59. खुशामदी होने की कड़वाहट

फ्रैंकी, ग्रीस

2021 में, मेरे साथ जगह-जगह जाकर सुसमाचार का प्रचार करने वाले भाई गैबरियल को बर्खास्त कर दिया गया। जब मैंने उससे इस बारे में पूछा, तो उसने बताया कि वह अपने कर्तव्य को पिछले कुछ सालों से अच्छी तरह नहीं निभा पा रहा था, वह सारी चीजें मनमाने और उद्दंड ढंग से करता था, जिससे कलीसिया का काम काफी बाधित हो गया था, और इसलिए उसे बर्खास्त कर दिया गया। उसे ऐसे मुकाम पर और इतना ज्यादा पछतावा और बुरा महसूस करते हुए देखकर मुझे उसके लिए बुरा लगा। साथ किए गए हमारे काम के बारे में सोचा तो, मैंने देखा था कि वह बेमन से और मनमानी से काम करता था। मैं उसे यह बताना चाहता था, ताकि आत्मचिंतन कर खुद के बारे में जागरूकता पाने में उसकी मदद कर सकूँ, लेकिन मुँह खोलने ही वाला था कि मैं झिझक गया। मैंने सोचा, “बर्खास्त करते समय अगुआ ने पक्के से उसकी काफी काट-छाँट कर उसे उजागर किया होगा, तो वह पहले से ही काफी दुखी होगा। मैंने भी कुछ कह दिया, तो क्या यह बस जले पर नमक छिड़कना नहीं होगा? क्या वह यह नहीं सोचेगा कि मुझमें हमदर्दी नहीं है? इसके अलावा, मैंने जो समस्याएँ देखीं, उनका जिक्र अगुआ ने पहले ही कर दिया होगा, तो मैं बस उसे सांत्वना दूँगा।” इसलिए मैंने उससे कहा, “मुझे यकीन है इतने वर्षों से जगह-जगह सुसमाचार साझा करते हुए तुमने बहुत-से अनुभव इकट्ठे किए हैं, तुममें कम-से-कम गहरी अंतर्दृष्टि जरूर होगी। कलीसिया में बहुत-से भाई-बहन नए विश्वासी हैं जो कुछ साल पहले ही आए हैं; उन्हें सुसमाचार के प्रचार का बहुत अनुभव नहीं है। घर लौटकर तुम सबकी मदद कर पाओगे।” उसका जवाब सुनकर मुझे हैरत हुई, “भाई, तुम्हारी यह बात सुनकर मुझे परेशानी हो रही है। मैंने सोचा था तुम मेरी समस्याएँ बताओगे, खुद पर चिंतन करने में मेरी मदद करोगे जिससे मैं खुद को बेहतर जान सकूँ; यह मेरे जीवन के लिए फायदेमंद होता। लेकिन बजाय इसके, तुम मेरी प्रशंसा कर रहे हो जबकि मैं इतना नीचे गिर गया हूँ, मुझे ऐसा सोचने पर मजबूर कर रहे हो कि मेरी बर्खास्तगी कोई बड़ी बात नहीं है और मैं दूसरों से ज्यादा काबिल हूँ। तुम खुशामदी कर रहे हो, शैतान के दास जैसे काम कर रहे हो, मुझे नरक के करीब धकेल रहे हो! ऐसी अच्छी लगने वाली बातें लोगों के लिए शिक्षाप्रद नहीं होतीं, इसलिए अब से ऐसी बातें न कहना। यह प्रेम नहीं है, यह वास्तव में नुकसानदेह और विनाशकारी है।” अपने भाई की यह बात सुनकर मुझे बड़ी शर्मिंदगी हुई, मैं बस किसी बिल में छिप जाना चाहता था। मुझे मालूम था कि वर्षों की आस्था के बावजूद गैबरियल के भ्रष्ट स्वभाव में ज्यादा बदलाव नहीं आया था, और उसके कर्तव्य में कभी स्पष्ट नतीजे नहीं हासिल हुए थे, यह हालत खतरनाक थी। लेकिन मैं उसकी समस्याएँ बताकर उसकी मदद तो कर नहीं रहा था, ऊपर से मीठी-मीठी बातें बोल रहा था। धूर्त बनकर, दुनियावी ढंग से विनम्र और प्रशंसा भरे अंदाज में पेश आ रहा था। क्या यह उसके साथ खेलना और कपटी होना नहीं था? गैबरियल की हालिया बर्खास्तगी उसके लिए आत्मचिंतन करने और खुद को बेहतर समझने का अच्छा मौका था। अगर वह सत्य खोजकर आत्मचिंतन करके, सच्चा प्रायश्चित हासिल कर सका, तो यह नाकामी उसकी आस्था में एक अहम मोड़ हो सकती थी। लेकिन मैं राह का रोड़ा था, खिलवाड़ करने, बाधा डालने और उसे गुमराह करने के लिए झूठी बकवास कर रहा था। मैं शैतान का नौकर बन गया था। परमेश्वर लोगों को बचाने की भरसक कोशिश करता है, जबकि शैतान लोगों को परेशान और बाधित करने के लिए चालें चलता और षड्यंत्र रचता है, लोगों को नरक में गिराता है। मेरी यह बकवास मेरे भाई को नुकसान पहुँचा रही थी। यह सोचकर मुझे बहुत डर लगा, तो मैंने पढ़ने के लिए परमेश्वर के कुछ वचन ढूंढ़े, और परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करने लगा और अपनी इस समस्या को जान पाया।

मैंने देखा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अगर किसी भाई-बहन के साथ तुम्हारे अच्छे संबंध हैं, और वे अपनी गड़बड़ियाँ तुमसे पूछें तो तुम्हें ये कैसे बतानी चाहिए? इसका संबंध इस बात से है कि तुम इस मामले में क्या दृष्टिकोण अपनाते हो। क्या तुम्हारा दृष्टिकोण सत्य सिद्धांतों पर आधारित है, या तुम दुनियादारी के फलसफों का उपयोग करते हो? अगर तुम स्पष्ट रूप से देख लेते हो कि उनमें समस्या है, लेकिन अपना संबंध खराब होने से बचने के लिए तुम उसे सीधे न बताकर यह बहाने बनाते हो, ‘अभी मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है और मैं तुम्हारी समस्याएँ पूरी तरह से नहीं समझता। जब मैं समझ लूँगा तो तुम्हें जरूर बताऊँगा,’ तो फिर मसला क्या है? इसमें दुनिया से निपटने का एक फलसफा शामिल है। क्या यह दूसरों को बेवकूफ बनाने की कोशिश नहीं है? तुम्हें उतना बोलना चाहिए जितना तुम स्पष्ट रूप से देख सकते हो; और अगर कोई चीज तुम्हें स्पष्ट पता न हो, तो ऐसा ही कह डालो। यह अपने दिल की बात कहना है। अगर तुम्हारे मन में कुछ विचार हैं और तुम्हें कुछ चीजें स्पष्ट पता हैं, लेकिन तुम ठेस पहुँचाने से डरते हो, उनकी भावनाएँ आहत करने से भयभीत रहते हो और इसलिए कुछ नहीं बोलना चाहते, तो इसे संसार से पेश आने के फलसफे के अनुसार जीना कहते हैं। अगर तुम जान लेते हो कि किसी को कोई समस्या है या वह भटक गया है, तो भले ही तुम प्यार से उसकी मदद न कर पाओ, लेकिन तुम्हें कम-से-कम समस्या तो बता ही देनी चाहिए, ताकि वह उस पर विचार कर सके। अगर तुम इसे अनदेखा करते हो, तो क्या यह उसे नुकसान पहुँचाना नहीं है?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है)। और कपटी लोगों के बारे में यह अंश था : “उन्हें सकारात्मक चीजों से कोई प्रेम नहीं है, वे प्रकाश की लालसा नहीं करते, और वे परमेश्वर के मार्ग से या सत्य से प्रेम नहीं करते। वे सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण पसंद करते हैं, वे प्रतिष्ठा, लाभ और रुतबे के प्रति आसक्त हैं, वे भीड़ से अलग दिखना पसंद करते हैं, वे प्रतिष्ठा, लाभ और रुतबे की पूजा करते हैं, वे महान और प्रसिद्ध लोगों की वंदना करते हैं, लेकिन असल में वे राक्षसों और शैतान की पूजा करते हैं। अपने दिलों में वे सत्य या सकारात्मक चीजों का अनुसरण नहीं करते, बल्कि ज्ञानार्जन की पूजा करते हैं। ... वे हर परिवेश में शैतान के फलसफों, उसके तर्कों, उसकी हर चाल और हर फरेब का इस्तेमाल करते हैं, ताकि लोगों को उनके व्यक्तिगत भरोसे के कारण ठगा जा सके और उनसे अपनी आराधना और अनुसरण करवाया जा सके। यह वह मार्ग नहीं है, जिस पर परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों को चलना चाहिए; न केवल ऐसे लोग बचाए नहीं जाएँगे, बल्कि उन्हें परमेश्वर का दंड भी मिलेगा—इसमें जरा भी संदेह नहीं हो सकता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, धर्म में आस्था रखने या धार्मिक समारोह में शामिल होने मात्र से किसी को नहीं बचाया जा सकता)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे इरादे और भ्रष्टता को पूरी तरह से उजागर कर दिया। मुझे गैबरियल की समस्याएँ पता थीं, वह अपने कर्तव्य में ढीला-ढाला था, और काम में दिल नहीं लगता था। वह अपनी काम को दृढ़ता से या सिद्धांत के अनुसार नहीं करता था। वह मनमानी करता था और उसने कलीसिया के काम को बाधित किया था। मैं खुशामद करता था, और उसका दिल दुखाने से डरता था, इसलिए मैंने उसे चीजें उसे नहीं बतायीं। अब जब उसे बर्खास्त कर दिया गया और वह अपनी नाकामियों के बारे में मुझसे खुलकर संगति कर रहा था, तो मुझे उसकी समस्याओं के बारे में बात कर उसके साथ परमेश्वर की इच्छा पर संगति करनी चाहिए थी, ताकि उसे खुद को जानने और परमेश्वर के सामने प्रायश्चित करने में उसे मदद मिल सके। यह सच में स्नेह दिखाना होता, उसके लिए फायदेमंद और शिक्षाप्रद होता। लेकिन मैं लोगों की खुशामद करता था, झूठी बकवास करता था। क्या मैं उसे सिर्फ मूर्ख बनाने की कोशिश नहीं कर रहा था कि वह मुझे पसंद करे? मैं चाहता था उसे लगे कि नाकामी का अनुभव होने पर, अगुआ ने तो उसकी काट-छाँट कर उसे उजागर किया, लेकिन मैंने उसके दिल को स्नेह से भरा और सुकून दिया। फिर वह मेरे प्रति आभारी होकर मन में मेरी अच्छी छवि सँजोता। मैं अपने भाई से बात करते हुए अविश्वासियों के धर्मनिरपेक्ष फलसफे इस्तेमाल कर रहा था, जैसे “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों को उजागर करते हो, तो उनकी कमियाँ उजागर मत करो,” “दूसरों की भावनाओं और तर्क-शक्ति के सामंजस्य में अच्छी बातें कहो, क्योंकि निष्कपट होना दूसरों को खिझाता है,” “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है,” वगैरह-वगैरह। ये सब जीवन जीने के लिए बुरी, दुनियावी बातें हैं और वे पूरी तरह से शैतानी फलसफे हैं। अविश्वासियों की बातें हमेशा संसार में शैतान के व्यवहार को कायम रखती हैं, उनके शब्द हमेशा चिकने-चुपड़े और पाखंडी होते हैं। वे नाटक करते हैं, हर बात में चालबाजी करते, दूसरों को टटोलते हैं और एक भी सच्ची या ईमानदार बात नहीं कहते। मैं परमेश्वर के ढेरों वचन पढ़ चुका पुराना विश्वासी था, लेकिन फिर भी मैं एक भी सच्ची बात नहीं कर पाया। इसके बजाय, मैं एक अविश्वासी की ही तरह शैतानी फलसफों का इस्तेमाल किया, शैतान का पात्र बन गया, मैं बहुत झूठा और धूर्त बनता जा रहा था। मैं सच में दयनीय था! इससे मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “यदि विश्वासी अपनी वाणी और आचरण में हमेशा ठीक उसी तरह लापरवाह और असंयमित हों जैसे अविश्वासी होते हैं, तो ऐसे लोग अविश्वासी से भी अधिक दुष्ट होते हैं; ये मूल रूप से राक्षस हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। “जितना अधिक तुम परमेश्वर की उपस्थिति में होगे, उतने ही अधिक अनुभव तुम्हें होंगे। अगर तुम अभी भी दुनिया में एक जानवर की तरह जीते हो—तुम्हारा मुँह तो परमेश्वर पर विश्वास की घोषणा करता है, लेकिन तुम्हारा दिल कहीं और होता है—और अगर तुम अभी भी जीने के सांसारिक फलसफों का अध्ययन करते हो, तो क्या तुम्हारी पिछली सारी मेहनत बेकार नहीं हो जाएगी?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अनुभव पर)। अपने आस्था के वर्षों के बारे में सोचा तो, मैंने न सत्य हासिल किया था, न ही सरल, ईमानदार इंसान बन पाया था, बल्कि अब भी जीने के दुनियावी तौर-तरीकों से चिपका हुआ था। मैं समझ गया कि मैं सत्य से प्रेम करने वाला या उसे स्वीकारने वाला इंसान नहीं था। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं बहुत धूर्त हूँ! मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ, शैतानी, दुनियावी फलसफों के अनुसार नहीं जीना चाहता।”

उस अनुभव और सबक के बाद, मैं दूसरों के साथ बातचीत में और सतर्क हो पाया, उस ढंग से बोलने का अभ्यास करने लगा जिससे लोगों को फायदा हो, न कि खुशामद करने के लिए समस्याओं को किनारे किया। लेकिन चूंकि शैतान ने मुझे इतनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया था, इसलिए जब मेरे निजी हितों से जुड़ी कोई बात होती, तो मैं दोबारा खुशामदी किए बिना नहीं रह पाता।

एक बार मैं वीडियो बनाने पर भाई हडसन के साथ काम कर रहा था। वे काफी पुख्ता राय रखते थे और काम में मेरे मुकाबले बहुत बेहतर थे। मुझे लगा कि मुझे विनम्र होना चाहिए, ताकि उन्हें न लगे कि मैं एक घमंडी और अनाड़ी हूँ। इसलिए हमारे कर्तव्य में जब भी हमारी सोच टकराती, मैं “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है” पर टिके रहने की कोशिश करता था ताकि हमारे रिश्ते जो नुकसान न हो और मेरी उनके साथ अच्छी निभ सके। कभी-कभी, जिन वीडियो पर वे काम करते, उनमें मुझे कुछ गलतियाँ नजर आतीं, और मैं उन्हें सुधारने की सलाह देता, लेकिन उन्हें नहीं लगता कि जो मैं बता रहा हूँ वो कोई समस्या है। वे सिर्फ कुछ बहाने और अपनी राय साझा कर देते थे। हालाँकि मैं उनसे पूरी तरह सहमत नहीं होता, पर मैं डरता कि आगे चर्चा करने से बात अटक जाएगी या बहस छिड़ जाएगी, फिर सभी लोग मुझे अहंकारी, दंभी और अड़ियल कहेंगे, तो मैं बात वहीं खत्म कर देता। इस तरह मैंने उनके साथ कुछ महीने काम किया, लेकिन जब हमारे वीडियो आए तो हमेशा यहाँ-वहाँ कुछ समस्याएँ दिखतीं, उनमें से ज़्यादातर वही मसले थे जो मैंने शुरू में ही बताए थे। नतीजतन हमें वीडियो फिर से बनाने पड़े। घमंडी, दंभी और अड़ियल होने के कारण हडसन को बर्खास्त कर दिया गया। हालाँकि अंत में वीडियो पूरे बन गए, पर इस लेकर मुझे सुकून और आराम नहीं मिला। बल्कि मैं बेचैन और दोषी महसूस कर रहा था। मैं अपने कर्तव्य में ऊपरी सौहार्द बनाए रखने के लिए हमेशा से खुशामद करता था, दूसरों को नाराज करने से डरता और सिद्धांत कायम नहीं रखता था। मैंने एक साथी होने का काम पूरा नहीं किया, और मैं वीडियो कार्य में बाधा पैदा कर रहा था। मुझे बहुत बुरा महसूस हुआ। फिर अगुआ मुझसे बात करने आए, और यह कहकर मुझे उजागर कर दिया “आपने अपने भाई-बहनों के साथ अपने कार्य में सत्य सिद्धांतों का मान नहीं रखा। आपको साफ तौर पर पता था कि वीडियो निर्माण के दौरान हडसन की राय गलत है, फिर भी आप आँखें बंद करके उनके पीछे चलते रहे ताकि कोई मनमुटाव न हो, और आपकी छवि सुरक्षित रहे। नतीजतन वीडियो दोबारा बनाने पड़े, और इससे हमारी प्रगति में देरी हो गई।” फिर वे बोलीं, “आप मुश्किल हालात के आगे झुक जाते हैं। आपको चाहिए कि आप सत्य खोजें और तुरंत इस मसले को सुलझाएँ।” यह सुन पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। अगले कुछ दिनों तक मैंने इस बारे में प्रार्थना की और चिंतन करता रहा, और परमेश्वर के वचन पढ़े।

मैंने देखा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “देखने में, मसीह विरोधियों की बातें हर तरह से दयालुतापूर्ण, सुसंस्कृत और विशिष्ट प्रतीत होती हैं। जो कोई भी सिद्धांत का उल्लंघन करता है, कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा पैदा करता है, उसे उजागर नहीं किया जाता या उसकी आलोचना नहीं की जाती, फिर चाहे वह कोई भी क्यों न हो; मसीह-विरोधी आंखें मूंद लेता है, लोगों को यह सोचने देता है कि वह हर मामले में उदार-हृदय है। लोगों की भ्रष्टता और दुष्कर्म के प्रति उसका व्यवहार उपकार और सहनशीलता का होता है। वे क्रोधित नहीं होते, या अचानक आगबबूला नहीं हो जाते, जब वे कुछ गलत करते हैं और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हैं, तो वे लोगों को नाराज नहीं करेंगे और उन्हें दोष नहीं देंगे। चाहे कोई भी बुराई करे और कलीसिया के काम में बाधा डाले, वे कोई ध्यान नहीं देते, मानो इससे उनका कोई लेना-देना न हो, और वे इस कारण लोगों को कभी नाराज नहीं करेंगे। मसीह-विरोधी सबसे ज्यादा चिंता किस बात की करते हैं? इस बात की कि कितने लोग उनका सम्मान करते हैं, और जब वे कष्ट झेलते हैं तो कितने लोग उन्हें देखते हैं और इसके लिए उनकी प्रशंसा करते हैं। मसीह-विरोधी मानते हैं कि कष्ट कभी व्यर्थ नहीं जाना चाहिए; चाहे वे कोई भी कठिनाई सहें, कितनी भी कीमत चुकाएँ, कोई भी अच्छे कर्म करें, दूसरों के प्रति कितने भी दयालु, विचारशील और स्नेही हों, यह सब दूसरों के सामने किया जाना चाहिए, अधिक लोगों को इसे देखना चाहिए। और ऐसा करने का उनका क्या उद्देश्य होता है? लोगों को जीतना, अपने कार्यों, व्यवहार और चरित्र के प्रति ज्यादा लोगों की सराहना और स्वीकृति पाना। यहाँ तक कि ऐसे मसीह-विरोधी भी हैं, जो इस बाहरी अच्छे व्यवहार के माध्यम से अपनी छवि अच्छे व्यक्ति के रूप में स्थापित करने की कोशिश करते हैं, ताकि अधिक लोग मदद की तलाश में उनके पास आएँ। ... उनके कार्य लोगों के दिलों में सिर्फ श्रद्धा ही पैदा नहीं करते—वे उन्हें वहाँ जगह भी देते हैं। मसीह-विरोधी परमेश्वर का स्थान लेना चाहते हैं। जब वे ये चीजें करते हैं, तो उनका लक्ष्य यही होता है। निस्संदेह, उनके कार्यों के शुरुआती परिणाम पहले ही सामने आ चुके हैं : जिन लोगों में विवेक की कमी होती है, उनके दिलों में अब मसीह-विरोधी जगह रखते हैं, और अब ऐसे लोग हैं जो उनमें श्रद्धा रखते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं, जो कि वास्तव में मसीह-विरोधियों का उद्देश्य था(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दस))। परमेश्वर दर्शाता है कि मसीह-विरोधी खास तौर पर दुष्ट और घिनौने होते हैं। वे अच्छा बर्ताव करने, खुद को छुपाने और दूसरों के दिल जीतने के लिए चिकनी-चुपड़ी बातें करने में माहिर होते हैं, ताकि लोग सोचें कि बस वे ही धैर्यवान हैं, बात को समझते हैं, जिससे सुकून पाने के लिए दूसरे उन्हें खोजें। ऐसा बर्ताव लोगों को परमेश्वर से बहुत दूर ले जाता है, और मसीह-विरोधी उनके दिलों में परमेश्वर का स्थान ले लेते हैं। मैं ऐसा ही था। भाई-बहनों को अपने कर्तव्य में एक-दूसरे को मसले बताने और मदद करनी चाहिए, लेकिन मैं दिल दुखाने वाली कोई बात करने से बच रहा था, ताकि मेरी प्रतिष्ठा बनी रहे। हडसन के वीडियो में समस्याएँ दिखकर भी मैंने सत्य सिद्धांतों को कायम नहीं रखा; बस हवा के रुख के साथ चलता रहा। मैं खुशामदी करता था, सत्य का अभ्यास नहीं। मैं नहीं चाहता था कि हर कोई सोचे मैं बहुत घमंडी हूँ, बल्कि यह सोचे कि मैं सहनशील, समझदार और दूसरों की भावनाओं का ख्याल करने वाला इंसान हूँ। मैं जिनसे भी मेलजोल करता उन सभी को खुश करना चाहता, ताकि वे मुझे पसंद करें और अपने दिल में मेरी अच्छी छवि रखें। अपना दुष्ट लक्ष्य हासिल करने के लिए, अपनी सकारात्मक छवि बनाए रखने की कोशिश में, मैंने कलीसिया के कार्य तक को नहीं छोड़ा। मैं बहुत स्वार्थी था! परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन से, मैं समझ गया कि मैं खुशामद कर रहा था, मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहा था। इसका एहसास होने पर, मैंने बहुत दोषी महसूस किया। इसके बाद मैंने आत्मचिंतन जारी रखा। एक विश्वासी के रूप में अपना पूरा समय याद करूँ, तो मैंने हमेशा दूसरे लोगों के सामने सुंदर छवि बनाए रखी। जब कभी मैं किसी को कथनी-करनी में भद्र, पोषित और सुसंस्कृत पाता, तो मैं उसकी तरह बनने और उसकी नकल करने की कोशिश करता था। मैं अधिक आरामपसंद और मिलनसार दिखना चाहता था, ताकि भाई-बहनों के मन में, मेरी छवि सुरक्षित रहे। दूसरों की समस्याएँ देखने या उनके भ्रष्ट स्वभाव दिखाने पर शायद ही कभी बोलता था, इस डर से कि उन्हें उजागर कर उन्हें शर्मिंदा न कर दूँ। मुझे याद है पहले जब मैं सुसमाचार उपयाजक था, तो हमेशा शांत रहने और विनम्रता से बोलने की कोशिश करता था। जब मैं दूसरों को असैद्धांतिक होकर अपना कर्तव्य लापरवाही से निभाते देखता, तो मुझे डर लगता कि यह मसला उठाने से सभी को लगेगा मुझमें हमदर्दी नहीं है, और इससे मेरी “अच्छे इंसान” की छवि बिगड़ जाएगी। इसलिए तथाकथित स्नेह के चलते, जब मैं दूसरों की मदद करने की कोशिश करता, तो मैं बहुत सोच-समझ कर विनम्र और गोलमोल ढंग से बोलता था। मैं किसी को भी सीधे उजागर नहीं करता था या उनकी करनी की गंभीरता समझने में उनकी मदद नहीं करता था। मैं बस उन्हें गोलमोल इशारा कर देता था। मुझे जब किसी को बर्खास्त करना होता, तो मुझे लगता कि इससे वह व्यक्ति बुरा मान जाएगा और मुझे समझ नहीं आता कि क्या बोलूँ। मैं पूरी कोशिश करता कि मेरे बजाय कोई दूसरा संगति करे, जब हो सके मैंने इसे टाला। इस तरह मैंने अपना रुतबा और छवि बचाने की पुरजोर कोशिश की, भाई-बहनों ने कहा कि मैं कभी रौब नहीं दिखाता था और बड़ा मिलनसार था। मुझमें “अच्छी इंसानियत है” और मैं दूसरों को नहीं दबाऊँगा, इसलिए उन्होंने अगुआ पद के लिए मेरी सिफारिश भी की थी। मैं बहुत आत्मतुष्ट महसूस करता था। मसीह-विरोधी, लोगों को गुमराह कर फँसाने के लिए ऊपर से अच्छे बर्ताव का इस्तेमाल करते हैं। क्या मेरे दिल में भी वही इरादे और लक्ष्य नहीं थे? मैंने कभी भी अपने घिनौने इरादों और भ्रष्ट प्रकृति पर चिंतन नहीं किया, मुझे लगता था कि खुशामद करने वाला इंसान होने में कोई बुराई नहीं है। मैं दूसरों की स्वीकृति, उनका साथ और उनकी प्रशंसा पा सकता था और लोगों को मेरे बारे में अच्छा सोचने पर मजबूर कर सकता था : मुझे यह जीवन जीने का बढ़िया तरीका लगा। लेकिन अब मैं समझ गया हूँ कि खुशामदी करके मैं लोगों को गुमराह करने, उन्हें फँसाने के लिए खुद को चोरी-छिपे और गुप्त रूप से स्थापित कर रहा था। मैं मसीह-विरोधी के रास्ते पर चल रहा था!

एक दिन, अपने भक्ति-कार्यों में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिसने वाकई मुझे हिलाकर रख दिया : “जब लोग हमेशा अपने स्वार्थ के बारे में सोचते हैं, जब वे हमेशा अपने गौरव और अहंकार की रक्षा करने की कोशिश करते हैं, जब वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं लेकिन उसे ठीक करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते, तो इसका क्या परिणाम होता है? यही कि वे जीवन-प्रवेश नहीं कर पाते हैं, और उनके पास सच्ची अनुभवजन्य गवाही की कमी है। और यह खतरनाक है, है न? अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे पास कोई अनुभवजन्य गवाही नहीं है, तो समय आने पर तुम्हें उजागर कर बाहर कर दिया जाएगा। अनुभवजन्य गवाही से रहित लोगों का परमेश्वर के घर में क्या उपयोग है? वे कोई भी कर्तव्य खराब तरीके से निभाने और कुछ भी ठीक से न कर पाने के लिए बाध्य हैं। क्या वे सिर्फ कचरा नहीं हैं? वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी अगर लोग कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो वे गैर-विश्वासी हैं; वे दुष्ट हैं। अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे अपराध बहुत अधिक बढ़ जाते हैं, तो तुम्हारा अंत निश्चित है। यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि तुम्हारे सभी अपराध, वह गलत मार्ग जिस पर तुम चलते हो, और पश्चात्ताप करने से तुम्हारा इनकार—ये सभी मिलकर बुरे कर्मों का ढेर बन जाते हैं; और इसलिए तुम्हारा अंत यह है कि तुम नरक में जाओगे, तुम्हें दंडित किया जाएगा। क्या तुम लोग सोचते हो कि यह कोई साधारण मामला है? अगर तुम्हें दंडित नहीं किया गया है, तो तुम्हें इस बात का कोई अंदाजा नहीं होगा कि यह कितना भयानक है। जब वह दिन आएगा जब तुम वास्तव में विपदा का सामना करोगे, और तुम्हारा सामना मृत्यु से होगा, तो पछताने में बहुत देर हो चुकी होगी। अगर परमेश्वर पर अपनी आस्था में तुम सत्य नहीं स्वीकारते, अगर तुम वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते हो लेकिन तुममें कोई बदलाव नहीं आया, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि तुम्हें बाहर निकालकर त्याग दिया जाएगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मैं हमेशा एक अच्छा इंसान बनकर सत्य का अभ्यास नहीं करता था। जब मैं दूसरों के साथ सहयोग करता, तो हमेशा कलीसिया के कार्य की कीमत पर ही दूसरों को बहकाता और उनके दिल जीतता था। मेरे सभी कम दुष्टतापूर्ण थे। अगर मैं इसी राह पर चलता रहा, तो अंत में परमेश्वर मुझे त्याग देगा और दंड देगा! परमेश्वर के वचनों से, मैं महसूस कर पाया उसका धार्मिक स्वभाव कैसा है और किस तरह उसे सत्य का अभ्यास न करने वालों से चिढ़ होती है। मैं उसी वक्त प्रायश्चित करना चाहता था, अभ्यास का पथ खोजकर अपने खुशामदी स्वभाव को ठीक करना चाहता था।

मैंने पढ़ा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जब परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाता है, तब लोगों के साथ भी तुम्हारा संबंध सामान्य होगा। परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बनाने के लिए, सबकुछ परमेश्वर के वचनों की नींव पर बनाया जाना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, तुम्हें अपने विचार एकदम सरल रखने चाहिए और हर चीज में सत्य खोजना चाहिए। जब तुम सत्य समझ जाओ तो तुम्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए, और चाहे तुम्हारे साथ कुछ भी हो, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर की आज्ञा मानने वाले हृदय से खोजना करना चाहिए। इस प्रकार अभ्यास करते हुए, तुम परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बना पाओगे। साथ ही अपने कर्तव्य का उचित ढंग से पालन करते हुए, तुम्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि तुम ऐसा कुछ भी न करो जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को लाभ न हो, और ऐसा कुछ भी न कहो जो भाई-बहनों की मदद न करे। तुम्हें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जो तुम्हारे जमीर के विरुद्ध हो और वह तो बिलकुल नहीं करना चाहिए जो शर्मनाक हो। तुम्हें खासकर ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जो परमेश्वर से विद्रोह करे या उसका विरोध करे, और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जो कलीसिया के कार्य या जीवन को बाधित करे। अपने हर कार्य में न्यायसंगत और सम्माननीय रहो और सुनिश्चित करो कि तुम्हारा हर कार्य परमेश्वर के समक्ष प्रस्तुत करने योग्य हो। यद्यपि कभी-कभी देह कमज़ोर हो सकती है, फिर भी तुम्हें अपने व्यक्तिगत लाभ का लालच न करते हुए, कोई भी स्वार्थी या नीच कार्य न करते हुए, आत्म-चिंतन करते हुए परमेश्वर के परिवार के हित पहले रखने चाहिए। इस तरह तुम अक्सर परमेश्वर के सामने रह सकते हो, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध पूरी तरह सामान्य हो जाएगा(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?)। “अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्‍वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्‍हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियतकी स्थिरता या दूसरे लोग तुम्‍हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्‍हेंअपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्‍यों को दूर रखना चाहिए, तुम्‍हें परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगेकि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्‍ट व्‍यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्‍मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगेकि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर। मुझे समझ आया कि जो सभी चीजों में सत्य खोजते और परमेश्वर के साथ खड़े होते हैं, जो अपनी निजी आकांक्षाओं को छोड़कर कलीसिया के कार्यों को कायम रखते हैं, केवल वे ही इंसानियत से जीते हैं, और दूसरों के साथ सामान्य रिश्ते रख पाते हैं। इसके बाद, मैं हर हालत में, सबसे पहले कलीसिया के हितों की रक्षा के बारे में विचार करने का अभ्यास करने लगा, अपनी कथनी-करनी से परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने की कोशिश करने लगा। कुछ समय तक ऐसा करके मैंने देखा कि मेरे पास रोजमर्रा के जीवन और अपने कर्तव्य में, सत्य का अभ्यास करने के ढेरों मौके हैं। मिसाल के तौर पर, सभाओं में, मैंने देखा कि कुछ लोग शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की बात करते हैं या विषय से भटक जाते हैं। या संगति में कोई बोलता ही चला जाता है, हमारी सभा को लंबा खींच देता है। इससे हमारे कलीसिया जीवन को नुकसान हुआ, लेकिन टीम अगुआ ने इसे बताने या सुधारने की कोशिश नहीं की थी। पहले-पहल, मैंने कुछ नहीं कहना चाहा, लेकिन मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ—मैं फिर से खुशामद करना क्यों चाहता हूँ? मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की और अपने गलत इरादे को त्याग दिया। सभा के ख़त्म होते-होते, मैंने वे समस्याएँ उठाईं जिन्हें मैंने देखा था और उनका समाधान सुझाया। मुझे महसूस हुआ कि खुद के हितों को त्याग देने और कलीसिया के हितों को ऐसे कायम रखने से कैसा सुकून मिलता है। फिर, एक भाई को, जिसे मैं अच्छी तरह जानता था, बर्खास्त कर दिया गया। उसने मुझे बताया कि उसके आराम तलाशने, अपने कर्तव्य में धूर्त, कपटी बनने और प्रभावी न होने के कारण ऐसा हुआ। पहले तो मैंने उसे दिलासा देना चाहा, उसे मेरे बारे में अच्छा सोचने वाला बनाना चाहा, लेकिन फिर एहसास हुआ कि मुझे इस बार सत्य का अभ्यास करना चाहिए। तो मैंने अपना मन शांत किया और सोचा कि इस भाई को सिखाने में मदद करने के लिए क्या कहना चाहिए। मैंने हमारे पहले की बातचीत के बारे में सोचा। उसके कर्तव्य के दौरान, उसकी आराम की लालसा साफ तौर पर जाहिर थी। बिना बात घुमाए, मैंने उसे कर्तव्य के दौरान उसके रवैये की जो समस्याएँ थीं वो बता दीं, और उसे इससे जुड़े परमेश्वर के कुछ वचन भेजे। उसने मेरा धन्यवाद किया और कहा कि यह सब बताने से उसे काफी मदद मिली। ऐसा करने के बाद, मैंने शांत महसूस किया, मुझे बहुत सुकून मिला।

परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन द्वारा, मैंने देखा कि अगर मैं शैतान के दुनियावी फलसफों के अनुसार जीता रहता, तो मैं और ज्यादा कपटी और धूर्त ही बनता; मैं इंसान होने की न्यूनतम अपेक्षा भी पूरी न कर पाता, दूसरों का और खुद का नुकसान कर बैठता। मैंने यह भी जान लिया कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना और सत्य सिद्धांतों के अनुसार आचरण करना ही इंसानियत रखने और एक वास्तव में अच्छा इंसान बनने का एकमात्र तरीका है।

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