बड़ी पहचान की आज्ञापालन के इच्छुक होते हैं। यदि उसने तब स्वयं परमेश्वर की पहचान धारण न की होती जब उसने स्वयं परमेश्वर के रूप में कार्य किया या प्रकट हुआ था, तो उसे कार्य करने का अवसर बिलकुल भी न मिलता। इस तथ्य के बावज़ूद कि उसमें परमेश्वर का सार और मसीह का अस्तित्व है, मनुष्य चैन से नहीं बैठता और मानवजाति के बीच उसे आराम से कार्य करने की अनुमति नहीं देता। वह अपने कार्य में स्वयं परमेश्वर की पहचान रखता है; यद्यपि इस प्रकार का कार्य बिना ऐसी पहचान के दर्जनों बार किए गए कार्य से अधिक शक्तिशाली है, फिर भी मनुष्य उसके प्रति पूर्ण रूप से आज्ञाकारी नहीं है, क्योंकि मनुष्य केवल उसकी प्रतिष्ठा के प्रति समर्पण करता है, उसके सार को नहीं। यदि ऐसा है, तो किसी दिन जब शायद मसीह अपना पद छोड़ देगा, तब क्या मनुष्य उसे केवल एक दिन को भी जीवित रहने की अनुमति देगा? परमेश्वर पृथ्वी पर मनुष्य के साथ रहने का इच्छुक है ताकि वह उन प्रभावों को देख सके, जो उसके हाथ से किया गया कार्य आने वाले वर्षों में उत्पन्न करेगा। हालाँकि, मनुष्य एक दिन के लिए भी उसकी मौजूदगी सहने में असमर्थ है, इसलिए वह केवल त्याग कर सकता है। परमेश्वर को मनुष्य के बीच वह कार्य करने की, जो उसे करना चाहिए तथा अपनी सेवकाई पूरी करने की अनुमति देना पहले ही मनुष्य की उदारता तथा अनुग्रह की अधिकतम सीमा है। यद्यपि जो उसके द्वारा व्यक्तिगत रूप से जीते जा चुके हैं, वही उसके प्रति ऐसा अनुग्रह दर्शाते हैं, तब भी वे उसे रुके रहने की अनुमति तब तक देते हैं, जब तक कि उसका कार्य समाप्त नहीं हो जाता और उसके बाद एक क्षण भी नहीं। यदि ऐसा है, तो उनका क्या, जिन्हें उसने नहीं जीता है? क्या यह कारण नहीं है कि मनुष्य देहधारी परमेश्वर से इस प्रकार का व्यवहार करता है क्योंकि वह ऐसा मसीह है, जो सामान्य मनुष्य के आवरण में है? यदि उसके पास केवल दिव्यता होती और सामान्य मानवता न होती, तब क्या मनुष्य की कठिनाइयां अत्यंत आसानी से सुलझाई नहीं जातीं? इस तथ्य के बावज़ूद कि उसका सार बिलकुल मसीह का सार है, जो अपने स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति समर्पित है, मनुष्य ईर्ष्या से उसकी दिव्यता स्वीकार करता है और उसके सामान्य मनुष्य के आवरण में कोई रुचि नहीं दिखाता। अपने आप में, वह मनुष्य के बीच ख़ुशी तथा दुःख दोनों में सहभागी बनने के अपने कार्य को केवल निरस्त कर सकता है, क्योंकि मनुष्य उसके अस्तित्व को अब और नहीं सह सकता।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य

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प्रश्न: प्रभु यीशु कहते हैं: "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं" (यूहन्ना 10:27)। तब समझ आया कि प्रभु अपनी भेड़ों को बुलाने के लिए वचन बोलने को लौटते हैं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है, प्रभु की वाणी सुनने की कोशिश करना। लेकिन अब, सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हमें नहीं पता कि प्रभु की वाणी कैसे सुनें। हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच भी अंतर नहीं कर पाते हैं। कृपया हमें बताइये कि हम प्रभु की वाणी की पक्की पहचान कैसे करें।

उत्तर: हम परमेश्वर की वाणी कैसे सुनते हैं? हममें कितने भी गुण हों, हमें कितना भी अनुभव हो, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। प्रभु यीशु में विश्वास...

5. पुराने और नए दोनों नियमों के युगों में, परमेश्वर ने इस्राएल में काम किया। प्रभु यीशु ने भविष्यवाणी की कि वह अंतिम दिनों के दौरान लौटेगा, इसलिए जब भी वह लौटता है, तो उसे इस्राएल में आना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु पहले ही लौट चुका है, कि वह देह में प्रकट हुआ है और चीन में अपना कार्य कर रहा है। चीन एक नास्तिक राजनीतिक दल द्वारा शासित राष्ट्र है। किसी भी (अन्य) देश में परमेश्वर के प्रति इससे अधिक विरोध और ईसाइयों का इससे अधिक उत्पीड़न नहीं है। परमेश्वर की वापसी चीन में कैसे हो सकती है?

संदर्भ के लिए बाइबल के पद :"क्योंकि उदयाचल से लेकर अस्ताचल तक जाति-जाति में मेरा नाम महान् है, और हर कहीं मेरे नाम पर धूप और शुद्ध भेंट...

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