3. व्यवस्था के युग में परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य और महत्व

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :

आरंभ में, मानवजाति के सृजन के बाद, इस्राएलियों ने परमेश्वर के कार्य के आधार के रूप में काम किया। संपूर्ण इस्राएल पृथ्वी पर यहोवा के कार्य का आधार था। यहोवा का कार्य व्यवस्थाओं की स्थापना करके मनुष्य की सीधे अगुआई और चरवाही करना था, ताकि मनुष्य एक सामान्य जीवन जी सके और पृथ्वी पर सामान्य तरीके से यहोवा की आराधना कर सके। व्यवस्था के युग में परमेश्वर मनुष्य के द्वारा न तो देखा जा सकता था और न ही उसे छुआ जा सकता था। क्योंकि उसने उन लोगों का मार्गदर्शन किया, जिन्हें शैतान ने सबसे पहले भ्रष्ट किया था, उन्हें शिक्षा दी, उनकी देखभाल की, उसके वचनों में केवल व्यवस्थाओं, विधानों और मानव-व्यवहार के मानदंड थे, उनमें उन लोगों के लिए जीवन के सत्य नहीं थे। उसकी अगुआई में इस्राएली शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट नहीं किए गए थे। उसका व्यवस्था का कार्य उद्धार के कार्य में केवल पहला चरण था, उद्धार के कार्य का एकदम आरंभ, और वास्तव में उसका मनुष्य के जीवन-स्वभाव में होने वाले परिवर्तनों से कुछ लेना-देना नहीं था।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर

"यहोवा" वह नाम है, जिसे मैंने इस्राएल में अपने कार्य के दौरान अपनाया था, और इसका अर्थ है इस्राएलियों (परमेश्वर के चुने हुए लोगों) का परमेश्वर, जो मनुष्य पर दया कर सकता है, मनुष्य को शाप दे सकता है, और मनुष्य के जीवन का मार्गदर्शन कर सकता है; वह परमेश्वर, जिसके पास बड़ा सामर्थ्य है और जो बुद्धि से भरपूर है। ... अर्थात्, केवल यहोवा ही इस्राएल के चुने हुए लोगों का परमेश्वर, अब्राहम का परमेश्वर, इसहाक का परमेश्वर, याकूब का परमेश्वर, मूसा का परमेश्वर और इस्राएल के सभी लोगों का परमेश्वर है। और इसलिए, वर्तमान युग में यहूदी लोगों के अलावा सभी इस्राएली यहोवा की आराधना करते हैं। वे वेदी पर उसके लिए बलिदान करते हैं, और याजकीय लबादे पहनकर मंदिर में उसकी सेवा करते हैं। वे यहोवा के पुन: प्रकट होने की आशा करते हैं। ... "यहोवा" नाम इस्राएल के उन लोगों के लिए एक विशेष नाम है, जो व्यवस्था के अधीन जिए थे। प्रत्येक युग में और कार्य के प्रत्येक चरण में मेरा नाम आधारहीन नहीं है, बल्कि प्रातिनिधिक महत्व रखता है : प्रत्येक नाम एक युग का प्रतिनिधित्व करता है। "यहोवा" व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व करता है, और वह सम्मानसूचक शब्द है, जिससे इस्राएल के लोग उस परमेश्वर को पुकारते थे जिसकी वे आराधना करते थे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, उद्धारकर्ता पहले ही एक “सफेद बादल” पर सवार होकर वापस आ चुका है

व्यवस्था के युग के दौरान यहोवा के नाम से मानवजाति का मार्गदर्शन करने का कार्य किया गया था, और पृथ्वी पर कार्य का पहला चरण आरंभ किया गया था। इस चरण के कार्य में मंदिर और वेदी का निर्माण करना, और इस्राएल के लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए व्यवस्था का उपयोग करना और उनके बीच कार्य करना शामिल था। इस्राएल के लोगों का मार्गदर्शन करके उसने पृथ्वी पर अपने कार्य के लिए एक आधार स्थापित किया। इस आधार से उसने अपने कार्य का विस्तार इस्राएल से बाहर किया, जिसका अर्थ है कि इस्राएल से शुरू करके उसने अपने कार्य का बाहर विस्तार किया, जिससे बाद की पीढ़ियों को धीरे-धीरे पता चला कि यहोवा परमेश्वर था, और कि वह यहोवा ही था, जिसने स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजों का निर्माण किया, और कि वह यहोवा ही था, जिसने सभी प्राणियों को सिरजा था। उसने इस्राएल के लोगों के माध्यम से अपने कार्य को उनसे परे फैलाया। इस्राएल की भूमि पृथ्वी पर यहोवा के कार्य का पहला पवित्र स्थान थी, और इस्राएल की भूमि पर ही परमेश्वर पृथ्वी पर सबसे पहले कार्य करने गया। वह व्यवस्था के युग का कार्य था।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)

सबसे आरंभिक मनुष्यजाति बिल्कुल कुछ भी नहीं जानती थी, और इसलिए परमेश्वर को, इन नियमों के माध्यम से, और इन व्यवस्थाओं के माध्यम से, जो वचनों की थीं, मनुष्य को जीवित बचने के सर्वाधिक सतही और मूलभूत सिद्धांत और जीवन जीने के लिए आवश्यक नियम सिखाने से, इन चीज़ों को थोड़ा-थोड़ा करके मनुष्य के हृदय में उतारने से, और मनुष्य को परमेश्वर की क्रमिक समझ, परमेश्वर की अगुआई की क्रमिक सराहना और समझ, और मनुष्य तथा परमेश्वर के बीच संबंध की मूलभूत अवधारणा देने से आरंभ करना पड़ा था। यह प्रभाव प्राप्त करने के बाद ही, परमेश्वर, थोड़ा-थोड़ा करके, वह कार्य कर पाया था जो वह बाद में करता, और इस प्रकार ये नियम और व्यवस्था के युग के दौरान परमेश्वर द्वारा किया गया कार्य मनुष्यजाति को बचाने के उसके कार्य की आधारशिला, और परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य का पहला चरण हैं।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

व्यवस्था के युग का कार्य

(परमेश्वर के वचनों का चुनिंदा अध्याय)

यहोवा ने जो कार्य इस्राएलियों पर किया, उसने मानव-जाति के बीच पृथ्वी पर परमेश्वर के मूल स्थान को स्थापित किया, जो कि ऐसा पवित्र स्थान भी था जहाँ वह उपस्थित रहता था। उसने अपने कार्य को इस्राएल के लोगों तक ही सीमित रखा। आरंभ में उसने इस्राएल के बाहर कार्य नहीं किया, बल्कि उसने अपने कार्यक्षेत्र को सीमित रखने के लिए ऐसे लोगों को चुना, जिन्हें उसने उचित पाया। इस्राएल वह जगह है, जहाँ परमेश्वर ने आदम और हव्वा की रचना की, और उस जगह की धूल से यहोवा ने मनुष्य को बनाया; यह स्थान पृथ्वी पर उसके कार्य का आधार बन गया। इस्राएली, जो नूह के वंशज थे और आदम के भी वंशज थे, पृथ्वी पर यहोवा के कार्य की मानवीय बुनियाद थे।

उस समय, इस्राएल में यहोवा के कार्य की महत्ता, उद्देश्य और कदम पूरी पृथ्वी पर अपना कार्य शुरू करने के लिए थे, जो इस्राएल को अपना केंद्र बनाकर धीरे-धीरे अन्य-जाति राष्ट्रों में फैल गया। वह इसी सिद्धांत के अनुसार पूरे ब्रह्मांड में कार्य करता है—एक प्रतिमान स्थापित करता है और फिर उसे तब तक व्यापक करता है जब तक कि विश्व के सभी लोग उसके सुसमाचार को प्राप्त न कर लें। प्रथम इस्राएली नूह के वंशज थे। इन लोगों को केवल यहोवा की श्वास प्रदान की गई थी और वे जीवन की मूल आवश्यकताएँ पूरी करने की पर्याप्त समझ रखते थे, किंतु वे नहीं जानते थे कि यहोवा किस प्रकार का परमेश्वर है या मनुष्य के लिए उसकी इच्छा क्या है, और वे यह तो बिल्कुल भी नहीं जानते थे कि समस्त सृष्टि के प्रभु का भय कैसे मानें। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि क्या ऐसे नियम और व्यवस्थाएँ हैं जिनका पालन किया जाना था,[क] या क्या सृजित प्राणियों को स्रष्टा के लिए कोई कर्तव्य निभाना चाहिए, आदम के वंशज इन बातों के बारे में कुछ नहीं जानते थे। वे बस इतना ही जानते थे कि पति को अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए पसीना बहाना और परिश्रम करना चाहिए, और पत्नी को अपने पति के प्रति समर्पित होकर यहोवा द्वारा सृजित मानव-जाति को बनाए रखना चाहिए। दूसरे शब्दों में, वे लोग जिनके पास केवल यहोवा की श्वास और उसका जीवन था, इस बारे में कुछ भी नहीं जानते थे कि परमेश्वर की व्यवस्थाओं का पालन कैसे करें या समस्त सृष्टि के प्रभु को कैसे संतुष्ट करें। वे बहुत ही कम समझते थे। इसलिए भले ही उनके हृदय में कुछ भी कुटिलता या छल-कपट नहीं था, और उनके बीच ईर्ष्या और कलह कभी-कभार ही उत्पन्न होते थे, फिर भी उन्हें समस्त सृष्टि के प्रभु, यहोवा के बारे में कोई ज्ञान या समझ नहीं थी। मनुष्य के ये पूर्वज केवल यहोवा की चीजों को खाना और उनका आनंद लेना जानते थे, किंतु वे यहोवा का भय मानना नहीं जानते थे; वे नहीं जानते थे कि उन्हें घुटने टेककर यहोवा की आराधना करनी चाहिए। तो वे उसके सृजित प्राणी कैसे कहला सकते थे? यदि ऐसा होता, तो क्या इन वचनों का बोला जाना, “यहोवा समस्त सृष्टि का प्रभु है” और “उसने मनुष्य को सृजित किया ताकि मनुष्य उसे अभिव्यक्त कर सके, उसे महिमामंडित कर सके और उसका प्रतिनिधित्व कर सके”—व्यर्थ न हो जाता? जिन लोगों के पास यहोवा का भय मानने वाला हृदय नहीं था, वे उसकी महिमा के गवाह कैसे बन सकते थे? वे उसकी महिमा की अभिव्यक्ति कैसे बन सकते थे? तब क्या यहोवा के ये वचन “मैंने मनुष्य को अपनी छवि में बनाया” दुष्टात्मा शैतान के हाथों में हथियार न बन जाते? क्या तब ये वचन यहोवा द्वारा मनुष्य के सृजन को लेकर अपमान का एक चिह्न न बन जाते? कार्य के उस चरण को पूरा करने के लिए, मनुष्य को बनाने के बाद, यहोवा ने आदम से नूह तक उन्हें निर्देश या मार्गदर्शन नहीं दिया। बल्कि, जल-प्रलय द्वारा दुनिया को नष्ट किए जाने के बाद ही उसने औपचारिक तौर पर नूह और आदम के वंशज, इस्राएलियों का मार्गदर्शन करना आरंभ किया था। इस्राएल में उसके कार्य और कथनों ने इस्राएल में रहने वाले सभी लोगों को मार्गदर्शन दिया और इस तरह मानव-जाति को दिखाया कि यहोवा न केवल मनुष्य में श्वास फूँकने में समर्थ है, ताकि वह परमेश्वर से जीवन प्राप्त कर सके और मिट्टी में से उठकर एक सृजित मानव बन सके, बल्कि वह मानव-जाति पर शासन करने के लिए उसे भस्म भी कर सकता है, उसे शाप भी दे सकता है और उस पर अपने राजदंड का उपयोग भी कर सकता है। इसलिए उन्होंने देखा कि यहोवा पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन का मार्गदर्शन कर सकता है और मानव-जाति के बीच दिन और रात के समय के अनुसार बोल सकता है और कार्य कर सकता है। जो कार्य उसने किया, वह केवल इसलिए किया ताकि उसके सृजित प्राणी जान सकें कि मनुष्य उसके द्वारा उठाई गई धूल से उत्पन्न हुआ है। इसके अलावा, मनुष्य उसके द्वारा ही बनाया गया है। इतना ही नहीं, बल्कि उसने पहले इस्राएल में कार्य किया ताकि दूसरे लोग और राष्ट्र (जो वास्तव में इस्राएल से पृथक नहीं थे, बल्कि इस्राएलियों से अलग हो गए थे, मगर फिर भी वे आदम और हव्वा के वंशज ही थे) इस्राएल से यहोवा का सुसमाचार प्राप्त कर सकें ताकि विश्व में सभी सृजित प्राणी यहोवा का भय मान सकें और उसे महान मानते हुए सम्मान दे सकें। यदि यहोवा ने अपना कार्य इस्राएल में आरंभ न किया होता, बल्कि मनुष्यों को बनाने के बाद उन्हें पृथ्वी पर निश्चिंत जीवन जीने दिया होता, तो उस स्थिति में, मनुष्य की भौतिक प्रकृति के कारण (प्रकृति का अर्थ है कि मनुष्य उन चीजों को कभी नहीं जान सकता, जिन्हें वह देख नहीं सकता, अर्थात् वह कभी नहीं जान पाएगा कि मानव-जाति को यहोवा ने बनाया है, और यह तो बिल्कुल नहीं जान पाएगा कि उसने ऐसा क्यों किया), वह कभी नहीं जान पाएगा कि यहोवा ने ही मानवजाति को बनाया है अथवा वह समस्त सृष्टि का प्रभु है। यदि यहोवा ने मनुष्य का सृजन करके उसे पृथ्वी पर छोड़ दिया होता और एक अवधि तक मनुष्यों का मार्गदर्शन करने के लिए उनके बीच रहने के बजाय ऐसे ही अपने हाथ झाड़कर चला गया होता, तो सारी मानव-जाति वापस शून्यता की ओर लौट गई होती; यहाँ तक कि स्वर्ग, पृथ्वी और उसकी बनाई हुई असंख्य चीजें और समस्त मानव-जाति शून्यता की ओर लौट गई होती और इतना ही नहीं, शैतान द्वारा कुचल दी गई होती। इस तरह से यहोवा की यह इच्छा “पृथ्वी पर अर्थात्, उसके सृजन के बीच, उसके पास पृथ्वी पर खड़े होने के लिए एक स्थान, एक पवित्र स्थान होना चाहिए” बिखर गई होती। इसलिए मानवजाति को बनाने के बाद, वह मनुष्यों के जीवन में मार्गदर्शन करने के लिए उनके बीच रह पाया और उनसे बात कर पाया—यह सब उसका अपनी इच्छा और योजना को पूरा करने के लिए था। उसने जो कार्य इस्राएल में किया, वह केवल उस योजना को क्रियान्वित करने के लिए था जिसे उसने सभी चीजों की रचना करने से पहले बनाया था, इसलिए उसका पहले इस्राएलियों के मध्य कार्य करना और सभी चीजों का सृजन करना एक-दूसरे से असंगत नहीं था, बल्कि दोनों उसके प्रबंधन, उसके कार्य और उसकी महिमा के लिए और उसके द्वारा मानव-जाति के सृजन के अर्थ को और अधिक गहरा करने के लिए किए गए थे। उसने नूह के बाद दो हजार वर्षों तक पृथ्वी पर मानवजाति के जीवन का मार्गदर्शन किया, उस दौरान उसने मानवजाति को यह समझाया कि समस्त सृष्टि के प्रभु यहोवा का किस प्रकार भय मानें, अपना जीवन कैसे चलाएँ और जीवन कैसे जिएँ, और इन सबसे बढ़कर, यहोवा के गवाह के रूप में कार्य कैसे करें, उसके प्रति समर्पण कैसे करें और उसका भय कैसे मानें, यहाँ तक कि कैसे संगीत के साथ उसकी स्तुति करें जैसे दाऊद और उसके याजकों ने की थी।

दो हजार वर्ष पूर्व जब यहोवा ने अपना कार्य किया, तो मनुष्य कुछ नहीं जानता था, और लगभग समस्त मानव-जाति पतित हो चुकी थी, जल-प्रलय द्वारा संसार के विनाश से पहले तक, मनुष्य स्वच्छंद संभोग और भ्रष्टता की गहराई में गिर चुका था, मनुष्य का हृदय पूरी तरह से यहोवा से रहित था और उसके मार्ग से तो बिल्कुल ही रहित था। उसने उस कार्य को कभी नहीं समझा था, जिसे यहोवा करने जा रहा था; लोगों में विवेक का अभाव था, ज्ञान और भी कम था, और एक साँस लेती हुई मशीन के समान वे मनुष्य, परमेश्वर, संसार, जीवन आदि से पूर्णतया अनभिज्ञ थे। पृथ्वी पर वे साँप के समान, बहुत-से प्रलोभनों में लिप्त थे, और बहुत-सी ऐसी बातें कहते थे जो यहोवा के लिए अपमानजनक थीं, लेकिन चूँकि वे अनभिज्ञ थे, इसलिए यहोवा ने उन्हें ताड़ना नहीं दी या अनुशासित नहीं किया। केवल जल-प्रलय के बाद ही, जब नूह 601 वर्ष का था, तो यहोवा ने औपचारिक रूप से नूह के सामने प्रकट होकर उसका तथा उसके परिवार का मार्गदर्शन किया और 2,500 वर्षों तक चले व्यवस्था के युग की समाप्ति तक नूह और उसके वंशजों के साथ-साथ, जल-प्रलय में जिंदा बचे पक्षियों और जानवरों की अगुआई की। वह इस्राएल में कार्यरत था, अर्थात् कुल 2,000 वर्षों तक औपचारिक रूप से इस्राएल में कार्यरत था और 500 वर्षों तक इस्राएल और उसके बाहर एक-साथ कार्यरत था, जो मिलकर 2,500 वर्ष होते हैं। इस दौरान उसने इस्राएलियों को निर्देश दिया कि यहोवा की सेवा करने के लिए उन्हें एक मंदिर का निर्माण करना चाहिए, याजकों के लबादे पहनने चाहिए और उषाकाल में नंगे पाँव मंदिर में प्रवेश करना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि उनके जूते मंदिर को अपवित्र कर दें और मंदिर के शिखर से उन पर आग गिरा दी जाए और उन्हें जलाकर मार डाला जाए। उन्होंने अपने कर्तव्य निभाए और यहोवा की योजनाओं के प्रति समर्पित हो गए। उन्होंने मंदिर में यहोवा से प्रार्थना की, और यहोवा का प्रकाशन प्राप्त करने के बाद, अर्थात् यहोवा के बोलने के बाद, उन्होंने जनसाधारण की अगुआई की और उन्हें सिखाया कि उन्हें उनके परमेश्वर, यहोवा के प्रति भय दिखाना चाहिए। यहोवा ने उनसे कहा कि उन्हें एक मंदिर और एक वेदी बनानी चाहिए, और यहोवा द्वारा निर्धारित समय पर, अर्थात् फसह के पर्व पर उन्हें यहोवा की सेवा के लिए बलि के रूप में वेदी पर रखने के लिए नवजात बछड़े और मेमने तैयार करने चाहिए, जिससे लोगों को नियंत्रण में रखा जा सके और उनके हृदय में यहोवा के लिए भय उत्पन्न किया जा सके। उनका इस व्यवस्था का पालन करना या न करना यहोवा के प्रति उनकी वफादारी का पैमाना बन गया। यहोवा ने उनके लिए सब्त का दिन भी नियत किया, जो उसकी सृष्टि की रचना का सातवाँ दिन था। सब्त के अगले दिन उसने पहला दिन बनाया, अर्थात् उनके द्वारा यहोवा की स्तुति करने, उसे चढ़ावा चढ़ाने और उसके लिए संगीत की रचना करने का दिन। इस दिन यहोवा ने सभी याजकों को एक-साथ बुलाकर वेदी पर रखे चढ़ावे को लोगों के खाने हेतु बाँटने के लिए कहा, ताकि वे यहोवा की वेदी के चढ़ावों का आनंद उठा सकें। यहोवा ने कहा कि वे धन्य हैं कि उन्होंने उसके साथ एक हिस्सा साझा किया, और कि वे उसके चुने हुए लोग हैं (जो कि इस्राएलियों के साथ यहोवा की वाचा थी)। यही कारण है कि आज तक भी इस्राएल के लोग यही कहते हैं कि यहोवा केवल उनका ही परमेश्वर है, वह अन्य-जातियों का परमेश्वर नहीं है।

व्यवस्था के युग के दौरान, यहोवा ने मूसा को उन इस्राएलियों तक पहुँचाने के लिए अनेक आज्ञाएँ निर्धारित कीं, जो मिस्र के बाहर उसका अनुसरण करते थे। ये आज्ञाएँ यहोवा द्वारा इस्राएलियों को दी गई थीं, उनका मिस्र के लोगों से कोई संबंध नहीं था; वे इस्राएलियों को नियंत्रित करने के लिए थीं, उसने उनसे माँग करने के लिए इन आज्ञाओं का उपयोग किया। वे सब्त का पालन करते थे या नहीं, अपने माता-पिता का आदर करते थे या नहीं, मूर्तियों की आराधना करते थे या नहीं, इत्यादि—यही वे सिद्धांत थे, जिनसे उनके पापी या धार्मिक होने का आकलन किया जाता था। उनमें से कुछ ऐसे थे जो यहोवा की आग से जला दिए गए, कुछ ऐसे थे जो पत्थरों से मार डाले गए, और कुछ ऐसे थे जिन्होंने यहोवा का आशीष प्राप्त किया, इसका निर्धारण इस बात से किया जाता था कि उन्होंने इन आज्ञाओं का पालन किया या नहीं। जो सब्त का पालन नहीं करते थे, उन्हें पत्थरों से मार डाला गया। जो याजक सब्त का पालन नहीं करते थे, उन्हें यहोवा की आग में जला दिया गया। जो अपने माता-पिता का आदर नहीं करते थे, उन्हें भी पत्थरों से मार डाला गया। यह सब यहोवा द्वारा कहा गया था। यहोवा ने अपनी आज्ञाओं और व्यवस्थाओं को इसलिए स्थापित किया था, ताकि जब वह लोगों के जीवन की अगुआई करे, तो वे उसके वचन सुनकर उनके प्रति समर्पण करें, उसके विरुद्ध विद्रोह न करें। उसने नवजात मानव-जाति को नियंत्रण में रखने, अपने भविष्य के कार्य की नींव को बेहतर ढंग से डालने के लिए इन व्यवस्थाओं का उपयोग किया। इसलिए, यहोवा द्वारा किए गए कार्य के आधार पर प्रथम युग को व्यवस्था का युग कहा गया। यद्यपि यहोवा ने बहुत-से कथन कहे और बहुत कार्य किया, किंतु उसने केवल लोगों का सकारात्मक ढंग से मार्गदर्शन किया और उन अज्ञानी लोगों को इंसान बनना सिखाया, जीना सिखाया, यहोवा के मार्ग को समझना सिखाया। उसके द्वारा किए गए कार्य का अधिकांश भाग लोगों से अपने मार्ग का पालन करवाना और अपनी व्यवस्थाओं का अनुसरण करवाना था। यह कार्य उन लोगों पर किया गया, जो कम भ्रष्ट थे; इसका उद्देश्य उनके स्वभाव का रूपांतरण या उनके जीवन का विकास नहीं था। वह केवल लोगों को मर्यादित और नियंत्रित करने हेतु व्यवस्थाओं का उपयोग करने के लिए चिंतित था। उस समय इस्राएलियों के लिए यहोवा मात्र मंदिर में विद्यमान परमेश्वर, स्वर्ग का परमेश्वर था। वह बादल का एक खंभा, आग का एक खंभा था। यहोवा का उद्देश्य मात्र लोगों से उन बातों का आज्ञापालन करवाना था जिन्हें आज लोग उसकी व्यवस्थाओं और आज्ञाओं के तौर पर जानते हैं, क्योंकि यहोवा ने जो किया, वह उन्हें रूपांतरित करने के लिए नहीं था, बल्कि उन्हें और बहुत-सी वस्तुएँ देने के लिए था, जो मनुष्य के पास होनी चाहिए, उन्हें स्वयं अपने मुँह से निर्देश देना था, क्योंकि सृजित किए जाने के बाद मनुष्य के पास ऐसा कुछ नहीं था, जो उसके पास होना चाहिए। इसलिए, यहोवा ने लोगों को वे वस्तुएँ दीं, जो पृथ्वी पर उनके जीवन के लिए उनके पास होनी चाहिए थीं, और ऐसा करके उन लोगों को, जिनकी यहोवा ने अगुआई की थी, उनके पूर्वजों, आदम और हव्वा से भी श्रेष्ठ बना दिया, क्योंकि जो कुछ यहोवा ने उन्हें दिया, वह उससे बढ़कर था जो उसने आरंभ में आदम और हव्वा को दिया था। इसके बावजूद, यहोवा ने इस्राएल में जो कार्य किया, वह केवल मानवजाति का मार्गदर्शन करने और उसे अपने रचयिता को पहचानना सिखाने के लिए था। उसने उन्हें जीता या रूपांतरित नहीं किया था, बल्कि मात्र उनका मार्गदर्शन किया था। व्यवस्था के युग में कुलमिलाकर यहोवा का यही कार्य था। यह इस्राएल की संपूर्ण धरती पर उसके कार्य की पृष्ठभूमि, उसकी सच्ची कहानी और उसका सार है, जो मानव-जाति को यहोवा के नियंत्रण में रखने के लिए—उसके छह हज़ार वर्षों के कार्य का आरंभ है। इसी से उसकी छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन योजना में और अधिक कार्य उत्पन्न हुआ।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य

फुटनोट :

क. मूल पाठ में, “पालन किया जाना था” यह वाक्यांश नहीं है।

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