91. लापरवाही के पीछे का सत्य

विक्टर, दक्षिण कोरिया

अक्तूबर 2021 में हमने एक वीडियो पूरा तैयार कर लिया। हमने इस पर बहुत काम किया, बहुत समय और ऊर्जा लगाई, लेकिन हैरत हुई जब अगुआ ने इसकी जाँच करते समय इसकी बारीकियों में समस्याएं बताईं। उन्होंने कहा कि यह वीडियो अच्छा नहीं बना था, पहले बने वीडियो से यह बेहतर नहीं था, इसे फिर से बनाना होगा। यह सुनकर, मैं चौंक गया। कभी नहीं सोचा था कि ऐसी बड़ी समस्याएँ सामने आएँगी। इसका यही मतलब था न कि हमारी पूरी मेहनत और संसाधन बेकार चले गए? लगा यह बहुत बड़ी बरबादी थी।

बात मेरी समझ से थोड़ी बाहर थी। समझ नहीं पाया इस हालत से कैसे उबरूं या मुझे कौन-सा सबक सीखना होगा। सोच रहा था, वीडियो में कई बार बदलाव किए गए थे, जिस दौरान अगुआ ने उसे देखा था, मगर उन्होंने ये समस्याएँ कभी नहीं बताईं। मुझे लगा, काबिलियत की कमी होने से, मेरे लिए ऐसी समस्याओं को अनदेखा करना सामान्य था। लेकिन मैं इस बारे में सोचता रहा, इसके साथ कुछ तो गड़बड़ थी। क्या ऐसी बड़ी समस्याएँ सिर्फ मेरी काबिलियत की कमी के कारण हुईं? मैं अपना कर्तव्य बहुत खराब ढंग से कर रहा था; इस समस्या का कारण क्या था? फिर अगुआ ने पहले कभी जो बात कही थी, वह याद आई कि उन्होंने वीडियो की जाँच सिर्फ इसकी संकल्पना और निरंतरता के हिसाब से की थी, इसका यह मतलब नहीं था कि इसमें समस्याएँ नहीं थीं। उन्होंने हमसे इस पर बारीकी से सोचने, अच्छी तरह जाँच करने, और सामने आई समस्याओं को दुरुस्त करने को कहा। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। मुझे लगा, अगुआ ने वीडियो देख लिया था, तो ठीक ही होगा, इसलिए वीडियो तैयार करने के दौरान, मैंने सावधानी से उसकी जाँच नहीं की, उसके बारे में ज्यादा नहीं सोचा। मेरा रवैया पूरी तरह से लापरवाह और सतही था। फिर जब समस्याएँ दिखीं, तो मैंने कहा, अगुआ इसकी समीक्षा कर चुके हैं। क्या मैं जिम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ रहा था? यह मेरे लिए बहुत अनुचित था। फिर मैंने सोचा, इसमें मेरे लिए यकीनन कोई सबक था, इसलिए मैंने प्रार्थना की, परमेश्वर से खुद को जानने में मेरा मार्गदर्शन करने की विनती की।

कुछ दिन बाद, मेरे साथ काम कर रही बहन ने मुझे साथ मिलकर एक तैयार वीडियो की समीक्षा करने को कहा। अपनी समीक्षा में मैंने नजर आई कुछ समस्याओं के बारे में बताया, मगर उसने कहा, अगुआ ने इसे देखकर कहा था कि उन्हें इसकी संकल्पना अच्छी लगी और हमें इसे तुरंत पूरा कर देना चाहिए। मेरे पास उसमें सुधार के कुछ सुझाव थे, लेकिन अगुआ के देख लेने और उन्हें पसंद आने की बात सुनने के बाद मैंने बताने की हिम्मत नहीं की। मुझे डर था कि कहीं मेरा अनुमान गलत न हो, हम ऐसे बदलाव न कर दें जो गलत हों। फिर मैं काम में रोड़ा बनूँगा। लेकिन मैंने देखा, वीडियो में सच में कुछ समस्याएँ थीं, इसलिए मैंने एक दूसरे भाई को इसे देखने को कहा, उसे भी मेरी बात सही लगी। मुझे लगा, मुझे यह बात फिर से उठानी चाहिए। लेकिन फिर मैंने सोचा, अगर हमने इसमें सुधार किए और मेरे सुझाए बदलावों ने समस्या खड़ी की, तो फिर जब अगुआ पूछेंगे यह किसने किया, क्या यह मेरी जिम्मेदारी नहीं होगी? क्या मेरी काट-छाँट नहीं की जाएगी? अगर हम सीधे जाकर अगुआ से पूछ लें, और वे इसे ठीक कह दें, तो फिर और बदलाव की जरूरत ही नहीं होगी। इससे समस्या थोड़ी कम होगी और ज्यादा सोचना भी नहीं पड़ेगा। इसलिए अपनी साथी बहन को मैंने सुझाव दिया कि हम अगुआ से पूछ लें, ताकि हमें सुकून रहे। लेकिन यह बोलते ही मुझे लगा कि कोई बात थी जो सही नहीं थी। इस हालत से मैं बहुत परिचित था, यानी कोई अलग राय सुनते ही मेरी एक ही प्रतिक्रिया होती : अगुआ से पूछ लें, उन्हें फैसला करने दें। अगर अगुआ ने स्वीकृति दे दी, तो हमें इस बारे में फिक्र नहीं करनी पड़ेगी और हम आगे बढ़ सकेंगे; अगर उन्होंने कुछ समस्याएँ बताईं, तो हम ज़रूरी बदलाव कर लेंगे। हर बार हम यही करते थे। दरअसल, ऐसा नहीं था कि हम वीडियो के सिद्धांतों और जरूरतों के बारे में नहीं जानते थे। हम सत्य खोज सकते थे, इस तरह की समस्याओं के लिए सिद्धांतों के अनुसार काम कर सकते थे, अगुआ ने तो साफ कहा था कि उन्होंने बस मोटे तौर पर वीडियो की समीक्षा की थी, जबकि हमें छोटी-छोटी समस्याओं की जाँच कर ठीक करना था। मुझे यह जिम्मेदारी पूरी करनी थी, और यही मेरा काम था। फिर मैं अपना दिल इसमें क्यों नहीं लगा रहा था? समस्याएँ या मतभेद सामने आने पर, मैं एकमत होने के लिए भाई-बहनों के साथ सिद्धांत नहीं खोज रहा था, जिम्मेदारी नहीं दिखा रहा था, मैं तो यह काम अगुआ को सौंप दे रहा था, अपना कर्तव्य नहीं कर रहा था। फिर मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए : “कुछ लोग अपने कर्तव्यों में हमेशा निष्क्रिय रहते हैं, हमेशा बैठे रहकर प्रतीक्षा करते हैं और दूसरों पर निर्भर रहते हैं। यह कैसा रवैया है? यह गैरजिम्मेदारी है। ... तुम केवल शब्दों और सिद्धांतों के बारे में बात करते हो और केवल कर्ण-प्रिय बातें कहते हो, लेकिन तुम कोई व्यावहारिक कार्य नहीं करते। यदि तुम अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते, तो तुम्हें इस्तीफा दे देना चाहिए। निष्क्रिय रहकर पद पर मत बने रहो। क्या ऐसा करना परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाना और कलीसिया के काम को खतरे में डालना नहीं है? तुम जिस तरह से बातें करते हो, ऐसा लगता है जैसे तुम सभी तरह के सिद्धांत समझते हो, लेकिन जब काम करने के लिए कहा जाता है, तो तुम लापरवाह और अनमने हो जाते हो, और जरा भी कर्तव्यनिष्ठ नहीं रहते। क्या यही परमेश्वर के लिए ईमानदारी से खुद को खपाना है? जब परमेश्वर की बात आती है तो तुम ईमानदार नहीं होते, फिर भी तुम ईमानदारी का दिखावा करते हो। क्या तुम उसे धोखा दे सकते हो? जिस तरह से तुम आमतौर पर बातचीत करते हो, ऐसा लगता है कि तुममें बहुत आस्था है; तुम कलीसिया के स्तंभ और उसकी चट्टान बनना चाहते हो। लेकिन जब तुम कोई कर्तव्य निभाते हो, तो माचिस की तीली से भी कम उपयोगी होते हो। क्या यह परमेश्वर को जान-बूझकर धोखा देना नहीं है? क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश करने का क्या परिणाम होगा? वह तुमसे घृणा कर तुम्हें नकार देगा और तुम्हें निकाल बाहर करेगा! अपने कर्तव्य निभाने के जरिये सभी लोगों की कलई खुल जाती है—किसी व्यक्ति को बस कोई कर्तव्य सौंप दो, और तुम्हें यह जानने में अधिक समय नहीं लगेगा कि वह व्यक्ति ईमानदार है या कपटी, और वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे ईमानदारी से अपने कर्तव्य निभा सकते हैं और परमेश्वर के घर के कार्य को बनाए रखते हैं; जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे परमेश्वर के घर के कार्य को जरा भी बनाए नहीं रखते और वे अपने कर्तव्य निभाने में गैर-जिम्मेदार होते हैं। स्पष्टदर्शी लोगों को यह तुरंत स्पष्ट हो जाता है। अपना कर्तव्य खराब ढंग से निभाने वाला कोई भी व्यक्ति सत्य का प्रेमी या ईमानदार व्यक्ति नहीं होता; ऐसे तमाम लोग प्रकट कर निकाल दिए जाएँगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर कहता है हमें अपने कर्तव्य में जिम्मेदार होना चाहिए, व्यावहारिक कार्य करना चाहिए। अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से करने का यही तरीका है। अगर हम अपना कर्तव्य लगन से न करें, यूँ ही निपटा दें, समस्याओं को गंभीरता से न लें या जिम्मेदारी न उठाएँ, हमेशा किसी और पर जिम्मेदारी डालना चाहें, और सतही काम करें, तो अपना कर्तव्य ठीक से नहीं कर सकेंगे, और परमेश्वर असंतुष्ट होगा। परमेश्वर की नजरों में, ऐसे लोग बेकार होते हैं, कोई कर्तव्य निभाने योग्य नहीं होते। मैंने देखा मैं वैसा ही हूँ जैसा परमेश्वर ने उजागर किया। अपने कर्तव्य में समस्याएँ आने पर, अगर मैं इसे लगन से करूँ, दूसरे भाई-बहनों के साथ प्रार्थना करूँ, खोज करूँ, सिद्धांतों के बारे में संगति करूँ, तो हम एकमत होकर हल ढूँढ़ सकेंगे। लेकिन मुझे लगा यह एक मुसीबत है, मैंने ऐसी मेहनत नहीं करनी चाही। इसलिए मैंने सीधे अगुआ के पास जाना चाहा, यह सोचकर कि उन्होंने फैसला कर दिया, तो कम मुसीबत उठानी पड़ेगी। इससे बहुत-सी मुश्किलें कम हो जाएँगी। वरना, जाने कब तक यही काम करते रहेंगे, फिर भी जवाब नहीं पा सकेंगे। इसलिए मैंने बहुत-सी समस्याएँ अगुआ को सौंप दीं। टीम अगुआ के रूप में, न मैं अपनी जिम्मेदारियाँ उठा रहा था, न ही वह कीमत चुका रहा था जो मुझे चुकानी थी। काम के बारे में हमारी चर्चाओं में भी, कभी-कभार मैंने कुछ समस्याएँ देखीं या पवित्र आत्मा का कुछ प्रबोधन देखा, लेकिन मेरे समझा देने के बाद, अगर भाई-बहन कोई दूसरी राय दे देते, तो मैं चुप्पी साध लेता। मुझे डर लगता कि दूसरे मुझे घमंडी कहेंगे, मुझे इस बात का और ज्यादा डर था कि समस्याएँ आने पर, मुझे जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी। मुझे लगता, मैं अपनी राय दे चुका, अब विचार करना उनके ऊपर था, अगर हम एकमत नहीं हो पाए, तो अगुआ से पूछ सकते हैं। इस तरह, समस्या आने पर इसकी जिम्मेदारी पूरी तरह मुझ पर लौटकर नहीं आएगी। यह सोचना तो दूर कि कलीसिया को किससे लाभ होगा, मैं यह जानने की भी कोशिश नहीं कर रहा था कि सत्य सिद्धांतों के अनुसार कैसे काम करूँ। मैं जरा भी कीमत नहीं चुकाना चाहता था, और गैर-जिम्मेदार बन रहा था। ऊपर से तो मैं समस्याएँ पता लगाकर सवाल उठा रहा था, लेकिन उन्हें सुलझा नहीं रहा था। मैं फैसला हमेशा दूसरों पर छोड़ना चाहता था, खुद फैसले नहीं करता था। क्या मैं स्वार्थी और नीच बनकर, चालें नहीं चल रहा था? मैं कलीसिया के हितों को कायम नहीं रख रहा था। पहले, जब भी हमारे सामने कोई समस्या आती थी, मैं हमेशा अगुआ से पूछता था, सोचता कि समझ न आने पर, आँखें बंद करके खुद पर भरोसा करने के बजाय पूछ लेना ही उचित है। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से, मैं समझ सकता हूँ कि मैं गैर-जिम्मेदार था, अपने कर्तव्य में लापरवाह था, समर्पित नहीं था। अब यह जान लेने के बाद, समझ गया कि मैं सच में मंदबुद्धि और भोंदा था। इन हालात का सामना करते हुए, मैंने कभी भी सत्य नहीं खोजा, सबक नहीं सीखा। अपने कर्तव्य में मुसीबत मोल लेने से बचता, उसकी जिम्मेदारी नहीं लेता। यह कर्तव्य करने का बहुत खतरनाक तरीका था। अब मुझे समस्याएँ नजर आईं, और मेरी साथी के विचार अलग थे। अगर मैंने उसके साथ एकमत होने के लिए सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं की, या हल नहीं ढूँढ़ा, बल्कि अगुआ से पूछने दौड़ पड़ा, तो यह स्पष्ट रूप से बेमन से काम करना था। मैं समझ गया कि मुझे अपनी हालत को बदलना होगा, अगर मैं बीच का रास्ता पकड़कर गैर-जिम्मेदार बना रहा, तो मैं जानबूझ कर गलती करता रहूँगा। इसलिए मैंने अपनी साथी को सुझाया, कि हम एक और वीडियो बनाएँ और दोनों की तुलना करें, फिर उनमें से जो बेहतर लगे, अगुआ से उसकी समीक्षा करने को कहें। वह इस व्यवस्था के लिए राजी हो गई। इस पर अमल करने के बाद, मुझे थोड़ा सुकून महसूस हुआ।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “अगर किसी को कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी लेने से डर लगता है तो क्या वह कायर है या उसके स्वभाव में कोई समस्या है? तुम्हें अंतर बताने में समर्थ होना चाहिए। दरअसल, यह कायरता का मुद्दा नहीं है। यदि वह व्यक्ति धन के पीछे भाग रहा है, या वह अपने हित में कुछ कर रहा है, तो वह इतना बहादुर कैसे हो सकता है? वह कोई भी जोखिम उठा लेगा। लेकिन जब वह कलीसिया के लिए, परमेश्वर के घर के लिए काम करता है, तो वह कोई जोखिम नहीं उठाता। ऐसे लोग स्वार्थी, नीच और बेहद कपटी होते हैं। कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी न उठाने वाला व्यक्ति परमेश्वर के प्रति जरा भी ईमानदार नहीं होता, उसकी वफादारी की क्या बात करना। किस तरह का व्यक्ति जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत करता है? किस प्रकार के इंसान में भारी बोझ वहन करने का साहस है? जो व्यक्ति अगुआई करते हुए परमेश्वर के घर के काम के सबसे महत्वपूर्ण पलों में बहादुरी से आगे बढ़ता है, जो अहम और अति महत्वपूर्ण कार्य देखकर बड़ी जिम्मेदारी उठाने और मुश्किलें सहने से नहीं डरता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार होता है, मसीह का अच्छा सैनिक होता है। क्या बात ऐसी है कि लोग कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने से इसलिए डरते हैं, क्योंकि उन्हें सत्य की समझ नहीं होती? नहीं; समस्या उनकी मानवता में होती है। उनमें न्याय या जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे स्वार्थी और नीच लोग होते हैं, वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते, और वे सत्य जरा भी नहीं स्वीकारते। इन कारणों से उन्हें बचाया नहीं जा सकता। परमेश्वर के विश्वासियों को सत्य हासिल करने के लिए बहुत भारी कीमत चुकानी ही होगी, उसे अभ्यास में लाने के लिए उन्हें बहुत-सी कठिनाइयों से गुजरना होगा। उन्हें बहुत-सी चीजों का त्याग करना होगा, दैहिक-सुखों को छोड़ना होगा और कष्ट उठाने पड़ेंगे। तब जाकर वे सत्य का अभ्यास करने योग्य बन पाएंगे। तो, क्या जिम्मेदारी लेने से डरने वाला इंसान सत्य का अभ्यास कर सकता है? यकीनन वह सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता, सत्य हासिल करना तो दूर की बात है। वह सत्य का अभ्यास करने और अपने हितों को होने वाले नुकसान से डरता है; उसे अपमानित और उपेक्षित होने का डर होता है, उसे आलोचना का डर होता है, और वह सत्य का अभ्यास करने की हिम्मत नहीं करता। नतीजतन, वह उसे हासिल नहीं कर सकता। परमेश्वर में उसका विश्वास चाहे जितना पुराना हो, वह उसका उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता। परमेश्वर के घर में कर्तव्य करने वाले लोग ऐसे होने चाहिए जो कलीसिया के काम को अपना दायित्व समझें, जो जिम्मेदारी लें, सत्य सिद्धांत कायम रखें, और जो कष्ट सहकर कीमत चुकाएँ। अगर कोई इन क्षेत्रों में कम होता है, तो वह कर्तव्य करने के अयोग्य होता है, और कर्तव्य करने की शर्तों को पूरा नहीं करता है। कई लोग ऐसे होते हैं, जो कर्तव्य पालन की जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। उनका डर मुख्यतः तीन तरीकों से प्रकट होता है। पहला यह है कि वे ऐसे कर्तव्य चुनते हैं, जिनमें जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता नहीं होती। अगर कलीसिया का अगुआ उनके लिए किसी कर्तव्य पालन की व्यवस्था करता है, तो पहले वे यह पूछते हैं कि क्या उन्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी : अगर ऐसा होता है, तो वे उसे स्वीकार नहीं करते। अगर उन्हें उसकी जिम्मेदारी लेने और उसके लिए जिम्मेदार होने की आवश्यकता नहीं होती, तो वे उसे अनिच्छा से स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन फिर भी वे यह देख लेते हैं कि काम थका देने वाला या परेशान करने वाला तो नहीं, और कर्तव्य को अनिच्छा से स्वीकार कर लेने के बावजूद, वे उसे अच्छी तरह से करने के लिए प्रेरित नहीं होते, उस स्थिति में भी वे लापरवाह और असावधान रहना पसंद करते हैं। आराम, कोई मेहनत नहीं, और कोई शारीरिक कठिनाई नहीं—यह उनका सिद्धांत होता है। दूसरा तरीका यह है कि जब उन पर कोई कठिनाई आती है या किसी समस्या से उनका सामना होता है, तो उनकी टालमटोल का पहला तरीका यह होता है कि उसकी रिपोर्ट किसी अगुआ को कर दी जाए और अगुआ को ही उसे सँभालने और हल करने दिया जाए, और आशा की जाए कि उनके आराम में कोई खलल नहीं पड़ेगा। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि अगुआ उस मुद्दे को कैसे सँभालता है, वे खुद उस पर कोई ध्यान नहीं देते—अगर उनकी जिम्मेदारी नहीं है, तो उनके लिए सब ठीक है। क्या ऐसा कर्तव्य-पालन परमेश्वर के प्रति निष्ठा है? इसे अपनी जिम्मेदारी दूसरे के सिर मढ़ना, कर्तव्य की उपेक्षा करना, चालाकियाँ करना कहा जाता है। यह केवल बातें बनाना है; वे कुछ भी वास्तविक नहीं कर रहे हैं। वे मन में कहते हैं, ‘अगर यह चीज मुझे ही सुलझानी है, तो अगर मैं गलती कर बैठा तो होगा? जब वे देखेंगे कि किसे दोष देना है, तो क्या वे मुझे नहीं पकड़ेंगे? क्या इसकी जिम्मेदारी सबसे पहले मुझ पर नहीं आएगी?’ उन्हें इसी बात की चिंता रहती है। लेकिन क्या तुम मानते हो कि परमेश्वर सबकी जाँच करता है? गलतियाँ सबसे होती हैं। अगर किसी नेक इरादे वाले व्यक्ति के पास अनुभव की कमी है और उसने पहले कोई मामला नहीं सँभाला है, लेकिन उसने पूरी मेहनत की है, तो यह परमेश्वर को दिखता है। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सभी चीजों और मनुष्य के हृदय की जाँच करता है। अगर कोई इस पर भी विश्वास नहीं करता, तो क्या वह गैर-विश्वासी नहीं है? फिर ऐसे व्यक्ति के कर्तव्य निभाने के मायने ही क्या हैं? ... एक और तरीका है, जिससे किसी व्यक्ति का कर्तव्य-प्रदर्शन में जिम्मेदारी लेने का डर प्रकट होता है। जब ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो उनमें से कुछ लोग बस थोड़ा-सा सतही, सरल कार्य करते हैं, ऐसा कार्य जिसमें जिम्मेदारी लेना शामिल नहीं होता। जिस कार्य में कठिनाइयाँ और जिम्मेदारी लेना शामिल होता है, उसे वे दूसरों पर डाल देते हैं, और अगर कुछ गलत हो जाता है, तो दोष उन लोगों पर मढ़ देते हैं और अपना दामन साफ रखते हैं। ... अगर उन्हें अपना कर्तव्य निभाने में जिम्मेदारी का एहसास नहीं है, तो वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा सकते हैं? जो लोग वास्तव में खुद को परमेश्वर के लिए नहीं खपाते, वे कोई कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा सकते, और जो लोग जिम्मेदारी लेने से डरते हैं, वे अपने कर्तव्य निभाने पर सिर्फ देरी ही करेंगे। ऐसे लोग विश्वसनीय या भरोसेमंद नहीं होते; वे सिर्फ पेट भरने के लिए अपना कर्तव्य निभाते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन ने सच में मेरे दिल को छू लिया, लगा, जैसे परमेश्वर मेरी तब की हालत का सटीक बयान कर रहा था। कलीसिया ने मुझे जो काम सौंपा था उसे करने में, मैं सत्य सिद्धांतों पर काम नहीं कर रहा था, न ही परमेश्वर पर भरोसा कर रहा था। मैं तो समस्याओं से भाग रहा था, जिम्मेदारी से जी चुरा रहा था, समस्याएं अगुआ के कंधों पर डाल रहा था ताकि वे उन्हें संभालें। मैं वही करता जो अगुआ कहते, सोचता कि आखिरकार काम अच्छा न होने पर इसकी जिम्मेदारी मेरी नहीं होगी, मेरी काट-छाँट नहीं होगी। क्या यह चालें चलना नहीं था? मैंने यह भी माना कि काम करने का यह एक चालाक तरीका था। लेकिन परमेश्वर के वचनों में, मैंने देखा कि मैं अपनी जिम्मेदारी से बच रहा था, कर्तव्य की अनदेखी कर चालबाज बन रहा था। अपने कर्तव्य में परमेश्वर के प्रति धूर्त और कपटी बन रहा था। हमेशा अपने लिए एक रास्ता खुला रखता, ताकि जिम्मेदारी से बच सकूँ। मैं सच्चा नहीं था, न सच्ची कीमत चुका रहा था, न ही सब-कुछ करने की भरसक कोशिश कर रहा था। मुसीबत मोल लेने से बच रहा था, बेईमान बन रहा था, सेवाकार्य करते हुए भी समर्पित नहीं था। मैं कर्तव्य करने लायक नहीं था। मुझे एहसास हुआ कि जब भी कोई वीडियो पूरा तैयार कर लिया जाता, तो शुरुआती समीक्षा में अगुआ के ठीक कह देने पर, मैं उसे गंभीरता से नहीं देखता, न ही उसके बारे में बारीकी से सोचता। वीडियो तैयार करने के दौरान लोग सुझाव देते, तो भी उन पर ज्यादा ध्यान नहीं देता। बस सरसरी नजर से देख लेता और कहता, अच्छा है। मैं सच में गैर-जिम्मेदार था। नतीजा यह हुआ कि कुछ तैयार वीडियो में समस्याएँ रह गईं, उन्हें सुधार के लिए लौटाना पड़ा। कभी-कभी टीम वीडियो पर एकमत नहीं हो पाती, मैं कोई समस्या देखता, तो भी कोई निर्णायक बात नहीं कहता, मैं बस उसे अगुआ के पास ले आता ताकि वे फैसला करें। कभी-कभी हम किसी समस्या के सिद्धांतों को समझ नहीं पाते, यह पक्का नहीं कर पाते कि काम अच्छे स्तर का हुआ या नहीं, और गलतियाँ सुधारने के लिए हमें अगुआ के मार्गदर्शन की जरूरत होती। लेकिन कुछ समस्याएँ साफ तौर पर हमारी समझ के दायरे में होतीं, फिर भी कोई कमी देख कर, वह काम नहीं करता जो मैं कर सकता था। मैं कीमत नहीं चुकाता, न ही उस बारे में सोचता जो मुझे सोचना चाहिए था, इसके बजाय आसान रास्ता पकड़ लेता। मैं सत्य सिद्धांत नहीं खोजता, न ही सामने दिखी समस्याओं पर विचार करता। मैं भटकावों और नाकामियों का सारांश तैयार करने या उनसे सीखने की कोशिश भी नहीं करता। इस तरह काम करना मेरी आदत बन गई। मैं यह भी सोचता कि कर्तव्य में सभी गलतियाँ करते हैं, अगर मैंने कुछ समस्याओं की अनदेखी कर दी, तो इसलिए कि मुझमें काबिलियत की कमी थी। मैं समस्याएँ देख पाता हूँ या नहीं, इसे छोड़ भी दें, तो भी मुझमें वह जिम्मेदारी का एहसास नहीं था जो होना चाहिए। खुद को बचाने के लिए, मैं अपने कर्तव्य में लापरवाह और गैर-जिम्मेदार बन रहा था, समस्याएँ आने पर मैं उनकी जिम्मेदारी अगुआ पर छोड़ देता। मैं सत्य को तोड़-मरोड़कर, हर समस्या को किसी और की बना देता। अब समझ आया कि यह काबिलियत का मामला नहीं, मेरी इंसानियत की समस्या थी।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “अगर कोई समस्या आने पर तुम अपनी रक्षा करते हो और अपने लिए बचने का रास्ता रखते हो, पिछले दरवाजे से निकलना चाहते हो, तो क्या ऐसा करके तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो? यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है—यह धूर्त होना है। अब तुम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। कोई कर्तव्य निभाने का पहला सिद्धांत क्या है? वह यह है कि पहले तुम्हें भरसक प्रयास करते हुए अपने पूरे दिल से वह कर्तव्य निभाना चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी चाहिए। यह एक सत्य सिद्धांत है, जिसे तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए। अपने लिए बचाव का रास्ता छोड़ना, पिछला दरवाजा रखना, अविश्वासियों द्वारा किए जाए जाने वाले अभ्यास का सिद्धांत है, और उनका सबसे ऊँचा दर्शन है। सभी मामलों में सबसे पहले अपने बारे में सोचना और अपने हित बाकी सब चीजों से ऊपर रखना, दूसरों के बारे में न सोचना, परमेश्वर के घर के हितों और दूसरों के हितों के साथ कोई संबंध न रखना, अपने हितों के बारे में पहले सोचना और फिर बचाव के रास्ते के बारे में सोचना—क्या यह वह सब नहीं है जो एक अविश्वासी करता है? एक अविश्वासी ठीक ऐसा ही होता है। इस तरह का व्यक्ति कोई कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन सचमुच मेरे दिल में चुभ गए। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि जिस परिप्रेक्ष्य से मैंने अपना कर्तव्य निभाया वह एक अविश्वासी का परिप्रेक्ष्य था। समस्याओं का सामना करते समय, मैं पहले अपने हितों का ख्याल करता, डरता कि कोई भी समस्या लौट कर मुझ पर ही आएगी। देखने में लगता कि मैं अपना कर्तव्य कर रहा हूँ, लेकिन दरअसल, मैं कोई काम लगन से नहीं करता, सत्य नहीं खोजता या सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं करता, न ही कलीसिया के हितों का ध्यान रखता। मैं अपने कर्तव्य में थोड़ी मेहनत करके खुश रहता, हर रोज लापरवाही से काम करता। क्या यह ऐसा नहीं था कि कोई अविश्वासी अपने अधिकारी के लिए काम रहा हो? जब मेरी साथी की और मेरी राय अलग-अलग होती, तो मैं फैसला अगुआ पर क्यों छोड़ना चाहता था? यह जिम्मेदारी न उठाने का मामला था। साफ तौर पर कुछ वास्तविक समस्याएँ देखने के बावजूद, मैं फैसला अगुआ पर छोड़ देता, मुझे लगता कि यही सही है। मैं समझ गया कि जिम्मेदारी न उठाना मेरी प्रकृति का स्वाभाविक प्रकाशन था। मैं सच में धूर्त और स्वार्थी था, भरोसे के लायक नहीं था। मैं खिलवाड़ कर रहा था, चालबाज बन रहा था, मुझमें ज़रा भी सच्चाई नहीं थी। ऐसे लोग कोई कर्तव्य निभाने लायक नहीं होते। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “कुछ लोग अपने कर्तव्यों को निभाते समय बिल्कुल भी जिम्मेदारी से काम नहीं करते हैं, और हमेशा लापरवाही और बेपरवाही करते हैं। हालाँकि वे जानते हैं कि समस्या क्या है, लेकिन फिर भी वे उसका समाधान तलाश नहीं करना चाहते, और वे लोगों को नाराज करने से डरते हैं, इसलिए वे अपने कामों में जल्दबाजी करते हैं, जिसका नतीजा यह निकलता है कि उन्हें वह काम दोबारा करना पड़ता है। चूँकि तुम इस कर्तव्य को निभा रहे हो, इसलिए तुम्हें ही इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। तुम इस बात को गंभीरता से क्यों नहीं लेते हो? तुम इतने असावधान और लापरवाह क्यों हो? और जब तुम इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हो तो क्या तुम अपनी जिम्मेदारियों में लापरवाही करते हो? चाहे प्राथमिक जिम्मेदारी कोई भी अपने सिर ले, लेकिन अपने आसपास बाकी चीजों पर नजर रखने के लिए सब जिम्मेदार हैं, हर किसी को यह कार्य करना चाहिए और हर किसी में जिम्मेदारी की यह भावना होनी चाहिए—लेकिन तुम लोगों में से कोई भी ध्यान नहीं देता, तुम सचमुच बेपरवाह हो, तुम में बिल्कुल भी वफादारी नहीं है, तुम लोग अपने कर्तव्यों में लापरवाही करते हो! ऐसा नहीं है कि तुम लोग समस्या से अनजान हो बल्कि बात यह है कि तुम जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं होते, और जब तुम कोई समस्या देखते हो, तो तुम इस मामले पर कोई ध्यान नहीं देना चाहते, तुम ‘काफी है’ पर समझौता कर लेते हो। क्या इस तरह से लापरवाही और बेपरवाही करना परमेश्वर को धोखा देने का प्रयास नहीं है? यदि जब मैं तुम लोगों के साथ सत्य के बारे में काम करूँ और संगति करूँ, और मुझे लगे कि ‘काफी है’ को स्वीकार किया जा सकता है, तो फिर तुम लोगों में से हर एक की काबिलियत और लक्ष्य के अनुरूप, तुम लोग आखिर उससे क्या हासिल कर सकते हो? यदि मेरा रवैया भी तुम लोगों जैसा होता, तो तुम लोग कुछ भी हासिल नहीं कर सकते थे। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? इसका एक पहलू यह है कि तुम लोग ईमानदारी से कुछ भी नहीं करते, और दूसरा पहलू यह है कि तुम लोगों में काबिलियत की बहुत कमी है, काफी सुस्त हो। इसका कारण यह है कि मेरी नजर में अपनी खराब काबिलियत के साथ तुम लोग बहुत सुस्त हो, और सत्य के प्रति प्रेम नहीं रखते, और सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, जिसके बारे में मुझे विस्तार से बताना चाहिए। मुझे हर बात स्पष्ट करके बतानी चाहिए, और अपने भाषण में उन्हें टुकड़े-टुकड़े करके बताना चाहिए, और हर पहलू से और हर तरह से इन चीजों के बारे में बात करनी चाहिए। केवल तभी तुम लोगों को कुछ समझ आएगा। यदि मैं तुम लोगों के साथ बेपरवाह होता, और अपनी मर्जी के मुताबिक किसी भी विषय पर बात करता, न उस पर विचार करता और न कष्ट उठाता, दिल से बात न करता, जब मेरा मन न होता तो न बोलता, तो तुम लोग क्या हासिल कर सकते थे? तुम लोगों की जितनी काबिलियत है, तुम लोग कभी भी सत्य को नहीं समझ पाते। तुम कुछ भी हासिल नहीं कर पाते, उद्धार पाना तो बहुत दूर की बात है। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता, बल्कि मैं विस्तार से बताऊँगा। मुझे विस्तार में बात करनी होगी और हर तरह के व्यक्ति की स्थिति, सत्य के प्रति लोगों के रवैये और हर प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव के बारे में उदाहरण देना होगा; तभी तुम लोग जान पाओगे कि मैं क्या कह रहा हूँ, और जो सुन रहे हो उसे समझ पाओगे। मैं चाहे सत्य के किसी भी पहलू पर संगति करूँ, मैं विभिन्न साधनों के माध्यम से बोलता हूँ, वयस्कों और बच्चों से उन्हीं की शैली में संगति करता हूँ, तर्क और कहानियों के रूप में बताता हूँ, सिद्धांत और अभ्यास का उपयोग करता हूँऔर अनुभवों की बात करता हूँ, ताकि लोग सत्य समझकर वास्तविकता में प्रवेश करें। इस तरह, जिनमें क्षमता है और जिनके पास दिल है, उनके पास सत्य समझने, स्वीकारने और बचाए जाने का मौका होगा। लेकिन अपने कर्तव्य के प्रति तुम लोगों का रवैया हमेशा लापरवाही का, अनमने बने रहने का और धीरे-धीरे काम करने का रहता है, तुम्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता कि तुम काम में कितनी रुकावट डाल रहे हो। तुम समस्याएँ हल करने के वास्ते सत्य की खोज के लिए आत्म-चिंतन नहीं करते, तुम इस पर जरा भी विचार नहीं करते कि परमेश्वर की गवाही देने के लिए अपने कर्तव्य को ठीक से कैसे निभाना है। इसे कर्तव्य विमुख होना कहते हैं। इस तरह तुम लोगों के जीवन का विकास बहुत धीमी गति से होता है लेकिन तुम्हें इस बात से परेशानी नहीं होती कि तुमने कितना समय बर्बाद कर दिया। वास्तव में, यदि तुम लोग अपना कर्तव्य ईमानदारी और जिम्मेदारी से निभाओ, तो तुम लोग पांच-छह साल में ही अपने अनुभवों की बात करने लगोगे और परमेश्वर की गवाही दोगे, और विभिन्न कार्य प्रभावशाली ढंग से किया जाएगा। लेकिन तुम लोग परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होने को तैयार नहीं हो और न ही तुम सत्य पर चलने का प्रयास करते हो। कुछ चीजें हैं जिन्हें कैसे करना है यह तुम लोग नहीं जानते, इसलिए मैं तुम्हें सटीक निर्देश देता हूँ। तुम लोगों को सोचना नहीं है, तुम्हें बस सुनना है और काम शुरू कर देना है। बस तुम्हें इतनी-सी जिम्मेदारी उठानी है—पर तुम लोगों से यह भी नहीं होता है। तुम लोगों की वफादारी कहाँ है? यह कहीं दिखाई नहीं देती! तुम लोग सिर्फ कर्णप्रिय बातें करते हो। मन ही मन में तो तुम लोग जानते हो कि तुम्हें क्या करना चाहिए, लेकिन तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते। यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है, इसके मूल में सत्य से प्रेम का अभाव है। दिल ही दिल में तुम लोग अच्छी तरह जानते हो कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है—लेकिन तुम इसे अभ्यास में नहीं लाते। यह एक गंभीर समस्या है; तुम सत्य का अभ्यास करने के बजाय उसे घूरते रहते हो। तुम परमेश्वर का आज्ञापालन करने वाले इंसान नहीं हो। परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने के लिए, तुम्हें कम से कम सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना चाहिए और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। यदि तुम कर्तव्य पालन में सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, तो फिर इसका अभ्यास कहाँ करोगे? और यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते हो, तो तुम गैर-विश्वासी हो। यदि तुम लोग सत्य नहीं स्वीकारते—सत्य का अभ्यास तो बिल्कुल नहीं करते—और परमेश्वर के घर में बस जैसे-तैसे काम करते हो, तो असल में तुम्हारा मकसद क्या है? क्या तुम परमेश्वर के घर को अपना सेवानिवृत्ति का ठिकाना या खैराती घर बनाना चाहते हो? यदि ऐसा सोच रहे हो, तो यह तुम्हारी भूल है—परमेश्वर का घर मुफ्तखोरों और उड़ाने-खाने वाले लोगों के लिए नहीं है। जिन लोगों की इंसानियत अच्छी नहीं है, जो खुशी-खुशी अपना कर्तव्य नहीं निभाते, जो कर्तव्य निभाने योग्य नहीं हैं, उन सबको साफ किया जाना चाहिए; जो गैर-विश्वासी सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते, उन्हें निकाल दिया जाना चाहिए। कुछ लोग सत्य समझते तो हैं लेकिन कर्तव्य निभाते हुए उसे अमल में नहीं ला पाते। समस्या देखकर भी वे उसका समाधान नहीं करते और भले ही वे जानते हों कि यह उनकी जिम्मेदारी है, तो वे उसे अपना सर्वस्व नहीं देते। जिन जिम्मेदारियों को तुम निभाने के काबिल होते हो, जब तुम उन्हें नहीं निभाते हो, तो तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का क्या मूल्य या प्रभाव रह जाता है? क्या इस तरह से परमेश्वर में विश्वास रखना सार्थक है? अगर कोई व्यक्ति सत्य समझकर भी उस पर अमल नहीं करता, उन कठिनाइयों को सह नहीं पाता जो उसे सहनी चाहिए, तो ऐसा व्यक्ति कर्तव्य निभाने योग्य नहीं होता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने बहुत शर्मिंदगी महसूस की। लोगों के साथ अपने बर्ताव में परमेश्वर बिल्कुल सच्चा है। हमें बचाने के लिए, वह हमारे साथ संगति के लिए सभी तरीके आजमाता है, सत्य के विभिन्न पहलुओं के बारे में हमारे साथ विस्तार से संगति करता है, और ऐसा करते हुए वह बहुत धैर्य से काम लेता है। अगर हम समझ न सकें, तो वह हमें बहुत-से उदाहरण देता है, हमारा सिंचन और पोषण करने के लिए सत्य पर संगति करता है, उसने बड़ी-से-बड़ी कीमत चुकाई है। मैंने कर्तव्य निभाने के अपने रवैये पर विचार किया, तो एहसास हुआ कि कलीसिया मुझे इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य सौंप रहा था, मगर मैं जिम्मेदारी नहीं उठा रहा था। मैं लापरवाही दिखा रहा था, जहां भी हो सके, ढिलाई दिखा रहा था, चालें चल रहा था और धूर्त बन रहा था। मेरी इंसानियत कहाँ थी? परमेश्वर हमारे साथ सच्चा था, लेकिन मैंने उसे छल-कपट के सिवाय कुछ नहीं दिया। पहले, परमेश्वर के वचनों में मैंने बुरी इंसानियत वाले कुछ लोगों के बारे में पढ़ा था, लेकिन मैंने इसके तार खुद से नहीं जोड़े। फिर समझ आया कि मेरी इंसानियत सचमुच बुरी थी, मुझमें विवेक नहीं था। लगता तो था कि मैं हर दिन अपना कर्तव्य करके थोड़ी-थोड़ी कीमत चुका रहा हूँ, लेकिन मैं पूरी लापरवाही कर रहा था। मेरा दिल परमेश्वर के सामने नहीं था। मैं अपना कर्तव्य लगन से नहीं कर रहा था, इसमें सब-कुछ नहीं लगा रहा था, विचारशील और कर्तव्यनिष्ठ नहीं था। मैं सतही तौर पर काम करके जैसे-तैसे उसे निपटा देता था। मैं कर्तव्य नहीं निभा रहा था—मैं सेवा करने के स्तर का भी नहीं था। मैं जानता था कि अपनी गैर-जिम्मेदारी के कारण मैंने काम को जो नुकसान पहुँचाया था उसकी भरपाई नहीं कर सकता। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर प्रायश्चित का एक मौका देने की विनती की, और तभी से मैंने कर्तव्य में अपना रवैया बदल देने की ठान ली। मैं इतना लापरवाह नहीं हो सकता।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “चूँकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, तो वे अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर अनमने और लापरवाह रहते हैं। यह सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है। अगर लोगों को अपने कर्तव्य ठीक से निभाने हैं, तो उन्हें सबसे पहले अनमनेपन और लापरवाही की यह समस्या सुलझानी चाहिए। अगर उनका रवैया अनमना और लापरवाह होगा, तो वे अपने कर्तव्य उचित ढंग से नहीं निभा पाएँगे, जिसका अर्थ है कि अनमनेपन और लापरवाही की समस्या हल करना बेहद जरूरी है। तो उन्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? पहले, उन्हें अपनी मनःस्थिति की समस्या का समाधान करना चाहिए; उन्हें अपने कर्तव्यों को सही तरह से लेना चाहिए, और चीजों को गंभीरता और जिम्मेदारी की भावना के साथ करना चाहिए। उन्हें धोखेबाजी या अनमनेपन का इरादा नहीं रखना चाहिए। कर्तव्य परमेश्वर के लिए निभाया जाता है, किसी व्यक्ति के लिए नहीं; यदि लोग परमेश्वर की जाँच स्वीकारने में सक्षम होते हैं, तो उनकी मनःस्थिति सही होगी। इसके अलावा, कोई कार्य करने के बाद, लोगों को उसे जाँचना चाहिए, और उस पर चिंतन करना चाहिए, और अगर उन्हें दिल में थोड़ी बेचैनी महसूस हो, और विस्तृत निरीक्षण के बाद उन्हें पता चले कि वास्तव में कोई समस्या है, तो उन्हें बदलाव करने चाहिए; ये बदलाव होने के बाद उन्हें अपने दिल में चैन का एहसास होगा। जब लोगों को बेचैनी महसूस होती है, तो यह साबित करता है कि कोई समस्या है, और उन्हें, विशेष रूप से महत्वपूर्ण चरणों पर, जो कुछ भी उन्होंने किया है, उसकी पूरी लगन से जाँच करनी चाहिए। यह अपने कर्तव्य निभाने के प्रति एक जिम्मेदार रवैया है। जब व्यक्ति गंभीर हो सकता है, जिम्मेदारी ले सकता है, और अपना पूरा तन-मन दे सकता है, तो काम सही तरीके से पूरा किया जाएगा। कभी-कभी तुम्हारी मनःस्थिति सही नहीं होती, और साफ-साफ नजर आने वाली गलती भी ढूँढ़ या पकड़ नहीं पाते। अगर तुम्हारी मनःस्थिति ठीक होती, तो पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन से तुम वह समस्या पहचानने में सक्षम होते। अगर पवित्र आत्मा तुम्हारा मार्गदर्शन करे और तुम्हें जागरूकता दे, दिल में स्पष्टता महसूस करने दे और जानने दे कि गलती कहाँ है, तो तब तुम भटकाव दूर करने और सत्य सिद्धांतों के लिए प्रयास करने में सक्षम होगे। अगर तुम्हारी मनःस्थिति सही न हो पाए, और तुम लोग अन्यमनस्क और लापरवाह रहो, तो क्या तुम गलती देख पाओगे? तुम नहीं देख पाओगे। इससे क्या पता चलता है? यह दिखाता है कि अपने कर्तव्य सही तरह से निभाने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि लोग सहयोग करें; उनकी मानसिक स्थिति बहुत महत्वपूर्ण है, और वे अपनी सोच और विचारों को कहाँ लगाते हैं, वह भी बहुत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर इसकी जाँच करता है और यह देख सकता है कि अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय, लोग किस मनोदशा में होते हैं। यह महत्वपूर्ण है कि अपने कार्य करते समय लोग उसमें अपने पूरे दिल और पूरी शक्ति का प्रयोग करें। उनका सहयोग काफी महत्वपूर्ण घटक होता है। यदि लोग प्रयास करें कि अपने जिन कर्तव्यों का निर्वहन कर चुके हैं और जो चीजें कर चुके हैं, उन्हें लेकर कोई अफसोस न रहे परमेश्वर के कर्जदार न रहें, केवल तभी वे अपने पूरे दिल और पूरी शक्ति से कार्य कर रहे होंगे। यदि तुम अपना कर्तव्य निभाने में अपना पूरा मन और शक्ति लगाने में लगातार असफल होते हो, यदि तुम हमेशा ही लापरवाह और अनमने रहते हो, काम को जबरदस्त नुकसान पहुंचाते हो और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित प्रभावों से बहुत पीछे रहते हो, तो तुम्हारे साथ केवल एक ही चीज हो सकती है : तुम्हें निकाल दिया जाएगा। तो क्या तब भी पछतावे का समय होगा? नहीं होगा। ऐसे कार्यकलाप शाश्वत विलाप, एक दाग बन जाएँगे! सदा लापरवाह और अनमना रहना एक दाग है, यह एक गंभीर अपराध है—हाँ या न? (हाँ।) तुम्हें अपने दायित्वों को और तुम्हें जो कुछ भी करना है, उसे पूरे मनोयोग से करने का प्रयास करना चाहिए, तुम्हें लापरवाह और अनमना नहीं होना चाहिए, या कोई पछतावा नहीं रहना चाहिए। यदि तुम ऐसा कर सको, तो तुम जो कर्तव्य निभाओगे, परमेश्वर उसे याद रखेगा। जिन कार्यों को परमेश्वर द्वारा याद रखा जाता है वे अच्छे कर्म होते हैं। फिर ऐसे कौन-से कार्य हैं जिन्हें याद नहीं रखा जाता? (वे अपराध और कुकर्म होते हैं।) ऐसा हो सकता है कि इस समय उन कार्यों का जिक्र करने पर तुम यह स्वीकार न करो कि वे बुरे कर्म हैं, लेकिन अगर ऐसा दिन आता है जब इन चीजों के गंभीर परिणाम सामने आते हैं, और वे चीजें नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करती हैं, तब तुम्हें समझ आ जाएगा कि ये चीजें मात्र व्यवहार संबंधी अपराध नहीं हैं, बल्कि बुरा कर्म हैं। जब तुम्हें इसका एहसास होगा, तुम पछताओगे और सोचोगे : ‘मुझे थोड़ी-बहुत रोकथाम करनी चाहिए थी! अगर मैंने शुरू में इस पर थोड़ा और विचार और प्रयास कर लिया होता, तो इस समस्या से बचा जा सकता था।’ कोई भी चीज तुम्हारे हृदय पर हमेशा के लिए लगे इस धब्बे को मिटा नहीं सकेगी और अगर यह तुम पर एक स्थायी ऋण बन गई, तो तुम परेशानी में पड़ जाओगे। इसलिए आज तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेश का पालन पूरे मनोयोग से करने का प्रयास करना चाहिए, हर कर्तव्य को स्पष्ट विवेक के साथ, बिना किसी पछतावे के इस तरह से करना चाहिए जिसे परमेश्वर याद रखे। तुम जो भी करो, लापरवाह और अनमने मत बनो। अगर तुम आवेश में आकर कोई गलती करते हो और यह गंभीर अपराध है, तो यह कभी नहीं मिटने वाला दाग बन जाएगा। जब तुम्हें पछतावा होगा, तुम उनकी भरपाई नहीं कर पाओगे, और तुम्हें हमेशा के लिए उनका पछतावा रहेगा। इन दोनों मार्गों को स्पष्टता के साथ देखना चाहिए। परमेश्वर से तारीफ पाने के लिए तुम्हें कौन-सा मार्ग चुनना चाहिए? बिना किसी पछतावे के, अपने पूरे मन और ताकत के साथ अपना कर्तव्य निभाना, और अच्छे कर्मों की तैयारी करना और उन्हें जमा करना। तुम जो भी करो, ऐसा बुरा काम मत करो जो दूसरों को उनका कर्तव्य निभाने में परेशान करे, ऐसा कुछ मत करो जो सत्य के खिलाफ जाता हो, और परमेश्वर के विरोध में हो, और जिससे जीवन भर पछताना पड़े। क्या होता है जब कोई व्यक्ति बहुत सारे अपराध कर देता है? वह परमेश्वर की उपस्थिति में ही अपने प्रति उसके क्रोध को और भड़का रहा है! अगर तुम और ज्यादा अपराध करते हो, और तुम्हारे प्रति परमेश्वर का क्रोध और ज्यादा बढ़ जाता है, तो अंततः, तुम्हें दंड मिलेगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। इससे पहले, मैंने मान लिया था कि मैं अपने कर्तव्य में सतही था, लेकिन मैंने कभी नहीं समझा कि मुझ पर इसके नतीजे क्या होंगे, या ऐसे इंसान को परमेश्वर किस तरह देखेगा, परिभाषित करेगा। परमेश्वर के वचन से अब मैं समझ गया हूँ कि ऐसे लोग भले ही बड़ी दुष्टता करते नहीं दिखाई देते, लेकिन कर्तव्य के प्रति उनका रवैया परमेश्वर को घिनौना लगता है, ऐसे लोग प्रायश्चित न करने पर, अंत में, उद्धार का अपना मौका गवाँ देंगे। इस हालत में उजागर किए जाने पर, मैं समझ गया कि अपना कर्तव्य यूँ ही निपटाने और गैर-जिम्मेदार होने की मेरी समस्या कितनी गंभीर थी। मेरी गैर-जिम्मेदारी के कारण ही वीडियो में कई बार बदलाव करने पड़े, जिससे हमारा सारा काम रुक गया। यह एक अपराध था। अगर मैंने अपनी हालत तुरंत ठीक नहीं की, लापरवाह और गैर-जिम्मेदार बना रहा, तो मैं परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करने पर कभी भी निकाला जा सकता था, तब पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होती। परमेश्वर के वचनों से, हमें अपने कर्तव्य में लापरवाही को ठीक करने के लिए अभ्यास का रास्ता मिला। अव्वल तो हमारी सोच ठीक होनी चाहिए, जिम्मेदारी उठानी चाहिए और परमेश्वर की जाँच स्वीकारनी चाहिए। फिर सावधानी से चीजों की समीक्षा करनी चाहिए, सामने आई समस्याओं की यूँ ही अनदेखी नहीं करनी चाहिए।

फिर हमने परमेश्वर के वचनों पर अमल किया। अपनी नाकामियों के कारणों का सारांश तैयार किया, कड़ी मेहनत से, एक भी बारीकी को छोड़े बिना, सिद्धांतों के आधार पर वीडियो की जांच की। हमने साथ मिलकर सत्य सिद्धांत खोजे और तय किया कि ज़रूरी बदलाव कैसे करने हैं। भाई-बहनों के साथ इस संगति और चर्चा से हमें सिद्धांतों को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिली, हमें एहसास हुआ कि भले ही हमने कुछ वीडियो कई-कई बार देखे थे, मगर अब ज्यादा जागरूक होने के कारण हमने बारीकियों की और ज्यादा समस्याएँ देखीं। इससे हम साफ तौर पर समझ पाए कि पहले अपने कर्तव्य में मुसीबत मोल न लेने की हमारी समस्या कितनी गंभीर थी। फिर हमने विश्लेषण किया कि सिद्धांतों के आधार पर उन वीडियो में कैसे बदलाव करने हैं, जो बदलाव हम कर सकते हैं उन्हें कैसे पूरा करना है, और फिर कोई समस्या न मिलने पर उसे समीक्षा के लिए अगुआ को सौंपना है। इस पर अमल करने के बाद सबको बहुत सुकून मिला। ज़रूरी बदलाव करने के बाद हमने ये वीडियो अगुआ को समीक्षा के लिए दे दिए। उन्होंने कहा, “ये बहुत अच्छे हैं, मुझे इनमें कोई समस्या नहीं दिख रही। इस बार आपने अच्छा काम किया।” अगुआ के यह कहने पर, मैं परमेश्वर का दिल से धन्यवाद किए बिना नहीं रह सका। मैं जान गया, ऐसा नहीं था कि हमने अच्छा काम किया। जब हम वापस मुड़कर प्रायश्चित के लिए तैयार हुए, और उतने लापरवाह नहीं रहे, तो परमेश्वर ने हमारी अगुआई कर, हमें प्रबुद्ध किया। इस अनुभव ने मुझे सचमुच दिखाया कि जब आप किसी कर्तव्य को लगन से करते हैं, तभी वह सार्थक होता है और आपको सुकून मिलता है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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