प्रभु में विश्वास करने के बाद हमारे पाप क्षमा कर दिये गये थे, लेकिन हम अब भी अक्सर पाप क्‍यों करते हैं; हम पापों के चंगुल से अंतत: कब छूट पायेंगे?

15 मार्च, 2021

बाइबल के प्रासंगिक पद:

"मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा, क्योंकि वह अपनी ओर से न कहेगा परन्तु जो कुछ सुनेगा वही कहेगा, और आनेवाली बातें तुम्हें बताएगा" (यूहन्ना 16:12-13)

"सत्य के द्वारा उन्हें पवित्र कर: तेरा वचन सत्य है" (यूहन्ना 17:17)

"यदि कोई मेरी बातें सुनकर न माने, तो मैं उसे दोषी नहीं ठहराता; क्योंकि मैं जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं, परन्तु जगत का उद्धार करने के लिये आया हूँ। जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहरानेवाला तो एक है: अर्थात् जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा" (यूहन्ना 12:47-48)

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया, फिर भी उसने केवल समस्त मानवजाति की मुक्ति का कार्य पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना; उसने मनुष्य को उसके समस्त भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, अब जबकि मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिया गया है, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए वापस देह में लौट आया है, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया है। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे।

— "वचन देह में प्रकट होता है" की 'प्रस्तावना' से उद्धृत

अंत के दिनों का कार्य वचन बोलना है। वचनों के माध्यम से मनुष्य में बड़े परिवर्तन किए जा सकते हैं। इन वचनों को स्वीकार करने पर लोगों में अब जो परिवर्तन हुए हैं, वे उन परिवर्तनों से बहुत अधिक बड़े हैं, जो चिह्न और चमत्कार स्वीकार करने पर अनुग्रह के युग में लोगों में हुए थे। क्योंकि अनुग्रह के युग में हाथ रखकर और प्रार्थना करके दुष्टात्माओं को मनुष्य से निकाला जाता था, परंतु मनुष्य के भीतर का भ्रष्ट स्वभाव तब भी बना रहता था। मनुष्य को उसकी बीमारी से चंगा कर दिया जाता था और उसके पाप क्षमा कर दिए जाते थे, किंतु जहाँ तक इस बात का संबंध था कि मनुष्य को उसके भीतर के शैतानी स्वभावों से कैसे मुक्त किया जाए, तो यह कार्य अभी किया जाना बाकी था। मनुष्य को उसके विश्वास के कारण केवल बचाया गया था और उसके पाप क्षमा किए गए थे, किंतु उसका पापी स्वभाव उसमें से नहीं निकाला गया था और वह अभी भी उसके अंदर बना हुआ था। मनुष्य के पाप देहधारी परमेश्वर के माध्यम से क्षमा किए गए थे, परंतु इसका अर्थ यह नहीं था कि मनुष्य के भीतर कोई पाप नहीं रह गया था। पापबलि के माध्यम से मनुष्य के पाप क्षमा किए जा सकते हैं, परंतु मनुष्य इस समस्या को हल करने में पूरी तरह असमर्थ रहा है कि वह आगे कैसे पाप न करे और कैसे उसका भ्रष्ट पापी स्वभाव पूरी तरह से मिटाया और रूपांतरित किया जा सकता है। मनुष्य के पाप क्षमा कर दिए गए थे और ऐसा परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने के कार्य की वजह से हुआ था, परंतु मनुष्य अपने पुराने, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव में जीता रहा। इसलिए मनुष्य को उसके भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से पूरी तरह से बचाया जाना आवश्यक है, ताकि उसका पापी स्वभाव पूरी तरह से मिटाया जा सके और वह फिर कभी विकसित न हो पाए, जिससे मनुष्य का स्वभाव रूपांतरित होने में सक्षम हो सके। इसके लिए मनुष्य को जीवन में उन्नति के मार्ग को समझना होगा, जीवन के मार्ग को समझना होगा, और अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के मार्ग को समझना होगा। साथ ही, इसके लिए मनुष्य को इस मार्ग के अनुरूप कार्य करने की आवश्यकता होगी, ताकि उसका स्वभाव धीरे-धीरे बदल सके और वह प्रकाश की चमक में जी सके, ताकि वह जो कुछ भी करे, वह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार हो, ताकि वह अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर कर सके और शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो सके, और इसके परिणामस्वरूप पाप से पूरी तरह से ऊपर उठ सके। केवल तभी मनुष्य पूर्ण उद्धार प्राप्त करेगा। जिस समय यीशु अपना कार्य कर रहा था, उसके बारे में मनुष्य का ज्ञान तब भी अनिश्चित और अस्पष्ट था। मनुष्य ने हमेशा उसे दाऊद का पुत्र माना, और उसके एक महान नबी और उदार प्रभु होने की घोषणा की, जिसने मनुष्य को पापों से छुटकारा दिलाया। कुछ लोग अपने विश्वास के बल पर केवल उसके वस्त्र के किनारे को छूकर ही चंगे हो गए; अंधे देख सकते थे, यहाँ तक कि मृतक भी जिलाए जा सकते थे। कितु मनुष्य अपने भीतर गहराई से जड़ जमाए हुए भ्रष्ट शैतानी स्वभाव का पता लगाने में असमर्थ रहा, न ही वह यह जानता था कि उसे कैसे दूर किया जाए। मनुष्य ने बहुत अनुग्रह प्राप्त किया, जैसे देह की शांति और खुशी, एक व्यक्ति के विश्वास करने पर पूरे परिवार को आशीष, बीमारी से चंगाई, इत्यादि। शेष मनुष्य के भले कर्म और उसकी ईश्वर के अनुरूप दिखावट थी; यदि कोई इनके आधार पर जी सकता था, तो उसे एक स्वीकार्य विश्वासी माना जाता था। केवल ऐसे विश्वासी ही मृत्यु के बाद स्वर्ग में प्रवेश कर सकते थे, जिसका अर्थ था कि उन्हें बचा लिया गया है। परंतु अपने जीवन-काल में इन लोगों ने जीवन के मार्ग को बिलकुल नहीं समझा था। उन्होंने सिर्फ इतना किया कि अपना स्वभाव बदलने के किसी मार्ग को अपनाए बिना बस एक निरंतर चक्र में पाप किए और उन्हें स्वीकार कर लिया : अनुग्रह के युग में मनुष्य की स्थिति ऐसी थी। क्या मनुष्य ने पूर्ण उद्धार पा लिया है? नहीं! इसलिए, उस चरण का कार्य पूरा हो जाने के बाद भी न्याय और ताड़ना का कार्य बाकी रह गया था। यह चरण वचन के माध्यम से मनुष्य को शुद्ध बनाने और उसके परिणामस्वरूप उसे अनुसरण हेतु एक मार्ग प्रदान करने के लिए है। यह चरण फलदायक या अर्थपूर्ण न होता, यदि यह दुष्टात्माओं को निकालने के साथ जारी रहता, क्योंकि यह मनुष्य की पापपूर्ण प्रकृति को दूर करने में असफल रहता और मनुष्य केवल अपने पापों की क्षमा पर आकर रुक जाता। पापबलि के माध्यम से मनुष्य के पाप क्षमा किए गए हैं, क्योंकि सलीब पर चढ़ने का कार्य पहले ही पूरा हो चुका है और परमेश्वर ने शैतान को जीत लिया है। किंतु मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव अभी भी उसके भीतर बना रहने के कारण वह अभी भी पाप कर सकता है और परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है, और परमेश्वर ने मानवजाति को प्राप्त नहीं किया है। इसीलिए कार्य के इस चरण में परमेश्वर मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करने के लिए वचन का उपयोग करता है और उससे सही मार्ग के अनुसार अभ्यास करवाता है। यह चरण पिछले चरण से अधिक अर्थपूर्ण और साथ ही अधिक लाभदायक भी है, क्योंकि अब वचन ही है जो सीधे तौर पर मनुष्य के जीवन की आपूर्ति करता है और मनुष्य के स्वभाव को पूरी तरह से नया होने में सक्षम बनाता है; कार्य का यह चरण कहीं अधिक विस्तृत है। इसलिए, अंत के दिनों में देहधारण ने परमेश्वर के देहधारण के महत्व को पूरा किया है और मनुष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन-योजना का पूर्णतः समापन किया है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4)

मनुष्य को छुटकारा दिए जाने से पहले शैतान के बहुत-से ज़हर उसमें पहले ही डाल दिए गए थे, और हज़ारों वर्षों तक शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद मनुष्य के भीतर ऐसा स्थापित स्वभाव है, जो परमेश्वर का विरोध करता है। इसलिए, जब मनुष्य को छुटकारा दिलाया गया है, तो यह छुटकारे के उस मामले से बढ़कर कुछ नहीं है, जिसमें मनुष्य को एक ऊँची कीमत पर खरीदा गया है, किंतु उसके भीतर की विषैली प्रकृति समाप्त नहीं की गई है। मनुष्य को, जो कि इतना अशुद्ध है, परमेश्वर की सेवा करने के योग्य होने से पहले एक परिवर्तन से होकर गुज़रना चाहिए। न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से मनुष्य अपने भीतर के गंदे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने के योग्य हो सकता है। आज किया जाने वाला समस्त कार्य इसलिए है, ताकि मनुष्य को स्वच्छ और परिवर्तित किया जा सके; वचन के द्वारा न्याय और ताड़ना के माध्यम से, और साथ ही शुद्धिकरण के माध्यम से भी, मनुष्य अपनी भ्रष्टता दूर कर सकता है और शुद्ध बनाया जा सकता है। इस चरण के कार्य को उद्धार का कार्य मानने के बजाय यह कहना कहीं अधिक उचित होगा कि यह शुद्धिकरण का कार्य है। वास्तव में यह चरण विजय का और साथ ही उद्धार के कार्य का दूसरा चरण है। वचन द्वारा न्याय और ताड़ना के माध्यम से मनुष्य परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाने की स्थिति में पहुँचता है, और शुद्ध करने, न्याय करने और प्रकट करने के लिए वचन के उपयोग के माध्यम से मनुष्य के हृदय के भीतर की सभी अशुद्धताओं, धारणाओं, प्रयोजनों और व्यक्तिगत आकांक्षाओं को पूरी तरह से प्रकट किया जाता है। क्योंकि मनुष्य को छुटकारा दिए जाने और उसके पाप क्षमा किए जाने को केवल इतना ही माना जा सकता है कि परमेश्वर मनुष्य के अपराधों का स्मरण नहीं करता और उसके साथ अपराधों के अनुसार व्यवहार नहीं करता। किंतु जब मनुष्य को, जो कि देह में रहता है, पाप से मुक्त नहीं किया गया है, तो वह निरंतर अपना भ्रष्ट शैतानी स्वभाव प्रकट करते हुए केवल पाप करता रह सकता है। यही वह जीवन है, जो मनुष्य जीता है—पाप करने और क्षमा किए जाने का एक अंतहीन चक्र। अधिकतर मनुष्य दिन में सिर्फ इसलिए पाप करते हैं, ताकि शाम को उन्हें स्वीकार कर सकें। इस प्रकार, भले ही पापबलि मनुष्य के लिए हमेशा के लिए प्रभावी हो, फिर भी वह मनुष्य को पाप से बचाने में सक्षम नहीं होगी। उद्धार का केवल आधा कार्य ही पूरा किया गया है, क्योंकि मनुष्य में अभी भी भ्रष्ट स्वभाव है। उदाहरण के लिए, जब लोगों को पता चला कि वे मोआब के वंशज हैं, तो उन्होंने शिकायत के बोल बोलने शुरू कर दिए, जीवन का अनुसरण करना छोड़ दिया, और पूरी तरह से नकारात्मक हो गए। क्या यह इस बात को नहीं दर्शाता कि मानवजाति अभी भी परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन पूरी तरह से समर्पित होने में असमर्थ है? क्या यह ठीक उनका भ्रष्ट शैतानी स्वभाव नहीं है? जब तुम्हें ताड़ना का भागी नहीं बनाया गया था, तो तुम्हारे हाथ अन्य सबके हाथों से ऊँचे उठे हुए थे, यहाँ तक कि यीशु के हाथों से भी ऊँचे। और तुम ऊँची आवाज़ में पुकार रहे थे : "परमेश्वर के प्रिय पुत्र बनो! परमेश्वर के अंतरंग बनो! हम मर जाएँगे, पर शैतान के आगे नहीं झुकेंगे! बूढ़े शैतान के विरुद्ध विद्रोह करो! बड़े लाल अजगर के विरुद्ध विद्रोह करो! बड़ा लाल अजगर दीन-हीन होकर सत्ता से गिर जाए! परमेश्वर हमें पूरा करे!" तुम्हारी पुकार अन्य सबसे ऊँची थीं। किंतु फिर ताड़ना का समय आया और एक बार फिर मनुष्यों का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हुआ। फिर उनकी पुकार बंद हो गई और उनका संकल्प टूट गया। यही मनुष्य की भ्रष्टता है; यह पाप से ज्यादा गहरी दौड़ रही है, इसे शैतान द्वारा स्थापित किया गया है और यह मनुष्य के भीतर गहराई से जड़ जमाए हुए है। मनुष्य के लिए अपने पापों से अवगत होना आसान नहीं है; उसके पास अपनी गहरी जमी हुई प्रकृति को पहचानने का कोई उपाय नहीं है, और उसे यह परिणाम प्राप्त करने के लिए वचन के न्याय पर भरोसा करना चाहिए। केवल इसी प्रकार से मनुष्य इस बिंदु से आगे धीरे-धीरे बदल सकता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4)

अंत के दिनों में मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति समर्पण के लिए पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है

परमेश्वर द्वारा मनुष्य की पूर्णता किन साधनों से संपन्न होती है? यह उसके धार्मिक स्वभाव द्वारा पूरी होती है। परमेश्वर के स्वभाव में मुख्यतः धार्मिकता, क्रोध, भव्यता, न्याय और शाप शामिल हैं, और वह मनुष्य को प्राथमिक रूप से न्याय द्वारा पूर्ण बनाता है। कुछ लोग नहीं समझते और पूछते हैं कि क्यों परमेश्वर केवल न्याय और शाप के द्वारा ही मनुष्य को पूर्ण बना सकता है। वे कहते हैं, "यदि परमेश्वर मनुष्य को शाप दे, तो क्या वह मर नहीं जाएगा? यदि परमेश्वर मनुष्य का न्याय करे, तो क्या वह दोषी नहीं ठहरेगा? तब वह कैसे पूर्ण बनाया जा सकता है?" ऐसे शब्द उन लोगों के होते हैं जो परमेश्वर के कार्य को नहीं जानते। परमेश्वर मनुष्य की अवज्ञा को शापित करता है और वह मनुष्य के पापों का न्याय करता है। यद्यपि वह बिना किसी संवेदना के कठोरता से बोलता है, फिर भी वह उन सबको प्रकट करता है जो मनुष्य के भीतर होता है, और इन कठोर वचनों के द्वारा वह उन सब बातों को प्रकट करता है जो मूलभूत रूप से मनुष्य के भीतर होती हैं, फिर भी ऐसे न्याय द्वारा वह मनुष्य को देह के सार का गहन ज्ञान प्रदान करता है, और इस प्रकार मनुष्य परमेश्वर के समक्ष समर्पण कर देता है। मनुष्य की देह पापमय और शैतान की है, यह अवज्ञाकारी है, और परमेश्वर की ताड़ना की पात्र है। इसलिए, मनुष्य को स्वयं का ज्ञान प्रदान करने के लिए परमेश्वर के न्याय के वचनों से उसका सामना और हर प्रकार का शोधन परम आवश्यक है; केवल तभी परमेश्वर का कार्य प्रभावी हो सकता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो

इस युग के दौरान परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला कार्य मुख्य रूप से मनुष्य के जीवन के लिए वचनों का पोषण देना; मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव और उसकी प्रकृति के सार को उजागर करना; और धर्म संबंधी धारणाओं, सामंती सोच, पुरानी पड़ चुकी सोच, और मनुष्य के ज्ञान और संस्कृति को समाप्त करना है। इन सभी चीजों को परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर करने के माध्यम से शुद्ध किया जाना है। अंत के दिनों में, मनुष्य को पूर्ण करने के लिए परमेश्वर चिह्नों और चमत्कारों का नहीं, वचनों का उपयोग करता है। वह मनुष्य को उजागर करने, उसका न्याय करने, उसे ताड़ना देने और उसे पूर्ण बनाने के लिए वचनों का उपयोग करता है, ताकि परमेश्वर के वचनों में मनुष्य परमेश्वर की बुद्धि और मनोरमता देखने लगे, और परमेश्वर के स्वभाव को समझने लगे, और ताकि परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मनुष्य परमेश्वर के कर्मों को निहारे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आज परमेश्वर के कार्य को जानना

परमेश्वर के पास मनुष्य को पूर्ण बनाने के अनेक साधन हैं। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से निपटने के लिए वह समस्त प्रकार के परिवेशों का उपयोग करता है, और मनुष्य को अनावृत करने के लिए विभिन्न चीजों का प्रयोग करता है; एक ओर वह मनुष्य के साथ निपटता है, दूसरी ओर मनुष्य को अनावृत करता है, और तीसरी ओर वह मनुष्य को उजागर करता है, उसके हृदय की गहराइयों में स्थित "रहस्यों" को खोदकर और उजागर करते हुए, और मनुष्य की अनेक अवस्थाएँ प्रकट करके वह उसे उसकी प्रकृति दिखाता है। परमेश्वर मनुष्य को अनेक विधियों से पूर्ण बनाता है—प्रकाशन द्वारा, मनुष्य के साथ व्यवहार करके, मनुष्य के शुद्धिकरण द्वारा, और ताड़ना द्वारा—जिससे मनुष्य जान सके कि परमेश्वर व्यावहारिक है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल उन्हें ही पूर्ण बनाया जा सकता है जो अभ्यास पर ध्यान देते हैं

मनुष्य का सारा जीवन शैतान के अधीन बीतता है, और ऐसा एक भी इंसान नहीं है जो अपने बलबूते पर खुद को शैतान के प्रभाव से आजाद कर सके। सभी लोग भ्रष्टता और खोखलेपन में, बिना किसी अर्थ या मूल्य के, एक अशुद्ध संसार में रहते हैं; वे शरीर के लिए, वासना के लिए और शैतान के लिए बहुत लापरवाही भरा जीवन बिताते हैं। उनके अस्तित्व का कोई मूल्य नहीं है। मनुष्य उस सत्य को खोज पाने में असमर्थ है जो उसे शैतान के प्रभाव से मुक्त कर दे। यद्यपि मनुष्य परमेश्वर पर विश्वास करता है, बाइबल पढ़ता है, फिर भी वह यह नहीं समझ पाता कि अपने-आपको शैतान के नियंत्रण से कैसे मुक्त करे। विभिन्न युगों में, बहुत ही कम लोगों ने इस रहस्य को जाना है, बहुत ही कम लोगों ने इसे समझा है। वैसे तो, मनुष्य शैतान से और देह से घृणा करता है, फिर भी वह नहीं जानता कि अपने-आपको शैतान के लुभावने प्रभाव से कैसे बचाए। क्या आज भी तुम लोग शैतान के अधीन नहीं हो? तुम लोग अपने अवज्ञाकारी कार्यों पर पछताते नहीं हो, और यह तो बिलकुल भी महसूस नहीं करते कि तुम अशुद्ध और अवज्ञाकारी हो। परमेश्वर का विरोध करके भी तुम लोगों को मन की शांति मिलती है और तुम्हें शांतचित्तता का एहसास होता है। क्या तुम्हारी यह शांतचित्तता इसलिए नहीं है क्योंकि तुम भ्रष्ट हो? क्या यह मन की शांति तुम्हारी अवज्ञा से नहीं उपजती है? मनुष्य एक मानवीय नरक में रहता है, वह शैतान के अंधेरे प्रभाव में रहता है; पूरी धरती पर, प्रेत मनुष्य के साथ-साथ जीते हैं, और मनुष्य की देह का अतिक्रमण करते हैं। पृथ्वी पर तुम किसी सुंदर स्वर्गलोक में नहीं रहते। जहाँ तुम रहते हो वह दुष्ट आत्मा का संसार है, एक मानवीय नरक है, अधोलोक है। यदि मनुष्य को शुद्ध न किया जाए, तो वह मलिन ही रहता है; यदि परमेश्वर उसकी सुरक्षा और देखभाल न करे, तो वह शैतान का बंदी ही बना रहता है; यदि उसका न्याय और उसकी ताड़ना नहीं की जाए, तो उसके पास शैतान के बुरे प्रभाव के दमन से बचने का कोई उपाय नहीं होगा। जो भ्रष्ट स्वभाव तुम दिखाते हो और जो अवज्ञाकारी व्यवहार तुम करते हो, वह इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि तुम अभी भी शैतान के अधीन जी रहे हो। यदि तुम्हारे मस्तिष्क और विचारों को शुद्ध न किया गया, और तुम्हारे स्वभाव का न्याय न हुआ और उसे ताड़ना न दी गई, तो इसका अर्थ है कि तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व को अभी भी शैतान के द्वारा ही नियंत्रित किया जा रहा है, तुम्हारा मस्तिष्क शैतान के द्वारा ही नियंत्रित किया जा रहा है, तुम्हारे विचार कपटपूर्ण तरीके से शैतान के द्वारा ही इस्तेमाल किए जा रहे हैं, और तुम्हारा पूरा अस्तित्व शैतान के हाथों नियंत्रित हो रहा है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान' से उद्धृत

मनुष्य शरीर के बीच रहता है, जिसका मतलब है कि वह मानवीय नरक में रहता है, और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बगैर, मनुष्य शैतान के समान ही अशुद्ध है। मनुष्य पवित्र कैसे हो सकता है? पतरस मानता था कि परमेश्वर की ताड़ना और उसका न्याय मनुष्य की सबसे बड़ी सुरक्षा और महान अनुग्रह है। परमेश्वर की ताड़ना और न्याय से ही मनुष्य जाग सकता है, और शरीर और शैतान से घृणा कर सकता है। परमेश्वर का कठोर अनुशासन मनुष्य को शैतान के प्रभाव से मुक्त करता है, उसे उसके खुद के छोटे-से संसार से मुक्त करता है, और उसे परमेश्वर की उपस्थिति के प्रकाश में जीवन बिताने का अवसर देता है। ताड़ना और न्याय से बेहतर कोई उद्धार नहीं है! पतरस ने प्रार्थना की, "हे परमेश्वर! जब तक तू मुझे ताड़ना देता और मेरा न्याय करता रहेगा, मुझे पता होगा कि तूने मुझे नहीं छोड़ा है। भले ही तू मुझे आनंद या शांति न दे, और मुझे कष्ट में रहने दे, और मुझे अनगिनत ताड़नाओं से प्रताड़ित करे, किंतु जब तक तू मुझे छोड़ेगा नहीं, तब तक मेरा हृदय सुकून में रहेगा। आज, तेरी ताड़ना और न्याय मेरी बेहतरीन सुरक्षा और महानतम आशीष बन गए हैं। जो अनुग्रह तू मुझे देता है वह मेरी सुरक्षा करता है। जो अनुग्रह आज तू मुझे देता है वह तेरे धार्मिक स्वभाव की अभिव्यक्ति है, और ताड़ना और न्याय है; इसके अतिरिक्त, यह एक परीक्षा है, और इससे भी बढ़कर, यह एक कष्टों भरा जीवनयापन है।" पतरस ने दैहिक सुख को एक तरफ रखकर, एक ज्यादा गहरे प्रेम और ज्यादा बड़ी सुरक्षा की खोज की, क्योंकि उसने परमेश्वर की ताड़ना और न्याय से बहुत सारा अनुग्रह हासिल कर लिया था। अपने जीवन में, यदि मनुष्य शुद्ध होकर अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहता है, यदि वह एक सार्थक जीवन बिताना चाहता है, और एक प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाना चाहता है, तो उसे परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करना चाहिए, और उसे परमेश्वर के अनुशासन और प्रहार को अपने-आपसे दूर नहीं होने देना चाहिए, ताकि वह खुद को शैतान की चालाकी और प्रभाव से मुक्त कर सके, और परमेश्वर के प्रकाश में जीवन बिता सके। यह जान लो कि परमेश्वर की ताड़ना और न्याय प्रकाश है, मनुष्य के उद्धार का प्रकाश है, और मनुष्य के लिए इससे बेहतर कोई आशीष, अनुग्रह या सुरक्षा नहीं है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान' से उद्धृत

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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बाइबल कहती है कि प्रभु यीशु का बपतिस्मा होने के बाद, स्वर्ग के द्वार खुल गए थे, और पवित्र आत्मा एक कबूतर की तरह प्रभु यीशु पर उतर आया था, एक आवाज ने कहा था: "यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ" (मत्ती 3:17)। और हम सभी विश्वासी मानते हैं कि प्रभु यीशु ही मसीह यानी परमेश्वर के पुत्र हैं। फिर भी आप लोगों ने यह गवाही दी है कि देहधारी मसीह परमेश्वर का प्रकटन यानी स्वयं परमेश्वर हैं, यह कि प्रभु यीशु स्वयं परमेश्वर हैं और सर्वशक्तिमान परमेश्वर भी स्वयं परमेश्वर हैं। यह बात हमारे लिए काफ़ी रहस्यमयी है और हमारी पिछली समझ से अलग है। तो क्या देहधारी मसीह स्वयं परमेश्वर हैं या परमेश्वर के पुत्र हैं? दोनों ही स्थितियां हमें उचित लगती हैं, और दोनों ही बाइबल के अनुरूप हैं। तो कौन सी समझ सही है?

उत्तर: आप लोगों ने जो सवाल उठाया है ठीक वही सवाल है जिसे ज्यादातर विश्वासियों को समझने में परेशानी होती है। जब देहधारी प्रभु यीशु मानवजाति...

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